Dr Umesh Chamola : A Multidimensional Garhwali Creative
-
by Sanjay chauhan
-
आज हम आपका परिचय करा रहे हैं डॉ. उमेश चमोला से । उमेश चमोला जिन्होंने बरसों से मौजूद लोककथाओं को (जिन्हें हम लोग अपने बुजुर्गों से सुना करते थे) को संगृहित करके आखरों में आने वाली पीढ़ी के लिए संजो कर रखा, लोक की संस्कृति और परम्पराओं को सरल और सहज बनाकर लोक में लाये, लोक की बोली, भाषा और लोकजीवन से जुड़े छोटे छोटे, लेकिन अनछुये और महत्वपूर्ण प्रसंगो से लोक का परिचय कराया, लोक के प्रति लगाव आपको विरासत में मिला है। आपकी प्रतिभा के हर कोई मुरीद है, खुद की मेहनत से लोक में मुकाम प्राप्त किया, लोक में आखर का ज्ञान देने के साथ साथ ये लोक को परिभाषित करने वाली एक दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकों का साक्षात्कार लोगों से करवा चुके हैं ।
डॉ. उमेश चमोला रुद्रप्रयाग जनपद में मन्दाकिनी घाटी के मैखंडा परगने के कौशलपुर गांव (बसुकेदार) के रहने वाले हैं । मां राजेश्वरी देवी और पिता श्रीधर प्रसाद चमोला के घर १४ जून १९७३ को आपका जन्म हुआ । स्नातक, परास्नातक. एम एड, की पढाई आपने गढ़वाल विश्व विद्यालय श्रीनगर से प्राप्त की। यहीं आपने पत्रकारिता में स्नातक भी किया । पत्रकारिता में आपको विश्वविधालय द्वारा रजत पदक भी दिया गया। १९९८ में आप बतौर शिक्षक राजकीय सेवा में आ गए। साइंस का छात्र और शिक्षक होते हुए भी लोक के प्रति जिज्ञाषा आपको विरासत में पिता श्रीधर प्रसाद चमोला से मिली। आप दर्जनों पुस्तकों का सम्पदान कर चुके हैं। आपके द्वारा लिखित किताब उत्तराखंड की लोक कथाओं में आपने जिस तरह से लोक में मौजूद कहानियों का समावेश किया है ।वह बेजोड़ है। ये कहानियां आज समाज से विदा हो चली हैं । डिजिटल युग में अब बच्चे इनसे दूर हो चले हैं। लेकिन, हमारी कई पीढ़ी इन्हीं कहानियों को सुनकर बड़ी हुई हैं। उस दौर में मोबाइल, टीबी, की जगह दादा-दादियों की यही कहानियां थी, जो न केवल मनोरंजन के साधन थे, अपितु इन कहानियों में समाज का ताना-बाना बुना हुआ होता था। सामाजिक मूल्यों को प्रगाढ़ करती ये कहानियां बरसों से यहाँ के समाज का हिस्सा रही हैं। ये कहानियाँ अच्छे बुरे को चरितार्थ करती है, साथ ही सोचने के विस्तृत दायरे से रूबरू करवाती हैं।
उत्तराखंड की लोक कथाओं में बंटवारा, ह्युंद के लिए, जय घोघा माता, तिस्मिली तिस तिस, काफल पाको मी नि चाखो, हल के स्यूं पर मछली सहित कुल ४२ कहानियां हैं। जो बरसों से उत्तराखंड के लोक में लोक कथाओं के रूप में मौजूद हैं। इन्हें दादा-दादी कथा काणी रात ब्याणी कहकर सुनाती थी, लेकिन आज फेसबुक, ट्वीटर, इंस्ट्राग्राम, विचेट, कार्टून के इस दौर में नौनिहालों के लिए ये पुस्तक किसी वरदान से कम नहीं है । इसके अलावा आपके द्वारा रास्ट्रदीप्ती, उमाल, आस पास विज्ञान, उत्तराखंड की लोक कथाएं भाग -१ और भाग-२, कचाकि- उपन्यास, फूल, धुरलोक से वापसी, पडवा बल्द नाम की किताब में ३२ गढ़वाली ब्यंग कवितायें, नानतिनो की सजोली –गढ़वाली-कुमाउनी बाल काब्य संग्रह जिसमें आपके और विनीता जोशी जी द्वारा होली, घिनुड़ी, किरमोड, बुरासं, हिंसोल, से लेकर घुघूती, फूल सगरान्द, सहित पहाड़ के हर उस बिंदु को उकेरा है, जो यहाँ के लोकजीवन के अभिन्न अंग हैं। रचनाओ का १५ से भी अधिक रास्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में संकलन प्रकाशित हो चुका है।
इसके अलावा निरबिजू एक गढ़वाली उपन्यास है तो पथ्यला में २९ गीत और १३ कविताएँ है, जिसमे पथ्यला ( सूखे हुये पेड़ो के पतियाँ) को जिस अधभुत ढंग से उकेरा है ,वह वाकई काबिले तारीफ़ है, इसके अलावा आपकी गढ़वाली गीतों की एक एलबम “गों माँ” भी आ चुकी है। आपकी अंग्रेजी भाषा की पत्रिका लविंग सिस्टर में बाल कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं। आप वर्तमान में राज्य शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद उत्तराखंड देहरादून में बतौर शिक्षक-प्रशिक्षक के पद पर कार्यरत हैं । उत्तराखंड विद्यालय शिक्षा द्वारा प्रकाशित पुस्तकों के संपादन और लेखन में भी आपकी सहभागिता होती है। वहीँ चन्द्र कुंवर बर्त्वाल, रविन्द्र नाथ टैगोर, महाकवि कालिदास, उत्तराखंड के लोकगीत, सहित अन्य विविध शोधपत्रों का प्रकाशन, लोकसंस्कृति, लोकसाहित्य के लिए दिये गए योगदान हेतु आपको विभिन्न मंचो से भी सम्मानित किया गया है । जिसमे ऋचा रचनाकार परिषद मध्य प्रदेश से भारत गौरव की मानद उपाधि.उत्तराखंड मिलन साहित्य सम्मान, छ्तीशगढ़ में साहित्य महिमा सम्मान, रास्ट्रीय बाल प्रहरी, रास्ट्रीय काब्य श्री एवं बाल प्रहरी सृजन श्री सम्मान, सहित पंजाब, उत्तरप्रदेश एवं दिल्ली की कई साहित्यक संस्थाओं से सम्मान भी मिल चुका है।
उमेश चमोला कहते हैं कि जीवन में रचनात्मकता बहुत जरुरी है, इसके बिना जीवित मनुष्य भी मृत्यु तुल्य है, आगे कहते हैं की जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ स्वजनों के प्रयासों से आई मृत्यु से साक्षत्कार है, जिसने मेरी जीवन का उद्देश्य ही बदल कर रख दिया, मेरे जीवन में मेरी माता और पिताजी का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा है, उनके द्वारा दिखाए गए रास्ते का ही अनुकरण कर रहा हूँ, वर्तमान युवा पीढ़ी का अपनी मात्रभाषा, लोकसंस्कृति, परम्पराओं, से विमुख होना काफी तकलीफ देय है। यदि हमें अपनी लोकभाषा, लोकसंस्कृति को बचाए रखना है तो युवा पीढ़ी के युवाओं को अधिक से अधिक संख्या में आगे आना होगा। जैसी आत्मीयता, और बैभवशाली हमारी संस्कृति और बोलियाँ है वैसी अन्यत्र नही, लोक से लगाव ने ही जीवन की दिशा और दशा बदल कर रख दी। कोशिस कर रहा हूँ की लोक का कुछ ऋण लौटा सकूँ और आने वाली पीढ़ी को कुछ दे सकूं। वास्तव में यदि देखा जाय तो डॉ. उमेश चमोला जैसे लोग समाज के लिए किसी प्रेरणा से कम नहीं है। उन्होंने लोक, लोकभाषा, लोकसंस्कृति को अपनी लेखनी के द्वारा नया आयाम दिया है और लोक को नई पहचान दिलाई है। लोक के लिए समर्पित २५ बरसो से उनकी ये जात्रा आज भी बदस्तूर जारी है…।
संजय चौहान, बंड पट्टी,पीपलकोटी, चमोली
Thanking You .
Presented by Bhishma Kukreti