Author Topic: उत्तराखंड पर कवितायें : POEMS ON UTTARAKHAND ~!!!  (Read 286342 times)

खीमसिंह रावत

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ati uttam hai, dhanyabad
तुम मांगते हो उत्तराखंड कहा से लांऊ?
सूखने लगी गंगा, पिघलने लगा हिमालय!
उत्तरकाशी है जख्मी, पिथौरागढ़ है घायल!
बागेश्वर को है बेचेनी, पौडी मे है बगावत!
कितना है दिल में दर्द, किस-किस को मैं दिखाऊ!
तुम मांग रहे हो उत्तराखंड कहां से लांऊ????

मडुवा, झंगोरे की फसलें भूल!
खेतो मे जिरेनियम के फूल!
गांव की धार मे रीसोर्ट बने!
गांव के बीच मे स्वीमिंग पूल!
कैसा विकास? क्यों घमंड?
तुम मांगते हो उत्तराखण्ड??

खडंजो से विकास की बातें,
प्यासे दिन अँधेरी रातें,
जातिवाद का जहर यहाँ,
ठेकेदारी का कहर यहाँ,
घुटन सी होती है आखिर कहां जांऊ?
तुम मांगते हो उत्तराखण्ड कहां से लांऊ???

वन कानूनों ने छीनी छांह,
वन आबाद और बंजर गांव,
खेतों की मेडें टूट गयी,
बारानाजा संस्कृति छूट गयी,
क्या गढ़वाल? क्या कुमाऊ?
तुम मांग रहे हो उत्तराखण्ड कहां से लांऊ??

लुप्त हुए स्वालंबी गांव,
कहां गयी आंफर की छांव?
हथोडे की ठक-ठक का साज,
धोंकनी की गरमी का राज,
रिंगाल के डाले और सूप,
सैम्यो से बनती थी धूप,
कहा गया ग्रामोद्योग?
क्यों लगा पलायन का रोग?
यही था क्या " म्योर उत्तराखण्ड" भाऊ?
तुम मांगते हो उत्तराखण्ड कहां से लांऊ??

हरेले के डिकारे, उत्तेरणी के घुगुत खोये!
घी त्यार का घी खोया,
सब खोकर बेसुध सोये!
म्यूजियम में है उत्तराखण्ड चलो दिखांऊ!
तुम मांगते हो उत्तराखण्ड कहा से लांऊ??


By- Hem Chandra Bahuguna


पंकज सिंह महर

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      "उत्तराखंड"

पवित्र देवभूमि पौराणिक है,
नाम है उत्तराखंड,
"उत्तरापथ" और "केदारखण्ड"
मिलकर बना उत्तराखंड.

शिवजी का निवास यहाँ,
बद्री विशाल का धाम,
पंच बद्री-केदार और पर्याग,
प्रसिद्ध है नाम.

गंगा, यमुना का उदगम् यहाँ,
ऊंची-ऊंची बर्फीली चोटी,
चौखम्बा, पंचाचूली, त्रिशूली,
प्रसिद्ध है नंदा घूंटी.

गले मैं नदियों की माला,
सिर पर हिमालय का ताज,
बदन में वनों के वस्त्र,
उत्तराखंड पर हम को नाज. 

मनमोहक हैं फूलों की घाटी,
विस्तृत हैं बुग्याल,
मन को मोह लेते हैं,
जल से भरे ताल.

नदी घाटियाँ खूबसूरत है,
देवताओं का वास,
तभी तो "मेघदूत" लिख गए,
महाकवि "कालिदास".

वीर-भडों की भूमि है,
किया जिन्होंने बलिदान,
उनको कितना प्रेम था,
किया मान सम्मान.

उत्तराखंड का प्रवेश द्वार,
पवित्र है हरिद्वार,
पुणय पावन नगरी,
जहाँ होती जय-जयकार.

कितनी सुन्दर देव-भूमि,
देखूं उड़कर आकाश से,
नदी पर्वतों को निहारूं,
जाकर बिल्कुल पास से.

जन्मभूमि है हमारी,
हैं हमारे कैसे भाग,
कहती है उत्तराखंडियों को,
शैल पुत्रों जाग.



लेखक- श्री जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यासू"
   

पंकज सिंह महर

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श्री दीपक कार्की जी की जागर फार्म में एक कुमाऊंनी कविता

म्यार द्याप्ता मै धै योई कूनी
पैं-पैं-पैं... मैं धैं के कर कुनाछे सौकार...?
उ दिन तऽऽ छन-बिछन मैं रौंती रोछिये,
जै दिन तेरी चुलि-भाणि अलग करी,
मैं धैं पुछण-गणेश में दुब धारण त दूरेकि बात भै रे सौंकार!
उ दिन, तु मेरि कां सुणछिये,
त्वील आपण मनेकि नै सुणि।
द्वी रवाट खूंल- उत्तराखण्ड बणूंल, ऊर्जा प्रदेश बणूंल,
नान कार-बार ह्वैल, सज-समाव करुल,
और जांणि कै-के कूणि थै,
कूणि ले- नै कूणि लै, कून-कून बख्तारी रौछिये,
झपकन स्यात, लुकुड़ पैरी, स्याव-कुकुरनाक जस,
अड़ात-भिड़ात करणीं, अपुं कैं त्योर गुसै बतूणी आज।
त्यार हल्कार-बिल्कार में, को द्वार लुकी? बता.....?

म्यौर बाल-गोपाल भये रे सौकार,
म्यार कल-त्योर तौयाट-बौल्याट नि देखीन,
अघिल-पछिल जेलै करन यो अन्याई,
इनूंल त्यार नानतिननौक खापक गास नि धरि,
तु कै-के कूंण लैक नि धरि,
फिर ले भौल हुन, थान चौघाणि घत्यूण हैं पैल्ली,
सितियो कैं, सताइयों कैं धत्यूनै,
उनन कैं एक बटयूनै, फिर निकावने भ्यार,
मैसे कि ज्यून आई, रिसि कावों कैं,
घूस खोरों कैं-कामचोरों कैं,
कै भेर नि करणी कैं, नि किर भेर खाणी कैं,
उनार ख्वारन काव कामल खिति,
जांठ-मुंगारा बरसूनै, उनार ख्वार,
हर चौबट्टी में एक-एक कै टांगि,
खुश्याणिकि धूप दिनैं,
कसिक नै ऊन होश मैं.....?

पैं के करछै ? तू सिदपन मैं लागि रये,
लुटनी सिमरेणी कैं, आपण बतूनेर भये,
लेऽऽऽऽऽऽऽसमौव ले रे सौकार!
बखत छू, आजि ले। समौव नतरि..कै कें घत्यालै,
कै कें धत्याले ?
तेरि चुलि-भांणि, मेरि खई,
ढुंढि भेर नै मिल रै सौकार,
ढुंढि भेर नै मिल..........!     

युगवाणी, सितम्बर, २००८ से साभार टंकित

हेम पन्त

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बहुत ही सुन्दर और प्रभावशाली कविता लिखी है कार्की जी ने....

श्री दीपक कार्की जी की जागर फार्म में एक कुमाऊंनी कविता


पैं के करछै ? तू सिदपन मैं लागि रये,
लुटनी सिमरेणी कैं, आपण बतूनेर भये,
लेऽऽऽऽऽऽऽसमौव ले रे सौकार!
बखत छू, आजि ले। समौव नतरि..कै कें घत्यालै,
कै कें धत्याले ?
तेरि चुलि-भांणि, मेरि खई,
ढुंढि भेर नै मिल रै सौकार,
ढुंढि भेर नै मिल..........!     

युगवाणी, सितम्बर, २००८ से साभार टंकित

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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from : sandeeprawat87 <sandeeprawat87@yahoo.com>   

I am very sure you all would agree that laugh is very important
factor of good health.

I have come with few lines to make you people laugh and believe me
all lines are in Garhwali. I have tried to put it into simple words
to make you understand.

sayari- Min dekhi un te jab pahli baar,
Meru moo khuli rehgi laga taar

Nauni boli tan kile banana cha apnu face,
Min boli bahut nauna lagana chan race

Nauni kee dagdee gayun resturant khaanu kee baani,
Min poora dwee ghanta piyan 100 glass paani

Nauni boli mee te naunu chainu ch doctor,
min boli yakh ta tum te mil lu lobster

Nauni boli mee te life leni chaiyen serious,
aajkal sari nauni hondi chan badee curious

Min boli mee te pata ch nauni chan curious,
Lekin ladka bee aajkal chan fast and furious

Nauni boli min dekhi chan sara voh nauna fast,
par meru dil kehndu ch kee tu hee ch voo last

Min boli tan kya dekhi aapan mera maa,
india maa te nauna lagya chan line maa,

Nauni boli nauna ta india maa bahut chan,
Per sabka paasport maa VISA kakh lagyan chan

Dindla or Dindola

Dindla or Dindola - A place where all garhwali people sit and talk
and I would say Origin of all activities and happenings.

Yaad aanda chan wu dindla ka din ,
Jab nauni ku khayal aur haath maa rehndu cho coke aur zin,

Dindla bee tee accha lagda chan chaand aur sitara
lekin chaand bhee feeku lagdu cho jab samnu aandu cho unku chehra,

Mee te yaad ch voo din jab mili cho mee unte first time
min ghaur maa zhoot boli aur pitaji'en bolu ch beta this is crime,

Mata ji boli kee nauni ku khaandaan kan ch ,
Min boli mee te khaandaan ku kya karan jab meru shaadi karnu ku man
ch

Maa boli kan ladik ch meru u lata ,
Haman tee te Padai likhe ab hum te bonlni ch tata,

Min boli maa pitaji aap ku hee maan ch ,
Varna meru es duniya maa kya naam ch

Maa ku dil paseej gee aur maa boli,
Beta yuhi ho lu ju tu bol lee

Few More Lines on that -

Dindla na hondu te aaj mee bhee nee hondu,

Dindla na hondu te mee thandi hawa ka kan pata chaldu,

Dindla na hondu te mee te unki dagdee aankha chaar kan hondi,

Dindla na hondu te kakh bee tee myara dost mee ta bulanda,

Dindla na hindu te mee kanki nauni ka ghar chori chupi jaandu,

Dindla na hondu te kanki mee te tumari yaad aandi,

Dindla na hondu te mee ke dagdee baat kardu,

Dindla na hondu te akela ghar ma kya chamak aandi,

Dindla na hondu te myara ghaur ku aandu,

Dindla na hondu te cable connection kakh bee tee churundu,

Dindla na hondu te mee yee baat kanke likh doo..

Thanks by SANDEEP RAWAT (VILL- SILBARI RIKHNIKHAL- PAURI GARHWAL UA)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कविता उनको समर्पित जो देहली के धमाको मारे गए या ज़ख्मे हुए  !

पीडा 
आज की शाम
वो शाम न थी
जिसके आगोश में अपने पराये
हँसते खेलते बांटते थे अपना अमनो चैन
दुख दर्द , कल के सपने  !
 घर की दहलीज़ पर देती दस्तख
आज की सांझ ,वो सांझ न थी  ... आज की
 
       दूर छितिज पर ढलती लालिमा
       आज सिन्दूरी रंग की अपेक्षा
       कुछ ज्यादा ही गाडी लाल रेखाएं देखाई दे रही थी
       उस के इस रंग में बदनीयती की बू आ रही थी
       जो अहसाश दिला रही थी
       दिन के कत्ल होने का  ?
      आज की फिज़ा ,वो फिज़ा न थी  ....  आज की शाम
 
चौक से जाती गलियां
उदास थी ...
गुजरता मोड़ ,
गुमसुम था 
खेत की मेंड भी
गमगीन थी
शहर का कुत्ता भी चुप था
ये  शहर ,  आज वो शहर न था  ... आज की शाम
 
     धमाकों के साथ चीखते स्वर
     सहारों की तलाश में भटकते
     लहू में सने हाथ ......
     अफरा तफरी में भागते गिरते लोग
     ये रौनकी बाजार पल में शमसान बनगया
     यहां पर पहिले एसा मौहोल तो कभी न था
     ये क्या होगया ? किसके नजर लग गयी  ... आज की शाम
 
बरसों साथ रहने का वायदा
पल में टूटा
कभी न जुदा होनेवाला हाथ
हाथ छुटा
सपनो की लड़ी बिखरी
सपना टूटा
देखते देखते भाई से बिछुड़ी बहिना
बाप से जुदा हुआ बेटा
कई मां की गोदे हुई खाली
कई सुहागिनों का सिन्दूर लुटा
शान्ति के इस शहर में किसने ये आग लगाई
ये कौन है ? मुझे बी तो बताऊ भाई  ... २ !           ... आज
 
पराशर गौर
कनाडा  १५ सितम्बर २००८ श्याम ४ बजे

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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really a Heartfelt poem by Gaur JI.

कविता उनको समर्पित जो देहली के धमाको मारे गए या ज़ख्मे हुए  !

पीडा 
आज की शाम
वो शाम न थी
जिसके आगोश में अपने पराये
हँसते खेलते बांटते थे अपना अमनो चैन
दुख दर्द , कल के सपने  !
 घर की दहलीज़ पर देती दस्तख
आज की सांझ ,वो सांझ न थी  ... आज की
 
       दूर छितिज पर ढलती लालिमा
       आज सिन्दूरी रंग की अपेक्षा
       कुछ ज्यादा ही गाडी लाल रेखाएं देखाई दे रही थी
       उस के इस रंग में बदनीयती की बू आ रही थी
       जो अहसाश दिला रही थी
       दिन के कत्ल होने का  ?
      आज की फिज़ा ,वो फिज़ा न थी  ....  आज की शाम
 
चौक से जाती गलियां
उदास थी ...
गुजरता मोड़ ,
गुमसुम था 
खेत की मेंड भी
गमगीन थी
शहर का कुत्ता भी चुप था
ये  शहर ,  आज वो शहर न था  ... आज की शाम
 
     धमाकों के साथ चीखते स्वर
     सहारों की तलाश में भटकते
     लहू में सने हाथ ......
     अफरा तफरी में भागते गिरते लोग
     ये रौनकी बाजार पल में शमसान बनगया
     यहां पर पहिले एसा मौहोल तो कभी न था
     ये क्या होगया ? किसके नजर लग गयी  ... आज की शाम
 
बरसों साथ रहने का वायदा
पल में टूटा
कभी न जुदा होनेवाला हाथ
हाथ छुटा
सपनो की लड़ी बिखरी
सपना टूटा
देखते देखते भाई से बिछुड़ी बहिना
बाप से जुदा हुआ बेटा
कई मां की गोदे हुई खाली
कई सुहागिनों का सिन्दूर लुटा
शान्ति के इस शहर में किसने ये आग लगाई
ये कौन है ? मुझे बी तो बताऊ भाई  ... २ !           ... आज
 
पराशर गौर
कनाडा  १५ सितम्बर २००८ श्याम ४ बजे


Dinesh Bijalwan

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कौतीग  मेरी एक बहुत पुरानी कविता है लेकिन इसका सन्दर्भ आज भी उतना ्प्रासन्गिक है/


कुछ दिन पैली देखी
एक कौतिग, नेहरू स्टेडियम की छोटी पाह्डियो पर पाह्डियो को,
ढोल दमौ , गीत प्रीत , मिठै सिठै,
सब्बि- सुणी,  करी, चाखी छै /
पर ह्वैगी छै बिसर्या जमाना की बात,
याद छा त नार्थ ब्लाक  अर गुलाबीबाग का बस स्टैड,
यस सर अर यूवर्स फेथ्फुल्ली का बीच,
पहाडी कख हरची ,
मेरा छैल तै बि पता नि लगी
कखी अन्ज्वाल (डन्ड्रियाल ) पढी
जग्वाल (पारू) देखी
अर्ध्ग्रामेश्वर (धस्माना) करी
पर बिज्ल्वाण नि मिली-
कौतिग मा मिन देखी
 बिकट दन्दालो
बरसों कि बिस्म्रती  को घास
स्यू जल्डो भैर आये
तब देखेणी पाअड
अफू से भैर आइक मिन देखी त हकाणै ग्यो मि,
येकुला चणा अर भड्भूजा का भाड कि कथा अबारे हि सच होणी थै
पहाड़ त सब दिल्ली ऐगे, फिर मे यकुलु वापस,
तबारे धरे कैन मेरा कान्ध ऐच हाथ,
यु मै हि थौ अप्णू सान्स अफ्वी बधौणू
पाड त फैल जालो  दुनिया मा
पाअड मा रै  नि रै पर जुडियु  रै  रे जल्डो से
मी आज भी जुड़यूँ छौ  पहाड़  से
  मेरा पहाड़  से ||

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Bijalwaaan Ji,

I am impressed with the lines of this poem. Looking forward some more such poems form u.


कौतीग  मेरी एक बहुत पुरानी कविता है लेकिन इसका सन्दर्भ आज भी उतना ्प्रासन्गिक है/

कुछ दिन पैली देखी
एक कौतिग , नेरू इस्टेडिय्म की छोटी पाह्डियो पर पाह्डियो को,
ढोल दमौ , गीत प्रीत , मिठै सिठै,
सब्बि- सुणी,  करी , चाखी छै /
पर ह्वैगी छै बिसर्या जमाना की बात,
याद छा त नार्थ ब्लाक  अर ्गुलाबि बाग का बस स्टैड,
यस सर अर यूवर्स फेथ्फुल्ली का बीच,
पहाडी कख हरची ,
मेरा छैल तै बि पता नि लगी
कखी अन्ज्वाल (डन्ड्रियाल ) पढी
जग्वाल (पारू) देखी
अर्ध्ग्रामेश्वर (धस्माना) करी
पर बिज्ल्वाण नि मिली-
कौतिग मा मिन देखी
 बिकट दन्दालो
बरसो कि बिस्म्र्ती  को घास
स्यू जल्डो भैर आये
तब देखेणी पाअड
अफू से भैर आइक मिन देखी त हकाणै ग्यो मि,
येकुला चणा अर भड्भूजा का भाड कि कथा अबारे हि सच होणी थै
पाअड त सब दिल्ली ऐगे, फिर मे यकुलु वापस,
तबारे धरे कैन मेरा कान्ध ऐच हाथ,
यु मै हि थौ अप्णू सान्स अफ्वी बधौणू
पाड त फैल जालो  दुनिया मा
पाअड मा रै  नि रै पर जुडियु  रै  रे जल्डो से
मी आज भी ज्ड्यु छौ पाअड से
मेरा पाअड से




Rajen

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Nice poem.
Dinesh ji, pl. keep posting your work.
Thanks
Rajen

 

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