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----मेरा अस्थित्व मेरा गॉव----
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मैं ढूंडता रहा अपने अस्थित्व को ,
शहरों की इस बेलगाम भाग दौड़ में ,
गुम सा जाता हूँ कभी कभी क्यों मैं ,
शहरों के इस कोलाहल भरे मोड़ में ,
खाकर दर दर की ठोकरें भटकता हूँ ,
कहीं भी शकुन से बितते नहीं पल ,
हर बक्त उलझन सी रहती मन में ,
एक पहेली कि तरह लगे हर पल ,
मेरा गॉव मेरी पहचान था जो कभी ,
छोड़ कर जिसे आ रहे है आज सभी ,
हमारे बुजुर्गो से ही हमारी पहचान थी,
उन के नाम और काम में जो शान थी,
डगमगाते निकली है नय्या जीवन की,
शहरों में खोजने को एक नयाँ सम्मान
गुम गयी शहरों में आज वह पहिचान ,
शहर निगल गए हमारे वह सब निशान ,
जिन से बजूद था हमारी जिंदगी का ,
सायद वह अस्थित्व हम खो गए है ,
बस सदा के लिए एक अस्थित्व हीन ,
जड़ बिहीन पेड़ की तरह से हो गए है,
खुद को झकझोर कर खुद से पूछता हूँ ,
चल मुड़ चल अपने उस बजूद की तरफ,
जिस में अभी भी तेरा अस्थित्व छुपा है ,
तू ही तो निकला था ,बाकी सब बचा है ,
मैं ढूंडता रहा अपने अस्थित्व को ,
शहरों की इस बेलगाम भाग दौड़ में ,
गुम सा जाता हूँ कभी कभी क्यों मैं ,
शहरों के इस कोलाहल भरे मोड़ में ,
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द्वारा रचित>भगवान सिंह जयाड़ा
दिनांक >०७/०२/२०१४
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