भारत में क्षेत्रवाद
भारत की शुरुआत के जो पन्ने हैं वो क्षेत्रीय विभाजन की स्याही से ही लिखे गये हैं। गौर करें आजादी का वक्त जब मुस्लिम संप्रदाय ने अपनी पहचान पाने के लिए एक अलग राष्ट्र की मांग की और उसकी परिणति पाकिस्तान बना, जो बाद में भारत का ही सबसे बड़ा शत्रु बन बैठा। भारत में बाहर से आकर शताब्दियों से स्थापित हो रहे धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं से बनी पहचानों के अतिरिक्त भारत के अपने भीतर के धर्म-संप्रदायों, संस्कृतियों, क्षेत्रीय भाषाओं, जातियों, उपजातियों के भी अपने-अपने उग्रवादी, प्रांतवादी, जातिवादी, भाषावादी आदि आग्रह भी थे, जिनके अपने टकरावों का भी अपना इतिहास था। विभाजन के बाद बने भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती विभिन्न पहचानों से निर्मित क्षेत्रीयताओं और उपक्षेत्रीयताओं के तालमेल के बीच से एक सुचारु संघीय व्यवस्था को खड़ा करना था, जिसमें कोइ्र किसी को दबाए-मिटाए नहीं और सब एक दूसरे की पहचान को स्वीकार करते हुए और सम्मान देते हुए अपनी-अपनी पहचानों के साथ जुड़े रह सकें।
क्षेत्रवाद अचानक उपजी समस्या नहीं है, इसका विकास निरन्तर नित नई समस्याओं के उपजने, ,क्षेत्र विशेषों की उपेक्षा तथा तुच्छ मानसिकता की राजनीति के साथ-साथ होता चला गया है। भारत के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि क्षेत्रवाद तब भी था जब देश किसी केन्द्रीय शासन के अन्तर्गत नहीं था और तब भी जब देश में केन्द्रीय शासन की स्थापना हुयी। क्षेत्रवाद एक कट्टर मानसिकता या अज्ञानता की उपज नहीं है, यह प्रश्न है उस केन्द्रीय सत्ता से कि क्यों विकास की धारा को उचित गति नहीं मिल पाती ताकि वह समाज एवं देश के हर तबके तक अपनी पंहुच बना सके। क्यों विकास की तमाम योजनाऐं मात्र बिचौलिओं तथा राजनेताओं के हाथों का खिलौना और उनकी आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने का एक साधन मात्र बन कर रह जाती हैं। किन्तु आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं, आप के स्वयं के क्षेत्रीय शक्तियां अपनी बेर्इ्रमान राजनीति के बल पर क्षेत्रवाद को बढ़ावा दे रही हैं। क्षेत्रीय हितों के नाम पर निहायत ही गैरजिम्मेदार लंपट नेतृत्व को उतरने देने का मतलब है- समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था को खतरे में डालना और संघीय व्यवस्था को चरमरा देना और इसके लिए संघीय व्यवस्था अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती।
हालत देखें नक्सलवाद, महाराष्ट्र या फिर आसाम या फिर भारत के किसी भी राज्य या क्षेत्र की आज हर जगह क्षेत्रवाद अपनी पैठ बना चुका है। दूर से देखने पर भले ही यह एक बुराई नजर आती हो, मगर हर चीज के नकरात्मक एवं सकारात्मक दोनों ही पहलू होते हैं। और जो समस्या पूरे देश में व्यापकता का रुप ले चुकी हो उसे सिर्फ बुरा कहा जाना समीचीन प्रतीत नहीं होता। उस क्षेत्र की मूल समस्याओं को जानना भी आवश्यक होगा, कि क्या कारण रहे कि क्षेत्र विशेष की जनता को अपने विरोध को इतना उग्र रुप देने की आवश्यकता पड़ी। बात करें वर्तमान महाराष्ट्र की, जहां एक राजनीतिक दल ने स्वयं की ओर से पूरे प्रदेश का प्रतिनिधित्व करते हुए उत्तर भारतीयों के खिलाफ विरोध की जो मुहिम शुरु की वो अब तक पनपे क्षेत्रवाद के चरम बिन्दु के रुप में सामने आयी हैं।। उनकी दलीलें सुने तो मात्र यह कि महाराष्ट्र के आम आदमी के रोजगार पर उत्तर भारतीयों ने कब्जा कर लिया है। वैश्वीकरण के दौर में जहां हर चीज आपसे में मिलती जा रही हैए यदि क्षेत्रवाद की यह दलील सामने आये तो यह वाकई में देश के भविष्य के लिए एक गंभीर विषय होगा। वह भी तब जब हम विश्व की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं मे शामिल होते जा रहे हैं।
गौरतलब है कि क्षेत्रीय ताकतें हमेशा क्षेत्र की वास्तविक समस्याओं का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। कुछ ताकतें अपने आपसी विवादों, झगड़ों और सत्ता संघर्षों के चलते नकली समस्याओं का ताना-बाना बुनती हैं और यथार्थ न होते हुए भी केंद्रीय व्यवस्था पर अपनी उपेक्षा अपमान और तिरस्कार का आरोप लगाती हैं और इन्हीं के सहारे क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर जन असंतोष पैदा करती है और फिर राजनीतिक तथा राजनीति के सहारे आर्थिक लाभ लेने की कोशिश करती हैं। ऐसी ताकतें उस समय खासतौर पर सफल हो जाती हैं, जब केंद्रीय सत्ता अपनी संरचनात्मक कमजोरियों के कारण केवल असंतुलित विकास और इस असंतुलित विकास को पैदा करने वालों तथा उसका लाभ उठाने वालों की तिमारदारी करते हुए दिखती हैं। ऐसी स्थिति में लोगों को अपनी काल्पनिक उपेक्षा भी वास्तविक उपेक्षा नजर आती है और वे राज ठाकरे जैसे नेताओं को अपना प्रवक्ता मान लेते हैं।
जहां एक ओर भाषा-संस्कृति-पहचान के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन से लेकर क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियों के उदय से और फिर केन्द्रीय सत्ता में भागीदारी तक की यात्रा हुई, तो देश के पूर्वोत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक अनेक उग्रवादी अलगाववादी आंदोलन ठंडे हुए। कुछ हिस्से भले ही अपावद बने हुए हों, मगर इस समूची प्रक्रिया को भारतीय लोकतंत्र की मजबूती के रुप में आंका गया। यानि आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, पंजाब से होते हुए छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखण्ड तक के निर्माण की यात्रा संघीय और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं की पारस्परिक स्वस्थ अंतःप्रक्रिया मानी गई। इस प्रक्रिया के तहत लोकतंत्र मजबूत ही हुआ और जिन लोगों ने इसके बिखर जाने की आशंका व्यक्त की थी, उन्हें अपनी राय बदलनी पड़ी। यहां यह उल्लेखनीय है कि इस पुनर्गठन पुनर्समायोजन में क्षेत्रों की अपनी उपेक्षा, विकासहीनता, सत्ता में भागीदारी न मिलने, आर्थिक संसाधनों के वितरण में उनके साथ भेदभाव होने आदि जैसी शिकायतों को भी संबोधित किया गया था।
जब संघ पर सभी क्षेत्रीय विविधतावादी प्रवृत्तियों के बीच संतुलन कायम करने का दायित्व हो तो यह काम आसान नहीे होता, इसलिए कि केन्द्रीय सत्ता की तरह क्षेत्रीय शक्तियां भी हमेशा र्इ्रमानदार नहीं होती। केंन्द्रीय सत्ता का निर्माण भी विभिन्न क्षेत्रों से आए और विभिन्न क्षेत्रीयताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों से होता है। जब ऐसे लोग सार्वभौम दृष्टिवाले न होकर अपनी हित चिंता में क्षेत्रीयताओं की वकालत करने लगते हैं, तो केन्द्र की नैतिक सत्ता कमजोर हो जाती है और वह निरंकुश, नफरतवादी, अलगाववादी तथा उच्छृंखल क्षेत्रीय ताकतों को नियंत्रित करने और उन्हें संवैधानिक व्यवस्था मर्यादाओं में बनाए रखने की ताकत खो देता है। केन्द्र की भूमिका विचलित हो जाती है, जैसी कि इस समय दिखाई देती हेै।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि क्षेत्रवाद की जडे वास्तविक क्षेत्रीय समस्या से आगे जाकर राजनीतिक दलों के शीर्षस्थ व्यक्तियों के आपसी अर्न्तद्वंद की इतिश्री हैं जिसकी भागीदार क्षेत्र की जनता झूठे सम्मोहन के रुप में बुने गये जाल में फंसकर स्वयं बन जाती है और परेशानी का कारण बन जाती है केन्द्रीय सत्ता के लिए। हालांकि क्षेत्रवाद को गलत रुप में लिया जाना उसकी उपेक्षा करना ही होगा, क्षेत्रवाद के कई प्रभावी कारक भी सामने आते हैं, जैसे कि केन्द्र से दूर के प्रदेशों की स्थिति में सुधार लाने हेतु क्षेत्रवाद को प्रभावी कारक माना जाता रहा है। किन्तु क्षेत्रवाद का आधार ऐसे तथ्यपरक एवं विकासपरक बिन्दु हों जिनके समक्ष सभी बुद्धिजीवियों को हामी भरनी ही पड़े। साथ ही क्षेत्रवाद को मान्यता तब ही दी जानी चाहिए जब यह उस क्षेत्र की निरन्तर हो रही उपेक्षा के परिणामस्वरुप उपजे जनआन्दोलन की परिणति तथा उस क्षेत्र को विकास की राह पर लाने हेतु आवश्यक रणनितियों पर अवलम्बित हो।
इसके साथ ही केन्द्र सरकार को भारत की एकता को बनाये रखने हेतु भले ही क्षेत्रवाद के सकारात्मक पहलू को मान्यता दे दी जाय किन्तु इसके नकारात्मक पहलू को भी दृष्टिगोचर रखना चाहिए क्योंकि इसका नकरात्मक रुप एक विषैले सर्प की भांति भारतीय अखण्डता के लिए विष का काम करता जा रहा है। जिसका परिणाम अत्यन्त भयावह ही होगा।
चेतन पाण्डेय