Author Topic: Shailesh Matiyani,great Writer - शैलेश मटियानी, उत्तराखंड में जन्मे साहित्यकार  (Read 17725 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कन्या तथा अन्य कहानियाँ
प्रकाशक: प्रतिभा प्रतिष्ठान

  प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश      शैलेश मटियानी हिंदी के शार्षस्थ कहानीकार थे। यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति  नहीं होगी कि वे प्रेमचन्द के बाद के सबसे बड़े जनकथाकार थे। उन्हें  ‘कथा-पुरूष’ भी कहा जाता है। भारतीय कथा में साहित्य की  जनवादी जातीय परंपरा से शैलेश मटियानी के कथा साहित्य का अटूट रिश्ता है।  वे दबे-कुचले भूखे नंगों दलितों उपेक्षितों के व्यापक संसार की बड़ी  आत्मीयता से अपनी कहानियों में पनाह देते हैं। उपेक्षित और बेसहारा लोग ही  मटियानी की कहानी की ताकत हैं।
 
  दलित वर्ग से ही वे शक्ति पाते हैं पर उस  शक्ति का उपयोग वे उन्हीं की आवाज बुलंद करने के लिए करते हैं। उनके  दलितों में नारी प्रमुख रूप से शामिल है। दलित जीवन के व्यापक और विशाल  अनुभव और उनकी जिजीविषा एवं संघर्ष को बेधक कहानी में ढाल देने की  सिद्धहस्तता ही मटियानी को कहानी के शिखर पर पहुँचाती है। मटियानी की  कहानी से गुजरना भूखे-नंगे, बेसहारा और दबे-कुचले लोगों की करूणा कराह,  भूख और मौत के आर्तनाद के बीच से गुजरना है। प्रस्तुत कथा संग्रह में  शैलेश मटियानी की चुनी हुई सोलह कहानियाँ संगृहीत हैं।
 
  ये वे कहानियाँ है,  जिसे मटियानी जी अपनी सर्वश्रेष्ठ कहानियों में स्थान देते हैं। ये  कहानियाँ कारूणिक हैं, मार्मिक हैं, हृदयस्पर्शी हैं-जो पाठकों के अंतर्मन  को छू जाएंगी। 
    प्राक्कथन     
    ‘कन्या तथा अन्य कहानियाँ’ शैलेन्द्र मटियानी का  इकत्तीसवाँ  कहानी-संग्रह है। अभी तक मटियानी जी के प्रकाशित तीस कहानी-संग्रहों में  इस संग्रह की कोई भी कहानी संग्रहित नहीं है। ये कहानियाँ समय-समय पर  पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं, लेकिन अभी तक असंग्रहीत ही हैं।
 
  ‘कन्या तथा अन्य कहानियाँ’ में संगृहीत सोलह कहानियों  में  ‘कन्या’, ‘दुरगुली’,  ‘काली नाग’,  ‘ब्रह्मसंकल्प’, ‘चंद्रायणी’ और  ‘गुलपिया  उत्साद’ आदि कहानियाँ मटियानीजी की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण  कहानियाँ  हैं, जिनके केंद्र में नारी और दलित हैं। अभी तक नारी और दलित चेतना की  अलख जगानेवाली धारदार कहानियों पर पाठकों, आलोचकों का किसी संकलन में  संकलित न होने के कारण ध्यान ही नहीं जा पाया है। इसलिए ‘कन्या  तथा  अन्य कहानियाँ’ संग्रह का विशेष महत्त्व है। 
    कन्या     
    ससुराल में अपनी संततियों के अस्तित्व में वंश-बेलि की तरह फैल जानेवाली  श्वेतकेशा नारी की तरह न जाने कितनी-कितनी चौड़ी धरती पर फैल जाने वाली  विराटा तरंजिता इन पहाड़ी घाटियों में, अपने उद्गम की ओर, धीरे-धीरे यों  सिमटती, सँकरी होती चली जाती है जैसे पहली बार ससुराल से मायके लौटनेवाली  वधू अपने मायके के आँगन तक पहुँचते-पहुँचते एकदम लजा जाती है और अपनी माँ,  अपने पिता के चरणों को छूते समय एकदम छोटी पड़ जाती है।
 
  लगता है, अपनी माँ धरित्री और पिता पर्वत तक पहुँचते-पहुँचते यही दशा नदी  की हो जाती है। यहाँ वह अपने को समेटकर ही रहती है, फैलाकर नहीं। अपने  मातृकुल की मर्यादा का बाँध ही तो जैसे हरेक कन्या को स्वेच्छा से अवांछित  विस्तार पालने से रोकता है। पिछले दस वर्षों की स्मृतियाँ शेष हैं। मायके  की धरती छोड़ने के बाद सुन्याल की धारा से भी ज्यादा सिमटती-सिमटती वह शहर  तक पहुँची थी और उसके बाद धीरे-धीरे जैसे उसके अभिशप्त जीवन का विस्तार  शुरू हुआ था। संन्यासिनों की पाँत में जुड़ने के बाद न जाने कितने तीर्थों  और उन तीर्थ यात्राओं की अवधि में न जाने कितने संन्यस्तों, गृहस्थों और  अंततः भिखारियों तक की संगति में एक अपने को फैलाना पड़ा था।
 
  न जाने  कैसी-कैसी स्थितियों को जीना पड़ा था और विरक्ति से जगाने वाली आत्मघात की  कल्पना के क्षणों में किसी का करुण निषेध गूँजता जा रहा था। और अपने को  जहाँ समेटकर रखना संभव है वहाँ से स्वयं ही निष्कासित हो आई थी और परदेश  में सिमटकर, अपनी मर्यादाओं से बँधकर रह सकना मृत्यु-वरण की स्थिति में ही  संभव हो सकता था। जीने के लिए तो नदी की तरह बहते रहना ही नियति बन गई थी।
 
  किंतु इस वर्ष दसवें साल हरिद्वार गई थी तो गंगा में स्नान करते समय एकाएक  पिता का स्मरण हो आया था और हवा सा सारा अस्तित्व सिर्फ एक तृष्णा में  सिमटता चला गया था—एक झलक बाज्यू के दर्शन पाने की तृष्णा जैसे  पहाड़ियों की तरह दो पाट ऊँची होती चली गई थी और उनके बीच मिरदुला के अब  तक के सारे जीवन का फैलाव सिमटता ही चला गया था और वह छोटी पड़ती चली गई  थी। अपने विराट् पिता के चरणों में क्षुद्र बनकर ही लोटा जा सकता है, इस  बोध मात्र से बचपन की सारी स्मृतियाँ उभर आईं थीं और पिछले दस वर्षों में  जोड़ी हुई पूँजी में से बाज्यू, छोटी माँज्यू और भाई शिवचरन के लिए  कुछ-न-कुछ खरीदकर मिरदुला मायके की ओर लौट आई थी। और मायके के गाँव की ओर  फूटनेवाली पगडंडी तथा सुन्याल की ओर देखते-देखते उसे यही अनुभूति हो रही  थी कि वह इतनी ही सँकरी, इतनी ही बँधी हुई हो गई है।
 
  बार-बार आत्मा शंकित हो उठती है। शहर से गाँव लौटता कोई यों पुल के पास  बैठी देखेगा तो कहीं जिज्ञासावश कुछ पूछने न लग जाए। पहचानकार कोई पहले ही  बाज्यू, माँज्यू तक सूचना पहुँचा दे तो न जाने उन पर क्या प्रतिक्रिया हो  ? माँ-पिता की ओर से एक प्रकार की निश्शंक आश्वस्ति ही यहाँ तक सहारा देकर  ले आई है, मगर अब तक नाती-पोतोंवाले हो गए होंगे तो कहीं ममता उनमें न बँट  गई हो। और कदाचित न रहे हों तो न जाने शिवचरन और हरिप्रिया कैसा रुख  अपनाएँ। हरिप्रिया यह न अनुभव करे कि दस साल पुराने व्यवहार की करनी अभी  तक भी नहीं भूली है, इसलिए वह बाज्यू के साथ-साथ हरिप्रिया और शिवचरन के  लिए भी एक-दो कपड़े खरीद लाई थी। और अब आत्मा शंकित हो रही थी, बार-बार  इतनी आत्मीयता और तृष्णा के साथ लाए हुए उसके कपड़ों को यदि किसी ने भी  नहीं स्वीकारा तो !
  अचानक पोटली में से झुनझुना बजने की आवाज आई तो मिरदुला खो गई।
 
  दस वर्ष  बीत गए हैं। शिवचरन के बच्चे जरूर हो गए होंगे। एक बार, सिर्फ एक बार भी  उनके हाथों से अपने लाए हुए झुनझुने की आवाज सुन सकने का सुख उपलब्ध हो  सकेगा ! जितना सुख अपने बड़ों के सामने छोटा पड़ जाने पर मिलता है उतना ही  अपने से छोटों के सामने बड़ा बन जाने पर भी तो; सैंतीसवाँ लग गया होगा अब।  ग्रीवा और माथे पर के थोड़े-थोड़े बाल फूल आए हैं। बाज्यू की स्मृति के  सामने यदि आत्मा का शिशुत्व ज्यों-का-त्यों सिमट आता है तो भतीजे-भतीजियों  की कल्पना मात्र से अपनी देह बहुत सयानी लगती है। किनारे के छोटे-छोटे गोल  पत्थरों को अपने पाँवों पर हौले-हौले लुढ़काते हुए मिरदुला सोचने  लगी—छोटे-छोटे बच्चों की हथेलियों से भी तो ऐसी ही गुदगुदी लगती  होगी।
  अचानक प्रयाग और काशी में बिताए हुए वर्षों की याद ने घेर लिया। मिरदुला  का मन एकदम उद्भ्रांत हो आया, इतनी कलुषित देह लेकर जा सकेगी मायके ! उठा  सकेगी दृष्टि उस तेजस्वी ब्राह्मण के प्रशस्त ललाट की ओर।
 
  सिर्फ आज से दस वर्ष पहले पिता के मुँह से सुने हुए कुछ वाक्यों की  आश्वस्ति का ही तो सहारा है; किंतु वह निर्विकार दृष्टि, वह करुण वाणी  क्या अब भी ज्यों-की-त्यों होगी !
 
  सौतेली माँ हरिप्रिया ने जिस दिन लांछित किया था, उसकी व्याकुलता और व्यथा  को समझते हुए श्याम पंडित ने कहा था, ‘दुली, जब तू हुई थी, तभी  से  ही तेरी माँज्यू बीमार पड़ गई थी। लगातार तीन महीने बीमार रहकर मृत्यु की  ओर बढ़ने लगी तो एक दिन तुझे खेत में गाड़ने उठा ले गई थी। मुझे भनक पड़  गई और लौटा आया तो बिलख-बिलखकर रो पड़ी थी—मैं तुझ कानी कौड़ी  को  सँभालकर कैसे रख सकूँगी ? कहती थी, औरत की जात में जहाँ जरा सा भी खोट  हुआ, तो उसे कौड़ियों की तरह पासा खेलने वाले बहुत होते हैं, मगर शंखाधार  पर शंख की तरह पूजने वाले पुरुष बहुत कम होते हैं।...तेरी माँज्यू को यही  शंका थी, तुझसे विवाह कोई नहीं करेगा और वह यह भी कह रही थी, पापों में  डूबने से भी पापों से बचने के दुःख ज्यादा होते हैं।
 
  मगर मैं न भी लौटा  लाता तो भी वह तुझे मार तो नहीं पाती, दुली।....और आज तू उस अवस्था में  मेरे पाँवों पर माथा टेक रही है, जिसकी तेरी माँज्यू को आशंका रहती थी, तो  मेरे पास तेरी व्यथा को दूर कर सकने का कोई उपाय नहीं है, बेटी !....सिर्फ  इतना ही तुझसे कह सकता हूँ कि जीवन को मृत्यु के क्षण तक शांत भाव से जीना  ही मनुष्य का धर्म है। अपने सारे गुण-दोषों को शिवार्पित करके, अपने को और  दूसरों को क्षमा करते हुए उस मृत्यु की प्रतीक्षा में जीना चाहिए, जो अपने  पीछे जिंदगी की सार्थकता छोड़ जाती है।...आज तू निर्दोष है, दुली, कल दोष  भी आ सकते हैं। आज तुझे सिर्फ हरचरन और हरिप्रिया पर रोष हो सकता है, कल  अपने पर भी हो सकता है।...और इतना याद रखना, जो दूसरों को क्षमा नहीं कर  सकता, उसमें अपने को क्षमा करने की शक्ति भी नहीं होती।’
 
  मिरदुला की कानी आँख का कोना तब भी डूब गया था। लगा था, किसी विशाल वृक्ष  के नीचे आँख मूँदे सोई है और सारा वन गूँज रहा है।
  बाज्यू कहते रहे थे, ‘दुली, तेरी माँ भी पढ़ी-लिखी नहीं थी। मगर  सिर्फ अक्षर ज्ञान से ही शून्य थी वह, आत्मज्ञान से नहीं। इसलिए आज चौंतीस  वर्ष उसको बीत गए हैं तो भी मेरे मन में उसके नारीत्व की, उसके अस्तित्व  की सार्थकता शेष है। बेटी, अपने वृद्ध पिता को क्षमा करना। मुझे अपनी  आत्मा अब ऐसी वीरान धरती जैसी लगती है, जिस पर वर्षों तक छलछलाती रहनेवाली  कोई नदी असमय ही हट गई हो और अब सिर्फ उसकी गहरी रेखा शेष रह गई हो। अपने  अस्तित्व के बोध को एक ऐसी गहरी रेखा के रूप में किसी और की धरती पर छोड़  जाने में ही तो मृत्यु की सार्थकता है, दुली !...यों तो इस संसार में  लाखों मरते हैं, लाखों जीतें हैं।’
 
  पिता के कहे हुए बहुत से शब्दों को समझने में मिरदुला असमर्थ रहती थी; मगर  फिर भी इतना समझ गई थी, पिता का उद्देश्य उसके मन में उस विकृति और आक्रोश  को हटाना ही है, जिससे आत्मघात कर लेने की बात उसके मन में उत्पन्न हो रही  थी। वह अनुभव करती रहती थी, पिता उसकी आत्मा में उसकी स्वर्गीय माँ की  विराटता की कलम लगाने का प्रयत्न कर रहे थे, ताकि अपने सारे खोटों के  बावजूद वह एक शांत जीवन जी सके। मगर फिर भी वह घर में रुक नहीं सकी थी।
 
   उसने अनुभव किया था कि हरचरन कका के पश्चाताप से बिलबिलाते  होठों को अपनी  क्षीण दृष्टि से झेल पाना बहुत कठिन होगा। अपने विराट् पिता का कहा हुआ  सत्य कितना यथार्थ था, वह समझ गई थी। यदि हरिचरन की आत्मिक दुर्बलता के उन  क्षणों में उसे हरिप्रिया ने देखकर भी अनदेखा कर दिया होता तो संभवतः यह  क्षमा पाप-बोध की उस दाहक चिता से उनकी आत्मा को उतार देती, जिस पर अभी न  जाने कब तक उन्हें सुलगते ही रहना होगा। मिरदुला सोचने लगी थी, जहाँ तक  उसका प्रश्न था, यही सोच लेती कि उसकी तो बच्ची ही हूँ। उन्होंने किस  भावना से प्यार किया, यह उन्हीं तक सीमित रहे, मैं उसी रूप में स्वीकार  करती हूँ जिस रूप में वह पाप की अनुभूति नहीं बनता।
 
  मिरदुला को लगता रहा था, उसके बाज्यू का कहा हुआ सत्य ही उन सबके अनुकूल  सत्यों से ऊपर है, कि दूसरों से घृणा करने वाला अपने आपसे घृणा करने से भी  अपने को रोक नहीं सकता है। हरचरन कका के प्रति घृणा अनुभव करने के बाद ही  तो अपने से घृणा अनुभव करने और हरिप्रिया के प्रति आक्रोश करने के बाद ही  तो अपने प्रति रोष करने की मनः स्थिति व्याप सकती थी ! मगर बिना पिता के  जैसे विराट् विवेक के ही इन सबके बीच जीने से न जाने कितने ऐसे अवसर संभव    हो जाएँगे, जिनमें अपने को घृणा और रोष करने से रोक नहीं पाएगी। वह पिता  के पाँवों पर माथा रखते हुए आत्मा जैसी शांति अनुभव करती है, हरचरन कका और  छोटी माँज्यू की संगति में वैसा अनुभव किया जा सके, यह तो संभव नहीं है।  कहीं ऐसा न हो कि कल पिता अपने सारे उपदेशों की व्यर्थता को अपनी उसी  चक्षुहीन आत्मजा के माध्यम से ही अनुभव न करें, जिसको विषाद विक्षोभ से  सदैव मुक्त रखने की भावना उनको निरंतर उस दिन भगीरथी की याद में विह्वल  करती रहती है, जो उनकी आत्मा को धरती पर अपनी अमिट रेखा आँक गई है।
 
  मिरदुला को याद आया कि हरिप्रिया कभी-कभी अपने साथ की औरतों से कहा करती  थी कि ‘मुरदों की गति—किरिया करने वाले ब्राह्मण को  मुरदों के  प्रति ही आसक्ति ज्यादा होती है। नहाते समय ‘हर-हर गंगे  भागीरथी’ कहते हैं शिवचरन के बाज्यू, तो मुँह में जवानों का  जैसा  ताप आ जाता है।’
  भागीरथी के सेवा के अभ्यस्त हरचरन और मिरदुला उनसे नहीं सँभलेंगे, इसी  भावना से श्याम पंडित, पत्नी के मृत्यु के साल भर बाद ही, सीधे अपने ससुर  के पास चले गए थे। तीस तक हरिप्रिया भी पहुँच गई थी, मगर कुवाँरी ही थी।  श्याम पंडित ने सीधे-सीधे अपना मंतव्य ससुर के सामने रख दिया था।
 
  और  रामदत्त पंडित ने अपने बेटों के निषेध को नकार दिया था, ‘जिस  ब्राह्मण ने मेरी सर्वत्याज्या कन्या को पार्वती की तरह स्वीकार किया,  उसके लिए नास्ति मेरे पास नहीं है।’
  लोग कहा करते थे—जैसी लांछिता भागीरथी को श्याम पंडित उठा लाए  थे  वैसी किसी और को यदि कोई ब्राह्मण ले आया होता तो शायद बिरादरी के लोग  पानी तक बंद कर चुके होते और यजमानी सदा-सदा के लिए छूट जाती। मगर, श्याम  पंडित की प्रशांत तेजस्विता में कुछ ऐसा होता था, बिरादरी के सबसे सयाने  और जातीयता के दर्प से वासुकि नाग की तरह फुफकारते रहनेवाले मुरलीधर ने भी  यही कह दिया था, ‘जो शिव के घर में आए, उसे पार्वती के रूप में  ही  स्वीकार कर लेना चाहिए।
 
  ऐसे विराट् पिता की स्मृति ही तो दस वर्षों तक परदेश में ठौर-ठौर फैली हुई  मिरदुला को आज फिर इस मायके की घाटी में सिमटा लाई है। उस आशुतोष पुरुष का  स्मरण मात्र भी आत्मा को विकारों से मुक्त  देता रहा है। मायके  में  सिर्फ एक क्षण के विकार को न झेल सकनेवाली मिरदुला ने पिछले दस वर्षों में  न जाने कितनी-कितनी विकृतियाँ झेली हैं; मगर यह बोध मात्र कि औरों की  विकृति को भी अपनी विकृति स्वीकर लेने से पाप उत्पन्न होता है, जैसे कीचड़  को कीचड़ से मिला देने से सिर्फ कीचड़ ही शेष रहती है, मगर नदी की धारा की  तरह प्रवहमान बनकर कीचड़ को स्वीकारने से कीचड़ अपने में कहीं भी स्थिर  नहीं रहती—मिरदुला को अपने से घृणा करने से ही नहीं, औरों से  घृणा  करने से भी रोकती रही थी, और आज दस वर्षों के बाद भी अपने अतीत के प्रति  घृणा शेष नहीं है। मगर कहीं कोई उपलब्धि भी तो शेष नहीं है।
 
  ठीक उसी उम्र में माँज्यू मरी थीं, मगर कहीं भी तो मिरदुला ने पीछे ऐसी  धरती नहीं पाई, जिसमें उसके अस्तित्व की गहरी रेखा खिंची हुई हो।
  छोटी माँज्यू के प्रति कोई आक्रोश शेष नहीं है, इसलिए आत्मिक लगाव की  अनुभूति नहीं होती है। हरचरन कका के प्रति सिर्फ एक क्षण को अस्थिर घृणा  शेष है तो एक अव्यक्त संवेदना भी है। अब तो वे भी बहुत वृद्ध हो गए होंगे।  संभव है, कहीं वह पश्चाताप भी शेष रहा हो कि उसकी हीनता के कारण ही  मिरदुला घर छोड़ गई थी। हो सकता है, इसी पश्चाताप में घुलते-घुलते मर भी  गए हों। संभव था, उस दिन के बाद भी मिरदुला घर पर ही रहती और उनकी पूर्ववत  सेवा करती रहती तो हरचरन कका की आत्मा में कहीं एक कृतज्ञता की गहरी रेखा  खिंच जाती ! चले आने के बाद तो शायद यह भी सोचा हो, अक्षम्य मानकर ही छोड़  गई। बाँ-बाँ-बाँ...
 
  ऊपर पगडंडी पर वन से लौटती गायें रँभा रही होंगी। मिरदुला उतनी दूर देख  नहीं पाती है, मगर आत्मा विह्वलता से ठीक वैसे ही रँभाने को हो आती है। तब  आँगन के एक कोने में बँधी रहने वाली छोटी सी बाछी लछिमा भी तो अब बहुत  सयानी हो गई होगी ! कितनी ही बार तो ब्या भी गई होगी ! काश, मिरदुला को भी  गाय बाछी की ही योनि दे दी होती ईश्वर ने, जिनके लिए मायके-ससुराल की कोई  सीमा नहीं है।
  पोटली बाँधते-बाँधते मिरदुला फिर व्याकुल हो उठी। उजाला रहते जाती है, तो  संभव है, रास्ते में ही कोई पहचान ले। साँझ होने देती है तो सँकरी पगडंडी  पर चलना कठिन हो जाएगा। पगडंडी के नीचे घाटियाँ हैं। जरा सा भी पाँव फिसला  तो...
 
  एक दृश्य सामने उभर आता है। पगडंडी पर चलते-चलते मिरदुला फिसल पड़ती है और  दूसरे दिन श्याम पंडित को खबर मिलती है, नीचे घाटी में कोई कानी औरत मरी  पड़ी है। हो सकता है, बावलों की तरह दौड़ पड़े बाज्यू कि ‘अरे,  कही  मेरी दुली छोरी तो नहीं है !’
  अब तो अस्सी पार पहुँच गए होंगे। आँखों की ज्योति उनकी भी क्षीण हो गई  होगी। कहीं ऐसा न हो कि पगडंडी पर दौड़ने में वह भी फिसल जाएँ !
 
  मिरदुला ने अपनी जीभ काट ली। पिता के लिए अमंगल की बात सोचने मात्र से  आत्मा काँप उठती है। अपनी मृत्यु भी अपेक्षित नहीं है। मृत्यु के बाद तो  कानी आँख का यह थोड़ा सा उघड़ा हुआ कोना भी पथरा जाएगा और तब बाज्यू सामने  भी होंगे तो कुछ दिखाई नहीं देगा। कुछ भी दिखाई नहीं देगा।
  मन को कुछ स्थिर करके मिरदुला ने पोटली को सिर पर उठा लिया। धीरे-धीरे  लाठी टेकती चलने लगी तो फिर एक बार शंका हो गई कि लाठी टेककर चलते देखकर  कहीं कोई यह अनुमान न लगा ले, मिरदुला कानी आ रही है। मिरदुला जानती है कि  अपने आने की पूर्व सूचना न मिलने देने की इच्छा और निश्शंक-निस्संकोच भाव  से घर तक चले जाने में सिर्फ इसी आशंका को लेकर आई है कि इन बीते हुए दस  वर्षों के बाद भी वृद्ध पिता जीवित होंगे या नहीं।
 
  घने जंगल के बीच की लगभग समतल-सी एक पट्टी में गाँव बसा हुआ है। पूरा गाँव  कभी भी मिरदुला को दिखाई नहीं दिया था। मगर थोड़ी-थोड़ी देखी हुई बस्ती को  जोड़कर अपने ही अंदर देखने से जैसे पूरा गाँव प्रत्यक्ष हो उठता है। अपनी  क्षीण ज्योति के सहारे ही मिरदुला तब भी बहुत सा काम कर लेती थी। खेतों  में भी चली जाती थी और जंगल की सीमा तक गाय बाछी चराने भी। पगडंडी तो तब  की ही पहचानी हुई है जब चुपचाप घर छोड़कर आई थी। गाय-बाछी चराने के बहाने  आई थी और उनके झालर कुरबुरा-कुरबुराकर, उनके गले लगकर रो-रोकर चौड़ी सड़क  पर जा मिलनेवाली पगडंडी पर चल पड़ी थी। जितनी अनजानी पगडंडी तब, उससे भी  अनजाना अपना भविष्य था।
 
  सिर्फ यह निश्चय कि जो कुछ भी जीवन में आएगा, उसे  एकदम सहज भाव से स्वीकारती, डरानेवाले सारे संघर्षों के बीच कहीं अपनी  सार्थकता की दिशा खोजती हुई तब तक जी लेगी जब तक मृत्यु स्वयं न समेट  ले—और आज फिर इसी पगडंडी पर सिमट-सिमटकर चलते समय सिर्फ इतना ही  निश्चय शेष है कि यदि पिताजी जीवित होंगे, स्वीकार लेंगे तो उनकी और हरचरन  कका की सेवा में दिन बिता लेगी। एक क्षीण-ज्योति रेखा जो आँखों में है,  इसे ईश्वर ने संभवतः इसीलिए शेष भी रख छोड़ा है कि जैसे नदी की रेखा अपने  आस-पास की धरती सींचती चली जाती है, ठीक वैसे ही अपनी इस क्षण दृष्टि के  दायरे में आनेवालों की सेवा मिरदुला भी करती चली जाए। न जाने किस  पूर्वजन्म के किन अपराधों के दंड-स्वरूप आँखों की यह विकृति देकर,  प्रायश्चित्त के लिए क्षीण-सी ज्योति दे रखी है। इससे भी दुर्भावना और  कठोरता का अंधकार ही बटोरे तो बहुत संभव है, अगले जन्म में इतना भी प्रकाश  जीवन में शेष न रहे।
 
  पगडंडी पार करते-करते खेतों की सीमा तक पहुँच गई तो मिरदुला ने दूर तक  देखना चाहा, मगर दृष्टि काँपकर रह गई। लगा, गाय-बछियों को जैसी स्थिति में  छोड़ गई थी, ज्यों-की-त्यों हैं। जैसे तब परदेश जाती मिरदुला को देखती रही  होंगी वैसे ही शायद भाग्य से भी लौटती देख रही हैं। एकटक। ऐसे ही क्षणों  में तो ईश्वर के प्रति मिरदुला विरोध जताने लगती है कि ‘हे  प्रभु,  या तो ऐसी बावली आत्मा नहीं दी होती या इतनी कुंठित कानी आँख भी एकदम बंद  कर दी होती, जिससे विस्तार को देखने की उत्कट लालसा तो प्रबल हो आती है,  मगर दिखता सिर्फ उतना ही है जितना लाठी से भी टटोला जा सकता है।
 
  पिछले दस वर्षों में कितने ही ऐसे जन्मांधों को मिरदुला ने देखा था, जो  अपनी लाठी के सहारे मिरदुला से भी कहीं अधिक सुगमता से यात्रा कर लेते थे।
  पानी के धारे तक पहुँच जाने के बाद मिरदुला थोड़ा पीछे की ओर लौट आई। कहीं  छोटी माँज्यू पानी भरने आ रही होंगी, तो ! मगर सिर्फ इस कल्पना से धीरे के  पास खिंच आई, हो सकता है, सौतेले भाई शिवचरन की बहू पानी भरने आए ! छोटी  माँज्यू भी तो अब बूढ़ी हो गई होंगी। बहू पहचानेगी तो नहीं ! उससे बातें  करके सबके बारे में पता चल जाएगा।
 
  मगर कहीं पता चला कि श्याम पंडित  तो....तब क्या होगा ! तब कहाँ को जाएगी मिरदुला ! पानी के इस धारे के पास  सिर्फ दो ही घर पड़ते थे—एक श्याम पंडित का, दूसरा उनके चचेरे  भाई  का। शेष दूसरी ओर के। उनका घर वहीं पास में ही था। मिरदुला अब और भी  द्विविधा में पड़ गई थी, यहाँ से घर की ओर आगे बढ़े या कहीं खेत की ओट में  बैठ जाए!
http://pustak.org:4300/bs/home.php?bookid=2634

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मैमूद - शैलेश मटियानी की कहानी

महमूद फिर ज़ोर बाँधने लगा, तो जद्दन ने दायाँ कान ऐंठते हुए, उसका मुँह अपनी ओर घुमा लिया। ठीक थूथने पर थप्पड़ मारती हुई बोली, ''बहुत मुल्ला दोपियाजा की-सी दाढ़ी क्या हिलाता है, स्साले! दूँगी एक कनटाप, तो सब शेखी निकल जाएगी। न पिद्दी, न पिद्दी के शोरबे, साले बहुत साँड बने घूमते हैं। ऐ सुलेमान की अम्मा, अब मेरा मुँह क्या देखती है, रोटी-बोटी कुछ ला। तेरा काम तो बन ही गया? देख लेना, कैसे शानदार पठिये देती है। इसके तो सारे पठिये रंग पर भी इसी के जाते हैं।''

अपनी बात पूरी करते-करते, जद्दन ने कान ऐंठना छोड़कर, उसकी गरदन पर हाथ फेरना शुरू कर दिया। अब महमूद भी धीरे-से पलटा, और सिर ऊँचा करके जद्दन का कान मुँह में भर लिया, तो वह चिल्ला पड़ी, ''अरी ओ सुलेमान की अम्मी, देख तो साले इस शैतान की करतूत जरा अपनी आँखों से! चुगद कान ऐंठने का बदला ले रहा है। ए मैमूद, स्साले, दाँत न लगाना, नहीं तो तेरी खैर नहीं।

अच्छा, ले आयी तू रोटियाँ? अरी, ये तो राशन के गेहूँ की नहीं, देसी की दिखती हैं। ला इधर। देखा तूने, हरामी कैसे मेरा कान मुँह में भरे था? अब तुझे यकीन नहीं आएगा, रहीमन! ये साला तो बिलकुल इंसानों की तरह जज़्बाती है!''

जानवर तो गूँगा होता है, शराफ़त की अम्मा! अलबत्ता इंसान उसमें जज़्बातों का अक्स ज़रूर ढूँढ़ता है। तुम तो इस नामुराद बकरे का इतना ख़याल रखती हो, माँ अपनी औलाद का क्या रखती होगी।''

रहीमन ने दोनों रोटियाँ जद्दन को पकड़ा दी थीं और बकरा अब रोटी के टुकड़े चबाने में व्यस्त हो गया था। एक टुकड़ा वह जब पूरी तरह निगल लेता, तो सिर से जद्दन को अपने सींगों से ठेलने लगता था। ''सब्र नाम की चीज़ तो खुदा ने तुझे किसी भी बात में बख्शी ही नहीं।'' कहते हुए जद्दन ने फिर अपना रूख रहीमन की ओर कर लिया, ''इंसान जब बूढ़ा हो जाता है, तब कोई ऐसा उसे चाहिए, जो उसके 'आ' कहने से आए और 'जा' कहने से जाए। दुनिया वालों की दुनिया जाने, सुलेमान की अम्मा! मेरा तो एक यह नामुराद मैमूद ही है, जिस साले को इस खुल्दाबाद की नबी वाली गली से आवाज़ लगाऊँ कि --'मैमूद! मैमूद! मैमूद!'' तो चुगद नखासकोने के कूड़ेखाने पर पहुँचा हुआ पीछे पलटता है और 'बें-बें' करता वो दौड़ के आता है मेरी तरफ़ कि तू जान, सगी औलाद क्या आएगी! बस, साला जब कुनबापरस्ती पे निकलता है, तो मेरी क्या खुदा की भी नहीं सुनेगा। फिर भी आवाज़ लगा दूँ, तो एक बार पलट के ज़रूर 'बे' कर लेगा, भले ही बाद में अपनी अम्माओं की तरफ़ट दूनी रफ्तार से दौड़ पड़े।

अपनी बात पूरी करके जद्दन हँस पड़ी, तो उसके छिदरे और कत्थई रंग के भद्दे दाँतों में एक चमक-सी दिखाई दे गई। जर्जर, टल्ले लगे और बदरंग बुरके में से बुढ़ापे का मारा हुआ चेहरा उघाड़े रहती है जद्दन, तो चुड़ैलों की-सी सूरत निकल आती है।
'जब इस कसाइयों के निवाले का किस्सा बखानने लगती हो तुम, शराफ़त की अम्मा, मीरगंज वालियों की-सी चमक आ जाती है तुम में!' अपनी काफी दूर निकल चुकी बकरी को एक नज़र टोह लेने के बाद, रहीमन ने मज़ाक किया और खुद भी हँस पड़ी।

''तुम खुद अब कौन-सी जवान रह गई हो, रहीमान? आखिर तजुर्बेकार औरत हो! तुम जानो, एक ये बेजुबान जानवर और दूसरे मासूम बच्चे -- बस, ये दो हैं, जो इंसान की उम्र, उसके जिस्म और उसकी खूबसूरती-बदसूरती पे नहीं जाते, बल्कि सिर्फ़ नेकी-बदी और नफ़रत-मुहब्बत को पहचानते हैं। हमारे शराफ़त की बन्नो तो तुम्हारी हज़ार बार की देखी हुई है। खूबसूरती और नूर में उसके मुकाबले की हाजी लाल मुहम्मद बीड़ी वालों या शेरवानियों के हियाँ भी मुश्किल से मिलेगी, रहीमन! मगर तू ये जान कि मेरा मैमूद उसकी शकल देखते ही मुँह फेर के, पिछाड़ी घुमा देता है। बदगुमान कैती है, नाकाबिले बर्दाश्त बू मारता है और ये कि 'अम्मा हमारे बच्चों का छोड़ देंगी, लेकिन ये बकरा नहीं छूटेगा।'' मैं कैती हूँ, तेरी कमसिनी और खूबसूरती पे लानत है। लाख पौडर-इत्र छिड़के तू, मेरा मैमूद तेरे कहे पे थूक के नहीं देगा। जानवर और बच्चे तो इंसान की चमड़ी नहीं, नियत देखते हैं, नियत! मजाल है कि नवाबजादी के हाथों से एक गस्सा मेरे मैमूद के मुँह की तरफ़ चला जाए! तुझ पे खुदा रहम करेगा, रहीमन! देखना, पहले तो तीन, नहीं दो पठिये तो कहीं गए ही ना! खुदा कसम, ये रोटियाँ तूने इस नामुराद के नहीं, मेरे पेट में डाल दी हैं। मुहल्ले वाले तो, बस, सरकारी मवेशी समझकर चले आते हैं। ये नहीं होता कमनियतों से कि दो रोटियाँ या मुट्ठी-भर दाना भी साथ लेते आएँ। अरे भई, मैमूद जो धूप में खेल के वापस आने वाले मासूम बच्चों की तरे मुरझा जाता है, ये तो सिर्फ़ जद्दन को ही दिखायी देता है, या ऊपर वाले खुदा को। तू जान, पिछले बरस की बकरीद के आस-पास पैदा हुआ था।

अब याददाश्त कमज़ोर पड़ चुकी, लेकिन शायद, ये ही जुम्मे या जुमेरात के रोज़ पैदा हुआ होगा और अब साल ऊपर साढ़े तीन महीने का हो लिया।''

जद्दन महमूद की पीठ पर हाथ फेरते हुए खटोले पर से उठ खड़ी हुई थी कि ''अच्छा, सुलेमान की अम्मा, चलूँगी। शराफ़त के अब्बा की दुपेर की नमाज़ का वक्त हो रहा है। सुना है, आज शहनाज़ के अब्बा लोग भी आने वाले हैं रायबरेली से।'' तभी रहीमन ने कहा कि ''तुम सवा-डेढ़ साल का बताती हो, मगर इसके रान-पुट्ठे देख के कोई तीन से नीचे का नहीं कहेगा! बीस-पच्चीस सेर से कम गोश्त नहीं निकलेगा इस बकरे में। लगता है, तुमने रोटी-दाने के अलावा घास से परवरिश की ही नहीं?'

हालाँकि रहीमन ने सारी बातें महमूद की प्रशंसा में कही थीं, लेकिन जद्दन का पूरा चेहरा त्यौरियों की तरह चढ़ गया, ''अरी ओ रहीमन, आग लगे तेरे मूँ में। मतलब निकल गया तेरा, तो मेरे मैमूद का गोश्त तौलने बैठ गई? तेरा खाबिन्द तो बढ़ई है, री, ये कसाइयों की घरवालियों की-सी बातें कहाँ से सीखी हो? या खुदा, हया और रहम नाम की चीज इंसानों में रही ही ना! गोश्तखोरों की नज़र और कसाई की छुरी में कोई फर्क थोड़े ना होता है। अरी रहीमन, कहे देती हूँ -- आगे से ऐसी बेहूदी बातें न करना और आइंदे से अपनी बकरी कहीं दूसरी जगे ले जाना। कोई सुसरा पूरे खुल्दाबाद में मेरा एक मैमूद ही थोड़े ठीका लिए बैठा है।''

''अरी जद्दन, अब बड़े घरानों की बेगमों के-से तेवर बहुत न दिखाओ! बकरा न हो गया, सुसरा हातिमताई हो गया तुम्हारे वास्ते!'' रहीमन ने भी झिड़क दिया और व्यंग-भरी आवाज़ में बोली -- ''वो जो एक मुहावरा है, तुमने भी सुना होगा -- बकरे की अम्मा आखिर कब तक दुआएँ करेगी? और जद्दन, सुनाने वाले को सुनना भी सीखना ही चाहिए।

हमसे पूछो, तो हकीकत ये है कि तुम्हारे तो औलाद हुई नहीं। सौतेले को न तुमने कलेजे के करीब आने दिया और न उन नामुरादों से तुम्हारे सीने में दूध उतारा गया। बस, ये ही वजह है कि तुम इस दाढ़ीजार बकरे को 'मेरा मैमूद, मेरा मैमूद!' पुकार के अपनी जलन बुझाती हो।''

जद्दन आगे बढ़ती हुई, ऐसे रूक गई, जैसे बिच्छू ने काट लिया हो। उसका चेहरा गुस्से में तमतमाने के बाद, लाचारगी से स्याह पड़ गया, रहीमन, जो जी तूने मेरा दुखाया है, खुदा तुझे समझेगा। और रै गया 'बकरे की अम्मा' वाला मुहावरा, तो इंसान की अम्मा की ही दुआ कहाँ बहुत लम्बे तक असर करती है? करती होती, तो तेरा बड़ा बेटा सुलेमान आज जवान हो चुका होता और तू सिर्फ़ नाम की 'सुलेमान की अम्मा' न रह जाती! एक लमहा चुप कर, रहीमन! खुदा मुझे माफ़ करे, मैं तेरे ऊपर बीते का मज़ाक उड़ाना नहीं चाहती थी -- सिर्फ़ इतना कैना चाहती हूँ, दर्द इंसान को अपने जज़्बातों का होता है। जिससे जज़्बाती रिश्ता न हो, उसका काहे का स्यापा? सूलेमान की अम्मा, इतना मैं भी जानती हूँ कि बकरे ने आखिर कटना-ही-कटना है। कसाइयों से कौन-सा बकरा बचा आज तलक? मगर मेरी इतनी इल्तजा ज़रूर है परवर-दिगार से, मेरी नजरों के सामने ना कटे। शराफत के अब्बा से कै भी चुकी हूँ, इस नामुराद को जब बेचने लगो, तो पहले तो शहर का -- कम-से-कम मोहल्ले का फासला ज़रूर रखना। और वो तेरी बात मैं ज़रूर माने लेती हूँ कि खुदा के यहाँ बकरे की अम्मा की दुआ बहरे के कानों में अजान हैं। यह भी ठीक है, सौतेले ने मुझे सगी अम्मा की-सी इज़्ज़त नहीं बख्शी, यह कैना सरासर झूठ बोल के दोखज में जाना होगा मगर मुहब्बत जो मुझे इस जानवर ने दी, अम्मा-अब्बा ने दी होगी, तो दी होगी।''

रहीमन से कोई उत्तर बन नहीं पाया। वह सिर्फ़ यह देखती रह गई कि जद्दन ने बुर्के के पल्लू से अपनी आँखें पोछीं और बकरे की पीठ थपथपाती हुई, अपने घर की तरफ़ बढ़ गई।

जद्दन जब तक घर पहुँची, अशरफ नमाज़ पर बैठ चुके थे।

पाखाने की बगल की संकरी कोठरी में बकरे को बंद करते हुए, जद्दन बोली, ''शराफत के अब्बा दूपेर की नमाज पर बैठ चुके। अब तू कहाँ मारा-मारा फिरेगा। शाम के वक्त निकालूँगी। इस साल अभी से लू चलने लगी।''

खाने पर बैठे, तो अशरफ बोले, ''शराफत की अम्मा, रायबरेली वालों का संदेशा आया था, तुम्हें मालूम ही होगा। हम लोग तो तंगदस्ती मे चल रहे हैं, मगर मेहमानों के सामने तो अपना रोना रोया नहीं जाता, इज़्ज़त देखनी पड़ती है। शराफत और जहीर से बात हुई थी। लड़के ठीक ही कह रहे थे कि अब्बा, बाज़ार में दस रुपए किलो का भाव है। पाँच-छँ जने शहनाज की पीहर से रहेंगे और भले-बुरे में दस-पाँच अपनी आपसवालों के लोगों को बुलाना ज़रूरी-सा होता है। दूसरों की दावत खाते हैं, तो अपनी शर्म रखनी ही पड़ेगी। शराफत तो यही कहता था कि अम्मा से पूछ के देख लें। तुम्हारे बकरे को कटवा लेते तो घर की ठुकेगी नहीं। खाली रोगनजोश उबाल देने से तो काम चलेगा नहीं। कबाब और कोफ्ते बड़ी बहुत अच्छे बनाती हैं। पिछले बरस जब हम लोग रायबरेली गए थे शहनाज के अब्बा ने दो तो बकरे ही कटवा दिए थे और मुर्गियों की गिनती कौन करे। चार-पाँच दिन कुल जमा रहे होंगे, गोश्त खा-खाकर अफारा हो गया। गरीब हम लोग उनके मुकाबले में ज़रूर हैं, लेकिन ज़रूरी नहीं कि अपनी कमनियती का सबूत भी दें।''

अशरफ भूमिका बाँधते जा रहे थे और जद्दन का चेहरा खिंचता जा रहा था। घर के सभी लोग जानते थे कि अम्मा से बकरे को निकालना इतना आसान नहीं होगा। अशरफ जब बातें कर रहे थे, शहनाज चुपके-चुपके अपने बच्चे को पुलाव खिला रही थी और सहम रही थी कि कहीं अम्मा आसमान की तरह न फट पड़ें।
मुँह उसका दूसरी ओर था, लेकिन कान जद्दन की ओर लगे हुए थे। ज्योंही जद्दन धीमी लेकिन क़ड़वी आवाज़ में कहा कि ''शराफत की लैला तो मेरे मैमूद की जान को आ गई है।'' शहनाज दबे स्वर में बोली, ''अम्मा, ये तोहमत हमें ना दीजिये। ये बैठे हैं सामने, पूछ लीजिए, हम तो लगातार मने करते रहे हैं कि अम्मा बहुत जज़्बाती है, उनकी कोई न छेड़े। खुराफातें ये करेंगे और अम्मा का गुस्सा अपने बेटों की जगह, हम बेकसूरों पर गिरेगा।''

शहनाज के कहने में कुछ ऐसी विनम्रता और सम्मान की भावना थी कि जद्दन का रूख बदल गया, 'शराफत के अब्बा, बकरे को मैंने कोई छाती पे बाँध के थोड़े ले जाना है? रहीमन ठीक ही तो कैती थी कि जद्दन आपा, बकरे की माँ कहाँ तक खैर मना सकती है! मेरी ख्वाहिश तो सिर्फ़ इतनी हैं कि इस साले नामुराद जानवर के उठने-बैठने, हगने-मूतने की बातें भी मेरी याददाश्त का हिस्सा बन गई हैं। छोटा मेमना था, तब तुम लोगों ने ही खुद देखा और हज़ार बार टोका कि अम्मा बकरे की औलाद की तरह साथ सुलाती है। क्या करती, सर्दी इतनी पड़ती थी और बिना माँ का ये बच्चा था! खैर, मेरी तो इतनी-सी सलाह है कि मेहमान आएँ, तो उनकी इज़्ज़त हमारी इज़्ज़त है। जहीर से कहिए, कहीं उधर कटरे-कंडेलगंज की तरफ़ के कसाइयों के हाथ बेच आए और इसके पैसों से चाहे फिर गोश्त ले आए, या दूसरा बकरा खरीद लाए। इसका तो गोश्त भी बू मारेगा। और, खुदा जानता है, मैंने तो अपना जी अब खुद ही कसाइयों-सा बना लिया कि इस हरामजादे को तो कटना ही है। मैं ही उल्लू की पठ्ठी थीं, जो इसको खुराक देकर गोश्तखोरों के लिए मोटा करती रही।

हालाँकि सारी बातें जद्दन ने काफी ठंडे स्वर में और उदासीनता बरतते हुए कहीं थीं, लेकिन सभी जानते थे कि क्रुद्धता उसके जिस्म में इस समय खून की तरह दौड़ रही होगी।


अपनी हताशा और उदासीनता को कमरे में पतझर के पत्तों की तरह गिराती हुई-सी जद्दन उठ खड़ी हुई, तो शहनाज बोली, ''बकरे का गोश्त बू देगा, यह कहने के पीछे अम्मा का खास मकसद है। आप इन दोनों से कह दीजिएगा कि अम्मा से जिद न करें।''

अशरफ मियाँ ने एक लम्बी सांस ली और बोले, ''इसको देखता हूँ, तो बीते हुए दिन याद आने लगते हैं। शराफत और जहीर जब छोटे थे, तभी बड़ी चली गई थी। इसमें हम लोगों को कभी इस बात का अहसास नहीं होने दिया कि बूढ़े की बीवी मर गई है या बच्चों की अम्मा! तुम लोग तो अब देख रही हो, जब न इसमें आब रही, न ताब! बकरा कट ही जाए, तो अच्छा है। मार पागलों की तरह धूप में मारी-मारी फिरती है। वह सुसरा कभी ठिकाने तो रहता नहीं। कटे, तो थोड़े दिन हाय-तौबा कर लेगी, और क्या! रोज़-रोज़ की फजीहत तो दूर होगी। देखना मेहमानों के सामने अम्मा यों टल्ले लगा बुरका पहने न चली आएँ! वक्त की मार भी क्या मार है। देखती हो, अधसाया करके उठ गईं। जब तुम लोगों की उम्र की थीं, तब बारामती की किस्में देखी जाती थीं कि जर्दा पुलाव के लिए बारिक वाली बासमती हो। अब यह राशन के चावलों को पीला करना तो हल्दी की बेइज़्ज़ती करना है।''

इसी वक्त बड़ा बेटा जहीर आ गया, तो उसको सारी स्थिति बतायी गई। वह लापरवाही के साथ बोला, 'आप लोग बेकार में बात बढ़ाये जाते हैं। अम्मा को मैं समझा दूँगा। अब यह कोई उनकी बकरे के पीछे दौड़ने की उम्र हैं? सड़क पर भागती दिखती हैं, तो शर्मसार होके रह जाते हैं हम लोग। भूखी-प्यासी और फटेहाल दौड़ी चली जाएँगी। मेरी मानिये, तो सलीम कसाई को बुलवा लें और मेहमानों के आने से पहले खाल उतारकर, कीमा कूंटने रख दे। राने पुलाव में डलवा दीजिए और इस वक्त के मीट में सीना-चाप-गरदन की बोटियाँ ठीक रहेंगी। जो खातिर घर की चीज़ से हो सकती है, बाज़ार से दो-ढ़ाई सौ में भी नहीं होंगी।

जुबेदा की अम्मा भी यही कहती थीं कि सोला रुपए वो देंगी, तीस-बत्तीस रुपए, शायद, ये शहनाज भी देने वाली थीं कि ''अम्मा अपने बेटों को तो बख्श देंगी, हमें नहीं।'' अब इन बेवकूफों को कौन समझाये कि दो किलो घासलेट और तेल-मसाला करते-करते सौ रुपए निकल जाएँगे। राशन का चावल तो मेहमानों के लिए पुलाव में इस्तेमाल होगा नहीं और ढंग की बासमती साढ़े चार-पाँच से कमती का सेर नहीं। इंसान को अपना वक्त और सहूलियत देख के चलना चाहिए, जज़्बातों पर चलने के दिन लद गए।'' ''कहते ठीक हो, बेटे! मेरी भी राय यही है। ज़रा तुम अम्मा से मिलकर, ऊँच-नीच समझा दो। ज़िद्दी ज़रूर हैं, लेकिन नासमझ नहीं।'' आवाज़ साफ़-साफ़ सुनायी दे गई। जहीर की घरवाली यह कहते हुए उठ खड़ी हुई कि ''तुम लोग शुरू करो, मैं जरा अब्बा हुजूर के हाथ धुलवा दूँ।''

खाना खा चुकने पर जहीर सीधे भीतर के कमरे में गया कि अम्मा सोयी होगी, लेकिन शहनाज ने बताया, ''यों कहकर निकल गई हैं कि जरा रिजवी साहब के घर तक जाएँगी। उनके घर पिछले हफ्ते गमी हो गई थी। कहकर गई है कि शायद शाम हो जाए, देर से लौटेंगे। मेरा ख़याल है, अम्मा ने समझ लिया है कि अब बकरा बचता नहीं। गमी में शरीक होना तो एक बहाना है। घर से दूर जाना चाहती होंगी।'

शहनाज धीमे से हँसना चाहती थी, लेकिन सिर्फ़ उदास होकर रह गई।
जहीर ने बाहर निकलकर, अपने ग्यारह-बारह साल के बड़े लड़के से कहा, 'जुबैद, ज़रा सलीम को बुलाकर लाइयो। मेहमानों के आने तक में सफ़ाई हो जाए, तो ही ठीक है। जुबेद की अम्मा, भई, तुम लोग ज़रा बाहर वाला कमरा मेहमानों के लिए ठीक-ठाक कर देना।

शहनाज के अब्बा लोगों को किसी तरह की कमी की शिकायत न हो। बेचारे हर फसल पर चले आते हैं और हर बात का लिहाज रखते हैं। खुद तुम्हारे साथ अपनी सगी बेटी से ज़्यादा मुहब्बत का बर्ताव करते हैं। तुम दोनों जने प्याज़ और मसाले वगैरह पीसकर तैयार कर लेना। बाकी बाज़ार का सामान शराफत लेता आएगा। सलीम आ जाए, तो उससे कह देना, गंद जरा-सी भी न छूटे आँगन में। पोंछा लगवा लेना। खून के धब्बे वगैरह देखेंगी अम्मा तो, और बिगड़ेंगी। तुम लोगों से कुछ कहने लगें, तो कह देना, जुबेद के अब्बा ने ज़बर्दस्ती कटवा दिया। मैं उन्हें समझा लूँगा।'

शाम की जगह घड़ी-भर रात बीत चुकने के अहसास में ही, जद्दन घर वापस लौटी और गली में से होते हुए, घर के पीछे वाले सँकरे आँगन में निकल गई। खटोला गिराकर उस पर लेट गई और, आस-पास के नीम-अँधेरे में अपने-आपको छिपा लेने की कोशिश में, आँखें बन्द कर लीं।

मेहमान आ चुके थे और उनके तथा आपस के लोगों की बातचीत यहाँ पिछवाड़े भी सुनायी दो रही थी। छोटे बच्चों को बाहर लेकर आई, तो शहनाज ने देखा और करीब आकर, पाँव दबाती हुई बोली, ''अब्बा आ गए हैं। आते ही आपकी बाबत पूछ रहे थे कि अम्मा ने पुछवाया है, कैसी हैं। कभी रायबरेली की तरफ़ आने की इस्तजा करवा रही हैं। मैंने भी अब्बा से कहा है कि अब की बार मैं अम्मा के साथ ही आऊँगी। अम्मा, तुम खाना कहाँ खाओगी? मेहमानों का दस्तरखान तो वहीं बाहर बैठक में बिछेगा। जल्दी खा-पी लेने की बातें कर रहे थे सभी लोग। कोई मज़हबी किस्म की फिल्म शहर में कहीं लगी हुई है!''

''मेरे लिए दो रोटियाँ यहीं भिजवा देना। मेरा न जी ठीक है, न पेट। जुबैद को जरा भेज देना, मैं उससे कुछ मँगवा लूँगी। तुम सब लोग आराम से खाओ-पिओ। मेरी फिक्र ना करना। अब तो कोई सर्दी ना रही। मैं यहीं सो जाऊँगी। अपने अब्बा हुजूर से मेरा सलाम कैना और कैना कि सुबह दुआ-सलाम होगी, अभी अम्मा का जी ठीक नहीं।''

शहनाज ने अनुभव किया कि जद्दन की आवाज़ मरते वक्त की-सी हो आयी है। निहायत हल्की और बेजान। वह चाहती थी कि कुछ बातें करके, उसकी उदासीनता को कम करने की कोशिश करे, लेकिन इस डर से चुप रह गई कि कहीं अंदर इकठ्ठा किया हुआ दु:ख गुस्से की शक्ल में बाहर फूट आया, तो पूरे घर का वातावरण बदल जाएगा। आज के वक्त को तो अब यों हीं टल जाने देना अच्छा है।

वापस लौटकर उसने बताया, 'तो जहीर और अशरफ मियाँ, दोनों ने मुँह बना लिया।
'हम लोगों ने तो हरचंद वही कोशिश की है कि कहीं से उस नामुराद बकरे की कोई चीज अम्मा को दिखे ही नहीं। वो तो इतनी संजीदा है गई हैं, जैसे बकरे का हलाल किया हुआ सर आँगन में टँगा हुआ हो। कह रही थीं, गोश्त-पुलाव वगैरा कुछ मत भेजना।'' शहनाज ने कहा, तो अशरफ मियाँ उठ खड़े हुए। बोले, 'जब उसे खिलाना हो, हमें बुला लेना। क्यों, भई जुबेद, तुम कहाँ तशरीफ ले जा रहे हो? जरा बैठक में मेहमानों के करीब रहो।''

चाचा जी ने पिछवाड़े भेजा था, बड़ी अम्मा के पास। उन्होंने चार आने हमें दिए हैं कि ''जाओ, शंभू पंडत की दुकान से आलू की सब्जी ले आओ।''

'अबे, इधर ला चवन्नी। जा, मेहमानों को पानी-वानी पूछना। अम्मा को हम देख लेंगे। शहनाज बेटे, ऐसा करो -- एक थाली में पुलाव और बड़े कटोरे में गोश्त लगाकर हमें दो दो। हम ले जाकर समझा देंगे। वाकई, बहुत बेवकूफ़ किस्म की औरत है। जहीर, तुम बाहर बैठक में बस्तरखान बिछाने में लगो। शराफत के अलावा और एक-दो लड़कों को साथ ले लो।''

पुलाव की थाली और गोश्त का कटोरा शहनाज ने ही पहुँचा दिया। खटोेले की बगल में रखकर, पानी लाने के बहाने तुरन्त लौट आई। अशरफ मियाँ ने करीब से माथा छुआ और बोले, 'क्यों, भई, ऐसे क्यों लेटी हो? तबीयत तो ठीक है ना? अरी सुनो, सारे किये-कराये पर मिट्टी न डालो। तुम रूसवा रहोगी, तो सारी मेहमाननवाज़ी फीकी पड़ जाएगी। सारा घर कबाब-गोश्त उड़ाए और तुम उस शंभू पंडत के यहाँ के पानीवाले आलू मँगवाओ, ये तो हम लोगों को जूती मारने के बरोबर है। ऐसी भी क्या बात हो गई, जो तुमने खटिया पकड़ ली? गोश्त से तुम्हें कभी परहेज़ रहा नहीं। बिना शोरबे के रोटी गले के नीचे तुम्हारे उतरती नहीं। अब इस हद तक जज़्बाती बनने से तो कोई फ़ायदा नहीं। आखिर जिन बकरों का गोश्त तुम आज तक खाती आई हो, उनके कोई चार सींग तो थे नहीं! लो, शहनाज़ खाना दे गई है। गोश्त वाकई बहुत लज़्ज़तदार बना है। जहीर तो दूसरा बकरा भी ढूँढ़ने गया था, मगर लौटकर यही कहने लगा कि ''अब्बा, अपना बेचने जाओ तो सौ के पचास देंगे और दूसरों का खरीदने जाओ, तो पचास के सौ माँगेंगे। तुम तो घर की इस वक्त जो अंदरूनी हालत है, जानती ही हो।''

जद्दन ऐसे उठी, जैसे कब्रिस्तान में गड़ा हुआ मुर्दा खड़ा हो रहा हो। तीखी आँखों से अशरफ मियाँ की ओर उसने देखा और आवाज़ मेहमानों तक न पहुँचे, इस तरह दबाकर बोली, ''जहीर के अब्बा, नसीहतें देने आए हो? मेरी तकलीफ़ तुम लोग समझोगे? रिजवी के यहाँ घंटों पड़ी रही हूँ, तो कैसे यही मेरे तसब्वुर में आता रहा कि अब तुम लोग मेरे मैसूद के सिर को धड़ से कैसे जुदा कर रहे होंगे -- जार-जार रोती रही हूँ और रिजवी की बीबी यों समझ के मुझे समझाये जा रही है कि मैं उसके बदनसीब भाई की बेवक्त की मौत पे रो रही हूँ। आज ससुरा सवेरे-सवेरे से बार-बार मेरे कान मुँह में भरे जाता था और मैं थूथना पकड़कर, धक्का दे देती थी।

मैं क्या जानूँ कि बदनसीब चुपके से कान में यही कहना चाहता है कि ''अम्मा, आज हम चले जाएँगे!'' तुम लोग समझोगे मेरी तकलीफ़ कि कैसे मेरे लबों पर 'मैमूद' की सदा आएगी और खत्म हो जाएगी?''

जद्दन काफी देर तक फूट-फूटकर रोती रही और अशरफ मियाँ हक्का-बैठे रहे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि स्थिति अब सँभले कैसे! आखिर उन्होंने यही तय किया कि चुपचाप खाना उठा ले जाना ही ठीक है। वह थाली-कटोरा उठाते कि जद्दन जहरबुझी आवाज़ में बोल उठी, ''तुम बेदर्दों से ये भी न हुआ कि मैं अव्वल दर्जे की गोश्तखोर औरत जब कै रही हूँ कि 'बेटे शहनाज, हमें गोश्त-वोश्त न देना।'' तो इसकी कोई तो वजह होगी? और जहीर के अब्बा, इंसान दाढ़ी बढ़ा लेने से पीर नहीं हो जाता। तुम ये मुझे क्या नसीहत दोगे कि सभी बकरों के दो सींग होते हैं? इतना तो नादीदा भी जानता है। दुनिया में तो सारे इंसान भी खुदा ने दो सींग वाले बकरों की तरह, दो पाँव वाले बनाए? लेकिन औरत तो तभी राँड होती है, जब उसका अपना खसम मरता है। अम्मा तो तभी अपनी छाती कूटती है, जब उससे उसका बच्चा जुदा होता हो। ये मैं भी जानती हूँ कि मेरे मैमूद में कोई सुर्खाब के पर नहीं लगे थे, मगर इतना जानती हूँ कि मेरी तकलीफ़ जितना वह बदनसीब समझता था, न तुम समझोगे, न तुम्हारे बेटे ! समझते होते, तो क्या किसी हकीम ने बताया था कि मेहमानों को इसी बकरे का गोश्त खिलाना और तुम भी भकोसना, नहीं तो नजला-जुकाम हो जाएगा? जहीर के अब्बा, उसूलों का तुम पे टोटा नहीं, मगर इस वक्त अब हमें बहुत जलील न करो। शहनाज से कहो, उठा ले जाए, नहीं तो फेंक दूँगी उधर! जुबैद से कह देना, अब पंडत के हियाँ से सब्जी लाने की भी कोई ज़रूरत ना रही। मेरा पेट तो तुम लोगों की नसीहतों से ही भर चुका।''

अशरफ मियाँ नीचे झुके और थाली-कटोरा उठाते हुए, वापस आ गए, ''लो बेटे, रखो! ज़िद्दी औरत को समझाना तो खुदा के बस का भी नहीं। उसे उसके हाल पर छोड़, मेहमानों की फिक्र करो।''

(Source http://www.hindikunj.com/2010/05/shaileshmatiyani_15.htm)

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                    अर्धांगिनी
   

          शैलेश मटियानी
         
          टिकटघर से           आखिरी बस जा चुकने की सूचना दो बार दी जा चुकने के बावजूद नैनसिंह के पाँव           अपनी ही जगह जमे रह गए। सामान आँखों की पहुँच में,          सामने अहाते की दीवार पर रखा था। नज़र पड़ते ही,          सामान भी जैसे यही पूछता मालूम देता था,          कितनी देर है चल पड़ने में?           नैनसिंह की उतावली और खीझ को दीवार पर रखा पड़ा सामान भी जैसे ठीक नैनसिंह           की ही तरह अनुभव कर रहा था। एकाएक उसमे एक हल्का-सा कम्पन हुए होने का भ्रम           बार-बार होता था, जबकि लोहे के ट्रंक,          वी.आई.पी. बैग और बिस्तर-झोले में कुछ भी ऐसा न था कि हवा           से प्रभावित होता।
          सारा           बंटाढार गाड़ी ने किया था,          नहीं तो दीया जलने के वक्त तक गाँव के ग्वैठे में पाँव           होते। ट्रेन में ही अनुमान लगा लिया था कि हो सकता है,          गोधूली में घर लौटती गाय-बकरियों के साथ-साथ ही खेत-जंगल           से वापस होते घर के लोग भी दूर से देखते ही किये नैनसिंह सुबेदार-जैसे चले           आ रहे हैं? ख़ास तौर पर भिमुवा की माँ तो सिर्फ़           धुँधली-सी आभा-मात्र से पकड़ लेती कि कहीं रमुवा के बाबू तो नहीं? 'सरप्राइज           भिजिट' मारने के चक्कर में ठीक-ठाक तारीख भले ही           नहीं लिखी'' मगर महीना तो यही दिसंबर का लिख दिया           था? तारीख न लिखने का मतलब तो हुआ कि वह कृष्णपक्ष,          शुक्लपक्ष -- सब देखे।
          कैसी माया           है कि छुटि्टयों पर जाने की कल्पना करने के समय से ही चित्त के भटकने का एक           सिलसिला-सा प्रारम्भ हो जाता है। कैंट की दिनचर्या जैसे एक बवाल टालने की           वस्तु हो जाती है। स्मृति में,          मुँह सामने के वर्तमान की जगह,           पिछली छुटि्टयों में का व्यतीत छा जाता है। पहाड़ की घाटियों में कोहरे के           छा जाने की तरह, जो खुद तो धुंध के सिवा कुछ नहीं,          मगर जंगलों और पहाड़ों तक को अंतर्धान कर देता है।
          आखिर यही           मोहग्रस्तता घर के आँगन में पहुँचने-पहुँचने तक,          कहीं भीतर-भीतर उड़ते पक्षियों की तरह साथ-साथ चलती है।         
          दिखाई कुछ भी सिर्फ़ सपनों में पड़ता है,          लेकिन आवाज़ तो जैसे हर वक्त व्याप्त रहती है। क्या गजब कि           टनकपुर के समीप पहुँचते-पहुँचते आँख लग गई थी, जबकि           आँख खुलने के बाद, फिर रात से पहले सोने की आदत           नहीं। जाने कौन साथ में यात्रा करती महिला कहीं बाथरूम की तरफ़ को निकली           होगी, बिल्कुल भिमुवा की माँ के पाँवों की-सी आवाज           हुई थी। छुटि्टयों में घर पर रहते हैं तब तक ध्यान नहीं जाता। लौट आते हैं,          तब याद आता है कि भैसिया छाते में इन्तज़ार करते,          सिगरेट पीते, कोई फिल्मी गाना गा           रहे होते। आसमान में या चंद्रमा होता था, या सिर्फ़           तारे। रात के सन्नाटे में एक तरफ़ सौलगाड़ का बहना कानों तक आ रहा था --           दूसरी तरफ़, घर का काम निबटाकर आ रही है सूबेदारनी           के झांवरों की आवाज़!
          आवाज़ ही           क्यों,          धीरे-धीरे आकृति उपस्थित होने लगती है। धीरे-धीरे तो बाबू           बच्चों - सभी की, मगर मुख्य रूप से उसी की,          जो कि दो-तीन वर्षों के अंतराल में छुटि्टयों की तैयारी           होते ही प्रकृति की तरह प्रगट होती जाती है। जिसके साथ छुटि्टयों में           बिताया गया समय कबूतरों की तरह कंधों पर बैठता, पंख           फड़फड़ाता अनुभव होता है। मन में होता है कि यह ट्रेन सुसरी,          तो बार-बार ऐसे अड़ियल घोड़ी की तरह रुक जाती है - यह क्या           ले चलेगी, हम इसे उड़ा ले चलें। रेलगाड़ी-बस से           यात्रा करते भी सारा रास्ता पैदल पैदल ही नाप रहे होने की-सी भ्रांति घेरे           रहती है। गाड़ी रुकते ही, देर तक गाड़ी के डिब्बे           में पड़े रहने की जगह, आगे पैदल चल पड़ने को मन           होता है। एक गाड़ी से नीचे, तो अगला कदम सीधे घर के           आँगन में रखने का मन होता है। घर पहुँच चुकने के बाद तो उतना ध्यान नहीं           रहता, लेकिन पहले यही कि सुबह के उजाले में क्या           आलम रहता है और शाम के धुँधलके या रात के अंधेरे क्या उस स्थान का,          जहाँ कि सूबेदारनी हुआ करती है। स्मृति के संसार में विचरण           करते में जैसे ज़्यादा रूप पकड़ती जाती है। स्वभाव भी क्या पाया है। अकेले           ही सारी सृष्टि चलाती जान पड़ती है। सृष्टि है भी कितनी। जितनी हमसे जुड़ी           रहे।
          पींग-पींग           की लम्बी आवाज़ सुनाई पड़ी,          तो भ्रम हुआ कि कहीं कोई स्पेशल बस तो नहीं लग रही           पिथौरागढ़ को, लेकिन यह तो ट्रक था। निराश हो           नैनसिंह ने मुँह फेरा ही था कि पींग-पींग हुई। घूमकर देखा,          तो फिर वही ट्रक था। जैसे ही रुख बदला,          फिर वही पींग-पींग ! -- अब ध्यान आया कि ठीक ड्राइवर वाली           सीट की बगल में बाहर निकला कोई हाथ, 'इधर आओ'          पुकार रहा है।
          नैनसिंह           ने नहीं पहचाना। बनखरी वाली दीदी का हवाला दिया,          तो नाता जुड़ा कि अच्छा, क्या नाम           कि जसोंती प्रधान का मझला खीमा है। हाँ, सुना तो था           कि इन लोगों की गाड़ियाँ चलती है। खीमसिंह का बोलना,          देवताओं के आकाशवाणी करने-सा प्रतीत होता गया और साथ चलने           का 'सिग्नल' पाते ही,          नैनसिंह सूबेदार सामान ट्रक में रखवाने की युद्धस्तर की           तत्परता में हो गए। जैसे कि यह ट्रक ही एकमात्र और आखिरी साधन रह गया हो           गाँव पहुँचने का। अच्छा होता, अम्बाला से ही एक           चिठ्ठी बनखरी वाली दीदी को भी लिख दी होती कि फलां तारीख के आस-पास घर           पहुँचने की उम्मीद है। घर वाली ने जागर भी खोल रखा है और हाट की कालिका ने           पूजा भी देनी हुई। तुम भी एक-दो दिनों को ज़रूर चली आना। बहनोई तो           पाकिस्तान के साथ दूसरी लड़ाई के दिनों में मारे गए। पेंशनयाफ्ता औरत हैं।           भाई-बहनों के साथ-साथ, कुछ कर्मक्षेत्र का रिश्ता           भी बनता है। पिथोरागढ़ के ज़्यादातर गाँवों की विधवाओं में तो फौज में           भर्ती हुए लोगों की ही होंगी, नहीं तो पहाड़ के           स्वच्छ हवा-पानी में बड़ी उम्र तक जीते हैं लोग।
          ट्रक के           स्टार्ट होते ही,          नैनसिंह को पंख लग गए हों। ट्रक का रूप कुछ ऐसा हो गया था,          जैसे कि नैनसिंह सूबेदार बैठे हैं,           तो वह भी चला चल रहा है पिथोरागढ़ को, नहीं तो कहाँ           इस साँझ के वक्त टनकपुर से चंपावत तक की चढ़ाई चढ़ता फिरता।
          खीमसिंह ने पहले ही बता दिया था कि रात तो आज चंपावत में           ही पड़ाव करना होगा, लेकिन सुबह दस तक पिथोरागढ़           सामने। यहाँ टनकपुर में ही ठहर जाने का मतलब होता,           कल सन्ध्या तक पहुँचना। हालांकि घर तो जो आनन्द ठीक गोधूलि की बेला में           पहुँचने का है, दोपहर मे कहाँ। शाम का धुँधलका आपको           तो अपने में आवृत्त रखता हुआ-सा पहुँचता है, लेकिन           जहाँ घर पहुँचना हुआ कि उसे कौन याद रखता है।
          देखिए तो           काल भी अजब वस्तु है। सब जगह -- और सब समय -- काल भी एक-सा नहीं। संझा का           समय जो मतलब पहाड़ में रखता है,          खासतौर पर किसी गांव में, वह           मैदानी शहरों में कहाँ? पिछले वर्ष ठीक संध्या           झूलते में पहुँचना हुआ और संयोग से घर के सारे लोगों से पहले रूक्मा           सूबेदारनी उर्फ भिमुचा की अम्मा ही सामने पड़ गई,           तो क्या हुआ सूबेदारनी का हाल और क्या खुद सूबेदार साहब का?          क्या ग़ज़ब कि पन्द्रह साल पहले,           चैत के महीने शादी हुई थी और बन की हिरनी का सा चौंकना अभी तक नहीं गया।         
          भीड़भाड़ वाला क्षेत्र पार करते-करते,          खीमसिंह के साथ आशल-कुशल और नाना दीगर संवाद करते तथा           कैप्सटन की सिगरेट की फूँक उड़ाते भी, नैनसिंह           सूबेदार व्यतीत के धुँधलके में डूबते ही चले गए।
         
          खीमसिंह ट्रक के साथ-साथ, खुद को           भी ड्राइव करता जान पड़ता था। उसकी सारी इंद्रियाँ जैसे पूरी तरह ट्रक के           हवाले हो गई थीं। और देखिए तो यह टनकपुर से पिथौरागढ़ की तरफ़ को जाते,          या उस तरफ़ से आते, हुए रास्ते पर           गाड़ी चलाना भी किसी करिश्मे से कहाँ कम है। पलक झपकते में ऐसे-ऐसे मोड़           हैं कि ड्राइवर का ध्यान चूकते ही, बसेरा नीचे घाटी           में ही मिलता है।
          ट्रक,          रफ्तार से ज़्यादा, शोर उत्पन्न कर           रहा था। आखिर दो-तीन किलोमीटर पार करते-करते में ही,          पहले ट्रेन में रात-भर ठीक न सो पाने की भूमिका बाँधी और           फिर आँखें बन्द कर ली, नैना सूबेदार ने मगर नींद           कहाँ। आँस बन्द रखते में सड़क ट्रक के साथ ही मुड़ती जान पड़ती थी,          ट्रक सड़क के साथ जाता हुआ। नीचे अब अतल लगती-सी मीलों           गहरी घाटियाँ हैं और खीमसिंह का या खुद ट्रक का ध्यान ज़रा-सा भी चूका नहीं           कि सूबेदार नैनसिंह ने, हड़बड़ाकर आँखों को खोल           दिया, तो सामने एक एक परिदृश्य 'आँखें           क्यों बन्द कर ले रहे हो' पूछता-सा दिखाई पड़ा।           सचमुच में नींद हो, तो बात और है,          नहीं तो टनकपुर पिथौरागढ़ को अधर में टांगती-सी सड़क पर           कहाँ इतनी निश्ंचितता थी कि आँखें बन्द किये,           रूक्मा सूबेदारनी की एक-एक छवि को याद करते रहो। पिछली छुटि्टयों में रामी,          यानी रमुआ सिर्फ़ डेढ़ साल का था और स्साला उल्लू का बच्चा           बिलकुल बन्दर के डीगरे की तरह माँ की छाती से चिपका रहता था। इस बार की           छुटि्टयों के लिए तो सूबेदार ने तब एक ही कोशिश रखी कि दो लड़के 'मोर           दॅन सफिशियेंट' माने जाने चाहिए,          ज़रूरत अब सिर्फ़ एक कन्याराशि की है। कुछ कहिए,          साहब, जो आनन्द कन्या के लालन-पालन           में हैं, जैसे वह आईने की तरह आपको अपने में           झलकाती-सी बोलती बतियाती है -- वह बात ससुरे लड़कों में कहाँ। इसलिए पिछली           बार प्राण-प्रण से लड़की की कोशिश थी और उसी कोशिश में थी यह प्रार्थना कि           -- 'हे मइया, हाट की           कालिका! आगे क्या कहूँ, तु खुद अतर्यामिनी है।'
                    चलते-चलाते ही,          यह भी याद आ गया नैनसिंह सूबेदार को कि अबकी बार घर से इस           प्रकार की कोई खबर चिठ्ठी में नहीं आई। लगता है मइया पूजा पाने के बाद ही           प्रसाद देगी। वह भी तो आदमी के सहारे है। जैसी जिसकी मान्यता हो,          वैसी समरूप वो भी ठहरी।
          निराशा के सागर में आशा के जहाज़ की तरह ट्रक लेकर उदित           होने वाले खीमसिंह के प्रति अहसान की भावना स्वाभाविक ही नहीं,          ज़रूरी भी थी क्योंकि मिलिट्री की नौकरी से घर लौटते आदमी           की छवि ही कुछ और होती है, लोगों में। फिर खीमसिंह           से तो दीदी के निमित्त से भी रिश्ता हुआ। लगभग हर दस-पंद्रह किलोमीटर के           फासले पर ट्रक को विश्राम देते हुए, खीमसिंह की           चाय-पानी, गुटुक-रायते को पूछना खुद की ज़िम्मेदारी           ही लगती रही सूबेदार को।
          बीच-बीच           में सीटी बजाने और गाने की कोशिश भी इसी सावधानी में रही कि खीमसिंह को पता           चले,          ये सब तो बहुत मामूली बातें हैं। बस का किराया बच भी गया           है, तो घर में बच्चों के हाथ रखने को तो कुछ रुपए           ज़बर्दस्ती भी देने होंगे। टिकट के पैसों से दूने ही बैठेंगे। क्योंकि अभी           तो चंपावत में पड़ाव होना है और वहाँ रात का डिनर भी तो सूबेदार के ही           जिम्मे पड़ेगा। मगर खुशी इस बात की है कि टनकपुर अगरचे कहीं होटल में रहना           पड़ गया होता, तो जेब जो कटती,          सो कटती यह आधा पहाड़ कहाँ पार हुआ होता। अब तो जहाँ           आती-जाती, खेतों में काम करती औरतें दिख जा रही है,          सभी में रूक्मा सूबेदारनी की छाया गोचर होती है।           
          अभी-अभी           भूमियाधार की चढ़ाई पार करते में,          यो ऊपर के धुरफाट में न्योली गाती कुछ अपने को ही हृदय का           हाल सुनाती जान पड़ रही थीं। जैसे कहती हों कि पलटन से लौट रहे हो,          हमारे लिए क्या लाये हो। मन तो हुआ कि कुछ देर को ट्रक           रुकवा कर, या तो उन औरतों के पास तक खुद चल दिया           जाएँ या उन्हें ही संकेत किया जाए कि यहाँ तक आकर न्यौली 'टेप'          करा जाएँ। फिलिप्स का ट्रांजिस्टर कम टेपरिकार्डर,          यानी 'टू इन वन'          इसी मकसद से तो लाए हैं -- लेकिन सर्वप्रथम बाबू से कुछ           जागर गवाना है -- तब खुद सूबेदारनी की न्यौली 'टेप'          करनी है। माँ तो परमधाम में हुई। कुछ ही साल पहले तक दोनों           सास-बहू मिलके न्यौली गाती थीं और ज़्यादा रंग में हुई,          तो एक-दूसरे की कौली भर लेती थीं।
          स्त्री           तत्व भी क्या चीज़ हुआ। सारे ब्रम्हांड में व्याप्त ठहरा। कोई ओर-छोर थोड़े           हुआ इनकी ममता का। अपरंपार रचना हुई। नाना रूप,          नाना खेल। देखिए तो क्या कर सकता है। हज़ार बंदिशों का           मारा बंदा। इच्छा कर लेता है, सब कर लेता है।           सूबेदारनी से मिलती-जुलती, और खुद के हृदय का हाल           सुनाती-सी औरतों का ओझल होना देखते चल रहे हैं नैनसिंह सूबेदार भी। सवारी           का साधन भी एक निमित्त मात्र हुआ, चलने वाला तो हर           हाल में आदमी ही ठहरा। आदमी चलता रहे, तो           गाड़ी-मोटर, सड़क, खेत           खलिहान, पेड़-जंगल और पशु-पक्षी भी साथ चलते रहे।           आदमी रुका, तहाँ सभी रुक गए। आदमी को दिखते तक में           अपरंपार सृष्टि का सभी कुछ प्राणवान और विद्यमान हुआ। आदमी से ओझल होते ही,          सब-कुछ शून्य हो जानेवाला ठहरा।
          क्या है           कि ध्यान धरता है आदमी। ध्यान करता है,          आदमी। ध्यान से ही सूबेदारनी ठहरी। औरतें सब लगभग समान हुई           और लगभग सभी माता-बहिन-बेटी इत्यादि, लेकिन किसी की           कोई बात ध्यान में रह गई किसी की कोई।
          माँ का स्वयं के परमधाम सिधारते समय का, 'नैनुवा           रे' कहते हुए पूरी आकृति पर हाथ फिराना ध्यान में           रह गया है, तो रूक्मा सूबेदारनी को देखते ही हिरनी           का सा चौंकना। फोटू कैमरामैन हो जाने वाली ठहरी यह औरत और आपके एक-एक           नैन-नक्श को पकड़ती, प्रकट करती ऐसा ध्यान खींच ले           कि पंद्रह सालों की गृहस्थी में भी आखों की आब ज्यों-की-त्यों हुई। और बाकी           तो शरीर में जो है, सो है,           मगर आँखें क्या चीज़ हुई कि प्राणतत्व तो यहीं झलमल करता हुआ ठहरा। फिर           कमला सूबेदारनी का तो हाल क्या हुआ कि खीमसिंह 'स्टीयरिंग-व्हील'          को हाथों से घुमा रहा है, वैसे           आपको सूबेदारनी सिर्फ़ आँखों से घुमा सकने वाली ठहरी। यह बात दूसरी हुई कि           अनेक मामलों में वो 'रिजर्व फॉरिस्ट'          ही ठहरी।
          नैनसिंह           सूबेदार का अनायास और अचानक हँस पड़ना,          जैसे जंगल की वनस्पतियों और पक्षियों तक में व्याप्त हो           गया। खीमसिंह का ध्यान भी चला गया इस अचानक के हँस पड़ने पर,          तो उसने भी यही कहा कि फौज का आदमी तो,          बस, इन्हीं चार दिनों की छुटि्टयों           में जी भर हँस-बोल और मौज-मजा कर लेता है, दाज्यू!           कुछ जानदार वस्तु तो आप ज़रूर साथ लाए होंगे? यहाँ           तो पहाड़ में ससूरी आजकल डाबर की गऊमाता का दूध-मूत चल रहा है,          मृतसंजीवनी सुरा! थ्री एक्स रम,           ब्लैकनाइट-पीटरस्कॉट व्हिस्की और ईगल ब्रांडी जैसी वस्तुएँ तो औकात से           बिलकुल बाहर पहुँचा दी है सरकार ने।''
          चम्पावत आते ही, खीमसिंह ने ट्रक           को पहचान के ढाबे के किनारे खड़ा कर दिया। कुछ ऐसे ही मनोभाव में,          जैसे गाय-भैस थान पर बाँध रहा हो। उँगलियों की कैंची           फँसाकर, लम्बी जमुहाई लेते हुए, ''जै           हो कालिका मइया की, आधा सफ़र तो सकुशल कट गया।''          कहा उसने और दृष्टि सूबेदार की तरफ़ स्थिर कर दी।           
          अर्थ तो           रास्ता चलते ही समझ लिया था,          और मन भी बना लिया कि जाता ही देखो,          तो दिन दरिया बना लो। हँसते हुए ही इंगित कर दिया कि मामला           ठीकठाक है। खीमसिंह का तो रोज़ का बासा हुआ। जितनी देर में खीमसिंह ढाबे की           तरफ़ निकला, सूबेदार ने अपनी वी.आई.पी. अटैची खोलकर           उसमें हैंडलूम की कोरी धोती में लपेटी हुई कोटे की 'थ्री           एक्स' बोतलों में एक बाहर निकली। कुछ द्विविधा में           ज़रूर हुए कि कोई खाली अद्धा पड़ा होता, तो           'फिफ्टी-फिफ्टी कर लेते। ड्राइवरों-क्लीनरों की नज़रों से           तो बाकी छुड़ाना कठिन हो जाता है। जब तक किसी तरह की व्यवस्था करते           खीमासिंह न सिर्फ़ कटी प्याज कलेजी- गुर्दा- दिल- फेफड़े के साथ ही आलू भी           मिलाए हुए भुटूवे की, भाप उठती प्लेट लेकर उपस्थित!           कहो कि पानी का जग लाना रह गया। तो इतने में आधी बोतल थर्मस में कर लेने का           अवसर मिल गया।
          चलो,          अब कहने को हो गया कि कुछ रास्ते में ले चुके,          बोतल में बाकी जो बच रही, सो ही आज           की रात के नाम है।
          गनीमत कि क्लीनर हरीराम कुछ ही दूरी पर के अपने गाँव चला           गया और खीमसिंह ने भी मरभुक्खापन नहीं दिखाया। सच कहिए,          तो आदमी के बारे में अपने हिसाब,           या अपनी तरफ़ से आखिरी बात भूलकर तय न करे कोई। बहुत रंगारंग प्राणी हुआ           करता है। इसकी आँखों में पढ़ रहे है आप कुछ और ही,           मगर दिल में न जाने क्या है। एक-एक पैसे को साँसों की तरह एकट्ठा करके चलना           होता है छुटि्टयों पर, क्योंकि बन्धन हज़ार है। ऐसे           में पैसा शरीर में से बोटी की तरह निकलता जान पड़ता है,          क्योंकि गाँव-घर, अड़ोस-पड़ोस में           ही अगर न हुआ कि नैनसिंह सूबेदार का छुटि्टयों पर घर आना क्या होता है,          तो नाक कहाँ रही। और अब इसे भी तो नाक रखना ही कहेंगे कि           भुटुवा और पराठे-शिकार-भात, डिनर का सारा खर्चा           खीमसिंह ने अपने जिम्मे लगा लिया कि --''दाज्यू,          चंपावत से अपना होमलैंड शुरू हो जाता है। आज तो आप हमारे          'गेस्ट' हो। खाने का           बंदोबस्त हमारी तरफ़ से पीने का आपकी। मरना हमारा,           जीना आपका। सीना हमारा, चाकू आपका ! कोई चीज किसी           वक्त में हो जाती है और उसे गॉडगिफ्ट मान लेना,           मनुवा ! आप हमको कड़क फौजी ड्रेस में बस अड्डे पर खड़े दिख गए,          यह भी भगवान की मर्ज़ी का खेल ठहरा! ठहरा कि नहीं ठहरा?          अगर नहीं तो कौन जानता है, भेंट भी           होती या नहीं। आप 'भरती होजा फौज में,          ज़िंदगी है मौज में' गाते-बजाते,          छुट्टी काटकर, चल भी देते।''         
          प्रेम है           कि नफ़रत है,          जहाँ शराब कुछ भीतर तक उतरी, तहाँ           आदमी की असलियत बोलने लगती है कि वह दरअसल है क्या। इस वक्त कम-से-कम खीमा           साथ है, तो कुछ घर का सा वातावरण है। कहीं टनकपुर           में ही अतक गए होते, तो फिर वही आधे अंग का           खाना-पीना और सोना। केप छोड़ा था, तब से ही लगातार           यही हुआ कि संपूर्णता नहीं है। प्रत्येक क्षण किसी की स्मृति है और,          बस थोड़े-से फासले पर साथ-साथ चल रही है। पर मायामयी छाया           को शरीर धारण करने में अभी भी बहुत समय लगना है। कल जाकर गाँव पहुँचेंगे,          तब ही यह व्याकुलता थमेगी।
          ''जब           तक सुदर्शनचक्र हाथ में है, तब तक सोचा है! इसकी           छोटे मुँह बड़ी बात मान लेना, दाज्यू! कौन हसबैंड           ऑफ मदर झूठ बोल रहा है! खीमसिंह ड्राइवर का नाम लेकर इन्क्यावरी कर सकता है,          हर शख्स, जो चलना है टनकपुर-सोर की           दस लाइन में, जहाँ कि ज़रा-सा बेलाइन हुए आप,          श्रीमान जी तो समझिए कि मुरब्बा तैयार है!''          कहते हुए, खीमसिंह ने भुटुवे की           प्लेट उठाकर, उसमें लगा तेल-मसाला चाटना शुरू कर           दिया, तो मध्यम कोटि के सरूर में सूबेदार का ध्यान           गया सीधे इस बात पर कि रास्ते में जाने कितनी बार तो सचमुच यही झस्-झस् हुई           थी कि कहीं ऐसा न हो आइडेंटिटी-कार्ड साथ में रहता है,          शिनाख्त ज़रूर पहुँच सकती है,           लेकिन आदमी की जगह, सिर्फ़ उसकी शिनाख्त का पहुँचना           कितना ख़तरनाक हो सकता है, इस बात की तमीज़ तो           ससुरे इस सृष्टि के सिरजनहार तक को नहीं रही। एक खूबी इस चीज़ में है। एकदम           लाइन के पार नहीं निकल जाए आदमी, तो पुल पर का चलना           है। नीचे आपके मंथर गति की नदी बह रही है और आस-पास के पहाड़ ससुरे ऐसे घूर           रहे हैं, जैसे कि घरवाली मायके जाती हो। कल्पना अगर           किसी चिड़िया का नाम है, तो ठीक ऐसे ही मौके पर पंख           खोलती है। जितनी बार खतरनाक मोड़ पड़ते थे, उतनी ही           बार सूबेदारनी जंगल में हिरनी-जैसी व्याकुल होती जान पड़ती थीं,          क्योंकि ध्यान में तो बैठी रहती हैं वही। और भीतर-ही-भीतर           दोनों हाथ बार-बार इसी प्रार्थना में उठ जा रहे थे कि -- हे मइया,          हाट की कालिका!
          ''औरत           है कि देवी है -- माया-मोह और भय-भीति का ही सहारा है। अटैची में चमचमाता           लाल साटन डेढ़ मीटर रखा हुआ है और पौने इंची सुपरफाइन गोट और सितारे। चोला           मइया का सूबेदारनी खुद अपने हाथों तैयार करेगी। जब तक मइया का ध्यान है,          तब तक रक्षा ज़रूर है। नहीं तो,           फौज की नौकरी में कौन जानता है कि सरकार ने कब दाना-पानी छुड़ा देना है।           कैवेलरी की जिंदगानी है। जीन-लगाम ही अंगवस्त्र है। पिछले साल अचानक ही           कैसा ब्लूस्टार ऑपरेशन हो गया और कितने वीर जवान राष्ट्र को समर्पित हो गए।           अग्नि को भी समर्पण चाहिए। राष्ट्र की ज्योति जली रहे।
          अब नैना           सूबेदार का मन हो रहा था,          एक प्लेट भुटुवा और मंगा लें, फिर           चाहे थर्मस तक भी नौबत क्यों न आ पहुँचे। जाने को तो यह जिन्दगी ही चली           जाने के लिए ही है, लेकिन कुछ वक्त ऐसे ज़रूर आते           हैं, जो चाँदी के सिक्कों की तरह बोलते मालूम पड़ते           हैं कि हम साथ रहेंगे। अब जैसे कि रूक्मा सूबेदारनी का ही ध्यान है,          यह मात्र एकाध जनम तक ही साथ देने वाली वस्तु तो नहीं है।           पहले कैसे धोती के पल्ले में नाक दबा लेती थीं सूबेदारनी साहिबा,          पिछली बार की छुटि्टयों में निमोनिया की पकड़ में थीं,          तो दो चम्मच ब्राण्डी पिलाना मछली का मुँह खोलकर,          पानी का घूँट डालना हो गया। बाद में खुद कहने लगीं कि           खेत-जंगल के कामों से टूटता बदन कुछ ठीक हो जाता है।
          चूँकि           भुगतान करने का ज़िम्मा खीमसिंह ने लिया,          इसलिए संकोच था कि यह ज़ोर डालना हो जाएगा,          मगर अपने भीतर की भाषा खीमसिंह में फूट पड़ी --''सूबेदार           दाज्यू, भुटुवा बहुत ज़ोरदार बना ठहरा। एक प्लेट और           लाता हूँ।''
          आखिर-आखिर           थर्मस खंगाल कर पानी लेना पड़ा,          लेकिन न खीमसिंह आपे से बाहर हुआ,           न सूबेदार। धीरे धीरे जाने कहाँ-कहाँ की फसक-फराल लगाते में,          रिमझिम-रिमझिम जज्ब होती चलीं गई। कैंप की कैटीन से बाहर           निकलने की सी निश्चिंतता में, दोनों अब भोजन           प्राप्त करने ढाबे की बेंच तक पहुँचे, तो देखा-           ढाबे की मालकिन ही पराठे सेंक रही है और इतना तो खीमसिंह ने पहले ही बता           दिया था कि यहाँ के खाने में रस है। औरत भी क्या चीज़ है,          साहब। जो स्वाद सिल पर पिसे मसाले का,          सो पुड़िया में कहाँ हैं। और पराठे स्साला कोई मर्द सेंक           रहा हो, तो घी चाहे जितना लगा लें मगर यहा           भुवनमोहिनी आवाज और हँसी कहाँ से लाएगा? इधर पराठा           बेलती हैं, सेंकती है और उधर मज़ाक भी करती जाती है           कि सूबेदारनी बहुत याद आ रही होंगी? कहाँ-कहाँ तक           फैला दिया इसे भी, फैलाने वाले ने,          जहाँ देखी, वैसी ही आभा है। जहाँ           आप जल रहे, जाने कब शक्कर हो गई। बोलती है और अचानक           ही हँस देती है, तो दुकानदारी करती कहाँ दिखाई देती           है। कैसे पलक झपकते में दाँव लगा दिया कि 'आदमी तो           दूर देश और बरसों का लौटा ही चीज होता है।' --           प्रौढ़ावस्था को प्राप्त हुई में भी एक आँच हैं। वातावरण में घर की सी           उष्मा मालूम देने लगी।
         
          "हाँ, हाँ" कहने के सिवा और क्या           कहना हुआ। तीन साल के बाद लौटने में तो अपने इलाके का इस पेड़ से उस पेड़           की तरफ कूदता-फाँदता बन्दर भी अपना-सा लगता है। यह तो अन्नपूर्णा की सी           मूरत सामने है। होने को तो कुछ सुरूर 'थ्री-एक्स'          का भी जरूर है, मगर जब तक भीतर की           धारा से संगम ना हो, नशा चाहे जितना हो ले,          यह दिव्यमनसता कहाँ।
          चुल्हे की आँच में वह किसी वनदेवी की प्रतिमा की-सी छवि           में हैं। सोने का गुलुबंद झिलमिला रहा है। पराठा पाथते में हाथों की           चूड़ियाँ बज रही है। बीच-बीच में माथे पर के बाल हटाने को बायीं कुहनी हवा           में उठाती है, तो रूक्मा सूबेदारनी की नकल           उतारती-सी जान पड़ती है। कांक्षा हो रही है, दो के           सिवा और कोई उपस्थित न हो। कोई-कोई समय जाने कैसी एक उतावली-सी भर देता है           भीतर कि कहीं यह बीत न जाए।
          नैनसिंह           सूबेदार को एक-एक ग्रास पहले पर्वत,          फिर राई होता गया। आँखों की दुनिया अलग होती गई,          हाथ-मुँह-उदर की अलग। खीमसिंह को तो,          शायद, यह भ्रम हुआ हो कि थ्री एक्स           ने भूख का मुँह खोल दिया है, लेकिन सूबेदार को जान           पड़ा कि यह अकेले का खाना नहीं। बस, यही फिर           सूबेदारनी का ही सामने बैठा होता-सा प्रतीत हुआ नहीं कि डकार भी आ गई।           गिलास-भर पानी एक ही लय में गटकते, सूबेदार हाथ           धोने नल की तरफ बढ़ गए।
         
          कुछ क्षण होते हैं, विस्तार पकड़ते           जाते हैं और कुछ विस्तार, जो धीरे-धीरे,          क्षणिक होते जाते हैं, रास्ते का           एक दिन कटना पर्वत, 'लेकिन घर पर महिने-भर की           छुटि्टयाँ कपूर हो जाती है। पक्षियों-सा उड़ता समय कान में आवाज देता रहता           है, लो, आज का दिन भी बीता           तुम्हारा। अब बाकी कितने हैं।
          बाबू ने थोड़े आँखर जागर गा तो दिया,          अपशकुन क्यों करते हो कहने और सूबेदारनी बहू की गाई न्योली           के कुछ बन्द स

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 Works online

    * Yada Kada by Shailesh Matiyani (1992) at Digital Library of India - Hindi.
    * A collection of Essays. by Shailesh Matiyani - Hindi
    * Bhasha aur Desh, an essay by Shailesh Matiyani - Hindi
    * Maimood, a story by Shailesh Matiyani - Hindi
    * Ardhangini, a story by Shailesh Matiyani - Hindi

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Shailash Matiyani (SM)

Sad Demise Of SM
By :

Manish Pant

18.05.2001
   Shailash Matiyani died 10 days ago in a hospital at Delhi. His  funeral takes place at Chitra Shila at Haldwani. He was a real Diamond in the Kumaoni culture and literature. Kumaon has lost a very grate writer. We should pray to almighty god to give peace to his soul.

Infect Shailaish Matiyani Ji was in the very bad position in his last days. Lot of efforts has been made for him to bring back to his normal mental position. Even Uttaranchal CM has sanction Rs. 1.00 Lacs for his treatment.As far as i have read in the news papers he started to lost his senses after the murder of his younger son at Allahabad.

Any way the sad demise of this grate kumaoni writer has leave a place blank in the kumaoni sahitaya.
My Tribute
By :

Devesh pant

18.05.2001
   I am extremely sorry to hear the sad demise of Shailesh Matiyani ji, in fact he was a childhood friend of my Father. Two years back he was given an award in Bhopal where he could hardly make it to the place and I remember seeing him not in his senses then. There was an effort from many pahadis and deshis to collect some money for his treatment since he was probably leading a very bad life without any money.

Anyway my tributes to the great writer from kumaon

My Tribute and Some Info about SM
By :

Kamal Karnatak

19.05.2001
   
  My sincere tribute to great legend Shailaesh Matiyani I heard the news of sad demise of Shailesh Matiyani on 24th of April .
 

Let me share my experience and views about shailesh matiyani (SM)
There is one SM's story "Chhindda pahlwan kee Galee" (street of chhinda ,the strongman) in which there is one "pahalwan" and a "mochi" (cobbler).They live in a same locality .Mochi has a "jawan" daughter who is the matter of concern for him as pahlwan has a "Buree Najar" for her ..but mochi can not do any thing due to the influence of pahalwan..as all locality people are on the side of 'pahalwan" due to fear ..One day mochi takes his "Sua" (needle) and challenge the pahalwan. All locality people are spectator but no one supports mochi .....In the end moral strength wins against physical strength ..so mochi wins ....this was the fiction ...but SM would have wished the same thing in reality ..when he was fighting with the land mafia in allahabad ..it was due to his opposition his younger son "Nitin" got murdered ..but he could not do any thing ...that was the thing that made SM mentally upset and after that he never recovered .There was one poem of "Allen Ginsbarg" in which he writes
 
I have seen the best minds
of my generation destroyed by madness
 
Same thing is true for SM.


SM was born in 14 October 1931 at Badechhina almora .. He was only highschool pass but what he wrote is being studied and researched by learned scholars . He has written so many articles ,stories and novels,but his main mastery was in writing articles ..His article used to publish in paper like "amar ujala", "jansatta",hindustan etc ..I remember one of his article  in which he questioned the integrity of National Anthem Jan man gan" .I was really impressed by that article and his insight about the various things ..I read some of his short stories also. His famous books are "ugtey sooraj ki kiran", "hauldar", "chand auraton ka shahar" ,  "gapuli gafuran", (all novels) ...."Chhinda pahlwan kee gali","teesra sukh","barf ki chattaney", "suhagini", "ardhangini" ,  "nach jamurey nach" (all stories)..."rastra bhasa ka sawal", "kagaz ki naav" (article collections) ..etc ...

"Har aankh Ashk bar hai , Har dil hai sogwar

ye kaun aaj uth key jahan sey chala gaya "
My Tribute
By :

Shikha Mishra
   May his soul rest in peace...


Read more: http://www.oocities.com/kkarnatak/html/shailash_matiyani.htm#ixzz0zu10z86A

dramanainital

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Jankathakar Shailesh Matiyani
AuthorCompld. by Publications Division
SubjectBiographies
LanguageHindi
Paper Binding(Rs.) 75 
 
Description
  <blockquote>Shailesh Matiyani is an important short story writer of Hindi. The analysis of modern Hindi short story will remain incomplete without Matiyani. His life itself is a source of inspiration for the generation to come. The characters depicted in his short stories symbolise same fighting spirit what was part of his own self. All these characters come from lower and lower-middle class.
In this compilation, many authors have discussed at length about the various aspects of his personality and creativity. Besides these, Matiyani's original short stories and poems have also been compiled in this book. </blockquote>[/t][/c][/t] 
 
http://www.publicationsdivision.nic.in/b_show.asp?id=1647

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http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/hindi_diwas/bhashaaurdesh.htm
   
भाषा और देश
[url=http://www.abhivyakti-hindi.org/lekhak/s/shaileshmatiyani.htm]— [/size][/color][/font][/url]शैलेश मटियानी


[/t][/t][/c]
जिस दिन लार्ड मैकाले का सपना पूरा और गांधी जी का सपना ध्वस्त हो जाएगा, उस दिन देश पूरे तौर पर केवल 'इंडिया' रह जाएगा। हो सकता है, समय ज़्यादा लग जाए, लेकिन अगर भारतवर्ष को एक स्वाधीन राष्ट्र बनना है, तो इन दो सपनों के बीच कभी न कभी टक्कर होना निश्चित है।
जो देश भाषा में गुलाम हो, वह किसी बात में स्वाधीन नहीं होता और उसका चरित्र औपनिवेशिक बन जाता है। यह एक पारदर्शी कसौटी है कि चाहे वे किसी भी समुदाय के लोग हों, जिन्हें हिंदी को राष्ट्रभाषा मानने में आपत्ति है, वह भारतवर्ष को फिर से विभाजन के कगार तक ज़रूर पहुँचाएँगे।
लार्ड मैकाले का मानना था कि जब तक संस्कृति और भाषा के स्तर पर गुलाम नहीं बनाया जाएगा, भारतवर्ष को हमेशा के लिए या पूरी तरह, गुलाम बनाना संभव नहीं होगा। लार्ड मैकाले की सोच थी कि हिंदुस्तानियों को अँग्रेज़ी भाषा के माध्यम से ही सही और व्यापक अर्थों में गुलाम बनाया जा सकता है।
अंग्रेज़ी जानने वालों को नौकरी में प्रोत्साहन देने की लार्ड मैकाले की पहल के परिणामस्वरूप काँग्रेसियों के बीच में अंग्रेज़ी परस्त काँग्रेसी नेता पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एकजुट हो गए कि अंग्रेज़ी को शासन की भाषा से हटाना नहीं है अन्यथा वर्चस्व जाता रहेगा और देश को अंग्रेज़ी की ही शैली में शासित करने की योजनाएँ भी सफल नहीं हो पाएँगी।
यह ऐसे अंग्रेज़ीपरस्त काँग्रेसी नेताओं का ही काला कारनामा था कि अंग्रेज़ी को जितना बढ़ावा परतंत्रता के 200 वर्षों में मिल पाया था, उससे कई गुना अधिक महत्व तथाकथित स्वाधीनता के केवल 50 वर्षों में मिल गया और आज भी निरंतर जारी है।
जबकि गांधी जी का सपना था कि अगर भारतवर्ष भाषा में एक नहीं हो सका, तो ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को आगे नहीं बढ़ाया जा सकेगा। भारत की प्रादेशिक भाषाओं के प्रति गांधी जी का रुख उदासीनता का नहीं था। वह स्वयं गुजराती भाषी थे, किसी अंग्रेज़ीपरस्त काँग्रेसी से अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञान में उन्नीस नहीं थे, लेकिन अंग्रेज़ों के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम छेड़ने के बाद अपने अनुभवों से यह ज्ञान प्राप्त किया कि अगर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को पूरे देश में एक साथ आगे बढ़ाया जा सकता है, तो केवल हिंदी भाषा में, क्यों कि हिंदी कई शताब्दियों से भारत की संपर्क भाषा चली आ रही थी।
भाषा के सवाल को लेकर लार्ड मैकाले भी स्वप्नदर्शी थे, लेकिन उद्देश्य था, अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से गुलाम बनाना। गांधी जी स्वप्नदृष्टा थे स्वाधीनता के और इसीलिए उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया। स्वाधीनता संग्राम में सारे देश के नागरिकों को एक साथ आंदोलित कर दिखाने का काम गांधी जी ने भाषा के माध्यम से ही पूरा किया और अहिंसा के सिद्धांत से ब्रिटिश शासन के पाँव उखाड़ दिए।
पूरे विश्व में एक भी ऐसा राष्ट्र नहीं है, जहाँ विदेशी भाषा को शासन की भाषा बताया गया हो, सिवाय भारतवर्ष के। हज़ारों वर्षों की सांस्कृतिक भाषिक परंपरावाला भारतवर्ष आज भी भाषा में गुलाम है और आगे इससे भी बड़े पैमाने पर गुलाम बनना है। यह कोई सामान्य परिदृष्टि नहीं है। अंग्रेज़ी का सबसे अधिक वर्चस्व देश के हिंदी भाषी प्रदेशों में है।
भाषा में गुलामी के कारण पूरे देश में कोई राष्ट्रीय तेजस्विता नहीं है और देश के सारे चिंतक और विचारक विदेशी भाषा में शासन के प्रति मौन है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा के सवालों को जैसे एक गहरे कोहरे में ढँक दिया गया है और हिंदी के लगभग सारे मूर्धन्य विद्वान और विचारक सन्नाटा बढ़ाने में लगे हुए हैं। राष्ट्रभाषा के सवाल पर राष्ट्रव्यापी बहस के कपाट जैसे सदा-सदा के लिए बंद कर दिए हैं। कहीं से भी कोई आशा की किरण फूटती दिखाई नहीं पड़ती।
सारी प्रादेशिक भाषाएँ भी अपने-अपने क्षेत्रों में बहुत तेज़ी से पिछड़ती जा रही हैं। अंग्रेज़ी के लिए शासन की भाषा के मामले में अंतर्विरोध भी तभी पूरी तरह उजागर होंगे, जब यह प्रादेशिक भाषाओं की संस्कृतियों के लिए भी ख़तरनाक सिद्ध होंगी। प्रादेशिक भाषाओं की भी वास्तविक शत्रु अंग्रेज़ी ही है, लेकिन देश के अंग्रेज़ीपरस्तों ने कुछ ऐसा वातावरण निर्मित करने में सफलता प्राप्त कर ली है जैसे भारतवर्ष की समस्त प्रादेशिक भाषाओं को केवल और केवल हिंदी से ख़तरा हो।
सुप्रसिद्ध विचारक हॉवेल का कहना है कि किसी भी देश और समाज के चरित्र को समझाने की कसौटी केवल एक है और वह यह कि उस देश और समाज की भाषा से सरोकार क्या है। जबकि भारतवर्ष में भाषा या भाषाओं के सवालों को निहायत फालतू करार दिया जा चुका है। लगता है भारत वर्ष की सारी राजनीतिक पार्टियाँ इस बात पर एकमत हैं कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया जाए और देश में शासन की मुख्य भाषा केवल और केवल अंग्रेज़ी को ही रहना चाहिए।
भाषा के मामले में भारतवर्ष को छोड़कर किसी भी स्वाधीन राष्ट्र का रुख ऐसा नहीं है। अगर इंग्लैंड का कोई प्रधानमंत्री अपने देशवासियों को हिंदी में संबोधित करे, तो स्थिति क्या बनेगी? भारतवर्ष भी एक स्वाधीन राष्ट्र तभी बन पाएगा जब अंग्रेज़ीपरस्त राजनेताओं से मुक्ति मिलेगी। इससे पहले विदेशी भाषा से मुक्ति पाना संभव नहीं है।
(पांचजन्य से साभार)
 
http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/hindi_diwas/bhashaaurdesh.htm

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मनोरंजक कथाएँ >> छोटी मछली बड़ी मछली
छोटी मछली बड़ी मछली
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शैलेश मटियानी
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[/t]
पृष्ठ: 24
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मूल्य:
$1.95 
प्रकाशक: आत्माराम एण्ड सन्स
आईएसबीएन: 0000
प्रकाशित: फरवरी ०२, २०००
पुस्तक क्रं:4490
मुखपृष्ठ:अजिल्द
[/t][/t]
सारांश:
  •   प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश  छोटी मछली, बड़ी मछली सिन्धुराज अपने समय का चक्रवर्ती सम्राट् था। दसों दिशाओं में उसका एकछत्र साम्राज्य था। उसके विशाल साम्राज्य में सूर्य-चन्द्र अस्त न होते थे।
    सिन्धु राज के अधीन सैकड़ों अन्य छोटे-छोटे राज्य थे । इन छोटे-छोटे राज्यों के राजाओं से सिन्धुराज कर लिया करता था। अपार धन, कर के रूप में, सिन्धुराज के पास आता था। सो सिन्धुराज का खजाना पनिहारिन की गगरी और कालू की बकरी-सा भरा जा रहा था। (‘कालू की बकरी दूसरों के खेतों में हरी-हरी घास चर, अपना पेट भर लाई’-यह कहानी तो पढ़ी होगी न ? ठीक इसी तरह अन्य राजाओं की सम्पत्ति से सिंधुराज अपना खजाना भर रहा था !)
    अति हर चीज़ की बुरी होती है। इसलिए हमारे बड़े बूढ़े कहा करते हैं-

     ‘अति का भला न हँसना अति की भली न चुप।
    अति की भली न बरखा अति की भली न धूप।।

     सम्पत्ति की अति से सिन्धुराज को मद हो गया। घमण्ड और कुविचार के राहु-केतु ने उसके चरित्ररूपी-चन्द्रमा को ग्रस लिया। अपने कर्तव्य और कर्म को भूल सिन्धुराज दिन-रात विलास के दलदल में डूबता गया। दलदल में फँसा पाँव, भूचाल में धँसा गांव मुश्किल से ही बचता है।[/l][/l]
http://pustak.org/bs/home.php?bookid=4490 
 
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