Author Topic: SUMITRA NANDAN PANT POET - सुमित्रानंदन पंत - प्रसिद्ध कवि - कौसानी उत्तराखंड  (Read 158696 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Sumitra Nandan Pant Ji poem on Basant Ritu.

 
हसमुख हरियाली हिम-आतप
 सुख से अलसाए से सोये,
 भीगी अंधियाली में निशि की
 तारक स्वप्न में से खोए
 मरकत डिब्बे सा खुला ग्राम
 जिस पर नीलम नभ आच्छादन
 निरुपम हिमांत में स्निग्ध शांत
 निज शोभा से हरता जन मन

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Ganga Poem by Sumitra Nandan pant

अब आधा जल निश्चल, पीला,--
 आधा जल चंचल औ’, नीला--
 
 गीले तन पर मृदु संध्यातप
  सिमटा रेशम पट सा ढीला। 
 ... ... ... ... 
 ऐसे सोने के साँझ प्रात,
 ऐसे चाँदी के दिवस रात,
 
 ले जाती बहा कहाँ गंगा
  जीवन के युग क्षण,-- किसे ज्ञात! 
 
 विश्रुत हिम पर्वत से निर्गत,
 किरणोज्वल चल कल ऊर्मि निरत,
 
 यमुना, गोमती आदी से मिल
  होती यह सागर में परिणत। 
 
 यह भौगोलिक गंगा परिचित,
 जिसके तट पर बहु नगर प्रथित,
 
 इस जड़ गंगा से मिली हुई
  जन गंगा एक और जीवित! 
 
 वह विष्णुपदी, शिव मौलि स्रुता,
 वह भीष्म प्रसू औ’ जह्नु सुता,
 
 वह देव निम्नगा, स्वर्गंगा,
  वह सगर पुत्र तारिणी श्रुता। 
 
 वह गंगा, यह केवल छाया,
 वह लोक चेतना, यह माया,
 
 वह आत्म वाहिनी ज्योति सरी,
  यह भू पतिता, कंचुक काया। 
 
 वह गंगा जन मन से नि:सृत,
 जिसमें बहु बुदबुद युग नर्तित,
 
 वह आज तरंगित, संसृति के
  मृत सैकत को करने प्लावित। 
 
 दिशि दिशि का जन मत वाहित कर,
 वह बनी अकूल अतल सागर,
 
 भर देगी दिशि पल पुलिनों में
  वह नव नव जीवन की मृद् उर्वर! 
 ... ...  ...  ... ... 
 अब नभ पर रेखा शशि शोभित,
 गंगा का जल श्यामल, कम्पित,
 
 लहरों पर चाँदी की किरणें
  करतीं प्रकाशमय कुछ अंकित!
 
 रचनाकाल: फ़रवरी’ ४०
 


विनोद सिंह गढ़िया

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कविवर सुमित्रानंदन पन्त जी की अपनी मातृबोली कुमाऊंनी में एकमात्र कविता : बुरुंश


विनोद सिंह गढ़िया

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प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन जी पंत की एकमात्र कुमाऊंनी कविता।

बुरुंश



Kumaoni Poem by Poet Sumitra Nandan Pant.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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मैं तो उसे भाषे, क्रूर मानता हूँ सर्वथा
दु:ख तुम्हें देने के लिए है गढ़ी जिसने
मित्राक्षर-बेड़ी। हा ! पहनने से इसने
दी है सदा कोमल पदों में कितनी व्यथा !
जल उठता है यह सोच मेरा जी प्रिये,
भाव-रत्न-हीन था क्या दीन उसका हिया,
झूठे ही सुहाग में भुलाने भर के लिए
उसने तुम्हें जो यह तुच्छ गहना दिया ?
रँगने से लाभ क्या है फुल्ल शतदल के ?
चन्द्रकला-उज्जवला है आप नीलाकाश में।
मन्त्रपूत करने से लाभ गंगा-जल के ?
गन्ध ढालना है व्यर्थ पारिजात-वास में।
प्रतिमा प्रकृति की-सी कविता असल के
चीनी वधू-तुल्य पद क्यों हों लौह-पाश में ?

मित्राक्षर / सुमित्रानंदन पंत

विनोद सिंह गढ़िया

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सुमित्रानंदन पन्त जी की अपनी मातृभाषा कुमाऊंनी में एक कविता.



Kumaoni Poem by Sumitra Nandan Pant.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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अल्मोड़ा में स्थापित होगी टैगोर पीठ, होंगे सुमित्रानंदन पंत पर शोध

कुमाऊं विवि ने यूजीसी को भेजा प्रस्ताव
नवीन जोशी, नैनीताल। यूजीसी की एक योजना के तहत कुमाऊं विवि ने अपने अल्मोड़ा परिसर में नोबल पुरस्कार विजता रवींद्र नाथ टैगोर के नाम पर एक पीठ की स्थापना का प्रस्ताव तैयार किया है। इस पीठ में मुख्यतः अल्मो़डा के ही निवासी हिंदी के प्रख्यात छायावादी सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत के समग्र साहित्य पर शोध एवं गहन अध्ययन किया जाएगा।
कुमाऊं विवि के कुलपति प्रो. होशियार सिंह धामी ने बताया कि यूजीसी की 12वीं पंचवर्षीय योजना के तहत देश के विश्वविद्यालयों में देश के महान नोबल पुरस्कार विजता साहित्यकारों व विद्वानों के नाम पर पीठ स्थापित किए जाने की योजना है। रवींद्र नाथ टैगोर का अल्मोड़ा तथा अल्मोड़ा जिले के कौसानी में जन्मे सुमित्रानंदन पंत से गहरा नाता रहा है। इसे स्वयं पंत जी ने ‘श्री रवींद्रनाथ के संस्मरण’ नामक अपनी कृति में लिखा है कि कैसे कवींद्र रवींद्र से उनका सर्वप्रथम 1918 में बनारस के जयनारायण हाईस्कूल में 10वीं कक्षा में पढ़ने के दौरान पहला और 1933 की गर्मियों में रवींद्र के स्वास्थ्य लाभ के लिए अल्मोड़ा आगमन पर वहां के कैंटोनमेंट स्थित भव्य बंगले में प्रवास के दौरान दूसरी बार मिलन हुआ था। रवींद्र ने यहां पंत के किसी मित्र की पहाड़ी कविताएं सुनी थीं, और पंत से कहा था कि पर्वतीय तथा बंगाली भाषाएं आपस में काफी मिलती हैं। पंत यहां से टैगोर के साथ रानीखेत भी गए थे। रानीखेत की जनता ने टैगोर के स्वागत के लिए भव्य कार्यक्रम आयोजित किया था, और इस कार्यक्रम की अध्यक्षता पंत ने की थी। पंत 1933 में ही शांति निकेतन भी गए थे, और उनकी टैगोर से शांति निकेतन में तीन-चार बार भेंट हुई थी। पंत रवींद्र से काफी प्रभावित थे, और इसलिए उन्होंने रवींद्र पर पांच लेख-कवींद्र रवींद्र, रवींद्रनाथ का कृवित्व, रवींद्रनाथ और छायावाद, श्री रवींद्रनाथ के संस्मरण और रवींद्र के प्रति भावांजलि लिखे थे। इन्हीं संदर्भों के आधार पर रवींद्र के नाम से अल्मोड़ा स्थित कुमाऊं विवि के एसएसजे परिसर में रवींद्र नाथ टैगोर पीठ स्थापित करने का प्रस्ताव तैयार कर यूजीसी के महानिदेशक का भेजा जा रहा है। प्रो. धामी ने उम्मीद जताई कि अल्मोड़ा में हिंदी के शोधार्थी उसी माहौल में बैठक अधिक बेहतर तरीके से समझ पाएंगे कि कैसे यहां पंत ने अपनी कालजयी रचनाएं लिखीं, और वह भी वैसा ही कुछ मौलिक चिंतन करते हुए लिखने के लिए भी प्रेरित हो पाएंगे।https://navinsamachar.wordpress.com/2014/06/09/almora/

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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स्वर्णधूलि -सुमित्रानन्दन पंत 
(स्वर्णधूलि पंत से पुनर्निर्देशित)
स्वर्णधूलि -सुमित्रानन्दन पंत
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कवि   सुमित्रानन्दन पंत
मूल शीर्षक   स्वर्णधूलि
प्रकाशन तिथि   1947 ई.
देश   भारत
भाषा   हिन्दी
प्रकार   काव्य संकलन
विशेष   स्वर्णधूलि में संकलित रचनाओं की संख्या 80 है। इनके अंतर्गत 'आर्षवाणी' शीर्षक से 14 रचनाएँ और पंत द्वारा 1935 ई. में अनूदित 'सन्न्यासी का गीत' है और अंत में 'मानसी' रूपक है।
स्वर्णधूलि सुमित्रानन्दन पंत का सातवाँ काव्य-संकलन है। इसका प्रकाशन सन् 1947 ई. में हुआ। स्वर्णधूलि में संकलित रचनाओं की संख्या 80 है। इनके अंतर्गत 'आर्षवाणी' शीर्षक से 14 रचनाएँ और पंत द्वारा 1935 ई. में अनूदित 'सन्न्यासी का गीत' है और अंत में 'मानसी' रूपक है। 'सन्न्यासी का गीत' स्वामी विवेकानन्द कृत 'सांग ऑफ द सन्न्यासिन' का रूपांतर है।

कवि-मानस की स्वर्ण चेतना
'स्वर्णधूलि' कवि-मानस की स्वर्ण चेतना का प्रतीक है जो जड़ को चेतन के संस्पर्श से मूल्यवान बनाकर मानव के आरोहण के लिए मार्ग प्रशस्त करती है। स्वर्ण नयी जीवनचेतना की दिव्यता और महार्घता को विज्ञापित करता है। अपनी इसी भावना के अनुरूप कवि ने नये प्रतीक गढ़े हैं और अपनी भाषा-शैली को भी मांसल तथा चित्रमय बनाना चाहा है। परंतु 'पल्लव' के कवि और इन रचनाओं के कवि के बीच में बौद्धिक साधना और प्रौढ़ वर्षों का जो व्यवधान पड़ गया है, वह तिरोहित नहीं हो पाता। फिर भी जिस काव्य-भाषा का उपयोग इन उत्तर रचनाओं में मिलता है, वह प्राणवान और भावनामय है।

रचनाएँ
'स्वर्णधूलि' की रचनाओं को कई श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं-

कथात्मक रचनाएँ

प्रथम तो वे कथात्मक या संवादात्मक रचनाएँ हैं, जिनमें पंत ने सामाजिक और नैतिक मूल्यों की सूक्ष्मता पर प्रकाश डाला है। *'पतिता' ने बताया गया है कि नारी देह से कलंकित नहीं होती, मन से कलंकित होती है और प्रेम पतित को भी पावन करने में समर्थ है। कलंकित मालती को उसका पति केशव इसी सत्य के अमृत से जीवनदान देता है।

'परकीया' में हृदयस्थ सत्य को ही अंतिम वास्तविकता मान कर करुणा के परकीयत्व को लांछना से बचाने का उपक्रम है।
'ग्रामीण' में कवि पंत ने पश्चिमी रंग में रंगे श्रीधर के अंतस में सोए हुए ग्रामीण को दिखा कर, जो सहज आंतरिक श्रद्धा और सद्विश्वासों पर निर्भर है, उसे इस प्रवाद से उबारा है कि वह सूट-बूटधारी नागर मात्र है।
'सामंजस्य' में वह भावसत्य और वस्तुसत्य को आत्मसत्य के ही दो चेहरे सिद्ध करता है।
'आज़ाद' में मनुष्य के कर्म-स्वातंत्र्य को परिबद्ध बता कर दैवी शक्ति की महत्ता स्थापित की गयी है।
'लोकसत्य' में माधव-यादव के संवाद में मनुष्यत्व की क्षमा को जनबल से भी बड़ा कहा गया है। इस प्रकार की अन्य भी कई कथात्मक रचनाएँ इस संकलन की शोभा हैं और उनसे कवि पंत ने अपनी नयी आस्था को दृढ़ करने का काम लिया है।
चेतनावादी रचनाएँ

संकलन की रचनाओं में दूसरी कोटि चेतना वादी रचनाओं की है यद्यपि उनकी संख्या अधिक नहीं 'ज्योतिसर', 'निर्झर', 'अंतर्वाणी','अविच्छिन्न', 'कुण्ठित', 'आर्त्त', 'अंतर्विकास' आदि रचनाएँ इसी कोटि की हैं। इन रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ 'प्रणाम' और 'मातृचेतना' शीर्षक रचनाएँ हैं। पहली रचना से कवि के प्रेरणा-स्रोत का पता चलता है तो दूसरी रचना अरविन्द-दर्शन की स्पर्शमणि मातृचेतना को काव्योपम उपमानों में बाँधने का प्रयत्न है। दोनों रचनाएँ कवि पंत की नयी भाव-दिशा की द्योतक हैं।

प्रकृति संबंधित रचनाएँ

तीसरी कोटि की रचनाएँ प्रकृति संबंधित रचनाएँ हैं, जो कवि पंत की प्रकृति चेतना का नया संस्करण प्रस्तुत करती हैं। अंतः सलिला की भाँति प्रकृति-प्रेम पंत की काव्यचेतना का अभिन्न अंग रहा है। इस स्वर्णसूत्र में उनका समस्त काव्य विकास ग्रंथित है। प्रत्येक नए मोड़ के साथ उन्होंने प्रकृति की ओर नई भाव मुद्रा से देखा है और नये प्रतीकों तथा शब्द सूत्रों में उसे बाँधा है। अरविंदवादी काव्य में वसंत और शरद चाँदनी और मेघ नई अध्यात्म चेतना के प्रतीक बन गये हैं। 'सावन', क्रोटन की टहनी' और 'तालकुल' जैसी नयी अभिव्यंजनाओं वाली रचनाएँ भी यहाँ मिलेंगी, जिनमें कवि दार्शनिक ऊहापोम और चिंता की मुद्रा को पीछे छोड़ कर एकदम प्रकृतिस्थ हो जाता है और कलाकार की भाँति नये परिपार्श्व से प्रकृति को छायाचित्र बना देता है।

स्वातंत्र्य का अभिनन्दन

चौथी कोटि की रचनाएँ सद्योपलब्ध स्वातंत्र्य का अभिनन्दन अथवा ध्वजवंदन हैं। संकलन की एक कविता का उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा। यह कविता 'लक्ष्मण' शीर्षक है। कवि पंत के आत्मवृत्त में लक्ष्मण के प्रति उसके सतत जाग्रत प्रशंसा-भाव का उल्लेख मिलता है और उनके सेवाधर्म को उन्होंने आदर्श माना है। इस रचना में इसी ममत्व ने वाणी पायी है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कविताएं
वीणा (1919)
ग्रंथि (1920)
पल्लव (1926)
गुंजन (1932)
युगांत (1937)
युगवाणी (1938)
ग्राम्या (1940)
स्वर्णकिरण (1947)
कविताएं
स्वर्णधूलि (1947)
उत्तरा (1949)
युगपथ (1949)
चिदंबरा (1958)
कला और बूढ़ा चाँद (1959)
लोकायतन (1964)
गीतहंस (1969)।
कहानियाँ
पाँच कहानियाँ (1938)
उपन्यास
हार (1960),
आत्मकथात्मक संस्मरण
साठ वर्ष : एक रेखांकन (1963)।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Buransh बुरांश - सुमित्रानंदन पन्त
सार जंगल में त्वि ज क्वे न्हां रे क्वे न्हां ,
फुलन छै के बुरूंश ! जंगल जस जलि जां ।

सल्ल छ , दयार छ , पई अयांर छ ,
सबनाक फाडन में पुडनक भार छ ,
पै त्वि में दिलैकि आग , त्वि में छ ज्वानिक फाग ,
रगन में नयी ल्वै छ प्यारक खुमार छ ।

सारि दुनि में मेरी सू ज , लै क्वे न्हां ,
मेरि सू कैं रे त्योर फूल जै अत्ती माँ ।

काफल कुसुम्यारु छ , आरु छ , आँखोड़ छ ,
हिसालु , किलमोड़ त पिहल सुनुक तोड़ छ ,
पै त्वि में जीवन छ , मस्ती छ , पागलपन छ ,
फूलि बुंरुश ! त्योर जंगल में को जोड़ छ ?

सार जंगल में त्वि ज क्वे न्हां रे क्वे न्हां ,
मेरि सू कैं रे त्योर फुलनक म' सुंहा ॥

- सुमित्रानंदन पन्त

नोट : यह कविता कविवर सुमित्रानंदन पन्त जी की अपनी दुदबोली कुमाऊंनी में एक मात्र कविता है.

 

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