नमस्कार मित्रों !
पलायन के दर्द सहती इक सुन्दर कविता आप लोगों के सामने पेश कर रहा हूँ ! जो हमारे मित्र श्री - जगमोहन
"इन दरकती दीवारों से,
तेरी नन्ही हँसी रिसने लगी है !
कोने की जिस चक्की में पिसते थे गेंहूँ,
आज उसमे मिट्टी पिसने लगी है !!
कभी उन उजियारों से फुर्सत मिले तो आना,
और खुद अपनी आँखों से देख जाना !
जो तेरी बचपन की यादें मेरे पास रखी है,
उन यादों को साथ अपने ले जाना !!"
सतत जारी है..........
रचना- जगमोहन नेगी