Author Topic: SUMITRA NANDAN PANT POET - सुमित्रानंदन पंत - प्रसिद्ध कवि - कौसानी उत्तराखंड  (Read 158292 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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विजय

'उत्तरा' से

मैं चिर श्रद्धा लेकर आई
वह साध बनी प्रिय परिचय में,
मैं भक्ति हृदय में भर लाई,
वह प्रीति बनी उर परिणय में।

      जिज्ञासा से था आकुल मन
      वह मिटी, हुई कब तन्मय मैं,
      विश्वास माँगती थी प्रतिक्षण
      आधार पा गई निश्चय मैं !

           प्राणों की तृष्णा हुई लीन
           स्वप्नों के गोपन संचय में
           संशय भय मोह विषाद हीन
           लज्जा करुणा में निर्भय मैं !

                 लज्जा जाने कब बनी मान,
                 अधिकार मिला कब अनुनय में
                 पूजन आराधन बने गान
                 कैसे, कब? करती विस्मय मैं !

उर करुणा के हित था कातर
सम्मान पा गई अक्षय मैं,
पापों अभिशापों की थी घर
वरदान बनी मंगलमय मैं !

           बाधा-विरोध अनुकूल बने
           अंतर्चेतन अरुणोदय में,
           पथ भूल विहँस मृदु फूल बने
           मैं विजयी प्रिय, तेरी जय में।



- सुमित्रानंदन पंत


 
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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A rare photograph of 1940s Sumitra Nandan Pant (seated), Harivansh Rai Bachchan (left) and Pt Narendra Sharma (right)



एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Sumitranandan Pant
Sumitranandan Pant was born in Kausani (Almora district of Uttaranchal) in 1957. He died on 28th December, 1977. He started writing in 1975 and composed a huge number of poems, songs, plays, essays and short stories. He was a writer of the Chhayavaad style. He gave a flowery and melodious colour to his poems. He was awarded the Jnanpith award for his famous collection of poems ‘Chidambara’.
His wrote in Khadi Boli. His famous works are:
1. Poems – Paalav, Veena, Gunjan, Granthi, Veena
2. Stories – Paanch Kahaniyaan
3. Plays – Jyotsna, Rajatshikhar, Shilpi
 
The book ‘Rashmibandh’ is a compilation of 99 poems by Pant. The revised addition with some new poems was published in 1971. It has poems like Pratham Rashmi, Taaj, Baapu, Himadri, Yathatathya and Yatharth aur Adarsh. A few lines from Pratham Rashmi:
        प्रथम रश्मि का आना रंगिणि, तूने कैसे पहचाना ?
        कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि ! पाया, तूने यह गाना ?
         सोई थी तू स्वप्न नीड़ में पंखों के मुख में छिपकर,
         झूम रहे थे, घूम द्वार पर, प्रहरी-से जुगुनू नाना !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पंत जयंती पर प्रतियोगिता 19 कोMay 17, 11:31 pm

कौसानी (बागेश्वर)। प्रसिद्ध छायावादी कवि सुमित्रा नंदन पंत के जन्म दिवस की पूर्व संध्या पर 19 मई को विविध प्रतियोगिताएं आयोजित की जाएंगी। पंत वीथिका के प्रभारी डा ज्ञान प्रकाश तिवारी ने बताया कि कक्षा 4 व 5 के बच्चों की कला प्रतियोगिता, कक्षा 6 से 8 तक के बच्चों की जल संरक्षण पर निबंध प्रतियोगिता व कक्षा 9 से 12 तक के बच्चों की आपदा प्रबंधन विषय पर निबंध प्रतियोगिता आयोजित की जाएगी। बताया कि विजयी प्रतिभागियों को कवि पंत के जन्म दिवस पर 20 मई को पुरस्कृत किया जाएगा।

hem

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पंतजी की एक कविता के कुछ अंश, जो मुझे अच्छे लगे :

मुझको लिखता देख, हाथ से कलम छीन कर
मेरी पोती ने टेढ़ी मेढ़ी रेखाएं
कागज़ पर कुछ खींच,मोड़ अपनी प्रिय ग्रीवा,
देखा मेरी ओर,दर्प से स्फीत दृष्टि से!..........
.............................................................
............................................................... 
                                                 सहसा मेरा
ध्यान गया अपने ऊपर!............कुछ सीधे टेढे
आख्रर कागज पर लिख,उनको गीत छंद कह,
मैं भी संभवतः सर्वज्ञं समझता हूँ अब
अपने को, गौरव से फूला! क्या मनुष्य में
शाश्वत शैशव कहीं छिपा रहता, अंतस की
भाव-मूक गोपन खोहों में?     
                                              कितना थोड़ा
मनुज जान पाता आजीवन विद्यार्जन कर !
सदा अगम्य रहेगा ज्ञान, मनुज अबोध शिशु!
पोती की विस्मित चितवन में सत्य था महत् !     

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत का भावपूर्ण स्मरणMay 20, 11:57 pm

अल्मोड़ा। प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत की जयंती के अवसर पर उनका भावपूर्ण स्मरण किया गया। इस मौके पर छायावाद पर लिखी उनकी अनेक कविताओं पर चर्चा की गयी। कुमाऊंनी में लिखी उनकी कविता का भी उल्लेख इस अवसर पर किया गया। नगरपालिका परिषद की ओर से सुमित्रानंदन पंत पार्क में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस मौके पर कविवर पंत की मूर्ति पर माल्यार्पण कर उनका स्मरण किया गया।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पैतृक गांव में मनाई कविवर पंत की जयंतीMay 21, 10:49 pm

अल्मोड़ा। प्रकृति सुकुमार कवि पं.सुमित्रानंदन पंत की 108वीं जयंती उनके पैतृक गांव स्यूनराकोट में धूमधाम से मनाई गई। इस अवसर पर वरिष्ठ कवि व साहित्यकार जुगल किशोर पेटशाली को शाल भेंट की गई। कुमाऊंनी भाषा, साहित्य व संस्कृति प्रचार समिति द्वारा आयोजित समारोह में एक व्याख्यान सभा भी हुई। वक्ताओं ने कहा कि हमें स्व.पंत की विचार धाराओं को अपने जीवन में उतारना चाहिए। उन्होंने साहित्य की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह हमें नई राह दिखाता है। इस अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम भी प्रस्तुत किए गए।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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द्रुत झरो / सुमित्रानंदन पंत
From Hindi Literature
यहां जाईयें: नेविगेशन, ख़ोज
'
  रचनाकार: सुमित्रानंदन पंत                 
 
 

द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र!
हे स्त्रस्त ध्वस्त! हे शुष्क शीर्ण!
हिम ताप पीत, मधुमात भीत,
तुम वीतराग, जड़, पुराचीन!!



निष्प्राण विगत युग! मृत विहंग!
जग-नीड़, शब्द औ\' श्वास-हीन,
च्युत, अस्त-व्यस्त पंखों से तुम
झर-झर अनन्त में हो विलीन!



कंकाल जाल जग में फैले
फिर नवल रुधिर,-पल्लव लाली!
प्राणों की मर्मर से मुखरित
जीव की मांसल हरियाली!



मंजरित विश्व में यौवन के
जगकर जग का पिक, मतवाली
निज अमर प्रणय स्वर मदिरा से
भर दे फिर नव-युग की प्याली!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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असहयोग आन्दोलन के समय महात्मा गांधी के सम्मुख शिक्षा-संस्थान छोड़ने की प्रतिज्ञा करने के कारण फिर आपने विधिवत शिक्षा ग्रहण नहीं की। किन्तु अपनी लगन के कारण आपने अनेक विषयों का और विशेषकर साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया। आधुनिक युग की सम्पूर्ण प्रगतियों के सम्बन्ध में भी आपका ज्ञान विशेष रुप से प्रोढ़ है।
कविता की ओर पंत जी की रुचि जन्मजात रही। बाल्य-काल ही से आप कविता लिखने लगे थे। किसी-कवि के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह एक ही रात में अथवा एक ही रचना से प्रसिद्ध हो गया। पन्त जी के सम्बन्ध में भी यह अक्षरशः सत्य है। आप अपनी पहली ही छवि रचना से हिन्दी के साहित्यकाश में पूर्ण प्रभा से उदित हो गये। आपकी कविता के छन्द, भाषा, भाव भौर कल्पना ने सबको विमोहित कर लिया।
‘ग्राम्या’ और ‘गुँजन’ पंत जी की सर्वश्रेष्ठ काव्य कृतियाँ हैं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
विज्ञापन
गुंजन पाठकों के सामने हैं, इसमें सभी तरह की कविताओं का समावेश है; कुछ नवीन प्रयत्न भी। सुविधा के लिए प्रत्येक पद्य के नीचे रचना-काल दे दिया है। यदि गुंजन मेरे पाठकों का मनोरंजन कर सका, तो मुझे प्रसन्नता होगी, न कर सका तो आश्चर्य न होगा, यह मेरे प्राणों की उन्मन गुंजन मात्र है।
‘मेंहदी’ में दूसरे वर्ण पर स्वरपात मधुर लगता है, तब यह शब्द चार ही मात्राओं का रह जाता है। जैसा कि साधारणत: उच्चरित भी होता है। प्रिय प्रियाऽह्लाद से ‘प्रिय प्रि’-‘आह्लाद’ अच्छा लगता है, इस प्रकार की स्वतन्त्रता मैंने कहीं-कहीं ली है। ‘अनिर्वचनीय’ के स्थान पर ‘अनिवर्च’, ‘हरसिंगार’ के स्थान पर ‘सिंगार’ आदि।
‘पल्लव’ की कविताओं में मुझे ‘सा’ के बाहुल्य ने लुभाया था। यथा-
अर्थ-निद्रित-सा, विस्मृत-सा,
न जागृत-सा, न विमूर्छित-सा-इत्यादि।
‘गुंजन‘ में ‘रे’ की पुनरुक्ति का मोह मैं नहीं छोड़ सका। यथा-
‘तप रे मधुर-मधुर मन’-इत्यादि।
‘सा’ से, जो मेरी वाणी का सम्वादी स्वर एकदम ‘रे’ हो गया, यह उन्नति का क्रम संगीत-प्रेमी पाठकों को खटेगा नहीं, ऐसा मुझे विश्वास है।
इति
-सुमित्रानंदन पंत
गुंजन
वन- वन उपवन
छाया उन्मन- उन्मन गुंजन
नव वय के अलियों का गुंजन !

रुपहले, सुनहले, आम्र, मौर,
नीले, पीले औ ताम्र भौंर,
रे गंध-गंध हो ठौर-ठौर
उड़ पाँति-पाँति में चिर उन्मन
करते मधु के वन में गुंजन !
वन के विटपों की डाल-डाल
कोमल कलियों से लाल-लाल,
फैली नव मधु की रूप ज्वाल,
जल-जल प्राणों के अलि उन्मन
करते स्पन्दन, भरते-गुंजन !
अब फैला फूलों में विकास,
मुकुलों के उर में मदिर वास,
अस्थिर सौरभ से मलय-श्वास,
जीवन-मधु-संचय को उन्मन
करते प्राणों के अलि गुंजन !
(जनवरी, 1932)
1
तप रे मधुर-मधुर मन !
विश्व वेदना में तप प्रतिपल,
जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्जवल औ’ कोमल
तप रे विधुर-विधुर मन !
अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,
स्थापित कर जग में अपनापन;
ढल रे ढल आतुर मन !
        तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
        गंध-हीन तू गंध-युक्त बन
        निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,
        मूर्तिमान बन, निर्धन !
        गल रे गल निष्ठुर मन !
(जनवरी, 1932)
2
शांत सरोवर का उर
किस इच्छ के लहरा कर
हो उठता चंचल, चंचल !
सोये वीणा के सुर
क्यों मधुर स्पर्श से मरमर्
बज उठते प्रतिपल, प्रतिपल !
आशा के लघु अंकुर
        किस सुख से पर फड़का कर
        फैलाते नव दल पर दल !
मानव का मन निष्ठुर
        सहसा आँसू में झर-झर
        क्यों जाता पिघल-पिघल गल !
मैं चिर उत्कंठातुर
        जगती के अखिल चराचर
        यों मौन-मुग्ध किसके बल !
(फरवरी,1932)
3
आते कैसे सूने पल
जीवन में ये सूने पल ?
जब लगता सब विश्रृंखल;
तृण, तरु, पृथ्वी, नभमंडल !
        खो देती उर की वीणा
        झंकार मधुर जीवन की,
        बस साँसों के तारों में
        सोती स्मृति सूनेपन की !
बह जाता बहने का सुख,
लहरों का कलरव, नर्तन,
बढ़ने की अति-इच्छा में
जाता जीवन से जीवन !
        आत्मा है सरिता के भी
        जिससे सरिता है सरिता;
        जल-जल है, लहर-लहर रे,
        गति-गति सृति-सृति चिर भरिता !
क्या यह जीवन ? सागर में
जल भार मुखर भर देना !
कुसुमित पुलिनों की कीड़ा-
ब्रीड़ा से तनिक ने लेना !
        सागर संगम में है सुख,
        जीवन की गति में भी लय,
        मेरे क्षण-क्षण के लघु कण
        जीवन लय से हों मधुमय
(जनवरी,1932)
4
मैं नहीं चाहता चिर सुख,
मैं नहीं चाहता चिर दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरण;
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन !
       
        जग पीड़ित है अति दुख से
        जग पीड़ित रे अति सुख से,
        मानव जग में बँट जाएँ
        दुख सुख से औ’ सुख दुख से !

अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न,
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन।

        यह साँझ-उषा का आँगन,
        आलिंगन विरह-मिलन का;
        चिर हास-अश्रुमय आनन
        रे इस मानव-जीवन का !
(फरवरी,1932)
5
देखूँ सबके उर की डाली
            किसने रे क्या-क्या चुने फूल
            जग के छवि-उपवन से अकूल !
            इसमें कलि, किसलय,कुसुम, शूल !

किस छवि, किस मधु के मधुर भाव ?
किस रँग, रस, रुचि से किसे चाव !
कवि से रे किसका क्या दुराव !

            किसने ली पिक की विरह तान ?
            किसने मधुकर का मिलन गान ?
            या फुल्ल कुसुम, या मुकुल म्लान ?
देखूँ सबके उर की डाली-

            सब में कुछ सुख के तरुण फूल
            सब में कुछ दुख के करुण शूल-
            सुख-दुख न कोई सका भूल ?
(फरवरी,1932)
6
सागर की लहर लहर में
है हास स्वर्ण किरणों का,
सागर के अंतस्तन में
अवसाद अवाक् कणों का !
           
            यह जीवन का है सागर,
            जग-जीवन का है सागर,
            प्रिय-प्रिय विषाद रे इसका
            प्रिय प्रि’ आह्लाद रे इसका !

जग जीवन में हैं सुख-दुख,
सुख-दुख में है जग जीवन;
हैं बँधे बिछोह-मिलन दो
देकर चिर स्नेहालिंगन !
   
            जीवन की लहर-लहर से
            हँस खेल-खेल रे नाविक !
            जीवन के अंतस्तल में
            नित बूड़-बूड़ रे भाविक !
(फरवरी,1932)
7
आँसू की आँखों से मिल
भर ही आते हैं लोचन,
हँसमुख ही से जीवन का
पर हो सकता अभिवादन !

        अपने मधु में लिपटा पर
        कर सकता मधुप न गुंजन,
        करुणा से भारी अंतर
        खो देता जीवन-कंपन

विश्वास चाहता है मन,
विश्वास पूर्ण जीवन पर;
सुख-दुख के पुलिन डुबा कर
लहराता जीवन-सागर !
           
दुख इस मानव-आत्मा का
रे नित का मधुमय-भोजन
दुख के तम को खा-खा कर
भरती प्रकाश से वह मन !

        अस्थिर है जग का सुख-दुख
        जीवन ही सत्य चिरंतन !
        सुख-दुख से ऊपर; मन का
        जीवन ही रे अवलंबन !
(फरवरी,1932)
8
कुसुमों के जीवन का पल
हँसता ही जग में देखा,
इन म्लान, मलिन अधरों पर
स्थिर रही न स्मिति की रेखा !

        वन की सूनी डाली पर
        सीखा कलि ने मुसकाना,
        मैं सीख न पाया अब तक
        सुख से दुख को अपनाना !

काँटों से कुटिल भरी हो
यह जटिल जगत की डाली,
इसमें ही तो जीवन के
पल्लव की फूटी लाली !

        अपनी डाली के काँटे
        बेधते नहीं अपना तन
        सोने-सा उज्जवल बनने
        तपता नित प्राणों का धन !

दुख-दावा से नव अंकुर
पाता जग-जीवन का वन,
करुणार्द्र विश्व की गर्जन,
बरसाती नव जीवन-कण !
(फरवरी,1932)
9
        जाने किस छल-पीड़ा से
        व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन,
        ज्यों बरस-बरस पड़ने को
        हों उमड़-उमड़ उठते घन !

अधरों पर मधुर अधर धर,
कहता मदु स्वर में जीवन-
बस एक मधुर इच्छा पर
अर्पित त्रिभुवन-यौवन-धन
       
        पुलकों से लद जाता तन,
        मुँद जाते मद से लोचन
        तत्क्षण सचेत करता मन-
        ना, मुझे इष्ट है साधन

इच्छा है जग का जीवन
पर साधन आत्मा का धन;
जीवन की इच्छा है छल
आत्मा का जीवन जीवन !

            फिरतीं नीरव नयनों में
            छाया-छबियाँ मन-मोहन
            फिर-फिर विलीन होने को
            ज्यों घिर-घिर उठते हों घन

ये आधी, अति इच्छाएँ
साधन भी बाधा बंधन;
साधन भी इच्छा ही है
सम-इच्छा ही रे साधन !

            रह-रह मिथ्या-पीड़ा से
            दुखता-दुखता मेरा मन
            मिथ्या ही बतला देती
            मिथ्या का रे मिथ्यापन !
(फरवरी,1932)
10
क्या मेरी आत्मा का चिर धन ?
मैं रहता नित उन्मन, उन्मन !

प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर,
तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर,
सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर;

        निज सुख से ही चिर चंचल मन,
        मैं हूँ प्रतिपल उन्मन, उन्मन।

मैं प्रेम उच्चादर्शों का,
संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शों का,
जीवन के हर्ष-विमर्षों का;
   
        लगता अपूर्ण मानव-जीवन,
        मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन।

जग-जीवन में उल्लास मुझे,
नव आशा; नव अभिलाष मुझे;
ईश्वर पर चिर विश्वास मुझे;

        चाहिए विश्व को नव जीवन
        मैं आकुल रे उन्मन उन्मन !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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सारांश:
इसमें पंत जी की चुनी हुई कवितायें का संकलन है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन !
ग्राम्या में मेरी युगवाणी के बाद की रचनाएँ संग्रहीत हैं। इनमें पाठकों को ग्रामीणों के प्रति केवल बौद्धिक सहानुभूति ही मिल सकती है। ग्राम जीवन में मिलकर, उसके भीतर से, ये अवश्य नहीं लिखी गई हैं। ग्रामों की वर्तमान दशा में वैसा करना केवल प्रति-क्रियात्मक साहित्यको जन्म देना होता। ‘युग’, ‘संस्कृति’ आदि शब्द इन रचनाओं में वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए प्रयुक्त हुए हैं, जिसे समझने में पाठकों को कठिनाई नहीं होगी; ग्राम्या की पहिली कविता ‘स्वप्न पट’ से यह बात स्पष्ट हो जाती है। ‘बापू’ और ‘महात्मा जी के प्रति’, ‘चरखा गीत’ और ‘सूत्रधर’ जैसी कुछ कविताओं में बाहरी दृष्टि से एक विचार-वैषम्य जान पड़ता है, पर यदि हम ‘आज’ और ‘कल’ दोनों को देखेंगे तो वह विरोध नहीं रहेगा।
अंत में मेरा निवेदन है कि ग्राम्या में ग्राम्य दोषों का होना अत्यन्त स्वाभाविक है, सहृदय पाठक उसमें विचलित न हों।

नक्षत्र
कालाकाँकर (अवध)
1 मार्च, 1940 ई.   
               
-सुमित्रानंदन पंत
स्वप्न पट !
ग्राम नहीं, वे ग्राम आज
औ’ नगर न नगर जनाऽकर,
मानव कर से निखिल प्रकृति जग
संस्कृत सार्थक, सुंदर !

देश राष्ट्र वे नहीं,
जीर्ण जग पतझर आस समापन,
नील गगन है: हरित धरा:
नव युग: नव मानव जीवन !

आज मिट गए दैन्य दुःख,
सब क्षुधा तृषा के क्रंदन
भावी स्वप्नों के पट पर
युग जीवन करता नर्तन !

डूब गए सब तर्क वाद,
सब देशों राष्ट्रों के रण;
डूब गया रव घोर क्रांति का,
शांत विश्व संघर्षण !

जाति वर्ण की, श्रेणि वर्ग की
तोड़ भित्तियाँ दुर्धर
युग युग के बंदीगृह से
मानवता निकली बाहर !

नाच रहे रवि शशि,
दिगंत में-नाच रहे ग्रह उडुगण
नाच रहा भूगोल,
नाचते नर नारी हर्षित मन !

फुल्ल रक्त शतदल पर शोभित
युग लक्ष्मी लोकोज्ज्वल
अयुत करों से लुटा रही
जन हित, जन बल, जन मंगल !

ग्राम नहीं वे, नगर नहीं वे,
मुक्त दिशा औ’ क्षण से
जीवन की क्षुद्रता निखिल
मिट गई मनुज जीवन से !
ग्राम कवि
यहाँ न पल्लव वन में मर्मर,
यहाँ न मधु विहगों में गुंजन,
जीवन का संगीत बन रहा
यहाँ अतृप्त हृदय का रोदन !

यहाँ नहीं शब्दों में बँधती
आदर्शों की प्रतिमा जीवित,
यहाँ व्यर्थ है चित्र गीत में
सुंदरता को करना संचित !

यहाँ धरा का मुख कुरूप है,
कुत्सित गर्हित जन का जीवन,
सुंदरता का मूल्य वहाँ क्या
जहाँ उदर है क्षुब्ध, नग्न तन ?-

जहाँ दैन्य जर्जर असंख्य जन
पशु-जघन्य क्षण करते यापन,
कीड़ों-से रेंगते मनुज शिशु,
जहाँ अकाल वृद्ध है यौवन !

सुलभ यहाँ रे कवि को जग में
युग का नहीं सत्य शिव सुंदर,
कँप कँप उठते उसके उर की
व्यथा विमूर्छित वीणा के स्वर !
ग्राम
बृहद् ग्रंथ मानव जीवन का, काल ध्वंस से कवलित,
ग्राम आज है पृष्ठ जनों की करुण कथा का जीवित !
युग युग का इतिहास सभ्यताओं का इसमें संचित,
संस्कृतियों को ह्रास वृद्धि जन शोषण से रेखांकित !

हिस्र विजेताओं, भूपों के आक्रमणों की निर्दय,
जीर्ण हस्तलिपि यह नृशंस गृह संघर्षों की निश्चय !
धर्मों का उत्पात, जातियों वर्गों, का उत्पीड़न,
इसमें चिर संकलित रूढ़ि, विश्वास विचार सनातन !
चर घर के बिखरे पन्नों में नग्न, क्षुधार्त कहानी,
जन मन के दयनीय भाव कर सकती प्रकट न वाणी !
मानव दुर्गति की गाथा से ओतप्रोत मर्मांतक
सदियों के अत्याचारों की सूची यह रोमांचक !

मनुष्यत्व के मूलतत्त्व ग्रामों ही में अंतर्हित,
उपादान भावी संस्कृति के भरे यहाँ हैं अविकृत !
शिक्षा के सत्याभासों से ग्राम नहीं हैं पीड़ित,
जीवन के संस्कार अविद्या-तम में जन के रक्षित !
ग्राम दृष्टि
देख रहा हूँ आज विश्व को ग्रामीण नयन से
सोच रहा हूँ जटिल जगत पर, जीवन पर जन मन से !

ज्ञान नहीं है, तर्क नहीं है, कला न भाव विवेचन,
जन हैं जग है, क्षुधा, काम, इच्छाएँ जीवन साधन !

रूप जगत् है, रूप दृष्टि है, रूप बोधमय है मन,
माता पिता बंधु, बांधव, परिजन पुरजन भू गो धन।

रूढ़ि रीतियों के प्रचलित पथ, जाति पाँचि के बंधन,
नियत कर्म हैं, नियत कर्म फल-जीवन चक्र सनातन !

जन्म मरण के सुख दुख के ताने बानों का जीवन,
निठुर नियति के धूपछाँह जग का रहस्य है गोपन !

देख रहा हूँ निखिल विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,
सोच रहा हूँ जग पर, मानव जीवन पर जन मन से !

रूढ़ि नहीं है, रीति नहीं है, जाति वर्ण केवल भ्रम,
जन जन में है जीव, जीव-जीवन में सब जन हैं सम !

ज्ञान वृथा है, तर्क वृथा, संस्कृतियाँ व्यर्थ पुरातन,
प्रथम जीव है मानव में, पीछे है सामाजिक जन !

मनुष्यत्व के मान वृथा, विज्ञान वृथा रे दर्शन,
वृथा धर्म, गणतंत्र-उन्हें यदि प्रिय न जाव जन जीवन !
ग्राम चित्र
यहाँ नहीं है चहल पहल वैभव विस्मित जीवन की,
यहाँ डोलती वायु म्लान सौरभ मर्मर ले वन की !
आता मौन प्रभात अकेला, संध्या भरी उदासी,
यहाँ घूमती दोपहरी में स्वप्नों की छाया सी !

यहाँ नहीं विद्युत दीपों का दिवस निशा में निर्मित,
अँधियाली में रहती गहरी अँधियाली भय-कल्पित !
यहाँ खर्व नर (वानर ?) रहते युग युग से अभिशापित,
अन्न वस्त्र पीड़ित असभ्य, निर्बुद्धि, पंक में पालित !

यह तो मानव लोक नहीं रे, यह है नरक अपरिचित,
यह भारत का ग्राम,-सभ्यता संस्कृति से निर्वासित !

झाड़ फूँस के विवर,-यही क्या जीवन शिल्पी के घर ?
कीड़ों-से रेंगते कौन ये ? बुद्धि प्राण नारी नर ?

अकथनीय क्षुद्रता, विवशता भरी यहाँ के जन में,
गृह-गृह में है कलह, खेत में कलह, कलह है मग में ?
यह रवि शशि का लोक,-जहाँ हँसते समूह में उडुगण,
जहाँ चहकते विहग, बदलते क्षण क्षण विद्युत् प्रभ घन !
यहाँ वनस्पति रहते, रहती खेतों की हरियाली,
यहाँ फूल हैं, यहाँ ओस, कोकिला, आम की डाली !

ये रहते हैं यहाँ, और नीला नभ, बोई धरती,
सूरज का चौड़ा प्रकाश, ज्योत्स्ना चुपचाप विचरती !

प्रकृति धाम यह: तृण तृण कण कण जहाँ प्रफुल्लित जीवित,
यहाँ अकेला मानव ही रे चिर विषण्ण जीवन-मृत !!
ग्राम युवती
उन्मद यौवन से उभर
घटा सी नव असाढ़ की सुन्दर
अति श्याम वरण,
श्लथ, मंद चरण,
इठलाती आती ग्राम युवति
वह गजगति
सर्प डगर पर !
सरकती पट,
खिसकाती लट, -
शरमाती झट
वह नमित दृष्टि से देख उरोजों के युग घट !
हँसती खलखल
अबला चंचल
ज्यों फूट पड़ा हो स्रोत सरल
भर फेनोज्ज्वल दशनों से अधरों के तट !
वह मग में रुक,
मानो कुछ झुक,
आँचल सँभालती, फेर नयन मुख,
पा प्रिय पद की आहट;
आ ग्राम युवक,
प्रेमी याचक
जब उसे ताकता है इकटक,
उल्लसित,
चकित,
वह लेती मूँद पलक पट !

पनघट पर
मोहित नारी नर !-
जब जल से भर
भारी गागर
खींचती उबहनी वह, बरबस
चोली से उभर उभर कसमस
खिंचते सँग युग रस भरे कलश;-
जल छलकाती,
रस बरसाती,
बल खाती वह घर को जाती,
सिर पर घट
उर पर धर पट !

कानों में गुड़हल
खोंस, -धवल
या कुँई, कनेर, लोध पाटल;
वह हरसिंगार से कच सँवार,
मृदु मौलसिरी के गूँथ हार,
गउओं सँग करती वन विहार,
पिक चातक के सँग दे पुकार,-
वह कुंद, काँस से,
अमलतास से,
 
आम्र मौर, सहजन पलाश से,
निर्जन में सज ऋतु सिंगार !
तन पर यौवन सुषमाशाली
मुख पर श्रमकण, रवि की लाली,
सिर पर धर स्वर्ण शस्य डाली,
वह मेड़ों पर आती जाती,
उरु मटकाती,
कटि लचकाती
चिर वर्षातप हिम की पाली
धनि श्याम वरण,
अति क्षिप्र चरण,
अधरों से धरे पकी बाली !

रे दो दिन का
उसका यौवन !
सपना छिन का
रहता न स्मरण !
दुःखों से पिस,
दुर्दिन में घिस,
जर्जर हो जाता उसका तन !
ढह जाता असमय यौवन धन !
बह जाता तट का तिनका
जो लहरों से हँस खेला कुछ क्षण !!
 

 

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