Author Topic: उत्तराखंड पर कवितायें : POEMS ON UTTARAKHAND ~!!!  (Read 286476 times)

पंकज सिंह महर

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मां


बहुत पहले, हमारे जन्म के बाद
पिताजी की न सह सकने वाली ज्यादतियों के बावजूद
तुमने सोचा होगा-मेरे बेटे जवान होकर, हर दुःख हर लेंगे मेरा
हमारे उठान पर-तुमने अपना संबल देखा होगा, और भूल गई होगी,
हर गमगीन किस्सा, किसी भीड़ में गुम हो गये स्वप्न, जो हमने देखे थे
’जंदरों’  चलाते हुये तुम्हारे हिलते घुटने पर सिर रखे हुये
समाचार है कि सड़क आ गई है गांव में और बिजली भी
पर तुम इस बीच और झुक गई हो, चोट खाये लोहे की तरह
सुबह से देर रात तक, वह तुम ही हो, जो खपती रहती हो,
मूंज की रस्सी की तरह, तुम्हारी देह पर, परिवार भर की जरुरतें लिपटी हुई हैं,
इसलिये तुम चीथड़ों से ही
चला लेती हो काम
खेत, खलिहान, आंगन और चौके में
सच कहा जाये तो हर उस जगह
जहां तक रोक नहीं लगी है तुम पर
तुम लड़ रही हो फौज में खेत रहे
और अन्य भाई की याद को आंखों में संजोये हुये
ससुराल में रह रही बाल-बच्चेदार, अपनी बड़ी बेटी ’भागा’ के नाम से तो
तुम हर समय पुकारी जाती ही हो, ३३ वां वर्ष है हमें और
कवितायें लिखते हुये, हम सोच रहे हैं कि लड़ाई कहां से शुरु की जाये।

                                                     उमेश डोभाल

पंकज सिंह महर

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मुजफ्फरनगर


तुमने महसूस किया होगा,
कितने सोंधें महकते हैं गन्ने के नर्म खेत
कितनी ठण्डी
कितनी मुलायम, कितनी नर्म,
होती है उनके नीचे की जमीन,
तुमने सब महसूस किया होगा रतन सिंह!

चलकर गांव की पगडंडियों से
मिट्टी की कच्ची सड़क पर
मोटर में सवार होते वक्त
तुम्हें याद थी पोती की फरमाइश
उसकी आंखों के सामने, उसकी उम्मीदें।

रास्ते में उस वक्त भी
जब तुम लगा रहे थे नारे
और उस वक्त भी
जब घड़ी नौ बजा रही थी
२ अक्टूबर, ९४ की उस सुबह
जब तुम तोड़ रहे थे दम
गन्ने के खेत में
कुछ लुच्ची कायर गोलियों का शिकार होकर।

तुम्हें सब कुछ याद था
याद था तुम्हें मोर्चे में कुर्बान बेटा
सूनी कलाइयों वाली कमजोर बहू
फूल सी कोमल, पंछी सी चंचल पोती
ऊपर धार पार गधेरे से पानी लाती बीबी
१६ मील दूर की राशन की दुकान
और बिन डाक्टर का अस्पताल।

तुम कितने भोले थे,
क्या-क्या लेने जा रहे थे वहां,
तुम्हें दिल्ली देखने का बहुत शौक था न रतन सिंह!

                                                    
                                                    गोविन्द पन्त "राजू"

पंकज सिंह महर

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क्या करें?
गिरीश तिवारी "गिर्दा"



हालाते सरकार ऎसी हो पड़ी तो क्या करें?
हो गई लाजिम जलानी झोपड़ी तो क्या करें?
हादसा बस यों कि बच्चों में उछाली कंकरी,
वो पलट के गोलाबारी हो गई तो क्या करें?
गोलियां कोई निशाना बांध कर दागी थी क्या?
खुद निशाने पै पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें?
खाम-खां ही ताड़ तिल का कर दिया करते हैं लोग,
वो पुलिस है, उससे हत्या हो पड़ी तो क्या करें?
कांड पर संसद तलक ने शोक प्रकट कर दिया,
जनता अपनी लाश बाबत रो पड़ी तो क्या करें?
आप इतनी बात लेकर बेवजह नाशाद हैं,
रेजगारी जेब की थी, खो पड़ी तो क्या करें?
आप जैसी दूरदृष्टि, आप जैसे हौंसले,
देश की आत्मा गर सो पड़ी तो क्या करें?


यह कविता उत्तराखण्ड के जनकवि श्री गिरीश चन्द्र तिवारी "गिर्दा" ने दिनांक आठ अक्टूबर, १९८३ को नैनीताल में हुई पुलिस फायरिंग के बाद लिखी थी।

                 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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By पराशर गौड़ Ji
=============

घोषणा
 
जैसे ही ,
 इल्कशन  की हुई  घोषणा
उमिद्वारो का तांता लगने लगा था
जिसे हमने , कभी नहीं देखा था
वो ,
सबसे आगे खडा था  !
 
पार्टिया ......
अपने अपने उमीद्वारो को
जनता में भुनाने लग गई थी
उनके काले कारनामो पे
सफेदिया पोतने लगी थी  !
 
सभाओ का .........
आयोजनों  पर आयोजन  होने लगे थे
छुट भया नेता ......
दिगज नेताओं के चप्पल उठाने लगे थे  !
 
उमीद्वारो का परिचय
मंच से दिया जाने लगा
नेता उनके बारे में कहने लगा
ये .................
इस इलाके के माने ( वो गुंडा था)  हुए   है
इनकी तस्बीरे तो ,
अखबारों में की बार छापी है  !
 
ये उमीद्वार ....
 जो  आप देख रहे है
ये आप के लिए ना सही पर
पार्टी के लिए की बार
अंदर बाहर आते जाते रहे है
समया साक्षी  और  जनता गवा है
पुलिस चोकी  इनका मायका 
और जेल इनकी ससुराल है  !
 
बिपक्षी ......
इनकी इस छबी को
पचा नहीं पा रही है
इनपे आरोप पे आरोप
लगाए जा रही है  की... ये ...
गौ-चारा , रेप , मर्डरो में लिप्त  है
एसा प्रचार कर रही है  !
 
अरे  भाई .....
किसिना किसी को तो वो
चारा खाना ही था
उसको ...  कहिना  कही तो
ठिकाना लगाना ही था  !
 
रही......................
 " रेप और मर्डरो  " की बात
तो, हम साफ़ साफ़ कहते है
ये तो  हमारी पार्टी का सिम्बल भी है
हमारी मैनोफैसटो में भी है
जो जितना करेगा, करवाएगा
उतना ही उंचा पद पायेगा
हम आप को चेतावनी देते है
और  चिला चिल्लाकर  कहते है !

बिपक्षी सुन ले ..........
और , आप देख ले ....
आप वोट दे या ना दे
आप वोट डाले या न डाले
आप का  पडेगा  - पडेगा
हम दावे से कहते है
हमारा ये उमीद्वार .........
जीतेगा और जीतेगा    1
 
पराशर गौड़

हेम पन्त

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हमारे फोरम का सौभाग्य है कि हमारे साथ जगमोहन जी जैसे संवेदनशील कवि भी जुङे हैं, निम्नलिखित कविता में जगमोहन जी ने एक प्रवासी पहाङी किस तरह अपने गांव को याद करता है, इसका चित्रण किया है.

"पहाड़ी गाँव"

प्रकृति का आवरण ओढे,
सर्वत्र हरियाली ही हरियाली,
प्रदूषण से कोसों दूर,
कृषक हैं जिसके माली.
 
पक्षियों के विचरते झुण्ड,
धारे का पवित्र पानी,
वृक्षों पर बैठकर,
निकालते सुन्दर वानी.

घुगती घने वृक्ष के बीच बैठकर,
दिन दोफरी घुर घुर घुराती,
सारी के बीच काम करती,
नवविवाहिता को मैत की याद आती.

सीढीनुमा घुमावदार खेत,
भीमळ और खड़ीक की डाळी,
सरसों के फूलों का पीला रंग,
गेहूं, जौ की हरियाली.

पहाड़ की पठाळ से ढके घर,
पुराणी तिबारी अर् डि़न्डाळि, 
चौक में गोरु बाछरु की हल चल,
कहीं सुरक भागती बिराळि.

आज देखने भी नहीं जा पाते,
लेकिन, आगे बढ़ते हैं पाँव,
कल्पना में दिखते हैं प्रवास में,
अपने प्यारे "पहाड़ी गाँव"


सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(23.4.2009 को रचित)
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jagmohan singh jayara

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प्यारे पहाड़ से दूर, खुश कहो या मजबूर, अनुभूति अपनी अपनी, हो सकता है दूर पर्वास में रहने के कारण "पहाड़ के प्रति प्रेम" उमड़ता हो.....कवि मन होता ही ऐसा है जो कल्पना में जाता रहता है जन्मभूमि की ओर......लेकिन लेखनी लिख देती है ई-बुक पर ऊंगलियों के इशारे से.......जो कवि कहना चाहता है.   

 "छट्ट छुटिगि प्यारु पहाड़"

छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदौं,
ऊ प्यारु पहाड़-२
जख छन बाँज बुराँश,
हिंसर किन्गोड़ का झाड़-२

कूड़ी छुटि पुंगड़ि छुटि,
छुटिगि सब्बि धाणी,
कखन पेण हे लाठ्याळौं,
छोया ढ़ुँग्यौं कू पाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

मन घुटि घुटि मरिगि,
खुदेणु पापी पराणी,
ब्वै बोन्नि छ सुण हे बेटा,
कब छैं घौर ल्हिजाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

भिन्डि दिनु बिटि पाड़ नि देखि,
तरस्युं पापी पराणी,
कौथगेर मैनु लग्युं छ,
टक्क वखि छ जाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदौं.....

बुराँश होला बाटु हेन्ना,
हिंवाळि काँठी देखणा,
उत्तराखण्ड की स्वाणि सूरत,
देखि होला हैंसणा.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

दुःख दिदौं यू सब्यौं कू छ,
अपणा मन मा सोचा,
मन मा नि औन्दु ऊमाळ,
भौंकुछ न सोचा.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

जनु भी सोचा सुणा हे दिदौं,
छट्ट छुटिगि, ऊ प्यारु पहाड़,
जख छन बाँज बुराँश,
हिंसर किन्गोड़ का झाड़.

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jagmohan singh jayara

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 "जनता तेरी जय हो"

नेताजी नतमस्तक होकर, कर रहे करुणा पुकार,
अपना मत हमको देना, जा रहे हैं जनता के द्वार.
 
जनता सब कुछ जानती, महंगाई की मार,
नेता कुछ नहीं देते हैं, जनता पर हैं भार.

लोकतंत्र पर है आस्था, जो है जनता का अधिकार,
हर पांच वर्ष के लिए चुनते हैं, मत करके सरकार.

चुनाव का महासमर जारी है, कहते "जनता तेरी जय हो",
देंगे ऐसी सरकार तुम्हें, जहाँ भूख और न भय हो.

जनता तो है चाहती, बने ऐसी सरकार,
भारत अपना खूब चमके, सपने हों साकार.


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मेरा पहाड़ / Mera Pahad

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Kaam ki talaash main apni Devbhumi se bichhad kar kisi ko kaisa prateet hota hoga yeh is kavita ke maadhyam se sajeev chitran kiya gaya hai.

प्यारे पहाड़ से दूर, खुश कहो या मजबूर, अनुभूति अपनी अपनी, हो सकता है दूर पर्वास में रहने के कारण "पहाड़ के प्रति प्रेम" उमड़ता हो.....कवि मन होता ही ऐसा है जो कल्पना में जाता रहता है जन्मभूमि की ओर......लेकिन लेखनी लिख देती है ई-बुक पर ऊंगलियों के इशारे से.......जो कवि कहना चाहता है.   

 "छट्ट छुटिगि प्यारु पहाड़"

छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदौं,
ऊ प्यारु पहाड़-२
जख छन बाँज बुराँश,
हिंसर किन्गोड़ का झाड़-२

कूड़ी छुटि पुंगड़ि छुटि,
छुटिगि सब्बि धाणी,
कखन पेण हे लाठ्याळौं,
छोया ढ़ुँग्यौं कू पाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

मन घुटि घुटि मरिगि,
खुदेणु पापी पराणी,
ब्वै बोन्नि छ सुण हे बेटा,
कब छैं घौर ल्हिजाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

भिन्डि दिनु बिटि पाड़ नि देखि,
तरस्युं पापी पराणी,
कौथगेर मैनु लग्युं छ,
टक्क वखि छ जाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदौं.....

बुराँश होला बाटु हेन्ना,
हिंवाळि काँठी देखणा,
उत्तराखण्ड की स्वाणि सूरत,
देखि होला हैंसणा.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

दुःख दिदौं यू सब्यौं कू छ,
अपणा मन मा सोचा,
मन मा नि औन्दु ऊमाळ,
भौंकुछ न सोचा.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

जनु भी सोचा सुणा हे दिदौं,
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Wah Jagmohan ji kya kataaksha kiya hai aapne Netaon pai.

"जनता तेरी जय हो"

नेताजी नतमस्तक होकर, कर रहे करुणा पुकार,
अपना मत हमको देना, जा रहे हैं जनता के द्वार.
 
जनता सब कुछ जानती, महंगाई की मार,
नेता कुछ नहीं देते हैं, जनता पर हैं भार.

लोकतंत्र पर है आस्था, जो है जनता का अधिकार,
हर पांच वर्ष के लिए चुनते हैं, मत करके सरकार.

चुनाव का महासमर जारी है, कहते "जनता तेरी जय हो",
देंगे ऐसी सरकार तुम्हें, जहाँ भूख और न भय हो.

जनता तो है चाहती, बने ऐसी सरकार,
भारत अपना खूब चमके, सपने हों साकार.


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jagmohan singh jayara

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 "बहती नदी"

बचपन में देखा था,
लेकिन, पता नहीं था,
मुझे उसका पथ.

जवान होने पर,
१२ मार्च १९८२ को,
जब मैं घर से चला,
बोझिल होकर भागती,
बस में बैठकर,
दूर दिल्ली की तरफ.

देवप्रयाग में मैंने देखा,
दो नदी गले मिल रही थी,
जिनमें एक वही,
बहती नदी थी,
जिसे मैंने,
बचपन में देखा था,
कहलाती है अलकनन्दा,
और दूसरी भागीरथी.

देवप्रयाग के बाद,
ऋषिकेश की तरफ बहती,
नदी कहलाती है गंगा,
जिसके समान्तर,
भागती हैं गाड़ियां,
हरिद्वार तक,
पहाड़ की जवानी ढोती,
शहरों की ओर,
पहाड़ का पानी बहता है,
दूर सागर की तरफ.
बहती नदी में.


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