Author Topic: उत्तराखंड पर कवितायें : POEMS ON UTTARAKHAND ~!!!  (Read 527516 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Poem by Mr. PC Godiyal
 हे ! तुमुन कबारी क्यैगा आरसा चुरैन ?
 जब मैं छौ अपरी उम्र कु भौत नादान
 तब रंदु छौ बण्यु गौ कु गबरू पदान
 लुकारी खोल्यो मा चडीक, खादरा परै
 चोरी-चोरिक खाएं मिन आरसा सदान
 
 कभी येगा, त् कभी वैगा खादरा बीटी
 टक रंदी छाई लोगु का ही खादरौ पर
 आरसु छौ मेरु एक प्यारु मिठू भोजन
 टपैकी ली जन्दुछौ,जब देखि क्वी नी घर
 
 तुम होला सोचणा कि फसक च मारनु
 येन भला आरसा कख बीटी खैन ?
 लुकारी खोल्यो मा चडी त् गैलु पर
 खादरा पर आरसा कख बीटी ऐन ?
 
 गौ मा जब क्वी ब्यो होंदा छा या
 ब्वारी आंदी छाई क्वी मैत बिटीक
 घौर-घौर मा सबुका पैणु बटेन्दू छौ
 जू ब्वारी लांदी छै मैत बिटी लीक
 
 हे!तुमुन कबारी क्यैगा आरसा चुरैन ?
 मिन त् यार,बचपन मा भौत खैन
 याद आंदी बिजां,याद त् याद ही राण
 अब हमुन अरसा त् कख बिटी खाण ?
 http://gurugodiyal-pcg.blogspot.in/2009/04/godiyal.html — with Mukesh Singh Bhandari

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Sunita Negi
घुँघरालि दाथुलि (उत्तराँखण्ड नारी शक्ति) “सुनीता नेगी”
रंग बंरगी रंग मा
रंगि छू
“उत्तराँखण्ड हमारो”
राति बोटु मा
आन्दु मुलार
‘दिन मा चम चम
चमको घाम
डान काना मा’
ब्याव हुन्दी
जगमग जगमग
करदि जुगणु
कदु भल लागदि
उत्तराँखण्ड कि नारी
चौक मा बेटि
रव्ट पकुन्दि
छण मण छण मण
चूडि बाजदि
आहा
रंग बंरगि रंग मा
रंगि छू
“उत्तँराखण्ड हमारो”
लेख-सुनीता नेगी

विनोद सिंह गढ़िया

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जै जै कार उत्तराखंडैकि
« Reply #362 on: March 13, 2012, 02:02:06 AM »
जै जै कार उत्तराखंडैकि

उत्तराखंड जन्म भूमि तेरी जै-जैकारा, सीद साद्द मैंस यांका, मिठि यांकि बाणि।
ठंड ठंड हाव यांकि, मीठो मीठ पाड़ि।
अल्माडै़कि नंदा देवी चितईक गोलू, बागश्यारक बागनाथ देव भूमि कुमाऊं।
गंगा की छल-छल ह्यूं पड़ हिमाला, सिद्धि सिद्धि दिणी यांका बद्री केदारा।
नैनीतालैकि नंदा देवी अल्माड़ाक बाल, सल्ट यांक बारादोली पंतज्यू यांक लाल।
गढ़वाल बटिक हाव चली कुमाऊं उज्यांणी, धुर फाटा जंगल यांका कैं छू बज्यांणी।
कतुक किस्माक मैस रूनी यां कतु छन धरम, मिली जुलि बेर रूनी यां करनी भाल करम।
उत्तराखंड जन्म भूमि तेरी जै-जै कारा।

डा. राजीव जोशी
प्रवक्ता भौतिक विज्ञान, राइंका हड़बाड़ (बागेश्वर)
स्रोत : अमर उजाला


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dinesh Nayal
म्यारा मुलुक कभी ऐकि देख
कनु प्यारु च मयारू मुलुक रे
मुलुक की प्यारी रीत ऐकि देख
कभी जरा यख बास रैकि देख
देशों मा कु देश मेरु गढ़ देशा
हरियाली छाई रैंदी यख हमेशा
कभी हैरा भैरा डांडा ऐकि देख
रंग बिरंगा छन फूल खिल्यां
देवभूमि मा मनखी छन बस्यां
डांडी कांठ्यूं मा कभी ऐकि देख
कुलें देवदार बांज बुरांश डाली
मेलु तिमला बेडू ऐकि खयाली
ठंडो मीठो पाणी कभी पेकि देख
थोला मेलू की स्वाणी आयीं बहार
ज्यूं भोरी की खतेणु प्यार उलार
ताती-२ जलेबी पकोड़ी खैकि देख
डाँडो ग्वरेल अर घास घस्यारी
रोल्युं जायीं होली पाणी पन्यारी
बांसुरी की भौण मा ख्वेकि देख
स्कुल्या छोरी छ्वारा छन कना जाणा
उकाल उंदार मा गरा बस्ता लिजाणा
ठठा मजाक उंकी जरा तू ऐकि देख
थाडों मा लग्युं च रे रांसू मंडाण
थड्या चौंफला छौंपती मा नचाण
बार त्योंहारों की रौनक ऐकि देख
घ्यू दूध की छरक यख हूंद भारी
कोदा रोटु धन्या की चटनी प्यारी
छंछ्या झोली फाणु कभी खैकि देख

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Chandra Shekhar Kargeti वैसे मास्टर
 शब्द अपने आप में
 मास्टर चाबी जैसा भी है
 कई तालों की एक कुंजी जैसा
 मैंने देखे हैं कई मास्टर
 ज्ञान के बोझ से
 गड़ुवाते हुवे
 हर बखत हर विषय की
 जड़ें,शाखें,पत्तियां
 कुतरते हुवे
 धुई मुस* जैसे
 ज्ञान का धूसा* बना देते हैं
 सतह पर,किनारे पर
 हऱी काई,हरे पानी की
 गहरायी पर
 ज्योतिष जैसी समझ
 भी रखते हैं
 ऐतिहासिक तथ्यों की
 दरोगहल्फी*करते हैं।
 बकर,बकर,बकर
 हर बखत!
 और व्यवहार में
 "मास्टरमांईंड"टाईप
 जैसा कि इस शब्द के
 मायने आज सभी को
 मालूम हैं!
 कुछ शिक्षाविद् कहते हैं
 खुद को
 कहते हैं शिक्षा के
 मानकों से समझौता
 न करेंगे
 पर शिक्षा की बुनियाद
 के पहले पत्थर
 के बगैर शिक्षा की इमारत के
 कंगूरे की बात करते हैं
 बच्चा ना समझे तो-
 साफ कह दिया एक मास्टर ने
 "तो हम क्या करें?"
 ये अकादमीशियन है
 मेरे शहर का!
 हांलाकि मैंने सुना है ये किस्सा-
 कि"कुछ लोग जो ज्यादा
 जानते हैं वो इंसान को कम
 पहचानते हैं"।
 पर ये क्षुद्र अहंकारी तो
 कुछ जानता भी नहीं था!
 ये सब वाकया मेरी
 नजरों के सामने का है।
 मुझे याद आये मेरे
 तमाम गुरुजी
 जो मोहताज नहीं रहे
 किसी "एड"लगी डिग्री के!
 जिन्होंने ज्ञान को मात्र
 दूसरे किसी से प्रयोग-प्राप्त श्रम
 माना और-
 बिना घमंड अपना श्रम देकर
 आगे जिम्मेदारी से सौंप दिया।
 और विद्वान मास्टरों को भी
 मैंने देखा है करीब से
 सह-मजदूर जैसे उतर पड़ते हैं
 शिक्षण में ।
 खुद पकड़ते हैं
 विषय की समझ का
 मजबूत बेलचा
 और रस्सी छात्र को थमाते हैं
 खूब मेहनत से
 उलीच कर साधारण तरीके से
 सामने ला देते हैं विषय
 हर एक की समझ के लायक
 मैं सलाम करता हूं
 ऐसे चितेरे शिक्षकों को
 जो ट्रक ड्राईवर
 और दूसरी खिड़की पर बैठे
 कन्डकर जैसी
 राज मिस्तिरी के साथ
 मजदूर जैसी
 जुगलबंदी रखते हैं
 यदि आप भी मास्टर हैं
 तो आपको-
 आपके पेशे की कसम
 जैसे बढ़ई अपने "ठीये" की
 समझ और मान रखता है
 दिल पर हाथ रखकर कहना
 कि आप लोगों में
 उपरोक्त वर्णित
 समझ और व्यवहार है?
 ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
 *धुई मुस=चूहा
 *धूसा=कतरन
 *दरोगहल्फी=झूठे-सच्चे केस में दरोगा का कोर्ट में बयान

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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गढ्वाली कविता- बिसरीं याद ! Written by Mr P C Godiyal

दिल मे छुपी एक कसक यहां बयां कर रहा हूं, जिसकी बिडम्बना यह है कि आज की हमारी जो पढी-लिखी पीढी है, जिनके पास इन्टरनेट की सुविधा है, जिसे उनके समक्ष अगर प्रस्तुत करु भी तो वो उस मर्म को समझ नही पायेंगे । और जो उस दर्द को समझ सकते है, वे पढ नही सकते, उनके पास इन्टरनेट नही है ।
ऒंट पे लिये हुए, दिल की बात हम,
जागते रहेंगे और कितनी रात हम,
मुक्तसर सी बात है मुझे अपने गांव से प्यार है …………………..!



याद आन्दा उ पुराणा बचपन का दिन,
फ्योर खाण्कु तै तरसदु यु उल्यारु ज्यु,
पठोडा की दै-छांछ, सिन्द्री कु दूध,
अर कर्कुरु-मर्मुरु भ्योंपाणी कु घ्यु !

थाला-चिलेडी की घस्यारियों का सुरीला गीत,
वूं हरी-भरी मंजरा-मंसारी की धार मा,
कन्दूड तर्सदन फ्योर सुण्णकु तै बैठी की,
गोरु-बाखरा चरौंदी दा, कै धैडा-उढ्यार मा !

दादा कु हुक्का कु गुग्ड्याट, गंडासू कु तम्बाकु,
ठुंगार लगौण्कु रोटि मा, डांडा कु प्याज,
सुपाणा, चौरासू का उ तिल और दाल,
कखै खाण कंडाली कु लड्बुडु काफ़्लु आज !

बस्गालै की रौली-बौली, गाड-गद्रियों मा,
छोटी माछी-गड्यालु का पिछ्नै की झख,
ढुंगी –डल्यों का नीस बिट्नैकी,
कुत्डा-लिग्डा मेट्णैकी टक !

बरखदा दिन पर डिंडाला मा बैठीक,
अगेठी मा मुग्री-भट भुज्णका बाद,
गारी-सगोड्यों मा जगा-जगौं पसरयां,
मार्छा-पिंडालु का चर्चरा पैतूड कु स्वाद !

पुंगड्यों बिटिक चोरीक, काख्डी अर फूट,
अमेड्थ-भुजेला चोर्या, चौडीक कूडा,
स्कूल जांदी दा कीस्यों मा भौरीक,
गुड की गेन्दुडी अर कौणी का चूडा !

कुल्लन खाड खैन्डीक ढूढ्दा छा तैडू,
सगोड्यों का कोणों मा उ ढूढ्णु च्यु,
याद आन्दा उ बचपन का पुराणा दिन,
फ्योर खाण्कु तै तरसदु यु उल्यारु ज्यु !

Hisalu

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Bahot hi badiya...

पहाड़ की पीड़ा

मकान हो गए खंडहर, खेत पड़ गए बंजर
दरवाजों पर लटके हैं ताले, आंगन में उग आई झाड़
पलायन के इस बाढ़ में रो रहा मारे दहाड़
अपनों की याद में तड़प रहा है पहाड़ ,
कंकरीटों का यहां बन रहा जंजाल,
सूख गए नौले, सूख गई हैं ताल,
उजड़ गए वन, होती यहां नित धमाकों की मार ,
सुनाई देता है, विकास कर रहा मेरा पहाड़
विकास की मार में दरक रहा है पहाड़
राजनीति अब यहां भी घुस आई
लड़ रहे हैं, आज भाई-भाई
धर्म-जाति के नाम बांट दिया आज
उन हैवानों ने इंसान,
सुनाई पड़ता था, होते हैं दंगे शहरों में लेकिन
अब महफूज नहीं इज्जत यहां भी
यहां भी होने लगा है नरसंहार
अब मायूस दीदी-भुला की पीड़ा में,
सुलग रहा मेरा पहाड़
एक ओर महंगाई का बढ़ता राज
और इधर शराब, गाजे के नशे में डूबा समाज
अब तो दुल्हन भी बिन घूंघट दिखाई देती है
खो गई संस्कृति, लुप्त हो गए
वो रामलीला में मेले, वो त्यौहार
रो रहा पहाड़, सुनक रहा पहाड़
विकास के दौर में, अस्तित्व खो रहा पहाड़
-कमलेश जोशी ‘कमल’,
कोटगाड़ी पांखू, पिथौरागढ़

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Shakt Dhyaniposted toRajeshwar Uniyal Wall Photos हल-बैल गये,
 पानी गया, जंगल गये
 तुम गये/ तुम्हारे कल गये...
 ‘धार’ के नरसिंग,सड़कें खा गईं
 सीढीनुमा खेतों से
 मन के मंगल गये...
 घुघुति के कण्ठ सुन रोती रही
 पुरखों की कोख को बोती रही
 संजो कर रखे हैं अपने स्वाद
 इन बीजों को संभाल कर रखना
 बेटे लौट आना...
 अपनी जड़ों को देख जाना
 मेरे सीने में भरभराती रही वर्षों
 छोड़ कर जा रही हूँ वह आग
 देखने आना...
 इस वीरान घर की
 चिमनी जलाना
 देशी बोली में
 अपने बच्चों को
 मेरे बारे में बतलाना..
 ......शाक्त ध्यानी
By: Shakt Dhyani

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Jagdish Gahtori
नि बच्यो के नि बच्यो,
इजा मेरो पहाड़ो के नि बच्यो,
इजा उजड़ी ग्यो यो मेरो पहाड़ो उजड़ी ग्यो.

रात्ते देख तू ब्याल देख,
आ ऊ ऊ ऊ ऊ ओ कि बोली श्याल देख,
डान काना में बची ग्याना मकान का खंडहर,
आँगना का बाड़ा गड़ा बिन पानी का बनजर,
धारा टूटी टुटी पानी का नौला,
गूल का सब मोड़ टूट्या फुटि भितरा का फोंला ,
रंगत सब हराई गै,
गड़ा भिंडा सबे टुटी सेरानो उजड़ी ग्यो,
इजा उजड़ी ग्यो यो मेरो पहाड़ो उजड़ी ग्यो,
नि बच्यो के नि बच्यो,
इजा मेरो पहाड़ो के नि बच्यो.

रोजगारे की दौड़ में जवानी सब शहरे भाजी,
नानातिना ले स्कूल छोड़ी जुआ तासो में मारी बाज़ी ,
पड़ी लेख्या फंसी चक्करों में नेताओं की शक्करों में ,
दिन रात अब एक्के कामा, नि थकना पिनापिना,
बोतलों की ठनाठन गिलासों की खनाखन,
नि थकना पिनापिना,
बेरोजगारी ले हाल लगाया, शराबे ले छाल लगाया,
नेताऊ ले खूब फंसाया, बन घर सब एक हई ग्यो,
रूनी रूनी मेरो मन कैथे कूँ यो कि हई ग्यो,
इजा उजड़ी ग्यो यो मेरो पहाड़ो उजड़ी ग्यो,
नि बच्यो के नि बच्यो,
इजा मेरो पहाड़ो के नि बच्यो .
(सर्वाधिकार सुरक्षित ,8 मार्च 2012 को अमर उजाला में प्रकाशित )

जगदीश चन्द्र गहतोड़ी
वार्ड नंबर ०६
टनकपुर (चम्पावत).

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Sunita Negi
‎''बेजाण पहाडि पत्थर''

म्यर कपाई कस फूटि
म्यर उमर नि पूछि
म्यर दगडि पहुचि
घण सबल कि चोट मा
पुराण कुडो क शोभा
''''मि बाँट क रोडा''''
कदुक
भांदो कि बरखा
जेठ क घाम
फिर ले बेजाण
कदुक पिडि गुजरि
सब क देखि मिल
त्यार ब्यार क रोणक
फुल देइ क छम
बिखोति क रम
म्यर कठोर धरातल
मा
फूटो एक अँकूर
नौला क जाणि
गागर क पाणि
छलको मे मा
लगिल ह आबाद
फिर ले मि बेजाण
ढोल ढमऊ
झौड चाचरि
दूर आगण मा
मि ले सुणि
झुमि झुमि यख
"अल्मोडा क नंदा देवि
ओ नरायण फूल चडूँदि पाता"
दी पल मि ले भुलि
मि बेजाण
बाँट क कुङ
म्यर पडोस
चेलि क रिश्त
पहाडि बाज
बरातियो क नाच
ब्या क सस्कांर
सात फेरो क
सात वचन
हंसि मजाक
फेर फेर बल्दा
फेर फेर वर ब्योलि
बौजि अगिल अगिल
वर ज्यू पिछाड पिछाड
साइ दगे हसि मजाक
इज बौज्यो डाँड
भैल लगाई काण
डोलि मा
विदाई टेम मा
दगडियोल मारि डाँड
विदाई टेम मा
मि फिर ले बेजाण
''औझल हे गे 'नान'
बरात दगे''
जो म्यर माथ बे
चढ बेर
औ इजा
भात खै जा
धात लगुछि
कस कस दिन
देखि मिल
बेजाण रूप मा

आ मि खुश छिण
मि बेजाण छिण
पहाड मा
हर चिज टूट
हर चिज लूट
गुटको खाणि
मेमा थुंक जाणि
मि खुश छिण
मि बेजाण छिण
''म्यर दगडि कूड क शोभा
मि बाँट क रोडा''
दूर आँगण मा
बूढ बाढि
यकलु हैगिण
पराण हैबेर
बे पराण हैगिण
''मि खुश छिण
मि बेजाण छिण''
लेख- सुनिता नेगी

 

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