यह कविता मैंने सन् ७१ - ७२ में लिखी थी और ७३ में काशीपुर से निकलने वाले एक साप्ताहिक में प्रकाशित भी हुई थी | इसकी अन्तिम कुछ पंक्तियाँ आज भी सामयिक हैं | स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनाओं सहित कविता प्रेषित है :
स्वतन्त्रता
उषा की गोदी से उठ कर कुछ इठलाती कुछ बलखाती
तुम कौन आ रही हो री, भारत के जन की प्रिय हो री |
है स्वच्छ बदन है श्वेत वसन,अति शुभ्र मूर्ति,सुंदर तन-मन
तुम जन जन की अभिलाषा हो री,भारत के जन की प्रिय हो री |
वय किशोर की त्यागी अब,पद अर्पण है यौवन में अब
कुछ आगे की भी सोचो री, भारत के जन की प्रिय हो री |
झन झन घुँघरू की ध्वनि उपजे,किन किन कंकण भी किनक बजे
सखियों को भी संग ले लो री, भारत के जन की प्रिय हो री |
उस मधुर गीत का गान करो,सुर,ध्वनि में ऐसी तान भरो
जागें सब सोये लोग परी,भारत के जन की प्रिय हो री |
पर,यौवन में तुम बुझी बुझी, हैं पलकें कैसे झुकी झुकी
तुम क्या क्या सोच रही हो री,भारत के जन की प्रिय हो री |
हाँ समझ गया अब, कारण क्या? तुमको निज की ही है चिंता
तुम इसी लिए तो कृष हो री,भारत के जन की प्रिय हो री |
ऐ लोगो वह तो है अबला, वह तो पावन है, है सरला
वह तो मूरत है नेह भरी, भारत के जन की प्रिय हो री |
वह खतरे में पड़ गयी आज, समझे इसको सारा समाज
तरनी है अब नदिया गहरी,भारत के जन की प्रिय हो री |
यदि उसकी रक्षा हम न करें,इससे अच्छा तो डूब मरें,
या गूँज उठे यह स्वर लहरी, आज़ाद परी आज़ाद परी |
| जय जय चरखा ,जय जय खादी |
|| जय आजादी जय आजादी ||