Author Topic: उत्तराखंड पर कवितायें : POEMS ON UTTARAKHAND ~!!!  (Read 527425 times)

jagmohan singh jayara

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 188
  • Karma: +3/-0
"बसगाळ्या बरखा"

चौक मा चचेन्डी, तोमड़ी लगिं,
कुयेड़ी लगिं घनघोर,
तितरू बासणु गौं का न्योड़ु,
द्योरू होयुं अंध्याघोर.

मनखी बैठ्याँ भितर फुंड,
बरखा लगिं झकझोर,
फूल्टी भरी ऊस्यौण लग्याँ,
मुंगरी, गौथ अर तोर.

हरीं भरीं दिखेण लगिं,
कोदा झंगोरा की सार,
डांडी कांठ्यौं मा छयुं छ,
संगति हर्युं रंग हपार.

रसमसु होयुं छ द्योरू,
बगदा बथौं कू फुम्फ्याट,
कखि दूर सुणेण लग्युं,
गाड गद्न्यौं कू सुंस्याट.

विरह वेदना मन मा लगिं,
पति जौंका परदेश,
देवतौं छन मनौण  लगिं,
कब बौड़ि आला गढ़देश.

छोरा छन कौंताळ मचौणा,
ऐगि "बसगाळ्या बरखा",
दादा दादी बोन्न लग्याँ,
हे बेटों भितर सरका.

रचना: जगमोहन सिंह  जयाड़ा "जिज्ञासु"
(१.८.२०१०)
दिल्ली प्रवास से.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखण्ड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम  पर प्रकाशित)

jagmohan singh jayara

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 188
  • Karma: +3/-0
"नानी सुणैदि एक कहानी"
 
नानी-नानी आज सुणैदि,
मैकु एक कहानी,
भूत की हो चा जैकि भि,
या क्वी रज्जा रानी.

नानी बोन्नि सुण हे नाती,
एक भूत की कहानी,
बात या उबरी किछ,
जबरि मै फर थै जवानी.

हमारा गौं मा तबरी थै,
पाणी की किल्लत भारी,
रात  मा ऊठिक धारा मू गयौं,
मुण्ड मा बंठा धारी.

धारा निस बंठा लगैक,
मैन नजर उनै फुनै दौड़ाई,
दूर  एक पुंगड़ा मा खड़ु,
भूत मैकु नजर आई.

वे भूतन जोर जोर सी,
खूब मचाई खिंख्याट,
लम्बू  दिखेणु द्योरा तक,
होणु अति भारी भिभड़ाट.   

छोरा क्या बोन्न तब मेरी,
ज्युकड़ी धक् धक् धक्द्याई,
डौरन यकुलि अँधेरी रात मा,
 कुछ बात समझ नि आई.

भर्युं  बंठा मुण्ड मा ऊठैक,
हिटदु-हिटदु नरसिंग मैन पुकारी,
भूत कुजाणि कख भागिगी,
मेरा गौणा ह्वेन भारी.

घौर का न्योड़ु जनु पौन्छ्यौं,
एक  आवाज मैकु आई,
अब नि डरी रोट काटी दे,
देवतान मैकु यनु बताई.

रचना: जगमोहन सिंह  जयाड़ा "जिज्ञासु"
(१०.८.२०१०)
दिल्ली प्रवास से.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखण्ड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम  पर प्रकाशित)

"बौड़ कू डाळु"
 
मेरा गौं मा सबसि पुराणु,
पाणी का धारा का न्योड़ु,
द्वी सौ साल की उम्र कू,
तप्पड़ मा फैल्युं,
एक  बड़ु भारी "बौड़ कू डाळु",
जैका  नीस बैठदा छन,
ग्वैर, बट्वै, गौं का मनखी,
वैका  बकळा छैल मा,
झूला खेल्दा छन छोरा,
वैकि जटा पकड़िक, 
जू गवाह छ मेरा गौं का,
प्यारा अतीत कू,
जैन देखि होला,
दादा, पड़दादा, झड़दादा,
जू आज पित्र बणिग्यन.
 
हमारा गौं कू एक ल्वार,
जैकु नौं थौ मूसा,
वेन रोपि थौ, छोट्टु बौड़ कू  डाळु,
अणसाळ कन्न की जगा फर,
जू आज एक प्राकृतिक धरोहर भिछ,
मेरा गौं की पछाण का रूप मा,
प्यारू पित्रू कू पाळ्युं "बौड़ कू डाळु".
रचना: जगमोहन सिंह  जयाड़ा "जिज्ञासु"
(९.८.२०१०)
दिल्ली प्रवास से.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखण्ड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम  पर प्रकाशित)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0

अति सुंदर कविता लिखी छा जगमोहन जी

"अबत डौर लगणि छ"

भारी खुश होन्दु थौ,
यू पापी पराण,
यनु सोचिक,
मेरी प्यारी  जन्मभूमि,
देवभूमि उत्तराखण्ड छ.

उत्तराखण्ड की राजधानी,
उत्तराखंडी नेतौं की नगरी,
गैरसैण की सौत देरादूण,
वख बल अजग्याल,
थेंचि धोळि आलू की तरौं,
उत्तराखण्ड की मित्र पुलिसन,
सत्तापक्ष कू एक विधायक,
जबकि,
विधायक बोन्न थौ लग्युं,
अरे! मैं विधायक छौं.

क्या होलु?
उत्तराखंडी भै बन्धु,
देखा अब यनु होलु,
उत्तराखण्ड कू विकास,
हमारी भी टूटि सक्दि छन,
कमजोर हाथ गौणी,
ऊँका हाथन,
जौन नेता जी कू करि,
पलग पछोड़,
जबकि ऊ  एक थैलि का,
चट्टा बट्टा छन.

"अबत डौर लगणि छ",
कनुकै जौला, वे प्यारा मुल्क,
भौं कबरी, पहाड़ प्रेम मा,
ज्यु कनु छ जब जौलु,
खोजलु कर्ण कू कवच कुंडल.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखण्ड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
दिनांक:१३.७.२०१०


Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 572
  • Karma: +5/-0
                      "एक बार मुझे"

हिला पहाड़ मुझे एक बार, अन्दर से, मेरी अनुभुति के लिए.
एक बार तो अवसर दे, मुझे पहाड़, मेरी अभिव्यक्ति के लिए.

मै नही जानता तु कितना विशाल है,
मै नही जानता तु कितना कठोर है,

एक बार मुझे टकराने दे पहाड़,
तेरी विशालता,कठोरता जानने के लिए.

मै नही जानता तु कितना ऊंचा है,
मै नही जानता तु कितना उतार है,

एक बार मुझे अवसर दे पहाड़,
चढने और उतरने के लिए.

मै नही जानता हु, कि तुझमे कितना विरहपन है, खामोशी है.
एक बार मुझे फिर आने दे पहाड़, वादी मे, बांसुरी वादन के लिए.

सुन्दर सिंह नेगी 11/08/2010.

विनोद सिंह गढ़िया

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 1,676
  • Karma: +21/-0
"तुम मांगते हो उत्तराखंड कहाँ से लाऊं ?"
 
तुम मांगते हो उत्तराखंड कहाँ से लाऊं ?
सूखने लगी गंगा, पिघलने लगा हिमालय !
उत्तरकाशी है जख्मी, पिथोरागढ़ है घायल !!
बागेश्वर को है बैचनी, पौड़ी में है बगावत !
कितना है दिल में दर्द, किस-किस को मैं दिखाऊ !
तुम मांग रहे हो उत्तराखंड कहाँ से लाऊं ?
 
मडुआ, झंगोरे की फसलें भूल,
खेतों में हैं जेरेनियम के  फूल,
गाँव की धार में रेसोर्ट बने ,
गाँव के बीच में स्विमिंग पूल !!
कैसा  विकास ? क्यों घमण्ड ?
तुम मांगते हो उत्तराखंड ?

खड्न्चों से विकास की बातें,
प्यासे दिन, अंधेरी रातें
जातिवाद का जहर यहाँ,
ठकेदारी का कहर यहाँ
घुटन सी होती है,  आखिर कहाँ जाऊँ ?
तुम मांगते हो उत्तराखंड कहाँ से लाऊं ?

वन कानूनों ने छीनी छाह,
वन आवाद और बंजर गाँव ,
खेतों की मेड़े टूट गयी,
बारानाज़ा संस्कृति छूट गयी '
क्या गढ़वाल, क्या कुमाऊ ?
तुम मांग रहे हो उत्तराखंड कहाँ से लाऊं ?

लुप्त हुए स्वावलंबी गाँव ,
कहाँ गयी आफर की छाव?
हथोड़े की ठक-ठक का साज़ ,
धोकनी की गर्मी का राज़,
रिंगाल के डाले और सूप ,
सैम्यो से बनती थी धूप,
कहाँ गया ग्रामीण उद्योग ?
क्यों लगा पलायन का रोग ?
यही था क्या "म्यर उत्तराखंड " भाऊ ?
तुम मांगते हो उत्तराखंड, कहाँ से लाऊं ?

हरेले के डिगारे, मकर संक्रांति के घुगुत खोये ,
घी त्यार का घी खोया ,
सब खोकर बेसुध सोये ,
म्यूजियम में है उत्तराखंड चलो दिखाऊ !
तुम मांगते हो उत्तराखंड, कहाँ से लाऊं ??

 
 
कविता : श्री हेम बहुगुणा

jagmohan singh jayara

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 188
  • Karma: +3/-0
"देवभूमि तेरा दर्द"
 
तिस्वाळे हैं गाँवों के  धारे,
नदियाँ हैं तो प्यासे हैं लोग,
कैसे बुझेगी पर्वतजनों की तीस?
देखो कैसा हैं संयोग.
 
प्राकृतिक संसाधन बहुत  हैं,
मनमोहक प्रकृति का सृंगार,
पलायन कर गए पर्वतजन,
जहाँ मिला उन्हें रोजगार.
 
रंग बिरंगे फूल खिलते हैं,
जंगलों में पक्षी करते करवल,
वीरानी छा रही गावों में,
कम है मनख्यौं की हलचल.

जंगल जो मंगलमय  हैं,
हर साल जल जाते हैं,
कितने ही वन्य जीव,
अग्नि में मर जाते हैं.
 
पुंगड़े हैं बंजर हो रहे,
कौन लगाएगा उन पर हल?
हळ्या अब मिलते नहीं,
बैल भी हो गए अब दुर्लभ.
 
पशुधन अब  पहाड़ का,
लगभग हो रहा है गायब,
छाँछ, नौण भी दुर्लभ,
घर्या घ्यू नहीं मिलता अब.
 
ढोल दमाऊँ  खामोश हैं,
ढोली क्यों उसे बजाए,
हो रहा है त्रिस्कार उसका,
परिजनों को क्या खिलाए.

नदियों को है बाँध दिया,
गायों को  है खोल दिया,
देवभूमि की परंपरा नहीं,
हे मानव ऐसा क्यों किया?

हे पर्वतजनों चिंतन करो,
सरकार अपनी  राज्य है अपना,
"देवभूमि तेरा दर्द" बढ़ता ही गया,
साकार नहीं सबका सपना.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरा पहाड़, यंग उत्तराखंड पर प्रकाशित)
(१६.८.२०१०)दूरभास: 09868795187
जन्मभूमि: बागी-नौसा, चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल.

jagmohan singh jayara

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 188
  • Karma: +3/-0
"पहाड़ पहले"

पहाड़ बहुत गरीब था,
सच है कवि "निशंक",
राजशाही के अधीन,
रहता था आतंक.

कितने ही कस्ट भोगे,
फिर पहाड़ को छोड़ा,
आज समृधि आई  है,
पर्वतजनों में थोड़ा.

आपने गरीबी देखी,
लेकिन, नहीं हो अकेले,
हमने भी उस  पहाड़ में,
गरीबी के दिन हैं झेले.

हमारा बचपन भी,
उन पथरीली राहों पर बीता,
जिंदगी की जंग जारी है,
हाथ है आज भी रीता.

ये ख़ुशी की बात है,
सत्ता है आपके हाथ,
करो कायाकल्प उत्तराखंड का,
होगी बड़ी ख़ुशी की बात.

कवि जगमोहन "जिज्ञासु" के,
ये हैं मन के उदगार,
जो बीत गया वो भला,
अब खुशियाँ मिलें अपार.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(यंग उत्तराखंड और मेरा पहाड़ पर प्रकाशित)
दिनांक: १८.८.२०१०
(मुझसे ज्यादा गरीबी शायद ही किसी ने देखी हो-पर रचित)
 Source:-
http://in.jagran.yahoo.com/sahitya/?page=article&articleid=2313&category=10

Rajen

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 1,345
  • Karma: +26/-0
दिनेश बिजल्वाण जी द्वारा रचित:

    दिल्ली जात्रा-१             
 
 सुणा दग्ड्यो मग्तू की शैल-बाबा जी जैका फौत ह्वैगी था,
भाइ-भौज बि जुद्दा ह्वै गी था ,
कब तक वैकी मुन्ड्ली मसाल्दी , छाकला कै बै वै पाल्दी,
करी वैन शुरो सान्स , भला दिनो की छै वै आस ,
बोल्न बैठे -मा , जाण दे दिल्ली , फिर जाणेन दिन ,
रूप्या हि रूप्या कमोणैन मिन,
ठाटदार कोठी , सिमेन्ट को गुठ्यार,खडी ह्वोली ,
अप्णी मारूति कार
भाग तै वीन दिनै अप्णा गाली-
बोल्न बैठी सुणी बेटा की रन्ग्वाली,
रूप्या न राप्या , न चैन्द गाडी ,
दुयौ तै भौत कन्डाली और बाडी ,
बुड्या च सरील मेरो, जाणे कब होन्दी जाणी,
को धोल्ळो , मुख द्वी बुन्द पाणी,घर रा बेटा ,
कमैलो चाए , नि कमैलो,
मुर्दी दा मेरी आन्ख्यो का सामणी त रैल्यो
माया मम्ता क्ब देख्दो चुचो ज्वान जोश,
अधक्च्रा स्वीणा ख्वै देदान होश
बोल्न बैठे- कुछ रवै की, कुछ गिर्जे की-
बीस बरस कु छौ नि अब अजाक,
इन्टर पास छौ नि क्वी मजाक,
कब तै रैण ताल को गड्याल बणी,तु जाण दे दिल्ली मै सणी
तु त सुद्दी सुद्दी करदी फिकर,
दिल्ली मा नि च क्वी डर
मिली जालो वख क्वी न क्वी काम,
यख रै तै त बस बेवाल्न
बि त छ्न वख काका बडौ का,
हौर बि छ्न कत्गा हि गौ मुल्क का,
ह्च नि देला क्वी मै सारू
ल्ग हि जालो क्वी न क्वी रोज्गारो
जिद क अग्वाडी ब्वै की मम्ता हारी,
दिल्ली भेज्ण की करे तयारी
नथुली गिर्वी धरी , किराया काई,
उचाणो सिराइ अर दिन बार गडायी
आखिर ऐ हि ग्या वा घडी,
मा छाई बेटा की, अर बेटा दिल्ली की चिन्ता पडी
बोली विन सकारिक-
पैली दा छै जाणु घर से भैर,
परदेसी मुलक , लोग बि गैर,
भैर जैक बेटा खाण पड्देन खरी
परदेसी मुल्क को ढुन्गु भी बैरी,
जमानु च खराब बेटा सुण ले दी बात
सुद्दी सुद्दी नि फिर्णु कखी रात बे रात
पैली च शरील अपणो फिर ऒर धाणी
बग्त पर कै खै लेणो रोटी पाणी
दारु दरवाला अफीम गान्जा,
भूली क बि नि पडणु नशेड्यो का पान्जा
बोल्न बैठे सतेसुर बडा, मेरी बि सुण ले बुबा,
दिल्ली को छ मै चालीस बर्स को तजुरबा
झगडा हो कैकु अफु नि पड्णु अग्वाडी,
भाज्णु नि भुलीक बि बस अर छोरयो का पिछ्वाडी
आबोहवा गरम च वखा कि पर सर्द छ लोखु को ल्वै
बिराणौ कि बात च क्या,  अप्णा बि लुट्ला त्वै

jagmohan singh jayara

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 188
  • Karma: +3/-0
"पहाड़ अर शहर"

मन मा बस्युं छ,
प्यारू पहाड़,
शहर मा बस्याँ छौं,
कठिन प्रवास मा,
हम  देह समेत,
मन बाँजू सी,
उचाट होयुं,
जना पहाड़ का,
बंजेंदा  प्यारा खेत.

उत्तराखंड की,
नदी निहारी-निहारी,
ज्यू करि हमारू,
भागिग्यौं हम भी,
शहरों की तरफ,
पापी पेट का खातिर,
जनु भागदी छन ऊ,
उत्तराखंड सी दूर.

पहाड़ का मन मा,
हमारा भिछ आज,
दर्द, पिड़ा अति भारी,
"पहाड़ अर शहर" का बीच,
झूलणि छ कसक भरीं,
जिंदगी हमारी.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(यंग उत्तराखंड और मेरा पहाड़ पर प्रकाशित)
दिनांक: ६-९-२०१०

jagmohan singh jayara

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 188
  • Karma: +3/-0
"हमारू पहाड़"

आज नाराज किलै छ,
सोचा दौं हे लठ्याळौं,
किलै औणु छ आज,
बल गुस्सा वे सनै?

रड़ना झड़ना छन,
बिटा, पाखा अर भेळ,
भुगतणा छन पर्वतजन,
प्रकृति की मार,
कनुकै रलु पर्वतजन,
पहाड़ का धोरा?

जरूर हमारू पहाड़,
आज नाराज छ,
इंसान कू व्यवहार,
भलु निछ वैका दगड़ा,
नि करदु वैकु सृंगार,
करदु छ क्रूर व्यवहार,
हरियाली विहीन होणु छ,
आग भी लगौंदा छन,
पहाड़ की पीठ फर,
चीरा भी लगौंदा छन,
घाव भी देन्दा छन,
ये कारण सी होणु छ,
गुस्सा "हमारू पहाड़".

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक:१५.९.२०१०
(पहाड़ी फोरम, यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़ पर प्रकाशित, सर्वाधिकार सुरक्षित)

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22