"नानी सुणैदि एक कहानी"
नानी-नानी आज सुणैदि,
मैकु एक कहानी,
भूत की हो चा जैकि भि,
या क्वी रज्जा रानी.
नानी बोन्नि सुण हे नाती,
एक भूत की कहानी,
बात या उबरी किछ,
जबरि मै फर थै जवानी.
हमारा गौं मा तबरी थै,
पाणी की किल्लत भारी,
रात मा ऊठिक धारा मू गयौं,
मुण्ड मा बंठा धारी.
धारा निस बंठा लगैक,
मैन नजर उनै फुनै दौड़ाई,
दूर एक पुंगड़ा मा खड़ु,
भूत मैकु नजर आई.
वे भूतन जोर जोर सी,
खूब मचाई खिंख्याट,
लम्बू दिखेणु द्योरा तक,
होणु अति भारी भिभड़ाट.
छोरा क्या बोन्न तब मेरी,
ज्युकड़ी धक् धक् धक्द्याई,
डौरन यकुलि अँधेरी रात मा,
कुछ बात समझ नि आई.
भर्युं बंठा मुण्ड मा ऊठैक,
हिटदु-हिटदु नरसिंग मैन पुकारी,
भूत कुजाणि कख भागिगी,
मेरा गौणा ह्वेन भारी.
घौर का न्योड़ु जनु पौन्छ्यौं,
एक आवाज मैकु आई,
अब नि डरी रोट काटी दे,
देवतान मैकु यनु बताई.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(१०.८.२०१०)
दिल्ली प्रवास से.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखण्ड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
"बौड़ कू डाळु"
मेरा गौं मा सबसि पुराणु,
पाणी का धारा का न्योड़ु,
द्वी सौ साल की उम्र कू,
तप्पड़ मा फैल्युं,
एक बड़ु भारी "बौड़ कू डाळु",
जैका नीस बैठदा छन,
ग्वैर, बट्वै, गौं का मनखी,
वैका बकळा छैल मा,
झूला खेल्दा छन छोरा,
वैकि जटा पकड़िक,
जू गवाह छ मेरा गौं का,
प्यारा अतीत कू,
जैन देखि होला,
दादा, पड़दादा, झड़दादा,
जू आज पित्र बणिग्यन.
हमारा गौं कू एक ल्वार,
जैकु नौं थौ मूसा,
वेन रोपि थौ, छोट्टु बौड़ कू डाळु,
अणसाळ कन्न की जगा फर,
जू आज एक प्राकृतिक धरोहर भिछ,
मेरा गौं की पछाण का रूप मा,
प्यारू पित्रू कू पाळ्युं "बौड़ कू डाळु".
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(९.८.२०१०)
दिल्ली प्रवास से.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखण्ड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)