Uttarakhand > Utttarakhand Language & Literature - उत्तराखण्ड की भाषायें एवं साहित्य
Articles & Poem on Uttarakhand By Brijendra Negi-ब्रिजेन्द्र नेगी की कविताये
Brijendra Negi:
उत्तराखंड जल उठा
(खंडकाव्य)
क्रमस.....3 से आगे
(4)
(चतुर्थ सर्ग)
वर्षों से आवाज दबी थी
अन्दर-अन्दर सुलग रही थी
कभी मंद तो कभी तेज
अनिश्चितता लग रही थी
मिलना चाहिए अलग राज्य
यह हमारा है अधिकार
कभी प्रखर, कभी दबा स्वर
गूँज रहा था आर-पार
सभी दल उचित बताकर
बोटों कि राजनीति रहे खेलते
कभी बहलाए, कभी छले गए
भावनावों को रहे बेलते.
इसी खेल में आग लग गयी
जल उठा हर पत्ता-पत्ता
डाली-डाली, कूंचा- कूंचा
तपन से हिल उठी सत्ता-सत्ता.
तपन से इसकी बच्चा जागा
महिला जागी, नवयुवक जागा
तपो भूमि कि हर जुवान से
उत्तराखंड का नारा लागा
कहीं गोष्ठियां, कहीं सम्मलेन
कहीं धरना, कहीं प्रदर्शन
उत्तराखंड के हर कोने से
गूँज उठा स्वर आन्दोलन.
मात्री-शक्ति ने आन्दोलन में
अपना परचम लहराया
पुरषों से सदैव आगे हैं
इस आन्दोलन से समझाया
प्रदेश शासक ने शक्ति दिखलाई
कदम-कदम पर ठोकर मारी
पहाड़ से उतरे होगी पिटाई
शासक के व्यंग वचन थे जारी
प्रशासन कि तूती बोली
पुलिस बर्बरता सर चढ़ बोली
मसूरी, खटीमा, श्रीयंत्र टापू में
आन्दोलन पर बरसी गोली
प्रदेश शासक के असहयोग से
ऐसा विचार मन में आया
राजधानी में रैली करके
केंद्र को जाये समझाया
सख्ती से निपटो शासक ने
आदेश पारित किये हुए थे
रैली पहुँच न पाए दिल्ली
ऐसे अधिकार दिए हुए थे
आदेश से बेखबर युवा थे
जन-जन में उल्लास भरे था
पहुंचेंगे अवश्य ही दिल्ली
मन में पूर्ण विश्वास भरा था.
जाल बिछा है शासक का
लक्ष्य तक न पहुँच पायेंगे
इस सबसे बेखबर युवा कि
आधे रास्ते में रुक जायेंगे
"नारसन" में रोक कर
पुलिस ने दुर्वयवहार किया
फिर भी रुके न आन्दोलनकारी
बदनीयत पर ध्यान न दिया
मुज़फ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर
मजबूत शिकंजा कसा हुवा था
सर्वोत्तम जगह छनी थी
पुलिस नगर सा बसा हुआ था
यहाँ पुलिस दल जमा हुआ था
प्रशासन कि शक्ति लगी थी
जनरल डायर कि पुनरावृति कि
शायद उन्हें उम्मीद नहीं थी
अपने अधीनस्थों के संग में
अधिकार "अन्नंत" जमा थे
अधीनस्थ आन्दोलनकारियों पर
राइफलें ताने डटे हुए थे.
रैली आगे बढ न पाए
अधिकारी चिल्ला रहे थे
अपने संगी अधीनस्थों के
होसले अधिक बड़ा रहे थे
कुछ सड़क पर डटे हुए थे
रायफल, पिस्तोल लिए हुए
कुछ खेतों में छिपे हुए थे
बहशीपन में डूबे हुए.
ऐसा हुवा फिर तांडव नृत्य
किया पुलिस ने घृणित कृत्य
मा, बहन 'बुआ' रिश्ता भूले
मात्री-शक्ति के महिमा भूले.
अश्रु गैस और रायफल गरजी
पिस्तोलों ने गोलियां उगली
अकारण खून कि होली खेली
हर और आग कि लपटें फ़ैली.
तन के वस्त्र किये तार-तार
रायफल कुंदों से हुए वार
वाहनों में घुस-घुस कर
मात्री -शक्ति संग किया दुर्व्यवहार
सहमी भागी जो खेतों में
वहां बहशी छिपे हुए थे
कुकृत्य कर्म कि इन्तजार में
एक-एक पल गिने हुए थे
हुयी रक्त से रंजित धरणी
अत्याचारियों के कुकृत्य से
माँ-बहनों के खून व इज्जत
नवयुवको के लाशों से .
रैली यहीं ध्वस्त हो गयी
और उत्तराखंड जल उठा
हा-हा कार मच गया भूमि में
घर-घर में मातम छा उठा.
शांत भूमि भी उग्र हो गयी
सार्वजनिक सम्पतियाँ हुयी स्वाहा
तपोभूमि के गाँव-गाँव में
कर्फ्यू से हुआ आह-आह.
कर्फ्यू से अनविज्ञ पर्वतवासी
कर्फ्यू सुनकर उमड़ पड़े
कर्फ्यू क्या-कैसे लगता है
देखने घरों से निकल पड़े.
क्रमस.....5
Brijendra Negi:
उत्तराखंड जल उठा
(खंडकाव्य)
क्रमस.....4 से आगे
(इस सर्ग में शहीद होने वाले नवयुवकों कि मनोदशा का वर्णन करने के कोशिस कि गयी है)
(5)
(पंचम सर्ग)
अन्याइयों कि गोलियां बरसी
धरती पर गिर गए सपूत
देव भूमि के काम आगये
ये आन्दोलन के सूत्र
आँखों में छा गया अन्धेरा
प्राण भूमि में विलीन हो गए
अंतिम बोल अधरों से निकले
उत्तराखंड से असमय खो गए
काम आगये मात्रि भूमि के
प्रिय सखा अब हमें छोड़ दो
जीवन हुवा सफल हमारा
हँसते-हँसते हमें विदा दो.
लौटो तुम अब देव भूमि को
जन-जन के अधरों को स्वर दो
छोड़ चले जो कार्य अधूरा
इसे पूर्ण कर प्रसन्न कर दो
जन-जन को सक्षम बनाना
मात्रि भूमि पर सर्वश्व लुटाना
दुष्टों को सद्कर्म सिखाना
गद्दारों को देश-भक्त बनाना
लड़ना इस अन्याय विरुद्ध
मृत्यु न जाना हमारी भूल
मुजरिमों को दंड दिलाना
शहादत न जाए ये निर्मूल
छटपटाती आत्मा हमारी
मरकर भी भटकती रहेगी
शांति हमें तब तक न मिलेगी
जब तक न लालसा पूरी होगी
दुखिया को तुम धीरज देना
निराशा पर आशा दीप जलाना
मातृभूमि के जो काम आगये
उन परिवारों को कभी न भुलाना
शौर्यता में नाम अग्रणी
विक्टोरिया क्रॉस भी है पाया
देश -धर्म कि आन-बान पर
मर-मिटना है हमें सिखाया
देश-प्रेम है नस-नस में
स्वाभिमान है रग-रग में
हमने अत्याचारियों कि गोलियां
सीने पर झेली पग-पग में
जन्म भूमि आशीष दे रही
उठो पुत्र निन्द्रा से जागो
भक्ति-भाव भरकर हृदय में
कुमति, कुसंगति को त्यागो
मात्रि भूमि का चिंतन करके
जन-जन में नव शक्ति भरो
त्याग-तपस्या, परोपकार कर
सुन्दर, सफल स्वजन्म करो
परम पवित्र, प्यार प्रकाश से
हर हृदय हर्षित करो
आराम, आलस्य त्याग कर
नवल जोश तन-मन में भरो
दिल नहीं बुझदिल है जिसमें
मात्रि भूमि कि ललक नहीं
रुधिर वह रुधिर नहीं है
जिसमें थोड़ी छलक नहीं
बुझदिल है जो सीना सिकोड़कर
निहत्यों पर है जुल्म ढहाते
शासन सत्ता कि मदहोशी में
इंसान को पहचान न पाते
कसम तुम्हें है इस मिट्टी कि
जन्मदात्री कि, मात्रि भूमि कि
सोते जागते चिंतन करना
जय-जयकार हो देव-भूमि कि
जिस मिट्टी के कण-कण में
खिलता हमारा यौवन है
जिसकी गोदी में पलता
तन-मन और यह जीवन है
उस स्नेहमयी गोदी को
जीवन ये हमारा अर्पित है
पावन-पुनीत उस पुण्य धरा को
सत-सत जीवन समर्पित है
हमें नहीं गम मर मिटने का
नहीं डर है इन प्राणों का
इक दिन इनको जाना ही है
आज गए तो क्या दीवानों का
जय देव भूमि, जय उत्तराखंड
जय केदारनाथ, जय बद्रीशधाम
आरहे है छोड़ कार्य अधूरा
छमा करना हे पुनीत धाम
लोकतंत्र के इतिहास में
हुआ न कभी ऐसा दमन
अधिकारों का हनन कर
उजाड़ दिए घर के चमन
हे देव भूमि के सुप्त दीप
मात्रि भूमि के उजियारे
युग-युग तक मस्तक झुकेंगे
शहादत पर सदैव तुम्हारे.
क्रमस.... (6)
Brijendra Negi:
उत्तराखंड जल उठा
(खंडकाव्य)
क्रमस.....5 से आगे
(इस सर्ग में मात्री शक्ति के साथ दुर्व्यवहार के वर्णन करने के कोशिस कि गयी है)
(6)
(षष्टम सर्ग)
वह सपने में खोई हुयी थी
सुन्दर बगिया में डोल रही थी
कुछ अध्-खिले, कुछ खिले
फूलों के संग बोल रही थी
अति आनदिंत हर्षित थी
इधर-उधर निहार रही थी
रंग-बिरंगे फूलों से
धरती प्रफुलित, संवर रही थी
हर ओर आनंद, चहुँ और सुगंध
सुगन्धित नभ, वसुंधरा थी
हर दिशा सुंगधित, वायु सुगन्धित
सुगन्धित हिमगिरी कन्दरा थी
चपल चांदिनी चमक रही थी
सुन्दरता झलक रही थी
सौन्दर्य के अद्भुत नशे में
कंटकों पर निष्कंटक चल रही थी
नजर न लगे सुन्दरता को
माथे रोली चिट्टी थी
बद्री-केदार कि संस्कृत थी
यह उत्तराखंड कि मिट्टी थी
इतने में आया एक झोंका
प्रचंड तूफ़ान लिए हुए
फूलों ने भी घबराकर
पत्तियों में सिर छुपा लिए
घना अँधेरा छा गया
पूर्णिमा ने अमावस रूप लिया
तेर हवा के झोंके ने
साड़ी का पल्लू उड़ा दिया
उड़ा जो पल्लू साड़ी का
लगा किसी ने खींच लिया
नजर उठाई जब उसने
दरिदों ने था भींच दिया
दिखने में मानव जैसें
खाकी वर्दी पहने थे
रायफल कंधे में टंगी हुयी
भारी भरकम जूते थे
शक्ल से भद्दे लगते थे
शरीर में दानव समतुल्य थे
भारी भरकम जूतों से
बगिया कुचलना चाहते थे
धूळ उड़ाते, ताल ठोकते
कुटिल अट्टहास करते थे
चट कर जाएँ साड़ी बगिया
ऐसी हामी भरते थे
उनके पीछे खड़ा एक दानव
सबको आदेश देता आये
कुचल-मसल दो सारे बगिया
चाहे जान भले ही जाए
टूट पड़े वो भूखे दरिन्दे
किया बगिया का सर्वनाश
फूल भी कुचले, कलियाँ मसली
कोमलता का न हुआ आभास
आंखे बंद कि अपनी उसने
इस हृदय विदारक वेदना से
आंख खोली तो देखा उसने
तन नग्न था इस घटना से
हुआ क्या यह समझ न पायी
चेहरा डर से श्वेत हो गया
थर-थर कांपते अधरों से
बोल गए, दिल रो गया
हिले न पाँव उसके धरती से
भारी-भरकम जडवत हो गए
थर-थर कंपित हाथों से
तन के वस्त्र, न सभंल रहे
वर्दीधारी वे दुष्ट दानव
विभत्स्य अट्टहास कर रहे थे
गर्व से सीना चौड़ा कर
हर्षोल्लास से भर रहे थे
तार-तार हुए तन के वस्त्र
तन ढकने में असमर्थ हो गए
हाथों से आँचल छिपा
वे शर्म-सागर में खो गए
इतने में करुण पुकार ने
जगाया उसे जो सोयी हुयी थी
अरुणोदय हो गया परन्तु
वह सपने में खोयी हुयी थी
आँखे खोली तन को देखा
कपडे देखे, रही हक़बकी
सपना था यह, या हकीकत
इतना भी वह समझ न सकी
भ्रम हुआ है उसको स्वर का
करुण-क्रंदन, विलाप रोने का
कल ही तो रैली में गए थे
अभी कहाँ समय लौट आने का
यह तो एक सपना ही होगा
वास्तविकता के पास नहीं है
अश्वस्त हुयी व यह सोचकर
स्वर में कोई सच्चाई नहीं है
अलसाई आँखों से उसने
जैंसे ही अंगड़ाई ली
बहु-बेटी कि करुण पुकार ने
पुनः उसे रुलाई दी
सोते हुए सपना देखा था
जागने पर ये क्या सुनती हूँ
हे! ईष्ट देव तुम रक्षा करना
यह अनिष्ट मैं क्यों बुनती हूँ
क्रंदन सुन दरवाजे लपकी
बहु-बेटी-बेटे रो रहे थे
तन के हुए तार-तार कपडे
साड़ी व्यथा सुना रहे थे
सपने में जो देखी बगिया
वह उत्तराखंड कि रैली थी
खिले-अध् खिले फूलों में
बहू-बेटी - सहेलियां थी
चंदा जैसे सुन्दर चेहरे
निष्कंटक, निर्भय गए थे
अपनी ही धरती से
अपना हक़ लेने गए थे
दानव जैसे वे मानव
खाकी वर्दीधारी थे
कर्तव्यों कि इतिश्री कर
रक्षक ही भक्षक भारी थे
भूल जाते जो वर्दी पहन कर
रिश्ते नाते आप खोते
माँ-बहन जो, पहचान न पाते
वे निज पथ पर कांटे बोते
घृणित कार्य किया जिन्होंने
वे उसे घृणित कहाँ कहते हैं
क्योंकि प्रतिदिन अपने घर में
ऐसे कर्म करते रहते हैं
प्रवृति है उनकी यह घर से
प्रतिकार कि क्षमता नहीं है
घर कि लाज बचाने शायद
उनकी महिलाएं चुप-चाप रही हैं
स्वस्थ मन का कर्म नहीं यह
विक्षिप्त मनुष्य का धर्म यही है
अपना क्या, पराया क्या
इससे कोई सरोकार नहीं है
अबला पर क्रूर जुल्म ढहाने
जिनके सीने तनते हैं
उग्रवाद के गर्जन से उनके
सीने सदैव सिकुड़ते हैं
झुका शीश नहीं देवभूमि का
झुका शीश नहीं नारी जाती का
झुका शीश मानव जाती का
झुका शीश सम्पूर्ण देश का
Brijendra Negi:
उत्तराखंड जल उठा
(खंडकाव्य)
क्रमस.....6 से आगे
(इस सर्ग में एक बूढी माँ के जवान बेटे के शहीद होने के गम के वर्णन करने के कोशिस कि गयी है)
(7)
(सप्तम सर्ग)
गया था रैली में बेटा
जीवित लौटकर आया नहीं
मातृभूमि के काम आगया
फिर भी कुछ पाया नहीं
वह दिए को निहारती
बैठी हुयी ग़मगीन
दुखित मन, व्यथित हृदय
आँखे अश्रु विहीन
जुर्म उसने किया नहीं
अन्याय कोई किया नहीं
फिर अनर्थ क्यों किया विधाता
तूने उत्तर दिया नहीं
एक सहारा बुढ़ापे का
तन-मन-धन सब कुछ वही
लाठी टूटी, कमर टूट गयी
मै जीवित भी मरी हुयी
क्यों रखा है मुझे बचाकर
हे मौत ! तू कब आएगी
और अभी कितने दिन
इस अभागिन को सताएगी
कहते है माँ कि अर्थी को
बेटा कन्धा देता है
माँ कि चिता को मुखाग्नि दे
उसे स्वर्गानुमुख करता है
माँ का बेटे पर कर्ज यही
बेटे का पावन फर्ज यही
जीवन कि अंतिम यात्रा में
अग्नि दान का सार यही
जग में पावन पुण्य यही
बेटे का पुनीत धर्म यही
बेटा जो इसको नहीं निभाता
उसका कलुषित कर्म यही
माँ का ऋण कभी न चुकता
जीवन भर ऋणी रहता है
निश्छल मात्री-भक्ति सेवा से
मात्री-ऋण से उऋण होता है
बेटा जिसका बिछुड़ गया
उसके लिए कहीं स्वर्ग नहीं
माँ बेटे को तर्पण देगी
इससे बड़ा नरक नहीं
मै भी ऐसी माँ हूँ अभागिन
बेटा जिसका बिछुड़ गया
हे पालनहार ! इससे पहले
मुझको क्यों नहीं उठा लिया
क्यों दिया ऐसा दिन मुझको
क्यों दी मुझको सजा ऐसी
कौन सा पाप किया था मैंने
तेरी यह माया कैसी
इस बच्चे ने क्या देखा था
क्यों प्राणों से दीन हो गया
यौवन कि दहलीज पर ही
चिर निंद्रा में लीन हो गया
अत्याचारियों ने गोली मारी
धरणी पर इसे सुला दिया
तू सबका रक्षक है स्वामी
तेरी दया ने कुछ न किया
कभी-कभी विश्वास डगमगाता
जब अन्यायियों का तू देता साथ
बेगुनाहों का सहारा चीनता
सत्य, अहिंसा को देता मात
अन्यायियों को विजय दिलाना
अन्याय ही तो है करना
है शक्ति यदि तुझमे इतनी
उन पापियों के प्राण भी हरना
करता वार जो हृदय पर
बेगुनाहों के घर उजाड़ता
अपनी न्याय प्रियता से
तू क्यों नहीं उन्हें संहारता
माँ का दिल क्या होता है
अत्याचारी क्या जाने
माँ का साया जिन्हें नहीं मिला
माँ कि ममता वे क्या माने
वर्दी के ऐसी क्या मजबूरी
पद-प्रतिष्टा कि क्या लाचारी
बालहीन कर दी माताएं
दीन-हीन कर दी बेचारी
अंत में अत्याचारियों तक
मेरी विनती पहुंचा देना
एक गोली मेरे सीने में भी
उनके हाथों उतरवा देना
विनती मेरी अवश्य सुनेगें
मुझे विश्वास वे अमल करेंगे
निर्दोष छातियाँ छलनी करते
मुझसे भी मृत्यु कि गोद भरेंगे
मेरी उनसे यही है विनती
साड़ी गोलियां मेरे सीने में भरें
माँ का दिल है उफ़ न करूंगी
पर भविष्य में पुनरावृति न करें
क्रमस.....8
Brijendra Negi:
उत्तराखंड जल उठा
(खंडकाव्य)
क्रमस.....7 से आगे
(चिंतन )
(8 )
(अष्टम सर्ग)
चिंतन आवश्यक जीवन में
मानव जीवन निवस्त्र हुआ
जीवन भर धन संचित करके
दुनिया से निवस्त्र गया.
फिर किस लिए मारा-मारी
स्वार्थ अहम् उपजा कैसें है
सब कुछ यहीं रहा, रहेगा
तन तो ये माटी जैसें है.
प्रतिफल है ये विकासवाद का
विकसित किया मानव को
ऊँच नीच का भेद कराकर
बाँट परस्पर मानव को.
आदि में मानव अनपढ़ था
सादा सरल सहज था
ऊँच नीच का ज्ञान नहीं था
परस्पर प्रेम भरा था
विकासवाद ने सिखलाया
निज हित संचय करना
बढती आवश्यकताओं ने सिखलाया
परहित अहित करना
निजहित से ही मानव का
शांत रूप उग्र हुआ
उद्यत हुआ मरने -मारने
उत्तेजित अति व्यग्र हुआ
बलशाली मानवों ने फिर
अधिपत्य जमाने आरम्भ किये
कालांतर में यही मनुज
राजा महराजा कहलाये
शुरू हुई फिर युद्ध विभीषिका
बलशाली बलशाली में
भिन्न-भिन्न बन गए पंथ
उन बलशाली बलशाली में
एक अन्न दाता बन गया
शक्तिशाली बलवान
शेष प्रजा कहलाई
वह राजा महान
परिमार्जित किया इसे आधुनिक
पढ़े लिखे मानव ने
जनता हेतु जनता द्वारा
जनता के शासन ने
निश्चित हुई सीमायें राज्य की
सत्ता के प्रतिनिधियों की
जनता को अधिकार दिया
अपने प्रतिनिधि चुनने की
आया समय जब चुनाव में
आपना प्रतिनिधि चुनने का
प्रश्न यहीं पर खड़ा होगया
आपना प्रतिनिधि गुनने का
किसको चुने जनता प्रतिनिधि
कई विकल्प सम्मुख है
चुंनना तो है एक परन्तु
यहाँ तो कई खड़े हैं
अलग अलग धर्मों के सारे
अलग अलग पन्थो के
कट्टरवाद कहीं साम्यवाद
सूत्र बने जनतंत्र के
प्रतिष्टा ने पांव जमाये
हुई विषाक्त मारामारी
लूट मार, शोषण प्रहार
व्यंग वचन, चोर बाजारी
छिन्न भिन्न हुई व्यवस्था
नए समाज कि सारी
ठगा हुवा मानव देखता
अपने पांव कुल्हाड़ी
बना प्रतिनिधि फिर शासक
चुना गया जो द्वन्द से
जाँत-पांत-धर्म-पंथ में
बाँट समाज को गंद से
बना शासक जो समाज का
रखकर नीवं अनीति कि
फिर उससे उम्मीद कैसी
शांति सुख और रीती कि
देता नहीं मानव जिस धन को
सहज-परस्पर प्रीति से
आज ले रहा प्रतिनिधि उसको
छल-बल-कपट-राजनीती से
कहीं तराजू में तुलते हैं
सोने-चांदी के सिक्कों से
कहीं थैलियाँ चढ़ती हैं
चंदा लेकर जनता से
शिशित भी लुट रहा आज
जाती-धर्म के नाम पर
मंदिर मस्जिद गिरजाघर
कहीं गुरूद्वारे के नाम पर
घर में अन्न नहीं जरूरी
कपडे तन पर नहीं जरूरी
शासक तक हो पंहुच जरूरी
आज मानव कि ये मजबूरी
मजबूरी है सफेद पोश
नेता एक चाहिए भारी
छांव में जिसके हो सके
वह निरंकुश अत्याचारी
नेता ऐसा जो समाज को
पशुओं कि भांति चलाये
स्वयं नीति से दूर रहे
औरो को नीति सिखलाये
परस्पर मानव प्रीति अब
उठने लगी धरा से
छल-प्रपच-अनीति छा रही
छदम कुटिल राजनीती से
राजनीती के घृणित चक्र में
परिवार कुटुम्भ फंसे हैं
स्वार्थ सिधि के वशीभूत
विभिन्न दलों में बटें हैं
इससे बढ़कर मानव का
और पतन क्या होगा
मानवीय मूल्यों का बोलो
और हनन क्या होगा
बनी व्यवस्था लोकतंत्र की
मानव को सुखी बनाने की
गिरा गहन गर्त में मानव
सत्ता की मदहोशी में
गर्त में गिरकर भी मानव
गहराई नहीं भांप रहा है
अपनी अग्रिम पीड़ी हेतु
गर्त में गर्त खोद रहा है
गर्त में गिरकर चिंतन करता
मुझको धरातल नसीब तो है
ऐसी करनी करता चलूँ
आगे धरातल नसीब न हो
समाप्त
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