Author Topic: Review /Criticism in Garhwali Literature-गढवाली भाषा में समालोचना  (Read 8732 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
* डा वीरेन्द्र पंवार की गढवाली भाषा में समीक्षाएं *

* डा वीरेन्द्र पंवार गढवाली समालोचना का महान स्तम्भ है . डा पंवार के बिना गढवाली समालोचना के बारे में सोचा ही नही जा सकता है . डा पंवार ने अपनी एक शैली परिमार्जित की है जो गढवाली आलोचना को भाती भी है क्योंकि आम समालोचनात्मक मुहावरों के अतिरिक्त डा पंवार गढवाली मुहावरों को आलोचना में भी प्रयोग करने में दीक्षित है. डा वीरेंद्र पंवार की पुस्तक समीक्षा का

संक्षिप्त ब्यौरा इस प्रकार है *
* *

* आवाज- खबर सार (२००२) *

*लग्याँ छंवां - खबर सार (२००४) *

*दुनया तरफ पीठ' - खबर सार (२००५) *

*केर'- खबर सार (२००५) *

*घंगतोळ -खबर सार (२००८) *

*टुप टप -खबर सार (२००८) *

*कुल़ा पिचकारी -खबर सार (२००८) *
* *

*कुल़ा पिचकारी -खबर सार (२००८) *

*डा. आशाराम ' -खबर सार (२००८) *

*अडोस पड़ोस - खबर सार (२००९) *

*मेरी पूफू - खबर सार (२००९) *

*दीवा दैणि ह्वेन -खबर सार (२०१०) *

*खबर सार दस साल की - खबर सार (२०१०) *
* *

*ज्यूँदाळ - खबर सार (२०११)*

*पाणी' - खबर सार (२०११)*

*गढवाली भाषा के शब्द संपदा - खबर सार (२०११) *

*सब्बी मिलिक रौंला हम - खबर सार (२०११) *

*आस - रंत रैबार (२०११) *

*फूल संगरांद - खबर सार (२०११) *
* *

*चिट्ठी पतरी विशेषांक - खबर सार (२०११) *

*द्वी आखर - खबर सार (२०११) *

*ललित मोहन कोठियाल की भी दो पुस्तकों की समीक्षा खबर सार में प्रकाशित हुईं
हैं. *

*संदीप रावत द्वारा उमेश चमोला कि पुस्तक की समालोचना खबर सार (२०११) में
प्रकाशित हुयी *
* *


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
मानकीकरण पर आलोचनात्मक लेख *

* मानकीकरण गढवाली भाषा हेतु एक चुनौतीपूर्ण कार्य है और मानकीकरण पर बहस होना लाजमी है. मानकीकरण के अतिरिक्त गढवाली में हिंदी का अन्वश्य्क प्रयोग भी अति चिंता का विषय रहा है जिस पर आज भी सार्थक बहस हो रहीं हैं.*
* *

* रिकोर्ड या भीष्म कुकरेती की जानकारी अनुसार , गढवाली में मानकी करण पर लेख भीष्म कुकरेती ने ' बीं बरोबर गढवाली' धाद १९८८, अबोध बंधु बहुगुणा का लेख ' भाषा मानकीकरण 'कि भूमिका' (धाद, जनवरी , १९८९ ) में छापे थे. जहां भीष्म कुकरेती ने लेखकों का धयन इस ओर खींचा कि गढवाली साहित्य गद्य में लेखक अनावश्यक रूप से हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं वहीं अबोध बंधु बहुगुणा ने भाषा मानकीकरण के भूमिका (धाद, १९८९) गढवाली म लेस्ख्कों द्वारा स्वमेव मानकीकरण पर जोर देने सम्बन्धित लेख है. तभी भीष्म कुकरेती के सम्वाद शैली में प्रयोगात्त्म्क व्यंगात्मक लेख 'च छ थौ ' (धाद, जलाई, १९९९, जो मानकीकरण पर चोट करता है ) इस लेख के बारे में डा अनिल डबराल लिखता है ' सामयिक दृष्टि से इस लेख ने भाषा के सम्बन्ध में विवाद को तीब्र कर दिया था.". इसी तरह भीष्म कुकरेती का एक तीखा लेख 'असली नकली गढ़वाळी' (धाद जून १९९०) प्रकाशित हुआ

जिसने गढवाली साहित्य में और भी हलचल मचा दी थी. मुख्य कारण था कि इस तरह की तीखी व आलोचनात्मक भाषा गढवाली साहित्य में अमान्य ही थी. 'असली नकली गढ़वाळी' के विरुद्ध में मोहन बाबुलकर व अबोध बंधु बहुगुणा भीष्म कुकरेती के सामने सीधे खड़े मिलते है . मोहन बौबुलकर ने धाद के सम्पादक को पत्र लिखा कि ऐसे लेख धाद में नही छपने चाहिए. वहीं अबोध बंधु बहुगुणा ने ' मानकीकरण पर हमला (सितम्बर १९९०) ' लेख में भीष्म कुकरेती की भर्त्सना की. बहुगुणा ने भी तीखे शब्दों का प्रयोग किया. अबोध बंधु के लेख पर भी प्रतिक्रया आई . देवेन्द्र जोशी ने धाद (दिसम्बर १९९०) में ' माणा पाथिकरण ' बखेड़ा पर बखेड़ा ' लेख/पत्र लिखा कि बहुगुणा को ऐसे तीखे शब्द इस्तेमाल नही करने चाहिए थे व इसी अंक में लोकेश नवानी ने मानकीकरण की बहस बंद करने की प्रार्थना की . रमा प्रसाद घिल्डियाल'पहाड़ी' एक लम्बा पत्र भीष्म कुकरेती को भेजा , पत्र भीष्म कुकरेती के पक्ष  में था. *
* *

*इस ऐतिहासिक बहस ने गढवाली साहित्य में आलोचनात्मक साहित्य को साहित्यकारों के मध्य खुलेपन से विचार विमर्श का मार्ग प्रसस्त किया व आलोचनात्मक साहित्य  को विकसित किया. *

* भाषा संबंधी ऐतिहासिक वाद विवाद के सार्थक सम्वाद*
* *

*. गढवाली भाषा में भाषा सम्बन्धी वाद विवाद गढवाली भाषा हेतु विटामिन का काम करने वाले हैं. *

*जब भीष्म कुकरेती के ' गढ़ ऐना (मार्च १९९० ), में ' गढवाली साहित्यकारुं तैं
फ्यूचरेस्टिक साहित्य' लिखण चएंद ' जैसे लेख प्रकाशित हुए तो अबोध बंधु
बहुगुणा का प्रतिक्रियासहित ' मौलिक लिखाण सम्बन्धी कतोळ-पतोळ' लेख गद्ध ऐना (अप्रैल १९९० ) में प्रकाशित हुआ व यह शिलशिला लम्बा चला . भाषा सम्बन्धी कई सवाल भीष्म कुकरेती के लेख 'बौगुणा सवाल त उख्मी च ' ९ग्ध ऐना मई १९९०),
बहुगुणा के लेख 'खुत अर खपत' (ग.ऐना, जूं १९९० ) , भीष्म कुकरेती का लेख '
बहुगुणा श्री ई त सियाँ छन ' (गढ़ ऐना, १९९० ) व 'बहुगुणा श्री बात या बि त च '
व बहुगुणा का लेख 'गाड का हाल' (सभी गढ़ ऐना १९९० ) गढवाली समालोचना इतिहास के मोती हैं . इस लेखों में गढवाली साहित्य के वर्तमान व भविष्य, गढवाली साहित्य में पाठकों के प्रति साहित्यकारों की जुमेवारियां, साहित्य में साहित्य वितरण की अहमियत , साहित्य कैसा हो जैसे ज्वलंत विषयों पर गहन विचार हुए. *
* *

*कवि व समालोचक वीरेन्द्र पंवार के एक वाक्य ' गढवाली न मै क्या दे' पर सुदामा प्रसाद 'पेमी' जब आलोचना की तो खबर सार प्रतिक्रिय्स्वरूप में कई लेख प्रकाशित हुए *

* २००८ में जब भीष्म कुकरेती का लम्बा लेख (२२ अध्याय ) ' आवा गढ़वाळी तैं मोरण से बचावा' एवं ' हिंदी साहित्य का उपनिवेशवाद को वायसराय ' (जिसमे भाषाक्यों मरती है, भाषा को कैसे बचाया जा सकता है, व पलायन, पर्यटन का भाषा संस्कृति पर असर , प्रवास का भाषा साहित्य पर प्रभाव, जैसे विषय उठाये गये हैं ) खबर सार में प्रकाशित हुआ तो इस लेखमाला की प्रतिक्रियास्वरूप एक सार्थक बहस खबर सार में शुरू हुयी और इस बहस में डा नन्द किशोर नौटियाल , बालेन्दु बडोला, प्रीतम अपछ्याण, सुशिल पोखरियाल सरीखे साहित्यकारों ने भाग लिया . भीष्म कुकरेती का यह लंबा लेख रंत रैबार व शैलवाणी में भी प्रकाशित हुआ . *
* *

*इसी तरह जब भीष्म कुकरेती ने व्यंग्यकार नरेंद्र कठैत के एक वाक्य पर
इन्टरनेट माध्यम में टिपण्णी के तो भीष्म कुकरेती की टिपणी विरुद्ध नरेंद्र
कठैत व विमल नेगी की प्रतिक्रियां खबर सार में प्रकाशित हुईं (२००९) और भीष्म की टिप्पणी व प्रतिक्रियां आलोचनात्मक साहित्य की धरोहर बन गईं. *
* *


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
*मोबाइल माध्यम में भी गढवाली भाषा साहित्य पर एक बाद अच्छी खासी बहस चली थी जिसका वर्णन वीरेन्द्र पंवार ने खबर सार में प्रकाशित की *

* पाणी के व्यंग्य लेखों को लेखक नरेंद्र कठैत व भूमिका लेखक 'निसंग' द्वारा
निबंध साबित करने पर डा नन्द किशोर ढौंडियाल ने खबर सार (२०११) में लिखा कि यह व्यंग्य संग्रह लेख संग्रह है ना कि निबंध संग्रह तो भ.प्र. नौटियाल ने प्रतिक्रिया दी (खबर सार , २०११). *
* *

* सुदामा प्रसाद प्रेमी व डा महावीर प्रसाद गैरोला के मध्य भी साहित्यिक वाद
हुआ जो खबर सार ( २००८ ) में चार अंकों छाया रहा *

*इसी तरह कवि जैपाल सिंह रावत 'छिपडू दादा ' के एक आलेख पर सुदामा प्रसाद प्रेमी ने खबर सार (२०११) में तर्कसंगत प्रतिक्रया दी *
* *

* *

* गढवाली में गढवाली भाषा सम्बन्धी साहित्य *

* *

* गढवाली में गढ़वाली भाषा , साहित्य सम्बन्धी लेख भी प्रचुर मात्र में मिलते
हैं . इस विषय में कुछ मुख्य लेख इस प्रकार हैं. *
* *

*गढवाली साहित्य की भूमिका पस्तक : आचार्य गोपेश्वर कोठियाल के सम्पादकत्व में
गढवाली साहित्य की भूमिका पस्तक पुस्तक १९५४ में प्रकाशित हुयी जो गढवाली भाषा
साहित्य की जाँच पड़ताल की प्रथम पुस्तक है. इस पुस्तक में भगवती प्रसाद
पांथरी, भगवती प्रसाद चंदोला, हरि दत्त भट्ट शैलेश, आचार्य गोपेश्वर कोठियाल,
राधा कृष्ण शाश्त्री, श्याम चंद लाल नेगी दामोदर थपलियाल के निबंध प्रकाशित
हुए . *
* *

* डा विनय डबराल के गढ़वाली साहित्यकार पुस्तक में रमा प्रसाद घिल्डियाल,
श्याम चंद नेगी, चक्रधर बहुगुणा के भाषा सम्बन्धी लेखों का भी उल्लेख है *

* अबोध बंधु बहुगुणा, डा नन्द किशोर ढौंडियाल व भीष्म कुकरेती ने कई लेख भाषा
साहित्य पर प्रकाशित किये हैं जो समालोचनात्मक लेख हैं ( देखें भीष्म कुकरेती
व अबोध बन्धु बहुगुणा का साक्षात्कार , चिट्ठी पतरी २००५ , इसके अतिरिक्त
भीष्म कुकरेती, नन्द किशोर ढौंडियाल व वीरेंद्र पंवार के रंत रैबार, खबर सार
आदि में लेख ) *
* *

*दस सालै खबर सार (२००९) पुस्तक में भजन सिंह सिंह, शिव राज सिंह निसंग, सत्य
प्रसाद रतूड़ी , भ.प्र.नौटियाल, वीरेंद्र पंवार, भीष्म कुकरेती, डा नन्द किशोर
ढौंडियाल, विमल नेगी के लेख गढवाली भाषा साहित्य विषयक हैं. *


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
*डा अचलानंद जखमोला के भी गढवाली भाषा वैज्ञानिक दृष्टि वाले कुछ लेख चिट्ठी पतरी मे प्रकाशित हुए हैं. *
* *

* पत्र -पत्रिकाओं में स्तम्भ *

* खबर सार में नरेंद्र सिंह नेगी के साहित्य व डा शिव प्रसाद द्वारा संकलित
लोक गाथा ' सुर्जी नाग' पर लगातार स्तम्भ रूप में समीक्षा छपी हैं *
* *

*रंत रैबार ( नवम्बर-दिस २०११) में नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों की क्रमिक
समीक्षा इश्वरी प्रसाद उनियाल कर रहे हैं . यह क्रम अभी तक जारी है *

* चिट्ठी पतरी के विशेषांकों में समीक्षा *
* *

* गढवाली साहित्य विकास में चिट्ठी पतरी ' पत्रिका का अपना विशेष स्थान है. चिट्ठी पतरी के कई विशेषांकों में समालोचनात्मक/ समीक्षात्मक / भाषा साहित्य इतिहास/ संस्मरणात्मक लेख /आलेख प्रकाशित हुए हैं.*

*लोक गीत विशेषांक ( २००३) में डा गोविन्द चातक, डा हरि दत्त भट्ट, चन्द्र
सिंह राही, नरेंद्र सिंह नेगी, आशीष सुंदरियाल, प्रीतम अप्छ्याँण व सुरेन्द्र
पुंडीर के लेख छपे .*
* *

*कन्हैया लाल डंडरियाल स्मृति विशेषांक (२००४) में प्रेम लाल भट्ट, गोविन्द चातक, भ. नौटियाल, ज.प्र चतुर्वेदी, ललित केशवान, भीष्म कुकरेती, हिमांशु शर्मा, नथी प्रसाद सुयाल के लेख प्रकाशित हुए *

*लोक कथा विशेषांक ( २००७) में भ.प्र नौटियाल, डा नन्द किशोर ढौंडिया, ह्मंशु शर्मा, अबोध बंधु बहुगुणा, रोहित गंगा सलाणी , उमा शर्मा, भीष्म कुकरेती, डा राकेश गैरोला, सुरेन्द्र पुंडीर के सारगर्भित लेक छपे.*
* *

*रंगमंच विशेषांक ( २००९) में भीष्म कुकरेती, उर्मिल कुमार थपलियाल, डा नन्द किशोर ढौंडियाल, कुला नन्द घनसाला , डा राजेश्वर उनियाल के लेख प्रकाशित हुए*

*अबोध बंधु स्मृति विशेषांक ( २००५ ) में भीष्म कुकरेती, जैपाल सिंह रावत ,
वीणा पाणी जोशी, बुधि बल्लभ थपलियाल के लेख प्रकाशित हुए *
* *

*भजन सिंह स्मृति अंक ( २००५) में डा गिरी बाला जुयाल, उमाशंकर थपलियाल, वीणापाणी जोशी, के लेख छपे. *

* *

*उपरोक्त आलोचनात्मक साहित्य के निरीक्षण से जाना जा सकता है कि 'गढवाली आलोचना के पुनरोथान युग की शुरुवात में अबोध बंधु बहुगुणा , भीष्म कुकरेती, निरंजन सुयाल ने जो बीज बोये थे उनको सही विकास मिला और आज कहा जा सकता है कि गढवाली आलोचना अन्य भाषाओँ की आलोचना साहित्य के साथ टक्कर ल़े सकने में समर्थ है.

पुस्तक भूमिका हो या पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षा हो गढवाली भाषा के आलोचकों ने भरसक प्रयत्न किया कि समीक्षा को गम्भीर विधा माना जाय और केवल रचनाकार को प्रसन्न करने व पाठकों को पुस्तक खरीदने के लिए ही उत्साहित ना किया जाय अपितु  गढवाली भाषा समालोचना को सजाया जाय व संवारा जाय. *
* *
*गढवाली समालोचकों द्वारा काव्य समीक्षा में काव्य संरचना , व्याकरणीय सरंचना में वाक्य, संज्ञा , सर्वनाम, क्रिया, कारक, विश्शेष्ण , काल, समस आदि ) शैल्पिक संरचना में अलंकारों, प्रतीकों, बिम्बों, मिथ, फैन्तासी आदि (व आतंरिक संरचना में लय, विरोधाभास, व्यंजना, विडम्बना आदि सभी काव्यात्मक लक्षणों की जाँच पड़ताल की गयी है. जंहाँ जंहाँ आवश्यकता हुयी वहां वहां समालोचकों ने अनुकरण सिद्धांत, काव्य सत्य, त्रासदी विवरण, उद्दात सिद्धांत, सत्कव्य, काव्य प्रयोजन, कल्पना की आवश्यकता, कला कला हेतु , छंद, काव्य प्रयोजन, समाज को पर्याप्त स्थान, क्लासिक्वाद, असलियत वाद, समाजवाद या साम्यवाद, काव्य  में प्रेरणा स्रोत्र , अभिजात्यवाद, प्रकृति वाद, रूपक/अलंकार संयोजन , अभिव्यंजनावाद, प्रतीकवाद, काव्यानुभूति, कवि के वातावरण का कविताओं पर प्रभाव आदि गम्भीर विषयों पर भी बहस व निरीक्षण की प्रक्रिया भी निभाई . कई समालोचकों ने कविताओं की तुलना अन्य भाषाई कविताओं व कवियों से भी की जो दर्शाता है कि समालोचक अध्ययन को प्राथमिकता देते हैं . गद्य में कथानक, कथ्य, संवाद, रंगमंच
प्र घं विचार समीक्षाओं में हुआ है. इसी तरह कथाओं, उपन्यासों व गद्य की

अन्य

विस्धों में विधान सम्मत समीक्षाए कीं गईं*
* *
* संख्या की दृष्टि से देखें या गुणात्मक दृष्टि से देखें तो गढवाली समालोचना
का भविष्य उज्जवल है. *

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
                        आधुनिक  गढवाली भाषा कहानियों की विशेषतायें  और कथाकार by Bhishma Kukreti.

                     (   Characteristics of Modern Garhwali Fiction and its Story Tellers)                                                      भीष्म कुकरेती                 कथा कहना और कथा सुनना मनुष्य का एक अभिन्न  मानवीय गुण है . कथा वर्णन करने का सरल व समझाने की सुन्दर कला है अथवा कथा प्रस्तुतीकरण का एक अबूझ नमूना है . यही कारण है कि प्रतेक बोली-भाषा में लोक कथा एक आवश्यक विधा है. गढ़वाल में  भी प्राचीन काल से ही लोक कथाओं का एक सशक्त भण्डार पाया जाता है .गढ़वाल में हर चूल्हे का, हर जात का, हर परिवार का, हर गाँव का , हर पट्टी का  अपना विशिष्ठ  लोक कथा भण्डार है                 जहाँ तक लिखित आधुनिक गढ़वाली कथा साहित्य का प्रश्न है यह प्रिंटिंग व्यवषथा  सुधरने व शिक्षा के साथ ही विकसित हुआ . संपादकाचार्य विश्वम्बर दत्त चंदोला के अनुसार गढ़वाली गद्य की शुरुवात बाइबल की कथाओं के अनुबाद (१८२० ई.  के करीब ) से हुयी  ( सन्दर्भ: गाड मटयेकि गंगा १९७५ ) . गढ़वालियों में सर्वप्रथम डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर पद प्राप्तकर्ता गोविन्द प्रसाद घिल्डियाल ने (उन्नीसवीं  सदी के अंत में ) हितोपदेश कि कथाओं का अनुबाद पुस्तक छापी थी (सन्दर्भ :गाड म्यटेकि गंगा).                            आधुनिक गढ़वाली कहानियों के जन्म दाता   सदानंद कुकरेती                  आधुनिक गढ़वाली कथाओं के जन्म दाता विशाल कीर्ति के संपादक, राष्ट्रीय महा विद्यालय सिलोगी,मल्ला  ढागु केसंस्थापक सदा नन्द कुकरेती को जाता है . गढवाली ठाट के नाम से यह कहानी विशाल कीर्ति (१९१३ ) में प्रकाशित हुयी थी. इस कथा का  आधा भाग प्रसिद्ध कलाविद बी . मोहन नेगी , पौड़ी के पास सुरक्षित है . कथा में चरित्र निर्माण व चरित्र निर्वाह बड़ी कुशलता पुर्बक हुआ है . गढवा ळी विम्बो का प्रयोग अनोखा है , यथा :      "गुन्दरू की नाक बिटे सीम्प कि धार छोड़िक विलो मुख , वैकी झुगली इत्यादि सब मैला छन, गणेशु की सिरफ़ सीम्प की धारी छ पण सबि चीज सब साफ़ छन . यांको कारण , गुन्दरू की मा अळगसी' ख़ळचट  अर लमडेर छ. . भितर देखा धौं ! बोलेंद यख बखरा रौंदा होला . मेंल़ो  (म्याळउ ) ख़णेक घुळपट  होयुं च . भितर तकाकी क्वी चीज  इनै क्वी चीज उनै . सरा भितर तब मार घिचर पिचर होई रये.  अपणी अपणी जगा पर क्वी चीज नी.  भांडा कूंडा ठोकरियों मा लमडणा  रौंदन . पाणी का भांडों तलें द्याखो धौं . धूळ को क्या गद्दा जम्युं छ. युंका भितर पाणी पेण को भी ज्यू नि चांदो . नाज पाणी कि खाताफोळ , एक मणि पकौण  कु निकाळण त द्वी माणी खते जान्दन , अर जु कै डूम डोकल़ा , डल्या , भिकलोई तैं देण कु बोला त हे राम ! यांको नौं नी .[/i][/size]    रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी ' ने इस कथा को पुन : गुन्दरू  कौंका घार स्वाळ पक्वड़ ' शीर्षक के नाम से 'हिलांस'   में प्रकाशित किया था .सदानंद कुकरेती ( १८८६-१९३८) का जन्म ग्वील-जसपुर , मल्ला  ढागु , पौड़ी गढ़वाल में हुआ था .वे विशाल कीर्ति के सम्पादक भी थे                   गढवाली ठाट के बारे में रामप्रसाद पहाड़ी का कथन सही है कि यह कथा दुनिया की १०० सर्वश्रेष्ठ कथाओं में आती है. कथा व्यंगात्मक अवश्य है और कथा में सुघड़ व  आलसी , लापरवाह स्त्रियों के चरित्र की तुलना हास्य, व्यंग्य शाली बहुत रोचक ढंग से हुआ है. कथा असलियत वादी तो है, वास्तविकता से भरपूर है, किन्तु पाठक को प्रगतिशीलता की ओर ल़े जाने में भी कामयाब है .कथा का प्रारभ व अंत बड़ी  सुगमता व रोचकता से किया गया है भाषा सरल व गम्य है . भाषा के लिहाज से  जहाँ ढागु के शब्द सम्पदा कथा में साफ़ दीखती है रमती है वहीं सदानंद कुकरेती ने पौड़ी व श्रीनगर कई शब्द व भौण भी कथा में समाहित किये हैं जो एक आश्चर्य है.    ' गढवाली ठाट ' के बारे में अबोध बंधु बहुगुणा (सं -२)  लिखते हैं ' सचमुच में गद्य का ऐसा नमूना मिलना गढ़वाली का बाधा भाग्य है. बंगाली, मराठी आदि भाषाओं में भी साहित्यिक गद्य की अभिव्यक्ति उस समय नहे पंहुची थी. यहाँ तक कि हिंदी में भी उस समय (सन १९१३ ई. में  ) गद्य अभिव्यक्ति इतनी रटगादार , रौंस (आनन्द , रोचक ) भरी मार्मिक नहीं थी.  इस तरह कि हू-ब-हू चित्रांकन शैली के लिए  हिंदी भी तरसती थी.       गढवाल कि दिवंगत विभितियाँ  के सम्पादक   भक्त दर्शन का कथन है " सदानंद कुकरेती चुटीली शैली में प्रहसनपूर्ण कथा आलोचना के लिए प्रसिद्ध हैं "     डा अनिल डबराल का कहना है कि सदानंद कुकरेती कि अभिव्यक्ति की  प्रासगिता आज भी बराबर बनी है .                भीष्म कुकरेती के अनुसार ( सन्दर्भ 1) सदानंद कुकरेती का स्थान ब्लादिमीर नबोकोव, फ्लेंनरी ओ'कोंनर, कैथरीन मैन्सफील्ड , अर्न्स्ट हेमिंगवे, फ्रांज काफ्का, शिरले जैक्सन , विलियम कारोल विलियम्स , डी .एच लौरेन्स , सी. पी गिलमैन, लिओ टाल्स्टोय , प्रेमचंद, इडगर पो , ओस्कार वाइल्ड जैसे संसार के सर्वश्रेष्ठ कथाकारों की श्रेणी  में आते हैं          परुशराम  नौटियाल : अबोध बंधु बहुगुणा ने  गाड म्यटयेकि गंगा (पृ ४०) में लिखा है श्री परुशराम  कि 'गोपू' आदि डो कहानियाँ इस दौरान ( १९१३- १९३६ ) प्रकाशित हुईं थीं श्री देव सुमन : बहुगुणा के अनुसार श्री देव सुमन ने ' बाबा ' नाम कि कथा जेल में लिखी थी.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
आधुनिक गढ़वाली का प्रथम कहानी संग्रह 'पांच फूल '
भगवती प्रसाद पांथरी (टिहरी रियासत , १९१४- स्वर्गीय ) ने ' १९४७ में पाँच फूल ' कथा संग्रह प्रकाशित किया जो कि गढवाली का प्रथम कहानी संग्रह है . 'पांच फूल' में 'गौं की ओर', 'ब्वारी', ' परिवर्तन',आशा', और न्याय पांच कहानियाँ है पांथरी की कथाएं प्रेरणादायक व नाटकीयता लिए हैं. अबोध के अनुसार ब्वारी यथार्थवादी कहानी है और इसे बहुगुणा कथा साहित्य हेतु विशिष्ठ दें बताता है
रैबार कहानी विशेषांक (१९५६ई. ) : सतेश्वर आज़ाद के सम्पादकत्व में डा शिवा नन्द नौटियाल, भगवती चारण निर्मोही, कैलाश पांथरी , दयाधर बमराड़ा, कैलाश पांथरी , उर्बीदत्त उपाध्याय व मथुरा दत्त नौटियाल की कहानियाँ प्रकाशित हुईं. . गढवाली साहित्य इतिहास में 'रैबार' का यह प्रथम गढवाली कथा विशेषांक एक सुनहरा पन्ना है (सन्दर्भ -४)
दयाधर बमराड़ा( धारकोट, बगड़स्यूं १९४३-दिवंगत ) दयाधर बमराड़ा अपने उपन्यास हेतु प्रसिद्ध है, इनकी कथा रैबार (१९५६ ) में छपी है
डा शिवा नन्द नौटियाल (कोठला , कण्डारस्यूं , पौड़ी ग. १९३६- ) चंद्रा देवी, पागल, हे जगदीश, चुप रा, दैणि ह्व़े जा, से ळी या आग (१९५६) , धार मांकी गैणि जैसी उत्कृष्ट कहानियां प्रकाश में आई हैं सभी कहानियां १९६० से पहले की ही हैं. डा अनिल के अनुसा r डा नौटियाल की अपणी विशिष्ठ क्षेत्रीय शैली कहानी में दिखती है
भगवती चरण निर्मोही (देव प्रयाग, १९११-१९९०) भगवती प्रसाद निर्मोही की कहानियाँ रैबार व मैती (१९७७ का करीब ) में प्रकाशित हुईं जिनकी प्रशंषा अबोध बंधु व डा अनिल डबराल ने की.
काशी राम पथिक की कथा ' भुला भेजी देई' मैती (१९७७ ) में छपी और यह कहानी सवर्ण व शिल्पकारों के सांस्कृतिक संबंधों की खोजबीन करती है.
उर्बी दत्त उपाध्याय (नवन, सितौनस्युं १९१३ दिवंगत ) के दो कथाएँ ' रैबार' में प्रकाशित हुईं
भगवती प्रसाद जोशी' हिमवंतवासी' (जोशियाणा , गंगा सलाण १९२०- दिवंगत ) डा अनिल के अनुसार जोशी सामान्य प्रसंगों को मनोहारी बनाने में प्रवीन है. चारत्रों को व्यक्तित्व प्रदान करने के मामले में जोशी व रमा प्रसाद पहाड़ी में साम्यता है. शैली में नये मानदंड मिलते हैं . वातावरण बनाने हेतु हिमवंतवासी प्रतीकों से विम्बों को सरस बाना देते हैं. भाषा में सल़ाणी पण साफ़ झलकता है.
गढ़वाली कहानी का वेग-सारथी मोहन लाल नेगी (बेलग्राम, अठूर, टिहरी ग. १९३० -स्वर्गीय) प्रथम आधुनिक गढ़वाली कानी प्रकाशित होने के ठीक ५५ साल उपरान्त मोहन लाल नेगी ने गढवाली कहानी को नव अवतार दिया जब नेगी ने १९६७ में ' जोनी पर छपु किलै ?' नामक कथा संग्रह प्रकाशित किया . नेगी ने दूसरा कथा संग्रह ' बुरांस की पीड़ ' १९८७ में प्रकाशित हुआ. डा अनिल डबराल व अबोध अबन्धु बहुगुणा के अनुसार मोहन लाल नेगी के २१-२५ गढ़वाली में कहानियां प्रकाशित हुईं . नेगी के कहानियों में विषय विविधता है . मोहन लाल नेगी संवेदनाओं को विषय में मिलाने के विशेषग्य है. लोकोक्तियों का प्रयोग लेखक कि विशेष विशषता बन गयी है . डा अनिल अनुसार मोहन लाल नेगी भाषा क्रीडा में माहिर है. कहानियों में कथाक्रम व विषय अनुसार वातावरण तैयार करने में कथाकार सुवुग्य है. मोहन लाल के कथाओं में भाषा लक्ष्य पाने में समर्थ है. यह एक आश्चर्य ही है कि मोहन लाल नेगी के दोनों संग्रह २० साल के अंतराल में प्रकाशित हुए और दोनों संग्रहों में शैली व तकनीक में अधिक अंतर नही दिखता . डा अनिल डबराल के अनुसार ' इन तकनीकों के अधिक विकास का अवकाश नेगी जी को नही मिला'.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
आचार्य गोपेश्वर कोठियाल ( उदखंडा , कुंजणि टि.ग. १९१०-२००२ ) आचार्य  कोठियाल कि कुछ कथाएं १९७० से पहले युगवाणी आदि समाचार पत्रों में छपीं. कथाओं में टिहरी के विम्ब उभर कर आते हैं

 शकुन्त जोशी  (पौड़ी ग. ) जोशी की कथाएँ मैती (१९७७ ) में छपीं हैं तो   काशीराम पथिक की   (मैती १९७८ ) की 'भुला भेजी देई' व  चन्द्र मोहन चमोली की सच्चा बेटा  (बडुली १९७९) कथाओं का सन्दर्भ भी मिलता है ( सं. ४ )

 पुरूषोत्तम डोभाल ( मुस्मोला, टि.ग. १९२० -दिवंगत ) डोभाल की प्रथम कहानी 'बाडुळी (१९७९ ) में प्रकाशित हुयी और डोभाल ने चार पाँच कथाएँ छपीं हैं. कथाएं सौम्य व सामाजिक परिश्थिति बताने में समर्थ हैं.

 गढ़वाली कथाओं को शिष्टता हेतु का कथाकार अबोध बंधु बहुगुणा ( झाला,चलणस्यूं , पौ.ग १९२७-२००७ ): अबोध बंधु बहुगुणा ने गढ़वाली साहित्य के हर विधा में विद्वतापूर्ण 'मिळवाक'/भागीदारी  ही नही दिया अपितु नेतृत्व भी प्रदान किया है . बहुगुणा ने गढवाली कथाओं को नया कलेवर दिया जिसे भीष्म कुकरेती अति  शिष्टता की ओर ल़े जाने वाला मार्ग कहता है . बहुगुणा की कथाओं में वह सब कुछ है जो कथाओं में होना चाहिए. बहुगुणा ने भाषा में निपट /घोर ग्रामीण गढवालीपन  को छोड़ संस्कृतनिष्ट भाषा को अपनाने की कोशिश भी की है . कथा कुमुद व रगड़वात दो कथा संग्रह गढवाली कथा साहित्य के नगीने हैं. अबोध बंधु की कथाएं बुद्धिजीवियों हेतु अधिक हैं. डा अनिल का मानना है कि बहुगुणा की कई कथाओं में बहुगुणा मनोवैज्ञानिक शैली में लेखक किशी शब्द विशेष का प्रयोग कर पाठक को बोध या चिन्ताधारा की दिशा निर्धारित कर देता है. अनिल डबराल का मानना है बहुगुणा कि कथाओं में लोक जीवन के प्रति अनुसंधानात्मक प्रवृति भी पायी जाती है बहुगुणा शब्दों के खिलाड़ी भी है तथापि शब्द , मुहावरों में गरिमा भी है . बहुगुणा ने भुग्त्युं भविष्य उप्न्यास भी  प्रकाशित किया है. भीष्म  कुकरेती ने अबोध को  गढवाली साहित्य का सूर्य की संज्ञा दी है.

 गढ़वाली कहानियों का परिपुष्ट कर्ता दुर्गा प्रसाद घिल्डियाल (  पदाल्यूं , कुटूळस्यूं, पौड़ी ग., १९२३-२००२) भीष्म कुकरेती के अनुसार दुर्गा प्रसाद  घिल्डियाल के बगैर गढवाली कथाओं के बारे में सोचा ही नही जा सकता . घिल्डियाल के तीन गढवाली कथा संग्रह 'गारी' (१९८४), 'म्वारी' (१९९८६) , और 'ब्वारी (१९८७ ) ' गढ़वाली साहित्य के धरोहर हैं. उच्याणा दुर्गाप्रसाद का उपन्यास भी गढवाली में छपा है. सभी ४० कहानियों की विषय वस्तु का केंद्र गढवाली जनमानस अथवा जीवन है . डा डबराल के अनुसार चरित्र चित्रण के मामले में दुर्गाप्रसाद घिल्डियाल सफल कथाकार है . घिल्डियाल का प्राकृत वातावरण से अधिक ध्यान देश -काल की ओर रहता है. डा अनिल के अनुसार घिल्डियाल को जितनी सफलता कथा वस्तु, विचार तत्व व पत्रों के निर्माण में मिली है उतनी सफलता भाषा सृजन में नही मिली है . यानी कि अलंकारिक नही अपितु सरल है

 प्रयोगधर्मी भीष्म कुकरेती ( जसपुर , मल्ला ढान्गु  पौ.ग. १९५२) भीष्म कुकरेती की पहली गढवाली कहानी ' कैरा कु कतल' (अलकनंदा १९८३ ) है जो की एक प्रकार से गढवाली में एक प्रायोगिक कहानी है. कथा में प्रतेक वाक्य में 'क' अक्षर अवश्य है याने की अनुप्राश अलंकार का प्रयोग है.कुकरेती की अब तक बीस से अधिक कहानियाँ गढवाली में प्रकाशित हुए हैं . भीष्म कुकरेती की तीन प्रकार की कहानियाँ हैं - स्त्री दुःख व सम्वेदनात्मक (जैसे 'दाता की ब्वारी कन दुखायारी ' कीड़ी बौ' देखें सन्दर्भ -४ ) , व्यंग्य व हास्य मिश्रित जैसे 'वी .सी .आर को आण ' बाघ, मेरी वा प्रेमिका' 'प्रेमिका की खोज' आदि  ( देखें कौन्ली  किरण पृष्ठ १४७ ) या डा अनिल डबराल (पृष्ठ २४४) की समालोचना सामाजिक चेतना युक्त जैसे ' बिट्ठ भिड्याणो सुख या सवर्ण स्पर्श सुख' व विवध कथाएँ

 रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी ' ( जन्म-बड़ेथ ढान्गु , पैत्रिक गाँव डांग श्रीनगर पौड़ी  ग.  १९११-२००२ ) की 'मेरी मूंगा कख होली'  (हिलांस १९८१) व ' घूंड्या द्यूर ' (हिलांस १९८०) नाम कि दो  कहानियाँ प्रकाशित हुईं . जहां मेरी मूंगा संस्मंरणात्मक शैली में है जिसमे बड़ेथ से व्यासचट्टी बैसाखी मेले  जाने का वृतांत दीखता है, वंही घूंड्या द्यूर एक सामाजिक संस्कार पर चोट करती हुयी चेतना  सम्वाहक कहानी है. डा अनिल डबराल (३ ) के अनुसार इस कथा का विषय  पुरुष विशेष और ष्ट्री विशेष के सौन्दर्य वोध पर आधारित है . नित्यानंद मैठाणी ( श्रीनगर, पौ.ग. १९३४ )  ने कुछेक मौलिक गढ़वाली कथाएँ दी हैं. किन्तु मैठाणी का योगदान आकाशवाणी में गढवाली कथाओं का बांचना , डोगरी , कश्मीरी कथाओं का अनुबाद आकश वाणी से आदि में खीं अधिक है . नित्यानंद की कथाओं में पैनापन, व नाटकीयता की विशषता है

 नित्यानंद का उपन्यास ' निमाणी' गढवाली कथा साहित्य का एक  चमकता मणि है .कुसुम नौटियाल : कुसुम नौटियाल के दो कथाएं हिलांस ( काफळ १९८१, नाच दो मैना , १९८२ ) मै प्रकाशित हुईं.  सम्वेदनाओं  का चितेरा  सुदामा प्रसाद डबराल प्रेमी ( फल्दा, पटवालस्यूं , पौ.ग १९३१-) सुदामा प्रसाद डबराल 'प्रेमी' का गढवाली कथा संसार को काफी बड़ा है, सुदामा प्रसाद 'प्रेमी' के तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं. गैत्री की ब्व़े ( १९८५ ) संग्रह में छपी.  कथाएँ सरल, व प्रेरणा सूत्र लिए होती  हैं. कथाओं में सरल बहाव होता है. कई कथाएँ ऐसी लगती हैं जैसी कोई लोक कथा हो.कथाकार सुदामा प्रसाद ने गढवाली कहावतों से कथाओं का अच्छा प्रयोग किया है. डा अनिल के अनुसार भाषा ढबाड़ी है(हिंदी -गढवाली मिश्रित)

  सुधारवादी कथाकार डा. महावीर प्रसाद गैरोला ( दालढुंग , बडीयारगढ़, टि.ग १९२२-२००९ ) ने बीस से अधिक कथाएँ प्रकाशित की हैं व ड़ उपन्यास गढवाली में प्रकाशित हैं. हिंदी के मूर्धन्य कथाकार और समालोचक  डा गंगा प्रसाद विमल डा महावीर गैरोला को सुधारवादी कथाकार मानते हैं किन्तु गैरोला की सुधारवादी कथाएं बोझिल नही रोचक हैं. डा महावीर प्रसाद की कथाओं में टिहरी की बोल चाल की बोली, टिहरी की ठसक अवश्य मिलती है. कभी कभी ऐसे शब्द भी मिलते हैं जो पौड़ी गढवाल से ब्रिटिश सत्ता व पढ़ाई लिखाई के कारण लुप्त हो गए हैं. संवाद, चरित्रों के चरित्र को उजागर करने में सक्षम हैं. कथा कहने का ढंग पारम्परिक है और अधिकतर कथाएं पीड़ा लिए अवश्य हैं किन्तु सुखांत में बदल जाती हैं

 बालेन्दु बडोला ( मूल गाँव बडोली, चौन्दकोट , पौ .ग. ) बालेन्दु बडोला ने  चालीस से अधिक कथाएं  हिलांस (१९८५ के बाद ), चिट्ठी पतरी, युगवाणी जैसी पत्रिकाओं में  प्रकाशित की हैं. बालेन्दु की कथाओं पर लोक कथाओं की शैल़ी  का भी प्रभाव दीखता है . कथाएँ बहु विषयक हैं व कथा कहने का ढंग पारम्परिक है. चरित्र व विषय वस्तु आम गढवाली के व गढवाल सम्बन्धी  हैं किन्तु कई कथाओं में चरित्र काल्पनिक भी लगते हैं . भाषा सरल व वहाव लिए होती है. ऐसा लगता है बालेन्दु परम्परा तोड़ने से बचता है  . बालेन्दु की  कहानियों में प्रेरणा दायक पन अधिक है किन्तु ऐसी कथाओं में रोचकता की कमी नही झलकती .गढवाली प्रतीकों के अतिरिक्त कई हिंदी कहावतों का गढवाली में अनुवाद भी मिलता है . वर्तमान में बालेन्दु की कथाएँ युगवाणी मासिक पत्रिका में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं . बालेन्दु बडोला ने बाल कथाएँ भी प्रकाशित किये हैं (हिलांस, चिट्ठी पतरी, युगवाणी ).

  सदानंद जखमोला (चन्दा , शीला, पौ. ग. १९००-१९७७ ) के पाच  कथाएँ प्रकाशित हूई  जैसे छौं को वैद (गढ़ गौरव १९८४)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
लोक मानस का चितेरा कथाकार प्रताप शिखर (कोटि, कुणजी , टिहरी ग. १९५२ ) प्रताप शिखर का कथा संग्रह 'कुरेड़ी फट गे ' (१९८९) में नौ कथाएँ संग्रहीत हैं. कथायों में समाज का असलियतवादी  चित्रण है, कई कथाएँ रेखाचित्र भी बन जाती है, प्रताप शिखर टिहरी भाषा का प्रयोग करता है जो कि कथाओं को एक वैशिष्ठ्य प्रदान करने म सक्षम है .

 कुसुम नौटियाल की दो ही कथाओं का जिक्र गढवाली साहित्यिक इतिहास में मिलता है (बहुगुणा १९९० ) और दोनों कथाएं हिलांस (१९८१, १९८२ ) में प्रकाशित हुयी  हैं. कथाएं सम्वेदनशील हैं व गढवाली कथाओं को एक नया  दौर देने की पहल में शामिल होने के कोशिश भी.

 पूरण पंत पथिक ( अस्कोट, चौन्दकोट, पौ ग १९५१ ) पंत की दो कथाएं (हिलांस १९८३ व चिट्ठी २१ वां अंक ) प्रकाशित हुए हैं . कथाओं में कथात्व कम है विचार उत्प्रेरणा अधिक है ( डा अनिल )  . हाँ व्यंग्यात्मक पुट अवश्य मिलता है ( बहुगुणा  , सं. ४ व ६ )  मनोविज्ञानी कथाकार  काली प्रसाद घिल्डियाल (पदाल्युं, कटळस्यूं ,१९३०-) गढ़वाली  नाटक वेत्ता काली प्रसाद  घिल्डियाल की केवल तीन कहानियां प्रकाश में आई हैं (हिलांस १९८४ ) . काली प्रसाद की कहानियों में जटिल मनोविज्ञान मिलता है , जो कि गढवाली कथाओं के लिए एक गति शीलता का परिचायक भी बना . जटिल मनोविज्ञान को सरलता से काली प्रसाद घिल्डियाल कथा धरातल पर लाने में सक्षम है.

 जबर सिंह कैंतुरा (रिंगोली , लोत्सू, टि.ग. १९५६-) : जबर सिंह कैंतुरा की कथाएं हिलांस (१९८६), धाद (१९८८) आदि पत्रिकाओं में दस -बाढ़ कथाएं प्रकाशित हुयी हैं. कथाओं में मानवीय सम्वेदना, संघर्ष, शोषण की नीति , पारवारिक सम्बन्ध प्रचुर मात्र में मिलता है (कैंतुरा की भीष्म  कुकरेती से बातचीत ,ललित  केशवान का पत्र  व डा. अनिल डबराल ) . भाषा टिहरी की है व कई स्थानीय शब्द गढवाली शब्द भण्डार के लिए अमूल्य हैं. कैंतुरा का कथा संग्रह प्रकाशाधीन है

 मोहन लाल  ढौंडियाल ( दहेली , गुराड़स्यूं , १९५६ ) कवि ढौंडियाल के दो कथाएं हिलांस व धाद (१९८५-८६ ) में छपी हैं. कथाएँ सीख व परंपरा संबंधी हैं ( लेखक की भीष्म कुकरेती से बातचीत व केशवान )  विजय सिंह लिंगवाल : विजय सिंह लिंगवाल  के एक कहानी ( हिलांस १९९८८) में प्रकाशित हुयी जो डा अनिल अनुसार सरल, सहज व मुहावरेदार है

 जगदीश जीवट : जीवट के एक कहानी'दिन'  धाद १९८८) प्रकाश में आई है जो सरस है.

 विद्यावती डोभाल (सैंज,नियली,  टि.ग. १९०२ -१९९३) कवित्री विद्यावती डोभाल  की  कहानी 'रुक्मी ' (धाद १९८९) उनकी प्रसिद्ध कहानियों में एक  है

खुशहाल सिंह 'चिन्मय सायर' ( अन्दर्सौं, डाबरी , पौ ग. १९४८) कवि 'चिन्मय सायर' की एक लघु कथा 'धुवां' (चिट्ठी २१ वां अंक) में प्रकाशित हुयी.

 विजय गौड़ : हिंदी के कवि विजय गौड़ की 'कथा 'भाप इंजिन ' (चिट्ठी २१ वां अंक )  गढवाली में अति आधुनिक कहानी मानी जाती है

विजय कुमार 'मधुर' (रडस्वा , रिन्ग्वाड़स्यूं १९६४ ) विजय कुमार 'मधुर' ने तीन कहानियाँ प्रकाशित हुयी हैं जैसे चिट्ठी -२१ वां अंक . एक बालकथा भी छपी है.

 गिरधारी लाल थपलियाल 'कंकाल (श्रीकोट, पौ.ग. १९२९-१९८७) : नाटककार , कवि गिरधारी लाल थपलियाल 'कंकाल के एक ही कथा 'सुब्यदरी ' (धाद १९८८) प्रकाशित हुयी दिखती है . क्य्हा मुहावरे दार और चपल किसम की शैली में है

 जगदम्बा प्रसाद भारद्वाज  : भारद्वाज की  एक ही कहानी मिलती है - सच्चु  सुख की कहानी  , धाद १९८८ . कहानी अभुवाक्ति कौशल का एक उम्दा नमूना है सुरेन्द्र पाल  : प्रसिद्ध गढवाली कवि की कथा 'दानौ बछरू' एवम 'नातो' (धाद १९८८) गढवाली कथा के मणि हैं

 मोहन सैलानी : मोहन सैलानी के कथा ' घोल' (धाद १९९०) एक वेदना पूर्ण कहानी है. महेंद्र सिंह रावत : रावत के एक ही कहानी गाणी (धाद १९९० ) प्रकासहित हुयी है . सतेन्द्र सजवाण : सतेन्द्र सजवाण  के एक कहानी 'मा कु त्याग ' (बुग्याल १९९५ ) प्रकाश में आई है . बृजेंद्र सिंह नेगी (तोळी , मल्ला बदलपुर, पौ . ग. १९५८ ) बृजेंद्र की अब तक पचीस से अधिक कथाएं प्रकाशित हो चुकी हैं व अधिकतर युगवाणी मासिक में प्रकाशित हुयी है. सं २०००  के पश्चात् ही  'उमाळ ' व छिट्गा' नाम से दो कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं . कथा विषय गाँव, मानवीय सम्बन्ध , अंधविश्वास , समस्या संघर्ष , आदि हैं जो आम आदमी की रोजमर्रा जिन्दगी से सम्बन्ध रखते हैं. भाषा में सल़ाणी भाषा की प्रचुरता है , स्थानीय मुहावरों से कथा में वहाव आ जाता है . पारंपरिक शेली में लिखी कथाएं आम आदमी को लुभाती भी हैं (ललित  केशवान का पत्र व भीष्म कुकरेती की लेखक से बातचीत ) )   ललित केशवान (सिरोंठी , इड्वाळस्यूं , अपु.ग. १९४०-) प्रसिद्ध गढवाली कवि केशवान की तीन कथाएं (हिलांस, १९८४, १९८५ ) व धाद में प्रकाश में आये हैं. कथाएं रोमांचित कर्ता अथवा सरल हैं  .

 ब्रह्मा नन्द बिंजोला ( खंदेड़ा , चौन्दकोट १९३८ ) कवि  बिंजोला के आठ नौ कथाएं यत्र तत्र प्रकाशित हुईं व ललित केशवान के अनुसार ' फ़ौजी की ब्योली ' कथा संग्रह प्रकाशाधीन  है. ललित केशवान के अनुसार कथाएं मार्मिक व गढवाल के जन जीवन सम्बंधीं हैं. कथायों में कवित्व का प्रभाव  भी है.

 राजाराम कुकरेती ( पुन्डारी, म्न्यार्स्युं १९२८-) राजाराम के कुछ कथाएं यत्र तत्र पत्र पत्रिकाओं में १९९० के पश्चात प्रकाशित हुईं ( ललित केशवान का लेखक को लम्बा पत्र, २०१०  ) व २० कथाओं का संग्रह प्रकाशाधीन है

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
कन्हया लाल डंडरियाल ( नैली मवालस्युं , पौ.ग. १९३३-२००४ ) डंडरियाल ने दो तीन कथाये लिखी हैं (२)

लोकेश नवानी ( गंवाड़ी ,  किनगोड़   खाल , १९५६ ) लोकेश नवानी के चारेक कथाएं धाद, चिट्ठी , दस सालैक खबर सार (२००२)  , मे प्रकाशित हुए हैं

 गिरीश सुन्दरियाल (चूरेड़ गाँव, चौन्दकोट, १९६७ ) सुंदरियाल ने छ के करीब कहानियाँ लिखीं हैं जो 'चिट्ठी' के इकसवीं  अंक मे छपी व कुछ कथाएं चिट्ठी पतरी  (२००२) मे जैसे ' काची गाणि' आदि  प्रकाशित हुईं. डा अनिल डबराल ने लिखा की ऐसी मादक, हृदयस्पर्शी , प्रगल्भ, कथा बिरली ही हैं.

  डा कुटज भारती (भैड़ गाँव , बदलपुर १९६६ ) : डा कुटज भारती की 'जी ! भुकण्या तैं घुरण्या ल़ीगे ' कहानी  (खबर सार , १९९९ ) एक बहुत ही आनंद दायक, प्रहसनयुक्त , लोक लकीर की कहानी है


 वीणा पाणी जोशी ( देहरादून १९३७) नब्बे के दशक के बाद ही कवित्री की गढवाली कथा ' कठ बुबा ' प्रकाश में आया .

 डी एस रावत : डी एस रावत की एक कथा 'छावनी'  चिट्ठी पतरी , १९९९) प्रकाश मे आई है , कथा एक बालक का सैनिक छावनी को अपने नजर से देखने का नजरिया है.  वीरेन्द्र पंवार  ( केंद्र इड्वाल स्यूं 1962 )  कवि, समीक्षकवीरेन्द्र पंवार   की एक  कथा ही प्रकाश में आई  है अनसुया प्रसाद डंगवाल ( घीडी, बणेलस्यूं , पौ ग. १९४८ )  डंगवाल ने अब तक दस बारह कथाएं प्रकाशित की हैं और अधिकतर कथाएं शैलवाणी साप्ताहिक (२००० के पश्चात ) में प्रकाशित हुयी हैं . कथाएं सामाजिक विषयक हैं. भाषा चरित्रों  के अनुरूप है. कथों से पाठक को आनंद पारपत होता है . भीष्म कुकरेती का मानना है की कथाएं ' रौन्सदार' हैं . कई कहानियाँ पाठक को सोचने को मजबूर कर देती हैं  राम प्रसाद डोभाल : राम प्रसाद डोभाल की दो कथाएं  'चिट्ठी पतरी ' (२०००)  मे ' चैतु फेल बोडि पास ' नाम से प्रकाशित हुईं. एक कथा ' उर्ख्याल़ा की दीदी '  (चि.प. २००१) बालकथा है  सत्य आनंद बडोनी (टकोळी , ति.ग. १९६३ )  सत्य आनंद बडोनी  की एक कथा मंगतू  (चिट्ठी  पतरी , २०००) प्रकाश मे आई है. विमल थपलियाल 'रसाल' : विमल के एक कहानी ' खाडू -बोगठया' खबर सार (२०००)  में प्रकाश में आई है, जो की दार्शनिक धरातल लिए हुई लोक कथा लीक पर चलती है. सम्वंदों में हिंदी का उपयोग वातावरण बनाने हेतु ही हुआ है. .    चंद्रमणि उनियाल : चंद्रमणि उनियाल की एक कथा 'रुकमा ददि ' चिट्ठी पतरी ' (  २००१) मे प्रकाशित हुयी. कथा चिट्ठी रूप मे है . प्रीतम अपछ्याण (गड़कोट , च.ग १९७४ ) की पांचएक  कथाएं २००० के बाद चिट्ठी पतरी मे छपीं. कथाएं व्यंग से भी भरपूर हैं व सामयिक भी हैं. सर्वेश्वर दत्त कांडपाल : सर्वेश्वर दत्त कांडपाल के एक खाणी 'दादी चाणी ' (चिट्ठी पतरी २०००) प्रकाश मे आये जो की एक बुढ़िया का नए जमाने  मे होते परिवर्तन की दशा बयान करती  है. संजय  सुंदरियाल (चुरेड गाँव , चौन्दकोट, १९७९) संजय की दो कथाएं चिट्ठी पतरी (२००० के बाद) प्रकाशित हुईं.  सीताराम ममगाईं : सीताराम ममगाईं  की लघु कथा ' अनुष्ठान ' चिट्ठी पतरी (२००२ ) प्रकाश मे आई पाराशर गौड़ ( मिर्चौड़, अस्वाल्स्युं , पौ.ग., १९४७) 'जग्वाल' फिल्म के निर्माता पाराशर गौड़ की कथाएँ २००६ के बाद इन्टरनेट माध्यम पर प्रकाशित  हुयी  हैं. कथाएं व्यंग्य भाव लिए हैं और अधिकतर गढवाल में हुयी घटनाओं के समाचार बनने से सम्बन्धित हैं. भाषा सरल है, हाँ ट्विस्ट के मात्रा मे पाराशर कंजूसी करते दीखते नही हैं  गजेन्द्र नौटियाल : गजेन्द्र नौटियाल के एक कथा मान की टक्क 'चिट्ठी पतरी' (२००६) मे  प्रकाशित हुयी. कथा मार्मिक है

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
ओम प्रकाश सेमवाल ( दरम्वाड़ी , जख्धर, रुद्रप्रयाग , १९६५ ) यह एक उत्साहवर्धक घटना है क़ि गढवाली साहित्य में ओम प्रकाश सेमवाल सरीखे नव जवान साहित्यकार पदार्पण कर रहे हैं. ओम प्रकाश का आना गढवाली साहित्य हेतु एक प्रात: कालीन पवन झोंका है जो उनींदे गढ़वाली कथा संसार को जगाने में सक्षम भूमिका अदा करेगा . कवि ओम प्रकाश सेमवाल का गढवाली कथा संग्रह ' मेरी पुफु ' (२००९), लोकेश नवानी के अनुसार इस सदी का उल्लेखनीय घटना भी है . कथा संग्रह में 'धर्मा', हरसू, फजितु, आस, ब्व़े, भात, ब्व़े, वबरी, नई कूड़ी , बेटी ब्वारी , बड़ा भैजी , मेरी पुफू, गुरु जी कथाएं समाहित हैं. कथाएँ मानवीव समीकरण व सम्बन्धों क़ि पड़ताल करते हैं.                गढवाली लोक नाट्य शाष्त्री   डा दाता राम पुरोहित का कहना है क़ि कथाएँ डांडा -कांठाओं (पहाडी विन्यास ) के आइना हैं व  कथाओं में गढ़वाली मिटटी की 'कुमराण' (धुप से जले मिट्टी की आकर्षक  सुगंध) है. वहीं लोकेश नवानी लिखते हैं की सेमवाल एक शशक्त कथाकार हैं.       नामी गिरामी , जग प्रसिद्ध लोक गायक  नरेंद्र सिंग नेगी का कहना है की जब गढवाली भाषाई कहानियों में एक रीतापन/खालीपन आ रहा था तब सेमवाल का क्थास्न्ग्ढ़ इस खालीपन को दूर करने में समर्थ होगा. वहीं गजल सम्राट मधुसुदन थपलियाल ने भूमिका में लिखा कि 'मेरी पुफू ' गढ़वाली साहित्य के लिए एक सकारात्मक सौगात है . थपलियाल का कहना इकदम सही है कि कथाओं में सम्वाद बड़े असरदार हैं और कथाएं परिपूर्ण  दिखती हैं.    आशा रावत : (लखनऊ , १९५४) आशा रावत की पचीस से अधिक कहानियां शैलवाणी समाचार पत्र आदि मे  प्रकाशित हुए हैं. एक कथासंग्रह ' शैल्वणी' प्रकाशन कोटद्वार मे प्रकाशाधीन है, कहानियां मार्मिक, समस्या मूलक, है. संवाद कथा मे वहाव को गति प्रदान करने मे सक्षम हैं.

 शेर सिंह  गढ़देशी : शेर सिंह  गढ़देशी की परम्परावादी कथा 'नशलै सुधार' एक सुधारवादी कथा है (खबर सार (२००९)


सुधारवादी कथाकार जगदीश देवरानी ( डुडयख़ , लंगूर, १९२५): जगदीश देवरानी की ' चोळी के मर्यादा' , 'नैला पर दैला, 'गल्ती को सुधार' आदि पाँच कथाएं शैलवाणी साप्ताहिक कोट्द्वारा, में अक्टूबर व नवम्बर २०११ के अंक में क्रमगत में छपी हैं. शैलवाणी के सम्पादक व देवरानी से बातचीत पर ज्ञात  हुआ कि आने वाले अंको में लगभग ३० अन्य गढवाली  कहानियाँ प्रकाशाधीन है. कहानियां सुधारवादी हैं, परम्परागत हैं . भाषा  संस्कार सल़ाणी है  . भाषा सरल व संवाद चरित्र निर्माण व कथा के वेग में भागीदार हैं.

 सरोज नेगी : सरोज नेगी की गढ़वाली कहानियाँ शैल्वणी कोटद्वार में प्रकाशित होती रही हैं.        सन्दर्भ : १- भीष्म कुकरेती, २०११, गढवाळी कथाकार अर हौरी भाषाओं क कथाकार , शैलवाणी के (२०११-२०१२ ) पचास अंकों में क्रमगत लेख २- अबोध बंधु बहुगुणा , १९७५ गाड म्यटयेकि गंगा, देहली (गढवाली गद्य साहित्य का क्रमिक विकास )  ३- डा अनिल डबराल, २००७ गढ़वाली गद्य परम्परा , ४- अबोध बंधु बहुगुणा , १९९०, गढ़वाली कहानी , गढवाल की जीवित विभूतियाँ और गढवाल का वैशिष्ठ्य, पृष्ठ  २८७-२९० ५- ललित  केशवान (२०१०) का भीष्म कुकरेती को लिखा लम्बा पत्र जिसमे १०० से अधिक गढवाली भाषा के लेखक लेखिआकों के बारे में जानकारी दी गयी है.  ६- अबोध अबन्धु बहुगुणा , २००० कौन्ली किरण

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22