Author Topic: निबन्ध और लेख  (Read 7059 times)

dramanainital

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निबन्ध और लेख
« on: June 19, 2010, 01:50:08 PM »
फ़िलमनामा.
 
अप्रॆल सन १९९९,नैनीताल की एक शाम को पहली बार किसी नाटक की रिहर्सल देखने का मौका मिला.नाटक था बर्टोल्ट ब्रेख़्त रचित "खड़िया का घेरा".न जाने किस प्रेरणा से मैं भी इस रिहर्सल में शामिल हो गया,परन्तु इस नाटक का हिस्सा बनकर मुझे अप्रकट्नीय प्रसन्नता हुई.तब से आज तक मैं भी उन तमाम नाट्यकर्मियों में से एक हूं जो बग़ैर किसी निश्चित मक़सद के, मगर निरन्तरता से नाट्य कर्म में लिप्त हैं.नैनीताल में इद्रीस भाई द्वारा प्रस्तुत "अन्धा युग" इसका नवीनतम उदाहरण है.
 
अगला स्वाभाविक क़दम कैमरे का इस्तेमाल है.शहर के बहुत से लोगों ने,जिनमें से कई नाट्यकर्मी नहीं भी थे,ये काम भी कर डाला.कई-एक वीडिओ सी डी बनीं.अधिकतम को घरवालों के अलावा और किसी से प्रशंसा नहीं मिल सकी,हाँ पैसा बदस्तूर खर्च हुआ.ख़ाली जेबों के मालिक एक दूसरे पर कटाक्ष कर के ही अपनी भड़ास निकालते रहे.नतीजा ये कि कला का भन्डार होने के बावज़ूद हाल फ़िलहाल कोइ भी कलाकार किसी मुक़ाम तक नहीं पहुँच पाया.नैनीताल निवासी ये कलाकार निर्मल पाण्डे और ललित तिवाड़ी बनना चाहते हैं,और शायद अपने जुनून के चलते इनमें से कोइ ऐसा करने में सफ़ल हो भी जाएगा,किन्तु समाज का योगदान बहुत ज़्यादा नहीं होगा.क्या आज का समाज इन सब कलाकारों को इसी लाय़क समझता है?
         काश कि ये ही कलाकार नैनीताल के फ़ेमस सीज़न के दौरान अपनी कला का प्रदर्शन कर पाते...वो भी टिकट बेचकर.उसको दर्शक मिल जाता और दर्शक को मज़ा....इन कलाकारों से सजे नाटक में मज़ा बहुत आता है.चाहे वो व्यंग्य हो, मेलोड्रामा हो या नया प्रयास.पर ऐसा नहीं होता. सीज़न में शो नहीं होता.  क्यों नहीं ऐसा होता?   पैसे की कमी,या नीयत की? या तथाकथित   ’बिज़नैस एक्युमेन’की?अरे ,आजकल सास बहू की कहानी बिक रही है.यहाँ तो कहानियों का खज़ाना है भई.
      फ़र्वरी,सन २००३,एक दिन सुभाष घई नैनीताल आते हैं.वो उत्तराखन्ड में एक फ़िल्म की शूटिंग करेंगे.शहर का हर वो बशर जो  खुद को कलाकार समझता है,इस फ़िल्म का हिस्सा बनना चाहता है.कुछ अत्मसंयमी भी हैं,जो कलाकार हैं और चाहते हैं,कि विशेष बुलावा आए...ख़ैर.... एक बहुत ही अजीब सी, औडिशन ,नामक प्रक्रिया से गुज़रने के बाद जिनका चुनाव हुआ,उनकी कुछ समय के लिये चाल ही बदल गई. पर समय की चाल निष्ठुर थी. शूटिंग के दौरान मौका उनको मिला जो पास ही नहीं हुए थे.बहरहाल हुआ ये कि शहर में(इन्हीं लोगों के बीच)"किसना" की शूटिंग चर्चा में रही और बहुत बाद तक इसके संस्मरण हवा में तैरते रहे.कुछ नाटक भी इस भागमदौड़ में चोटिल हुए,कुछ को अपनी शहादत देनी पड़ी.इद्रीस भाई ने इस बीच "लाटा" बनाई, ईसी बीच एक वीडियो सी डी मैंने भी बनाई."आज कैंची धाम में"(महाराज नींम करौली जी को समर्पित भजन.)
      मई,२००५,शायद,नैनीताल में फिर एक बार शूटिंग है.कोइ बेनाम सा डाइरेक्टर, अपने से थोड़े ज़्यादा नाम वाली हीरोइन को लेकर एक फ़िल्म बनाना चाह रहा था.’औडिशन’ मेंकुछ कलाकार इस बार कम थे.कुछ जिन्होंने सबक लिया और कुछ जो अपनी गरिमा के बचाव में लगे थे.बाकी जुनूनी, नासमझ , सब मौज़ूद थे.इनको फिल्म में ’काम मिल गया’.ऐक्टिंग का काम.प्रीति झिंगियानी के इर्द गिर्द नाचने का काम.फ़िर भले डाइरेक्टर बद्तमीज़ी करे या कोइ छुट्भैया स्पोट बाए.
         इस काम के साथ एक और काम उन्हें सौंपा गया.१०० कलाकारों का इन्तज़ाम जो प्रीती झिन्गियानी के इर्द गिर्द नाचें.यानि अपने जैसे सौ और.मेहनताना १५०/- प्रतिदिन,प्रति कलाकार.तीन दिन तक.सब लगे रहे,आखीर में न कला रही न जुनून,लालच उन्हें निग़ल गया.इसी बीच नाटक हुए युग्मन्च द्वारा "जिन लाहौर नईं देख्या" और बाबा एन्टर्टेनमेंट द्वारा "हँसना किश्तों में".इस नाटक को मैंने लिखा एवं प्रस्तुत किया.दोनों को दर्शक मिले.
         इसी बीच शालिनी शाह और उनके पति श्री राजेश शाह जी ने एक फ़िल्म बनाई "बाटुई".कलाकार खुश थे,इस बार सबको डाइलाग भी मिले थे,जौहर दिखाने का पूरा मौका था.अथक मेहनत के बाद फ़िल्म बनी.कम्प्यूटर से फ़िल्म एडिट हुई.संगीत भी भरा गया.शहर में फ़िल्म कई जगहों में दिखाई गयी.कलाकारों का मन लम्बे अर्से तक प्रफ़ुल्लित रहा.इस बीच नाटक हुए "कोमल गांधार",और भुवन बिष्ट द्वारा एक नाटक.अखबारों में इनका ज़िक्र हुआ,पर इतना नहीं कि निगहों में आ सके.
      २००६,इस वर्ष छुट्पुट सीरियल वाले,अनजान निर्देशक इत्यादि शहर में आते रहे जाते रहे.शालिनि जी ने एक सरकारी फ़िल्म बनाई "ऎ मेरे दिल कहीं और चल".कलाकारों की मेहनत, तकरीबन ५ कि. मी. पैदल चलकर भी शूटिंग पर पहुँचे.फ़िल्म शहर के कई स्कूलों में प्रदर्शित हुइ.कलाकार इतने पर ही खुश थे.
 
क्रमशः
 
       
       

dramanainital

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Re: निबन्ध और लेख
« Reply #1 on: July 02, 2010, 08:50:24 AM »
प्रकाश झा की "राजनीती".
 
 
पात्र : नाना पाटेकर     - भीष्म पितामह.
         लकवाग्रस्त        - ध्रितराष्ट्र.
         मारा गया पिता  - पाण्डु.
         मनोज बाज्पाई     - दुर्योधन.
         अजय देवगन        - कर्ण.
         अर्जुन रामपाल     - युधिष्ठिर, भीम.
         रणवीर कपूर     - अर्जुन.
         बरखा बिष्ट      - कुन्ती.
         नसीरुद्दीन शाह  - सूर्य.
 
 
महाभारत से प्रेरित पटकथा में युद्ध का स्थान ले लिया है चुनाव ने.मुख्यमन्त्री की कुर्सी बनी राजगद्दी.महाभारत काल की तरह ही राज्य विस्तार के लिये विवाह का उपयोग हुआ.चीरहरण का स्थान ले लिया भावनात्मक उत्पीड़न ने.कर्ण पूर्व की भाँति शैशव अवस्था में नदी में बहा दिया गया और सूत पुत्र कहलाया.कालान्तर में उसने अपने मित्र दुर्योधन के साथ मिलकर अपने ही भाइयों का रक्तपात किया.कुन्ती,अभ्यर्थना के बावज़ूद फिर से कर्ण को पांडवों के खेमे में नहीं ला सकी.भीम ने गदा के स्थान पर बेसबाल के बल्ले से शत्रुओं का रक्त बहाया.मन्त्रोच्चारित बाणों की जगह ले ली रीमोट बमों ने.बड़ा बदलाव था कहानी के अन्त में द्रौपदी का राजगद्दी पर आसीन होना.

        कहिये कि कहानी मौलिक थी..........

dramanainital

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Re: निबन्ध और लेख
« Reply #2 on: July 08, 2010, 12:05:50 AM »
लेखक बनाम ब्लागर.

हरिशंकर परसाई का मुरीद हूँ. आजकल शरद जोशी को पढ़ रहा हूँ. फिर से . मेरे भीतर के लेखक को जगाने के लिये इतनी प्रेरणा काफ़ी होती है. ये अभिलाषा आवश्यक नहीं कि मुझे कोई पढे.    मेरे हिसाब से लेखक वो है जो लिखता है, अब कोई पढे न पढे,  उसकी मर्ज़ी. कई लोग ज़मीन की रजिस्टरी के वक़्त दरकार ज़रूरी कगज़ों पर लिखते हैं. वो भी लेखक हैं. जो बही खातों में लिखते हैं वो भी और जो सार्वजनिक स्थानों की दीवार पर कला प्रदर्शन करते हैं वो भी. नाना प्रकार के लेखक होते हैं ,बस उनके पढ्ने वालों का दायरा अलग अलग होता है. जब मैं बहुत ज़िद करता हूँ तो कुछ मित्र मुझे भी पढ़ लेते हैं. धुंधलके में थोड़ी ज़्यादा हो जाने पर दाद भी दे देते हैं. इस ही इंधन पर मेरी कलम चल जाती है. वो तो अछ्छा है कि माइलेज कम है,वर्ना एक दिन में कम से कम पाँच रचनाएँ तो पोस्ट कर ही देता. जग्यूड़ा साब का रिकार्ड बराबर करने को शायद इतनी काफ़ी होंगी.
     इन्टर्नेट के आगमन से पहले बड़ी कठिन प्रक्रिया थी लेखक बनना. कम से कम बीस सहित्यकारों से मित्रता करो,स्तरीय लिखो, फिर लिखे हुए को स्तरीय समझने वाला प्रकाशक ढ़ूँढो, प्रकाशित होने के बाद प्रचार करो, और अगर पढ़ लिये जाओ तो आलोचनाओं का दंश झेलो. अब प्रक्रिया आसान हो गई है. लिखो और पोस्ट कर दो. मेरे जैसे लेखक के लिये मुफ़ीद परिस्थितियाँ हैं. मैं फ़ेसबुक पर ढ़िढोरा पीट सकता हूँ कि मैं कितना लायक या नालायक लेखक हूँ. दीवारें यहाँ पर भी मौजूद हैं,बस वो सार्वजनिक नहीं हैं. मैं अपना ब्लाग बना सकता हूँ,और उसमें मनमुआफ़िक माल भर सकता हूँ. आज के उपभोक्तावादी युग में, कला के वो नमूने, जिनमें बिक जाने की क़ाबिलियत है, माल कहलाते हैं.ये बात मुझे एक ब्लाग से ही पता चली. यहाँ पर प्रचार की प्रक्रिया बहुत आसान है,और मुफ़्त भी. आलोचना की सम्भावना भी बहुत कम है. आप अपने पाठक के पाठक होते हैं. आलोचना का जवाब आलोचना से दे सकते हैं. दो परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों में इस शक्ति को उपयोग न करने का अलिखित समझौता होता है. ब्लागरों की दुनिया में आलोचना ने परमाणु शक्ति का स्थानापन्न किया है. कहावत है इज़्ज़त करोगे तो इज़्ज़त पाओगे.
    आप जो लिखते हो, आज ज़रूरी नहीं, कि उसका कोइ अर्थ भी हो. ये लेखन माडर्न आर्ट सरीखा होता है. आप कहेंगे,  बड़ा आया माडर्न आर्ट की हाँकने वाला. पर इतना जान लीजिये, समझ में आए तो आर्ट नहीं तो माडर्न आर्ट, इतनी समझ तो मुझमें है. ये भी हो सकता है कि आप के लेखन में एक से अधिक अर्थ हों. आप कहते कुछ हों और समझे कुछ और जाते हों. पर ये खेल का हिस्सा है. अब आप ही तो अकेले बुद्धिजीवी नहीं हैं ब्लागजगत में.कई सारे हैं. जिन्हें लिखना है. माफ़ कीजिएगा, सारा समय लेखन में लग जाता है,पढ़ने की फ़ुर्सत पाना मुश्किल है.
 
" अलग हर सिम्त से दिखता है मन्ज़र,
 नज़रिया है गलत क्या और सही क्या." 
   

dramanainital

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Re: निबन्ध और लेख
« Reply #3 on: August 31, 2010, 08:06:42 PM »
धुवाँ है तो आग होगी ही.यहाँ धुवाँ है गीत "महंगाई डायन....." और आग है "पीप्ली लाइव".कहानी ये भी है कि निर्देशिका  के ज़हन में "गोदान" के पात्र घूम रहे थे,जब उन्होंने यह पटकथा रची.(फ़िल्म के एक पात्र का नाम होरी महतो है).ख़ैर, मैंने आज फ़िल्म देखी. सबसे पहले जो दिमाग़ में कौंधा, वो था कुछ समय पूर्व रिलीज़ हुई फ़िल्म "वेल डन अब्बा" का ख़याल.दोनों फ़िल्मों के विषयों में एक तरह का साम्य है,परन्तु चर्चा की बाज़ी जीती "पीप्ली लाइव" ने. मेरी निगाह में फ़र्क बैनर का है,और मार्केटिंग का,वर्ना फ़िल्म वो भी लाजवाब थी.
       पीप्ली लाइव हँसाती है,गँवय्यों की चालाकियों और उनके भोलेपन पर. रुलाती है उनकी मजबूरियों और दशा पर.चोट करती है, ख़बरचियों और उनके उद्देश्यों पर, जहाँ खबर के कारण से ज़्यादा ज़रूरी ख़ुद ख़बर हो जाती है और उससे ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है खबरचियों का तथाकथित टी आर पी.फ़िल्म इशारा करती है आज की राजनीति के ख़ोख़लेपन की ओर.फ़िल्म सवाल उठाती है सरकारी योजनाओं और उनकी सार्थकता पर.
        कई एक प्रसंगों ने अतिरेक को छुआ,ज़िक्र करना आवश्यक न समझते हुए कहना चाहूँगा कि एक वर्ग का दर्शक उस पर भी खुल कर हँसा.शायद यही मंशा निर्देशिका की रही हो.अनुशा की यह पहली फ़िल्म है,कुछ ख़ामियों की समीक्षा उनके जिम्मे छोड़कर हमें उम्मीद करनी चाहिये की वो आगे चलकर और भी ऐसी प्रस्तुतियाँ देंगी.
धुवाँ है तो आग होगी ही.यहाँ धुवाँ है गीत "महंगाई डायन....." और आग है "पीप्ली लाइव".कहानी ये भी है कि निर्देशिका  के ज़हन में "गोदान" के पात्र घूम रहे थे,जब उन्होंने यह पटकथा रची.(फ़िल्म के एक पात्र का नाम होरी महतो है).ख़ैर, मैंने आज फ़िल्म देखी. सबसे पहले जो दिमाग़ में कौंधा, वो था कुछ समय पूर्व रिलीज़ हुई फ़िल्म "वेल डन अब्बा" का ख़याल.दोनों फ़िल्मों के विषयों में एक तरह का साम्य है,परन्तु चर्चा की बाज़ी जीती "पीप्ली लाइव" ने. मेरी निगाह में फ़र्क बैनर का है,और मार्केटिंग का,वर्ना फ़िल्म वो भी लाजवाब थी.
       पीप्ली लाइव हँसाती है,गँवय्यों की चालाकियों और उनके भोलेपन पर. रुलाती है उनकी मजबूरियों और दशा पर.चोट करती है, ख़बरचियों और उनके उद्देश्यों पर, जहाँ खबर के कारण से ज़्यादा ज़रूरी ख़ुद ख़बर हो जाती है और उससे ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है खबरचियों का तथाकथित टी आर पी.फ़िल्म इशारा करती है आज की राजनीति के ख़ोख़लेपन की ओर.फ़िल्म सवाल उठाती है सरकारी योजनाओं और उनकी सार्थकता पर.
        कई एक प्रसंगों ने अतिरेक को छुआ,ज़िक्र करना आवश्यक न समझते हुए कहना चाहूँगा कि एक वर्ग का दर्शक उस पर भी खुल कर हँसा.शायद यही मंशा निर्देशिका की रही हो.अनुशा की यह पहली फ़िल्म है,कुछ ख़ामियों की समीक्षा उनके जिम्मे छोड़कर हमें उम्मीद करनी चाहिये की वो आगे चलकर और भी ऐसी प्रस्तुतियाँ देंगी.

dramanainital

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Re: निबन्ध और लेख
« Reply #4 on: September 12, 2010, 12:43:15 PM »
                                                                 सुना है...
 
"बबा,हो सकता है कि इस में तुम जीत जाओ, पर मक़सद हार जाएगा". तब ही समझ गया था कि ये आदमी अपनी जीत पर नहीं,समाज की जीत पर विश्वास करता है. दो तीन वर्ष ही हुए थे उनसे मुलाक़ात हुए. उन्हें देखते, उनके बारे में सुनते सुनते ना जाने कितने बरस हो गये थे. जो कुछ भी काला सफ़ेद सुना था उनके बारे में, वो देख भी रहा था,और अपनी बुद्धी की सीमारेखा में उसका आँकलन भी कर रहा था. उनके आन्दोलनरत कलाकार रूप और कवित्त पर टिप्पणी करने योग्य खुद को समझना मेरी मूर्खता होगी. उन्हं  प्रिय कहना चाहूँगा, मार्गदर्शक कहना चाहूँगा,प्रेरणास्रोत कहना चाहूँगा. उन्होंने कई बार हमारी कोशिशों की पीठ थपथपाई और अनेकों बार दिशादर्शन के लिये उनके कान भी उमेठे. सुनता हूँ की भूतकाल में उनकी कोशिशों को इस तरह की सहूलियत नहीं मिली. इसके उलट, जब वो रंगभूमि की तलाश में थे, एक नामी गिरामी संस्था ने उनके लिये प्रवेश निषिद्ध किया. उनकी सारी अच्छाई , क़ाबिलियत, सादगी, क्षमता और व्यक्तित्व एक ओर,  और उनकी मयनोशी एक ओर. तत्कालीन रंगकर्म के ठेकेदारों ने आदत को फ़ितरत से ज़्यादा महत्व दिया. रंग का सर्जक और दर्शक, दोनों ही लम्बे अर्से तक ऐसे स्रिजन से  महरूम रहे, जो शायद हमारे इतिहास को और महत्वपूर्ण और सारगर्भित बनाता.
 
                        ये मसायले तसव्वुफ़,ये तेरा बयान ग़ालिब,
                        हम तुझे वली समझते,जो न बादाख़्वार होता.
 
नदी का रास्ता भी कोई रोक पाया है भला. उनके स्रिजन का बहाव चलता रहा, उनके गीत आन्दोलन का अपरिहार्य अंग बन गये, उनके हुड़के की थाप आन्दोलन का आह्वान बन गई और उनकी आवाज़ हज़ारों आन्दोलनकारियों की आवाज़ का पर्याय बन गयी. रंगकर्म से वंचित व्यक्तित्व जनकवि बन गया.
           
                    ’दावानल’ में पढ़ा कि ८० के दशक में वो उत्तरकाशी के बाढ़्पीड़ितों की मदद करने वहाँ पहुँचे थे. मैं भी तब वहीं था. कक्षा १ के विध्यार्थी की कच्ची उम्र की यादें हैं, ज़रूरत के सामान से भरा एक झोला हमेशा तय्यार रहता था और गंगा की आवाज़ उग्र होते ही लोग बिना सोचे समझे ऊँची जगहों की तरफ़ दौड़ पड़ते थे. वो अपनी जान जोख़िम में डालकर औरों के जीवनरक्षण का ध्येय लिये वहाँ मौजूद थे. कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने जनान्दोलन का नेत्रत्व किया और उसके श्रेय स्वरूप ज़िन्दगी किराए के मकान में गुज़ार दी. फूल बोए, बाँट दिये, रहे काँटे सो सहेजकर अपने झोले में रख लिये, बीड़ी के बन्डल और दारू के अद्धे के साथ.
 
              "मन मैला और तन को धोए.........". जुमले यूँ भी सुने हैं. "यार एक ऐसा समय भी आया जब गिर्दा नहाते ही नहीं थे......  मै...ले कपड़े........". सोचता हूँ क्या कारण रहा होगा? पाँच मिनट तो लगते हैं नहाने में, और एक बाल्टी पानी. ज़रूर वो लोगों को खुद से दूर रखना चाहते होंगे..., पर लोगों के लिये स्वयं को भूल जाने वाला व्यक्ति उन्हें अपने से दूर क्यों रखना चाहेगा? हो सकता है कुछ लोगों की उनके कलाकार के प्रति असहिष्णुता इस अबूझे विद्रोह का कारण रही हो. उन्होंने सोचा हो कि मैली सोच, मैले वतावरण, मैले पर्यावरण और मैले समाज में एक आदमी का बदन मैला रह जाने से क्या फ़र्क पड़ जाने वाला था. आखिर आत्मा तो उनकी साफ़ ही थी.
 
हर्षवर्धन
 
                   
 
                   

dramanainital

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Re: निबन्ध और लेख
« Reply #5 on: September 27, 2010, 09:36:03 AM »
हमारे देश में आजकल ४ खेल चर्चा में हैं. इनमें से २ अन्तर्राष्ट्रीय हैं और २ राष्ट्रीय. कामनवेल्थ और आतंकवाद अन्तर्राष्ट्रीय खेल हैं, जिनमें परस्पर प्रतिस्पर्धा दिखाई देती है. अयोध्या पर फ़ैसला एवं बाढ़ राष्ट्रीय खेल हैं, जिनमें परस्पर यह सम्बन्ध है कि दोनों ही मासूम ज़िन्दगियाँ लीलने को आतुर हैं. इन ४ खेलों के बहाने कई ’उप-खेल’ भी खेले जा रहे हैं जिन से समाज के अगुवाओं के आर्थिक एवं राजनीतिक लाभ पर असर पड़ता है. इन खेलों से आम जनों के जीवन पर भी व्यापक असर पड़ता है परन्तु वह महत्वपूर्ण नहीं माना जाता. उनके जीवन पर तो छोटी-छोटी बातों,उदाहरण के लिये-तेल के दाम बढ़ जाना अथवा गोदामों की कमी के कारण अनाज का सड़ जाना, से भी व्यापक असर पड़ जाता है.
तो पहले हम अन्तर्राष्ट्रीय खेलों की बात करते हैं. राष्ट्रकुल उन राष्ट्रों का समूह है जो कभी साम्राज्यवादी युग में ब्रितानी हुकूमत के आधीन थे. यह देश आपस में खेल खेलते हैं. इन खेलों के आयोजन को ’कामनवेल्थ गेम्स’ कहा जाता है. बड़ी मुश्किलों से हमारा देश इस बार इन खेलों के आयोजन पर अधिकार कर पाया है. कहा जाता है कि इस आयोजन से देश में पर्यटकों की संख्या बढ़ेगी, विदेशी मुद्रा अर्जित की जाएगी और खेल भावना को प्रोत्साहन मिलेगा. खबरची बता रहे हैं कि राजधानी में देसी एवं विदेशी सेक्स वर्करों का जमावड़ा लग चुका है, आयोजन में करोड़ों रुपयों की धाँधली हो चुकी है, मेहमान देशों के खिलाड़ी इन्तज़ामों से असन्तुष्ट हैं और कुछ देशों ने तो खेलों में भाग लेने से इन्कार कर दिया है. हमारे देश की एक नामी खिलाड़ी ने आयोजन के इन्तज़ामात पर विपरीत टिप्पणी की थी पर जगविदित कारणों से वापस ले ली. आम जनों को ट्रैफ़िक जाम और डेंगू की सौगात मिली है. इस आयोजन से क्या फ़ायदे होंगे यह तो पता नहीं पर क्या क्या नुक्सान हुए हैं इसका अन्दाज़ा लगाने के लिये आयोजन के समापन के बाद एक कमेटी गठित की जायेगी, ऐसा हमारे अगुवाओं ने कहा है.
दूसरा अन्तर्राष्ट्रीय खेल है आतंकवाद, इस खेल के लिये स्टेडियम की आवश्यकता नहीं होती. इसे दुनिया के कई हिस्सों में खेला जाता है, जिनमें प्रमुख हैं इस्राईल, फ़िलिस्तीन, अफ़गानिस्तान, इराक़, पाकिस्तान भारत इत्यादि. ये खेल कहीं पर धर्म के नाम पर खेला जाता है तो कहीं ज़मीन के नाम पर. इस खेल में शामिल कई खिलाड़ियों को यह भी पता नहीं होता कि वो खेल क्यों रहे हैं,और किसके खिलाफ़ खेल रहे हैं. इन खिलाड़ियों में से बहुतों की उम्र में बच्चे लुक्का छुपि खेला करते हैं, परन्तु धन्य हैं इनके नायक जो इनके हाथों में हथियार थमाकर इन्हें अपनी ढ़ाल बना लेते हैं.इस खेल के रेफ़री को भी अनेकों बार इस खेल का खामियाज़ा भुगतना पड़ा है, तभी उसने फ़ाऊल की सीटी बजाई अन्यथा उसे खेल में फ़ाऊल नज़र ही नहीं आता था. इस खेल में दुनिया के तमाम हिस्सों को नुक्सान पहुँचा है, फ़ायदा हुआ तो केवल हथियारों के निर्माणकर्ताओं और उनके सौदागरों का. ध्यान रहे कि उनके हथियार ना तो धर्म पहचानते हैं न ही ज़मीन पर खींची गई सरहदों का लिहाज करते हैं. जब तक हथियार बनेंगे, हथियार बनाने के पीछे की नीयत बनी रहेगी, सत्ता का लालच बना रहेगा, खेल भी बदस्तूर ज़ारी रहेगा.
अब राष्ट्रीय खेलों की बात करते हैं. पहले बाढ़ के खेल से शुरुआत करते हैं. देश में इस खेल की शुरुआत मान्सून के आगमन के साथ साथ होती है. सबको पता होता है नदियाँ उफ़नाएँगी और पहाड़ दरकेंगे, बस ये अन्दाज़ा नहीं होता कि किस सीमा तक. सारा खेल इस ही बात पर आधारित है. नदियाँ कम उग्र हुईं तो खिलाड़ियों को कम फ़ायदा होता है, ज़्यादा हुईं तो कहना ही क्या. हमारे समाज का तकरीबन हर हिस्सा इस खेल में भाग लेता है. लाला, बाबू, अफ़सर, एन.जी.ओ, पत्रकार, राजनीतिबाज, लेखक, सब ही इस खेल में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं. इस खेल का नियम है कि खिलाड़ी खेल की स्थितिओं से निर्लिप्त रहें. खेल गोटों के साथ खेला जाता है, और गोटों का क्या है, कई गोटें खेल खेल में खेल से बाहर हो जाती हैं. उनके घर छिन जाते हैं, खेत बह जाते हैं, मवेशी बह जाते हैं, परिवार बिछुड़ जाते हैं. गोटों को मुआवज़े का आश्वासन मिल जाता है, और खिलाड़ियों को मुआवज़ा.
दूसरा राष्ट्रीय खेल बहुत पुराना है परन्तु इसको नये नये बहानों की जब तब आवश्यकता पड़ती रहती है. इस बार का बहाना है अयोध्या विवाद पर हाई अथवा सुप्रीम कोर्ट का निर्णय. इस खेल ने पूर्व में सत्ता के उलट फ़ेर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. कई खेल ऐसे होते हैं जिनमें इन्सानी खून का बहना आवश्यक होता है. इतिहास गवाह है कि ’ग्लैडिएटरों’ ने हमेशा शासकों के मनोरंजन के लिये वहशी जानवरों से लड़कर अपना खून बहाया है. तब शासकों केर हित साधन के लिये खून बहा दिया जाना क्या बड़ी बात है, और वो भी आपस में लड़कर. कम से कम हम वहशी जानवरों से तो नहीं लड़ रहे. प्रार्थना है कि इस बार ऐसा ना हो, उम्मीदें भी हैं. बाढ़ के खेल में काफ़ी नुक्सान हुआ है, शायद खिलाड़ी ज़्यादा नुक्सान के भय से ही इस खेल में हिस्सा ना लें.

वो जिसके नाम से इंसानियत बँट जाये ख़ेमों में,
वो मज़हब आपका होगा,हमें फ़ुर्सत नहीं है.

KAILASH PANDEY/THET PAHADI

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Re: निबन्ध और लेख
« Reply #6 on: September 28, 2010, 03:15:06 PM »

भारत में क्षेत्रवाद


भारत की शुरुआत के जो पन्ने हैं वो क्षेत्रीय विभाजन की स्याही से ही लिखे गये हैं। गौर करें आजादी का वक्त जब मुस्लिम संप्रदाय ने अपनी पहचान पाने के लिए एक अलग राष्ट्र की मांग की और उसकी परिणति पाकिस्तान बना, जो बाद में भारत का ही सबसे बड़ा शत्रु बन बैठा। भारत में बाहर से आकर शताब्दियों से स्थापित हो रहे धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं से बनी पहचानों के अतिरिक्त भारत के अपने भीतर के धर्म-संप्रदायों, संस्कृतियों, क्षेत्रीय भाषाओं, जातियों, उपजातियों के भी अपने-अपने उग्रवादी, प्रांतवादी, जातिवादी, भाषावादी आदि आग्रह भी थे, जिनके अपने टकरावों का भी अपना इतिहास था। विभाजन के बाद बने भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती विभिन्न पहचानों से निर्मित क्षेत्रीयताओं और उपक्षेत्रीयताओं के तालमेल के बीच से एक सुचारु संघीय व्यवस्था को खड़ा करना था, जिसमें कोइ्र किसी को दबाए-मिटाए नहीं और सब एक दूसरे की पहचान को स्वीकार करते हुए और सम्मान देते हुए अपनी-अपनी पहचानों के साथ जुड़े रह सकें।
क्षेत्रवाद अचानक उपजी समस्या नहीं है, इसका विकास निरन्तर नित नई समस्याओं के उपजने, ,क्षेत्र विशेषों की उपेक्षा तथा तुच्छ मानसिकता की राजनीति के साथ-साथ होता चला गया है। भारत के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि क्षेत्रवाद तब भी था जब देश किसी केन्द्रीय शासन के अन्तर्गत नहीं था और तब भी जब देश में केन्द्रीय शासन की स्थापना हुयी। क्षेत्रवाद एक कट्टर मानसिकता या अज्ञानता की उपज नहीं है, यह प्रश्न है उस केन्द्रीय सत्ता से कि क्यों विकास की धारा को उचित गति नहीं मिल पाती ताकि वह समाज एवं देश के हर तबके तक अपनी पंहुच बना सके। क्यों विकास की तमाम योजनाऐं मात्र बिचौलिओं तथा राजनेताओं के हाथों का खिलौना और उनकी आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने का एक साधन मात्र बन कर रह जाती हैं। किन्तु आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं, आप के स्वयं के क्षेत्रीय शक्तियां अपनी बेर्इ्रमान राजनीति के बल पर क्षेत्रवाद को बढ़ावा दे रही हैं। क्षेत्रीय हितों के नाम पर निहायत ही गैरजिम्मेदार लंपट नेतृत्व को उतरने देने का मतलब है- समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था को खतरे में डालना और संघीय व्यवस्था को चरमरा देना और इसके लिए संघीय व्यवस्था अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती।


हालत देखें नक्सलवाद, महाराष्ट्र या फिर आसाम या फिर भारत के किसी भी राज्य या क्षेत्र की आज हर जगह क्षेत्रवाद अपनी पैठ बना चुका है। दूर से देखने पर भले ही यह एक बुराई नजर आती हो, मगर हर चीज के नकरात्मक एवं सकारात्मक दोनों ही पहलू होते हैं। और जो समस्या पूरे देश में व्यापकता का रुप ले चुकी हो उसे सिर्फ बुरा कहा जाना समीचीन प्रतीत नहीं होता। उस क्षेत्र की मूल समस्याओं को जानना भी आवश्यक होगा, कि क्या कारण रहे कि क्षेत्र विशेष की जनता को अपने विरोध को इतना उग्र रुप देने की आवश्यकता पड़ी। बात करें वर्तमान महाराष्ट्र की, जहां एक राजनीतिक दल ने स्वयं की ओर से पूरे प्रदेश का प्रतिनिधित्व करते हुए उत्तर भारतीयों के खिलाफ विरोध की जो मुहिम शुरु की वो अब तक पनपे क्षेत्रवाद के चरम बिन्दु के रुप में सामने आयी हैं।। उनकी दलीलें सुने तो मात्र यह कि महाराष्ट्र के आम आदमी के रोजगार पर उत्तर भारतीयों ने कब्जा कर लिया है। वैश्वीकरण के दौर में जहां हर चीज आपसे में मिलती जा रही हैए यदि क्षेत्रवाद की यह दलील सामने आये तो यह वाकई में देश के भविष्य के लिए एक गंभीर विषय होगा। वह भी तब जब हम विश्व की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं मे शामिल होते जा रहे हैं।


गौरतलब है कि क्षेत्रीय ताकतें हमेशा क्षेत्र की वास्तविक समस्याओं का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। कुछ ताकतें अपने आपसी विवादों, झगड़ों और सत्ता संघर्षों के चलते नकली समस्याओं का ताना-बाना बुनती हैं और यथार्थ न होते हुए भी केंद्रीय व्यवस्था पर अपनी उपेक्षा अपमान और तिरस्कार का आरोप लगाती हैं और इन्हीं के सहारे क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर जन असंतोष पैदा करती है और फिर राजनीतिक तथा राजनीति के सहारे आर्थिक लाभ लेने की कोशिश करती हैं। ऐसी ताकतें उस समय खासतौर पर सफल हो जाती हैं, जब केंद्रीय सत्ता अपनी संरचनात्मक कमजोरियों के कारण केवल असंतुलित विकास और इस असंतुलित विकास को पैदा करने वालों तथा उसका लाभ उठाने वालों की तिमारदारी करते हुए दिखती हैं। ऐसी स्थिति में लोगों को अपनी काल्पनिक उपेक्षा भी वास्तविक उपेक्षा नजर आती है और वे राज ठाकरे जैसे नेताओं को अपना प्रवक्ता मान लेते हैं।


जहां एक ओर भाषा-संस्कृति-पहचान के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन से लेकर क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियों के उदय से और फिर केन्द्रीय सत्ता में भागीदारी तक की यात्रा हुई, तो देश के पूर्वोत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक अनेक उग्रवादी अलगाववादी आंदोलन ठंडे हुए। कुछ हिस्से भले ही अपावद बने हुए हों, मगर इस समूची प्रक्रिया को भारतीय लोकतंत्र की मजबूती के रुप में आंका गया। यानि आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, पंजाब से होते हुए छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखण्ड तक के निर्माण की यात्रा संघीय और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं की पारस्परिक स्वस्थ अंतःप्रक्रिया मानी गई। इस प्रक्रिया के तहत लोकतंत्र मजबूत ही हुआ और जिन लोगों ने इसके बिखर जाने की आशंका व्यक्त की थी, उन्हें अपनी राय बदलनी पड़ी। यहां यह उल्लेखनीय है कि इस पुनर्गठन पुनर्समायोजन में क्षेत्रों की अपनी उपेक्षा, विकासहीनता, सत्ता में भागीदारी न मिलने, आर्थिक संसाधनों के वितरण में उनके साथ भेदभाव होने आदि जैसी शिकायतों को भी संबोधित किया गया था।


जब संघ पर सभी क्षेत्रीय विविधतावादी प्रवृत्तियों के बीच संतुलन कायम करने का दायित्व हो तो यह काम आसान नहीे होता, इसलिए कि केन्द्रीय सत्ता की तरह क्षेत्रीय शक्तियां भी हमेशा र्इ्रमानदार नहीं होती। केंन्द्रीय सत्ता का निर्माण भी विभिन्न क्षेत्रों से आए और विभिन्न क्षेत्रीयताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों से होता है। जब ऐसे लोग सार्वभौम दृष्टिवाले न होकर अपनी हित चिंता में क्षेत्रीयताओं की वकालत करने लगते हैं, तो केन्द्र की नैतिक सत्ता कमजोर हो जाती है और वह निरंकुश, नफरतवादी, अलगाववादी तथा उच्छृंखल क्षेत्रीय ताकतों को नियंत्रित करने और उन्हें संवैधानिक व्यवस्था मर्यादाओं में बनाए रखने की ताकत खो देता है। केन्द्र की भूमिका विचलित हो जाती है, जैसी कि इस समय दिखाई देती हेै।


उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि क्षेत्रवाद की जडे वास्तविक क्षेत्रीय समस्या से आगे जाकर राजनीतिक दलों के शीर्षस्थ व्यक्तियों के आपसी अर्न्तद्वंद की इतिश्री हैं जिसकी भागीदार क्षेत्र की जनता झूठे सम्मोहन के रुप में बुने गये जाल में फंसकर स्वयं बन जाती है और परेशानी का कारण बन जाती है केन्द्रीय सत्ता के लिए। हालांकि क्षेत्रवाद को गलत रुप में लिया जाना उसकी उपेक्षा करना ही होगा, क्षेत्रवाद के कई प्रभावी कारक भी सामने आते हैं, जैसे कि केन्द्र से दूर के प्रदेशों की स्थिति में सुधार लाने हेतु क्षेत्रवाद को प्रभावी कारक माना जाता रहा है। किन्तु क्षेत्रवाद का आधार ऐसे तथ्यपरक एवं विकासपरक बिन्दु हों जिनके समक्ष सभी बुद्धिजीवियों को हामी भरनी ही पड़े। साथ ही क्षेत्रवाद को मान्यता तब ही दी जानी चाहिए जब यह उस क्षेत्र की निरन्तर हो रही उपेक्षा के परिणामस्वरुप उपजे जनआन्दोलन की परिणति तथा उस क्षेत्र को विकास की राह पर लाने हेतु आवश्यक रणनितियों पर अवलम्बित हो।


इसके साथ ही केन्द्र सरकार को भारत की एकता को बनाये रखने हेतु भले ही क्षेत्रवाद के सकारात्मक पहलू को मान्यता दे दी जाय किन्तु इसके नकारात्मक पहलू को भी दृष्टिगोचर रखना चाहिए क्योंकि इसका नकरात्मक रुप एक विषैले सर्प की भांति भारतीय अखण्डता के लिए विष का काम करता जा रहा है। जिसका परिणाम अत्यन्त भयावह ही होगा।




चेतन पाण्डेय

dramanainital

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Re: निबन्ध और लेख
« Reply #7 on: September 28, 2010, 04:48:01 PM »
pande jee,namskaar.aapkaa lekh padhaa.khushee hui ki 'faisale' ke intezaar kee ghadiyo me aapne bhaarat kee sangheeya vyavasthaa par lek likhaa. lekh do took hai aur saaf saaf aapkaa mantavya shrotaa tak pahuchaataa hai.
 
जाने क्या हो जाने को था,
इस्कूल में छुटटी हो गयी.
रुका फ़ैसला आने को था,
इस्कूल में छुटटी हो गयी.
harshvardhan

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Re: निबन्ध और लेख
« Reply #8 on: November 01, 2010, 02:58:03 PM »
नैनीताल में आयोजित हुए फ़िल्म महोत्सव में ’दाएँ या बाएँ’ देखने का अवसर मिला.मध्यांतर तक फ़िल्म ने दाएँ या बाएँ देखने का मौका नहीं दिया, मध्यांतर के बाद भी फ़िल्म अपनी गति पकड़े रहती तो खूबसूरती और निखरती.पहाड़ और पहाड़ के जीवन के कितने ही ऐसे पहलू हैं जिन्हें ये फ़िल्म छूते हुए चलती है. बेरोज़गारी,पलायन, नशाखोरी, अन्धविश्वास, अकर्मण्यता, बेहतर शिक्षा का अभाव, पर्यावरण की अनदेखी कर प्राकृतिक संपदा का दोहन इत्यादि.यह विषय अपने आप में इतने महत्वपूर्ण हैं कि हर विषय पर एक स्वतन्त्र फ़िल्म बनाई जा सकती है.लेखिका,निर्देशिका बेला जी यहाँ पर थोड़ा लालची हो गईं, एक ही फ़िल्म में सारे विषयों को ले लिया.हाँ, हर विषय पर अपनी चुटीली टिप्पणी करने में वो जरूर सफ़ल हुईं.
      सुना है कि फ़िल्म का नाम पहले ’ड्राइविंग लाईसेंस’ था, बदल कर ’दाएँ या बाएँ’ किया गया. ये नाम फ़िल्म के कथानक के साथ पूरा पूरा न्याय करता है. आखिर चुनाव करना है दो स्थितियों के बीच, पहाड़ में रहकर रोज़गार के साधन की तलाश या पलायन कर ’मनीआर्डर अर्थशास्त्र’ की यथास्थिती.पटकथा की बुनाई दर्शक को बाँधे रखने में कामयाब है.
      संवाद बहुत से स्थानों पर गुदगुदाते हैं और कहीं कहीं पर खुल कर हँसने के लिये मजबूर करते हैं. कुछ स्थानों पर लगा कि संवाद यदि और पैने होते तो अच्छा होता. पहाड़ की खूबसूरती और उसके परिवेश को सटीक तरीके से कैमरे में कैद किया गया है.संगीत पारम्परिकता के और करीब होता तो फ़िल्म को एक नई ऊँचाई दे सकता था.
      बेला जी ने बहुत ही हिम्मत से काम लिया, और पहाड़ की बात करने के साथ साथ पहाड़ के कलाकारों को भी सामने आने का मौका दिया. दीपक डोबरियाल तो मंझे हुए कलाकार हैं ही, बेला जी जीतेंद्र बिष्ट, भारती भट एवं बाल कलाकार प्रत्यूष से भी अच्छा काम लेने में सक्षम रहीं. ज़हूर आलम एवं धनंजय शाह को कला प्रदर्शन का भरपूर मौका नहीं मिल सका. गिर्दा तो लगा ही नहीं कि फ़िल्म के पात्र हैं, वो गिर्दा जैसे ही लगे.श्रीमती बिष्ट अपनी छोटी सी भूमिका में भी हँसाने में कामयाब रहीं.आरती ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया. सुन्दर का पात्र निभाने वाले कलाकार का नाम याद नहीं आ रहा पर उन्होंने बहुत प्रभावित किया.
      बेला जी के निर्देशन में बनी यह पहली फ़िल्म साफ़ कर देती है कि उनमें एक सफ़ल एवं समर्थ निर्देशक की क्षमता है. उन्होंने फ़िल्म को अर्थोपार्जन का माध्यम न मानकर उसे अपनी बात कहने का माध्यम चुना अन्यथा किसी बाजारू विषय पर फ़िल्म बनाकर वाह वाही लूटने का आसान काम भी वो कर सकतीं थीं.उन्हें यह फ़िल्म दर्शकों तक पहुँचाने के लिये बहुत जद्दोज़हद करनी पड़ी.निर्माताओं को कहना चाहूँगा कि उनकी मानसिकता ने इस फ़िल्म को इसकी सही जगह दिलाने में नकारात्मक भूमिका निभाई. उत्तराखन्ड को केन्द्र में रख कर बनाई गई यह पहली फ़िल्म है. उत्तराखंड में सिनेमाहाँलों की क्या स्थिती ये यह जगविदित है, ऐसे में यह फ़िल्म बनाने का हौसला बेला जी का अपनी जड़ों के प्रति उनका नज़रिया प्रस्तुत करता है.उन्हें अपने आने वाले समय के लिये शुभकामनाओं के साथ साथ इस प्रस्तुती हेतु कोटि कोटि धन्यवाद.
       

 

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