Author Topic: उत्तराखंड पर कवितायें : POEMS ON UTTARAKHAND ~!!!  (Read 527391 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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यह कविता मोहन लाल टम्टा, दुगाल खोला (अल्मोड़ा) जी ने यह बदलते समय पर यह कविता लिखी है !

हाय पराण, हाय पराण, हाय पराण
पाखा का पाथर हराण, लिपिया भीतेर हराण
गहत और भट हराण, मुडवाक रुवात हराण

हाय पराण, हाय पराण, हाय पराण

नान नान बाट हराण, चाख और घट हराय
नौ पाट घागरी हराण, फुल आस्तीन बिलौज हराण
चुपतौव और नौव हराण, उखाव और मुसव हराण
हाय पराण, हाय पराण, हाय पराण

साभार (पहरु पत्रिका) कुमाउनी मासिक



धनेश कोठारी

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.......हल्ला मचाती है नदी

उजालों में ढलने लगी है नदी
अंधेरों में बहने लगी है नदी

वो आदिम से पहले चली थी सफ़र पर
उफ़्फ़! आदम शिकंजे में घिर चुकी है नदी

चली आ रही थी वह अल्हड़ सी रोज
लो, खंदकों में कैद हो चुकी है नदी

जो जरिया थीं कल तक आदम सभ्यता की
बाजारों में ’छुट्टा’ बिकने लगी है नदी

इधर मेरे हिस्से अंधेरा भी स्याह है
फ़िर कहां बनके बिजली कौंधती है नदी

चलो इस अजुबे को गो हम भी देखें
कब किधर से वापस मुड़ती है नदी

बवंडर हुआ ज्यादा बस्स! अब तो चुप
झिड़कते हैं ’वो’ और सिसकती है नदी

फ़कत इक शहर ना वो तो डुबा पहर है
हाकिम की मानें तो ’हल्ला’ मचाती है नदी ।

Copyright@ Dhanesh Kothari

jagmohan singh jayara

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"सुणनि छैं  तू"

हेजि यथैं सुणा दौं,
क्या   छैं बोन्नी हे भग्यानी?
अपन्णु कपाळ कि तुमारु,
तुम्न एक बात भि सुणि,
क्या..झट्ट बतौ?
पदान जिओर भग्यान ह्वैगिन,
अरे! यनु बोल दौं,
यीं दुनियाँ बिटि चलिग्यन,
क्या तेरा नाक फर खाज छ होणि?
नितर तू भि गाड़ फूली,
पदानि बौ की तरौं,
मेरा  भग्यान होण सी पैलि,
छिभै क्या छै बोन्यां,
तुम देखिक त,
ज्युंरा भि डरदु,
द चुपरा गिच्चू न चलौ,
"सुणनि छैं  तू".

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित ३१.३.२०१०)
दूरभास: ०९८६८७९५१८७
E-Mail: j_jayara@yahoo.com

jagmohan singh jayara

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ओलि गदनी,
खाई भताग,
पली गदनी,
ह्वै निसाब,
जमानु यनु,
जैकि दाब.

झुरि पराण,
कख जाण,
पोटगि फर,
लगिं  आग,
माणदु  निछ,
पापी पराण,
क्वी बोल्दा,
कनु लगि,
तैकि  पोटगि ,
फर मसाण.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित ३१.३.२०१०)
दूरभास: ०९८६८७९५१८७

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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मेरु पहाड़ कन सुन्दर लगध हिंवाली डांडी कांठियों का बीच मा
स्वानी धरती यख कन सुन्दर लगदी मेरा गडवाल मा

शिधा साधा लोग रहेंदा जख देव भूमि गडवाल नूं च तक
छुटो -छुटो गदनी को पानी सुर-सुर हवा चलदी यख

टिहरी चमोली उत्तरकाशी पोडी रुद्रप्रयाग कुमाओं पिथोरागढ़ जिला छीन जख
मेरा सुन्दर पहाड़ का जिलों का नाम छीन ये तक

के जातियों का लोग रहेंदा मेरा पहाड़ मा जख
मीठी बोली भाषा एक रूप रंग का लोग रहेंदा तक

बन बनियाँ का फूल बनों मा हरियाली च जख
ये पहाड़ मा कनु सुन्दर नाम गडवाल च तक

बनूँ मा मिउली हिलांश काफू बस्दा जख
खुदेडू मन खुदी जान ये पहाड़ मा तक

बीर जवानों की धरती च ये पहाड़ मा जख
गबर सिंह जन वीर सिपाई पैदा वेन यख

देवी देवताओं की भूमि च ये पहाड़ मा यख
केदार बद्री यमनोत्री गंगोत्री चार धाम छीन जख

बणो मा बुरांश का फूल खेतों मा फ्योंली हंसनी च जख
कन सुन्दर लगदी फूलों की घाटी मेरा गडवाल मा तक

देश बिदेश मा रहेंदा मेरा गड्वाली भाई बंधो जक
न भुलियाँ ये देव भूमि गडवाल त तक
जो भरा नहीं है भावौं से बहती जिसमें रसधार नहीं
वह हिरदय नहीं पतथर है जिसको अपनें गडवाल से प्यार नहीं" जय उत्तरखंड

from   bs rawat <bs_rawat90@yahoo.com>

jagmohan singh jayara

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"प्रेम माया"

एक गीतकार और कविन,
लिखि गढ़वाळी मा,
एक गीत "प्रेम माया",
तू नारंगी की दाणी छैं,
रूपवान यथगा कि,
ज्वानु कि दवै,
बुढ्यौं कू बुखार छैं,
जोन जनि मुखड़ी तेरी,
प्यारी फूर्कि बांद छैं.

गितांग भैजिन जब,
प्रेम माया गीत गायी,
एक सुन्दर सी नौनिन,
ऊँका धोरा  अैक बताई.

बोन्न बैठि हे गितांग जी,
जन्मपत्री क्या जुड़ौण,
गितांग बोन्नु माफ़ी चान्दु,
तुम ऊँ गीतकार कवि जी मू जावा,
जौन यू गीत लिखि,
ऊंमा अपणा मन की बात,
प्यार सी बतावा,
किलैकि, ऊ  अजौं क्वांरा छन.

पौंछिगि जब वा,
गीतकार अर कवि जी का धोरा,
देखि अर बोलि, 
हे गीतकार अर कवि जी,
तुम बगोट जी सी भौत कमजोर छै,
कनुकै उठि  तुमारा मन मा,
कल्पना मा "प्रेम माया".

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित ३.४.२०१०)


"ठंडु मतलब"

बांज बुरांश का बण मा,
ढुंगा का नीस बिटि निकल्दु,
कांच की तरौं  छाळु,
निकळ्वाणि पाणी,
कखन पेण अब,
पहाड़़ मा  पौंछिगि,
बोतळ बन्द पाणी.

प्रसून जोशीजिन,
ठंडा कू मतलब,
कोकाकोला बतायी,
बोडिन देखि टेलीविजन फर,
एक दिन जब गै  बजार,
ठंडु  पाणी समझिक,
वींन कोकाकोला की बोतळ,
घट्ट घटकाई.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित ४.४.२०१०)

पंकज सिंह महर

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पहाड़ियौ उठ ! (कुमांउनी कविता )


पहाड़ियौ उठ !
तुम नि जाणना कि ह्वै रौ ।
तुम पथरीला गाड़ - खेतून में
'सोना' उगुने कोशिश कर छा
और 'लोहा' समझि भेर
सरहद पर भेज छा
आफन बालक....
तुम नि जाणना
बालक लोहा का बनिना का नि हुना ....
उन्स त सरहद पर 'लोहा' खान् पड़लो...!
उन शहीद नै बल्कि
राजनीती का हातून
पिटिया 'मोहरा ' ह्वाल ....
और भोल सरकारी दफ्तारून में
तुमरी बद हवाश ब्वारीन
लोग कै नज़रले देखाल ....?
तुम नि जाणना ...
ये कारन पहाड़ियौ उठ !
आफन पथरीला खेतून में
आब 'सोना ' नै बल्कि 'लोहा' उगा !
(दीपक तिरुवा)

हिन्दी भावार्थ

पहाडियों उठो!
तुम नहीं जानते
क्या हुआ है?
तुम पथरीले खेतों में
सोना उगाने की
कोशिश करते हो..।
और लोहा समझ कर
सरहद पर भेजते हो
अपने बच्चे....
तुम नहीं जानते
बच्चे लोहे के नहीं होते...
वे सरहद पर लोहा खाएँगे।
वे शहीद नहीं
सियासत के हाथों पिटे हुए
मोहरे होंगे...
और कल सरकारी दफ्तरों में
तुम्हारी बदहवाश बहुएँ
किस 'एंगल और फ्रेम' से
देखी जायेंगी ?
तुम नहीं जानते!
इसलिए उठो !
अपने पथरीले खेतों में
अब सोना नहीं...
लोहा उगाओ..!

साभार- http://bedu-pako.blogspot.com/

पंकज सिंह महर

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'चरित्र..' /तसलीमा नसरीन (कुमांउनी में )

तु चेलि छै
य भली कै याद राखिये ।
तु जब घरकि देली पार करली
लोग त्वेस तिरछि नज़रले देखाल ।
तु जब गली बटी गुजरली ,
लोग त्वेस गालि द्याल,सिट्टी बजाल।
तु जब गली पार करि बेर
मुख्य सड़क में पुजली,
उन त्वे 'चरित्रहीन' कौला ।
अगर तु निर्जीव छै त
लौटि पड़्ली, नति
जसी जांछी ,जानी रौली...!
Posted by Deepak Tiruwa
साभार- http://bedu-pako.blogspot.com

पंकज सिंह महर

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बोल...!/फ़ैज़ (कुमाउनी में )


बोल...!
कि त्यार होंट आजाद छन ,
बोल ज़बान आन्जि ले तेरी छ।
तेरो सशक्त शरीर तेरवे छ ,
बोल कि जान आन्जि ले तेरी छ।
बोल ...!
कि लुहारै कि दुकान में ,
तेज़ छन अंगार ,लाल छ लौह ।
खुलि ग्यान बंद कड़ी क मुख ,
फैलि ग्यो दामन हर जन्जिरौ ।
बोल यो थोड़ै बखत भौत छ ,
शरीर ज़बानै मौत हैं पैले ।
बोल कि सत्य जीवित छ आन्जि ले ।
बोल जिलै कूण छ कैले।

by Deepak Tiruwa
साभार- http://bedu-pako.blogspot.com

jagmohan singh jayara

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"गंगा जी का मैती"

तिस्वाळा छन आज,
जख बिटि औणि छ गंगा,
अर बग्दु जाणी,
पहाड़ छोड़ी दूर,
सागर की तरफ.

छोया ढुंग्यौं कू पाणी,
हर्चंणु छ आज,
तिस्वाळा छन मन्खी,
अर छन घंगतोळ मा,
बिना पाणी कू क्या करौं?
जाणा छन गौं छोड़ि,
यनु अपणा मन मा सोचि,
तिस्वाळा किलै मरौं.

कथगा धौळि बगणि छन,
देवभूमि उत्तराखंड मा,
ऊंकू पाणी पर्वतजनु तैं पिलावा,
बंजेणा  छन घर गौं,
सरकार तैं भी समझावा.

पैलु हक्क  पर्वतजनु कु छ,
उंकी तीस बुझावा,
धौळ्यौं कू बग्दु पाणी,
पम्प करिक पहाड़ मा,
गंगा जी का मैत्यौं तैं,
छकि-छकिक पिलावा,
तिस्वाळु न सतावा.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा  "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित १२.४.२०१०)

 

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