Author Topic: शेर दा अनपढ -उत्तराखंड के प्रसिद्ध कवि-SHER DA ANPAD-FAMOUS POET OF UTTARAKHAND  (Read 91521 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Mahi Singh Mehta We are producing an exclusive Interview of Sher Da which he had given to Mr Charu Tiwari Ji (Editor Janpaksh Magazine) & our Senior Member.
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 ‘मन में हो लगन, मु_ी में हो गगन’
 
 कुमाऊनी भाषा के जाने-माने कवि शेर सिंह बिष्ट ‘अनपढ़’ का जीवन सफर इतना रोचक रहा है कि उस पर एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। वह कभी स्कूल नहीं गये, पर स्कूल जाने वाले बड़े-बड़े बुद्धिजीवी भी उनकी कविता मेें निहित सादगी, गांभीर्य और हास्य को देखकर हतप्रभ रह जाते हैं। शेर दा के स्वभाव में बचपन से एक मस्ती है और इसी मस्ती में उन्होंने पहाड़ को लेकर जो रचनाकर्म किया है उसमें इतना वैविध्य और चुटीलापन है कि कोई भी उनकी कविता सुनकर उन्हें दाद दिये बगैर नहीं रह सकता। अपनी इसी मस्ती में वह अस्सी पार कर चुके हैं और अभी भी उनका रचनाकर्म जारी है। हल्द्वानी में उनके श्याम विहार स्थित आवास पर उनके जीवन और रचनाकर्म पर जब वरिष्ठ पत्रकार दीप भट्ट की उनसे विस्तार से बातचीत हुई तो उनकी यादों का सिलसिला उमड़ पड़ा। फिर शेरदा को जानने के लिए जगह कम पड़ गयी, इसलिए हमें अपने इस स्तम्भ की सीमायें तोडऩी पड़ीं। शेरदा हैं तो फलक भी बड़ा होगा। हमने इस साक्षात्कार को तीन पृष्ठों में प्रकाशित किया है। उन्हें जानने-समझने के लिए यह बहुत जरूरी है। पेश है उनसे हुई बातचीत के चुनिन्दा अंश :-
 
 आपके बचपन की यादें किस तरह की हैं?
 
 अपनी इस कविता- ‘गुच्ची खेलनै बचपन बीतौ/ अल्माड़ गौं माल में/ बुढ़ापा हल्द्वानी कटौ/ जवानी नैनीताल में/ अब शरीर पंचर हैगौ/ चिमड़ पड़ गयी गाल में/ शेर दा सवा सेर ही/ फंस गौ बडऩा जाल में।’ में मैंने अपने बचपन को व्यक्त करने की कोशिश की है। मुझे अपनी पैदाइश का दिन ठीक-ठीक याद नहीं है। उस जमाने में ऐसा चलन भी नहीं था। बाद में रचनाकर्म शुरू हुआ तो मित्रों ने तीन अक्टूबर १९३३ जन्मतिथि घोषित कर दी। मेरी पैदाइश अल्मोड़ा बाजार से दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित माल गांव की है। मेरा गांव हरा-भरा था। खूब साग-सब्जी होती थी। दूध और साग-सब्जी शहर में बेचते थे। हां, अनाज नहीं बेचा जाता था। मैं चार साल का था तो पिताजी चल बसे। माली हालत खराब हो गयी। जमीन, मां का जर-जेवर सब गिरवी रखना पड़ा। होश आया तो मुझे इतना याद है कि हम लोग गांव के ही किसी व्यक्ति के मकान में रहते थे। हम दो भाई थे। मुझसे बड़े भाई भीम सिंह और मैं। बड़े भाई तो अब गुजर गये।
 
 इन हालात में तो काफी संघर्ष करना पड़ा होगा?
 गांव में किसी की गाय-भैंस चराने निकल गया तो किसी के बच्चे को खिलाने का काम कर दिया। बच्चे को झूला झुलाने का काम करता था तो बाद में अपने इसी अनुभव को इस कविता में व्यक्त किया-
 ‘पांच सालैकि उमर/गौं में नौकरि करण फैटूं/ काम छी नान भौक/ डाल हलकूण/ उलै डाड़ नि मारछी/ द्विनौका है रौछि/मन बहलुण।’
 इस काम के बदले मुझे आठ आने मिलते थे।
 
 
 आप स्कूल तो कभी गये नहीं, फिर अक्षर ज्ञान कैसे हुआ?
 
 
 आठ साल की उम्र हुई तो शहर आ गया। बचुली मास्टरनी के यहां काम करने लगा। घर में नौकर रखने से पहले हर कोई अता-पता पूछता है तो उसने भी पूछा। मैंने बताया मां है, पर पिताजी गुजर गये। उसने भी सोचा कि बिना बाप का लडक़ा है। गरीब है, इसको पढ़ा देते हैं, तो उसने मुझे अक्षर ज्ञान कराया। फिर कुछ दिन वहीं गुजरे। बारह साल की उम्र में आगरा चला गया।
 
 आगरा के अनुभव कैसे रहे?
 
 आगरा में छोटी-मोटी नौकरियां कीं। वहां रहने का साधन था। दाज्यू इंप्लायमेंट दफ्तर में चतुर्थ श्रेणी कर्मी थे। एक साल घूमता रहा। एक दिन सौभाग्यवश आर्मी के भर्ती दफ्तर में पहुंच गया। वहां बच्चा कंपनी की भर्ती हो रही थी। मैं भी लाइन मेें लग गया। अफसर ने पूछा कुछ पढ़े-लिखे हो तो अखबार पढऩे को दिया तो थोड़ा-थोड़ा पढ़ दिया। क्योंकि मुझे बचपन से पढऩे का बहुत शौक था। मास्टरनी जितना सिखाती थी उससे आगे पढऩे लगता था। शहर जाता था तो जो शब्द समझ में नहीं आते उन्हें पढ़े-लिखे लोगों से समझ लेता। तो इस तरह आगरा पहुंचने तक पढऩे-लिखने का अच्छा अनुभव हो गया। मुझे कविता करने का बहुत शौक था। उन्होंने मुझे बच्चा कंपनी में छांट लिया। मुझे आज भी वह दिन अच्छी तरह याद है, ३१ अगस्त १९५०।
 
 बच्चा कंपनी में भर्ती होने के बाद के अनुभव कैसे रहे?
 बच्चा कंपनी में भर्ती करके मुझे मेरठ भेज दिया। बड़ा अच्छा लगा। सभी अच्छे लोग थे। मैं बहुत खुश था। उसी खुशी के माहौल में कविता फूटी- ‘म्यर ग्वल-गंगनाथ/ मैहूं दैण है पड़ी/ भान मांजणि हाथ/ रैफल ऐ पड़ी।’
 हंसी-खुशी के माहौल में आनंद आने लगा। वहां पढ़े-लिखे लोग थे और मैं अनपढ़। मेरठ में ही तीन-चार साल बच्चा कंपनी में गुजारे। उसके बाद १७-१८ साल की उम्र में फौज का सिपाही बन गया। सिपाही बनने के बाद मोटर ड्राइविंग मेरा ट्रेड था। गाड़ी चलाना सिखाया। वहां से पासआउट हुए तो पोस्टिंग में चला गया जालंधर भेज दिया गया। जालंधर के बाद झांसी चला गया। झांसी के बाद जम्मू-कश्मीर चला गया। वहां पूरे इलाके में घूमा। नारियां, राजौरी, पूंछ, नौशेरा में ड्यूटी की। बारह साल यहां गुजारे। तेरहवें साल पूना चला गया।
 
 
 आपने कहीं लिखा है कि पूना से ही असल में आपके काव्य कर्म की शुरुआत हुई, पूना में उस वक्त किस तरह का माहौल था?
 
 पूना में मैं १९६२ में गया। चीन की लड़ाई चल रही थी। युद्ध में जो लोग घायल हो गये, उनके साथ संगत रहने लगी। उनसे लड़ाई के बारे में जिक्र सुना तो मेरे दिल में ऐसा हुआ कि एक किताब लिखूं इस वाकये पर। तो मेरी पहली किताब हिन्दी में ‘ये कहानी है नेफा और लद्दाख की’ शीर्षक से प्रकाशित होकर आयी। इस किताब को मैंने जवानों के बीच बांटा। पूना में एक अनुभव और हुआ। पूना में पहाड़ की कुमाऊं-गढ़वाल और नेपाल की औरतें कोठों में देखीं। मुझे मेरे साथी जवानों ने बताया तो मुझे बेहद दुख हुआ। मेरे मन में आया कि इन पर किताब लिखूं। किताब ‘दीदी-बैंणि’ लिखी।
 
 क्या कुमाऊनी में लिखने की शुरुआत पूना से ही हुई?
 कुमाऊनी में किताब लिखने की शुरुआत पूना से ही हुई। मैं कोठों में गया नहीं था। मैंने कल्पना की। सोचा पहाड़ के जो लोग नौकरी के लिए प्लेन्स आ जाते हैं, जब घर वापस जाते हैं तो औरतों को बहला-फुसलाकर कोठों पर ले आते हैं। तो मैंने उनकी कहानी बनायी। उनके दुख-दर्द को समेटा। साथ ही जमाने को टोका। लिखा- ‘गरीबी त्यर कारण/ दिन रात नि देखी/ गुल्ली डंडा देखौ/ शेर दा कलम-दवात नि देखी।’
 फिर लिखता चला गया। ‘दीदी-बैंणि’ काव्य संग्रह की ही ये कविता है-
 ‘सुण लिया भला मैसो/ पहाड़ रूनैरो/ नान-ठुल सब सुणो/ यौ म्यरौ कुरेदो/ दीदी-बैंणि सुण लिया/ अरज करुंनू/ चार बाता पहाड़ा का/ तुम संग कुनूं/ चार बात लिख दिनूं/ जो म्यरा दिलै में/ आजकल पहाड़ में/ हैरौ छौ जुलम/ नान ठुला दीदी-बैंणि/ भाजण फै गई/ कतुक पहाडक़ बैंणि/ देश में एै गयी/ भाल घर कतुक/ हैगी आज बदनाम/ जाग-जाग सुणि/ नई एक नई काम।’
 फिर कुछ ऐसा हुआ कि मुझे कवितायें लिखने का सुर लग गया।
 
 पूना से पहाड़ वापसी कब हुई?
 सन १९६३ की बात रही होगी शायद। वहां मेरे पेट में अल्सर हो गया और मैं मेडिकल ग्राउंड में रिटायर होकर घर आ गया। उम्र यही कोई रही होगी २४-२५ साल की। घर पहुंचा तो उसे कविता में इस तरह व्यक्त किया- ‘पुज गयों अल्माड़ गौं माल/ तब चाखि मैन अल्माड़कि/ चमड़ी बाल।’
 तो कविता का रोग लग गया था।
 
 तब गांव का माहौल कितना बदल गया था?
 गांव में ऐसा कोई नहीं था जिससे कोई बातचीत कर सकूं। मैंने गांव वालों से पूछा कि आप किसी टीचर-मास्टर को या फिर ऐसी जगह जानते हैं, जहां कोई पढ़ा-लिखा आदमी मिल जाये। किसी ने पता बताया, वहां चला गया। मैंने अपना परिचय दिया। दो किताबें दिखायीं, तो उन्होंने कहा हमारे कॉलेज में एक चारु चंद्र पांडे हैं। वो कविता भी करते हैं, विशेषकर पहाड़ी में। उनसे मिला। वह बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने कहा मैं आपको ब्रजेंद्र लाल शाह से मिलाता हूं। वह कविता के बड़े जानकार हैं। पहाड़ में सांस्कृतिक गतिविधियों को आगे बढ़ाने के लिए एक सेंटर खुलने जा रहा है। वह उसके डायरेक्टर बनने वाले हैं।
 
 कैसे रहे ब्रजेंद्र लाल शाह से मिलने के अनुभव?
 बहुत अच्छे। उन्होंने मेरा परिचय जाना। कहा आज तो मैं कहीं जा रहा हूं, संडे के दिन आना। आपने जो लिखा है संडे को सुनेंगे। मैं इंतजार करता रहा संडे का। मैं वहां चला गया। उनके साथ दो-चार लोग और थे। किताबें दिखायीं। मैंने उनको एक कविता सुनायी। अपने जीवन की पहली कविता थी। कविता थी- ‘नै घाघरि/ नै सुरपाल/ कसि काटीं ह्यून हिंगाव।’
 यह सिर्फ मुखड़ा था। कविता लंबी-चौड़ी थी। सुनकर वह बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने तपाक से कहा- ‘शेर सिंह का शब्द चयन बहुत अच्छा है।’ हो सकता है जिंदगी में पहली मर्तबा सुना ये शब्द। शब्द चयन। उन्होंने कहा यहां पर होली आने वाली है। हम रैम्जे हाल में होली मनाते हैं। उस दिन सब कुछ-न-कुछ सुनाते हैं। कविता लाना, तुम्हें भी मौका देंगे। पंद्रह-बीस दिन के बाद होली आयी। टाइम पर चला गया। उन्होंने मुझे देखते ही कहा पोयट (श्चशद्गह्ल) आ गया।
 मैंने कविता सुनायी - ‘होई धमकी रै चैत में/ सैंणि लटक रै मैत में।’
 लंबी-चौड़ी कविता थी। रिस्पांस भी अच्छा मिला। लोग खुश हुए। मैं भी खुश हुआ। तब से मेरा चस्का बढ़ा ही गया। उन्होंने कहा नैनीताल में सेंटर खुल गया है। तुम वहां एप्लाई कर दो। तुम्हारे जैसे कवि-कलाकार की जरूरत है। मेरा हौंसला बढ़ा। कॉल लैटर आ गया। मैं नैनीताल इंटरव्यू के लिए गया। इंटरव्यू लेने कुछ लोग दिल्ली से आये थे, कुछ गढ़वाल-कुमाऊं के लोग थे। कुल पचास लोग छांटे गये। सेंटर का नाम था ‘गीत एवं नाट्य प्रभाग।’
 
 गीत एवं नाट्य प्रभाग में काम के अनुभव कैसे रहे?
 बस नया सफर शुरू हो गया। अयारपाटा में दफ्तर खुला। हमने काम शुरू कर दिया। गीत बनने लगे। कंपोज होने लगे। इस तरह बहुत सी कवितायें लिखीं। इन्हें लोगों ने काफी पसंद किया। मुझसे मेरे अधिकारी कहते थे ये पहाड़ का रवीन्द्रनाथ टैगोर है। जब यह सुनता तो मुझे लगता मेरे अंदर कुछ न कुछ तो है। कुछ कवितायें मंच के लिए लिखीं तो कुछ साहित्य के लिए। मंच से कोई मतलब नहीं था। खास महफिलों में तब भी सुनाता था, अब भी सुनाता हूं।
 
 उन दिनों जो गीत लिखे उनमें से कुछ याद हैं क्या?
 
 एक गीत है जो हर जगह सुनाता था-
 ‘म्यर हंसी हुड़कि बजाला बमाबम/ कुरकाती बिणाई मैंलैकि लगूंल/ मेरी सुआ हंसिया नाचली छमाछम/ अलग्वाजा बांसुई मैंलैकि बजूंला।’
 इस तरह बहुत गीत लिखे। हम अपने प्रोग्रामों में गाते थे। यहीं से मेरा संपर्क आकाशवाणी लखनऊ से हो गया। उन्होंने मुझे कवि सम्मेलन में बुलाया। मेरी कविता सुनकर सब बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने कहा-अनपढ़ ये नहीं, हम लोग हैं। इतनी अच्छी कविता कर रहे हैं। हौंसला बढ़ता गया। फिर मेरी किताबें निकलती गयीं।
 अब तक आपकी कुल कितनी किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं?
 ‘दीदी-बैंणि’, ‘हसणैं बहार’, ‘हमार मै-बाप’, ‘मेरी लटि-पटि’, ‘जांठिक घुंघुर’, ‘फचैक’ और ‘शेरदा समग्र।’ फिलहाल कुमाऊं विश्वविद्यालय में मुझ पर पांच शोध कर रहे हैं। कुमाऊं विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाता हूं। ‘हंसणैं बहार’ और ‘पंच म्याव’ टाइटल से दो कैसेट बाजार में आ चुके हैं।
 
 आज के नौजवानों को कोई संदेश देना चाहते हैं?
 यही कहना चाहता हूं नवयुवकों से और अपने पहाड़ के बच्चों से -
 मन में हो लगन,
 मुट्ठी में हो गगन।
 
 जीवन में कोई आदर्श भी रहा आपका?
 मुझे बड़े लोगों से बड़ी प्रेरणा मिली। गांधी जी, नेहरू जी, सुभाष जी, ये सभी मेरे प्रेरणा स्रोत रहे। आकाशवाणी लखनऊ में इन पर खूब कवितायें कीं। बापू पर कुमाऊनी में एक कविता लिखी जो मुझे आज भी बहुत पसंद है- ‘हुलर आओ बापू तुम माठू माठ/ आशा लागि रयूं मैं बाट-बाट/ मैंकणि तुम्हारि नराई लागिरै/ चरख मैं ऐल कताई लागि रै/ खद्दर ऊण की बुणाई लागि रै/ गांधी टोपिनै की सिणाई लागि रै/ मैंके लागिं प्यारा तैरी ख्वारै चानि/ मैंकणि खैदेली तेरी नाखैकी डानि/ मुख-मुख चैरूं छै तू गिज ताणि/ कि भली छाजिछं धोती नानि-नान/ हुलर चड़ कसि जाना छन मार-मार/ हुलर आओ बापू तुम माठू-माठ।’
 
 जीवन में इस आखिरी पड़ाव पर कैसा महसूस करते हैं?
 
 अपने मन की जिंदगी जी। मैं तो अनपढ़ था, पर लोगों ने मुझे इतना प्यार दिया, हौंसला दिया। मुझे प्रोत्साहित किया, तो कहां से कहां पहुंच गये।
 आज भी इज्जत देते हैं, मान करते हैं। मैं लोगों का शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मुझे इतना प्यार दिया।
 http://www.merapahadforum.com/uttarakhand-language-books-literature-and-words/sher-da-anpad-famous-poet-of-uttarakhand/105/

विनोद सिंह गढ़िया

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... और हमारे शेरदा
« Reply #121 on: May 22, 2012, 02:28:41 AM »
... और हमारे शेरदा

कॉलेज में कविता-साहित्य का नया नया चस्का लगा था जब पहली बार नैनीताल के एक शरदोत्सव में हुए कुमाऊंनी कवि सम्मलेन में शेरदा को पहली बार कविता पढ़ते सुना। कुमाऊं के उस बेजोड़ शोमैन का मैं तुरंत दीवाना हो गया था. बीस-तीस और कविगण भी मंच पर शोभायमान थे और जाहिर है सम्मेलन की शुरुआत में कुछ युवा कवियों की बारी थी. नैनीताल के फ्लैट्स पर मंच के सामने और ऊपर की सीढ़ियों और ऊपर रेलिंग तक पांच-आठ हजार लोग खचाखच भरे थे. पन्द्रह बीस मिनट बाद भीड़ बेकाबू होने लगी और कुछेक उत्साही युवाओं ने बाकायदा शेरदा, शेरदा, शेरदा ... के नारे लगाने शुरू कर दिए। आखिरकार मंच संचालक को शेरदा को उनकी नियत बारी से पहले बुलाना पड़ा। अगले एक घंटे तक सिर्फ शेरदा थे, उनकी कविता थी और उनका विनम्र, निराला, खिलंदड़ीवाला अंदाज। भीड़ अब आनंद के समुद्र में गोते लगा रही थी और वाहवाही बटोरते शेरदा के चेहरे पर जरा भी दर्प नहीं था. शेरदा के जाते ही भीड़ छंटने लगी. कवि सम्मलेन की ऐसी-तैसी होता देख संचालक को कहना पड़ा कि शेरदा अभी एक बार और कविता पाठ करेंगे.
मेरी खुशकिस्मती रही कि मुझे शेरदा का बहुत आत्मीय साथ मिला और कोई पच्चीस सालों का हमारा साथ जब कल उनके जाने पर खत्म हुआ तो बर्फ की सिल्लियों पर धरी उनकी देह के पैर छूकर उनके घर से लौटते मुझे बार बार शेरदा का बालसुलभ सच्चा चेहरा याद आता रहा. अब भी आ रहा है. उनकी विनम्रता उनकी सब से बड़ी ताकत थी.
नैनीताल में यह सिलसिला हफ्ते में कम से कम एक दफा चल निकला कि शहर की मशहूर हस्ती स्वर्गीय अवस्थी मास्साब और शेरदा के साथ साथ मूंगफली टूंगते हुए मैं ठंडी सड़क पर इन दो बुजुर्गों के सान्निध्य में लाइब्रेरी तक टहला करता और जीवन के पाठ सीखता। मास्साब की स्मृति उन दिनों काफी चंचल हो चली थी. वे कोई पुराना किस्सा छेड़ते, उसे अधूरा छोड़ कोई दूसरा फिर तीसरा और अचानक ठठाकर हंसने लगते. शेरदा भी वैसे ही हंसते फिर अचानक ठहर कर मास्साब से पूछते यौ तो भल भय मास्साब पै ऊ आगहालण डाक्टर आदु रात अस्पताल किलै गो ... (ये तो ठीक हुआ मास्साब पर उस नासपीटे डाक्टर को आधी रात अस्पताल जाने की क्या पड़ी थी ...) मास्साब उस से भी जोर का ठहाका लगाते और कहते अरे यार शेरदा डाक्टर वाल किस्स तो पैलिके खतम है गो छी, मिं तो जमनसिंह वाली बातम हंसण लाग रै छी ... (... डाक्टर वाला किस्सा तो पहले ही खत्म हो गया था, मैं तो जमनसिंह वाली बात पर हंस रहा था ...). अरे मास्साब ... यौ भल कै तुमूल ... भौत्ते बड़ी .. दरअसल होता यह था कि शेरदा किसी कविता की थीम ढूंढ रहे होते थे मास्साब अपनी याददाश्त पर काबू करने से लाचार थे और मैं इस महान भ्रमण कार्यक्रम को खासे गौर और दिलचस्पी से देखता प्रमुदित हुआ करता.
एक दफा मैं जाड़ों में नया बाजार वाले अपने घर में धूप के मजे लेता हुआ चिली के महाकवि पाब्लो नेरुदा की कविताएं पड़ रहा था कि कहीं से शेरदा आ गए। मैं उनके लिए चाय बनाने भीतर गया। बाहर आया तो देखा कि शेरदा नेरूदा की किताब उलट पुलट रहे थे। ये कौन सा कवि हुआ पांडेज्यू? नेरूदा मैंने उन्हें नाम बताया तो वे बड़ी मासूमियत से बोले पहाड़ी हुआ ये भी? मैं जवाब सोच ही रहा था कि वे अपने सवाल को विस्तार देते हुए कहने लगे मतलब जैसे गिर्दा हुआ शेरदा हुआ वैसे ही नेरूदा ... मैंने अचकचाते हुए उन्हें नेरूदा के बारे में बताया. वे अपनी चिरपरिचित शैली में बोले अच्छा ... भल भै ... भौत्ते बड़ी .. उन्होंने नेरूदा की एक कविता अनुवाद कर सुनाने को कहा तो बहुत छांटकर मैंने उन्हें एक अपेक्षाकृत कम जटिल कविता ओड टू टोमैटोज़ सुनाई और उनकी प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगा. वे कुछ हकबकाए से बोले मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया पांडेज्यू। पर आप कह रहे हो तो बड़ा ही कवि होगा
बच्चों जैसी उनकी यही निश्छलता उनके रचनाकर्म में भी दिखाई पड़ती है. कुमाऊंनी बोली को इतने प्रेम से साधने वाला ऐसा रचनाकार मुझे तो कोई नहीं दिखता. लगता था जैसे भाषा खुद चलकर उनके पास आती थी. घरों में बोली जाने वाली कुमाऊंनी के इतने मीठे मीठे शब्दों को वे बड़ी सहजता से कविता में ढाल लेते थे और यकीन मानिए यह काम बेहद मुश्किल होता है. कुमाऊँ के गाँवों का जनजीवन, उसके लोग, तीज-त्यौहार और सबसे ऊपर मानव जीवन की विराटता उनके विषद रचनाकर्म के मूल में रहे. कई बार उन्हें केवल हंसाने वाला कवि मान लिया जाता रहा है पर शेरदा की कविता में गहरा जीवनदर्शन है. मिसाल के तौर पर उनकी एक मशहूर कृति बुढ़ी अकावौ प्रेम, जो एक सपाट प्रेमकविता नजर आती है दरअसल गहरे सांकेतिक अर्थ लिए हुए है जिसमें आयु, जीवन, प्रेम और मृत्यु की सनातन थीम्स गुंथी पड़ी हैं. जिस किसी ने दागिस्तान के महान लेखक रसूल हमजातोव की किताब मेरा दागिस्तान पढ़ी है वे बेहिचक शेरदा को कुमाऊं का रसूल हमजातोव कहना पसंद करेंगे. यह बात अलबत्ता अलहदा है कि शेरदा अपनी जगह पर बने रहेंगे - अद्वितीय।
एक बेहतरीन गृहस्थ के तौर पर उन्होंने अपने सारे धर्मों को निभाया. कोई दो-एक माह पहले उनके घर पर हुई उनसे एक मुलाकात के दौरान मुझे उनके वात्सल्य का जो रूप दिखा उसे भुलाया नहीं जा सकता. पत्नी, पुत्रवधू और पोते के साथ उनका व्यवहार पूरी तरह आदर्श और अनुकरणीय था. खासतौर पर अपनी जीवनसंगिनी के साथ उनकी चुहलभरी मोहिल बातचीत नव विवाहितों तक को मुग्ध कर देने को काफी थी.
अपनी रचनाओं को लेकर भी उनके भीतर अभिमान नहीं, प्रेम था. वे बेझिझक अपनी रचनाएं सुनाया करते थे और ऐसा करते समय वे बिना किसी लाग-लपेट के सिर्फ और सिर्फ एक कवि होते थे. उनके जाने के साथ ही एक पूरा युग अपने अवसान पर आ पहुंचा है. उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही शेरदा को और उनके रचनाकर्म को उसके हिस्से का वाजिब सम्मान मिलेगा और उनके कार्य का गंभीर अध्ययन और आकलन भी होगा. एक पाठक के तौर पर आप यह तो कर ही सकते हैं कि शेरदा की किताबें-कवितायें खोजबीन कर पड़ें, अपने बच्चों को उनसे परिचित कराएं और एक मीठी बोली को लुप्त होने से बचाने का जतन करें जिसे बोलने में अब लोग शर्म महसूस करते हैं. शेरदा के लिए सबसे अच्छी और उचित श्रद्धांजलि यही हो सकती है।

लेखक जाने माने साहित्यकार एवं अनुवादक हैं

Risky Pathak

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शेरदा ः एक परिचय
जन्म स्थल- माल गांव अल्मोड़ा
जन्म तिथि- 13 अक्तूबर 1933
स्कूली शिक्षा- शून्य, लेकिन स्वयं को चौथी कक्षा में अनुत्तीर्ण बताकर 31 अगस्त 1950 को एएससी बॉय कंपनी में भरती होकर मेरठ चले गए।
कविता संग्रह- शेरदा समग्र
कुल 12 किताबों में 412 काव्य खंड लिखित हैं।

Risky Pathak

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मूलरूप से अल्मोड़ा के रहने वाले शेर सिंह बिष्ट को शेरदा नाम साहित्य में ही मिला था। हाल के वर्षों में आई शेरदा समग्र में उनकी सभी रचनाओं को संकलित किया गया है। शेरदा का जन्म अल्मोड़ा के माल गांव में एक गरीब कृषक बचे सिंह बिष्ट परिवार में हुआ था। पिता की जल्द मृत्यु होने के कारण माता लछिमा देवी की देखरेख में शेरदा का पालन पोषण हुआ। शेरदा का बचपन भी बड़े संघर्षों में गुजरा था। तेरह साल की उम्र में घर से भागकर शेरदा घर से भागकर आगरा चले गए और सेना में भर्ती हुए। भारत-चीन युद्ध के दौरान घायल सैनिकों को देखने के बाद उन्होंने काव्य रचना शुरू की ‘ये कहानी है नेफा-लद्दाख की’ उनकी पहली रचना थी। पहाड़ की पीड़ा से उनका काव्य हमेशा जुड़ा रहा। हास्य कविताएं भी शेरदा ने खूब लिखीं। कुमाऊंनी कवियों के मंच पर शेरदा की कमी हमेशा बनी रहेगी। अपने पीछे शेरदा पत्नी गौरा देवी, सांग एंड ड्रामा डिवीजन में कार्यरत उनके पुत्र आनंद बिष्ट और बहू शर्मिष्ठा बिष्ट, छोटे बेटे श्याम सिंह बिष्ट, बहू मीता बिष्ट को छोड़ गए हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Bhishma Kukreti शेरसिंह बिस्ट 'अनपढ़'  दगडा छ्वी-बथ 
 
 
 
                              वार्ताकार : वीरेन्द्र  पंवार
 
 
 
 (शेरसिंह  बिस्ट 'अनपढ़' कुमाउनी / कुमोनी का जणयां -मणयां कवि छन.ये दाना कवि तै आपन कत्गाई बार मंच पर बि कुमोनी मा कविता पाठ करदा सुणी होलो .आज ७८ साल कि  उम्रमा यु कवि जब मंच बटी कविता पाठ करदा त वे टैम पर लगदा कि 'शेरदा' अबी प्रेम-प्यार कि छविं-बतुमा  ज्वानु  तै बि छकै सक्दन. पूरा प्रदेशमा वू  इन्ना बुजुर्ग कवि छन जौंतई लोग पूरी गंभीरता अर  टक्क  लगैकी सुणदन. मंच पर कविता सुणोंणा अपणा ख़ास अंदाज का कारण वु सुणदरोंमा खास लोकप्रिय  छन.वूँका ब्यक्तित्व  अर कृतित्व   पर रिसर्च बि हुयां  छन.
 
            अबारी तक 'मेरी लटपटी', 'जोठी घुँघर', 'फचैक', 'दीदी बैणि', 'हंसणया- बहार','ये कहानी है नेफा लधाक  कि,
 
 'शेरदा- समग्र',जनि किताबु का लिखवार शेरदा लिखण से लेकि  कवि सम्मेलानुमा खास लोकप्रिय छन. वूंकी कवितोंमा सामाजिक ब्यवास्थों  पर जोरदार चोट  होंद त कत्गाई बतु तैं वु अफु पर घटैकी लोखु तैं जीवन जिणों तरीका बतोंदन .
 
  २-३-४ अप्रैल २०११ का दौरान उत्तराखंड भाषा संस्थान देहरादून द्वारा उरायाँ  लोकभासा सम्मेलनमा  वूँ दगड़ा सुबेर चाय पर मुखाभेंट व्हे. वीरेन्द्र पंवार अर बिमल नेगी दगड़ा होईं  वीं बातचीत कि ख़ास -ख़ास बात---)
 
 
 
  सवाल...शेरदा आपन लिखनै सुरुवात कब बटी करि अर कुमोनीमा लिखणै प्रेरणा आपतै  कख बटी मिली ?
 
 जवाब...मि सन १९६० बटी लिख्णु छौं. सन १९३३ को मेरु जनम छ.,अर सन १९५० मा मि फ़ौज मा भर्ति व्हेगे छौ.१३ साल कि उम्र बटी लिख्णु सुरु करेली छौ.अनपढ़ छौ,इल्लै हिंदीमा मिन नि लिखी. बाळपन बटी हि  मैतै कुमोनी कविता सुणनौ बडू शौक छौ.बस यी शौक  मेरि प्रेरणा को कारण बणी.मैतै लगि कि मेतै बी कुमोनीमा हि लिखण चयेणु छ.
 
 
 
 सवाल... आप पढ़याँ  लिख्यां नी छा,फेर बी आपन खूब लेखी.क्या यु हम तै 'गोड -गिफ्ट' बोलण चयेणु छ?
 
 जवाब...मनखी अपणा अनुभवों से लिख्णु सिखदा. मन का भित्र बिचार पैदा हुन्दन अर वुन्तई कागज पर लिख देंदो. सब कुछ मन मा याद जनो आन्द. एक तरों से आप येतैं 'गोड -गिफ्ट' बी बोल सक्दन.
 
 
 
 सवाल...जबारी आपन कुमोनी मा लिख्णु सुरु  करि वु  दौर आज चुलै कन्नु छौ ?
 
 जवाब...वू टैम बडू सीधु सादु छौ .पढ़यां -लिख्याँ लोग कम छा.ईमानदारी से ब्वन्न त वु दौर सिधू-सचु दौर छौ.लोगुं को अपड़ी भाषा से जुड़ाव बी छौ.आज लोकभासा मा पढ़यां लिख्याँ लोग बी औणअ  छन अर लोगु कि मानसिकता मा बदलाव औणु छ. वे टैम बटी कुमोनी मा भोत्त फरक ऐगी .लोग अपड़ी भाषा तैं अपनौणा छन. बिचारों मा बी काफी फैलावा दिखेनु छ. समाजमा जाग्रति औणी छ.कुमोनीमा आज सब्बि बिधोंमा लेखन होणु छ.कविता ,कहानी,उपन्यास अर हौरि  बिधाओं मा पिछ्ल्या कुछ बरस बटी कत्गाई लोग काम कन्ना छन.लोकभासों का वास्ता या भोत्त अछि बात अर सुरुवात छ.
 
 
 
 सवाल  ... पुराणा  दौर का मुकाबला आज आपतै  क्या फरक नजर औणु छ?
 
 जवाब...  हाँ..फरक साफ़ दिखेणु छ.आज साहित्य  -लेखनमा तेजी ऐगी. लोकभासामा आज डिग्रीधारी लोग बी छन. इल्लै साहित्य को स्तर बी बढ़ीगे.पुराणी अर आजै कवितामा अंतर बी साफ़ दिखेणु छ.कंटेंट मा बी फरक दिखेणु छ.लेखनमा समाज कि चिंता साफ़ दिखेणी छ.
 
 
 
 
 
 सवाल...कुमोनीमा बि गढ़वाली कि तरों कत्गाई बोली छन,यांका  कारण भाषा का मानकीकरण को झगडा वख बी छ,आप तै  क्या लगदो कि कुमोनी कें तरों से लिखीं  चयेणी छ?
 
 जवाब...कुमोनीमा बी भोत्त बोली छन,इल्लै हमते एक मानक भाषा त बणोंण  हि पड़लि.फेर बी जादा से विद्वानु को  बोलण छ कि कुमोनी मा ख़ास प्राज्य( अल्मोड़ा का आस पास ) कि भाषा  हि कुमोनी भाषा को अच्छो प्रतिनिधित्व करदी,या कुमों कि सबसे सौंगी भाषा छ अर पूरो कुमों ईं भाषा तै अच्छा ढंग से समझी सकदा.
 
 
 
 सवाल...शेरदा प्रदेश मा लोक्भासों का बिकास का वास्ता सरकार कि क्या भूमिका होंण  चयेणी छ?
 
 जवाब... प्रदेशमा गढ़वालि अर कुमोनी का विकास  का वास्ता सरकार तै अगव़ाड़ी औंण चयेणु छ.अब तक सरकारन  याँ खुण कुछ नी करि. हमारा मुख्यमंत्री अफु साहित्यकार बी छन. वूँसे उम्मीद छ कि जरुर कुछ करला. उत्तराखंड भाषा संस्थान अब लोकभाषाओं का वास्ता काम कनु छ. या हमारा लोक कलाकारों अर लोक भाषा प्रेम्युं तैं एक शुभसंकेत छ.
 
 
 
 सवाल...आपतैं नी लगदो कि संस्कृत अर हिंदी अकादमी कि तरों प्रदेशमा बी एक लोकभासा अकादमी होंण चयेणी छ?
 
 जवाब... लोकभासों पर तबी काम अगव़ाड़ी  बढ़ी सक्दो जब प्रदेशम बी लोकभासा अकादमी को गठन करे जालो.सरकार तैं याँपर जल्दी कारवाई कन चयेणी छ.
 
 
 
 
 
 वीरेन्द्र पंवार (उत्तराखंड खबर सार १ जून २०११) : पौड़ी

विनोद सिंह गढ़िया

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शेरदा को श्रद्धांजलि

सुणौ शेरदा, शेरदा निजवा कौ, श्यरदा निजवा कौ।
य द्यौताक डुबुक, काफवा ग्याड़, गाबाक साग खैजवा कौ॥
सुणौ शेरदा, शेरदा निजवा कौ, श्यरदा निजवा कौ।
कॉ हूॅ कै ल्हे गछा शेरदा, आब हमूॅकैं को हंसाल॥
अनाड़िक जै बन्दूक, उ गजबजाट, भौजिक बात को बताल।
उ नागड़े जगॉड़ और जॉगणों में धिगाड़ हमूकैं को दिखाल॥
आब गीतों में बात, बातों में गीत हैसणै बहार को सुणाल।
य पहाड़ य पहाड़ि, सबै कौनई ऐ जवा कौ॥
शेरदा सुणो शेरदा निजवा कौ श्यरदा निजवा कौ।
पट्ट ऑख बुजिबेर के कोई गीत सोचणछा तुम॥
या मुलमुल मनेमन खिताखिताट करणछा तुम।
नि जाओ शेरदा य पहाड़क साहित्य कमजोर ह्वे जाल॥
तुमो बिना कवि सम्मलनोंक दौर कॉणें रै जाल।
तुम जाण है पैलि एक भलो भल गीत सुणे जवा कौ॥
शेरदा सुणो शेरदा निजवा कौ, श्यरदा निजवा कौ।
य द्यौताक डुबुक, काफवा ग्याड़, गाबाक साग खैजवा कौ॥
....श्यरदा निजवा कौ।

‘एच.आर. बहुगुणा’, सांसद प्रतिनिधि, लोकसभा क्षेत्र नैनीताल।

स्रोत : अमर उजाला

 



खीमसिंह रावत

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  ???
स्वर्ग में कवि सम्मलेन संचालक गिर्दा
संचालक महोदय ने कहा अनपढ़ शेर दा
हम सब को छोड़ चले शेर दा

        :(      :(      :(

हेम पन्त

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दिवंगत कुमाऊनी कवि स्व. शेरदा अनपढ़ की स्मृति में श्रद्धांजली सभा ...
समय - 26 मई 2012 शनिवार, सायं 4 बजे..
स्थान - अणुव्रत भवन, ITO दिल्ली..
संपर्क - श्री चारू तिवारी मोबाइल - 9717368053

Rajen

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ब्रह्मलीन श्री शेर सिंह बिष्ट उर्फ़ शेरदा 'अनपढ़' को श्रद्धा सुमन अर्पित करने हेतु क्रिएटिव उत्तराखंड - म्यर पहाड़ द्वारा दिनांक २६.५.२०१२ को अनुब्रत भवन, दिल्ली में एक श्रधांजलि सभा का आयोजन किया गया.  इस सभा में उत्तराखंड के लोगों ने उपस्थित हो कर दिवंगत शेरदा को अपनी श्रद्धांजलि दी.  उपस्थित गणमान्य लोगों में सर्व श्री चन्द्र सिंह राही जी, हीरा सिंह राणा जी, पूरण चन्द्र कांडपाल जी, पूरण चन्द्र नैनवाल जी, सुनील नेगी जी, ब्योमेश जुगरान जी, प्रदीप बेदवाल जी, डा. बी. एल. जालंधरी जी, देव सिंह रावत जी, मोहन बिष्ट जी, दयाल पाण्डेय जी, हरीश रावत एवं अन्य शामिल हैं. 

सभा का संचालन करते हुए श्री चारू तिवारी ने शेरदा के जीवन एवं उनकी रचनाओं के बारे में बिस्तार से चर्चा की.   उन्होंने इस बात पर ख़ास तौर पर चर्चा की की शेरदा ने जो रचनाएँ की वो मात्र हास्य कवितायें नहीं अपितु एक पूरा जीवन दर्शन है जिसको जानने एवं समझाने की आवश्यकता है.

श्री पूरण चन्द्र कांडपाल जी ने शेरदा के जीवन के अनेक पहलुओं पर प्रकाश डाला और शेरदा को समर्पित अपनी ताजी रचना 'धात लगे बेर बतै गो शेरदा..." का पाठ किया.  प्रसिद्ध कवि और गायक श्री हीरा सिंह राणा जी और महान गायक श्री चन्द्र सिंह राही जी ने शेरदा के साथ बिताये अपने पलों को ताजा करते हुए अपने अपने गायन के साथ भाव पूर्ण श्रधांजलि अर्पित की. 

इस सभा का आयोजन करने करने में अनुब्रत भवन के श्री रमेश चन्द्र कांडपाल जी का सहयोग काफी सराहनीय रहा जिसकी सभी ने मुक्तकंठ से सराहना की.  श्री कांडपाल जी स्वयं भी पूरे समय सभा में उपस्थित रहे.



 

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