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निबन्ध और लेख

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dramanainital:
फ़िलमनामा.
 
अप्रॆल सन १९९९,नैनीताल की एक शाम को पहली बार किसी नाटक की रिहर्सल देखने का मौका मिला.नाटक था बर्टोल्ट ब्रेख़्त रचित "खड़िया का घेरा".न जाने किस प्रेरणा से मैं भी इस रिहर्सल में शामिल हो गया,परन्तु इस नाटक का हिस्सा बनकर मुझे अप्रकट्नीय प्रसन्नता हुई.तब से आज तक मैं भी उन तमाम नाट्यकर्मियों में से एक हूं जो बग़ैर किसी निश्चित मक़सद के, मगर निरन्तरता से नाट्य कर्म में लिप्त हैं.नैनीताल में इद्रीस भाई द्वारा प्रस्तुत "अन्धा युग" इसका नवीनतम उदाहरण है.
 
अगला स्वाभाविक क़दम कैमरे का इस्तेमाल है.शहर के बहुत से लोगों ने,जिनमें से कई नाट्यकर्मी नहीं भी थे,ये काम भी कर डाला.कई-एक वीडिओ सी डी बनीं.अधिकतम को घरवालों के अलावा और किसी से प्रशंसा नहीं मिल सकी,हाँ पैसा बदस्तूर खर्च हुआ.ख़ाली जेबों के मालिक एक दूसरे पर कटाक्ष कर के ही अपनी भड़ास निकालते रहे.नतीजा ये कि कला का भन्डार होने के बावज़ूद हाल फ़िलहाल कोइ भी कलाकार किसी मुक़ाम तक नहीं पहुँच पाया.नैनीताल निवासी ये कलाकार निर्मल पाण्डे और ललित तिवाड़ी बनना चाहते हैं,और शायद अपने जुनून के चलते इनमें से कोइ ऐसा करने में सफ़ल हो भी जाएगा,किन्तु समाज का योगदान बहुत ज़्यादा नहीं होगा.क्या आज का समाज इन सब कलाकारों को इसी लाय़क समझता है?
         काश कि ये ही कलाकार नैनीताल के फ़ेमस सीज़न के दौरान अपनी कला का प्रदर्शन कर पाते...वो भी टिकट बेचकर.उसको दर्शक मिल जाता और दर्शक को मज़ा....इन कलाकारों से सजे नाटक में मज़ा बहुत आता है.चाहे वो व्यंग्य हो, मेलोड्रामा हो या नया प्रयास.पर ऐसा नहीं होता. सीज़न में शो नहीं होता.  क्यों नहीं ऐसा होता?   पैसे की कमी,या नीयत की? या तथाकथित   ’बिज़नैस एक्युमेन’की?अरे ,आजकल सास बहू की कहानी बिक रही है.यहाँ तो कहानियों का खज़ाना है भई.
      फ़र्वरी,सन २००३,एक दिन सुभाष घई नैनीताल आते हैं.वो उत्तराखन्ड में एक फ़िल्म की शूटिंग करेंगे.शहर का हर वो बशर जो  खुद को कलाकार समझता है,इस फ़िल्म का हिस्सा बनना चाहता है.कुछ अत्मसंयमी भी हैं,जो कलाकार हैं और चाहते हैं,कि विशेष बुलावा आए...ख़ैर.... एक बहुत ही अजीब सी, औडिशन ,नामक प्रक्रिया से गुज़रने के बाद जिनका चुनाव हुआ,उनकी कुछ समय के लिये चाल ही बदल गई. पर समय की चाल निष्ठुर थी. शूटिंग के दौरान मौका उनको मिला जो पास ही नहीं हुए थे.बहरहाल हुआ ये कि शहर में(इन्हीं लोगों के बीच)"किसना" की शूटिंग चर्चा में रही और बहुत बाद तक इसके संस्मरण हवा में तैरते रहे.कुछ नाटक भी इस भागमदौड़ में चोटिल हुए,कुछ को अपनी शहादत देनी पड़ी.इद्रीस भाई ने इस बीच "लाटा" बनाई, ईसी बीच एक वीडियो सी डी मैंने भी बनाई."आज कैंची धाम में"(महाराज नींम करौली जी को समर्पित भजन.)
      मई,२००५,शायद,नैनीताल में फिर एक बार शूटिंग है.कोइ बेनाम सा डाइरेक्टर, अपने से थोड़े ज़्यादा नाम वाली हीरोइन को लेकर एक फ़िल्म बनाना चाह रहा था.’औडिशन’ मेंकुछ कलाकार इस बार कम थे.कुछ जिन्होंने सबक लिया और कुछ जो अपनी गरिमा के बचाव में लगे थे.बाकी जुनूनी, नासमझ , सब मौज़ूद थे.इनको फिल्म में ’काम मिल गया’.ऐक्टिंग का काम.प्रीति झिंगियानी के इर्द गिर्द नाचने का काम.फ़िर भले डाइरेक्टर बद्तमीज़ी करे या कोइ छुट्भैया स्पोट बाए.
         इस काम के साथ एक और काम उन्हें सौंपा गया.१०० कलाकारों का इन्तज़ाम जो प्रीती झिन्गियानी के इर्द गिर्द नाचें.यानि अपने जैसे सौ और.मेहनताना १५०/- प्रतिदिन,प्रति कलाकार.तीन दिन तक.सब लगे रहे,आखीर में न कला रही न जुनून,लालच उन्हें निग़ल गया.इसी बीच नाटक हुए युग्मन्च द्वारा "जिन लाहौर नईं देख्या" और बाबा एन्टर्टेनमेंट द्वारा "हँसना किश्तों में".इस नाटक को मैंने लिखा एवं प्रस्तुत किया.दोनों को दर्शक मिले.
         इसी बीच शालिनी शाह और उनके पति श्री राजेश शाह जी ने एक फ़िल्म बनाई "बाटुई".कलाकार खुश थे,इस बार सबको डाइलाग भी मिले थे,जौहर दिखाने का पूरा मौका था.अथक मेहनत के बाद फ़िल्म बनी.कम्प्यूटर से फ़िल्म एडिट हुई.संगीत भी भरा गया.शहर में फ़िल्म कई जगहों में दिखाई गयी.कलाकारों का मन लम्बे अर्से तक प्रफ़ुल्लित रहा.इस बीच नाटक हुए "कोमल गांधार",और भुवन बिष्ट द्वारा एक नाटक.अखबारों में इनका ज़िक्र हुआ,पर इतना नहीं कि निगहों में आ सके.
      २००६,इस वर्ष छुट्पुट सीरियल वाले,अनजान निर्देशक इत्यादि शहर में आते रहे जाते रहे.शालिनि जी ने एक सरकारी फ़िल्म बनाई "ऎ मेरे दिल कहीं और चल".कलाकारों की मेहनत, तकरीबन ५ कि. मी. पैदल चलकर भी शूटिंग पर पहुँचे.फ़िल्म शहर के कई स्कूलों में प्रदर्शित हुइ.कलाकार इतने पर ही खुश थे.
 
क्रमशः
 
       
       

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प्रकाश झा की "राजनीती".
 
 
पात्र : नाना पाटेकर     - भीष्म पितामह.
         लकवाग्रस्त        - ध्रितराष्ट्र.
         मारा गया पिता  - पाण्डु.
         मनोज बाज्पाई     - दुर्योधन.
         अजय देवगन        - कर्ण.
         अर्जुन रामपाल     - युधिष्ठिर, भीम.
         रणवीर कपूर     - अर्जुन.
         बरखा बिष्ट      - कुन्ती.
         नसीरुद्दीन शाह  - सूर्य.
 
 
महाभारत से प्रेरित पटकथा में युद्ध का स्थान ले लिया है चुनाव ने.मुख्यमन्त्री की कुर्सी बनी राजगद्दी.महाभारत काल की तरह ही राज्य विस्तार के लिये विवाह का उपयोग हुआ.चीरहरण का स्थान ले लिया भावनात्मक उत्पीड़न ने.कर्ण पूर्व की भाँति शैशव अवस्था में नदी में बहा दिया गया और सूत पुत्र कहलाया.कालान्तर में उसने अपने मित्र दुर्योधन के साथ मिलकर अपने ही भाइयों का रक्तपात किया.कुन्ती,अभ्यर्थना के बावज़ूद फिर से कर्ण को पांडवों के खेमे में नहीं ला सकी.भीम ने गदा के स्थान पर बेसबाल के बल्ले से शत्रुओं का रक्त बहाया.मन्त्रोच्चारित बाणों की जगह ले ली रीमोट बमों ने.बड़ा बदलाव था कहानी के अन्त में द्रौपदी का राजगद्दी पर आसीन होना.

        कहिये कि कहानी मौलिक थी..........

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लेखक बनाम ब्लागर.

हरिशंकर परसाई का मुरीद हूँ. आजकल शरद जोशी को पढ़ रहा हूँ. फिर से . मेरे भीतर के लेखक को जगाने के लिये इतनी प्रेरणा काफ़ी होती है. ये अभिलाषा आवश्यक नहीं कि मुझे कोई पढे.    मेरे हिसाब से लेखक वो है जो लिखता है, अब कोई पढे न पढे,  उसकी मर्ज़ी. कई लोग ज़मीन की रजिस्टरी के वक़्त दरकार ज़रूरी कगज़ों पर लिखते हैं. वो भी लेखक हैं. जो बही खातों में लिखते हैं वो भी और जो सार्वजनिक स्थानों की दीवार पर कला प्रदर्शन करते हैं वो भी. नाना प्रकार के लेखक होते हैं ,बस उनके पढ्ने वालों का दायरा अलग अलग होता है. जब मैं बहुत ज़िद करता हूँ तो कुछ मित्र मुझे भी पढ़ लेते हैं. धुंधलके में थोड़ी ज़्यादा हो जाने पर दाद भी दे देते हैं. इस ही इंधन पर मेरी कलम चल जाती है. वो तो अछ्छा है कि माइलेज कम है,वर्ना एक दिन में कम से कम पाँच रचनाएँ तो पोस्ट कर ही देता. जग्यूड़ा साब का रिकार्ड बराबर करने को शायद इतनी काफ़ी होंगी.
     इन्टर्नेट के आगमन से पहले बड़ी कठिन प्रक्रिया थी लेखक बनना. कम से कम बीस सहित्यकारों से मित्रता करो,स्तरीय लिखो, फिर लिखे हुए को स्तरीय समझने वाला प्रकाशक ढ़ूँढो, प्रकाशित होने के बाद प्रचार करो, और अगर पढ़ लिये जाओ तो आलोचनाओं का दंश झेलो. अब प्रक्रिया आसान हो गई है. लिखो और पोस्ट कर दो. मेरे जैसे लेखक के लिये मुफ़ीद परिस्थितियाँ हैं. मैं फ़ेसबुक पर ढ़िढोरा पीट सकता हूँ कि मैं कितना लायक या नालायक लेखक हूँ. दीवारें यहाँ पर भी मौजूद हैं,बस वो सार्वजनिक नहीं हैं. मैं अपना ब्लाग बना सकता हूँ,और उसमें मनमुआफ़िक माल भर सकता हूँ. आज के उपभोक्तावादी युग में, कला के वो नमूने, जिनमें बिक जाने की क़ाबिलियत है, माल कहलाते हैं.ये बात मुझे एक ब्लाग से ही पता चली. यहाँ पर प्रचार की प्रक्रिया बहुत आसान है,और मुफ़्त भी. आलोचना की सम्भावना भी बहुत कम है. आप अपने पाठक के पाठक होते हैं. आलोचना का जवाब आलोचना से दे सकते हैं. दो परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों में इस शक्ति को उपयोग न करने का अलिखित समझौता होता है. ब्लागरों की दुनिया में आलोचना ने परमाणु शक्ति का स्थानापन्न किया है. कहावत है इज़्ज़त करोगे तो इज़्ज़त पाओगे.
    आप जो लिखते हो, आज ज़रूरी नहीं, कि उसका कोइ अर्थ भी हो. ये लेखन माडर्न आर्ट सरीखा होता है. आप कहेंगे,  बड़ा आया माडर्न आर्ट की हाँकने वाला. पर इतना जान लीजिये, समझ में आए तो आर्ट नहीं तो माडर्न आर्ट, इतनी समझ तो मुझमें है. ये भी हो सकता है कि आप के लेखन में एक से अधिक अर्थ हों. आप कहते कुछ हों और समझे कुछ और जाते हों. पर ये खेल का हिस्सा है. अब आप ही तो अकेले बुद्धिजीवी नहीं हैं ब्लागजगत में.कई सारे हैं. जिन्हें लिखना है. माफ़ कीजिएगा, सारा समय लेखन में लग जाता है,पढ़ने की फ़ुर्सत पाना मुश्किल है.
 
" अलग हर सिम्त से दिखता है मन्ज़र,
 नज़रिया है गलत क्या और सही क्या."     

dramanainital:
धुवाँ है तो आग होगी ही.यहाँ धुवाँ है गीत "महंगाई डायन....." और आग है "पीप्ली लाइव".कहानी ये भी है कि निर्देशिका  के ज़हन में "गोदान" के पात्र घूम रहे थे,जब उन्होंने यह पटकथा रची.(फ़िल्म के एक पात्र का नाम होरी महतो है).ख़ैर, मैंने आज फ़िल्म देखी. सबसे पहले जो दिमाग़ में कौंधा, वो था कुछ समय पूर्व रिलीज़ हुई फ़िल्म "वेल डन अब्बा" का ख़याल.दोनों फ़िल्मों के विषयों में एक तरह का साम्य है,परन्तु चर्चा की बाज़ी जीती "पीप्ली लाइव" ने. मेरी निगाह में फ़र्क बैनर का है,और मार्केटिंग का,वर्ना फ़िल्म वो भी लाजवाब थी.
       पीप्ली लाइव हँसाती है,गँवय्यों की चालाकियों और उनके भोलेपन पर. रुलाती है उनकी मजबूरियों और दशा पर.चोट करती है, ख़बरचियों और उनके उद्देश्यों पर, जहाँ खबर के कारण से ज़्यादा ज़रूरी ख़ुद ख़बर हो जाती है और उससे ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है खबरचियों का तथाकथित टी आर पी.फ़िल्म इशारा करती है आज की राजनीति के ख़ोख़लेपन की ओर.फ़िल्म सवाल उठाती है सरकारी योजनाओं और उनकी सार्थकता पर.
        कई एक प्रसंगों ने अतिरेक को छुआ,ज़िक्र करना आवश्यक न समझते हुए कहना चाहूँगा कि एक वर्ग का दर्शक उस पर भी खुल कर हँसा.शायद यही मंशा निर्देशिका की रही हो.अनुशा की यह पहली फ़िल्म है,कुछ ख़ामियों की समीक्षा उनके जिम्मे छोड़कर हमें उम्मीद करनी चाहिये की वो आगे चलकर और भी ऐसी प्रस्तुतियाँ देंगी.
धुवाँ है तो आग होगी ही.यहाँ धुवाँ है गीत "महंगाई डायन....." और आग है "पीप्ली लाइव".कहानी ये भी है कि निर्देशिका  के ज़हन में "गोदान" के पात्र घूम रहे थे,जब उन्होंने यह पटकथा रची.(फ़िल्म के एक पात्र का नाम होरी महतो है).ख़ैर, मैंने आज फ़िल्म देखी. सबसे पहले जो दिमाग़ में कौंधा, वो था कुछ समय पूर्व रिलीज़ हुई फ़िल्म "वेल डन अब्बा" का ख़याल.दोनों फ़िल्मों के विषयों में एक तरह का साम्य है,परन्तु चर्चा की बाज़ी जीती "पीप्ली लाइव" ने. मेरी निगाह में फ़र्क बैनर का है,और मार्केटिंग का,वर्ना फ़िल्म वो भी लाजवाब थी.
       पीप्ली लाइव हँसाती है,गँवय्यों की चालाकियों और उनके भोलेपन पर. रुलाती है उनकी मजबूरियों और दशा पर.चोट करती है, ख़बरचियों और उनके उद्देश्यों पर, जहाँ खबर के कारण से ज़्यादा ज़रूरी ख़ुद ख़बर हो जाती है और उससे ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है खबरचियों का तथाकथित टी आर पी.फ़िल्म इशारा करती है आज की राजनीति के ख़ोख़लेपन की ओर.फ़िल्म सवाल उठाती है सरकारी योजनाओं और उनकी सार्थकता पर.
        कई एक प्रसंगों ने अतिरेक को छुआ,ज़िक्र करना आवश्यक न समझते हुए कहना चाहूँगा कि एक वर्ग का दर्शक उस पर भी खुल कर हँसा.शायद यही मंशा निर्देशिका की रही हो.अनुशा की यह पहली फ़िल्म है,कुछ ख़ामियों की समीक्षा उनके जिम्मे छोड़कर हमें उम्मीद करनी चाहिये की वो आगे चलकर और भी ऐसी प्रस्तुतियाँ देंगी.

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                                                                 सुना है...
 
"बबा,हो सकता है कि इस में तुम जीत जाओ, पर मक़सद हार जाएगा". तब ही समझ गया था कि ये आदमी अपनी जीत पर नहीं,समाज की जीत पर विश्वास करता है. दो तीन वर्ष ही हुए थे उनसे मुलाक़ात हुए. उन्हें देखते, उनके बारे में सुनते सुनते ना जाने कितने बरस हो गये थे. जो कुछ भी काला सफ़ेद सुना था उनके बारे में, वो देख भी रहा था,और अपनी बुद्धी की सीमारेखा में उसका आँकलन भी कर रहा था. उनके आन्दोलनरत कलाकार रूप और कवित्त पर टिप्पणी करने योग्य खुद को समझना मेरी मूर्खता होगी. उन्हं  प्रिय कहना चाहूँगा, मार्गदर्शक कहना चाहूँगा,प्रेरणास्रोत कहना चाहूँगा. उन्होंने कई बार हमारी कोशिशों की पीठ थपथपाई और अनेकों बार दिशादर्शन के लिये उनके कान भी उमेठे. सुनता हूँ की भूतकाल में उनकी कोशिशों को इस तरह की सहूलियत नहीं मिली. इसके उलट, जब वो रंगभूमि की तलाश में थे, एक नामी गिरामी संस्था ने उनके लिये प्रवेश निषिद्ध किया. उनकी सारी अच्छाई , क़ाबिलियत, सादगी, क्षमता और व्यक्तित्व एक ओर,  और उनकी मयनोशी एक ओर. तत्कालीन रंगकर्म के ठेकेदारों ने आदत को फ़ितरत से ज़्यादा महत्व दिया. रंग का सर्जक और दर्शक, दोनों ही लम्बे अर्से तक ऐसे स्रिजन से  महरूम रहे, जो शायद हमारे इतिहास को और महत्वपूर्ण और सारगर्भित बनाता.
 
                        ये मसायले तसव्वुफ़,ये तेरा बयान ग़ालिब,
                        हम तुझे वली समझते,जो न बादाख़्वार होता.
 
नदी का रास्ता भी कोई रोक पाया है भला. उनके स्रिजन का बहाव चलता रहा, उनके गीत आन्दोलन का अपरिहार्य अंग बन गये, उनके हुड़के की थाप आन्दोलन का आह्वान बन गई और उनकी आवाज़ हज़ारों आन्दोलनकारियों की आवाज़ का पर्याय बन गयी. रंगकर्म से वंचित व्यक्तित्व जनकवि बन गया.
           
                    ’दावानल’ में पढ़ा कि ८० के दशक में वो उत्तरकाशी के बाढ़्पीड़ितों की मदद करने वहाँ पहुँचे थे. मैं भी तब वहीं था. कक्षा १ के विध्यार्थी की कच्ची उम्र की यादें हैं, ज़रूरत के सामान से भरा एक झोला हमेशा तय्यार रहता था और गंगा की आवाज़ उग्र होते ही लोग बिना सोचे समझे ऊँची जगहों की तरफ़ दौड़ पड़ते थे. वो अपनी जान जोख़िम में डालकर औरों के जीवनरक्षण का ध्येय लिये वहाँ मौजूद थे. कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने जनान्दोलन का नेत्रत्व किया और उसके श्रेय स्वरूप ज़िन्दगी किराए के मकान में गुज़ार दी. फूल बोए, बाँट दिये, रहे काँटे सो सहेजकर अपने झोले में रख लिये, बीड़ी के बन्डल और दारू के अद्धे के साथ.
 
              "मन मैला और तन को धोए.........". जुमले यूँ भी सुने हैं. "यार एक ऐसा समय भी आया जब गिर्दा नहाते ही नहीं थे......  मै...ले कपड़े........". सोचता हूँ क्या कारण रहा होगा? पाँच मिनट तो लगते हैं नहाने में, और एक बाल्टी पानी. ज़रूर वो लोगों को खुद से दूर रखना चाहते होंगे..., पर लोगों के लिये स्वयं को भूल जाने वाला व्यक्ति उन्हें अपने से दूर क्यों रखना चाहेगा? हो सकता है कुछ लोगों की उनके कलाकार के प्रति असहिष्णुता इस अबूझे विद्रोह का कारण रही हो. उन्होंने सोचा हो कि मैली सोच, मैले वतावरण, मैले पर्यावरण और मैले समाज में एक आदमी का बदन मैला रह जाने से क्या फ़र्क पड़ जाने वाला था. आखिर आत्मा तो उनकी साफ़ ही थी.
 
हर्षवर्धन
 
                   
 
                   

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