Author Topic: Shekhar Joshi, Renowned Hindi Author From Uttarakhand-शेखर जोशी प्रसिद्ध लेखक  (Read 11432 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0

 
चक्की के निचले खंड में छिच्छर-छिच्छर की आवाज के साथ पानी को काटती हुई मथानी चल रही थी। कितनी धीमी आवाज! अच्छे खाते-पीते ग्वालों के घर में दही की मथानी इससे ज्यादा शोर करती है। इसी मथानी का वह शोर होता था कि आदमी को अपनी बात नहीं सुनाई देती और अब तो भले नदी पार कोई बोले, तो बात यहाँ सुनाई दे जाय।

छप्प छप्प छप्प पुरानी फौजी पैंट को घुटनों तक मोड़कर गुसाईं पानी की गूल के अंदर चलने लगा। कहीं कोई सूराख-निकास हो, तो बंद कर दे। एक बूँद पानी भी बाहर न जाए। बूँद-बूँद की कीमत है इन दिनों। प्राय: आधा फर्लांग चलकर वह बाँध पर पहुँचा। नदी की पूरी चौड़ाई को घेरकर पानी का बहाव घट की गूल की ओर मोड़ दिया गया था। किनारे की मिट्टी-घास लेकर उसने बाँध में एक-दो स्थान पर निकास बंद किया और फिर गूल
के किनारे-किनारे चलकर घट पर आ गया।

अंदर जाकर उसने फिर पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को बुहारकर ढेरी में मिला दिया। खप्पर में अभी थोड़ा-बहुत गेहूँ शेष था। वह उठकर बाहर आया।
दूर रास्ते पर एक आदमी सर पर पिसान रखे उसकी ओर जा रहा था। गुसाईं ने उसकी सुविधा का ख्याल कर वहीं से आवाज दे दी, "हैं हो! यहाँ लंबर देर में आएगा। दो दिन का पिसान अभी जमा है। ऊपर उमेदसिंह के घट में देख लो।"
उस व्यक्ति ने मुड़ने से पहले एक बार और प्रयत्न किया। खूब ऊँचे स्वर में पुकारकर वह बोला,"जरूरी है, जी! पहले हमारा लंबर नहीं लगा दोगे?"
गुसाईं होंठों-ही-होठों में मुस्कराया, स्साला कैसे चीखता है, जैसे घट की आवाज इतनी हो कि मैं सुन न सकूँ! कुछ कम ऊँची आवाज में उसने हाथ हिलाकर उत्तर दे दिया, "यहाँ जरूरी का भी बाप रखा है, जी! तुम ऊपर चले जाओ!"
वह आदमी लौट गया।
मिहल की छाँव में बैठकर गुसाईं ने लकड़ी के जलते कुंदे को खोदकर चिलम सुलगाई और गुड़-गुड़ करता धुआँ उड़ाता रहा

खस्सर-खस्सर चक्की का पाट चल रहा था।
किट-किट-किट-किट खप्पर से दाने गिरानेवाली चिड़िया पाट पर टकरा रही थी।
छिच्छर-छिच्छर की आवाज़ के साथ मथानी पानी को काट रही थी। और कहीं कोई आवाज़ नहीं। कोसी के बहाव में भी कोई ध्वनि नहीं। रेती-पाथरों के बीच में टखने-टखने पत्थर भी अपना सर उठाए आकाश को निहार रहे थे। दोपहरी ढलने पर भी इतनी तेज धूप! कहीं चिरैया भी नहीं बोलती। किसी प्राणी का प्रिय-अप्रिय स्वर नहीं।
सूखी नदी के किनारे बैठा गुसाईं सोचने लगा, क्यों उस व्यक्ति को लौटा दिया? लौट तो वह जाता ही, घट के अंदर टच्च
पड़े पिसान के थैलों को देखकर। दो-चार क्षण की बातचीत का आसरा ही होता।

कभी-कभी गुसाईं को यह अकेलापन काटने लगता है। सूखी नदी के किनारे का यह अकेलापन नहीं, जिंदगी-भर साथ देने के लिए जो अकेलापन उसके द्वार पर धरना देकर बैठ गया है, वही। जिसे अपना कह सके, ऐसे किसी प्राणी का स्वर उसके लिए नहीं। पालतू कुत्ते-बिल्ली का स्वर भी नहीं। क्या ठिकाना ऐसे मालिक का, जिसका घर-द्वार नहीं, बीबी-बच्चे नहीं, खाने-पीने का ठिकाना नहीं।

घुटनों तक उठी हुई पुरानी फौजी पैंट के मोड़ को गुसाईं ने खोला। गूल में चलते हुए थोड़ा भाग भीग गया था। पर इस गर्मी में उसे भीगी पैंट की यह शीतलता अच्छी लगी। पैंट की सलवटों को ठीक करते-करते गुसाईं ने हुक्के की नली से मुँह हटाया। उसके होठों में बाएँ कोने पर हलकी-सी मुस्कान उभर आई। बीती बातों की याद गुसाईं सोचने लगा, इसी पैंट की बदौलत यह अकेलापन उसे मिला है नहीं, याद करने को मन नहीं करता। पुरानी, बहुत पुरानी बातें वह भूल गया है, पर हवालदार साहब की पैंट की बात उसे नहीं भूलती।

ऐसी ही फौजी पैंट पहनकर हवालदार धरमसिंह आया था, लॉन्ड्री की धुली, नोकदार, क्रीजवाली पैंट! वैसी ही पैंट पहनने की महत्त्वाकांक्षा लेकर गुसाईं फौज में गया था। पर फौज से लौटा, तो पैंट के साथ-साथ जिंदगी का अकेलापन भी उसके साथ आ गया।

पैंट के साथ और भी कितनी स्मृतियाँ संबद्ध हैं। उस बार की
छुट्टियों की बात
कौन महीना? हाँ, बैसाख ही था। सर पर क्रास खुखरी के क्रेस्ट वाली, काली, किश्तीनुमा टोपी को तिरछा रखकर, फौजी वर्दी वह पहली बार एनुअल-लीव पर घर आया, तो चीड़ वन की आग की तरह खबर इधर-उधर फैल गई थी। बच्चे-बूढ़े, सभी उससे मिलने आए थे। चाचा का गोठ एकदम भर गया था, ठसाठस्स। बिस्तर की नई, एकदम साफ, जगमग, लाल-नीली धारियोंवाली दरी आँगन में बिछानी पड़ी थी लोगों को बिठाने के लिए। खूब याद है, आँगन का गोबर दरी में लग गया था। बच्चे-बूढ़े, सभी आए थे। सिर्फ चना-गुड़ या हल्द्वानी के तंबाकू का लोभ ही नहीं था, कल के शर्मीले गुसाईं को इस नए रूप में देखने का कौतूहल भी था। पर गुसाईं की आँखें उस भीड़ में जिसे खोज रही थीं, वह वहाँ नहीं थी।


नाला पार के अपने गाँव से भैंस के कट्या को खोजने के बहाने दूसरे दिन लछमा आई थी। पर गुसाईं उस दिन उससे मिल न सका। गाँव के छोकरे ही गुसाईं की जान को बवाल हो गए थे। बुढ्ढ़े नरसिंह प्रधान उन दिनों ठीक ही कहते थे, आजकल गुसाईं को देखकर सोबनियाँ का लड़का भी अपनी फटी घेर की टोपी को तिरछी पहनने लग गया है। दिन-रात बिल्ली के बच्चों की तरह छोकरे उसके पीछे लगे रहते थे, सिगरेट-बीड़ी या गपशप के लोभ में।

एक दिन बड़ी मुश्किल से मौका मिला था उसे। लछमा को पात-पतेल के लिए जंगल जाते देखकर वह छोकरों से कांकड़ के शिकार का बहाना बनाकर अकेले जंगल को चल दिया था। गाँव की सीमा से बहुत दूर, काफल के पेड़ के नीचे गुसाईं के घुटने पर सर रखकर, लेटी-लेटी लछमा काफल खा रही थी। पके, गदराए, गहरे लाल-लाल काफल। खेल-खेल में काफलों की छीना-झपटी करते गुसाईं ने लछमा की मुठ्ठी भींच दी थी। टप-टप काफलों का गाढ़ा लाल रस उसकी पैंट पर गिर गया था। लछमा ने कहा था, "इसे यहीं रख जाना, मेरी पूरी बाँह की कुर्ती इसमें से निकल आएगी।" वह खिलखिलाकर
अपनी बात पर स्वयं ही हँस दी थी।

पुरानी बात - क्या कहा था गुसाईं ने, याद नहीं पड़ता त़ेरे लिए मखमल की कुर्ती ला दूँगा, मेरी सुवा! या कुछ ऐसा ही।
पर लछमा को मखमल की कुर्ती किसने पहनाई होगी - पहाड़ी पार के रमुवाँ ने, जो तुरी-निसाण लेकर उसे ब्याहने आया था?
"जिसके आगे-पीछे भाई-बहिन नहीं, माई-बाप नहीं, परदेश में बंदूक की नोक पर जान रखनेवाले को छोकरी कैसे दे दें हम?" लछमा के बाप ने कहा था।
उसका मन जानने के लिए गुसाईं ने टेढ़े-तिरछे बात चलवाई थी।
उसी साल मंगसिर की एक ठंडी, उदास शाम को गुसाईं की यूनिट के सिपाही किसनसिंह ने क्वार्टर-मास्टर स्टोर के सामने खड़े-खड़े उससे कहा था, "हमारे गाँव के रामसिंह ने ज़िद की, तभी छुटि्टयाँ बढ़ानी पड़ीं। इस साल उसकी शादी थी। खूब अच्छी औरत मिली है, यार! शक्ल-सूरत भी खूब है, एकदम पटाखा! बड़ी हँसमुख है। तुमने तो देखा ही होगा, तुम्हारे गाँव के
नजदीक की ही है। लछमा-लछमा कुछ ऐसा ही नाम है।"

गुसांई को याद नहीं पड़ता, कौन-सा बहाना बनाकर वह किसनसिंह के पास से चला आया था, रम-डे थे उस दिन। हमेशा आधा पैग लेनेवाला गुसाईं उस दिन पेशी करवाई थी - मलेरिया प्रिकॉशन न करने के अपराध में। सोचते-सोचते गुसाईं बुदबुदाया, "स्साल एडजुटेन्ट!"
गुसाईं सोचने लगा, उस साल छुटि्टयों में घर से बिदा होने से एक दिन पहले वह मौका निकालकर लछमा से मिला था।
"गंगनाथज्यू की कसम, जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूँगी!" आँखों में आँसू भरकर लछमा ने कहा था।
वर्षों से वह सोचता आया है, कभी लछमा से भेंट होगी, तो वह अवश्य कहेगा कि वह गंगनाथ का जागर लगाकर प्रायश्चित जरूर कर ले। देवी-देवताओं की झूठी कसमें खाकर उन्हें नाराज़ करने से क्या लाभ? जिस पर भी गंगनाथ का कोप हुआ, वह कभी फल-फूल नहीं पाया। पर लछमा से कब भेंट होगी, यह वह नहीं जानता। लड़कपन से संगी-साथी नौकरी-चाकरी के लिए मैदानों में चले गए हैं। गाँव की ओर जाने का उसका मन नहीं होता। लछमा के बारे में किसी से पूछना उसे अच्छा नहीं लगता।

जितने दिन नौकरी रही, वह पलटकर अपने गाँव नहीं आया। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन का वालंटियरी ट्रांसफर लेनेवालों की लिस्ट में नायक गुसांईसिंह का नाम ऊपर आता रहा - लगातार पंद्रह साल तक।

पिछले बैसाख में ही वह गाँव लौटा, पंद्रह साल बाद, रिज़र्व में आने पर। काले बालों को लेकर गया था, खिचड़ी बाल लेकर लौटा। लछमा का हठ उसे अकेला बना गया।

आज इस अकेलेपन में कोई होता, जिसे गुसाईं अपनी जिंदगी की किताब पढ़कर सुनाता! शब्द-शब्द, अक्षर-अक्षर कितना देखा, कितना सुना और कितना अनुभव किया है उसने
पर नदी किनारे यह तपती रेत, पनचक्की की खटर-पटर और मिहल की छाया में ठंड़ी चिलम को निष्प्रयोजन गुड़गुड़ाता गुसाईं। और चारों ओर अन्य कोई नहीं। एकदम निर्जन, निस्तब्ध, सुनसान -
एकाएक गुसाईं का ध्यान टूटा।

सामने पहाड़ी के बीच की पगडंडी से सर पर बोझा लिए एक नारी आकृति उसी ओर चली आ रही थी। गुसाईं ने सोचा वहीं से आवाज देकर उसे लौटा दे। कोसी ने चिकने, काई लगे पत्थरों पर कठिनाई से चलकर उसे वहाँ तक आकर केवल निराश लौट जाने को क्यों वह बाध्य करे। दूर से चिल्ला-चिल्लाकर पिसान स्वीकार करवाने की लोगों की आदत से वह तंग आ चुका था। इस कारण आवाज देने को उसका मन नहीं हुआ। वह आकृति अब तक पगडंडी छोड़कर नदी के मार्ग में आ पहुँची थी।
चक्की की बदलती आवाज को पहचानकर गुसाईं घट के अंदर चला गया। खप्पर का अनाज समाप्त हो चुका था। खप्पर में एक कम अन्नवाले थैले को उलटकर उसने अन्न का निकास रोकने के लिए काठ की चिड़ियों को उलटा कर दिया। किट-किट का स्वर बंद हो गया। वह जल्दी-जल्दी आटे को थैले में भरने लगा। घट के अंदर मथानी की छिच्छर-छिच्छर की आवाज भी अपेक्षाकृत कम सुनाई दे रही थी। केवल चक्की के ऊपरवाले पाट की घिसटती हुई घरघराहट का हल्का-धीमा संगीत चल रहा था। तभी गुसाईं ने सुना अपनी पीठ के पीछे, घट के द्वार पर, इस संगीत से भी मधुर एक नारी का कंठस्वर, "कब बारी आएगी, जी? रात की रोटी के लिए भी घर में आटा नहीं है।"

सर पर पिसान रखे एक स्त्री उससे यह पूछ रही थी। गुसाईं को उसका स्वर परिचित-सा लगा। चौंककर उसने पीछे मुड़कर देखा। कपड़े में पिसान ढीला बंधा होने के कारण बोझ का एक सिरा उसके मुख के आगे आ गया था। गुसाईं उसे ठीक से नहीं देख पाया, लेकिन तब भी उसका मन जैसे आशंकित हो उठा। अपनी शंका का समाधान करने के लिए वह बाहर आने को मुड़ा, लेकिन तभी फिर अंदर जाकर पिसान के थैलों को इधर-उधर रखने लगा। काठ की चिड़ियाँ किट-किट बोल रही थीं और उसी गति के साथ गुसाईं को अपने हृदय की धड़कन का आभास हो रहा था।
घट के छोटे कमरे में चारों ओर पिसे हुए अन्य का चूर्ण फैल रहा था, जो अब तक गुसाईं के पूरे शरीर पर छा गया था। इस कृत्रिम सफेदी के कारण वह वृद्ध-सा दिखाई दे रहा था। स्त्री ने उसे नहीं पहचाना।
उसने दुबारा वे ही शब्द दुहराए। वह अब भी तेज धूप में बोझा सर पर रखे हुए गुसाईं का उत्तर पाने को आतुर थी। शायद नकारात्मक उत्तर मिलने पर वह उलटे पाँव लौटकर किसी अन्य चक्की का सहारा लेती।
 
(Source -http://www.abhivyakti-hindi.org)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0

 
दूसरी बार के प्रश्न को गुसाईं न टाल पाया, उत्तर देना ही पड़ा, "यहाँ पहले ही टीला लगा है, देर तो होगी ही।" उसने दबे-दबे स्वर में कह दिया।
स्त्री ने किसी प्रकार की अनुनय-विनय नहीं की। शाम के आटे का प्रबंध करने के लिए वह दूसरी चक्की का सहारा लेने को लौट पड़ी।
गुसाईं झुककर घट से बाहर निकला। मुड़ते समय स्त्री की एक झलक देखकर उसका संदेह विश्वास में बदल गया था। हताश-सा वह कुछ क्षणों तक उसे जाते हुए देखता रहा और फिर अपने हाथों तथा सिर पर गिरे हुए आटे को झाड़कर एक-दो कदम आगे बढ़ा। उसके अंदर की किसी अज्ञात शक्ति ने जैसे उसे वापस जाती हुई उस स्त्री को बुलाने को बाध्य कर दिया। आवाज़ देकर उसे बुला लेने को उसने मुँह खोला, परंतु आवाज न दे सका। एक झिझक, एक असमर्थता थी, जो उसका मुँह बंद कर रही थी। वह स्त्री नदी तक पहुँच चुकी थी। गुसाईं के अंतर में तीव्र उथल-पुथल मच गई। इस बार आवेग इतना तीव्र था कि वह स्वयं को नहीं रोक पाया, लड़खड़ाती आवाज में उसने पुकारा, "लछमा!"
घबराहट के कारण वह पूरे जोर से आवाज नहीं दे पाया था। स्त्री ने यह आवाज नहीं सुनी। इस बार गुसाईं ने स्वस्थ होकर पुन: पुकारा, "लछमा!"

लछमा ने पीछे मुड़कर देखा। मायके में उसे सभी इसी नाम से पुकारते थे, यह संबोधन उसके लिए स्वाभाविक था। परंतु उसे शंका शायद यह थी कि चक्कीवाला एक बार पिसान स्वीकार न करने पर भी दुबारा उसे बुला रहा है या उसे केवल भ्रम हुआ है। उसने वहीं से पूछा, "मुझे पुकार रहे हैं, जी?
गुसाईं ने संयत स्वर में कहा, "हाँ, ले आ, हो जाएगा।"
लछमा क्षण-भर रूकी और फिर घट की ओर लौट आई।
अचानक साक्षात्कार होने का मौका न देने की इच्छा से गुसाईं व्यस्तता का प्रदर्शन करता हुआ मिहल की छाँह में चला गया।
लछमा पिसान का थैला घट के अंदर रख आई। बाहर निकलकर उसने आँचल के कोर से मुँह पोंछा। तेज धूप में चलने के कारण उसका मुँह लाल हो गया था। किसी पेड़ की छाया में विश्राम करने की इच्छा से उसने इधर-उधर देखा। मिहल के पेड़ की छाया में घट की ओर पीठ किए गुसाईं बैठा हुआ था। निकट स्थान में दाड़िम के एक पेड़ की छाँह को छोड़कर अन्य कोई बैठने लायक स्थान नहीं था। वह उसी ओर चलने लगी।

गुसाईं की उदारता के कारण ऋणी-सी होकर ही जैसे उसने निकट आते-आते कहा, "तुम्हारे बाल-बच्चे जीते रहें, घटवारजी! बड़ा उपकार का काम कर दिया तुमने! ऊपर के घट में भी जाने कितनी देर में लंबर मिलता।"
अजात संतति के प्रति दिए गए आशीर्वचनों को गुसाईं ने मन-ही-मन विनोद के रूप में ग्रहण किया। इस कारण उसकी मानसिक उथल-पुथल कुछ कम हो गई। लछमा उसकी ओर देखे, इससे पूर्व ही उसने कहा, "जीते रहे तेरे बाल-बच्चे लछमा! मायके कब आई?"
गुसाईं ने अंतर में घुमड़ती आँधी को रोककर यह प्रश्न इतने संयत स्वर में किया, जैसे वह भी अन्य दस आदमियों की तरह लछमा के लिए एक साधारण व्यक्ति हो।
दाड़िम की छाया में पात-पतेल झाड़कर बैठते लछमा ने शंकित दृष्टि से गुसाईं की ओर देखा। कोसी की सूखी धार अचानक जल-प्लावित होकर बहने लगती, तो भी लछमा को इतना आश्चर्य न होता, जितना अपने स्थान से केवल चार कदम की दूरी पर गुसाईं को इस रूप में देखने पर हुआ। विस्मय से आँखें फाड़कर वह उसे देखे जा रही थी, जैसे अब भी उसे विश्वास न हो रहा हो कि जो व्यक्ति उसके सम्मुख बैठा है, वह उसका पूर्व-परिचित गुसाईं ही है।

"तुम?" जाने लछमा क्या कहना चाहती थी, शेष शब्द उसके कंठ में ही रह गए।
"हाँ, पिछले साल पल्टन से लौट आया था, वक्त काटने के लिए यह घट लगवा लिया।" गुसाईं ने ही पूछा, "बाल-बच्चे ठीक हैं?"
आँखें जमीन पर टिकाए, गरदन हिलाकर संकेत से ही उसने बच्चों की कुशलता की सूचना दे दी। ज़मीन पर गिरे एक दाड़िम के फूल को हाथों में लेकर लछमा उसकी पंखुड़ियों को एक-एक कर निरुद्देश्य तोड़ने लगी और गुसाईं पतली सींक लेकर आग को कुरेदता रहा।
बातों का क्रम बनाए रखने के लिए गुसाईं ने पूछा, "तू अभी और कितने दिन मायके ठहरनेवाली है?"
अब लछमा के लिए अपने को रोकना असंभव हो गया। टप्-टप्-टप्, वह सर नीचा किए आँसू गिराने लगी। सिसकियों के साथ-साथ उसके उठते-गिरते कंधों को गुसाईं देखता रहा। उसे यह नहीं सूझ रहा था कि वह किन शब्दों में अपनी सहानुभूति प्रकट करे।
इतनी देर बाद सहसा गुसाईं का ध्यान लछमा के शरीर की ओर गया। उसके गले में चरेऊ (सुहाग-चिह्न) नहीं था। हतप्रभ-सा गुसाईं उसे देखता रहा। अपनी व्यावहारिक अज्ञानता पर उसे बेहद झुँझलाहट हो रही थी।

आज अचानक लछमा से भेंट हो जाने पर वह उन सब बातों को भूल गया, जिन्हें वह कहना चाहता था। इन क्षणों में वह केवल-मात्र श्रोता बनकर रह जाना चाहता था। गुसाईं की सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि पाकर लछमा आँसू पोंछती हुई अपना दुखड़ा रोने लगी, "जिसका भगवान नहीं होता, उसका कोई नहीं होता। जेठ-जेठानी से किसी तरह पिंड छुड़ाकर यहाँ माँ की बीमारी में आई थी, वह भी मुझे छोड़कर चली गई। एक अभागा मुझे रोने को रह गया है, उसी के लिए जीना पड़ रहा है। नहीं तो पेट पर पत्थर बाँधकर कहीं डूब मरती, जंजाल कटता।"
"यहाँ काका-काकी के साथ रह रही हो?" गुसाईं ने पूछा।
"मुश्किल पड़ने पर कोई किसी का नहीं होता, जी! बाबा की जायदाद पर उनकी आँखें लगी हैं, सोचते हैं, कहीं मैं हक न जमा लूँ। मैंने साफ-साफ कह दिया, मुझे किसी का कुछ लेना-देना नहीं। जंगलात का लीसा ढो-ढोकर अपनी गुजर कर लूँगी, किसी की आँख का काँटा बनकर नहीं रहूँगी।"
गुसाईं ने किसी प्रकार की मौखिक संवेदना नहीं प्रकट की। केवल सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से उसे देखता-भर रहा। दाड़िम के वृक्ष से पीठ टिकार लछमा घुटने मोड़कर बैठी थी। गुसाईं सोचने लगा, पंद्रह-सोलह साल किसी की जिंदगी में अंतर लाने के लिए कम नहीं होते, समय का यह अंतराल लछमा के चेहरे पर भी एक छाप छोड़ गया था, पर उसे लगा, उस छाप के नीचे वह आज भी पंद्रह वर्ष पहले की लछमा को देख रहा है।

"कितनी तेज धूप है, इस साल!" लछमा का स्वर उसके कानों में पड़ा। प्रसंग बदलने के लिए ही जैसे लछमा ने यह बात जान-बूझकर कही हो।
और अचानक उसका ध्यान उस ओर चला गया, जहाँ लछमा बैठी थी। दाड़िम की फैली-फैली अधढँकीं डालों से छनकर धूप उसके शरीर पर पड़ रही थी। सूरज की एक पतली किरन न जाने कब से लछमा के माथे पर गिरी हुई एक लट को सुनहरी रंगीनी में डूबा रही थी। गुसाईं एकटक उसे देखता रहा।
"दोपहर तो बीत चुकी होगी," लछमा ने प्रश्न किया तो गुसाईं का ध्यान टूटा, "हाँ, अब तो दो बजनेवाले होंगे," उसने कहा, "उधर धूप लग रही हो तो इधर आ जा छाँव में।" कहता हुआ गुसाईं एक जम्हाई लेकर अपने स्थान से उठ गया।
"नहीं, यहीं ठीक है," कहकर लछमा ने गुसाईं की ओर देखा, लेकिन वह अपनी बात कहने के साथ ही दूसरी ओर देखने लगा था।

घट में कुछ देर पहले डाला हुआ पिसान समाप्ति पर था। नंबर पर रखे हुए पिसान की जगह उसने जाकर जल्दी-जल्दी लछमा का अनाज खप्पर में खाली कर दिया।
धीरे-धीरे चलकर गुसाईं गुल के किनारे तक गया। अपनी अंजुली से भर-भरकर उसने पानी पिया और फिर पास ही एक बंजर घट के अंदर जाकर पीतल और अलमुनियम के कुछ बर्तन लेकर आग के निकट लौट आया।
आस-पास पड़ी हुई सूखी लकड़ियों को बटोरकर उसने आग सुलगाई और एक कालिख पुती बटलोई में पानी रखकर जाते-जाते लछमा की ओर मुँह कर कह गया, "चाय का टैम भी हो रहा है। पानी उबल जाय, तो पत्ती डाल देना, पुड़िया में पड़ी है।"

लछमा ने उत्तर नहीं दिया। वह उसे नदी की ओर जानेवाली पगडंडी पर जाता हुआ देखती रही।
सड़क किनारे की दुकान से दूध लेकर लौटते-लौटते गुसाईं को काफी समय लग गया था। वापस आने पर उसने देखा, एक छ:-सात वर्ष का बच्चा लछमा की देह से सटकर बैठा हुआ है।
बच्चे का परिचय देने की इच्छा से जैसे लछमा ने कहा, "इस छोकरे को घड़ी-भर के लिए भी चैन नहीं मिलता। जाने कैसे पूछता-खोजता मेरी जान खाने को यहाँ भी पहुँच गया है।"
गुसांई ने लक्ष्य किया कि बच्चा बार-बार उसकी दृष्टि बचाकर माँ से किसी चीज के लिए जिद कर रहा है। एक बार झुँझलाकर लछमा ने उसे झिड़क दिया, "चुप रह! अभी लौटकर घर जाएँगे, इतनी-सी देर में क्यों मरा जा रहा है?"

चाय के पानी में दूध डालकर गुसाईं फिर उसी बंजर घट में गया। एक थाली में आटा लेकर वह गूल के किनारे बैठा-बैठा उसे गूँथने लगा। मिहल के पेड़ की ओर आते समय उसने साथ में दो-एक बर्तन और ले लिए।

लछमा ने बटलोई में दूध-चीनी डालकर चाय तैयार कर दी थी। एक गिलास, एक एनेमल का मग और एक अलमुनियमके मैसटिन में गुसाईं ने चाय डालकर आपस में बाट ली और पत्थरों से बने बेढंगे चूल्हे के पास बैठकर रोटियाँ बनाने का उपक्रम करने लगा।

हाथ का चाय का गिलास जमीन पर टिकाकर लछमा उठी। आटे की थाली अपनी ओर खिसकाकर उसने स्वयं रोटी पका देने की इच्छा ऐसे स्वर में प्रकट की कि गुसाईं ना न कह सका। वह खड़ा-खड़ा उसे रोटी पकाते हुए देखता रहा। गोल-गोल डिबिया-सरीखी रोटियाँ चूल्हे में खिलने लगीं। वर्षों बाद गुसाईं ने ऐसी रोटियाँ देखी थीं, जो अनिश्चित आकार की फौज़ी लंगर की चपातियों या स्वयं उसके हाथ से बनी बेडौल रोटियों से एकदम भिन्न थीं। आटे की लोई बनाते समय लछमा के छोटे-छोटे हाथ बड़ी तेज़ी से घूम रहे थे। कलाई में पहने हुए चांदी के कड़े जब कभी आपस में टकरा जाते, तो खन्-खन् का एक अत्यंत मधुर स्वर निकलता। चक्की के पाट पर टकरानेवाली काठ की चिड़ियों का स्वर कितना नीरस हो सकता है, यह गुसाईं ने आज पहली बार अनुभव किया।

किसी काम से वह बंजर घट की ओर गया और बड़ी देर तक खाली बर्तन-डिब्बों को उठाता-रखता रहा।
वह लौटकर आया, तो लछमा रोटी बनाकर बर्तनों को समेट चुकी थी और अब आटे में सने हाथों को धो रही थी।
गुसाईं ने बच्चे की ओर देखा। वह दोनों हाथों में चाय का मग थामे टकटकी लगाकर गुसाईं को देखे जा रहा था। लछमा ने आग्रह के स्वर में कहा, "चाय के साथ खानी हों, तो खा लो। फिर ठंडी हो जाएँगी।"
"मैं तो अपने टैम से ही खाऊँगा। यह तो बच्चे के लिए" स्पष्ट कहने में उसे झिझक महसूस हो रही थी, जैसे बच्चे के संबंध में चिंतित होने की उसकी चेष्टा अनधिकार हो।
"न-न, जी! वह तो अभी घर से खाकर ही आ रहा है। मैं रोटियाँ बनाकर रख आई थी," अत्यंत संकोच के साथ लछमा ने आपत्ति प्रकट कर दी।
"ऐं, यों ही कहती है। कहाँ रखी थीं रोटियाँ घर में?" बच्चे ने रूआँसी आवाज में वास्तविक व्यक्ति की बातें सुन रहा था और रोटियों को देखकर उसका संयम ढ़ीला पड़ गया था।
"चुप!" आँखें तरेरकर लछमा ने उसे डाँट दिया। बच्चे के इस कथन से उसकी स्थिति हास्यास्पद हो गई थी, इस कारण लज्जा से उसका मुँह आरक्त हो उठा।
"बच्चा है, भूख लग आई होगी, डाँटने से क्या फायदा?" गुसाईं ने बच्चे का पक्ष लेकर दो रोटियाँ उसकी ओर बढ़ा दीं। परंतु माँ की अनुमति के बिना उन्हें स्वीकारने का साहस बच्चे को नहीं हो रहा था। वह ललचाई दृष्टि से कभी रोटियों की ओर, कभी माँ की ओर देख लेता था।
गुसाईं के बार-बार आग्रह करने पर भी बच्चा रोटियाँ लेने में संकोच करता रहा, तो लछमा ने उसे झिड़क दिया, "मर! अब ले क्यों नहीं लेता? जहाँ जाएगा, वहीं अपने लच्छन दिखाएगा!"
इससे पहले कि बच्चा रोना शुरू कर दें, गुसाईं ने रोटियों के ऊपर एक टुकड़ा गुड़ का रखकर बच्चे के हाथों में दिया। भरी-भरी आँखों से इस अनोखे मित्र को देखकर बच्चा चुपचाप रोटी खाने लगा, और गुसाईं कौतुकपूर्ण दृष्टि से उसके हिलते हुए होठों को देखता रहा।
इस छोटे-से प्रसंग के कारण वातावरण में एक तनाव-सा आ गया था, जिसे गुसाईं और लछमा दोनों ही अनुभव कर रहे थे।

स्वयं भी एक रोटी को चाय में डुबाकर खाते-खाते गुसाईं ने जैसे इस तनाव को कम करने की कोशिश में ही मुस्कराकर कहा, "लोग ठीक ही कहते हैं, औरत के हाथ की बनी रोटियों में स्वाद ही दूसरा होता है।"
लछमा ने करुण दृष्टि से उसकी ओर देखा। गुसाईं हो-होकर खोखली हँसी हँस रहा था।
"कुछ साग-सब्ज़ी होती, तो बेचारा एक-आधी रोटी और खा लेता।" गुसाईं ने बच्चे की ओर देखकर अपनी विवशता प्रकट की।
"ऐसी ही खाने-पीनेवाले की तकदीर लेकर पैदा हुआ होता तो मेरे भाग क्यों पड़ता? दो दिन से घर में तेल-नमक नहीं है। आज थोड़े पैसे मिले हैं, आज ले जाऊँगी कुछ सौदा।"
हाथ से अपनी जेब टटोलते हुए गुसाईं ने संकोचपूर्ण स्वर में कहा, "लछमा!"
लछमा ने जिज्ञासा से उसकी ओर देखा। गुसाईं ने जेब से एक नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, "ले, काम चलाने के लिए यह रख ले, मेरे पास अभी और है। परसों दफ्तर से मनीआर्डर आया था।"
"नहीं-नहीं, जी! काम तो चल ही रहा है। मैं इस मतलब से थोड़े कह रही थी। यह तो बात चली थी, तो मैंने कहा," कहकर लछमा ने सहायता लेने से इन्कार कर दिया।

गुसाईं को लछमा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। रूखी आवाज में वह बोला, "दु:ख-तकलीफ के वक्त ही आदमी आदमी के काम नहीं आया, तो बेकार है! स्साला! कितना कमाया, कितना फूँका हमने इस जिंदगी में। है कोई हिसाब! पर क्या फायदा! किसी के काम नहीं आया। इसमें अहसान की क्या बात है? पैसा तो मिट्टी है स्साला! किसी के काम नहीं आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी!"
परन्तु गुसाईं के इस तर्क के बावजूद भी लछमा अड़ी रही, बच्चे के सर पर हाथ फेरते हुए उसने दार्शनिक गंभीरता से कहा, "गंगनाथ दाहिने रहें, तो भले-बुरे दिन निभ ही जाते हैं, जी! पेट का क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो, कम हो जाय। अपने-पराये प्रेम से हँस-बोल दें, तो वह बहुत है दिन काटने के लिए।"
गुसाईं ने गौर से लछमा के मुख की ओर देखा। वर्षों पहले उठे हुए ज्वार और तूफान का वहाँ कोई चिह्न शेष नहीं था। अब वह सागर जैसे सीमाओं में बँधकर शांत हो चुका था।

रुपया लेने के लिए लछमा से अधिक आग्रह करने का उसका साहस नहीं हुआ। पर गहरे असंतोष के कारण बुझा-बुझा-सा वह धीमी चाल से चलकर वहाँ से हट गया। सहसा उसकी चाल तेज हो गई और घट के अंदर जाकर उसने एक बार शंकित दृष्टि से बाहर की ओर देखा। लछमा उस ओर पीठ किए बैठी थी। उसने जल्दी-जल्दी अपने निजी आटे के टीन से दो-ढ़ाई सेर के करीब आटा निकालकर लछमा के आटे में मिला दिया और संतोष की एक साँस लेकर वह हाथ झाड़ता हुआ बाहर आकर बाँध की ओर देखने लगा। ऊपर बाँध पर किसी को घूमते हुए देखकर उसने हाँक दी। शायद खेत की सिंचाई के लिए कोई पानी तोड़ना चाहता था।

बाँध की ओर जाने से पहले वह एक बार लछमा के निकट गया। पिसान पिस जाने की सूचना उसे देकर वापस लौटते हुए फिर ठिठककर खड़ा हो गया, मन की बात कहने में जैसे उसे झिझक हो रही हो। अटक-अटककर वह बोला, "लछमा।"
लछमा ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। गुसाईं को चुपचाप अपनी ओर देखते हुए पाकर उसे संकोच होने लगा। वह न जाने क्या कहना चाहता है, इस बात की आशंका से उसके मुँह का रंग अचानक फीका होने लगा। पर गुसाईं ने झिझकते हुए केवल इतना ही कहा, "कभी चार पैसे जुड़ जाएँ, तो गंगनाथ का जागर लगाकर भूल-चूक की माफी माँग लेना। पूत-परिवारवालों को देवी-देवता के कोप से बचा रहना चाहिए।" लछमा की बात सुनने के लिए वह नहीं रुका।

पानी तोड़नेवाले खेतिहार से झगड़ा निपटाकर कुछ देर बाद लौटते हुए उसने देखा, सामनेवाले पहाड़ की पगडंडी पर सर पर आटा लिए लछमा अपने बच्चे के साथ धीरे-धीरे चली जा रही थी। वह उन्हें पहाड़ी के मोड़ तक पहुँचने तक टकटकी बाँधे देखता रहा।

घट के अंदर काठ की चिड़ियाँ अब भी किट-किट आवाज कर रही थीं, चक्की का पाट खिस्सर-खिस्सर चल रहा था और मथानी की पानी काटने की आवाज आ रही थी, और कहीं कोई स्वर नहीं, सब सुनसान, निस्तब्ध
 
http://www.abhivyakti-hindi.org

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
श्री शेखर जोशी

 श्री शेखर जोशी ka सितम्बर १९३२ में अल्मोड़ा जनपद के ओजिया गाँव में जन्मे श्री शेखर जोशी की प्रारंभिक शिक्षा अजमेर और देहरादून में हुयी। कथा लेखन को दायित्वपूर्ण कर्म मानने वाले जोशी हिंदी के सुपरिचित कथाकार हैं।

उन्हें उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार-१९८७,
साहित्य भूषण-१९९५
पहल सम्मान-१९९७ से सम्मानित किया जा चुका है।

आपकी कहानियों का विभिन्न भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी, चेक, रूसी, पोलिश और जापानी भाषाओँ में अनुवाद किया जा चुका है। कुछ कहानियों का मंचन और दाज्यू नमक कहानी पर बाल फिल्म सोसायटी द्वारा फिल्म का निर्माण किया गया है। आपकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं- कोशी का घटवार, साथ के लोग, हलवाहा, नौरंगी बीमार है, मेरा पहाड़, प्रतिनिधि कहानियां और एक पेड़ की याद। दाज्यू, कोशी का घटवार, बदबू, मेंटल जैसी कहानियों ने न सिर्फ शेखर जोशी के प्रशाशंकों की लम्बी जमात खडी की बल्कि नयी कहानी की पहचान को भी अपने तरीके से प्रभावित किया है। पहाड़ी इलाकों की गरीबी, कठिन जीवन संघर्ष, उत्पीडन, यातना, प्रतिरोध, उम्मीद और नाउम्मीद्दी से भरे औद्योगिक मजदूरों के हालात, शहरी-कस्बाई और निम्नवर्ग के सामाजिक-नैतिक संकट, धर्म और जाती में जुडी घटक रूढ़ियाँ- ये सभी उनकी कहानियों का विषय रहे हैं।


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
Shekhar Joshi (शेखरजोशी) (Born. September, 1939) is a renowned Hindi author, who is equally famous for being his hallmark insight into the culture, traditions and lifestyles of people of Uttarakhand, as late Shailesh Matiyani, together they created a composite image of ethos of Kumaon for the rest of nation. His most known works are Dajyu (Big Brother) and Kosi Ka Ghatwar (The Miller of Kosi).
Biography

Shekhar Joshi was born in September, 1939, in village Ojiyagaon, in Almora district of Uttarakhand in a farmers family and received his early education at Dehradun and Ajmer, and thereafter while studying in Intermediate he got selected for Defense Institute of E.M.I. and went to work within the Defense establishment from 1955 to 1986, when he resigned to take up full-time writing.

His acclaimed story, Dajyu (Big Brother in Kumaoni) has also been made into a children’s film by Children's Film Society of India. Kosi Ka Ghatwar (The Miller of Kosi) and many other stories have been translated into English, Russian, Czech, Polish and Japanese
Bibliography

    10 Pratinidhi Kahaniyan by Shekhar Joshi (Hindi), ISBN 04217-5286.
    Naurangi Bimar Hai by Shekhar Joshi, Rajkamal Publications.
    The Miller of Kosi by Shekhar Joshi. Modern Hindi Short Stories; translated by Jai Ratan. New Delhi, Srishti, 2003, Chapter 5. ISBN 81-88575-18-6.
    Bachche Ka Sapna by Shekhar Joshi, 2004 (Hindi). ISBN 8186209441.
    Dangri Vale by Shekhar Joshi, 1998.
    Mera Pahar by Shekhar Joshi.
    "Big Brother" by Shekhar Joshi (Dajyu), Andersen 1994.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
 
 Shekhar Joshi claims Iffco Sahitya Award

IFFCO’s ’Shri Lal Shukla Memorial Sahitya Samman’ for the year 2012 will go to the distinguished Hindi writer Shri Shekhar Joshi.
The award would be presented at Lucknow in October this year. A committee of Hindi literary luminaries headed by Rajendra Yadav the editor of the esteemed Hindi monthly ‘ Hans’ has nominated Shri Joshi for the award.
The award was instituted by the fertilizer cooperative giant IFFCO in the memory of the great Hindi novelist and writer Shri Lal Shukla in the year 2011. Shri Lal Shukla’s literary creations such as Rag Darbari and some of his other works received national acclaim.
The award is given in recognition of the literary works depicting the authentic life of rural India.  Shri Shekhar Joshi has authored a number of critically appreciated short stories in this genre.
The first Srilal Shukla Memorial IFFCO Sahitya Award was given to Vidya Sagar Nautiyal by Union Agriculture Minister Sharad Pawar in Delhi last year.
The award carries an amount of Rs.5.51lakhs and citation.


(source- http://indiancooperative.com

हेम पन्त

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 4,326
  • Karma: +44/-1
कथाकार स्व. विद्यासागर नौटियाल का देहांत के पश्चात उन पर कथाकार शेखर जोशी का संस्‍मरण-
___________-
कभी-कभी लिखी गई पुरानी डायरी के एक पन्ने में दिनाँक 5 नवंबर 1958 को दर्ज ये पंक्तियाँ आधी शताब्दी पूर्व के उन दिनों की याद दिला देती है जब मैं सुरक्षा विभाग की एक वर्कशॉप में नियुक्ति पाकर इलाहाबाद पहुँचा था और विद्यासागर नौटियाल टिहरी से बनारस हिन्‍दू विश्वविद्यालय में पढ़ने पहुँचे वहाँ छात्र नेता के रूप में सक्रिय थे: 5 नवंबर’58

कल मार्शल आए थे। बनारस वि.वि. में वाडिया की मीटिंग के बाद उन्होंने जो भाषण दिया उसी को बातें कर रहे थे-

I stand here as the representative of the ten thousand or phans of BHU. I call them orphans because their father, the VC has disowned them and their mother, the university, has been murdered by the friends of their father.

उन्हें अफसोस था कि भैरव जी ने उनकी कहानी ‘फुलियारी’ की एडिटिंग कर के हत्या कर दी है। कहानी का अंत जो उन्होंने मूल रूप से दिया था मुझे अच्छा लगा। संघर्ष के इन दिनों में उनकी (लेखक की) मानसिक परिस्थिति की ही प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति थी।

मुझे याद नहीं कि नौटियाल जी के लिए यह ‘मार्शल’ संबोधन तब बनारस के सभी साथियों के बीच प्रचलित था अथवा भारत-नेपाल सीमा के एक जमींदार परिवार से आये चुलबुले छात्र अक्षोभ्येश्वरी प्रताप मिश्र से मैंने इसे ग्रहण किया था। अक्षोभ्य, जो बाद में ए. प्रताप के रूप में दूरदर्शन के प्रोड्यूसर बने और जिनका असमय ही देहान्त हो गया, उन कई बनारसी साथियों में से एक थे जो तब साहित्य को दुनिया में कदम रखने का प्रयत्न कर रहे थे।

उत्तर प्रदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पहाड़ से आये हुये युवाओं ने छात्रसंघों की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और कालांतर में देश की राजनीति में भी उनका महत्वपूर्ण स्थान रहा है। कॉमरेड पी.सी. जोशी,  नारायणदत्त तिवारी, हेमवतीनंदन बहुगुणा, पूरनचंद जोशी (आज के प्रसिद्ध समाजशास्त्री) इलाहाबाद और लखनऊ विश्वविद्यालयों के ख्यातिनाम छात्रनेता रहे हैं। उनकी पृष्ठभूमि कुमाऊँ-गढ़वाल के बड़े कस्बों की रही है जहाँ सामाजिक जीवन में अपेक्षाकृत अधिक जागरूकता थी। लेकिन विद्यासागर ने टिहरी के पिछड़े इलाके में आकर बनारस में अपनी धाक जमाई थी, यहाँ यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि मैदानी इलाके के बहुसंख्यक छात्रों के बीच अपनी बोली-बानी और चाल-ढाल से ये पहाड़ी युवा कुछ विशिष्ट लगते होंगे। जैसे- कहा जाता है, एक सज्जन कभी साइकिल चलाना नहीं सीख पाये और पैदल ही पूरा शहर छान मारते थे। यही नहीं, यूनिवर्सिटी से चौक की ओर जाते हुये (पहाड़ की आदत में अनुसार) अपने साथियों को सूचित कर जाते थे, ‘जरा नीचे चौक तक जा रहा हूँ पार्टी दफ्तर में’ या वहाँ से लौटते हुए पार्टी दफ्तर के कार्यकर्ताओं से कहते, ‘अब चलता हूँ, ऊपर यूनिवर्सिटी जाना है’। सुनते हैं, उन्हें याद दिलाना पड़ता था कि यहाँ सब समतल है, नीचे-ऊपर वाला मामला नहीं है। तो ऐसी परिस्थिति में मैदानी इलाके में आकर अपना सिक्का जमा लेना बड़ी बात थी। विद्यासागर नौटियाल का प्रभाव क्षेत्र बनारस तक ही सीमित नहीं था। वह सन् 1958 में मात्र 25 वर्ष की आयु में ऑल इण्डिया स्टूडैण्ट फेडरेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिए गए थे।

उन दिनों हिन्‍दी में जिन पत्रिकाओं की धूम थी उनमें हैदराबाद से प्रकाशित ‘कल्पना’ और सरस्वती प्रेस इलाहाबाद से निकलने वाली ‘कहानी’ पत्रि‍कायें प्रमुख थीं। नौटियाल जी की कहानी ‘भैंस का कट्या’ पहली बार 1954 में ‘कल्पना’ में छपी थी और उसकी अच्छी चर्चा रही थी। मार्कण्डेय का कहानी संग्रह ‘पानफूल’ भी ‘कल्पना’  से संबंधित प्रकाशन से ही प्रकाशित हुआ था। बनारस के युवा लेखकों का दल इलाहाबाद पहुँचता और हम लोग भी कभी-कभी बनारस का चक्कर लगा आते। तब बिरला छात्रावास में कविवर विश्वनाथ त्रिपाठी का कमरा, जिसके एक कोने में मेज पर अभिनेत्री नरगिस का फोटो रखा रहता था, हमारा स्थाई अड्डा था। अक्षोभ्येश्वरी प्रताप भी उसी छात्रावास में थे। विजयमोहन सिंह शायद शहर में कहीं अपने निजी आवास में रहते थे। विष्णुचंद्र शर्मा कालभैरव से गुटका पत्रिका ‘कवि’ का संपादन-प्रकाशन करते थे जिसके अगले अंक की सबको उत्सुक प्रतीक्षा रहती थी। केदार जी की नई कविताएँ सुनने का लोभ रहता था। उनसे इलाहाबाद आने का आग्रह करते। नामवर जी अक्सर इलाहाबाद आते रहते थे। वरिष्ठ पत्रकार श्रीकृष्णदास जी के घर पर मार्कण्डेय जी के कमरे में बैठकी जमती और वहीं ‘कहानी’ पत्रिका के लिए मासिक स्तंभ लिखा जाता।

नामवर जी ने जब चकिया-चन्दौली से लोकसभा के लिए कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से चुनाव लड़ा तब हम कुछ लोग इलाहाबाद से वहाँ पहुँचे थे। नौटियाल कंधे पर माइक रख कर दिन-दिन भर चुनाव प्रचार में जुटे रहे थे। खेतों के रास्ते, पगडंडियों पर धूप में चलते हुए, नारे लगाते लोगों का जुलूस और जोश देखते ही बनता था।

इन प्रारम्भिक मुलाकातों में ही मुझे विद्यासागर नौटियाल की जुझारू प्रकृति और स्पष्टवादिता का परिचय मिल गया था। उनमें एक पहाड़ी आदमी का अक्खड़ स्वभाव और आत्मसम्मान मुझे अपने अनुकूल लगा था। इस स्पष्टवादिता, अक्खड़पन और पहाड़ी स्वाभिमान ने उस बार इलाहाबाद में जो गुल खिलाया वह अप्रत्याशित था।

इलाहाबाद उन दिनों हिन्‍दी साहित्य का केन्‍द्र माना जाता था जहाँ एक ओर हि‍न्‍दी-उर्दू के अनेक प्रख्यात लेखक, कवि, कथाकार प्रगतिशील धारा से जुड़े थे वहीं दूसरी ओर एक अच्छी संख्या ऐसे प्रतिभाशाली रचनाकारों की भी थी जिनकी पहचान प्रयोगवादियों के रूप में की जाती थी। दोनों गुटों के बीच स्वस्थ रचनात्मक प्रतिद्वंद्विता के साथ वैचारिक वाद-सम्‍वाद भी चलता रहता था। सन् 1957 के दिसंबर माह में इलाहाबाद के प्रगतिशील लेखकों की पहल पर वहाँ पर एक अभूतपूर्व लेखक-सम्मेलन का आयोजन किया गया था। हिन्‍दी के प्रायः सभी नये-पुराने लेखक, कवि, कथाकार, नाटककार, आलोचक वहाँ उपस्थित हुए थे, शिवप्रसाद सिंह के साथ-साथ विश्वनाथ त्रिपाठी, विजयमोहन सिंह, अक्षोभ्येश्वरी प्रताप, विष्णुचंद्र शर्मा और विद्यासागर नौटियाल ने भी बनारस से आकर सम्मेलन में भागीदारी की थी।

लेखक सम्मेलन में सहित्य की विभिन्न विधाओं के लिए अलग-अलग कक्षों में गोष्ठियों की व्यवस्था की गई थी जहाँ उस विधा के रचनाकार और आलोचक अपनी विधागत समस्याओं पर विचार-विनिमय करने वाले थे। कहानी गोष्ठी की अध्यक्षता के लिए यशपाल जी का नाम प्रस्तावित था।

सम्मेलन स्थल पर गोष्ठी प्रारम्‍भ होने से पूर्व हम कुछ मित्रगण आगे होने वाले कार्यक्रम के सम्‍बन्‍ध में चर्चा कर रहे थे। इलाहाबाद में उन दिनों मैं और अमरकांत जी एक ही मुहल्ले में रहते थे। हमारे पड़ोस से ही संस्कृत के विद्वान और वृहद ‘संस्कृत साहित्य का इति‍हास’ के लेखक पंडि‍त वाचस्‍पति‍ गैरोला भी रहते थे जो गढ़वाल के मूल निवासी थे। यूँ गैरोला जी का हिन्‍दी कथा साहित्य से कुछ विशेष लगाव नहीं था लेकिन हम दोनों पड़ोसी कहानीकारों की संगत में उनकी मित्रता भैरवप्रसाद गुप्त और मार्कण्डेय से भी हो गई थी। गैरोला जी भी हम लोगों के साथ श्रोता और दर्शक के रूप में सम्मेलन स्थल पर पहुँचे थे।

उस जमाने में यशपाल हिन्‍दी के शीर्षस्थ जीवित कहानीकार माने जाते थे और मार्क्‍सवाद के प्रति‍ आस्था रखने वालों के लिये तो वह निर्विवाद प्रेरणा स्रोत थे। बातों-बातों में नौटियाल जी ने यशपाल की पहाड़ी पृष्ठभूमि पर लिखी हुई कुछ कहानियों का जिक्र करते हुए अपना मत प्रकट किया कि वह आज यशपाल जी से पूछेंगे कि उन्होंने उन कहानियों में पहाड़ की नारी का ऐसा चित्रण क्यों किया जिसे पढ़कर पाठक के मन में उसके प्रति अस्वस्थ धारण बनती है। फिर अन्य दूसरी बातें होती रहीं और नियत समय पर हम लोगों ने कहानी गोष्ठी वाले कक्ष में प्रवेश किया। वहाँ युवा कथाकारों का विशाल समूह एकत्र था। खूब गहमागहमी हो रही थी। मुझे याद है, कुछ देर बाद बहस शहरी बनाम ग्रामीण कहानी जैसे निरर्थक मुद्दे की ओर मुड़ गई थी। शहरी कथाकारों में राजेंद्र यादव और मोहन राकेश प्रमुख थे तो ग्रामीण कथाकारों में मार्कण्डेय और शिवप्रसाद सिंह! कमलेश्वर कस्बाई कथाकार की अलख जगाए थे। अधिकांश कहानीकार इस प्रकार के विभाजन के पक्ष में नहीं थे।

सहसा एक धमाका हुआ- श्रोताओं के बीच बंद गले का जोधपुरी कोट और चुस्त पैंट पहने एक कृशकाय व्यक्ति ने अध्यक्ष की ओर तर्जनी उठा कर तीखे स्वर में प्रश्न दागा, ‘‘आपने अपनी कहानियों में पर्वतीय नारी का अशोभन चित्रण क्यों किया है?’’ हॉल में सन्नाटा छा गया। यशपाल जी ने शायद कहा था, ‘‘मैं आपके पश्न का उत्तर दूँगा।’’ और गोष्ठी की कार्यवाही पूर्ववत चलने लगी। अपने अध्यक्षीय भाषण के समय यशपाल जी की नजरें क्रुद्ध प्रश्नकर्ता गैरोला जी को खोज रही थीं लेकिन वह प्रश्न दागने के तत्काल बाद ही उठ कर चल दिये थे। उत्प्रेरक बंधुवर नौटियाल भी शायद यशपाल जी के स्पष्टीकरण से संतुष्ट हो गए थे।

बनारस में रहते हुए विद्यासागर नौटियाल को कॉमरेड रुस्तम सैटिन, प्रो. चंद्रबली सिंह और जगत शंखधर जी से जो राजनीतिक, साहित्यिक संस्कार मिले थे उनका गहरा प्रभव तो था ही, उसके अतिरिक्त मुक्त पहाड़ी जीवन के प्रति दबा-छिपा आकर्षण उन्हें किसी सीमित जैविक दायरे में नहीं बाँध पाया और वह कुलवक्ती पार्टी कार्यकर्ता के रूप मे लौटकर पहाड़ आ गये। अपनी राजनीतिक व्यस्तताओं के चलते नौटियाल के साहित्यिक सरोकार भी कुछ शिथिल पड़ गये और भौगोलिक दूरी के कारण हम लोग परस्पर सम्‍पर्क विहीन हो गए।

याद है, कुछ वर्षों बाद एक दिन गर्मियों की दुपहर में अकस्मात नौटियाल इलाहाबाद में हमारे घर आ पहुँचे। नया सफेद झक्क खद्दर का कुर्ता-पाजामा और हाथ मे छाता लिये हुये। अपनी इस नई झक्क पोशाक में कुछ असहज सा अनुभव करते हुए उन्होंने स्वयं ही खुलासा कि‍या, ‘सुचेता भाभी ने दिया है। सीधे जेल से छूट कर आ रहा हूँ।’ उन दिनों सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं। देशभक्तों की कैद में नौटियाल जी ने राजनीतिक कारणों से लम्‍बा वक्त गुजारा है।

विद्यासागर नौटियाल ने देश-विदेश की अनेकों यात्राएँ की हैं। बहुत कुछ देख-सुना है। सम्‍भव है कभी इनके यात्रा संस्मरणों की पूरी पुस्तक ही पढ़ने को मिले। परन्‍तु अभी तो (डॉ. पूरन चंद्र जोशी की तरह) हमें भी उनसे पूछना है कि अपनी सोवियत संघ की यात्राओं के दौरान उन्हें सम्‍भावि‍त विघटन के लक्षणों का आभास हुआ था या नहीं? यदि हाँ, तो उन्होंने इसका उल्लेख कभी अपने लेखन मे किया या बहुत से अन्य लोगों की तरह ‘घर की बात’ समझ कर मौन रखना ही उचित समझा? यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान एक संक्षिप्त पत्र में उन्होंने मुझे वहाँ की जो स्‍थि‍ति‍ बयान की है वह उनकी पैनी दृष्टि और सामाजिक सरोकारों का प्रत्यक्ष उदाहरण है। दिनाँक 15 नवंबर 2005 को सनीवेल, कैलिफोर्निया से भेजे गये पत्र में विद्यासागर लिखते हैं-

‘मैं यहाँ किसी से ज्यादा सम्‍पर्क कर नहीं पाता। हमारे यहाँ पहुँच जाने के बाद 26 अक्‍तूबर को बेटी विद्युत के बेटे अतिशय ने जन्म लिया, जिसका पूरा नाम यों है- बालसुब्रमण्यन अच्तुत अतिशय। दीपावली उसी नये आये मेहमान के साथ बिताई। अपना समय भी उसके साथ कट जाता है। एक अपार्टमेंट के अन्‍दर रहते हुये अमेरिका को देखने-जानने लगा हूँ। एक डरा हुआ समाज, जिसमें किसी का किसी पर भरोसा नहीं। हर आदमी अपने में मस्त है या उलझा है। आपको होटल में, स्टोर में, पार्क में, सड़क पर या राह में कोई सुन्‍दर सा बच्चा दिखाई दिया। उसकी तरफ देख कर हँसना या कोई इशारा करना तो दूर की बात, हो सके तो उसकी ओर नजर ही मत डालिये। कोई पूछ सकता है- आपने मेरे बच्चे को इशारा क्यों किया? यह प्रश्न हथियार के बल पर भी पूछा जा सकता है।

अपने सबसे पास के पुस्तकालय में गया था एक दिन बेटी का कार्ड लेकर। वहाँ हिन्‍दी की कोई पुस्तक नहीं थी। लाइब्रेरियन ने मदद करनी चाही। कम्प्यूटर पर सूचना एकत्र कर एक दूसरी लाइब्रेरी का पता बताया, जहाँ हिन्‍दी की तीन पत्रिकाएँ आती हैं- सरिता, गृहशोभा और एक ऐसी ही पत्रिका जिसका मुझे नाम तक याद नहीं रह पाया। सनीवेल में भारतवासी चारों तरफ मौजूद मिलेंगे। उनकी संख्या नौ प्रतिशत है। पंजाबी, आंध्रा, तमिल, तेलुगु, गुजराती बड़ी दुकाने मौजूद हैं। सब प्रकार के भारतीय व्यंजन व पकवान उपलब्ध हैं। भारत के कच्चे, पक्के नारियल से लेकर अमूल मक्खन, हल्दीराम का प्रत्येक माल, हर तरह के मसाले, दालें और आंध्रा के चावल से लेकर देहरादून की बासमती तक सब कुछ मिल जाता है। दीवाली के मौके पर सड़क से जिन घरों में लडि़याँ जलती दिखाई देती थीं हम समझ जाते थे कि वे हिंदुस्तानी परिवारों के घर हैं। मेरे निकटतम अपार्टमेंट्स में कई भारतीय परिवार हैं। उनसे हमारी देखा-देखी होती है। दुआ-सलाम नहीं। उनमें से किसी को कभी हमारे घर आना होगा तो पहले फोन कर देंगे कि हम आ रहे हैं। अपने में उलझे हुए लोगों को कोई फुर्सत ही नहीं है।

लकड़ी के दुमंजिला भवन हैं, जिनमें हम रह रहे हैं। मेरे दामाद का कार्यालय यहाँ से बहुत करीब है: सिनाप्सिस एक सॉफ्टवेयर कम्पनी है। उसके भवन कई मंजिला हैं। लेकिन वे भी सब लकड़ी के बने हैं। बाहर से पता नहीं लग सकता कि यह भवन लकड़ी का बना होगा। अंदर बाथरूम तक में गलीचे बिछे हैं। स्नान टब से बाहर करने की कोई सुविधा या जरूरत नहीं। किचन में भी गलीचे बिछे हैं। आधी सर्दी तो यों ही दूर हो जाती है। घर के भीतर का बाथरूम आदि में कहीं भी जूता या चप्पल पहनने का सवाल ही पैदा नहीं होता।’

टिहरी बाँध के औचित्य को लेकर सरकार से एक लम्‍बे संघर्ष के दौर में उन्हें आर्थिक क्षति के साथ बहुत समय भी गँवाना पड़ा। इस दौरान उनकी साहित्यिक गतिविधियाँ प्रायः स्थगित रहीं। कुछ लोगों को शिकायत रही कि उन्होंने पराजय स्वीकार कर सरकार से अपनी जमीन-जायदाद का मुआवजा ले लिया है। शायद ये ऐसे ही लोग थे जो बाँध की योजना से अप्रभावित होने के साथ दूसरों से ही कुर्बानी देने की अपेक्षा रखते हैं। उन्हीं दिनों दिल्ली में मेरी उनसे भेंट हुई थी। उनके साथ युवा फिल्मकार अनवर जमाल भी थे जिन्होंने टिहरी पर एक वृत्तचित्र बनाया है। मैंने लोगों की शिकायतों के आधार पर मुआवजा स्वीकार करने के औचित्य पर उनसे प्रश्न किया तो उन्होंने बहुत व्यवहारिक उत्तर मुझे दिया था, ‘‘देखों भाई शेखर जी, किसी शहर में आपका मकान है, नगरपालिका वाले किसी योजना के तहत आपसे कहें कि हम यह मकान गिराएँगे, आप मुआवजा लेकर कहीं और बस जाओ। आपकी स्थिति अपने दम पर दूसरा मकान बना लेने की नहीं है और आप जानते हैं नगरपालिका आपके विरोध के बावजूद मकान ढहा ही देगी। तब आप क्या करेंगे? बाल-बच्चों को लेकर सड़क पर तो नहीं आ सकते। चार दीवारें उठा कर उनके ऊपर छत डालने के अलावा आपके पास चारा क्या है?’’ उनका तर्क मुझे ठीक लगा था। विशेष रूप से उस स्थिति में जब मुआवजे का लेन-देन भी एक धंधा बन गया हो और लोग नगरपालिका से साँठ-गाँठ कर मुआवजा लेने के लिए ढाँचे खड़े कर रहे हों। जिनके स्थायी भवन थे उनकी आधी-अधूरी कीमत भी भले सरकार ने दे दी हो लेकिन अपनी जड़ों से विस्थापन का कोई मूल्य चुका सकता है? जब तक आप जीवित रहेंगे आपको दिल में चुभे उस कांटे को बर्दाश्त करना ही होगा।

उत्तर प्रदेश सरकार में अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हुए विधायक कामरेड नौटियाल जब लखनऊ में सक्रिय रहे तब विधानसभा की कार्यवाही में योगदान देते हुए उन्हें एक बार भी सुन पाने का सुयोग मुझे नहीं मिल पाया। उनके भाषणों का पाठ करते हुए कल्पना ही कर सकता हूँ कि बी.एच.यू. का वह भूतपूर्व छात्रनेता वहाँ अपनी चुटीली भाषा में पहाड़ के अनाथों की कथा-व्यथा सुनाते हुए सरकार की कैसी खबर लेता होगा।

विधायकी का एक दौर और तीस वर्ष की वकालत की जीवनचर्या से मुक्ति पाकर विद्यासागर नौटियाल फिर एक बार साहित्य की दुनिया में लौट आए। यह उनके पाठकों और मित्रों के लिए प्रसन्नता का विषय है। कहानियाँ, उपन्यास, संस्मरण, साहित्यिक विमर्श हर विधा में महत्वपूर्ण योगदान देते हुए वह आज लेखनी के माध्यम से समाज का ऋण चुकता कर रहे हैं।

नौटियाल जी के यात्रा-संस्मरण ‘भीम अकेला’ को पढ़ कर मैंने उसे जातीय स्मृति का दस्तावेज कहा था। मेरी मान्यता है कि केवल भीम अकेला ही नहीं, नौटियाल जी का अधिकांश लेखन जातीय स्मृति का गौरवाशाली दस्तावेज है। यमुना के बागी बेटे, टिहरी, नंदादेवी, श्रीदेव सुमन, नागेंद्र सकलानी, मोहन उत्प्रेती, आचार्य डबराल जी की गाथा हमारी जातीय स्मृति की अनमोल धरोहर है।

टिहरी गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों की छवियाँ उनके साहित्य में अपनी सम्पूर्ण अंतरंगता के साथ उपस्थित हैं। आकाश छूती ऊँचाइयों पर हरे-भरे बुग्यालों में अपने पशुओं के साथ एकाकी जीवन बिताने वाले गूजर हों अथवा घाटी में संघर्षशील जीवन व्यतीत करने वाले ग्रामीण, सभी अपनी विशिष्ट मुद्राओं में हमें अपनी जिजीविषा से चमत्कृत कर देते हैं। उनके जीवन प्रसंगों में काठिन्य, करुणा, दैन्य के अतिरिक्त प्रेम, माधुर्य और विनोद भी है। ऐसी विडंबनापूर्ण स्थितियाँ भी हैं जिन्हें पढ़ कर किसी संवेदनशील पाठक के होठों पर मुस्कान उतर आए, आँखें छलछला जाएँ। बिना बोहनी हुए उधार चाय न देने वाले दुकानदार के उधारी ग्राहक नकद चाय पीने वाले ग्राहक के आँगन में सुबह-सबेरे बैठे प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह कब सोकर उठे और दुकान की ओर चले। अधीर प्रतीक्षा के बीच वे उसे बीच-बीच में पुकार भी रहे हैं ‘अब उठ जा यार!’ जीवन को खुली आँखों देखने वाले विद्यासागर अबाधगति से रचनारत रहें, यही कामना है।

साहित्य के प्रमुख केंद्रों से दूर बैठकर साहित्य रचना करते हुए नौटियाल जी को निश्चय ही मित्रों के बीच अपनी रचनाएँ पढ़ने और उनका अभिमत जानने की ललक रहती होगी ताकि प्रकाशक को पाँडुलिपि देने से पूर्व वह अपने कृतित्व की नोक-पलक सुधार लें। यूँ, देहरादून में भी एक आत्मीय लेखक समाज है जिसमें हम्माद फारुकी साहब, जितेन्द्र जी, कांतिमोहन ‘सोज’, सुभाष पन्त, ओमप्रकाश वाल्मीकि, अल्पना मिश्र, कुसुम भट्ट, गुरदीप खुराना, विजय गौड़ आदि हैं लेकिन उनका मन होता होगा कि जिनके साथ उन्होंने लेखन की शुरुआत की थी वे उन्हें पहले की तरह अपनी खरी राय देकर आश्वस्त करें। दिनांक 12 मई 1993 को देहरादून से लिखे गये पत्र में वह कहते हैं-

अप्रैल अंत में त्रिलोचन शास्त्री की अध्यक्षता में सादतपुर में संपन्न एक गोष्ठी में, ‘सूरज सबका है’ का पाठ कर आया। इसके पाँच पृष्ठ कभी ‘सर्वनाम’ में छपे थे।

मैंने डॉ. काशीनाथ सिंह को लिखा है कि वे एक गोष्ठी जुलाई-अगस्त में काशी में आयोजित कर सकें तो लिखें, जिसमें मैं कुछ चुने हुए लोगों को ‘सूरज सबका है’ उपन्यास के कुछ अंश सुना सकूँ। काशी से आते-जाते क्या प्रयाग में एक ऐसी गोष्ठी आयोजित की जा सकेगी? निर्णय आपको करना है। मैं इधर लेखन पर ही अपना ध्यान केंद्रित कर रहा हूँ।

सन् 1930 में टिहरी के सामंती शासन ने रवाई जनता पर निर्मम गोलीचार्ज किया था। उसे तिलाड़ी हत्याकांड के रूप में जाना जाता है। उसी पर एक उपन्यास की तैयारी कर रहा हूँ।

ऐसे सक्रिय रचनाकार के जीवन में एक व्यतिक्रम आ पड़ा। टिहरी बाँध के कारण उन्हें अपना गृहनगर छोड़ कर देहरादून में आकर घर बसाना पड़ा था। यह तब भी गनीमत थी कि वहाँ रहते हुए वह पहाड़ों से दूर नहीं हुए थे। लेकिन जून 2004 में जब मैं गर्मियाँ बिताने ईटानगर (अरुणाचल) गया हुआ था, नौटियाल ने 9 जून 2004 के पत्र में नोएडा से मुझे सूचित किया:

बीमार हूँ। घर में ताला डाल कर यहाँ एम्स में एन्जियोग्राफी करवाई- डॉक्टरों ने सर्जरी के लिए कहा है। छठी मंजिल में दिन गुजारने की विवशता है। यहाँ किसी से सम्‍पर्क नहीं हो पाता। कभी-कभार विष्णु को फोन कर लेता हूँ। हाथ से लिखने की आदत नहीं रह गई है, कंप्यूटर बिखरा पड़ा है। 8 पुस्तकें विजयमोहन जी से माँग लाया था। सोचा सर्जरी के बाद किसने देखा! एक दिन लौटा आया। अब कुछ भी अपने पास नहीं। सुबह को हिन्‍दी-अंग्रेजी अखबार आ जाते हैं, उन्हीं को ताका करता हूँ।

इसी क्षणिक अनिश्चितता की मनःस्थिति के बाद ही अगले पैराग्राफ में उनकी जीवन्तता और सामाजिकता मुखर हो उठी:

आपने हाथ चलाया और कहानी लिख डाली। मेरे लिए यह सबसे अच्छा समाचार है। आपकी श्रीमती जी का स्वास्थ्य आशा है अब पूरी तरह ठीक होगा। ईटानगर में रहते हुये डायरी तो लिख ही सकते हैं। बाद में काम आएगी। आप एक बार अपना आलस्य त्यागिए लिखने के मामले में। हम लोग अगले वक्तों के लोग नहीं हैं। जब तक हम हैं ज़माना हमारा होगा। अमरकांत के बारे में जान-सुन कर अच्छा लगता है। सक्रिय हैं, सब कुछ होने के बावजूद।

इधर मौसम बहुत अच्छा होने लगा है। दिन के बारह बज रहे हैं। बगैर पंखे के कमरे के अंदर बैठ कर यह पत्र लिख रहा हूँ। ‘साक्षात्कार’ में श्रीकांत वर्मा की डायरी प्रकाशित हुई है। अद्भुत है। वहाँ के समाचार दीजिए, अच्छा लगता है।

पुनश्चः निराश भूपेन हजारिका ने राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा की है। बेचारे। यह भी सर मुंडवाकर ही हुआ।

कुछ माह पश्चात मैं पत्नी चंद्रकला के साथ नोएडा उनसे मिलने गया। सेक्टर-50 के ए.टी.एस. ग्रीन्स में एक बहुमंजिला इमारत के छठे माले में वह बिस्तर पर लेटे हुये थे। गढ़वाल के दुर्गम डांडों, गहरी घाटियों और आकाश छूते विस्तृत बुग्यालों को अपने पैरों से नापने वाला वह दुर्दान्त पगचारी सीमेंट के जंगल में छठी मंजिल के एक छोटे से कमरे में लाचार पड़ा था। मेरा मन भर आया। लेकिन नौटियाल जी के चेहरे पर बहुत दिनों बाद मिलने की खुशी फैली थी।

मैंने उन्हें केवल दो बार अपने आँसुओं को रोकते हुए देखा है। एक बार जब इलाहाबाद में उनकी बेटी अपने दो छोटे-छोटे बच्चों को अनाथ कर किसी गंभीर बीमारी के कारण चल बसी और दूसरी बार देहरादून के टाउनहॉल में जहाँ उन्हें प्रतिष्ठित ‘पहल’ सम्मान प्रदान किया जा रहा था। लेखकीय वक्तव्य में अपने जीवनानुभवों की चर्चा करते हुए एक प्रसंग पर उनका गला अवरुद्ध हो गया और आँखें भर आई थीं। वह प्रसंग एक सफाईकर्मी वृद्धा से जुड़ा था जो देहरादून के किसी मुहल्ले में घरों की सफाई निबटाकर उन घरों से मिली हुई रोटियां किसी मकान में भूमिगत नौटियाल जी और उनके साथियों के लिए रोज छिपा कर लाया करती थी। विद्यासागर उस अनाम माँ को नमन करते हुए भावुक हो गये थे।

विद्यासागर नौटियाल कई मामलों में एकदम मौलिक आदमी हैं। अपने बेटों के लिए इस्पाती और पंचशील तथा बेटियों के लिए विद्युत और अंतरिक्षा नाम चुनने वाले के लिए किसी ने कभी ‘मार्शल’ जैसा संबोधन चुना था तो वह गलत नहीं था।

अपने जन्मशताब्दी वर्ष में किसी रात नौटियाल जी के स्वप्न में आकर यदि पी.सी. जोशी उनसे कहें, ‘भाऊ, तेरा भवन अभी पूरा नहीं हुआ’ तो वह फिर पूरी शिद्दत के साथ पहाड़ की महागाथा लिखने में जुट जाएँगे।

यही कामना है।
(नोट: कुमाऊँनी में ‘भाऊ’ संबोधन छोटे भाई के लिए किया जा है।)

(शेखर जोशी की पुस्‍तक ‘स्‍मृति में रहें वे’ से साभार)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
From  -Amitabh Pande

Hello,

This message is form Shekhar Joshji..
 I am typing on his behalf..

Message for Sri. M. S. Mehta.

" Thanks for the input.
There are a few errors which need correction for the site.
1. My date of birth is 10th Sept 1932.
2. I was born in OLIYAGAON (post RANBAN), Dist ALMORA.
3. Story collections one each from National Book Trust(Shekhar Joshi: Snakalit Kahaniyan) and (Aadmai ka dar) contain all my stories.
4. Last year a collection of poems like UNE NA ROKO SHUBHA has come out from Sahitya Bhandar, Allahabad
5. Other books include SMRITI ME RAHEN VE and EK PERHD KI YAAD  containing memories, repartage and sketches.

And lastly,
Incidently the Shrilal Shukla Smriti IFFCO Award Carried Rs. 11 Lacs. "

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22