Author Topic: SUMITRA NANDAN PANT POET - सुमित्रानंदन पंत - प्रसिद्ध कवि - कौसानी उत्तराखंड  (Read 158157 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
साहित्य विचार

--------------------------------------------------------------------------------
निसर्ग में वैश्विक चेतना की अनुभूति: सुमित्रानंदन पंत 
कांति अय्यर 
बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध छायावादी कवियों का उत्थान काल था। उसी समय अल्मोड़ा निवासी सुमित्रानंदन पंत उस नये युग के प्रवर्तक के रूप में हिन्दी साहित्य में अभिहित हुये। इस युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और रामकुमार वर्मा जैसे छायावादी प्रकृति उपासक-सौन्दर्य पूजक कवियों का युग कहा जाता है।
पंत जी का जन्म 20 मई सन् 1900 ई. को कौसानी, जिला अल्मोड़ा (कुमाऊं) के बर्फ आच्छादित पर्वतीय प्रदेश में हुआ था। उच्च अभ्यास इलाहाबाद में करने के कारण उन्हें उस युग के महान साहित्यकारों का सानिध्य एवं प्रोत्साहन मिला। काव्य रचना के अंकुर तो अल्मोडा में ही प्रस्फुटित हो चुके थे। अल्मोडा का प्राकृतिक सौन्दर्य उनकी आत्मा में आत्मसात हो चुका था। झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भंवरा गुंजन, उषा किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने। निसर्ग के उपादानों का प्रतीक व बिम्ब के रूप में प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही। बारह वर्ष की उम्र से ही उनकी रचनाएं किसी न किसी पत्रिका में छपने लगीं।
इलाहाबाद में होने वाले कवि सम्मेलनों में उनके कंठ का माधुर्य प्रेक्षकों व श्रोताओं का मुख्य आकर्षण था। जितना मधुर कंठ था उतनी ही लालित्यपूर्ण-लावण्यपूर्ण कविता होती थी। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था, गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, उंची नाजुक कवि का प्रतीक समा शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था। सन् 1922 में उच्छवास काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। हरिवंश राय बच्चन भी उनके काव्य के चाहक थे। समकालीन होने के नाते एक से बढ़कर एक छायावादी कवि हिन्दी साहित्य की काव्यधारा को निसर्ग के गूढ़ तत्वों में डुबोता गये।
द्विवेदी युग की काव्य नीरसता पंत जी की मधुर संगीतमय काव्य लहरी और प्रकृति सौन्दर्य से मढ़ी भाषा से सरसता में बदल गयी। वे हिन्दी छायावादी काव्यधारा के प्रवाहक ही नहीं, स्थापक भी सिद्ध हुये। उन्होंने प्रकृति सौन्दर्य का जो रसपान कराया, वह अन्य छायावादी कवि भी न कर सके।
पंत जी की प्रथम रचना वीणा साहित्य-प्रेमियों के दिलोदिमाग पर गीत विहंग बनकर घूमती रही। स्वभाव से अति कोमल, संवेदनशील एवं मानव संवेदनाओं को मुखरित करने में कुशल पंत जी छायावाद के अग्रणी कवि माने जाने लगे। उनका काव्य संवेदनापूर्ण निसर्ग के प्रतीकों-बिम्बों से पूर्ण रहने के कारण अचेतन समझने वाली वस्तु में चेतना का संचार दिखने लगा। प्रकृति भी मानवीय संवेदना का भाव धारण कर अपनी अभिव्यक्ति में सक्षम लगने लगी। कवि पंत की संवेदना के शब्द मानव-प्रकृति और परम तत्व पर केंद्रित होने के कारण उसका समन्वय ही उनके काव्य का मूल तत्व सिद्ध हुआ।
कवि सर्वचेतनावादी रचनाकार होता है। इसलिए उसके अंदर एक अव्यक्त सौन्दर्य का आकर्षण उनकी चेतना को तन्मय करने में रत था। संध्या को रानी का रूप निहार कर कह उठते थे -
तारों की चुनरी ओढ़े, उतर रही संध्या रानी।
पंत जी कोमल सौम्य प्रकृति प्रेमी होने के कारण प्रकृति को स्वतंत्र सत्ताधीश, नारी सौष्ठव, लावण्यता देने का प्रयत्न करते। कभी सखी, कभी सुकोमल कन्या, बाल्या, प्रेयसी और सहचरी का रूप देकर प्रकृति के साथ एक-रूपता स्थापित की।
डॉ. कुट्टन लिखते हैं- 'पंत की काव्य दृष्टि, वीचि-विलास उषा की स्मित-किरण, ज्योर्तिमय नक्षत्र, फलों की मृदु मुस्कान, पत्रों के आनत अधर, अपलक अनंत, तत्वंगी गंगा, स्निग्ध चांदी के कगार, कल-कल, छल-छल बहती निर्झरणी, मेखलाकार पर्वत, अपार, लास्यनिरत लोल-लोल लहरें, मंजु गुंजरित मधुप की मार हम सब पर पड़ती है और कवि असीम आत्मीयता का आनंद अनुभव करता है। पंत का कवि तरू ण उषा की अरूण अधखुली आंखों से बिंध जाता है। (डॉ. एन पी, कुट्टन पिल्लै - पंत और उनका काव्य) सन् 1934 में ज्योत्स्ना काव्य संग्रह छपा, इसके बाद ही युगान्त एवं युगवाणी का प्रकाशन हुआ। पल्लव की भी लोकप्रियता रही और प्रकृति वर्णन की चर्चा रही।
विहंग कविता में पंत जी ने परमात्मा और आत्मा का अंशी-अंश संबन्ध प्रगट किया। आत्मा वैश्विक चिरंतन नित्य है। (ना हन्यते है।) आप लिखते हैं -
रिक्त होते जब-जब तरूवास
रूप धर तू नव-नव तत्काल
नित्य नादित रखता सोल्लास
विश्व के अक्षय वट की डाल।
(विहंग-गुंजन,पृ.83)
छायावादी की दृष्टि में संपूर्ण विश्व एक ही वैश्विक चेतना से परिपूर्ण होने के नाते प्रकृति में और जड़ जगत में मानवीकरण उद्भवित हो उठता है। छायावादी की दृष्टि में सभी तत्वों में एक ही चेतना का संचार प्रतीत होता है। वह क्षण में आनंदविभोर हो उठता है तो क्षण में विषादग्रस्त। पंत जी मानवीकरण के मुख्य प्रणेता माने जाते हैं। यहां पर हिमालय को संबोधित करते हुये पंत जी कह उठते हैं -
शैलाधिराज का हिम पर्वत
मरकत भू आसन पर शोभित
करती परिक्रमा शोभा नत
षड ऋतुएं नव यौवन मुकुलित।
पंत की काव्य-धारा या रचनात्मक कार्य सन् 1912 से सन् 1977 तक सतत चलता रहा। उनकी लेखनी प्रकृति सौन्दर्य, चिंतन-मनन एवं सत्यान्वेषण के मूल तत्वों पर केंद्रित रही। इतना ही नहीं, उन्होंने लोक कल्याण की भावना और ग्राम्य जीवन की सहजता पर भी लेखनी चलाई। अंत में इतना ही कहेंगे कि पंत जी सौन्दर्य शिल्पी एवं प्रकृति लालित्य के कलाकार थे।
स्वर्ण की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार
प्रसूनों के शाश्वत श्रृंगार
गूंज उठते थे बारम्बार।
(पल्लव)
संदर्भ :-
1. इंद्रप्रस्थ भारती अंक - अप्रेल-जून 1999
2. इद्रप्रस्थ भारती अंक - जनवरी-मार्च 2001
3. अध्ययन और अनुशीलन - डॉ. कुट्टन पिल्लै
4. रचनाकर्म - अक्टूबर-दिसंबर 2006 

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
Guru.... .Ji...

Chaya gaye... Really good stuff of information you have  brought.  (karma + Karma + Karma).

घंटा / सुमित्रानंदन पंत

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

नभ की है उस नीली चुप्पी पर
घंटा है एक टंगा सुन्दर,
जो घडी घडी मन के भीतर
कुछ कहता रहता बज बज कर।
परियों के बच्चों से प्रियतर,
फैला कोमल ध्वनियों के पर
कानों के भीतर उतर उतर
घोंसला बनाते उसके स्वर।
भरते वे मन में मधुर रोर
"जागो रे जागो, काम चोर!
डूबे प्रकाश में दिशा छोर
अब हुआ भोर, अब हुआ भोर!"
"आई सोने की नई प्रात
कुछ नया काम हो, नई बात,
तुम रहो स्वच्छ मन, स्वच्छ गात,
निद्रा छोडो, रे गई, रात!

धन्यवाद मेहता जी,
सब इंटरनेट की माया है

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
अमर स्पर्श / सुमित्रानंदन पंत
From Hindi Literature
Jump to: navigation, search
लेखक: सुमित्रानंदन पंत

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

युगपथ नामक रचना से

खिल उठा हृदय,
पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय!



खुल गए साधना के बंधन,
संगीत बना, उर का रोदन,
अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण,
सीमाएँ अमिट हुईं सब लय।



क्यों रहे न जीवन में सुख दुख
क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख?
तुम रहो दृगों के जो सम्मुख
प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय!



तन में आएँ शैशव यौवन
मन में हों विरह मिलन के व्रण,
युग स्थितियों से प्रेरित जीवन
उर रहे प्रीति में चिर तन्मय!



जो नित्य अनित्य जगत का क्रम
वह रहे, न कुछ बदले, हो कम,
हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम,
जग से परिचय, तुमसे परिणय!



तुम सुंदर से बन अति सुंदर
आओ अंतर में अंतरतर,
तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर
वरदान, पराजय हो निश्चय!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
मछुए का गीत / सुमित्रानंदन पंत
लेखक: सुमित्रानंदन पंत

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

प्रेम की बंसी लगी न प्राण!



तू इस जीवन के पट भीतर
कौन छिपी मोहित निज छवि पर?
चंचल री नव यौवन के पर,
प्रखर प्रेम के बाण!
प्रेम की बंसी लगी न प्राण!



गेह लाड की लहरों का चल,
तज फेनिल ममता का अंचल,
अरी डूब उतरा मत प्रतिपल,
वृथा रूप का मान!
प्रेम की बंसी लगी न प्राण!



आए नव घन विविध वेश धर,
सुन री बहुमुख पावस के स्वर,
रूप वारी में लीन निरन्तर,
रह न सकेगी, मान!
प्रेम की बंसी लगी न प्राण!



नाँव द्वार आवेगी बाहर,
स्वर्ण जाल में उलझ मनोहर,
बचा कौन जग में लुक छिप कर
बिंधते सब अनजान!
प्रेम की बंसी लगी न प्राण!



घिर घिर होते मेघ निछावर,
झर झर सर में मिलते निर्झर,
लिए डोर वह अग जग की कर,
हरता तन मन प्राण!
प्रेम की बंसी लगी न प्राण!


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
सांध्य वंदना / सुमित्रानंदन पंत
लेखक: सुमित्रानंदन पंत

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

जीवन का श्रम ताप हरो हे!
सुख सुषुमा के मधुर स्वर्ण हे!
सूने जग गृह द्वार भरो हे!



लौटे गृह सब श्रान्त चराचर
नीरव, तरु अधरों पर मर्मर,
करुणानत निज कर पल्लव से
विश्व नीड प्रच्छाय करो हे!



उदित शुक्र अब, अस्त भनु बल,
स्तब्ध पवन, नत नयन पद्म दल
तन्द्रिल पलकों में, निशि के शशि!
सुखद स्वप्न वन कर विचरो हे!



"

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
याद / सुमित्रानंदन पंत
लेखक: सुमित्रानंदन पंत

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

विदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर
मेरे एकाकी मन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर!
वह केसरी दुकुल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर,
नव असाढ के मेघों से घिर रहा बराबर अम्बर!
मैं बरामदे में लेटा शैय्या पर, पीडित अवयव,
मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव!
सक्रिय यह सकरुण विषाद, -मेघों से उमड घुमड कर
भावी के बहुस्वप्न, भाव बहु व्यथित कर रहे अंतर!
मुखर विरह दादुर पुकारता उत्कंठित भेकी को,
वर्ह भार से मोर लुभाता मेघ-मुग्ध केकी को,
आलोकित हो उठता सुख से मेघों का नभ चंचल,
अंतरतम में एक मधुर स्मृति जग जग उठती प्रतिपल।
कम्पित करता वक्ष धरा का घन गंभीर गर्जन स्वर,
भू पर आ ही गया उतर शत धाराओं में अम्बर!
भीनी भाप सहज ही साँसों में घुल मिल कर
एक और भी मधुर गंध से हृदय दे रही है भर!
नव असाढ की संध्या में, मेघों के तम में कोमल,
पीडित एकाकी शैय्या पर, शत भावों से विह्व्ल,
एक मधुरतम स्मृति पल भर विद्युत सी जल कर उज्जवल
याद दिलाती मुझे, हृदय में रहती जो तुम निश्चल

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
गंगा / सुमित्रानंदन पंत
 
लेखक: सुमित्रानंदन पंत

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

अब आधा जल निश्चल, पीला, -
आधा जल चंचल औ', नीला -
गीले तन पर मृदु संध्यातप
सिमटा रेशम पट सा ढीला!



.....................



ऐसे सोने के साँझ प्रात,
ऐसे चाँदी के दिवस रात,
ले जाती बहा कहाँ गंगा
जीवन के युग-क्षण - किसे ज्ञात!



विश्रुत हिम पर्वत से निर्गत,
किरणोज्ज्वल चल कल उर्मि निरत,
यमुना गोमती आदी से मिल
होती यह सागर में परिणत।



यह भौगोलिक गंगा परिचित,
जिसके तट पर बहु नगर प्रथित,
इस जड़ गंगा से मिली हुई
जन गंगा एक और जीवित!



वह विष्णुपदी, शिवमौलि स्रुता,
वह भीष्म प्रसू औ' जह्न सुता,
वह देव निम्नगा, स्वर्गंगा,
वह सगर पुत्र तारिणी श्रुता।



वह गंगा, यह केवल छाया,
वह लोक चेतना, यह माया,
वह आत्मवाहिनी ज्योति सरी,
यह भू पतिता, कंचुक काया।



वह गंगा जन मन से नि:सृत,
जिसमें बहु बुदबुद युग निर्तित,
वह आज तरंगित संसृति के
मृत सैकत को करने प्लावित।



दिशि दिशि का जन मन वाहित कर,
वह बनी अकूल अतल सागर,
भर देगी दिशि पल पुलिनों में
वह नव नव जीवन की मृदु उर्वर!



........................



अब नभ पर रेखा शशि शोभित
गंगा का जल श्यामल कम्पित,
लहरों पर चाँदी की किरणें
करती प्रकाशमय कुछ अंकित!


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
विजय / सुमित्रानंदन पंत
 
लेखक: सुमित्रानंदन पंत

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

उत्तरा नामक रचना से'



मैं चिर श्रद्धा लेकर आई
वह साध बनी प्रिय परिचय में,
मैं भक्ति हृदय में भर लाई,
वह प्रीति बनी उर परिणय में।



जिज्ञासा से था आकुल मन
वह मिटी, हुई कब तन्मय मैं,
विश्वास माँगती थी प्रतिक्षण
आधार पा गई निश्चय मैं !



प्राणों की तृष्णा हुई लीन
स्वप्नों के गोपन संचय में
संशय भय मोह विषाद हीन
लज्जा करुणा में निर्भय मैं !



लज्जा जाने कब बनी मान,
अधिकार मिला कब अनुनय में
पूजन आराधन बने गान
कैसे, कब? करती विस्मय मैं !



उर करुणा के हित था कातर
सम्मान पा गई अक्षय मैं,
पापों अभिशापों की थी घर
वरदान बनी मंगलमय मैं !



बाधा-विरोध अनुकूल बने
अंतर्चेतन अरुणोदय में,
पथ भूल विहँस मृदु फूल बने
मैं विजयी प्रिय, तेरी जय में।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
आ: धरती कितना देती है / सुमित्रानंदन पंत
 
कवि: सुमित्रानंदन पंत

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे ,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी ,
और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा !
पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा ,
बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला ।
सपने जाने कहां मिटे , कब धूल हो गये ।



मै हताश हो , बाट जोहता रहा दिनो तक ,
बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर ।
मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे ,
ममता को रोपा था , तृष्णा को सींचा था ।



अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे ।
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने
ग्रीष्म तपे , वर्षा झूलीं , शरदें मुसकाई
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे ,खिले वन ।



औ' जब फिर से गाढी ऊदी लालसा लिये
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की
गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे ।
भू के अन्चल मे मणि माणिक बाँध दिए हों ।



मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन ।
किन्तु एक दिन , जब मै सन्ध्या को आँगन मे
टहल रहा था- तब सह्सा मैने जो देखा ,
उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से ।



देखा आँगन के कोने मे कई नवागत
छोटी छोटी छाता ताने खडे हुए है ।
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की;
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं ,प्यारी -
जो भी हो , वे हरे हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उडने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोडकर निकले चिडियों के बच्चे से ।



निर्निमेष , क्षण भर मै उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया कुछ दिन पहले ,
बीज सेम के रोपे थे मैने आँगन मे
और उन्ही से बौने पौधौं की यह पलटन
मेरी आँखो के सम्मुख अब खडी गर्व से ,
नन्हे नाटे पैर पटक , बढ़ती जाती है ।



तबसे उनको रहा देखता धीरे धीरे
अनगिनती पत्तो से लद भर गयी झाडियाँ
हरे भरे टँग गये कई मखमली चन्दोवे
बेलें फैल गई बल खा , आँगन मे लहरा
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे हरे सौ झरने फूट ऊपर को
मै अवाक रह गया वंश कैसे बढता है



यह धरती कितना देती है । धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रो को
नहीं समझ पाया था मै उसके महत्व को
बचपन मे , छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर



रत्न प्रसविनि है वसुधा , अब समझ सका हूँ ।
इसमे सच्ची समता के दाने बोने है
इसमे जन की क्षमता के दाने बोने है
इसमे मानव ममता के दाने बोने है
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसले
मानवता की - जीवन क्ष्रम से हँसे दिशाएं
हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे ।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया / सुमित्रानंदन पंत
 
कवि: सुमित्रानंदन पंत

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया,


बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!


तज कर तरल तरंगों को, इन्द्रधनुष के रंगों को,


तेरे भ्रू भ्रंगों से कैसे बिधवा दूँ निज मृग सा मन?
भूल अभी से इस जग को!


कोयल का वह कोमल बोल, मधुकर की वीणा अनमोल,


कह तब तेरे ही प्रिय स्वर से कैसे भर लूँ, सजनि, श्रवण?
भूल अभी से इस जग को!


ऊषा-सस्मित किसलय-दल, सुधा-रश्मि से उतरा जल,

ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन?
भूल अभी से इस जग को!
"

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22