By - गोपाल सिंह नेगी हास्य कवि शेर सिंह बिष्ट "शेरदा "अनपढ़" जी की संक्षिप्त जीवनी
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कुमाउनी भाषा के जाने माने हास्य कवि शेर सिंह बिष्ट "अनपढ" जी का जीवन सफर इतना रोचक है कि उस पर पूरा एक पुस्तक लिखा जा सकता है।वे कभी स्कूल नहीं गये, पर स्कूल जाने वाले बड़े बड़े बुद्धिजीवी भी उनकी कविता मे निहित सादगी,गांभीर्य और हास्य को देखकर हतप्रभ रह जाते है।शेरदा के स्वभाव मे बचपन से ही एक मस्ती है और इसी मस्ती मे उन्होने पहाड़ मे एक रचना कर्म किया है उसमे इतना वैविध्य और चुटीलापन है कि कोई भी उनकी कविता सुन कर दाद दिये बिना रह नहीं सकता है। वे अपनी बचपन के दिनो को इस प्रकार कविता मे व्यक्त करते है :-
"गुच्ची खेलण मे बचपन बीतौ आल्माड गौ माल मे।
बुदापा हल्द्वानी काटॉ जवानी नैनीताल मे।
आब शरीर पंचर ह्वे गो चीमड़ पड़ गयी गाल मे।
शेरदा सवा शेर छि पर फस गो बडुवा जाल मे।
शेरदा कहते थे कि उन्हे उनका जन्म तिथि भी पता नहीं थी बाद मे फ़ौज (बॉय कम्पनी) मे भर्ती होने के समय उनका जन्म तिथि ०३ अक्टूबर १९३३ लिखा गया.उनका जन्म अल्मोड़ा बाज़ार से २-३ किलोमीटर दूर माल गाव मे हुआ था, जब वे चार साल के थे उनके पिता का देहांत हो गया था। घर की माली हालत खराब हो गयी. यहा तक कि जमीन मां का जेवर सब गिरवी रखना पड़ा. उन्हे बस इतना पता है कि वे अपने ही गाव के एक व्यक्ति के घर पर रहते थे। वे दो भाई थे बड़े भाई का नाम भीम सिंह बिष्टक था.उनके बचपन के दिन काफी परेशानी मे गुजरे.उन्हे गाव मे किसी के भैस चरने और बच्चे खिलाने का काम करना पड़ा. बाद मे अपने इन्ही अनुभवो को कविता मे व्यक्त किया :-
पांच सालक उमर गौ मे नौकरी करण फैटू, काम छि नान भौ डाल हल्कू ण
नान भौ ले दाड़ नी मारछि द्विनुक भल है रौछि मन बहलूण.
इस काम के बदले उन्हे आठ आने मिलते थे।
जैसा कि हम जानते है कि वे कभी स्कूल नहीं गये पर उन्हे अक्षर ज्ञान कैसे हुआ? उन्होने बताया कि जब वे आठ साल के थे तो वे शहर आ गये थे जहा उन्होने एक मास्टरानी जिनका नाम बचूली था उनके घर मे नौकरी क़ी. उस मास्टरनी ने घर के काम के साथ उन्हे घर मे ही पढ़ाया. कुछ ही दिनो मे उन्हे अखबार पढ़ना आ गया। फिर वे बारह साल क़ी उम्र मे अपने बड़े भाई के साथ आगरा आ गये उन्के बड़े भाई रोजगार ऑफीस मे चपरासी थे। वहा रहने क़ी दिक्कत नहीं थी सो छोटी मोटी नौकरी करने लगे. फिर एक दिन भर्ती दफ्तर मे फ़ौज क़ी भर्ती थी (बॉय कम्पनी क़ी) वे भी लाइन मे लग गये और ऑफीसर ने पूछा कि पढ़ना लिखना जानते हो और उस ऑफीसर ने उन्हे अखवार पढ़ने को दिया। उन्होने अखबार थोड़ा थोड़ा पढ़ के बताया और वे बॉय कम्पनी के लिये छांट लिये गये. वे बताते है कि उन्हे वह दिन अच्छी तरह याद है ३१ अगस्त १९५०.
भर्ती होने के बाद उन्हे मेरठ भेज दिया गया।बड़ा अच्छा लगा सभी लोग बड़े अच्छे थे। उस खुशी को उन्होने ने इस कविता मे व्यक्त किया.
"म्यार ग्वेल गनगनाथ मीह्यू दैड है पड़ी, भान माजड़ी हाथों मे रौफल ऐ पड़ी."
१७-१८ साल की उम्र मे सिपाही बना दिया और मोटर ड्राइवर ट्रेड दे कर उन्हे गाड़ी चलना सिखाया उनकी पहली पोस्टिंग झासी हुई. बाद मे जम्मू कश्मीर पोस्टिंग हो गयी वहा १२ साल रहे और फिर स्वास्थ्य खराब होने के कारण उन्हे पूना मे पोस्टिंग कर दिया। वहा उन्होने "दीदी बेणी" लिखा जो खास उन बैनियों के लिये था जिन्हे कुछ लोग बहला फुसला कर पूना के कोठों मे बेच देते थे. उनकी उस कविता के कुछ अंश ये है:-
सुण लियो भाल मैसो पहाड़ रुणौ रौ
नान ठूल सबै सुणो ये म्यारा कुरेदो
दीदी बैनी सुनि लिया अरज करनू
चार बाता पहाडा का तुम संग करनू
चार बाता लिखी दिनु जो म्यारा दिलम
आज कल पहाड़ मे है रौ छ जुलुम
नान ठूल दीदी बैणी भाजण फै गई
कतुक पहाड़क बैणी देश मे एगई
भाल घर कतुक है गई आज बदनाम
जाग जाग एक नई, एक नई काम.
फिर क्या था उन्हे कविता करने का जो चस्का लगा फिर पीछे नहीं देखा।
१९६३ की बात है उनके पेट मे अल्सर होने के कारण वे फ़ौज से मेडिकल ग्राउंड से रिटाइर हो गये। २४-२५ साल के बाद वे जब घर पहुचे तो उस समा को उन्होने इन शब्दों मे व्यक्त किया :-
आहा. पूजि गयो अलमाड़ गौ माल, तब चाखो मील अलमाड़क चमड़ी बाल.
गाव मे बहुत बदलाव आ गया था कोई भी जान पहचान दिखाई नहीं देता था एक दिन एक कोलेज के मासाब चारू चन्द्र पाण्डेय जी से उनकी मुलाकात हो गयी. शेरदा जी ने उन्हे अपनी कविताओ की किताब दिखाई तो पाण्डेय जी बहुत खुश हुये और उन्हे बिजेन्द्र लाल साह जी से मिलवाया। साह जी ने शेरदा जी को सनडे को मिलने को कहा. सॅनडे को शेरदा जी ने उन्हे एक कविता सुनाई जिसके मुखड़े इस प्रकार है :-
नैहे घाघरी नहे सुरयाव कसी कटु ह्वून हिंगाव"
सुन कर साह जी बहुत खुश हुए और कहने लगे कि शेरदा तुम्हारा शब्द चयन बहुत ही उच्च कोटि का है। फिर उन्होने शेरदा को होली के समारोह जो राम जे सभागार मे होता था, मे अपनी कविता सुनने को कहा. वहा शेरदा ने होली पर अपनी ये कविता सुनाई :-
"होई घमिक रै चैत मे और सैणी लॅटिक रै मैत मे" सुनाई तो सभी ने खूब सराहा. रिस्पॉन्स भी अच्छा मिला फिर साह जी कहा कि नैनीताल मे एक सांक्रतिक सेंटर "गीत एवम् नाट्य प्रभाग" खुल रहा है और शेरदा ने भी अप्लाई कर दिया और ५० लोगों के साथ उनका भी चयन हो गया।
बस यही से शेरदा "अनपढ़" के नाम से उनका नया सफर शुरू हुआ. अयारपाटा मे दफ्तर खुला। गीत कॅंपोज़ होने लगे कविताए बनने लगी. अधिकारी गण कहने लगे कि शेरदा तो हमारे पहाड़ के "रवीन्द्रनाथ टेगोर" हैं. ये सब सुनकर उन्हे अच्छा लगता और मन मे कुछ करने की चाहत जागती. वहा उन्होने कुछ कविताये साहित्य के लिये तो कुछ मंच के लिये लिखी. मंच का कोई मतलब नहीं था कुछ ख़ास महफिलों मे ही शेरदा सुनाते थे.
नौजवानो को अपने संदेश मे शेरदा जी ने ये शब्द कहे :-
"मन मे लगन तो मुठि मे गगन"
स्व० शेरदा "अनपढ़" जी ने निम्न काव्य रचनाए की:-
१. दीदी-बैणी
२. हसणे बहार
३. ह्मार मै-बाप
४. मेरी लटि-पटि
५. जाठीक घुंगुर
६. फ़ॅचैक
७. शेरदा सामग्र
8. "को छै तू".
फिलहाल विश्व विध्यालयो मे उन पर पांच शोध कार्य चल रहा है । जो व्यक्ति कभी स्कूल नहीं गया वे विश्व विध्यालायो मे पढाए जा रहे है, इससे बडकर और क्या सौभाग्य हो सकता है। हसणे बहार और पन्च म्याव नामक दो केसैट भी बाजार मे उपलब्ध है। कुमाउनी हास्य कवि शेरदा "अनपढ" जी को मेरा शत-शत नमन.
संयोजन : गोपाल सिंह नेगी.