शेर दा की एक कविता याद आ रही है:शादी के बाद जब पहली होली के लिये पत्नी मायके जाती है तो पति की विरह वेदना को शेर दा ऎसे बताते हैं-"होली फटक रै, चैत में,स्यैणी लटक रै, मैत में,कै कि करूं मुखडी लाल,कै के लगुं रंग गुलाल."