Author Topic: Poems & Article by Dr Anil Karki- डॉ.अनिल कार्की के लेख और कवितायें  (Read 15661 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
Anil Karki
12 hrs ·
महाकाली पर बाँध
(लम्बी कविता का एक छोटा अंश आप सब के लिए)
ठगी जाती है
जब एक नदी
तब उसके किनारों की
आबादी भी ठग ली जाती है
ठग ली जाती हैं
सरल पशुओं की आवाजें
ठगे रह जाते पुल
जिनसे होकर
मनुष्य आये थे धरती पर
वह सेतु
जिनके दम से टिके थे
रोटी बेटी के संबन्ध
सभ्यताओं से वर्तमान तक
नदी के ठगे जाने के बाद
प्यास तक पहुँचने के
सबसे सही रास्ते ठग लिये जाते हैं
ठग ली जाती है
पंछियों की प्यास
बिजली के तारों के बहाने
नदी को ठग लिए जाने के बाद
अबोध बूढ़े गूंगे देवता भी
खुद को ठगा सा महसूस करते हैं
जो कामगार सौकारों
चरवाहों के पीछे पीछे
चैमास की नदी तैर के
आर-पार जाया करते थे
दरअसल नदी का ठगा जाना
मनुष्यता को ठग लिए जाने की
सबसे नई और बड़ी घटना है
इस दुनिया की।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
मुलुक
कुमाउनी साहित्य और संस्कृति की ब्लॉग पत्रिका

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015
अनिल कार्कीकि कहानि मथुरियक बकर

हिंदी से अनुवाद
-डाॅ. यशपाल सिंह रावत

अनुवादक् तरफ भे 
य कहानिक् मंचन निर्देशन् शुभाष चंद्रा ज्यू ले प्रसिद्ध कुमाउनी कविगिर्दाक् बरसी में मल्लीताल नैनीताल शैले हाॅल में करौ, अनुनाद सम्मान द्विहजार चैदहक् सम्मान प्राप्त युवा कवि कथाकार कार्की ज्यूकि य कहानि ’भ्यास कथा तथा अन्य कहानियाँ‘ नामक् संकलन् में दखल प्रकाशन् भै उणि छू। उनर कहानी संसार में पहाड़ में बजार, सिध्-साध् मैसक् बदलण और स्वार्थ भरि रिश्तोंक् संसार देखिईं। य कहानि में जाँ मथुरि में सिध्-साध् पहाड़ बसूँ वा् दानसिंह जस् धूर्त आजक् मैस ले देखि जाँ। कारकि ज्यू कुमाउनी कहानीकार श्रीबंधु बोराक् जन्म भूमि बेरिनागक् पीपलतड़ गूँक् छन्।

       मथुरि सिध् दिमागक मैस बिल्कुल न छी, न वीक दिमाग ठीक चलछि। नान् छना उकै लकु मार गयोछि, जै कारण उ सीध ढंगल हिट्ले न सकन और साफ बोलि ले न सगन। पहाड़ में कहावत छू कि ’डुण पाजि, काण् खाजी और लाट उत्पाती हूं।‘ मथुरि ले कम नहा, वील आपुण जीवन में कभै हार न मानि। उ तो नानतिनन वाल आदिम छू। या वीक बार में कैई जाओ तो वीक घर में सैणि छू, भरी पूरी परिवार छू। यो अलग ढंगक् मैसकि आपुण एक भाषा छू, जकै गूँ लोग समझ तो सगनन, लेकिन वीक दगाड़ बोल नी सगन।
       ब्यावकै अनियार हुण बखत उ लड़खडू़नैं टार्च ली भैर ऊणछी तो पाल् गूँ लोगों ले वीक त्यरछ-म्यरछ टार्चक फोकस हिलूणक कारण उकै पछणि दी और कूण पैठन कि “उ तो जरूर मथुरि हुन्यल”। जब उ उनार मुखअक समणिले पुजिभैर कूण पैठअ कि “म्यार बकर हरा ग्यो, बताओ धै को-को घा काटणि ही जाराछि बण! अगर तिमिल ले म्यार बकर कति द्यखौ तो बताओ मैंकैं, मैं तो दिन भर परेशान है गईं आज।” घा काटणि वालनैल् छाजन लै भे भ्यारकै देख भैर कूण पंैठीं- “नै नै जिभौज्यू हमिल न दैय्ख! होय दानसिंह कैं जरूर देखौ ’पात्लि गड़ा‘ तरफ कान् में बडि़याठ धरि भेर लकाड़नहि जाणछी कि पत्त उनिल देखौ जब? य बात सुणि भेर मथुरियल आपुण टार्चक बटन में काटी-फाटी बुड़ अंगुल धर भे पाल गूँ बे मल्धार तक अन्यारमें आपुण नान्छनाक् दगडु़ दानसिंहक् गुन्याव तक पुजौ तो वाँ पेली बे दानसिंह ठाड़ छि। जसै् दानसिंहल् मथुरि कैं देखो तो गरम जोशक दगाड़ नमस्कार कर और तुरंत पुछण पैठ् कि “त्यर बकर हरा र हुन्यल न आज? तू ले यार? कि बार छू आज?” मथुरि आपुण भाषा में बोलण लागौ ’मनलबार!‘ आज तो मंगलबार छू। दानसिंहल् मथुरि कैं नड़क्या भेर को “यले क्वे बार छू आपुण दगडु़क् घर उणक! बुधबाराक् दिन आ जनै!”
       मथुरि कैं लागौ कि क्वै भारि गलती है गे आज उ कयाँ, य सोचि भेर मथुरि झैपण पैठौ। असलमें बचपनक् दगड़ु जै भ्यो दानसिंह मथुरियक्, दगड़ में माछ मारी भ्याय दुयिनले। और तो और जब मथुरि कंै लकु पडौ़ ठीक उदिन बयावक चपेट में उन-उनै बचि छि दानसिंह ले। लेकिन जदिनभे घर गृहस्थी हैगे, उदिन भै दुयिनाक खुट् जस बाधि गईं। आब कभै-कभै मिलनन् तो दागाड़ में एक बीड़ जतुक पी सकनन् बस। और तो और कबखतै कैका दुकान में या हिटनबाट् भेंट हंै जैं जबत एक दुसर् छैं इतुकै पूछि सकनन् कि नानतिन कस छिन यार! मथुरि न दानसिंहक् बार् में पुछि सकँू और न दानसिंह मथुरि छै कै सकूँ कि “कस छै रे तू?” लेकिन आज दानसिंह ले कूण पैठ् “ठीक टैम में आरछै रे! इदू सालन में पैल बखत फुरसतल भेट हुणैं, आब् खाण खा भैर जालैं!” मथुरि कैं लागो कि बकर खोजणि ही नै, बल्कि उ दगड़ु खोजणि आ रौ। उकैं नान्छनानक् दगड़ु दानसिंह याद एगो जैक दगाड़ उ गङक् रिवाड़ में दिन भरि बजरी में नाङगड़ पडि़ रुछि और गरम हुण में गंङ में डुबकी लगूछि, फिर गरम बजरी में पड़ी जाछि। कधेलि पेटक ओर तो कधेली पीठक ओर। लेकिन आब् उ यस बिती अनुभव छि कि जकंै क्वे अनुभवक न्यात याद कर सकछी। मथुरि या दानसिंह जोर-जोरल धात् लगै भेर यस ले न कैं सगछि कि हमिल गंङ में नाङड़ ना। लेकिन उ जरूर आपुण च्यालनन् छैं कैं सगछि कि “अगर गंङ में नाणि जाणछा तो बजरी में न खेलिया, आँख भतौर लै जाल और शरीर काउ पड़ जाल, जल्दी-जल्दी नैं भैर घर आया, दिन बिथत न करिया और वैं न रया।” पैली और आज में भौते फरक है ग्यो मथुरि कूण पैठ् “मैं न रुकनि दानसिंह म्यार बकर...”
       दानसिंहल् जवाब द्यो कि “नै-नै मैं क्या न सुणनि, तुकै रुकण पड़ल, आज नई फसलक नई खाण छू हमार घर, शिकार बणा राखो और थ्वाड़ लाल शराब ले छू। ग्यूंक् कटै् और पिसै ले हैगे आज, ईष्ठ-मितुर सब आरान, कदुक भल संजोेग छू कि तु ले आरछ, आब नै न कये।”
इदुक में दानसिंहक् चेलिल् मथुरियक हाथ में चहाक् गिलास थमा द्यो, मथुरि यस माय देखि भैर खुश है ग्योछि, उकैं लागअ कि
कधैलि दानसिंह कैं आपुण घर बुला भैर यस खातिरदारी करुल कि उलै याद धरल् और मथुरि कूण पैठ् “पर...दान सिंह मैं तो बकरक् बारमें खोज-खबर करणहि आरछि भाई...”
       दानसिंह कैं फिर खीझ भै और कूण पैठ् “भोई कर लिये खोज-खबर, कैका गोरु-बाछों दगाड़ लागि ग्यो न्यल, भोई पत्त् चलि जाल, अछयान बाघ ले न लागि रअ जंगल, तु चिंता न कर, भोई मिल जाल त्यार बकर।”
आब मथुरि चुप है ग्योछि और नौ-रवाट् पाकण लागि रौछि। मेहमान सब एक जाग गुन्यावमें बैठ ग्याछि। बाँजक लकाड़क् आग् में चढि़ लू भध्याव् में शिकारक् भिटकण आवाजक बीचमें, शराबक बोतलकैं ताउ में दानसिंहले हल्क कूणले मारी जबत ख्याटक् आवाजक दगाड़ बोतलक शील खुलि गे और चाखमें बैठ भैर स्टीलक् गिलास में शराब हालि भेर दानसिंहल् छाजबे भ्यारकै देखौ और धात् लगूँण पैठ् “अरे थ्वाड़ राॅग् शिकार निकालि भै तो दिओ।”
       थ्वाड़ देर में दानसिंहक् घरवालि एक थाई में सुकि शिकार चाख में धरि भैर आगछि तो फिर दुईनल् पूरि बोतल पी दे। आब् उनार अणकसि बातोंनक् न पूँछड़ पत्त छि और न हीं ख्वारक। मथुरि तो आड़-तिरछ पैलि भै छि। शराब पी भैर उ ज्यादा त्यरछै है ग्योछी। जब दानसिंहल् वींहैं मजाक कर भै कौ- “चल पैं आब सोमबार बे मंगल इतवार तकक् नाम बता दे यार मथुरि।” तो वील बत्तीक् हल्क् उज्याव में आपुण बुँ हाथक बुरमट्ठी आंगुल आपुण टिट् िअंगुलक् पैली पाय में राखि भैर गिड़न शुरू कर् पैठौं- “चों, मनल, पुच्छ, भीपें, चुक्क्ल, छनज, इताल” मथुरि लाटक् यस बुलण सुणि भैर दानसिंह हँस ग्यो और दानसिंह देखि भेर मथुरि, और फिर दुईय् हसैण पै गईं, मजाक-मजाक में सामणि धरी बत्ती जमीन में घुरि गै, और मिट्टीतेलक बास पुर भतर फैल गै। जब तक दानसिंह बत्ती जुगुत में लागिरछि तब तक मथुरियल आपुण चार सैल वाल टार्च निकालि भैर आपुण टार्च जला दे और टार्चक फोकस टैड़-म्यड़ हिलण-हिलण घरक धुरि में टेकि ग्योछि, तब वील ध्यानल देखौ कि जै जाग् टार्चक फोकस् अटक् रोछि उ जाग् धड़है अलग बकरक् ख्वर लटकी छि। मथुरि चैंकौ और फिर उकैं आपुण बकरक् याद आ गेछि, वील ध्यानल् चा जबू तो आपुण बकर कैं पछणि ग्योछि, किलैकि वीक काऊँ बकरक् चानि में सफेद बालनकि चिंदी छि, फिर वील टार्च कैं हटै भैर दानसिंहक् तरफ हीं लगा द्यो। उकैं लागो कि दानसिंहल् खिला-पिला भै मूतल चुट्ठै दी। वीक मन भ्यो कि अल्लै कैं द्यूँ उहैं “साल म्यार बकर मैंकैं खिला भैर, त्यरि तौलि त्यार मुख में रौलि कर दयो त्वील।” लेकिन जब वील दानसिंहकंै घूरौ तो दान सिंह झिझक भै इदुकै कै बैठ कि “बकरक मुनि छू”
       मथुरि जल्दी-जल्दी उठौ और दानसिंहक् घर वालन छै भली कै मिलि भैर टार्च जला भैर घर ही बाट लागि ग्यो। शायद उधैल रातक दस-ग्यारह बाजि रौ हुन्याल, मथुरि क्वेेले दार्शनिक सवालल न टकराईं और सुन्न झै है ग्योछि। करीब आधुक बाट हिट भैर आपुण हैं कूण लागौ - “ठीक भ्यो कि मैंल दानसिंह छ न कय कि य म्यारअ बकर छू...कि पत्त् जब म्यर बकर न छि, चनेल बकर और ले तो है सकनन्। अगर म्यार बकर हुन तो दानसिंह मैकैं क्या खिलूँन वीक शिकार? क्या पिलून लाल शराब? कति मैं उधेलि कै दिनि कि म्यार बकर मैंकैणि खिलूणरछै तू चोर साल... तो कि इज्जत बचनि इष्ट-मितुरन में म्यार बचपनक दगड़ु दानसिंहकि। चलो आज एक पाप हुणल बचि ग्यो म्यार हाथों...”
       फिर उ द्विमन है ग्योछि “दानसिंहकैं बिना म्यार बताय कसिकै पत्त् चल् कि म्यार बकर हरारौ...। और शिकार ले भौत कौंल छि पठ्क जस। म्यार बकर ले आठ-नौ महीणक तो छि...”फिर वील खुद छै को “नै-नै बचपनक् दगणु छू दानसिंह, खानदानी आदिम छू कभै यस न कर सगन।” लेकिन बात कंै उलझण जै पैठी मथुरि कंै, और घरक् करीब-करीब पुजण में जब वीक नशस् उतर ग्योछि तो कूण पैठ्- उ म्यर बकर छि, आज तो पुर इलाक में कैलै बकर न काट, फिर दानसिंह शिकार कां भैर ला्? जब उ रात्त बण् लकाड़ काटणि जारहि तो दुकान कबखत ग्यो? चुत्ति साल लकाड़नक दगाड़ म्यार बकर ले काटि भै ला हुन्यल।
मथुरियल कुछ देर बाद सोचि भैर कौ “नै-नै कैछैं य बात बतूण ले पाप होल। दानसिंहक् करम उकै दुखाल एक दिन, बचपनक् दगड़ु छू म्यार। मैल वीहैं दगडु़ कै राखौ, आब मैकैं कूण पड़ल कि बकर कै बाघ लिगौ, पाल गूँ घा काटणि वालनल् बकर में बाघ कैं झपटण देख् िभेलि। बैंकि आज बे कभै दानसिंहक् दगाड़ बात नि करूँ।” वील द्वार खोलौ जब् मथुरियक घरवालि कौ- “क्वै खोज-खबर मिली?”
       मथुरियल को होय मधुली मिलि! हमार बकर कैं कुकुरि बाघ लिजारौ मधुली!
       मधुलील मथुरि कैं पाणिक गिलास थमा भैर को “क्वे बात न, आब्बै थ्वाड़ दिनन में बकर फिर ब्याणि छू, फिर उस्सै चनेलि पाठ् द्यौल हमार बकर। दुख किलै मनणछा कि चिंता करण आब्!” जवाब में मथुरि इदुकै कैं सगौ कि “बकर तो फिर पाठि देलि मधुली, पर नान्छनक् दगडु़ दानसिंह काँ भै मिलल!
एक लम्ब् सांस ले भैर मथुरि बाभ्यो निवारक् खाट में चधरलि मुँख ढकि भैर पडि़ ग्यो।”

पत्त-
डाॅ. यशपाल सिंह रावत
मार्फत् श्री मुन्ना जोशी
नियर् डी. एस. बी. परिसर्
तल्लीताल गेट नैनीताल।
पिन कोड- 263002

http://hamarmuluk.blogspot.in/2015/01/blog-post_30.html?spref=fb

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
माउनी साहित्य और संस्कृति की ब्लॉग पत्रिका

गुरुवार, 29 जनवरी 2015
कुमाउँनी कविता की परंपरा एवं कुमाउँनी कविता के सामाजिक सरोकार

अनिल कार्की 
यशपाल सिंह रावत
दिव्या पाठक

कुमाऊँ शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में भिन्न-भिन्न धारणाएं प्रमुख हैं- “(1) कुमू या कुमाऊँ शब्द कुर्मांचल का तद्भव है। अल्मोड़े के दक्षिण पूर्व में चंपावत के निकट कानद्यो नामक पर्वत है, जिसका आकार कूर्मं जैसा है, इस पर्वत शिखर की ऊँचाई सात हजार फिट है। किंवदंती है कि भगवान विष्णु ने कूर्मं अवतार के समय इस पर्वत शिखर पर तीन हजार वर्ष तक तपस्या की थी। इसी कूर्मं के नाम से इस पर्वत के आस-पास का भू-भाग कूर्मांचल कहलाया। बाद में सम्पूर्ण कुमाऊँ क्षेत्र के लिए यह शब्द कूर्मांचल या कुमाऊँ के रूप में व्यवहृत होने लगा। कूर्मं से कुमू या कूर्मांचल से कुमाऊँ शब्द का विकास निम्न रूप से हुआ। 1.कूर्मांचल-कुम्माअओ-कुमओ-कुमऊ/कुमू/कुमौं/कुमाऊँ 2.कूर्म-कुम्म-कुमूँ/कुमौं/कुमाऊँ। (2) इस क्षेत्र के लोग खूब “कमाऊ” हंै इसलिए इस क्षेत्र का नाम ’कमाऊ‘ या ’कुमाऊँ‘ पड़ा। (3) “कालू वजीर” के नाम से इस क्षेत्र का नाम कुमाऊँ पड़ा। राजा ज्ञानचंद के दरबार में कालू वजीर का वर्णन आता है। कालू से इस क्षेत्र का नाम “कालि कुमूँ” पड़ा, जो बाद में केवल ’कुमूँ‘ भी कहा जाने लगा। इसी ’कुमूँ‘ शब्द का विकास कुमाऊँ के रूप में हुआ। (4) एक कुमाउनी लोग गाथा के अनुसार, त्रेता युग में रावण के भाई कुम्भकरण की खोपड़ी राम के वाणों से कटकर इसी क्षेत्र में गिरी थी, जिससे वहाँ एक तालाब निर्मित हो गया था। कालान्तर कुम्भकरण के नाम के आधार पर इस क्षेत्र का नाम ’कुमूँ‘ चल पड़ा।”1
“हजारों हजार साल की उम्र वाले कुमाउनी साहित्य का नागर रूप दो सौ साल से भी कम पुराना है। लोकरत्न गुमानी से प्रारम्भ; कृष्णा पाण्डे (1800-1850), शिवदत्त सती (1848-1910) द्वारा आगे बढ़ी। यह काव्य परम्परा गौर्दा (1872-1939) के समय अपनी यादगार ऊँचाइयों तक पहुँची। तब से अब तक कुमाउनी काव्य परम्परा की निरन्तरता बनी हुई है।”2
सामान्यतः कुमाऊँ में लोकरत्न गुमानी से पूर्व लोक-साहित्य मौखिक परंपरा में समृद्ध और प्रचुर मात्रा में था, इसके प्रमाण आज भी यहाँ के जनजीवन और कामगार मेहनतकशों, किसानों, ग्वालों एवं घसियारों व पोषित पति की पतिकाओं के कंठों में गूँज रहा है, जिसकी अनुगूँज से आज भी आम जनमानस श्रम के सौन्दर्य को गीतों में रूपायतित करता है। हजारों साल पहले से उत्तराखंड कुमाऊँ में कला, संगीत व साहित्य यहाँ के जन-जीवन का अमूल्य औजार रहा है। कला के क्षेत्र में आदिम भित्ति चित्र गुफा में लखुउडयार इसका उत्कृष्ट नमूना है, तो जागर, संगीत और उसके आदिम रूपों का श्रेष्ठ नमूना इसलिए बिना उत्तराखंड के लोक-साहित्य को समझे हम उत्तराखंड की काव्य परंपरा का मूल्यांकन नहीं कर सकते, क्योंकि कालान्तर में उत्तराखंड के कवियों ने अपने लोक-साहित्य से ही स्थानीय चेतनाओं को ग्रहण करके, उन्हें विराट जनमानस तक लिपिबद्ध कर पहुँचाया। भले ही साहित्य की स्थानीयता कितनी ही सीमित क्यों न हो, लेकिन उसकी चेतना वैश्विक चेतना के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलने में सक्षम है इसीलिए कुमाऊँ का जिक्र पुराणों एवं वेदों में तो है ही, लेकिन साथ ही पृथ्वीराज चैहान से लेकर सूफी कवि जायसी तक सभी के साहित्य में कहीं-न-कहीं मिल जाता है। चन्दवरदाई कृत पृथ्वीराज रासो (1225-1249ई.) में कुमाऊँ शब्द का प्रयोग हुआ है, उदाहरण के रूप में ये पंक्तियां उद्धृत की जा रही हैं-
    “सवलष्प उत्तर सयल, कुमाऊँ गढ़ दूरंग।
राजतराज कुमोदमणि हय गय द्रिब्ब अभंग।
अतः कहा जा सकता है कि कूर्मांचल या कूर्म शब्द का प्रयोग इससे भी पूर्व प्रचलन में रहा होगा, जिसका अपभ्रंश रूप ’कुमाऊँ‘ कवि चंद वरदायी द्वारा प्रयुक्त हुआ है। भक्ति काल के कवियों में मलिक मुहम्मद जायसी कृत ’पद्मावत‘ (1540ई.) तथा उसमान कृत ’चित्रावली‘ (1613ई.) में ’कुमाऊँ‘ का उल्लेख मिलता है। रीतिकाल में महाकवि भूषण (1673ई.) की रचनाओं में भी ’कुमाऊँ‘ का उल्लेख हुआ है।”3 अनवरत युद्धों, आपसी टकरावों के बावजूद मौखिक साहित्य तो बना रहा, लेकिन लिखित साहित्य का अभाव खस, कत्यूरी और चंद राजाओं के शासन काल तक विकसित नहीं हो पाया, क्योंकि अभिजात वर्ग की भाषा संस्कृत थी। कुमाउनी का प्रयोग केवल संपर्क भाषा के रूप में हुआ, बल्कि यह भी कह सकते हैं कि कुमाउनी कालीपार व काली वार (नेपाल-भारत) के नागरों की आपसी भाषा थी। लेकिन संस्कृत के लिये यहाँ के लोग ख़ासकर एक वर्ग विशेष विद्याध्ययन के लिए काशी, बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद पहुँचे। अंग्रेजी शासन काल के दौरान यहाँ के लोगों की जातीय अस्मिताएं व स्व का जागरण हुआ। अंग्रेजों को भी राज-काज चलाने के लिए आम नागरिकों की भाषा कुमाउनी सीखने की आवश्यकता पड़ी। इस चेतना बोध से लैस कवि ने जब यहाँ के अभाव, प्रकृति, जनजीवन को व्यक्त करने के लिए कलम उठाई तो कुमाउनी लिखित साहित्य का अंकुरण हुआ। इस तरह से गुमानी पहले प्रारंभिक कवि थे। मूलतः गंगोलीहाट निवासी गुमानी ने अपने इलाके की आत्मीय छवि प्रस्तुत करते हुए लिखा-
“केला, निम्बू, ओखड़, दाडि़म, रेखू, नारिंग, आदो, दही।
खासो भात जमोलि को, कलकलो भूना गडरी गवा,
च्यूड़ा सद्य उत्यलो दूध बाकलो घ्यू गाय को दाडे़ दार।
खानि सुन्दर मोडि़याँ धबडुबा गंगावलि रौणियाँ।।”4
डाॅ. देवसिंह पोखरिया के अनुसार, परिनिष्ठित साहित्य परंपरा को चार भागों में विभाजित किया गया है- प्रारंभिक युग (सन्1800-1850ई. तक), पूर्व मध्ययुग (सन् 1850-1900ई. तक), उत्तर मध्ययुग (सन् 1900 से 1950ई. तक), आधुनिक युग (सन् 1950 से आज तक)।
उत्तराखंड कुमाऊँ के प्रारंभिक युग (सन्1800-1850ई. तक) में गुमानी और कृष्णानंद पाण्डे प्रमुख कवि हैं। इसके तत्पश्चात् पूर्व मध्य युग (सन्1850-1900) में चिंतामणि जोशी की प्रमुख रचनाएं दुर्गा पाठ सार तथा सत्य नारायण कथा और भगवद्गीता हैं। इसी युग के दूसरे कवि हैं नैन सुख पांडे, जिनका जन्म-मृत्य का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। गौरीदत्त पांडे बल्दी गाड़ निवासी कवि भी महत्वपूर्ण हैं। माना जाता है कि यह गुमानी की परंपरा के कवि थे। इस युग के सबसे सशक्त स्वर हैं- शिवदत्त शर्मा, जिनकी आठ रचनाओं का प्रकाशन हुआ, जिनमें भाभर गीत एवं घसियारी नाटक प्रमुख हैं। इसके अलावा इस युग में दो अन्य कवियों के नाम भी पता चलते हैं, दिवान सिंह और लीलाधर जोशी। उत्तर मध्ययुग (सन्1900-1950ई.) जिसके प्रमुख कवि हैं, गौरी दत्त पाण्डे गौर्दा (1872-1939ई.)। गौर्दा को कुमाउनी साहित्य का स्वर्ण शिखर भी कहा जाता है। राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत यह कवि नव जागरण एवं राष्ट्रीय आंदोलन में उत्तराखंड का प्रतिनिधित्व करता कवि है। इनका संग्रह ’गौरी गुटका‘ नाम से संग्रहित है। इसके बाद पंडित शिरोमणि पाठक (1890-1955) तथा पिथौरागढ़ के कुजौली ग्राम में जन्मे श्री लालमणि उप्रेती (1900-1963) प्रमुख हंै। इस क्रम में छायावाद के प्रमुख कवि सुमित्रानंदन पंत (1900-19977ई.) ने भी कुमाउनी में रचना की, लेकिन उनकी एक ही कविता कुमाउनी में प्राप्त होती है, जिसका नाम है ’बुरूँश‘। इसके बाद पंडित श्यामादत्त पंत (1901-1967ई.) प्रमुख हंै, जिनका जन्म रानीखेत में हुआ। इन्होंने हिंदी और कुमाउनी दोनों में रचना लिखीं, इनके काव्य संग्रह का नाम है ’दातुलैधार‘ जो समसामयिक विषयों पर लिखी गई कविताओं का संग्रह है। तुकबंदी और मनोरंजन की दृष्टि से भी इन्होंने ’क सुवा कथ क‘ जैसी सामाजिक यथार्थ की कविताएं लिखीं हैं। तत्पश्चात् कविराज रामदत्त पंत (1902-1968ई.) प्रमुख कवि हैं। इनकी प्रमुख रचनाएं ’गीत माला‘, ’गांधीगीत‘, ’गीतबाद‘ और ’क्वीण कैण‘ हैं। चंद्र लाल चैधरी इस युग के प्रमुख कवि हैं। इसके अलावा बचीराम, हीराबल्लभ शर्मा, मथुरादत्त पांडे डियर, पिताम्बर पांडे, चंद्र सिंह तड़ागी, भोलादत्त भोला, पूर्णानंद भट्ट, चिंतामणि पालीवाल तथा जयंति पंत इस युग के प्रमुख कवि हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि कुमाउनी की कविता परंपरा स्वयं में भरी पूरी सम्पूर्ण कविता परंपरा है, जिसका विकास अनवरत रूप से आज भी कुमाउनी जनमानस के अन्तर्विरोधों एवं संघर्षों को स्वर दे रहा है और आगे भी देता रहेगा। आधुनिक युग (1950 से अब तक)- “इस युग के कुमाउनी साहित्य पर इन सबका गहन प्रभाव पड़ा। अनेक साहित्यिक मतवादों ने भी इसे प्रभावित किया। कुमाउनी का परंपरागत कथ्य और शिल्प इस युग में आकर टूट गया। यद्यपि आधुनिक युग के प्रथम दशक तक पूर्ववर्ती साहित्यिक प्रवृत्तियों का ही प्राधान्य रहा।
आधुनिक युग के आरंभ में कुछ रचनाकार उत्तरमध्य युग से ही रचना करते आ रहे थे। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में देवीदत्त पंत ’हुड़किया‘, नरसिंह हीत बिष्ट, लक्ष्मीदेवी, मथुरादत्त जोशी, नित्यानंद बिष्ट, नारायण राम आर्य, भवान सिंह मेहता, गंगासिंह बिष्ट, लक्ष्मीदेवी, मथुरादत्त जोशी, नित्यानंद बिष्ट, नारायण राम आर्य, गोविंद शर्मा, आनंद सिंह हरिसिंह, बचीराम आर्य, श्रीकृष्ण पंत (बचीराम), बचेसिंह पटवाल, केशवदत्त पाण्डे, मथुरादत्त बेलवाल, दामोदर उपाध्याय, रामकुँवर रौतेला गुँसाई, बागगिरि, भवानी राम, पातेराम शर्मा, ख्यालीराम शिल्पकार, कुलायंद भारतीय, शिवदत्त शर्मा, गुलाबसिंह, चंदनसिंह, करम सिंह भंडारी, पूरन चंद्र जोशी, नित्यानंद जोशी, कैलाश उप्रेती, ताराराम आर्य, चंद्रशेखर, हरीसिंह, स्व. मोहन सिंह डोलिया, गोपाल बाबू गोस्वामी, बहादुर बोरा ’श्री बंधु‘ आदि रचनाकारों ने अपनी कृतियों से कुमाउनी साहित्य की श्री वृद्धि की है।
आधुनिक युग के सशक्त रचनाकारों में चारुचंद्र पांडे, गोपाल दत्त तिवाड़ी, ब्रजेन्द्र साह, पूरनसिंह नेगी, नंदकुमार उप्रेती, शैलेश मटियानी, वंशीधर पाठक ’जिज्ञासु‘, शेरसिंह बिष्ट ’अनपढ़‘, गोपाल दत्त भट्ट, हीरासिंह राणा, गिरीश तिवाड़ी, भवानी दत्त पंत ’दीपाधार‘, श्रीमती देवकी महरा, सैमुअल माधोसिंह, दुर्गेश पंत, सुरेश पाण्डे, जुगल किशोर पेटशाली, राजेन्द्र बोरा, बालमसिंह जनौटी, मथुरा दत्त, महेन्द्र मटियानी, जगदीश जोशी आदि के नाम प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हंै।”5 लेकिन हम यहाँ केवल प्रमुख कुमाउनी कवियों का ही सार संक्षेप वर्णन करते हुए उनकी कविताओं के सामाजिक सरोकारों पर प्रकाश डालेंगे।
प्रारंभिक युग (सन्1800-1850ई. तक)
लोक रत्न पंत गुमानी (1790-1846) “उस युग के रचनाकार थे, जब पश्चिम में अमेरिका की राज्य क्रांति तथा फ्रांस की सामाजिक क्रांति हो चुकी थी और औद्योगिक क्रान्ति पूरे पश्चिमी यूरोप को नियंत्रित करने जा रही थी। यूरोप की राज्य व्यवस्थायें साम्राज्यों और उपनिवेशों को अधिकार में कर रही थीं और भारत देश छोटी-छोटी क्षेत्रीय ताकतों में विभाजित हो गया था। अभी हिमालय में औपनिवेशिक शासक नहीं पहुँचे थे, प्रदेश में उनका वर्चस्व कायम हो चुका था। यह संयोग रोचक है कि जिस साल गुमानी का जन्म हुआ उसी साल गोरखा शासकों ने कुमाऊँ पर अधिकार किया और यूरोप में नेपोलियन का युग शुरू हुआ।
जब गुमानी ने लिखना शुरू किया होगा तब तक कुमाऊँ में गोरखों के स्थान पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का आगमन हो चुका था। गार्डनर, ट्रेल या फिर लसिंग्ट्न कमिश्नरों का युग चल रहा था। पूर्व शासकों के समय प्रचलित बहुत-सी शोषक-उत्पीड़क प्रथाएँ जारी थीं। साथ ही गोरखों के मुकाबले कम्पनी शासन को उदार मानने का भ्रम भी मौजूद था।
उस युग में गुमानी ने जो भी लिखा उसका जितना भी हिस्सा बचा है, उसके आधार पर उसे नकारना संभव नहीं है।”6
“गुमानी की कविता में पर्वतीय लोक जीवन का स्वाभाविक चित्रांकन हुआ है। उन्होंने हलवाहा, विधवा एवं सामान्य पहाड़ी जन का सहज और आत्मीय चित्रण किया है। डाॅ. शेखर पाठक सामाजिक चेतना की दृष्टि से गुमानी में कथ्य की शिथिलता पाते हैं। किंतु डाॅ. भगत सिंह उन्हें प्रथम राष्ट्रीय कवि मानते हैं। गियर्सन गुमानी को कुमाउनी का प्रथम कवि स्वीकार करते हैं और इधर अधिकांश समीक्षक उन्हें हिंदी खड़ीबोली के प्रथम कवि का दर्जा देते हैं।
राजा बड़ा दशरथ की बुआरी,
कन्या पनी भूप बड़ा जनक की।
क्या भंदिहन रावन बस पर्या की,
    हा राम हा देवर तात मातः”7
गुमानी की कविताओं में जहां एक ओर आम जनमानस की यथास्थिति का वर्णन गोरखा राज की क्रूरताएं देखने को मिलती हैं, वहीं वह सचेत रूप से अंग्रेजों की शासन व्यवस्था और उनके स्वभाव को भी अपनी कविता में चित्रित करते हैं। इसी मामले में गुमानी व्यापक चेतनाओं के प्रथम कवि हैं।
“दूर विलायत जल का रस्ता करा जहाज सवारी है
सारे हिंदूस्तान भरे की धरती वस कर डारि है,
और बड़े शाहों में सब में धाक बड़ी कुछ भारी है,
कहै गुमानी धन्य फिरंगी तेरी किस्मत न्यारी है।”8
इस युग के दूसरे प्रमुख कवि कृष्णानंद पाण्डे माने जाते हैं। इनका जन्म 1800 में अल्मोड़ा के पाटिया गाँव में हुआ। गुमानी द्वारा स्थापित कुमाउनी काव्य परंपरा को एक तरह से इन्होंने ही आगे बढ़ाया था। इनकी कविताएं पुस्तकाकार में नहीं मिलती। गंगादत्त उप्रेती ने इनकी रचनाओं का संग्रह और अनुवाद किया। 1910ई. में ग्रिर्यसन ने इनकी कविताओं का प्रकाशन ’इंडियन एन्टिक्वैरी‘ में किया। इनकी कविता में भक्ति, समाज सुधार, व्यंग्य-विनोद पूर्ण कविताएं मिलती हैं। युगीन सामाजिक एवं राजनीतिक विषमताओं पर भी इन्होंने करारी चोट की। इनकी मृत्यु 50 वर्ष की अवस्था में सन् 1850 वर्ष में हुई। उनकी मुलुक कुमाऊँ तथा कलयुग वर्णन कविताएं उन्नीसवीं सदी के आरंभिक कुमाउनी समाज का व्यापक साँचा खींचती हैं। देखें-
“मुलुकिया यारो कलयुग देखो।
घर-कुडि़ बेचि बेर इस्तीफा लेखो।।
बद्री-केदार बड़ भया धाम।
धर्म-कर्म की कै न्हाती फाम।।”9

पूर्व मध्ययुग (सन् 1850-1900ई. तक)
इस युग के प्रमुख कवि चिन्तामणि ज्योतिषी तल्ला दन्या अल्मोड़ा (सन्1874-1934) हैं। इन्होंने सन् 1897 में दुर्गा (चंडी) पाठसार को कुमाउनी भाषा में अनुवाद किया। इनके उपलब्ध कुमाउनी अनुवाद हैं- ’सत्यनारायण कथा‘ तथा ’भगवद्गीता‘। नैन सुख पाण्डे पिलखवा गांव के निवासी थे। इनकी मृत्यु और जन्म के बारे में विद्वान केवल यह मानते आये हैं कि इनका जन्म 1850 के बाद ही हुआ होगा। इनकी कुछ कुमाउनी स्फुट रचनाएं मिलती हैं। इनकी एक रचना है, जिसमें इन्होंने घरेलू काम धंधों में आने वाले औजारों का वर्णन किया है। गौरी दत्त पाण्डे के जीवन के बारे में भी विद्वानों को बहुत कुछ पता नहीं है, परंतु यह माना जाता है कि ये उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक विद्यमान थे। शिवदत्त सती ’शर्मा‘ कुमाउनी साहित्य में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। इनका जन्म 1848 में फलदाकोट अल्मोड़ा में हुआ। ये बचपन से कृषि कार्य से जुड़े रहे। अन्धविश्वासों से दूर समाज सुधार के प्रबल समर्थक थे। इनकी आठ रचनाओं का उल्लेख विद्वान अक्सर करते हैं। मित्र विनोद, घसियारी नाटक, गोपी गीत, बुद्धि प्रवेश भाग-1, बुद्धि प्रवेश भाग-2, बुद्धि प्रवेश भाग-3, रुक्मणि विवाह, प्रेम और मोह। घसियारी नाटक में पहाड़ी जन जीवन की कठिनाईयों और अंग्रेजों द्वारा किए जाने वाले मनमाने व्यवहार और उत्पीड़न को नाटकीय शैली में प्रस्तुत किया है। गोपी देवी का गीत में स्त्री जीवन और उसके वैविध्य का कारुणिक चित्रण हुआ है। बांकी संकलनों में बुद्धि प्रवेश एक, दो, तीन जनहित में हिंदी और कुमाउनी गीतों का संकलन है। कई विद्वान इन्हें कुमानी गज़ल लिखने की परम्परा का प्रथम कवि भी कहते हैं।
“हमार कैबेर धमैकि बात छिपाई निजानी।
साँचि बात झुटि लै यो बताई नि जानी।।”10

उत्तर मध्ययुग (सन् 1950 से आज तक)
गौर्दा का जन्म अगस्त 1872 अक्टूबर में हुआ। गौर्दा का साहित्य कुमाउनी साहित्य का स्वणिम शिखर है। उनकी चेतना और साहित्यिक समझ को कुमाउनी साहित्य में कोई नहीं छू पाया है। गौर्दा एक ऐसे समय की उपज थे, जब एक तरफ भारतीय राष्ट्रवाद का उदय हो रहा था और दूसरी ओर स्थानीय जन आन्दोलन स्फूरित हो रहे थे। गौर्दा की चेतना इसी युग में निर्मित हुई। “गौर्दा उन कवियों में हैं, जिन्होंने अपने वर्ग से सीधी मुठभेड़ की। ’गौं कि रानौ या आपु जैसि मैं करो, या मैं जैसि तुम है जाओ‘ ऐसी चुनौती अपने तथाकथित बुद्धिजीवी कहलाने वाले पाखंडी ब्राह्मण समाज को जो वैचारिक बाँझपन से ग्रस्त था गौर्दा ही दे सकता था। उनको पढ़ते हुए मुझे बार-बार निराला याद आते हैं। गौर्दा की यह घोषणा उस समय की है, जब बारातों और उत्सवों में गरीब आदमी को अपनी जमीन गिरवी रखकर पिठावां या दक्षिणा देनी पड़ती थी। वह अपने इस पाखंडी वर्गों से एक सिपाही की तरह लड़ा। इस दोहरे चरित्र की धज्जियां उड़ाई और बखिया उधेड़ दी। गौर्दा अपने समय की जटिलताओं, आन्दोलनों के सच्चे सिपाही हैं। वह अपनी तरह से अपनी युगीन समस्याओं से टकराये। चाहे वह शारदा एक्ट हो, कुली उतार हो, स्वराज के आन्दोलन हों या जातिगत मुद्दे हों, दलितों व शोषितों के दमन के सवाल हों। हालाँकि यहां भी उनकी अपनी सीमाएं हैं, वही सीमाएँ जो उस समय के एक अभिजातीय व्यक्ति की ईमानदार राष्ट्रवादी में बदलने की थीं। इस प्रारंभिक राष्ट्रवादी माहौल में अपने देश और क्षेत्र के प्रति व जन के प्रति गौर्दा में यह ईमानदारी दिखाई देती है।
गौर्दा की यह चेतना व्यक्ति और जाति का अतिक्रण करती हुई पहाड़ी नदी की तेज धार में बहती हुई रूढि़यों और अंधविश्वासों को बहा देती है। इस आधार पर जल, जंगल और जमीनों का यह कवि हमारी कुमाउनी कविता का ध्रुव तारा है, यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी। यदि कुमाउनी कविता में पुनर्जागरण और आधुनिकता की शुरूआत होगी तो गौर्दा इसके पहले कवि होंगे और आने वाले समयों पर उनकी कविता की सदैव आँख रहेगी।”11 इसी आशय में उनकी कविता ’समता धरणी चैंछ सबन कैं‘ शीर्षक के अन्तर्गत लिखा गया है-
“समता धरणी चैंछ सबन कैं।
राजा-परजा, ग्वार-कालन कैं।
वी पछिला द्विजजन हरिजन कैं।”12
“एक ऐसा कवि जो अपने वर्ग से इतने भयानक रूप से टकराता है शायद हिंदी साहित्य में निराला ही ऐसे दूसरे कवि होंगे, जिनके साहस की तुलना हम ‘गौर्दा’ से कर सकते हैं। हमारी कविता धारा का यह अप्रतिम कवि हमारे पूरे लोक को जिस एकता अखंडता के साथ अपनी कविता में व्यक्त करता है, वह उस विराट और महान दुनिया के प्रति आश्वस्त करती हैं, जिसका स्वप्न आज भी हमारे लोग देख रहें है, जिसे एक न एक दिन पूरा होना ही है।
जाति से ब्रह्ममण यह ऐसा पहला कवि भी है, जिसने अपने नाम पर ‘दा’ शब्द लगाया। पहाड़ में ‘दा’ और ‘दाज्यू’ (बड़े भाई के लिए इस्तेमाल होते है) पर दोनों की ही तासीर एकदम भिन्न है और अर्थ में भी दोनों शब्द भिन्न हैं। हालांकि अब यह शब्द सामान्य रूप से प्रचलित हैं। किसी समय इस ‘दा’ शब्द कहने के पीछे एक सचेत किस्म की जातीय अभिजातियता रही है। यह ’दा‘ शब्द आज भी मूल रूप से यहाँ के ‘हलियों’ (हल जोतने वालों), ल्वारों(लोहे का काम करने वालों), ढोलियों (ढोल बजाने वालों), औजियों (कपड़ा सिलने वालों) व निचली जातों के उन मेहनतकश लोगों के लिए इन अभिजातीय फिरकों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है।”13 इसी ’दा‘ शब्द को कालांतर में गिर्दा और शेरदा ने भी अपने उपनामों के माध्यम से व्यक्त करते हुए गौर्दा की चेतना को आगे बढ़ाया।
इससे सहज ही पता चलता है कि गौर्दा की चेतना आखिर किस पक्ष की है। गौर्दा की इस परंपरा में कुमाउनी कविता के लिए आधुनिक युग में जिन दो लोगों ने ’दा‘ शब्द का इस्तेमाल किया, उनकी कविता भी गिर्दा की काव्य चेतना की अगली कड़ी ही है, जिनमें गिर्दा तो गौर्दा को अपना कविता उस्ताद मानते ही हैं, बल्कि शेरदा अनपढ़ की कविता की बनक भी गौदा की काव्य परंपरा से ही चेतना लेती है।
गौर्दा जिन मुद्दों पर अपनी कलम चलाया करते थे, वह मुद्दे आज भी कितने प्रासंगिक और कितने महत्वपूर्ण हैं। स्थानीय चेतना से लेकर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय चेतना को अपनी कविता में समेटने वाला यह कवि वैश्विक ग्लोबल गांव की कल्पना से पूर्व ही अपनी कविता में एक विश्व रचने में माहिर है।
जहाँ गौर्दा ने जातिप्रथा, छूआछूत आदि पर तीखे व्यंग्य किए, वहीं वह तत्कालीन दौर का समर्थ राजनीतिक कवि भी है। “गोलमेज परिषदों की असफलता को कितने अर्थ भरे शब्दों में गूढ़ व्यंग्योक्ति के सहारे कवि ने प्रकट किया यह दर्शनीय है-
यस स्वराज्य मिलाणो, जस कुकरा को ब्याणो।
देखण में दनमन धिनाली कि हूँछ, काम की नै कुछ जाणो।
सब कुछ तुमरो-हात झन लगया- तस ऊ मंत्रि बुलाणो।
(सब कुछ तुम्हारा है, मगर छूना मत, ऐसा वह मंत्री बोला। ऐसा स्वराज्य मिला जैसे कुतिया ब्याई-प्रसस्थ दूध, सब बेकाम)”14

गौर्दा ने चाय लीला, कतवा, गलहार बंधे मातरम्, बुड़ज्यू गांधीज्यू, सुन्दर सुकीला मुसा, दे हो स्वराज्य बिहारी, तू खेल गांधी, लगौ कपालि विभूत, जन होया हिकमत हार, पति राखिया, लुकुड़ा स्वदेशी बणा दि हालौ, धन हो स्वदेशी राई, कब राज ब्याली कब कौ कड़ालो, यसो स्वराज्य मिलाणो, जै जै बागनाथ, अगस्ति उदय, सुणिये विपति हमारी, हमारा गौं की काथा, अणहोति काला, बणि जनी सिरताज, लागि गोली कसी चोट, देश को संग जनै छोडि़या, भोट-भिक्षा, दीनी फसक बड़ी मार, होलि कसिकै खेलनू, अकाल प्रभाति उनकी प्रमुख रचनाएं हैं। साथ ही उन्होंने छोड़ों गुलामी खिताब जैसी युगीन प्रतिनिधि कविता लिखकर उस दौर में कुमाऊँ का प्रतिनिधित्व किया। उनकी कविता वृ़क्षन को विलाप, प्रकृति के प्रति उनके लगाव का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। गौर्दा की कविताएं और उनकी विषय-वस्तु आने वाले समय में और प्रासंगिक होती जायेंगी।

आधुनिक युग (1950 से अब तक)
शेर सिंह बिष्ट ’अनपढ़‘ (शेरदा) 1933 आधुनिक चेतना से लैस तथा जीवन के तमाम उतार चढ़ाव को देखने वाला यह कवि शेरदा ’अनपढ़‘ वास्तविक रूप में उन कवियों में है, जिनका अनुभव जगत आधुनिक चेतना तथा समकालीन दबावों से अटा पड़ा हुआ है। कुमाउनी कविता का वास्तविक आधुनिकीकरण शेरदा की इस विराट चेतना के साथ ही शुरू होता है। चैदह वर्ष की कम उम्र में यह सेना में भरती हो गए इसीलिए इनकी कविता चेतना में व्यापक अनुभव जगत और राजनीतिक चेतना का प्रभाव दिखता है। 1963 में सेना से अवकाश प्राप्त होने के बाद शेरदा ने भारत सरकार के गीत नाटक प्रभाग में कलाकार की हैसियत से कार्य किया। ये कहानी है नेफा और लद्दाख की, हमर मैं-बाप, हसणकि बहार, दीदी बैणी कविता संग्रह खूब लोकप्रिय हुए। सन् 1981 में अनपढ़ की कुमाउनी कविताओं का संग्रह मेरी लटि-पटि नाम से प्रकाशित हुआ। यही वह कविता संग्रह है, जिसने शेरदा को कुमाउनी साहित्य में सदैव के लिए अमर बना दिया। उनकी इस कविता संग्रह में उनकी कविताएं कुमाउनी कविता की परंपरिक रूढि़यों से आगे निकल गई। शेरदा की प्रमुख कवि कविताएं हैं- “मुर्दाक बयान, एक स्वैण देखनऊँ, जा चेली जा सौरास, हँसूकि डाड़ मारूँ, धन मेर छाति, मौत और मनखी तथा जग जातुरि आदि। उनकी अत्यंत गंभीर कविताएँ हैं। इनमें जीवन-सत्य, दर्शन, आत्मा-परमात्मा, संसार की असारता, माया, सृष्टि, लोक स्वार्थ, जन्म मरण, लोक परलोक, मिट्टी की महक, पौरूष, कर्म, आशा-विश्वास, विवशता, अभाव और यथार्थ सभी का चित्रण मिलता है। उनकी वाणी में सूर, कबीर, तुलसी जाने कौन-कौन एक साथ एकरूप मिलते हैं।”15
शेरदा की तुलना समकालीन विद्वानों ने सूफी कवि जायसी एवं कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूर व निर्गुण शाखा के प्रमुख कवि कबीर से की है। शेरदा की कविता का फलक कितना विस्तृत है इसका अनुमान इस तुलना से लगाया जा सकता है। उनकी कविता मुर्दाक बयान और मौत और मनखी ऐसी कविताएँ हैं, जो उन्हें एक स्वर में स्थान विशेष, क्षेत्र एवं देश की सीमाओं से पार अन्तर्राष्ट्रीय चेतना का कवि बना देती है। उनकी कविता मुर्दाक बयान का उदाहरण देखिए-
“जो दिन अपैट बतूँछी, वी मैं हूँ पैट हौ।
जकैं मैं सौरास बतूँछी, वी म्यर मैत हौ
मायाक मारगाँठ आज, आफी आफी खुजि पड़ौ।
दुनियल तराण लगै दे, फिरि ले हाथ है मुचि पड़ौ।
जनूँ कैं मैंल एकबट्या, उनूँल मैं न्यार करूँं
जनूँ कैं भितरे धरौ, उनूँलै मैं भ्यार धरूँ।
बेई तक आपण, आज निकाऔ निकाऔ हैगे।
पराण लै छुटण नि दी, उठाऔ उठाऔ हैगे।”16
गोपाल दत्त भट्ट 1940 में गरुड़ अल्मोड़ा में जन्म हुआ। धरतीक पीड़ 1982 गोपाल दत्त भट्ट का प्रथम संकलन है। इनकी कविताओं में राष्ट्रीय चेतना, देश भक्ति तथा सामाजिक चेतना दिखाई देती है। अपने पर्वतीय क्षेत्र की कविताएँ भी इन्होंने लिखीं हैं, जिसमें बसंत, ऋतु चैमास की, सौण आगो, रूपसा राजुलि जैसी, धरती च्यापणि और अड़कसी छै तू प्रमुख कविताएँ हैं। उनकी उत्कृष्ट कविताओं में उनैन पीड़ केलेख, पाप छू जून हुण, भुखमारे तारे अमावस्या तक, चंद्रमा को पूरा को पूरा खा जायेंगे, कथन भाव, प्रभाव की सजृना करता है।
“अगासक चुलन
उगै गो ग्यूक जौ र्वाट, जून पुन्योंक
पतणीनैं-औणीं झपाव मारनै-
लाख-लाख नंग भुक तार
यों अमूश जालैं
न्येई जाल, खै जाल
सार्रि सार्रि जून कैं,
तबत् कौनूँ
पाप छू जून हुण पाप छू”17

इसके अलावा इस दौर के कवि मथुरादत्त मठपाल भी प्रमुख हैं। भवानी दत्त पंत दीपाधार 1942 ई. प्रमुख कवि गीतकार हैं तथा प्रसिद्ध गायक हीरा सिंह राणा 1942 ई. उत्तराखंड की सांस्कृतिक चेतना के प्रमुख कवि हैं, जिनमें उनकी कविता मनखौं पड़याव 1987, फूल टिपो टिपो हरै, बखत और हम, टंकाऔ घानी, बुस्यिल ढँुग, महेणि, इटिये माठू माठ प्रमुख कविताएँ हैं।

गिरीश तिवाड़ी ’गिर्दा‘ का जन्म 9 सितम्बर, 1945 को अल्मोड़ा जिले के हवालबाग के ज्योली तल्ला स्यूनारा हुआ था। उन्होंने हाईस्कूल इण्टर काॅलेज अल्मोड़ा से किया। उनके द्वारा रचित रचनाएँ निम्न हैं- पहली किताब जंग किससे लिये (हिंदी कविताएं संकलित हैं), दूसरी किताब जैंता एक दिन तो आलो (कुमाउनी कविताओं का संग्रह है), इसके अतिरिक्त नगाड़े खामोश हैं, सल्लाम वालेकुम, शिखरों के स्वर (1969), हमारी कविता के आँखर(1978), रंग डारी दियो अलबेलिन में (1999) के संपादक हैं। 1998 में उत्तराखंड काव्य का प्रकाशन हुआ। गिर्दा की कविताओं का रचना संसार 1960-61 से 2009 तक रचा गया है।

जैंता एक दिन तो आलो के संबंध में मंगलेश डबराल का कहना है कि “गिर्दा की हिंदी कविताएँ संख्या में कुमाउनी कविताओं से अधिक हैं। क्रान्तिकारी चेतना और व्यंग्य की पैनी धार से लैस इन कविताओं में देश-विदेश के कई जनकवियों की आवाजें भी घुली-मिली हैं। लोर्का, पाब्लो नेरूदा, नाजिम हिकमत, एर्नस्तो कार्देनाल, फैज़ अहमद फैज़ ऐसे कवि हैं, जिनके सरोकारों की ओर गिर्दा बार-बार लौटते हैं और यह कहने की इच्छा होती है कि गिर्दा पहाड़ के नागार्जुन हैं। गिर्दा का व्यक्तित्व भी नागार्जुन से बहुत मिलता है। उसी तरह की फकीरी, फक्कड़पन, यायावरी और समाज से गहरा लगाव। अपने जन की नियति बदलने की निरंतर कोशिश है, यथास्थिति के पोषकों के प्रति लगातार कटाक्ष है और मनुष्यता के लिए एक ऐसी आशा है, जो तमाम दुखों-अभावों से पार पा लेती है। गिर्दा और नागार्जुन की अनेक कविताओं में एक जैसे सरोकार ही नहीं हैं, कहीं-कहीं उनकी संरचना भी एक जैसी दिखती है:
’बहुत कठिन प्रश्न चयन/जिस पर सहमत सब जन
काल के कपाल पर सजे तिलक-चंदन/कंठ-कान-नाक-नयन
सब जिसके गिरवी हों/फिर भी हो खुला मिशन
मंथन की चिंता आसन सिंहासन/बावन, त्रेपन, चैवन‘”18

गिर्दा ने साहित्य जगत में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। वह संस्कृतिकर्मी हैं, उन्होंने हिंदी, कुमाउनी, गढ़वाली में गीत लिखे हैं, जिनमें उत्तराखंड आंदोलन, चिपको आंदोलन, झोड़ा, चांचरी, छपेली व जागर आदि के माध्यम से समाज को परिवर्तित करने पर बल देते हैं। वे हमेशा समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे हैं। गिर्दा को उत्तराखंड का जनवादी कवि माना जाता है। उनकी तुलना देश के प्रमुख जनवादी कवियों के साथ और वाम समर्थक लेखकों के साथ की जाती है।

बालम सिंह जनौटी का जन्म 4 दिसम्बर 1949 में हुआ। बालम सिंह जनौटी तीखे संघर्षों एवं आधुनिक भाव-बोध के साथ-साथ उसकी विसंगतियों के अनमोल कवि हैं। आधुनिक सत्ता और शासन के खिलाफ अपने स्वर बुलंद करने वाला कवि बालम सिंह जनौटी आधुनिकीकरण के तत्पश्चात् बाजार की चपेट में आने वाले गावों का कवि है। यह मुख़तलिब स्वर पहाड़ की असंगति एवं उसकी विसंगतियों के साथ-साथ उसके सहजपन व सरल जीवन को बचाने की छटपटाहट का कवि है। इनकी प्रमुख कविताएँ कुमाउनी भाषा लिजी, कुमाउनी लैंग्वेज, भिसौण, तीन बीघा ज़मीन, नाकसाफ, आत्महत्या, संविधानक पीड़, तस निकरो, आदि हैं। बालम सिंह जनौटी तीखे विद्रोहों का कवि है। संविधानक पीड़ मंे वे लिखते हैं कि
“मैं भारतक संविधान छूँ।
उमरक ज्वान-जमान छूँ।
एक बखत नै
बार बखत,
चिरि, फाडि़, सिणि
बख्यै-टँक्यै हालौ
म्यर आङ
फोडि़, खचोरि, आँख कान!
टोडि़-फतोडि़ टांङ छूँ
मैं भारतक संविधान छूँ”19

राजनीतिक रूप से सचेत कवियों में बालम सिंह जनौटी भी गिर्दा की तरह ही जनवादी परंपरा के कवि ठहरते हैं। जहाँ वह एक तरफ सत्ता और शासन का विरोध तीखे व्यंग्यों से करते हैं, वहीं अपने जनमानस की कमियों को उजागर करने में भी पीछे नहीं हटते हैं। भाषाई साम्राज्यवाद की खड़ी कविता कुमाउनी लैंग्वेज में वह लिखते हैं कि
“हम कुमाउनी कैं आइडैंटीफाई करण में
सैक्सेसफुल हैंगीं
कुमाउनी कौनफ्रेंस वन बाई वन ब्यूटीफूल हैंगीं”
उनकी कविता लोकतंत्र भी आम आदमी के ख़त्म होते लोकतांत्रिक अधिकारों की कविता है। वे लिखते हैं-
नेता लोगन
लोकतंत्र कैं पटकि पटकि भैर मार दे
डाॅक्टरोंल
पोस्टमाटमै रिपोर्ट मे
आत्महत्या करार दे”

शेखर पाठक ने जिन रचनाकारों के नाम उद्धृत किए हैं, वे इस तरह से हैं- “1969 के बाद कुमाउनी के अनेक कवि रचनाकारों का उदय हुआ है। शैलेश मटियानी, मनोहर श्याम जोशी या शिवानी सहित हिंदी जगत के अनेक रचनाकारों ने कुमाउनी भाषा को हिंदी साहित्य में भी प्रस्तुत किया तो कुमाउनी में जगदीश जोशी, राजेन्द्र बोरा, रतन सिंह किरमोलिया, अनिल कार्की, मथुरादत्त मठपाल, रमेश चंद्र शाह, बालम सिंह जनोटी, देवकी मेहरा, महेन्द्र मटियानी, नवीन जोशी, शेर सिंह बिष्ट, मोहन कुमाउनी , हेमन्त बिष्ट, नारायण सिंह बिष्ट, ज्ञान पंत जैसे कवि रचनाकार उभर कर आये।”20

वहीं डाॅ. देवसिंह पोखरिया के अनुसार साठोत्तरी कुमाउनी रचनाकारों की लिस्ट इस तरह से है- “स्व0 चन्द्रपालसिंह नेगी, सुरेश पांडे, नवीन चंद्र जोशी, प्रेमसिंह नेगी, खीमानंद पांडे, हरिश्चंद्र जोशी, महेन्द्र मटियानी, जगदीश जोशी, नवीन बिष्ट, केदारसिंह कुंजवाल, बालमसिंह जनौटी, देवसिंह पोखरिया, रमेशचंद्र साह, कुमारिल पंत, हयात रावत, अनिल भोज, दीपक कार्की, कृपाल दत्त भट्ट, दामोदर जोशी, हेमंत बिष्ट, कुबेरसिंह, कड़ाकोटी, लक्ष्मणसिंह नेगी, रतनसिंह किरमोलिया, तारा पांडे, गंगा प्रसाद पांडे, शंकर दत्त पुजारी, बहादुर बोरा ’श्री बंधु‘, लेखराज सिंह कुम्र्याल, आनंद सिंह नेगी, सुधीर साह, का

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22