Author Topic: SUMITRA NANDAN PANT POET - सुमित्रानंदन पंत - प्रसिद्ध कवि - कौसानी उत्तराखंड  (Read 158947 times)

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
सुमित्रा नन्द पन्त जी चरण स्पर्श पैलाग
जी के एक बहुत ही प्रसिद कविता
परिवर्तन
अगर कोई ले पहाडी भाई के याद छ जब म्योर पहाड़ फोरम मैं
भेजी दिया आप लोगुक अति आभारी रुन


जग्गू दा,
     कुछ अंश मिले हैं परिवर्तन के, थोड़े दिनों बाद पूरी कविता उपलब्ध कराने का प्रयास करुंगा

आज कहां वह पूर्ण पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगंत छबि जाल,
ज्योति चुम्बित जगती का भाल?
राशि-राशि विकसित वसुधा का यह यौवन विस्तार?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार!

प्रसूनों के शाश्वत शृंगार,
(स्वर्ण भृंगों के गंध विहार)
गूंज उठते थे बारंबार,
सृष्टि के प्रथमोद्गार!
नग्न सुंदरता थी सुकुमार,
ॠध्दि औ सिध्दि अपार!

अये, विश्व का स्वर्ण स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात,
कहां वह सत्य, वेद विख्यात?
दुरित, दु:ख दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा मरण भ्रू-पात।
अहे निष्ठुर परिवर्तन!

तुम्हारा ही तांडव नर्तन
विश्व का करुण विवर्तन!
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान, पतन!
अहे वासुकि सहस्र फन!


sanjupahari

  • Sr. Member
  • ****
  • Posts: 278
  • Karma: +9/-0
Many thanks.....wonderful collection .... salute to u all...
JAI UTTARAKHAND

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
grate work bhaiyon aap hi ogon ki wjah se aaj bhi humari sanskirit jind ahi  Jya uttarakhand

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
सन् १९६९ में सुमित्रानंदन पंत को उनकी काव्य कृति ’चिदम्बरा‘ के लिए देश के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ’ज्ञानपीठ‘ से सम्मानित किया गया। ’चिदम्बरा‘ को वर्ष १९६८ की सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक कृति घोषित करते हुए कहा गया कि कवि पंत की ये काव्य रचनाएँ युग के संघर्षों की पृष्ठभूमि में नई सौन्दर्यबोध भावना, भौतिक प्रगति और आध्यात्मिक विकास की शक्तियों के समन्वय से प्रसूत नैतिकता की धारा एवं उन्नत मनुष्यत्व की चेतना को रूपायित करती है।
 कवि पंत हिन्दी काव्य में आधुनिक युग के प्रवर्तकों तथा अभिनव काव्य-चेतना के प्रेरकों में अग्रगण्य हैं।
आजीवन अविवाहित रहे हिन्दी साहित्य के इस महत्त्वपूर्ण लेखक ने तीन नाटक, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक संस्मरण संकलन सहित करीब चालीस पुस्तकें लिखीं, जो उनकी निरन्तर सृजनशीलता को रेखांकित करती हैं।
 ’उच्छ्वास‘, ’गुंजन‘, ’वीणा‘ आदि छायावादी कृतियों से शुरू हुआ यह साहित्यिक सफर अरविन्द-दर्शन और साम्यवादी युग-चेतना से प्रभावित ग्रंथों ’युगांत‘, ’स्वर्णकिरण‘, ’उत्तरा‘, ’पतझड‘, ’शिल्पी‘ में सिमटता हुआ ’कला और बूढा चाँद‘ जैसी यथार्थवादी रचना तक पहुँचा। इस रचना पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला।
 ७७ वर्ष की आयु में सुमित्रानंदन पंत का निधन हो गया, जो सचमुच हिन्दी साहित्य जगत् की अपूरणीय क्षति था।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0

Poem of Sumitra Nandan Pant
--------------------------------------

"छोड़ द्रुमो की  मृदु छाया,तोड़ प्रकृति  से भी माया,
बाले तेरे बालजाल में ,कैसे उलझा दूँ लोचन"
********************************

"प्रथम रश्मि का आना रंगीणि !
तूने कैसे पहचाना ?
कहाँ ,कहाँ हे बाल विहंगिनी !
पाया तूने यह गाना ?
सोई थी तू स्वप्न -नीड़ में
पंखो के सुख में छिपकर ,
ऊँघ रहे थे ,धूम द्वार पर
प्रहरी से जुगनू नाना
शशि -किरणों से उतर -उतरकर
भू पर कामरूप नभचर
चूम नवल कलियों को मृदु मुख
सिखा रहे थे मुस्काना "

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0

गृहकाज -   सुमित्रानंदन पंत की कविता

आज रहने हो यह गृहकाज
प्राण! रहने हो यह गृहकाज!

आज जाने कैसी   वातास
छोड़ती सौरभ-श्लभ उच्छ्वास,
प्रिये, लालस-सालस वातास,
जगा   रोओं में सौ अभिलाष!

आज उर के स्तर-स्तर में, प्राण!
सहज सौ-सौ   स्मृतियाँ सुकुमार,
दृगों में मधुर स्वप्न संसार,
मर्म में मदिर   स्पृहा का भार!

शिथिल, स्वप्निल पंखड़ियाँ खोल,
आज अपलक कलिकाएँ   बाल,
गूँजता भूला भौरा डोल,
सुमुखि, उर के सुख से वाचाल!
आज   चंचल-चंचल मन प्राण,
आज रे, शिथिल-शिथिल तन-भार,

आज दो प्राणों   का दिन-मान
आज संसार नही संसार!
आज क्या प्रिये सुहाती लाज!
आज   रहने दो सब गृहकाज! 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0

Taaj
=====

हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन?
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग   का जीवन!
संग-सौध में हो श्रृंगार मरण का शोभन,
नग्न, क्षुधातुर,   वास-विहीन रहें जीवित जन?

मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति?
आत्मा   का अपमान, प्रेत औ’ छाया से रति!!
प्रेम-अर्चना यही, करें हम मरण को   वरण?
स्थापित कर कंकाल, भरें जीवन का प्रांगण?

शव को दें हम रूप,   रंग, आदर मानन का
मानव को हम कुत्सित चित्र बना दें शव का?
गत-युग   के बहु धर्म-रूढ़ि के ताज मनोहर
मानव के मोहांध हृदय में किए हुए घर!

भूल   गये हम जीवन का संदेश अनश्वर,
मृतकों के हैं मृतक, जीवतों का है ईश्वर!

sanjaygarhwali

  • Newbie
  • *
  • Posts: 38
  • Karma: +2/-0
उनका जन्म अल्मोड़ा ज़िले के कौसानी नामक ग्राम में २० मई १९०० को हुआ। जन्म के छह घंटे बाद ही माँ को क्रूर मृत्यु ने छीन लिया। शिशु को उसकी दादी ने पाला पोसा। शिशु का नाम रखा गया गुसाई दत्त।[२]वे सात भाई बहनों में सबसे छोटे थे। गुसाई दत्त की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा अल्मोड़ा में हुई। १९१८ में वे अपने मँझले भाई के साथ काशी आ गए और क्वींस कॉलेज में पढ़ने लगे। वहाँ से मैट्रिक उत्तीर्ण करने के बाद वे इलाहाबाद चले गए। उन्हें अपना नाम पसंद नहीं था, इसलिए उन्होंने अपना नाम रख लिया - सुमित्रानंदन पंत। यहाँ म्योर कॉलेज में उन्होंने इंटर में प्रवेश लिया। १९२१ में महात्मा गांधी के आह्मवान पर उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया और घर पर ही हिन्दी, संस्कृत, बँगला और अंग्रेजी का अध्ययन करने लगे।

इलाहाबाद में कचहरी के पास प्रकृति सौंदर्य से सजे हुए एक सरकारी बंगले में रहकर उन्होंने हिंदी साहित्य की ऐतिहासिक सेवा की। उन्होंने इलाहाबाद आकाशवाणी के शुरुआती दिनों में सलाहकार के रूप में भी कार्य किया। वे मधुमेह के मरीज थे। उनकी मृत्यु २८ सितंबर १९७७ को हुई।

sanjaygarhwali

  • Newbie
  • *
  • Posts: 38
  • Karma: +2/-0
चींटी को देखा?
वह सरल, विरल, काली रेखा
तम के तागे सी जो हिल-डुल,
चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल,
यह है पिपीलिका पाँति! देखो ना, किस भाँति
काम करती वह सतत, कन-कन कनके चुनती अविरत।

गाय चराती, धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती
लड़ती, अरि से तनिक न डरती,
दल के दल सेना संवारती,
घर-आँगन, जनपथ बुहारती।

चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।
देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की सी कतरन,
छुपा नहीं उसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भर
विचरण करती, श्रम में तन्मय
वह जीवन की तिनगी अक्षय।

वह भी क्या देही है, तिल-सी?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी।
दिनभर में वह मीलों चलती,
अथक कार्य से कभी न टलती।

sanjaygarhwali

  • Newbie
  • *
  • Posts: 38
  • Karma: +2/-0
        (क)

    तेरा कैसा गान,

विहंगम! तेरा कैसा गान?
न गुरु से सीखे वेद-पुराण,
न षड्दर्शन, न नीति-विज्ञान;
तुझे कुछ भाषा का भी ज्ञान,
काव्य, रस, छन्दों की पहचान?
न पिक-प्रतिभा का कर अभिमान,
मनन कर, मनन, शकुनि-नादान!

    हँसते हैं विद्वान,

गीत-खग, तुझ पर सब विद्वान!
दूर, छाया-तरु-बन में वास;
न जग के हास-अश्रु ही पास;
अरे, दुस्तर जग का आकाश,
गूढ़ रे छाया-ग्रथित-प्रकाश;
छोड़ पंखों की शून्य-उड़ान,
वन्य-खग! विजन-नीड़ के गान।

        (ख)

    मेरा कैसा गान,

न पूछो मेरा कैसा गान!
आज छाया बन-बन मधुमास,
मुग्ध-मुकुलों में गन्धोच्छ्वास;
लुड़कता तृण-तृण में उल्लास,
डोलता पुलकाकुल वातास;
फूटता नभ में स्वर्ण-विहान,
आज मेरे प्राणों में गान।

    मुझे न अपना ध्यान,

कभी रे रहा न जग का ज्ञान!
सिहरते मेरे स्वर के साथ,
विश्व-पुलकावलि-से-तरु-पात;
पार करते अनन्त अज्ञात
गीत मेरे उठ सायं-प्रात;
गान ही में रे मेरे प्राण,
अखिल-प्राणों में मेरे गान।

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22