Author Topic: उत्तराखंड पर कवितायें : POEMS ON UTTARAKHAND ~!!!  (Read 286447 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Great composition sir..

You have very well described the situation. I am highly impressed with the lines of the poem by you and Bilajwan ji. And of course, other members who have provided the lines here.

I am also thinking to write some poem and lyrics of songs.. .. I will put here when i finish.


लीस्सा पेड


म्यारा मुल्कका लोग
लीस्सा का पेड छ्न
जु ..  घये जदिन पुटकवी  बिटि
तब ...
किन बैठी जन्दन उकै
लीस्सा कि  !

एक एक बूद
रस रस्सी चून्द
बणिक  ल्वै ......
तब,  वे थै कठठा कयेजांद
कनासतरू  मा    
फिर  ..........
लगै कि बोली
सरे आम , उंचा दाम
करै जांद नीलाम  
डैर अर दैशत का मारी
नि खुलुदु तब कुवी जुबान  !


ई सोची सोची कि
सिलै जांदी वेका दांत 
और दिखदै दिखद ..
फिर हैंकि चोटल
घये जांद वैकी आंत
घों घयेकी,  घै -घै  की
ल्वै का आंसू , पे - पे कि
बोइकी  खुचिल्म्म  लुड्की जांद
वो चुपचाप  .................


कुछ दिनों को बाद
मिटीजांद विको नामो निशान
क्वी  छौ यखम
कैल जलंम छौ यखम  !

पराशर गौड़
२ जुलाई 1962


Dinesh Bijalwan

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excellent sir.   yadoo ki faanchi khuln baithge.  Thet  pahadi kavitaaon ka ratn chan ye.  Man bagchat hwei gei.  Aap yani ham teesa logon tai kavita ko raswadan karanda rava . Ati kirpa holi.  Ye hi bahana si forum per acchi kavitaaon ko saanklan bhi hwei jalo. 


Parashar Gaur

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किस्मत

अरै ......कुई सुण चा   ?
म्यारा पहाडै,   दहाड़ ....
हयली गाड़ी गाड़ी रूणूच वो
कि ....नगाँ हुणा छ्न बल, पहाड़ !

नाला पंदेरा, गाड़ गदिन्या सुखणा छ्न
जंगल का जंगल कटीणा छ्न
डांडी कांठी रूणी छ्न
अफू ,  अर अपणा जोग पर
जु छोडिगी वी ... अर
जु छोडन पर हुया छिन मजबूर !

मनीख .....
सहरो कि तरफ च दौडणू
पैथर रैगी ब्यटुला
वि,  अर वि जगह थै जग्वालु
कब तक देखि साकली
सै साकाली वा, विकी पीडा  !

फिर भी गाणीच वा
वैकी सुन्दरता का गीत
बोझ ठुल्द ठुल्द
उकाल उन्धार नपद नपद
ऐ डांडी बिट , हैंकि डंडी तक  !

ऐका अलावा  वो
कैरी भी क्य सकद......
यत,  वीकि नियती च
पहाड़ जन जीवन थै जीणों
वा ख़ुद भी,  पहाड़ बणिगे 
जैकु द्रर्द,   कुई नि समझी सकदू  !

पराशर गौड़
२५ अगस्त 1979

Dinesh Bijalwan

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दादी मैन तू सदानी तन्नी देखी,
चौडी भ्रकुटी पर चिन्ता का रेखडा,
मेरा कन ह्वाला, कन राला,
आन्खी खत्णी हमेसा स्वाति बुन्द,
बाटू हेरणी अपणो की राजि खुसी वापसी को,
पर पन्खर ल्ग्ण का बाद क्बी  पन्छी घोल पर टिकेन,
जन रुडियो म जान्दान हन्स कैलास,
अर वापसी की बात  पड जान्दी ढौढ.
दादी कत्गा हि दा त्वैन खैची छो मै चेनखो सी,
जब खुन्टी उद उल्टू लट्की जब मै गण्दो छौ उल्टा गैणा,
फिर वो  बग्त भी आये  जब तू हिट्ण ल्गे मी लाठो बणैक.
मूल से सूद प्यारो होन्द तभि पेन्द छै  बाबाजी से पैले हमारी भुक्कि,
दादी, तू कभि छोटी नौनि रै होली, भुली नि मान्दी,
पर तू रै होली,
तभी त ह्वै जान्दी छै  छोटी नौनि, सुणिक नातियो का ब्यो की छुई या फिर लै क नयी धोती,
दादी घर का लोग बुल्दा छा कि वो भिन्डी जाण्दान,
क्या त्वै से बे जादा,
बाबाजी अर काकाऔन त बाच हि त्वै म्न पाये,
मा अर काकी, ऐ थै - छोरी तेरा अग्वाडी,
पर तू जाण्दी थै  आखरी सच, तबी त बोदी छै,
कि मेरू देलू मै कोरी कान्ध,
पर त्वैन बार नि लाए जान्द,
दादी मेरी कोरी रैगी थै कान्ध

दिनेश बिज्लवाण
१९९३

हेम पन्त

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आहा! क्या सुन्दर कविता है!!!! मेरे मन में भी अपनी दादी के प्रति यही भाव आते थे, जब वो जीवित थीं... धन्यवाद बिजल्वाण जी!! धन्यवाद

Dinesh Bijalwan

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चौमासा की झडी लगेन मेरी आन्खी सर्ग ह्वैन,
दग्ड्या गैल्या मेरा सबी छूटी गैन
माजी  को लाड याद आन्द बाबू की झिड्कूण
भायो की भेटूली याद करी मन लगद रूण
सबी कुछ  खोइ मिन कभी कुछ नि पायी
स्वीणा जो भी देख्या , स्वीणा हे रैन
चौमासा की झडी ल्गैन------

ईस्ट छा कयी मेरा, पर क्वी नि होया मेरा,
विपदा सुणादू कै तै, को गणादो मी तै,
द्य्वता त द्य्वता मनखी भी ढून्गा ह्वैन
चौमासा की झडी ल्गैन------
नातो  तोडी सब्सी, माया लगयए सबसी,
तो भी अप्णू नि ह्वै, सर्ग को गैणु ही रै
अपणा आन्सू पीक क्या पायी मैन
चौमासा की झडी ल्गैन------
छौ कसूर कैको , कू सम्झालो त्वैको,
बिराली मारी सभि देखदान,
दूद खत्यु देखी कैन
चौमासा की झडी ल्गैन------

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझ से मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो, भांगे की चटनी
वो सना हुआ नींबू, वो नौले का पानी।

वो आमा के खेतों में चुपके से जाना
वो आड़ू चुराना और फिर भाग आना
वो जोश्ज्यू के घर में अंगूर खाना
वो दाड़िम के दाने से चटनी बनाना
भूलाये नही भूल सकता 'तरूण' मैं
वो मासूम सा बचपन और उसकी कहानी।

वो पीतल के गिलास में चाय सुड़काना
वो डूबके, वो कापा और रसभात खाना
वो होली की गुजिया, वो भांग की पकौड़ी
पत्ते में लिपटी वो मीठी सिंगौड़ी
छूटा वो सब पीछे अब यादें बची हैं
ना है अब वो बचपन ना उसकी निशानी।

वो काला सा कौवा और उसको बुलाना
वो डमरू, वो दाड़िम वो तलवार को खाना
फूलदेई में सबके घरों में जाकर
घरों की देली को फूलों से सजाना
बेतरतीब से खुद के कपड़े थे रहते
भीगने को जाते जब बरसता था पानी।

होली में एक घर में चीर को लगाना
वो गुब्बारे, हुलियार और होली का गाना
वो चितई का मंदिर और मोष्टमानो का मेला
ना थी कोई चिंता, ना ही झमेला
ना दुनिया का गम था, ना रिश्तों का बंधन
बड़ी खुबसूरत थी वो जिंदगानी।
हिसालू, काफल और किलमोडी खाना
दिवाली में फूलों की माला बनाना
वो क्रिकेट का खेला जब हों खेत बंजर
बो भुट्टों की फुटबाल, कागज का खंजर
अब है झिझक कुछ करने ना देती
गया अब वो बचपन और ढलती जवानी।
ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो…


by : rkarnata@cisco.com>  v:

jagmohan singh jayara

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      "उत्तराखंड"

पवित्र देवभूमि पौराणिक है,
नाम है उत्तराखंड,
"उत्तरापथ" और "केदारखण्ड"
मिलकर बना उत्तराखंड.
 
"उत्तराखण्ड" पर लिखी,
मेरी कविता को आपने,
"अज्ञांत" की कविता बना दिया,
दुःख हुआ देखकर,
हे मित्र, ये आपने क्या किया...

जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
२५.२.2009

पंकज सिंह महर

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ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझ से मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो, भांगे की चटनी
वो सना हुआ नींबू, वो नौले का पानी।

 


by : rkarnata@cisco.com>  v:


ये कविता तरुण ने अपने वेब पेज उत्तरांचल के  निठल्ला चिंतन पर लिखा है।

खीमसिंह रावत

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म्यार पहाड़ य पहाड़, नि रहय उ पहाड़
काटीगें जंगव सुखि गें हो गाड
द्यों न पाणि, भाजिगो हो जाड
गोंव गोंवनु चुनाव, द्वी चार हैगी फाड़
टीवी मोबइलेक, यरै हो बाड़


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