Author Topic: Poems & Article by Dr Anil Karki- डॉ.अनिल कार्की के लेख और कवितायें  (Read 8964 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,

We are posting here Poems & article written very young, talented Poet & Researcher Dr Anil Karki. Brief information about Dr Anil Karki :-

Dr. ANIL KUMAR
FATHER ’S NAME : Mr. Vijay Singh
MOTHRE ’S NAME : Mrs. Kheema Karki

DATE OF BIRTH : 20 Jun 1986

LANGUAGE KNOWN : Working knowledge in Hindi, kumanun  Nepali and English.

E.MAIL : anilsingh.karki@gmail.com.
EDUCATIONAL QUALIFICATION :

Ph.D. Hindi : Title “छायावादोर हिंदी की लम्बी कविता में चिंतन दृष्टि एवं रचना में विधान"” Kumaun University, Nainital.

UGC-NET : Qualified (Dec 2012) and (jun 2013)

POST GRADUTION : M.A. in Hindi (passing year 2009) Kumaun

University , Nainital. Dissertation work on “गीतकार प्रतीक मिश्र का व्यक्तित्व कृतित्व "

M.A. in Sociology : (passing year 2013).
GRADUATION : B. Com. (passing year 2007). Kumaun  University Nainital.

HIGHER SECONDARY (10+2) : Passing year 2004,Uttaranchal

 Board of Secondary Education
 CLASS 10th : Passing year 2002, Uttaranchal Board of Education. हदी क लबी किवता म चतन दृि एवं रचना-

WORK EXPERIENCE :

Two years experience of teaching under graduate and post graduate student at D.S.B. Campus Nainital .

 AWARD/REWARD:

1. Recipient of “Hirde Kavi Ratan Samman” at Durg Chhattisgarh.

2. Rewarded “Uni Kavi 2010 Samman” by the renowned poetess Miss Anamika on poem “मौन अपेि&त है” Sponsored by www.hindyugm.com .

3. Rewarded by "राष्ट्र गौरव सम्मान 2007 ” in “Fourth National Shikhar Sahitya Samman Samaroh” Kausani sponsored by “आदिम विकास सीमिति ” and "साहित्य प्रभा  त्रिमासिक प्रत्रिका" held at Kausani, Uttarakhand.

4. Rewarded “युवा ितभा समान 2006” for “ हदी भाषा सािह िवकास म उलेखनीय योगदान” by the Environment and national development minister of government of Moresis in “14th अिखल भारतीय हदी समारोह” अिखल भारतीय हदी सािह  रा&भाषा िवकास संगठन एवं यू० एम० एस० पिका” and “N.B.T.”

5. The book “,भ्यासकथा और अन्य कहानी ” is selected for “अनुनाद समान-2013”.

 PUBLISHED BOOKS :

1- As Author “अभिलाषा  (Hindi poetry book), Himadri publication Kotdwara Uttarakhand.

2- As Editor “संगमन” (National level Hindi poetry book) .

3- “,भ्यासकथा और अन्य कहानी ” publishied by Dkhal publication New Delhi

 ACCEPTED PUBLISHING BOOK:

 उदास बखतो का रमोलिया 

PUBLISHED RESEARCH PAPERS :

1- आँठू (गौरा) लोको!सव भारत व नेपाल क संयु सां0कृितक थात(प1रदृ2य और ासंिगकता) at quest- the journal of ugc asc Nainital(ISSN:09745041 PP-12-16)

2012.

2- मृत्यु पर जीवन के  विजय कवि शेरदा अनपढ़ at likhat padht. blogspot.com .

ACCEPTED / COMMUNICATED RESEARCH PAPERS :

1-उत्तराखंड राज्य के भषेज विकास में श्री प्रजापति जोशी की भूमिका Uttarakhand History and Culture Association M.P.G. College, Masuri, Dehradun

Uttarakhand on 15-16 Oct, 2012 .

2- उराखंड कुमाऊँ नी का क मौिखक परंपरा= म इितहास (.योली गीत के िवशेष संबंध म)Uttarakhand History and Culture Association M.P.G. College, Masuri, Dehradun Uttarakhand on 15-16 Oct, 2012 .

3- आँचरी (परी,मातरी,बयाल) िमथक मा.यता और अंधिव@ास (0कूली छाBा= के बेहोश होने के िवशेष स.दभC म) Uttarakhand History and Culture Association department of history, kumaun university S.S.J.Campus Almora on 21-22 march, 2014.

4- 0याDदे िबखौती मेले का सां0कृितक, ऐितहािसक, सामािजक मह!व Uttarakhand

History and Culture Association department of history, kumaun university S.S.J.Campus Almora on 21-22 march, 2014.

5- आधुिनक

it. Sponsored by महादेवी सृजन पीठ रामगढ़ नैनीताल at Kumaun University

Nainital 26 march, 2014.

6- आचाय* महावीर साद ि+वेदी और हदी नवजागरण के सवाल “खड़ी बोली

एकGपता का H और िIवेदी युग” sponsored by Mahatama Gandhi

International hindi University Verdha and Mahadevi Verma Sarjan Peeth, Kumaun University held on 28-29 Aug,2014.

 EDITING WORK :

“Vihan” Local monthly magazine. Dissertation also done on this magazine by Kumaun University.

 TRANSLATON :

Nepali poetry to Hindi .

हदी समाज और किवता attended and presented self made poetry on

 PUBLISHED ARTICLES :

1. कामरेडानापन से भरी ‘िगदाC’ क दो किवता= पर एक लबी 1टKपणी at anunaad.blogspot.com.

2. कुमाऊँ नी किवता के दशा Mदशा के बहाने anunaad.blogspot.com .

3. More than hundred poems, articles, stories and plays written in many topics.

NATIONAL CONFERENCES, SEMINAR, WAORSHOPS

ATTENDED:

1. च/0 कुं वर ब3ता*वाल क4 किवताएँ और जीवन मूय attended and presented self made poetry on it. Sponsored by महादेवी सृजन पीठ रामगढ़ नैनीताल at

Kumaun University Nainital.

2. गाँधीवादी िश8ा के िविवध आयाम एवं उनक4 ासंिगकता attended and presented a
paper entitled “गाँधी दशCन िविवध आयाम एवं वतCमान िश&ा व0था” sponsored by UGC New Delhi and Gandhi study centre held at Kumaun

University Nainital on 16-17 Mar, 2011.

3. “Social Discrimination” attended and presented a paper entitled

“Uttrakhand woman economic status.”

4. Participated in the National level play workshop organized by the Cultural department Dehradun Uttarakhand and Sanskriti natya academy New Delhi on 15-16 Jun, 2008.

 EXTRA CURRICULAR ACTIVITIES:

1. N.S.S ten days camp certificate.
2. N.C.C. National Integration camp certificate.
3. Acting a play:

• नया मुंशी writer – Anil karki, Director- Mr. Subhash chandra (N.S.D), Sponsored by Ministry of Cultural Department of Indian Government. Bisht. Sponsored by yugmunch Nainital .

• आपदा का हेिलकॉKटर - writer – Anil karki, Director - Mr. Bhaskar
4. Active participation in social and cultural activities.
5. Active participation as a actor in these plays (चेखव क4 कहानीयाँ ‘िशकारी, िग9ट, बेसहरा औरत).

 MEMBERSHIP OF PROFESSIONAL BODIES:

1- Member of organizing committee, second conference of Uttarakhand
History and culture association held on 2-3 March,2012 at Kumaun University Nainital.

OTHER ACTIVITIES:

1- Critical theory and criticism
Critical theory and criticism

2- Cultural studies.

3- Literature
4- Working Knowledge of Computer and Internet.Working Knowledge of Computer and Internet.
5- Knowledge of Hindi and English typing.Knowledge of Hindi and English typing.
6- Good Knowledge of Web searching.Good Knowledge of Web searching.


M S Mehta

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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मैं जब  कविता में रचूंगा
ईजा का चेहरा
नदी लिखूंगा
चिड़ियाँ लिखूंगा
पेड़ लिखूंगा
खेत और नाज की बालियां लिखूंगा

पहाड़ के सबसे ऊँचे भीटे पे
मेमने को दूध पिलाती
घास चरती बकरियां लिखूंगा

मैं जब कविता में
रचूंगा ईजा
उसे चाहा की कटक लिखूंगा
भांग का नमक लिखूंगा
वन भवंरो का शहद लिखूंगा

मैं जब ईजा के बारे में लिखूंगा
गुपचुप की गयी प्रार्थनाओं के बारे में लिखूंगा
भरभाटी ,जू-घर में रखे
अशिका, उचैण
ख्रीज और चावल के दानों के बारे में लिखूंगा
धोती की गाँठ में छिपा के रखे
पैसों के बारे लिखूंगा

ईजा के बारे में लिखते हुए मैं
उदास मगर हँसने वाले चेहरे के बारे में लिखूंगा
खुरदुर कामगार हाथ
चीरे पड़े पैरों के साथ साथ
मोमबत्ती के लेप के बारे में लिखूंगा

ईजा के बारे में लिखते हुए मैं
काज बरियात के बाद
अपने ससुराल लौटने से पहले
देली पूजती
पिल पिल आँसू ढलकाती
गुपचुप सोचने वाली
बहनों के बारे में लिखूंगा

जब लिखूंगा ईजा के बारे में
उसे सैनिक बेटे की वर्दी पर
सीना उचकाते पिता की तरह नहीं
बल्कि बेरोजगार बेटे की
तारीफ में कहे दो शब्दों की तरह लिखूंगा

ईजा के बारे में लिखते हुए
अपनी बेरोजगारी लिखूंगा
अपनी बेरोजगारी लिखते हुए
लुटेरों की सरकार  लिखूंगा
सरकार लिखते हुए
नारे लिखूंगा

और एक दिन ईजा
झल्ला के कहेगी
सरकार के घर आग लगे
बजर पड़े।

अनिल कार्की


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Anil Karki
August 9 at 10:26am · Edited ·

कवि होने से पहले
(इजरायल एम्बेसी द्वारा कुमाउनी साहित्य फेस्टिबल आयोजन का पर्चा पढ़ने के बाद )

जब कलकत्ते में फिरंगी पहुँचा
तो सट्ट से जान लिया था।
गुमानी बामण ने।

गौर्दा तो कविता के उबर
पांडे से गौर्दा बनकर
खुद को कुमाऊं का
भगनोलिया कवि कहने लगा था बल।

शैलेश मटियानी
मटियाली मिट्टी के मटमैले शब्द
जिंदगी भर कपाल में चिपका के
स्वयं को कहता रहा
असंख्य लोक गायकों की सन्तान ।

शेरदा और गिर्दा तो खैर
जितने भ्यार थे
उतने ही भितर भी रहे

माँ कसम
सबके बारे में बात करते हुए मैं
गजबजी जाऊंगा
अगर मैं सीधी बात पर न आया तो

कविता बेल -बूटा पत्ता-गुलाब हो जायेगी
सतझड़ होकर
घाम-पानी में बदल जायेगी
जो सच न बोला तो

पूर्ब देश की मालिका
पछिम् देश की कालिका
उत्तर की ह्युंला
दक्षिण की प्यूंला
सब की सब
रिसा जायेंगी
और रूठ जायेंगी दादियाँ

कितने ही नाथ और सिद्ध टेड़ा कर देंगे मुँह
पुरखे सपने में आ आकर झगड़ेंगे

न कह पाया सच तो
रह भर जाऊंगा भीड़
और जब अकेले में पाया जाऊंगा
महान पुरखे के हाथों दबोच लिया
जाऊंगा

बच तो मैं कैसे ही नहीं सकता अपने समय से
मुझे किसी न किसी का पक्ष तो लेना ही होगा

घेरा तो मैं दूसरी तरफ वालों के हाथ भी जा सकता हूँ
वह राह चलते किसी सुनसान रास्ते पे
चुपलुक्क डाल देंगे मेरे सर पे
झूस वाला काला कम्बल
किसी दिन
हांलाकि वह कितनी ही बार लगा लें घात
मैं दूसरी तरफ के लोगों के हाथ आने से रहा

और अगर पुरखों ने दबोच लिया तो
कितने ही नगाड़े ढोल-दमामे
(दैन और बौं दोनों ही)
कितने ही जगरिये -भगरिये
कितने ही छाला खेलते पवर्तपुत्र
कितनी ऋतुरैन गाती बूढ़ी आमाएं
कितनी कमर दराती ठआंस कर चल रही
इजाओं के हाथ खुले आम घेर लिया जाऊँगा
जब मैं लापरवाह जावानी में ऊँघ रहा हूँगा।

तब उस वक्त मुझसे पूछा जाएगा
बता रे बोसिया हौसिया मैस
तेरी जात-खान क्या है
तेरी राग -भाग क्या है
अपनी झाल-ताल बता
थात बता
बता रे गुखात बता जल्दी ।
और अगर नहीं बताया तो
सिसोण घास से झोल दिया जाऊँगा

क्या मैं इस खतरनाक खिसियाट और
शरम से बच पाउँगा तब ?
बताओ तो रे
दाज्यू,
भुला, और बैणी
कहाँ लुकाउंगा अपना मूख
कैसे पोछ पाएंगे तब हम अपने मुंह पर से
बेज्जती का लसलसा थूक।

मैं इस बेज्जती से बचना चाहता हूँ
अपनी तरह के लोगो के बीच रहना चाहता हूँ
फसक पतैड़ लगाना चाहता हूँ
सब कुछ जान समझ के भी
भ्यास,अड़भ्यास,अड़ियाठ बना रहना चाहता हूँ
अब यही मेरा राजनैतिक स्टैंड मान लिया जाय

कम से कम
इजरायल एम्बेसी द्वारा
कुमाउनी लिट्टचर फेस्टबिल
से दूर रहना चाहता हूँ
भरत भूषण से दूर रहना चाहता हूँ

मैं बघयांत पड़ा हुआ
एक पहाड़ी हूँ
और अब बिल्लों से भी डरता हूँ
भयभीत होता हूँ

वैसे भी इजरायल को मैंने
अमेरिका के लठैत के रूप में पहचाना है
मेरे लिये उसकी कोई दूसरी पहचान कर पाना
मुमकिन नहीं
वह कंक्रीट के बाड़े में बच्चों को भून देता है बल
खून बहाता है बल

मैं भी कई बार फिलिस्तीन हुआ हूँ
अपने जीवन में
मेरा पहाड़
मेरा मुलुक भी
कभी कभी
बड़ी कम्पनियों को फिलिस्तीन दिखाई देने लगता है
बाज और चील दोनों ही का साथ है यह
एक झप्टेगा
और दूसरा आँख निकाल खायेगा

जब मैं यह सब सोच रहा था
मैंने अपने जंगलों की तरफ देखा
पुरखों की धधाधाद सुनी
नदियों से उठती सोड़ सुनी
खोलों से टकराती आवाज ने मुझसे कहा
चेला उनयान्त लग गयी रे ।

मैंने धार पार घास को जाती
पहाड़ी स्त्री का पेट देखा
बों दमामे सा पुष्ट उभर कर आगे आया हुआ
लगा यों ही नहीं कहता था
केशव अनुरागी
ढोल को ब्रह्माण्ड

लेकिन मैं डर गया हूँ इस वक्त
इसलिए कि वह इतनी दूर से
यहाँ आ पहुंचे हैं
हमारी कविता और सतरंगे जीवन को
पर्यटक बनके देखने
लार छोड़ते हुए

मैं डर गया हूँ इसलिये नहीं कि
अब क्या होगा हमारे पहाड़ का
बल्कि इसलिए कि
वह क्या का क्या बना डालेंगे इसे

मैं जो अपने लोगों का मुँह लगाया कवि हूँ
मुझे जरूरत ही क्या है
दूसरे की बारात में नाचने की
यहीं मारूँगा फसक
यहीं हूँगा जो भी होना है मुझे

लेकिन झूट नहीं बोलूंगा
साथ नहीं छोड़ूंगा
कवि होने से पहले
मेरा पहाड़ी होना बचा रहे
बचा रहे मेरा पहाड़
उसके बखडुवे बकैत बचे रहें
पाखुड़ी-जांगड़ी में तात बची रही

धुनि में आग बची रहे
कवि होने से पहले बचा रहे
चौमास
मंडुवा गोडती जँभाधूत औरतें बची रहें
बचे रहे उनके मजबूत कुमथले
बाईस पुल्ले हरे घास के भी
बची रहे उनकी अग्निशिखा के फूल सी
लपट वाली जिजीविषा
अपनी वनफूली महक के साथ

मेरा कवि होना
कवि बने रहना उतना जरूरी नहीं है
जितना की बचे रहना
पहाड़ी स्त्री के पेट से बों दमामे जैसा
उदर से बाहर झांकते
रतनुवा का
असल क्रिसान के चेले का
असल फसकबाज
भविष्य का

लेकिन वो जो कुमाउँनी कविता
फिस्टेबिल वाले हैं
उनसे कहना भर है
कि कब तक भला कविता को
अपनी तरफ का बताते रहोगे तुम लोग
कब तक

याद रखना
हमारी सबसे खूबसूरत कविता
कभी तुम्हारे साथ मंच पर खड़ी नहीं होगी।
वह सुदूर सीढ़ीदार पहाड़ी खेतों में
इस वक्त भी हंस खिलखिला रही होगी
अपनी ठसक में।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Anil Karki
August 5 at 9:31am · Edited ·

हमारे कवि वीरेन डंगवाल बचे रहें आप पहाड़ और हिमाल में बर्फ रहे जब तक । 1970 में इलाहाबाद में लिखी गई उनकी कविता राम सिंह आप सब के लिए ।

दो रात और तीन दिन का सफ़र तय करके
छुट्टी पर अपने घर जा रहा है रामसिंह
रामसिंह अपना वार्निश की महक मारता ट्रंक खोलो
अपनी गन्दी जर्सी उतार कर कलफ़दार वर्दी पहन लो
रम की बोतलों को हिफ़ाज़त से रख लो रामसिंह, वक़्त ख़राब है ;
खुश होओ, तनो, बस, घर में बैठो, घर चलो ।

तुम्हारी याददाश्त बढ़िया है रामसिंह
पहाड़ होते थे अच्छे मौक़े के मुताबिक
कत्थई-सफ़ेद-हरे में बदले हुए
पानी की तरह साफ़
ख़ुशी होती थी
तुम कनटोप पहन कर चाय पीते थे पीतल के चमकदार गिलास में
घड़े में, गड़ी हई दौलत की तरह रक्खा गुड़ होता था
हवा में मशक्कत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे फ़ौजियों की तरह
नींद में सुबकते घरों पर गिरा करती थी चट्टानें
तुम्हारा बाप
मरा करता था लाम पर अँगरेज़ बहादुर की ख़िदमत करता
माँ सारी रात रात रोती घूमती थी
भोर में जाती चार मील पानी भरने
घरों के भीतर तक घुस आया करता था बाघ
भूत होते थे
सीले हुए कमरों में
बिल्ली की तरह कलपती हई माँ होती थी, बिल्ली की तरह
पिता लाम पर कटा करते थे
ख़िदमत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे सिपाहियों की तरह ;
सड़क होती थी अपरिचित जगहों के कौतुक तुम तक लाती हई
मोटर में बैठ कर घर से भागा करते थे रामसिंह
बीहड़ प्रदेश की तरफ़ ।

तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह ?
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उँगली हो ?
किसका उठा हुआ हाथ ?
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफ़ीस दस्ताना ?
ज़िन्दा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार ?
कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूँढते रहते हैं ?
जो रोज़ रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं
वो माहिर लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं ।

पहले वे तुम्हें कायदे से बन्दूक पकड़ना सिखाते हैं
फिर एक पुतले के सामने खड़ा करते हैं
यह पुतला है रामसिंह, बदमाश पुतला
इसे गोली मार दो, इसे संगीन भोंक दो
उसके बाद वे तुम्हें आदमी के सामने खड़ा करते हैं
ये पुतले हैं रामसिंह बदमाश पुतले
इन्हें गोली मार दो, इन्हें संगीन भोंक दो, इन्हें... इन्हें... इन्हें...
वे तुम पर खुश होते हैं -- तुम्हें बख़्शीश देते हैं
तुम्हारे सीने पर कपड़े के रंगीन फूल बाँधते हैं
तुम्हें तीन जोड़ा वर्दी, चमकदार जूते
और उन्हें चमकाने की पॉलिश देते हैं
खेलने के लिए बन्दूक और नंगीं तस्वीरें
खाने के लिए भरपेट खाना, सस्ती शराब
वे तुम्हें गौरव देते हैं और इसके बदले
तुमसे तुम्हारे निर्दोष हाथ और घास काटती हई
लडकियों से बचपन में सीखे गए गीत ले लेते हैं

सचमुच वे बहुत माहिर हैं रामसिंह
और तुम्हारी याददाश्त वाकई बहुत बढ़िया है |

बहुत घुमावदार है आगे का रास्ता
इस पर तुम्हें चक्कर आएँगे रामसिंह मगर तुम्हें चलना ही है
क्योंकि ऐन इस पहाड़ की पसली पर
अटका है तुम्हारा गाँव

इसलिए चलो, अब ज़रा अपने बूटों के तस्में तो कस लो
कन्धे से लटका ट्राँजिस्टर बुझा दो तो खबरें आने से पहले
हाँ, अब चलो गाड़ी में बैठ जाओ, डरो नहीं
गुस्सा नहीं करो, तनो

ठीक है अब ज़रा ऑंखें बन्द करो रामसिंह
और अपनी पत्थर की छत से
ओस के टपकने की आवाज़ को याद करो
सूर्य के पत्ते की तरह काँपना
हवा में आसमान का फड़फड़ाना
गायों का रंभाते हुए भागना
बर्फ़ के ख़िलाफ़ लोगों और पेड़ों का इकठ्ठा होना
अच्छी ख़बर की तरह वसन्त का आना
आदमी का हर पल, हर पल मौसम और पहाड़ों से लड़ना
कभी न भरने वाले ज़ख़्म की तरह पेट
देवदार पर लगे ख़ुशबूदार शहद के छत्ते
पहला वर्णाक्षर लिख लेने का रोमाँच
और अपनी माँ की कल्पना याद करो
याद करो कि वह किसका ख़ून होता है
जो उतर आता है तुम्हारी आँखों में
गोली चलने से पहले हर बार ?

कहाँ की होती है वह मिटटी
जो हर रोज़ साफ़ करने के बावजूद
तुम्हारे बूटों के तलवों में चिपक जाती है ?

कौन होते हैं वे लोग जो जब मरते हैं
तो उस वक्त भी नफ़रत से आँख उठाकर तुम्हें देखते हैं ?

आँखे मूँदने से पहले याद करो रामसिंह और चलो ।

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Anil Karki
July 12 ·

आज पनि जाऊं जाऊं
भोल पनि जाऊं जाऊं
पोर्खि त नै जूंला
स्टेशन सम्म पुगाई दे मलाइ
पछिल वीराना ह्वे जूंला

यह गीत आप सभी साथियों न (जो सभी उत्तखंड से हैं) सूना ही होगा । तो दगड़ियो कबूतरी दीदी का नाती और अब हम सब का अपना भाई पवन दीप राजन इंडिया वाइस में आ रहा टीवी में यह भी पता होगा । भौत साधारण परिवार का यह असाधारण बच्चा पहले भी सबसे कम उम्र में तबला बादन में लिम्का वर्ड रिकार्ड बना चूका है । और एक महान लोक गायन की परंपरा से आता है । बहुत प्रतिभावान है बहुत मुश्किल से यहाँ पहुंचा है अब इस कार्यक्रम में भोटिंग भी होगी भल तो निवेदन है इस हमारी इस प्रतिभा को सभी साथी अपना स्नेह देंगे और विजयी बनाएंगे ।
यह सोचकर कि-
शिव की जटा से निकले है तो सागर तक बहना होगा
ताल तैलल्या बन कर रहना अपने बस क़ी बात नहीं

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Anil Karki
July 3 ·

रमाशंकर यादव व हमारे प्यारे विद्रोही जी की कविता के साथ

मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Anil Karki
July 2 · Edited ·

चौमास पर एक कविता
(Yuva Deep Pathak के लिए )

अगास पताल
और चाल का चम्म से चमकना
घड़म्म-चड़म्म
कोई नई बात नहीं है रे
भुला

देख
चैमास के गुय्या नाले की ठसक
वार पार लग के बह रहा है
अपने जैसा किसी को नी समझ रहा
इस बखत

देख
खड़न्चे की घास से
सारा ढकी गया है बाटा
कहाँ जो जाऊँ हो रखी है
ग्वालों -घसारों और बटारों को

देख
कहाँ कहाँ से
र्टरा रहा है
भेकुना मास्त

देख
गिदोले कैसे बिलबिला रहे
जैसे कि
हमारे नाग देवता
वो ही होगें

देख
गनेल कैसे हिला रहा
अपने दो जूँगे
जैसे कि रिभड़ जायेगा
बैलों से

भुला
क्याप्प अनमनाट चिता रहा हूँ रे
इस बखत
बाप कसम
भौत खतरनाक टैम है यार ये

उठ कम्मर कस
देख तो भ्यार
मोदी के अच्छे दिन तो नी खड़े है कहीं
पाख के बन्धार

देख तो सही तू

भुला
बीतेगा रे चैमास
रास्ते दिखगें साफ टकटकाने
मार्क्स कका ने कहा है
थिरथाम रह

सुखंगे गुय्या नाले
खाद में बदल जायेगा गिदोला
सूख जायेगें गनेल दिवारों पर ही

हमारे खेतों से
भेकुना भाग जायेगा
फसल पकने से पहले

भुला
नया नाज कूटेंगे-पीसेंगे रे हम
बनेगा
नौरोटा-नौभात
ले भमक के जलेगी आग

कहेंगे हम
एक पतिया बैगन
घम्मोड़ धुस्सा।

देख तो सही तू
देखता जा

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Anil Karki
 

दो कुमाउँनी+नेपाली न्यौल्या /न्योलियाँ साभार न्योली सतसई से !आप सबके लिए

इति लम्बी काली गंगा , कै जाँजर छिरी
जान्या हो कि माया मारि उन्या हो कि फिरी

भावार्थ
(इतनी लम्बी काली नदी किस गह्वर में समा जाती होगी?
तुम क्या प्रेम तोड़ कर चली ही गयी हो ? या लौट कर फिर आओगी?)

धोव्यानि कापड़ा धूंछि, धोबी मुख पोछंछ।
दुनिया धैं पुछि ल्हिये, बिन माया को कोछ

भावार्थ
(धोबिन कपडे धोती है और उसके चेहरे के पसीने
को धोबी स्नेह से पोंछ लेता है
ओ भले मानुसो !
दुनिया से पुछके तो देखो यहाँ कौन है जो प्रेम नहीं करता?)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कुमाऊंनी कविता की दशा -दिशा के बहाने - अनिल कुमार कार्की

कुमाऊंनी कविता की दशा-दिशा के बहाने

 यह  कुमाऊंनी कविता के बदलते हुए प्रतिमान और शिल्प की बात है।  जब भी कुमाऊंनी कविता की भंगिमा की बात की जाएगी तो मैं कहूँगा की आज के लिख्वारों को हिंदी विभागों और अकादमिक समुदायों से दूर रहकर रचनाकर्म करना चहिये।  असल में  कुमाऊंनी  कविता ने पिछले दस  सालों  में जो करवट ली है, वह कोई आकस्मिक परिवर्तन नही है ! और न ही वह किसी नई शैली  का ही प्रभाव है। उतराखंड बनने के  के बाद का मोहभंग तथा उससे पूर्व का जो संक्रमणकालीन दौर है, उससे यथार्थ को जो लय मिली है, आज की कुमाऊंनी  कविता उसी की उपज है।  कुछ लोग कह सकते है कि मैं कुमाऊंनी  कविता की गौरवशाली कविता परम्‍परा को कठघरे में खड़ा  कर रहा हूँ,  पर ऐसा नही है।  हमारे पास एक लम्बी परंपरा है।  पिछले दिनों शेर दा अनपढ़ की मृत्यु पर कुछ लोगों का कहना था की उनका ठीक से मूल्याकंन नही हो पाया। उनकी श्रद्धांजलि सभा जो पिथौरागढ़ में आयोजित हुई थी, उसमें बोलने वाले कुछ मित्रों ने स्पष्ट कहा की उन्होंने बाहरी अर्थात पश्चिमी संस्कृति का विरोध किया। ये उनके बारे में बहुत ही हल्का मूल्यांकन है। असल में जो यह परम्परा है ... गुमानी पन्त, जिन्होंने गोरखा राज पर कविता लिखी, जिन्होंने अल्मोड़ा के जन जीवन को लिखा और उसके बाद गौर्दा ने अंग्रेजी राज के बीच रचनाकर्म किया ....उसके बाद जिन दो रचनाकारों ने आजादी के बाद का मोहभंग दिखाया, उनमें बालम सिंह जनौटी और शेर दा अनपढ़ प्रमुख है। इनकी रचनाओं में लूट-खसोट और आज़ादी के बाद का लोकतंत्र गुलाटी मारता है, जिसमें टीस तो है ही और तीखे व्यंग भी है, आक्रोश है, संघर्ष है ...और शेर दा की कविता 'मुर्दा क बयान'  इसी काले और अपने अर्धसामन्ती और अर्धउपनिवेशवादी व्यवस्था के बीच अपने ही आम जन मानस की आत्माभिव्यक्ति है।  जो लोग उनमें रहस्यवाद देखने की बात करते है, उन्हें इस बात को समझना चाहिए कि वह किस दौर में थे और तब रचनाकार क्या  भोग रहा था। उनकी दूसरी कविता है 'धन मेरि छाती'  जो गहन निराशाओं के बीच रचनाकार के ऊर्जस्वित अंतर्मन का परिचायक है। बालम सिंह जनौटी और शेर दा की संयुक्त किताब फचैक में उनके सामाजिक सरोकारों और रचनाकर्म को समझा जा सकता है !

 तुम हरिं कांकड जास हाम सुखि लाकड़ जास
तुमरी कुड़ी साजि रै हमरी कुड़ी बांजि  है रै
यह जो आक्रोश दिखायी देता है, उस पर भी बात होनी चाहिए थी, पर नही हुई।  जब हुक्मरानों के तलवे चाटने वाले भाड़ों और विलासियों की हिजड़ी सेना सर पर चमेली का तेल लगाकर मंत्रियों के आगे पीछे दुम हिलाती हो तब हम यह उम्मीद भी नही कर सकते की जनकवियों का ठीक मूल्यांकन हो पायेगा। जो लोग मंत्रियो के नामों पर नामाक्षरी पढ़ते है,  तब तो यही लोग जनकवि होंगे..... गुमानीपन्त पुरस्कारों के खुले दावेदार भी वही होंगे, जिन्होंने कुमाऊंनी कविता के नाम पर  निरर्थक प्रलाप किया है!  फौजी गायकों ने जिस तरह हमारे गीतों को विकृत किया है, उसी तरह कुछ तुक्कड़ लोग कुमाऊंनी कवि भी हैं।  ख़ैर इन कवियों के बाद जो खरा कवि हमारी परम्परा को मिला है, वह है गिर्दा। यह क्रम बहुत पहले से चल  रहा था- ये बात गिर्दा भी बखूबी जानते थे, इसीलिए गोर्दा की कविता आज हिमाला तुमुकें ध्तुयों छो  को उन्होंने नये रूप में प्रस्तुत  किया।  गिर्दा राजनैतिक चेतना से लैस पहले  कवि हैं।  हिंदी साहित्य में नागार्जुन से उनकी तुलना इसीलिए होती रही है। उन्‍होंने कविता और जीवन के बीच कोई अंतर नही आने दिया।  गिर्दा जन-आंदोलनों और राज्य-सत्ताओं के दमन से उपजे कवि हैं।  वह उस उठापटक के दौर को न सिर्फ़ देख रहे थे, बल्कि जी भी रहे थे!  जब लोकतंत्र की आड़ में सरकारें और पूँजीपति हमारे जल-जंगल-ज़मीनों से हमें बेदखल कर रहे थे, उत्तराखंड आन्दोलन के मूल में पहाड़ की अनदेखी और शिक्षा-स्वास्थ्य सड़क के मुद्दे थे, तब इस आन्दोलन में गिर्दा रचनात्मक और आंदोलनात्मक, दोनों भूमिकाओं में निरन्‍तर मौजूद रहे। जिस तरह पहाड़ में लगातार उत्पादन संबंध बदले है, जल-जंगल स्वार्थपरक राजनीति और वर्गीय हितों की चपेट में आये हैं।  इसने पहाड़ी जनमानस के मन में एक अलग किस्म का अवचेतन निर्मित किया है, जिसे हम केवल आधुनिक जीवनबोध के माध्यम से ही समझ सकते है, परम्परागत भोंथरे औजारों  से नहीं।  न बहुत ज्यादा पहाड़ीपन से और न बहुत ज्यादा यादवादी होकर।  नि:संदेह शेर दा अनपढ़ बलम सिंह जनौटी और गिर्दा -  हमारे  केदार , नागार्जुन  और त्रिलोचन हैं।  कुमाऊंनी कविता में यह दौर मोहभंग का है, यदि आप इसकी परख करना चाहें तो उत्तराखंड बनने के बाद की तमाम कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास उठाकर देखिये -  मोहभंग  और आत्मनिर्वासन उनकी प्रधान प्रवृति  है। इतिहास और साहित्य का संबंध, जटिल होने के साथ साथ सघन भी होता है।   नरेंद्र सिंह नेगी का एक गीत है .. जिसमें एक पत्नी परदेश में अपने पति से निवेदन करती है कि खेतों में प्योंली खिल गयी होगी और बालक बसंत लौट कर आ गया होगा, अब मुझे घर छोड़ आओ, क्योंकि ये शहर अजीब सा है।  यहाँ सब अनजान से हैं।  और तो और यहाँ से नीला आसमान भी नही दिखाई देता,यहाँ सब भाग रहे है आदि.....  लेकिन ठीक दस-बीस साल बाद की  स्थिति इसके उलट है?  असल में महानगरीय बोध का प्रभाव पहाड़ पर फैशन या सूचन- क्रांति से उतना नही पड़ा। इसके पीछे जो बड़ी बात है, उस रोज़ी-रोटी के अजनबीपन को नरेंद्र सिंह नेगी के गीत की नायिका तब एक दम स्पष्ट पहचान  रही थी....ऐसा क्या हुआ कि पन्‍द्रह-बीस सालों में यह समझ उस नायिका से जाती रही?

 प्रह्लाद सिंह महरा मेरा पसंदीदा गायक था!  कभी सुनिएगा ..जिसकी सामाजिक चेतना एक समय 'पहाड़ की चेली ले कभे न खाया दुई रव्‍टा सुख ले' या फिर 'कैले उजाड़ो होलो यो मेरो पहाड़' ..लिख रही थी, २००५ के आते-आते उसकी मधुलि ब्यूटी पालर्र जाने को क्यों मजबूर हो गयी ? फ़िल्मी,नेपाली, असमी धुनें चोरी होने लगी  और फौजी ललित मोहन जोशी सरीखे गायकों ने जो बेडा गर्क किया है, उसे सब जानते है। वह पहाड़ी महिला जिसके कांधों में पहाड़ के टिके होने का दावा हम करते थे, उसकी उन्मुक्तता और प्रकृति के साथ उसके गहन संबंध अब नये नगरीकरण  के दियासलाईनुमा खोकों की भेंट चढ़ गये।  ये हमारे पहाड़ों को लुटने की पहली शर्त थी कि कैसे भी दाथुलीधारी महिलाएं पहाड़ को छोड़ दे...वो भूमण्डलीकरण ने कर दिखाया। उसने पहाड़ों में भी  व्यापक रूप से नगरीकरण किया। इस ताने बाने में एक ओर जहाँ पहाड़ में लोक पर सीधा असर हुआ, वहीं दूसरी ओर पहाड़ी महिलाओं को मध्यमनगरीय ऊब ,संत्रास और कुंठा से अभिशप्त होने को मजबूर किया ! यही वो असर था जिसने पहाड़ के ढांचे को न सिर्फ़ गिराया, बल्कि उसकी पुनर्रचना का भी बेड़ा उठाया। हम किसी भी समाज का बेमतलब यथावत बने रहना स्वीकार नहीं सकते। जब स्काटलैंड का बाजा बैगपाईपर यहाँ मशकबीन बन सकता है और हमारी रागात्‍मक जीवनवृतियों को व्यक्त कर सकता है, तो इससे क्या परहेज और क्यों ? इस ढांचे के गिरने के पीछे और बनने पीछे सबसे बड़ा कारण था शिक्षा ...  आपने और हमने देखा है कभी कुमाऊंनी बोलना कितना गवाँरुपन की चीज थी ये अलग बात है की आज यह एक अच्छा बाजार भी दे रही है... या देगी... इसलिए वही लोग इसके पैरोकार भी है, जो कभी इसे भनमजुओं की बोली समझते थे। शायद मैं अच्छी कुमाऊंनी नही बोल पाता - इसके जिम्मेदार मेरे अपने बुजुर्ग है, मैं नही, क्योंकि मानव इसीलिए मानव है कि वह स्मृति से अपनी बोली-संस्कृति अपनी अगली पीड़ी को सौंपता है।  हमारे बुजुर्गों ने हमें यह नहीं सौंपी। शिक्षा-स्वाथ्य के प्रति जागरूकता ने जिस नये समाज का निर्माण किया है उसका सौन्दर्य भी बदला। उसमें सत्तर से अस्सी फीसदी सैनिक परिवार थे और आज भी हैं। असल में उनका जो अवचेतन बना वह बहुत जटिल था.. और आज भी जटिल है... आधा बकरी-आधा शेर वाला। इसमें एक तरफ़ तो लगातार प्रचलित मिथकों का मोह बना रहा और दूसरी ओर साब बनने की ललक।  इन दोनों के बीच जो मुख्य तनाव था उससे जो चीज निकलनी चाहिए थी, वह थी प्रचलित अंधविश्वासों का मुखर विरोध और राज्य सत्ता के विरुद्ध आवाज बुलंद करना....जो नही हो पाया !  आज भी हम परी-बयाल और मॉस हिस्टीरिया के केस देख रहे हैं, जो बंद समाजों का प्रमुख रोग है। इसका कारण ही यह है कि हममें मनोवैज्ञानिक समझ परंपरागत ही रही है।   यह इसलिए भी नही हो पाया कि पहाड़ी युवक जो बुद्धिजीवी बना उसकी नसों में फौजी डालडा ही बहता रहा।  सेना और अंधराष्‍ट्रवाद, पुलिस  के प्रति उसकी अंधी समझ ने उसे मुखर नही होने दिया। आज भी उनके बड़े-बड़े भूभागों, नदियों और जंगलों का बेतरतीब तरीके से राज्य सरकारें अधिग्रहण कर रही है ! हाँ अब पहाड़ी परिवार सेना की चुंगुल से निकल कर बहुउद्देशीय कम्पनियों के चुंगुल में जा फंसे है, जो और भी खतरनाक है।  बी.टेक, एम.टेक, बी.सी.ए, एम.सी.ए करने वाले युवाओं के हाल देखिये।  असल में बदला कुछ नहीं ...बदला है तो केवल वक्त। जो परम्परागत नजरिया था, वह अब फैशन हो गया है और यह चुप्पी कब टूटेगी कुछ नही कहा जा सकता।  फिर भी प्रतिरोध तो होगा ही, क्योंकि असंतोस जिस तरह से बढ़ा है.... लगता है कि १० -१५ सालों में ये मोहभंग आक्रोश  की सही दिशा पकड़ेगा। इस बीच जो जद्दोज़ेहद और पेसोपेश हुआ है, उसने एक नये नगरीकरण का निर्माण किया है। सर्वहारा वर्ग उसमें कितना संतुष्ट है, या असंतुष्ट, यह देखने की बात है।  पहले जो अंतर्विरोध प्रमुख थे, वह अब गौण होते जा रहे हैं।  अब नये अंतर्विरोध उभर कर सामने आ रहे हैं। उत्पादन संबंध बदलने के साथ साथ अंतर्विरोध भी बदले हैं, जिन्होंने साहित्य समाज संस्कृति को भी गहरे स्तर  पर प्रभावित किया है। यह जो नया नगरीकरण है, वह किसी भी महानगर से कितना भिन्न है ..सीधा सा सवाल है ये।  एक किस्म के बेसकैम्प है, जहाँ से आदमी निरंतर आगे की और खिसक रहा है। ये जो खिसकन है ,वो शौक नहीं, मजबूरी है .. इसलिए आज कोई भी प्रवासी नही है ..अगर हैतो फिर सब प्रवासी हैं।   सभी  आत्मनिर्वासन झेल रहे है... पर सवाल ये है कि ये अस्थायी नगरीकरण कहाँ ले जायेगा ?(अल्मोड़ा,पिथोरागढ़.रामनगर.रानीखेत,चम्पावत) और ये भी सोचने की बात है कि सबसे ज्यादा पलायन अल्मोड़ा में हुआ है।  यह बात रोचक है हल्द्वानी अल्मोड़े से लभग १०० किलोमीटर दूरी पर है ..अब इसका दूसरा पहलू  यह है की इस नये किस्म के नगरीकरण ने पहाड़ में नये किस्म के संबंधो की भी रचना की है जिसमे नातेदार नौकर प्रमुख संबंध है। यह इस किस्म का संबंध है, जिसमें एक समर्थ आदमी अपनी ज़मीन किसी ग़रीब रिश्तेदार को दे देता है और अनाज पर अपना अधिकार मांगता है.... या फिर छमाही किस्त के हिसाब से पैसे वसूलता है।  साथ ही पहाड़ पर खनन ने एक नया मजदूर पैदा किया किया।  और विधायकी और ग्राम पंचायतों  ने बचे-खुचे युवाओं को भी खड़ंजामुंशी बना दिया है। स्थानीय उत्पादों - बुरांस के फूलों, मड़ुवा, हिसालू, किल्मोड़े, काफल आदि  पर भी  बहुउद्देशीय कम्पनियों की नजर है .....  बल्कि यह भी होने लगा है.. समुचित आर्थिक नियोजन के अभाव में आत्मनिर्वासन झेल रहा पहाड़ी जनमानस, जिसकी श्रमशक्ति खरीदी जा चुकी है, वह भले ही जी रहा है लेकिन उसके जीवन के जो संवेदनागत या अनुभूतिजन्य कमियां हैं।  जो अराजकतावादी यथार्थ उसके जीवन में व्याप्त है, वही अब लिखी जा रही कुमाऊंनी कविता का प्रमुख स्वर है और होना भी चाहिए ...  यह रचाव ही समकालीन समाज और मानव के जटिल संबंधों का अभिव्यक्ति के स्तर पर प्रत्‍युत्‍तर है!  आवश्यकता इस मोहभंग को सही दिशा और वैचरिक आधार देने की है।  पहाड़ में सूचनाक्रन्ति का असर उस तरह से नही पड़ा है, जिस तरह से हम समझ रहे है।  अगर यह सीधा असर होता तो परी पूजने वाले ओझा स्कूलों में ससम्मान नही बुलाये जाते, बल्कि इन दिक्‍कतों का समाधान मनोवैज्ञानिक स्तर पर किया जाता। स्त्रियों के हालात गुणात्मक रूप से भिन्न भी होते। असल बात यह है कि हमें अपनी कमियों को अपनी सामाजिक संरचना में ही ढूंढना होगा। अपने लोक के प्रचलित मिथकों में आधुनिक भावबोध भरने ही होंगे और उनकी गहन पड़ताल भी करनी होगी। लोक कथाओं को जैसे का तैसा उठाकर, बिना गहन विश्लेष्णात्मक हल के नये विद्यार्थियों के सामने रखकर हम उन्हें कुछ नया करने के बजाय परंपरागत रूढयों की ओर धकेल रहे हैं - जैसे कुमाऊंनी साहित्य, संस्कृति-इतिहास आदि  के सन्‍दर्भ में जो कहानियां उठाई गयी हैं, वह बिना विश्लेषण के ही हैं।  ऐसा क्यों हुआ होगा ?  या ऐसा क्यों है ? इस पर कोई बात नहीं  हो  रही है। हमारे पास वर्गसंघर्षों का लम्बा इतिहास है।  यदि पड़ताल करें तो हमारे पास गंगनाथ-भाना की  प्रेम कथा है, राजुला-मालुशाही है, सरपद्यो-रजा की कहानी है ,भिटौली के विषय में विभिन्न प्रचलित कथाएं हैं- इन प्रचलित कहानियों को  तत्कालीन  समाजों के अध्ययन का औज़ार बनाना ही होगा, जो हमें उन आदिम समाजों तक ले जा सकते हैं, जिनसे हमारे सामूहिक अवचेतन को समझने में सहायता मिलेगी !
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