Author Topic: उत्तराखंड पर कवितायें : POEMS ON UTTARAKHAND ~!!!  (Read 287725 times)

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
देवता खामोश हैं...!


नर और नारायण के बीच
एक पच्चड़ की तरह फंस गया है,
उत्तराखण्ड का उज्जवल सपना,
गैरसैंण और देहरादून के बीच,
एक नीच ट्रेजड़ी की तरह,
शीर्षासन कर रहा है।
राजधानी का मसला,
जंगल माफिया के पेट में,
समा रहे हैं,
जो कुछ नहीं थे,
वह पीछे के दरवाजे से आकर,
अपनी किस्मत चमका रहे हैं।

जमीन को लगातार कुतर रहें हैं तस्कर,
दफ्तरों में सांप बनकर,
रेंग रहें हैं अफसर,
बुग्याल सहमे हुये से हैं,
फूल घाटियां हांफ रही हैं,
शिखरों पर मौजूद देवता...........खामोश हैं,
तनी हुई मुट्ठियां बेहोश हैं,
डस रही हैं नागिन हवायें,
बेअसर साबित हो रही हैं दुआयें,
यह आबोहवा अब सेहत के लिए,
नहीं रह गई फायदेमन्द,
इस आबोहवा में सपने मुरझा रहे हैं,
थर्रा रहें हैं ख्याल।
एक अदृश्य जाल में,
फंस कर रह गई है हमारी नियति,
कोई नहीं है कहीं, जो सुन ले हमारी विनती,
निकल रही है जान,
उधर मंच पर मंत्रियों की गर्दन पर,
फूल मालाओं का बढ़ रहा है बोझ,
स्कूली लड़्कियां, स्वागत गीत गा रही हैं,
मुस्कुरा रहें हैं मक्कार मंत्री,
मूछॊं पर ताव देते हुये पीछे खड़ा है सन्तरी।

सहमी हुई है जनता,
माफिया के कांधे पर है, मंत्री का हाथ,
खुशी से थरथरा रहा है,
माफिया का गात,
पेड़ सीधे माफिया के,
पेट में जा रहे हैं,
जनता के सिर पर
मुश्किलों के बादल मंडरा रहे हैं॥


कवि- श्री आलोक प्रभाकर,
युगवाणी, मार्च, २००३ से साभार टंकित।

jagmohan singh jayara

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 188
  • Karma: +3/-0
  "बुराँश"

चंद्रकूट पर्वत शिखर पर,
चन्द्रबदनी मंदिर की ओर,
जाते पथ के दोनों तरफ,
चैत्र या बैशाख माह की अष्टमी को,
खिल जाते हैं बुराँश के फूल,
जिन्हें देखकर यात्रीगण,
हो जाते हैं हर्षित,
माँ के दर्शनों से पूर्व.

बुराँश अपनी लाली बिखेरता,
देखता है हँसते हुए,
चन्द्रबदनी से,
गढ़वाल हिमालय को,
जैसे कर रहा हो संवाद.

हिंवाळि काँठी दिखती हैं,
दाँतों की पंक्ति की तरह,
जैसे वो भी बिखरे बुराँशों से,
हँस कर कर रही हों संवाद.

बुराँश एक ऐसा पुष्प है,
जो गंधहीन होता है,
फिर भी हर उत्तराखंडी के मन में,
पहाड़ के इस प्रिय पुष्प को,
देखने की रहती है लालसा.

उत्तराखण्ड में हर साल आते हैं बुराँश,
पहाडों को निहारने,
हम तो नहीं जाते,
बुराँशों की तरह,
न जाने क्यौं?
 

सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(29.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७       

jagmohan singh jayara

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 188
  • Karma: +3/-0
   "गर्मी से बेहाल"

तेज झुलसती गर्मी में, तन मन हुआ बेहाल,
अब याद आ रहा है, अपना कुमायूं और गढ़वाल.

जल्दी जाकर किसी गाड में, ठंडे पानी से नहायें,
हिंसर, किन्गोड़ और काफल, छक-छक्क कर खायें.

बांज, बुरांश और देवदार के, जंगल जहाँ दिख जायें,
कल कल बहता पानी पीकर, बेफिक्र होकर सो जायें.

सर सर बहती हवा में, किसी धार के ऊपर बैठ जायें,
देखें धरती उत्तराखंड की, व्यथित मन को बहलायें.

याद आ रहा है बचपन, उत्तराखंड में जो दिन बिताये,
ठण्ड में चूल्हे की आग सेकी, गर्मी में धारे पे नहाये.

कौन सा बँधन बाँधे हमको, जन्मभूमि, देवभूमि से दूर,
पूछ रहा "जिग्यांसू" आपसे, कितने खुश हो या मजबूर?

समझ में तो है आ रहा, भला नहीं होता प्रवास,
भुगतो सुख दुःख सारे, यही समझना है खास.

तेज झुलसती गर्मी में,  अपना कुमायूं और गढ़वाल.
जाते हैं घुमक्कड़ पहाड़ पर घूमनें, जब गर्मी से बेहाल.

सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(30.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७ 
       

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
   "गर्मी से बेहाल"

तेज झुलसती गर्मी में, तन मन हुआ बेहाल,
अब याद आ रहा है, अपना कुमायूं और गढ़वाल.

जल्दी जाकर किसी गाड में, ठंडे पानी से नहायें,
हिंसर, किन्गोड़ और काफल, छक-छक्क कर खायें.

बांज, बुरांश और देवदार के, जंगल जहाँ दिख जायें,
कल कल बहता पानी पीकर, बेफिक्र होकर सो जायें.

सर सर बहती हवा में, किसी धार के ऊपर बैठ जायें,
देखें धरती उत्तराखंड की, व्यथित मन को बहलायें.

 
       


ज्याड़ा साहब,
       वन विभाग की सहृदयता और जागरुकता के कारण, बांज,बुरांश और देवदार का भी यही हाल है, जो हमारा है, पहाड़ों में आग और धुंध ने जीना मुहाल कर रखा है। जंगल धूं-धूं कर जल रहे हैं और सुध लेने वाले कहीं और ही व्यस्त हैं।

jagmohan singh jayara

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 188
  • Karma: +3/-0
महर जी,

   जंगलों के जल जाने के कारण सब कुछ तहस नहस हो जाता है.  कवि की कल्पना गर्मी के मौसम में हरे भरे जंगलों के इर्द गिर्द घूमती है.  धरातल पर क्या हो रहा है, देवभूमि से दूर रहकर समाचार मिलते रहते हैं.  सरकार तो अपने स्तर पर वनों को बचने की कवायद करती रहती है, लेकिन हमारा भी फर्ज है वनों को हरा भरा रखनें का. हवा पानी हमें चाहिए...इसलिए भी.....           

jagmohan singh jayara

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 188
  • Karma: +3/-0
 "आसमान से बरसी "आग"

अपने शहर में आजकल,
बरस रही, आसमान से आग,
कह रहा है मन ये अपना,
हो सके, दूर यहाँ से भाग.

सोचा रहा हूँ  अब, दूर कहाँ को जाऊं,
पहाड़ भये परदेशी, यहाँ कहाँ से लाऊं.

तन हुआ जड़मति अपना, मन गया गढ़वाल,
पहाड़ में एक छान अन्दर बैठा, कर रहा है सवाल?

निकट ही एक धारा है, जिसमें बह रहा ठंडा पानी,
हे कवि "जिग्यांसू" तूने,  इसकी कदर कभी न जानी.

क्योँ दूर गया तू दिल्ली में, छोड़कर पहाड़ का पानी,
बेहाल हो गया जब गर्मी से, तब ही कदर है जानी.

मेरा तो स्वभाव चंचल है, जहाँ भी मैं जाऊं,
बेहाल हो बरसती आग में, तुझे क्या समझाऊँ.

सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(30.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७         

jagmohan singh jayara

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 188
  • Karma: +3/-0
 "गर्मी में दून घाटी"

गर्मी का रिकार्ड टूटा,
गर्म हो गई दून घाटी,
ग्लोबल वार्मिंग का असर है,
या बदल गई है माटी.

उत्तराखंड के मनमोहक,
पहाड़, जंगल और नदियाँ,
गर्मियौं में रहती ठंडक,
दिखती सुन्दर घाटियाँ.

विकास के बढ़ते कदम,
या कारण घटता हरित आवरण,
कारक ये दोनों ही हैं,
बदला पहाड़ का पर्यावरण.

जैसे जीवन शैली बदली,
प्रकृति का भी बदला मिजाज,
तभी तो बहुत गर्म हो रही है,
देखो, दून घाटी आज.


सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(1.5.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७         

bhanupathak

  • Newbie
  • *
  • Posts: 3
  • Karma: +1/-0
मेर पहाड़ को नन्तिन.....
« Reply #147 on: May 09, 2009, 11:46:30 AM »
फिर एक uttrakhandi लड़का


खिला एक फूल फिर इन पहाडों में.
मुरझाने फिर चला delhi की गलियों में.
graduate की डिग्री हाथ में थामे निकल गया.
फिर एक uttrakhandi लड़का जिंदा लांश बन गया.......

खो गया इस भागती भीड़ में वो.
रोज़ मारा बस के धक्कों में वो.
दिन है या रात वो भूल गया.
फिर एक uttrakhandi लड़का जिंदा लांश बन गया......

देर से रात घर आता है पर कोई टोकता नहीं.
भूख लगती है उसे पर माँ अब आवाज लगाती नहीं.
कितने दिन केवल चाय पीकर वो सोता गया.
फिर एक uttrakhandi लड़का जिंदा लांश बन गया......

अब साल में चार दिन घर जाता है वो.
सारी खुशियाँ घर से समेट लाता है वो.
अपने घर में अब वो मेहमान बन गया
फिर एक uttrakhandi लड़का जिंदा लांश बन गया......

मिलजाए कोई गाँव का तो हँसे लेता है वो.
पूरी अनजानी भीड़ में उसे अपना लगता है वो.
 पहाडी  गाने सुने तो उदास होता गया..
फिर एक uttrakhandi लड़का जिंदा लांश बन गया......

न जाने कितने फूल पहाड के यूँ ही मुरझाते हैं..
नौकरी के बाज़ार में वो बिक जाते है.
रोते हैं माली रोता है चमन..
उत्तराखंड का फूल उत्तराखंड में महकेगा की नहीं...............?

भानू पाठक
गंगोलीहाट , पिथोरागढ़
हाल: देहरादून
9412001141

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
फिर एक uttrakhandi लड़का


खिला एक फूल फिर इन पहाडों में.
मुरझाने फिर चला delhi की गलियों में.
graduate की डिग्री हाथ में थामे निकल गया.
फिर एक uttrakhandi लड़का जिंदा लांश बन गया.......

palayan par bahut satik baat rakhi hai pathak ji, aage bhi aapki kavitao ki pratiksha rahegi

खीमसिंह रावत

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 801
  • Karma: +11/-0
dil ko chhune wali kavita hai Pathak ji dhanydab



फिर एक uttrakhandi लड़का


खिला एक फूल फिर इन पहाडों में.
मुरझाने फिर चला delhi की गलियों में.
graduate की डिग्री हाथ में थामे निकल गया.
फिर एक uttrakhandi लड़का जिंदा लांश बन गया.......

9412001141


 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22