Author Topic: Shailesh Matiyani,great Writer - शैलेश मटियानी, उत्तराखंड में जन्मे साहित्यकार  (Read 17723 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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दोस्तों,
 
उत्तराखंड की धरती में महान कवियों, महापुरुषों ने जनम लिया है जिन्होंने   देश विदेश में ना केवल देश के इस हिमालयी राज्य अपितु पूरे देश का नाम रोशन   किया है! यह धरती में बड़े-२ योधा, शूर वीर और साहित्यकार भी पैदा हुए है!   जब देश के प्रसिद्ध साहित्यकारों के नाम आता है तो प्रमुखुता से उनमे से   एक नाम शैलेश मटियानी का भी आता है!

शैलेश मटियानी (१४ अक्तूबर १९३१-२४ अप्रैल २००१)   का जन्म अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना गांव में हुआ था। उनका मूल नाम   रमेशचंद्र सिंह मटियानी था तथा आरंभिक वर्षों में वे रमेश मटियानी 'शैलेश'   नाम से लिखा करते थे। मटियानी जी जब बारह वर्ष (१९४३)   के ही थे तभी उनके माता-पिता का देहांत हो गया। उस समय वे पांचवीं कक्षा   में पढ़ रहे थे। चाचाओं के संरक्षण में परिस्थितियां कुछ ऐसी विलोम हो गई   कि उन्हें पढ़ाई छोड़ बूचड़खाने तथा जुए की नाल उघाने का नाम करना पड़ा।   इसी दौरान पांच सालों के बाद वे किसी तरह पढ़ाई शुरू करके मिडिल तक पहुँचे   और काफी विकट परिस्थितियों के बावजूद हाईस्कूल पास कर गए। लेखक बनने की   उनकी इच्छा बड़ी जिजीविषापूर्ण थी।

प्रारंभिक जीवन  अल्मोड़ा के घनघोर आभिजात्य के तिरस्कार से तंग आकर वे १९५१ में दिल्ली आ   गए और 'अमर कहानी' के संपादक, आचार्य ओमप्रकाश गुप्ता के यहां रहने लगे।   'अमर कहानी' और 'रंगमहल' से उनकी कहानी तब-तक प्रकाशित हो चुकी थी। इसके   बाद उन्होंने साहित्य की उर्वर भूमि इलाहाबाद जाने का निश्चय किया। इसके   लिए पैसे की व्यवस्था उन्होंने 'अमर कहानी' के लिए 'शक्ति ही जीवन है' (१९५१) और 'दोराहा' (१९५१) नामक लघु उपन्यास लिखकर की, मुज़फ़्फ़र नगर में काम किया और दिल्ली आकर कुछ समय रहने के बाद वे बंबई चले गए। फिर पांच-छह वर्षों तक उन्हें कई कठिन अनुभवों से गुजरना पड़ा। १९५६   में श्रीकृष्ण पुरी हाउस में काम मिला और अगले साढ़े तीन साल तक वे वहीं   रहे और लिखते रहे। बंबई से फिर अल्मोड़ा और दिल्ली होते हुए वे इलाहाबाद आ   गए और फिर कई वर्षों तक यहीं रहे। उन्होंने 'विकल्प' और 'जनपक्ष' पत्रिका   भी निकाली। अपने छोटे बेटे की मृत्यु के बाद (१९९२) में उनका मानसिक संतुलन डगमगा गया। १९९२ में कुमाऊं विश्वविद्यालय   ने उन्हें डी० लिट० की मानद उपाधि से सम्मानित किया। जीवन के अंतिम वर्षों   में वे हल्द्वानी आ गए। विक्षिप्तता की स्थिति में उनकी मृत्यु दिल्ली के   शहादरा अस्पताल में हुई।
(Source :wikipedia.org/)

इस टोपिक में हम शैलेश मटियानी के के रचनाओ और उनके   किताबो के बारे में चर्चा एव जानकारी दंगे!
 
  स्वर्गीय श्री शैलेश मटियानी जी के लिखे दो शब्द!
 
    "लिखना, लेखक होना - अपने मानवीय स्वत्व के   लिए संघषॆ करने का ही दूसरा नाम है, और जब यह दूसरों के लिए संघषॆ करने के   विवेक से जुड़ जाता है, तभी लेखक सही अथों में साहित्यकार बन पाता है।"

Regards,
 
  एम् एस मेहता
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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शैलेश मटियानी
जन्म: १४ अक्टूबर १९३१ को                         बोड़ेछीना, जनपद-अल्मोड़ा में।
                        शिक्षा : हाईस्कूल तक
                        वृत्ति : साहित्य
                        साहित्य रचना की अवधि : पचास वर्ष

प्रकाशित कृतियाँ-
                        उपन्यास
                        उगते सूरज की किरन, पुनर्जन्म के बाद, भागे हुए लोग, डेरे                         वाले, हौलदार, माया सरोवर, उत्तरकांड, रामकली, मुठभेड़, चन्द                         औरतों का शहर, आकाश कितना अनन्त है, बर्फ गिर चुकने के बाद,                         सूर्यास्त कोसी, नाग वल्लरी, बोरीवली से बोरीबंदर तक,                         अर्धकुम्भ की यात्रा, गापुली गफूरन, सावितरी, छोटे-छोटे                         पक्षी, मुख सरोवर के हंस, कबूतर खाना, बावन नदियों का संगम                         आदि।

कहानी संग्रह :
                        पाप मुक्ति तथा अन्य कहानियां, सुहागिनी तथा अन्य कहानियां,                         अतीत तथा अन्य कहानियां, हारा हुआ, सफर घर जाने से पहले,                         छिंदा पहलवान वाली गली, भेड़े और गड़रिये, तीसरा सुख, बर्फ                         की चट्टानें, अहिंसा तथा अन्य कहानियां, नाच जमूरे नाच, माता                         तथा अन्य कहानियां, उत्सव के बाद, शैलेश मटियानी की                         प्रतिनिधि कहानियां, संदर्भ और परिदृष्य (स.) आदि।
                        लेख संग्रह :
                        राष्ट्रभाषा का सवाल, कागज की नाव, लेखक की हैसियत से                         (संस्मरण), किसे पता है राष्ट्रीय शर्म का मतलब? , जनता और                         साहित्य, लेखक और संवेदना, मुख्यधारा का सवाल, यथा-प्रसंग,                         कभी कभार, किसके राम कैसे राम, यदाकदा, त्रिज्या आदि।
                        बाल साहित्य : बिल्ली के बच्चे, मां की वापसी, कालीपार की                         लोक कथाएं, हाथी चींटीं की लड़ाई। चांदी का रूपैया और रानी                         गौरेया, फूलों की नगरी, भरत मिलाप, सुबह के सूरज, मां तुम                         आओ, योग संयोग
                        प्रकाश्य : मुड़-मुड़ कर मत देख, कहानी कैसे बनती है
                        अप्रकाशित : पर्वत से सागर तक, राज्य और कानून
                        प्रसारण : बी.बी.सी. लंदन से 'दो दुखों का एक सुख' कहानी के                         नाट्य-रूपान्तरण का प्रसारण

उपाधि :
                        १९९४ में कुमाऊ विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट् की मानद उपाधि

पुरस्कार :
                        उत्तर प्रदेश सरकार का संस्थागत सम्मान, शारदा सम्मान,                         केडिया संस्थान से साधना सम्मान, उत्तर प्रदेश सरकार से                         लोहिया पुरस्कार

जीवन और लेखन पर शोध :
                        'शैलेश मटियानी - व्यक्तित्व और कृतित्व' - डा. उर्वीश चंद्र                         मिश्र, 'शैलेश मटियानी के कथा साहित्य का समाजशास्त्रीय                         अध्ययन' - डा. सुरेश चंद्र रस्तोगी, 'शैलेश मटियानी के                         अंाचलिक उपन्यासों का मूल्यांकन' - डा. मालती तिवारी, 'शैलेश                         मटियानी की कहानियों में अंकित दलित जीवन: एक विशेषणात्मक                         अध्ययन' - चेतना राजपूत, 'शैलेश मटियानी के आंचलिक उपन्यास'                         - प्रेमकुमारी सिंह
                        संपादन : जनपक्ष, विकल्प

कविताएँ :
                        गीत और कविताएँ ज्ञानोदय धर्मयुग आदि में प्रकाशित 
                       


source : http://www.abhivyakti-hindi.org/lekhak/s/shaileshmatiyani.htm
                               

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Ramesh Singh Matiyani 'Shailesh' was born on October 14, 1931, in Barechhina (बाड़ेछीना), Almora district, Uttarakhand, it was here and later at Almora, that he studied up to High School.


BOOKS WRITTEN BY SHAILESH MATIYANI
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  • Shailesh Matiyani Ki Sampurna Kahaniyan
  • Shailesh Matiyani ki Ikkyavan Kahaniyan (Hindi), Vibhor Prakashan, Allahabad [4]
  • Bhage hue log, (Hindi). Allahabad, Ashu Prakasan, 1994.
  • 10 Pratinidhi Kahaniyan. ISBN 042175283.
  • Kanya Tatha Anya Kahaniyan(Hindi). ISBN 818826640X.
  • Shreshtha Anchalik Kahaniya (Hindi), 2001, Kadamabari Prakashan. ISBN 8185050732.
  • Parvat Se Sagar Tak. ISBN 04217-1154.
  • Aakash Kitna Anant Hai. ISBN 04217-1633.
  • Trijya. ISBN 04217-1824.[13]
  • Rashtrabhasha Ka Savala, (Collection of essays) Asu Prakashan, Allahabad, 1994. ISBN 8185377049.
  • Kagaz ki Naav (Collection of essays).
  • Koi Ajnabi Nahin, Manjil Sar Manjil (Hindi), Delhi, Granth Academy, 2006. ISBN 8188267457. [1]
  • Yada Kada, (Hindi), 1992.
  • Kohra (Novel)
  • Uthaigir, (Play)
  • Chhote-Chhote Pakshi (Novel).
  • Gopuli Gafooran (Novel).
  • Maimood, Modern Hindi Short Stories; translated by Jai Ratan. New Delhi, Srishti, 2003, Chapter 11.
  • Choti machali Badi machali, AtmaRam & Sons. 2002.
  • Parvat Se Sagar Tak, Rajpal & Sons, I

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shailesh matiyani-celebrities                           
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                 Monday, 26 November 2007            
              
शैलेश मटियानी
गिरिराज   किशोर ने उनकी कहानियों का मूल्यांकन करते हुए उन्हें प्रेमचंद से आगे का   लेखक ठहराया है। शैलेश ने न सिर्फ हिंदी के आंचलिक साहित्य को नई ऊंचाइयों   पर पहुंचाया बल्कि हिंदी कहानी को कई यादगार चरित्र भी   दिये।...                                                                                                       
Meer Ranjan Negi
शैलेश मटियानी :लिखना एक आहट पैदा करना है
द्वारा दिनेश कर्नाटक (स्रोत: दैनिक जागरण)
शैलेश   मटियानी को हमारे बीच से गये हुए छह साल पूरे हो चुके हैं। लगता है जैसे   कल की बात हो। तमाम संघर्षो तथा दु:श्चिंताओं के बावजूद आखिरी समय तक जैसा   कि वे लेखन के बारे में कहा करते थे," कागज पर खेती" करते रहे। उनकी   कहानियों पर टिप्पणी करते हुए राजेंद्र यादव ने स्वीकार किया है कि हम सबके   मुकाबले उनके पास अधिक उत्कृष्ट कहानियां हैं। गिरिराज किशोर ने उनकी   कहानियों का मूल्यांकन करते हुए उन्हें प्रेमचंद से आगे का लेखक ठहराया है।   शैलेश ने न सिर्फ हिंदी के आंचलिक साहित्य को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया   बल्कि हिंदी कहानी को कई यादगार चरित्र भी दिये। उनकी कहानियों का जिक्र   आते ही मस्तिष्क में एक साथ कई चरित्र तेजी से घूमने लगते हैं, पद्मावती,   इब्बू-मलंग, गोपुली, सावित्री, पोस्टमैन, नैन सिंह सूबेदार, सूबेदारनी,   मिरदुला आदि ऐसे चरित्र हैं जो एक बार पाठक के मनोजगत में प्रवेश करने के   बाद सदा-सदा के लिए उसकी स्मृति में डेरा जमा लेते हैं। प्रेमचंद के बाद   इतने यादगार चरित्र हिंदी में शायद ही किसी और लेखक ने दिये होंगे। शैलेश   से पहले पहाड़ साहित्य में सौंदर्य की विभिन्न छवियों तथा बिंबों के रूप   में आता था। बल्कि इलाचंद जोशी जैसे बड़े लेखक पहाड़ की पृष्ठभूमि को अपने   लेखन कर्म के लिए अनुर्वर मानते थे। शैलेश ने पहली बार पहाड़ के मनुष्य की   जीवन गाथा को पूरी व्यापकता के साथ हिंदी के पाठकों के सम्मुख रखा। शैलेश   का जन्म 14 अक्टूबर 1931 को अल्मोड़ा के समीप बाड़ेछीना में हुआ। छोटी उम्र   में ही उनके ऊपर से माता-पिता का साया उठ गया। दादा-दादी के सहारे   नाममात्र की शिक्षा ले पाए। उनकी मृत्यु के बाद वे चाचा की मांस की दुकान   में काम करने लगे। यहीं से लिखना भी आरंभ किया और उनकी कहानियां दिल्ली से   निकलने वाली अमर कहानी तथा रंगमहल में छपने लगी। उनके लेखन पर अल्मोड़ा के   प्रबुद्ध समाज में भी चर्चा होने लगी थी। इन्हीं लोगों ने एक बार उन्हें   कीमा कूटते हुए देखकर कटाक्ष किया- देखो, सरस्वती का कीमा कूटा जा रहा है!   इस से उन्हें गहरी चोट लगी। उन्होंने देवी से प्रार्थना की- माता सरस्वती,   चाहे जितना दु:ख देना लेकिन लेखक अवश्य बना देना! यह प्रार्थना जीवन भर   उनके भीतर गूंजती रही। बाद में चाचा का आसरा छोड़कर रोजी-रोटी की तलाश में   उन्हें इलाहाबाद, दिल्ली तथा मुंबई में दर-दर की ठोकर खाने को विवश होना   पड़ा। उनके जीवन में ऐसे भी दिन आये जब रोटी के लिए उन्हें हवालात का सहारा   लेना पड़ा। मुंबई में उन्होंने श्रीकृष्ण चाट हाउस में काम किया। जो समय   मिलता उसमें लिखते थे। इसी दौरान धर्मयुग सहित उस दौर की बड़ी पत्रिकाओं   में छपने लगे। वहां रहते हुए ही मुंबई के फुटपाथी जीवन पर बोरीवली से   बोरीबंदर तक उपन्यास लिखा जो अत्यधिक चर्चित हुआ। साहित्य जगत में पहचान   बनने लगी तो चाट हाउस की नौकरी छोड़कर लेखन के सहारे आगे की आजीविका चलाने   का संकल्प लिया। शैलेश मटियानी ने अपना पूरा जीवन लेखन के जुनून में जिया।   उन्हें कदम-कदम पर संघर्ष करना पड़ा लेकिन उन्होंने विपरीत परिस्थितियों के   आगे घुटने नहीं टेके। विकल्प तथा जनपक्ष का प्रकाशन किया। लेखकीय निष्ठा   पर सवाल उठाये जाने पर धर्मयुग के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई लड़ी।   इलाहाबाद में मकान आवंटन के मामले में भ्रष्ट अधिकारियों तथा अपराधियों के   गठजोड़ से लम्बी लड़ाई लड़ी जिसकी चरम परिणति के रूप में होनहार छोटे बेटे   को गंवाना पड़ा। इस आघात से उबरना उनके लिए संभव नहीं हो सका। फिर वे   इलाहाबाद छोड़कर हल्द्वानी आ गए। 9 जुलाई 1995 को भारतीय भाषा परिषद   कलकत्ता के कार्यक्रम में उनको मास डिप्रेशन का दौरा पड़ा। उपचार के लिए   हल्द्वानी से लखनऊ-दिल्ली आते-जाते रहे। इस बीच अपने साहित्यिक मित्रों से   एक आत्मकथा तथा एक बड़ा उपन्यास लिखने की इच्छा का जिक्र करते रहे। यह उनकी   लेखकीय निष्ठा और ऊर्जा ही थी कि गंभीर बीमारी के बावजूद वे   पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखते रहे। लम्बी मानसिक यंत्रणा के बाद 24 अप्रैल   2001 को उनका निधन हो गया।
उनके रचना कर्म पर टिप्पणी करते हुए हंस   संपादक ने अपने बहुचर्चित संपादकीय शैलेश मटियानी बनाम शैलेश मटियानी में   लिखा था- मटियानी को मैं भारत के उन सर्वश्रेष्ठ कथाकारों के रूप में देखता   हूं, जिन्हें विश्व साहित्य में इसलिए चर्चा नहीं मिली कि वे अंग्रेजी से   नहीं आ पाए। वे भयानक आस्थावान लेखक हैं और यही आस्था उन्हें टालस्टाय,   चेखव और तुर्गनेव जैसी गरिमा देती है। उन्होंने अद्र्धागिनी, दो दु:खों का   एक सुख, इब्बू-मलंग, गोपुली-गफुरन, नदी किनारे का गांव, सुहागिनी,   पापमुक्ति जैसी कई श्रेष्ठ कहानियां तथा कबूतरखाना, किस्सा नर्मदा बेन गंगू   बाई, चिट्ठी रसैन, मुख सरोवर के हंस, छोटे-छोटे पक्षी जैसे उपन्यास तथा   लेखक की हैसियत से, बेला हुइ अबेर जैसी विचारात्मक तथा लोक आख्यान से   संबद्ध उत्कृष्ट कृतियां हिंदी जगत को दीं। अपने विचारात्मक लेखन में   उन्होंने भाषा, साहित्य तथा जीवन के अंत:संबंध के बारे में प्रेरणादायी   स्थापनाएं दी हैं। साहित्य तथा मनुष्य के पारस्परिक संबंध पर उन्होंने लिखा   है- मनुष्य की जैसी महाकाव्यात्मक स्थिति साहित्य में मिलती है; इतिहास,   भूगोल, खगोल, अर्थशास्त्र या विज्ञान में न आज तक मिली है, न ही आगे मिल   सकती है। भाषा के प्रति अपनी अगाध आस्था को व्यक्त करते हुए वे उसे मनुष्य   की सर्वोच्च उपलब्धि मानते थे। साहित्य के बारे में उन्होंने लिखा है-   मनुष्य को उसकी ऊंचाइयों, सुख-दुख, रूप-स्वरूप और कार्यकलापों में पूरी   पारदर्शिता के साथ केवल साहित्य में ही देखा जा सकता है और यह बात तब तक के   लिए सत्य है जब तक कि मनुष्य जाति का अंत न हो जाए। इसी तरह लेखन को वे   मनुष्य के भीतर के आलोक को पहचानने का माध्यम मानते थे। उनके अनुसार जो   पाठक को चमत्कृत न कर सके, वैसा साहित्य स्मृति का विषय नहीं बन पाता।   लिखने को वे आहट उत्पन्न करना मानते थे। उन्होंने लिखा है- लेखन ऐसा होना   चाहिए कि लिखने वाले की स्मृतियां पढ़ने वालों को स्वयं की स्मृतियों में   ले जा सकें और यह तभी संभव होगा जबकि लेखक में गहरी संवेदना, सच्चाई तथा   पारदर्शिता होगी।
हिंदी के सभी दिग्गजों ने एक सुर में शैलेश मटियानी   को प्रेमचंद के बाद हिंदी कहानी का एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माना लेकिन   उनको वह सम्मान तथा चर्चा नहीं मिल सकी जिसके कि वे हकदार थे। इसकी एक वजह   यह भी रही कि वे लेखक को स्वतंत्र चेतना मानते थे तथा साहित्य में गुटबाजी   का विरोध करते थे। दुर्भाग्य से उनके निधन के बाद उनके लेखन पर चर्चा करने   के बजाय उनकी बीमारी तथा अवसाद के दौरान की स्थापनाओं को अनावश्यक तूल देकर   उनको पुरातनपंथी साबित करने की कोशिश की गयी। लोग भूल जाते हैं कि जिन   अन्तर्विरोधों तथा विरोधाभासों को वे शैलेश मटियानी पर थोपना चाहते हैं   क्या वे हमारे देश तथा समाज के अन्तर्विरोध नहीं है और क्या हम सभी उन   विरोधाभासों के बीच नहीं जी रहे। मारकेज ने कहा है, लेखक का सबसे बड़ा   कर्तव्य है कि वह अच्छा लिखे। इस मामले में शैलेश का जवाब नहीं है। उन्हें   कई पुरस्कार तथा सम्मान प्रदान किए गए। कुमाऊं विश्वविद्यालय नैनीताल ने   उन्हें डी.लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया। उन्होंने सच्चाई, गहरी   मानवीय संवेदना तथा लेखकीय स्वायत्तता की विरासत साहित्य को दी।
भारतीय   कथा में साहित्य की समाजवादी परंपरा से शैलेश मटियानी के कथा साहित्य का   अटूट रिश्ता है। वे दबे-कुचले भूखे नंगों दलितों उपेक्षितों के व्यापक   संसार की बड़ी आत्मीयता से अपनी कहानियों में पनाह देते हैं। वे सच्चे   अर्थो में भारत के गोर्की थे।



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                                            टिकटघर से आखिरी                       बस जा चुकने की सूचना दो बार दी जा चुकने के बावजूद नैनसिंह के                       पाँव अपनी ही जगह जमे रह गए। सामान आँखों की पहुँच में, सामने                       अहाते की दीवार पर रखा था। नज़र पड़ते ही, सामान भी जैसे यही                       पूछता मालूम देता था, कितनी देर है चल पड़ने में? नैनसिंह की                       उतावली और खीझ को दीवार पर रखा पड़ा सामान भी जैसे ठीक नैनसिंह                       की ही तरह अनुभव कर रहा था। एकाएक उसमे एक हल्का-सा कम्पन हुए                       होने का भ्रम बार-बार होता था, जबकि लोहे के ट्रंक, वी.आई.पी.                       बैग और बिस्तर-झोले में कुछ भी ऐसा न था कि हवा से प्रभावित                       होता।                      
सारा बंटाढार गाड़ी ने किया                       था, नहीं तो दीया जलने के वक्त तक गाँव के ग्वैठे में पाँव                       होते। ट्रेन में ही अनुमान लगा लिया था कि हो सकता है, गोधूली                       में घर लौटती गाय-बकरियों के साथ-साथ ही खेत-जंगल से वापस होते                       घर के लोग भी दूर से देखते ही किये नैनसिंह सुबेदार-जैसे चले आ                       रहे हैं? ख़ास तौर पर भिमुवा की माँ तो सिर्फ़ धुँधली-सी                       आभा-मात्र से पकड़ लेती कि कहीं रमुवा के बाबू तो नहीं?                       'सरप्राइज भिजिट' मारने के चक्कर में ठीक-ठाक तारीख भले ही                       नहीं लिखी'' मगर महीना तो यही दिसंबर का लिख दिया था? तारीख न                       लिखने का मतलब तो हुआ कि वह कृष्णपक्ष, शुक्लपक्ष -- 

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FIRST BOOK
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His first novel, Borivilli se Boribander tak was published in   1959, and in his career spanning five decades, he wrote numerous short   stories, novels and published many collections of stories and essays. He   was also known for his stories for children. He remained the editor of   two publications, 'Janpaksh' and 'Vikalp', for many years [1]. Thereafter, he moved to Haldwani,   where he spent the rest of his years, though suffering a depression   attack in July, 1995, he would often travelled to Delhi and Lucknow, for   treatment, despite that he continued writing prolifically [5]. He was awarded Mahapandit Rahul Sankrityayan Award for his contribution to Hindi Literature in 2000.
He died on April 24, 2001, in Delhi and was cremated at Haldwani [11].
 After his death, 'Shailesh Matiyani Smriti Katha Puraskar' was established by Madhya Pradesh Government.

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निबंध  आर्थिक और सामाजिक रूप से शोषित-दलित वर्ग उनकी कहानियों के केन्द्रीय   पात्र हैं। लेकिन काफी संख्या में उनके संस्मरण और निबंध संग्रह भी   प्रकाशित हैं।

1.  'मुख्य धारा का सवाल'

2. 'कागज की नाव'(१९९१),

3. 'राष्ट्रभाषा का सवाल' ,

4.  'यदा कदा',



लेखक की हैसियत से'



1.  'किसके राम कैसे राम'( १९९९),
2.  'जनता और साहित्य' (१९७६),

3.  'यथा प्रसंग' , 'कभी-कभार'(१९९३) ,

4.  'राष्ट्रीयता की चुनौतियां'(१९९७) और
5. 'किसे पता है राष्ट्रीय शर्म का मतलब'(१९९५) उनके संस्मरणों तथा निबंधों के संग्रह हैं।



पत्रों का संग्रह 'लेखक और संवेदना'(१९८३)   में संकलित है। मटियानी जी को उत्तर प्रदेश सरकार का संस्थागत सम्मान,   शारदा सम्मान, देवरिया केडिया सम्मान, साधना सम्मान और लोहिया सम्मान दिया   गया। उनकी कृतियों के कालजयी महत्व को देखते हुए प्रेमचंद के बाद मटियानी   का नाम लिया जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

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उपन्यास

मटियानी जी ने कई उपन्यास भी लिखे हैं। 'हौलदार'(१९६१), 'चिट्‌ठी रसेन'(१९६१), 'मुख सरोवर के हंस', 'एक मूठ सरसों'(१९६२), 'बेला हुई अबेर'(१९६२), 'गोपुली गफूरन'(१९६२), 'नागवल्लरी', 'आकाश कितना अनंत है' आदि उपन्यासों में वे उत्तराखंड के जीवन और अनुभव को रचना क्षेत्र के रूप में चुनते हैं। 'बोरीबली से बोरीबंदर', बंबई की वेश्याओं के जीवन पर आधारित एक आर्थिक उपन्यास है। 'भागे हुए लोग', 'मुठभेड़'(१९९३), 'चंद औरतों का शहर'(१९९२) पूरब के व्यापक हिन्दी क्षेत्र पर लिखा उपन्यास है। गरीबों के दमन-शोषण पर आधारित 'मुठभेड़' के लिए उन्हें हजारीबाग, बिहार के फणीश्वरनाथ रेणु पुरस्कार 1984 से सम्मानित किया गया। 'किस्सा नर्मदा बेन गंगू बाई', 'सावित्री', 'छोटे-छोटे पक्षी', 'बावन नदियों का संगम', 'बर्फ गिर चुकने के बाद', 'कबूतरखाना'(१९६०), 'माया सरोवर' (१९८७) और 'रामकली' उनके अन्य उपन्यास हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कहानी संग्रह  मटियानी जी में बचपन से ही एक लेखक बनने की धुन थी जो विकट से विकटतर   परिस्थितियों के बावजूद न टूटी। १९५० से ही उन्होंने कविताएं, कहानियां   लिखनी शुरू कर दीं, परंतु अल्मोड़ा में उन्हें उपेक्षा ही मिली। हालांकि   मटियानी जी नेे आरंभिक वर्षों में कुछ कविताएं भी लिखी, परंतु वे मूलतः एक   कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए। अगर विश्वस्तरीय प्रमुख कहानियों की   सूची बनाई जाए तो उनकी दस से ज्यादा कहानियां सूची में शामिल होंगी।


 उनकी   आरंभिक पंद्रह-बीस कहानियां 'रंगमहल' और 'अमर कहानी' पत्रिका में छपी थी।   उनका पहला कहानी संग्रह 'मेरी तैंतीस कहानियां'(१९६१)   के नाम से संग्रहित हैं। मटियानी जी की कालजयी कहानियां में 'डब्बू मलंग',   'रहमतुल्ला', 'पोस्टमैन', 'प्यास और पत्थर', 'दो दुखों का एक सुख', 'चील',   'अर्द्धांगिनी', ' जुलूस', 'महाभोज', 'भविष्य', और 'मिट्टी' आदि प्रमुख   हैं। 'डब्बू मलंग' एक दीन-हीन व्यक्ति की कथा है जिसे कुछ गुंडे पीर घोषित   कर लोगों को ठगते हैं। 'रहमतुल्ला' कहानी सांप्रदायिक स्थितियों पर कठोर   व्यंग्य है। 'चील' मटियानी जी की आत्मकथात्मक कहानी है जिसमें भूख की दारूण   स्थितियों का चित्रण है। 'दो दुखों का एक सुख' मैले-कुचैले भिखाड़ियों की   जीवन की विलक्षण कथा है। 'अर्द्धांगिनी' दांपत्य सुख की बेजोड़ कहानी है।   एक कहानीकार के रूप में वे नई कहानी आंदोल के सबसे प्रतिबद्ध कहानीकार हैं।   जिन्होंने बजाय किसी विदेशी प्रभाव के अपने मिट्टी की गंध और विशाल जीवन   अनुभव पर अपनी कहानी रची है। 'दो दुखों का एक सुख'(१९६६), 'नाच जमूरे नाच', 'हारा हुआ', 'जंगल में मंगल'(१९७५), 'महाभोज'(१९७५), 'चील' (१९७६), 'प्यास और पत्थर'(१९८२), एवं 'बर्फ की चट्टानें'(१९९०) उनके महत्वपूर्ण कहानी संग्रह हैं। 'सुहागिनी तथा अन्य कहानियां'(१९६७), 'पाप मुक्ति तथा अन्य कहानियां'(१९७३), 'माता तथा अन्य कहानियां'(१९९३),   'अतीत तथा अन्य कहानियां', 'भविष्य तथा अन्य कहानियां', 'अहिंसा तथा अन्य   कहानियां', 'भेंड़े और गड़ेरिए' उनका अन्य कहानी संग्रह है।


http://en.wikipedia.org/wiki/Shailesh_Matiyani

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शैलेश मटियानी
ईश्वर की मिठाई
प्रकाशक: आत्माराम एण्ड सन्स
  प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश      ईश्वर की मिठाई      एक था फसकियाराम। झाँसा देना उसका काम।
  एक दिन वह सूखी लकड़ियाँ काटने वन में गया। लकड़ियां कहीं मिली नहीं। एक  बहुत ऊँचे चीड़-वृक्ष की डालें सूखी हुई थीं।
  फसकियाराम तेज कुल्हाडी लेकर, उस ऊँचे चीड़-वृक्ष पर चढ़ गया।
  अपनी उमंग में, फसकियाराम ने सभी डालें काट तो डालीं, लेकिन यह भूल गया,  कि अब पेड़ से नीचे उतरेगा कैसे ? डालों का सहारा ले-लेकर चढ़ा था, अब  उतरे कैसे ?
  उतरने के नाम पर अब गला सूखने लगा, हिया दुखने लगा, कि आज झसकिया की माँ  का काला चरेवा (मंगल-सूत्र) टूटा ही समझूँ।
  अब फसकियाराम को चुपड़ी रोटियाँ, छोंकी सब्जियाँ याद आने लगीं। स्यौंरी  गाय का दूध, चौंरी भैंस का मट्ठा याद आने लगा। पूस की सर्दियाँ, जेठ की  गर्मियाँ याद आने लगीं, कि अब कहाँ ठंड से ठिठुरना, घाम से तपना नसीब होगा  !....
  गाँव की मिट्टी, सरोवर का पानी याद आने लगा, किससे शरीर मटैला होगा, किससे  प्यास बुझेगी ! अब फसकियाराम किसको ‘बौज्यू’ कहकर  पुकारेगा ?  अब किसे झसकियाराम की महतारी स्वामी कहेगी ?
  जब नीचे उतरने की कोई राह न सूझी और पैर थक जाने से ज्यादा देर पेड़ पर  रहना मुश्किल हो जाने से नीचे गिरने और मरने का भय उत्पन्न हो गया, तो  फसकियाराम को गाई का दूध, जाई का फूल याद आने लगा।   
    http://pustak.org:4300/bs/home.php?bookid=2950

 

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