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Articles & Poem on Uttarakhand By Brijendra Negi-ब्रिजेन्द्र नेगी की कविताये

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Brijendra Negi:
उत्तराखंड जल उठा
खंडकाव्य)                    
   
  (१)
(प्रथम सर्ग )

शीर्ष में स्थित, शीश देव भूमि
सर्व गुण-सद्कर्मों की खान
गंगा-यमुना सा स्वछ चरित्र
मृदुल-मनोहर इसकी शान

शीश में ब्रह्मा, शीश में विष्णु
शीश महेश विराजते हैं
देव भूमि में दर्शन करने
विश्व से मानव आते हैं

सर्व शक्तिमान ब्रह्मा ने
पृथ्वी लोक का निर्माण किया
देवों के लिया ब्रह्मा ने
उत्तराखंड का विधान किया

नर-नारायण की कथा यहाँ
बद्रीश यहाँ, केदार यहाँ
गंगा का अवतरण यहाँ
कंकर-कंकर में शंकर यहाँ

राजा भागीरथ ने करके तपस्या
गंगा का आव्हान किया
पुरखों को तारने गंगा ने
पृथ्वी को प्रस्थान किया

वेग अधिक था गंगा का
धरती सह नहीं सकती थी
तब इसी भूमि पर शंकर ने
अपनी जता में समायी थी

शंकर जटा से निकली धारा
गोमुख से अवतरित हुई
तन-मन-आत्मिक  शुद्धी हेतु
पावन जलरूपी सुरसरित हुई

भागीरथ के पुरखों को तारा,
पाप नाशिनी गंगा ने
तब से इसकी पावनता का
लाभ उठाया भारत ने

गंगा आगे बढती गयी
पावनता का सन्देश लिए
बसते गए नगर किनारे
धार्मिक आस्था लिए हुए

गंगा किनारे बसे नगर
धार्मिक कर्मकांडो के स्थल
देवभूमि के गरिमा एवं
महिमा-मंडित विरासत के स्थल

महारिषी व्यास की चिंतन धरती
ऋषि-मुनियों की तपस्थली
कालीदाश की रहस्य लोक
विवेकानंद की ज्ञानस्थली

रामतीर्थ ने करके तपस्या
रहस्य ज्ञान का प्राप्त किया
वेद व्यास ने व्यास गुफा में
पुराणों का सिर्जन किया

कुरछेत्र में रक्त बहाकर
पांडव अति मर्माहित थे
चुनी उन्होंने भी यह धरणी
करना चाहते प्रायश्चित थे

भ्रमण किया सम्पूर्ण खंड का
राज-पात से विरक्त हुए
सघन विपिन, शैल हिम खंडो में
जगह-जगह समाधिस्त हुए

हुआ प्रायश्चित पूर्ण उनका
एक-एक कर स्वर्गानुमुख हुए
धर्मराज को लेने यहाँ से
स्वर्ग से रथ अवतरित हुए

ऐसी धरती, पावन धरती
महिमा इसकी अनुपम है
गंगा-यमुना की धार बहाती
यह तो परोपकारी सबनम है

जड़ी-बूटियाँ, ओषधियाँ
कालजयी संजीवनी यहाँ
मनमोहक फूलों की घाटी
और कस्तूरी मृग यहाँ

विविध तरु-पल्लव-पुंज
पुष्प कुञ्ज सुशोभित हैं
मृग-रीछ-कपि-बाघ विपिन में
कंदमूल फल अति मोहित हैं

हिम खंडो से शीश सजाती
छाती शैल कंदराओं से है
पाँव  रखती समतल जमीं पर
इसका  रूप अप्सराओं से है

इसने जो भी वरन किया
उसका एक   उद्धेश्य है
हर श्रींगार के पीछे इसका
अपना  गूड रहस्य है

अज्ञानी समझ न सकते
ज्ञानी बखान न कर पाए
जिसने इसके रहस्य को जाने
वे संतो के संत कहलाये

हिमखंडो से शीश सजाकर
त्याग तपस्या सिखलाती
शैल कंदराओं का कवच बनाकर
अतुलित बल को दर्शाती

ऊंचे दुर्गम पर्वत मानो
अभेद दुर्ग खड़े है
गहरी नदियाँ, नाले झरने
सुरक्षा कवच जड़े हैं

उत्तर में स्थित उत्तराखंड
हर  तरह से पावन है
भारत माता का शुभ्र मुकुट
हम सबका मन भावन है

हे उत्तराखंड ! हे देव भूमि!
तू दिव्य-भव्य महान है
क्या तेरा गुणगान करूं
तुझे कोटि-कोटि प्रणाम है

दुर्गम अंचल में बसे लोग
गंगाजल  हेतु  तरसते हैं
पोराणिक संस्कृत धरोहर
सादा जीवन जीते हैं

भोले लोग, कठिन जीवन
अथक परिश्रम करते हैं
सीमा के ये शसक्त प्रहरी
उपेक्षित जीवन जीते हैं

सीड़ी नुमा खेतों में ये
सारी फसलें बोते हैं
प्रकृति की निर्भरता पर
उपज का सुख खोते हैं

अति वृष्टि, अनाविरिष्टि से
फसलें तोड़ती दम हैं
परिश्रम और हिम्मत देख
आँखे होती नाम हैं

शासन, सत्ता और विकास का
यहाँ सिर्फ आडम्बर है
अबभी मीलों पैदल चलकर
व्यक्ति पहुँचता घर है

रोजगार के अवसर नहीं
उद्योग धंधो पर ध्यान नहीं
इन विषम परिस्थियों को सुलझाना
पृथक राज्य बिना आसान नहीं


क्रमसा....  (२)


 
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

Birendra Ji.

Welcome to merapahadforum.com.

Very good poem you written about Uttarakhand State Struggle describing the facts of that agitation.

Kindly continue... awaiting some more poem from your side.

Brijendra Negi:
उत्तराखंड जल उठा
   (खण्ड काव्य)                     

क्रमस.....१ से आगे
(2)
(द्वितीय सर्ग)


रात्रि कहूँ या
काल रात्रि
या कहूँ
अनर्थ कि रात्रि
या कहूँ
शांतिदूत रास्ट्रपिता कि जन्म रात्रि.
या कहूँ
२ अक्टूबर १९९४ कि निरीह रात्रि.
मिटा सिन्दूर किसी का
राखी कि लाज गयी
गोदी सूनी हुयी किसी की
कलंकित हुयी कोई.
रक्त रंजित हुयी धरणी
बेगुनाहों के रक्त से.
किसी कुटिल षडयन्त्र का
प्रतिफल था यह.
जो षडयन्त्र  रच कर सोचता
लहू तो बहा अवश्य है
पर बच गयी लाज
उसके नीति की.
और फिर कार्यकुशल-कर्मठता में
गिने गए नाम उनके.
लुट गयी जिनके कुशौर्य से
लाज नारी जाती की.

कर्मठता का कार्य है या शर्म का विषय ,
रक्षक हैं ये, या अन्याई - अविचारी.
स्वार्थ लोलुप, पद प्रतिष्ठा के अग्रणी,
भ्रष्ट राजनीति, षडयन्त्र की मशीनरी.

लहू बहाते जब-जब वे निर्दोष का,
देखते मनुष्य को,
जमीन पर,
लड़खड़ाते - तड़फते - असहाय सा.
प्रश्न कौंधता है अवश्य
हर बार उस दुष्कर्म से
क्यों बहाया रक्त मैंने
इस निर्दोष का.
सोच कर  होता
हृदय अति मलिन है
परन्तु
पद-प्रोन्नति की लालसा
पुनह आरूड़ करती
उसी कर्म पर.

क्रमस....... (३)

Brijendra Negi:
उत्तराखंड जल उठा
(खंडकाव्य)                

क्रमस.......२ से आगे   
(३)
(तृतीय सर्ग)


शासक हो या प्रशासक
जनहित से नहीं ऊपर है
जाँत-पांत, धर्म छेत्रवाद में
शासितों को उलझाना अहितकर है.

पद-प्रतिष्ठा का मान-सम्मान
जीवन में छनिक सुख देता है
जनहित का अणु प्रतिफल,
जीवन को मधुमय कर लेता है.

स्वार्थ सिधि की अट्टालिका
शरहद निर्धारित करती है
विशाल हृदय छम्मा शक्ति को
शरहद की सीमा अखरती है.

किन्तु जहां अनीति, छल-बल से,
सत्ता हथियाई जाती हो
जहां जाती, धर्म, छेत्रवाद में
विभाजन की बू आती हो.


जहाँ अन्याय, कुटिलता से,
शासन चलाया जाता हो,
जहाँ नागरिकों को केवल,
वोटर भुनाया जाता हो.

जहाँ लोकतंत्र में एक व्यक्ति,
पूरा शासन चलाता हो,
जहाँ तंत्र में विपक्स कि,
वह आवाज दबाता हो.

जहाँ समाजवाद, धर्म निरपेक्षता  कि,
देते    वृथा        दुहाई,
जहाँ विकास के आंकड़ों कि,
सिर्फ कागजों में हो भरपाई.

जहाँ सत्ताधारी मंचों से,
चिल्लाते जिओ और जीने दो,
मंच के पीछे मंत्र फूकंते,
रक्त एक दूजे का पीने दो.

जहाँ जनता के प्रतिनिधि,
आपस में लड़ते झगड़ते हों,
जहाँ के जन प्रतिनिधियों में,
परस्पर जूते पड़ते हों.

जहाँ सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ,
गुंडों को चुनाव लड़ाते हों,
जहाँ वोट भी राजनीतिज्ञ
बलपूर्वक ही पाते हों.

जहाँ नीतियुक्त प्रस्तावों को,
ठोकर मारी जाती हो,
जहाँ सत्य बोलने पर,
सजा आफत आती हो.

जहाँ सत्य सदैव हरता,
झूठ पांव फैलता हो,
जहाँ न्याय भी आँखों पर,
अन्याय कि पट्टी बाँधता हो.

जहाँ न्याविद पदासीन हो,
जूठी दलीलें गड़ता हो,
जहाँ झूठ कि विजयश्री और,
सच सूली पर चड़ता हो.

कहो उस शासन का क्या होगा,
कैसें वो निष्पक्ष रहेगी,
फिर कैंसे प्रजा वहां कि,
उसको राम-राज्य कहेगी.

कैंसे वहां पर न्याय होगा,
कहो कहाँ शिकायत करेंगे
क्रूर-दुष्ट उस शासक का,
वे कैंसे दमन सहेंगे.

बोलने का अधिकार न होगा,
लोहा चने चबाये होगा,
हर समय नागरिक वहां का,
शोला हृदय दबाये होगा.

वही दबा शोला एक दिन,
लावा बन उबलता है,
शांति छोड़ आंदोलित हो,
सड़कों पर निकलता है.

कौन उत्तरदाई है कहो,
उस जन आन्दोलन का,
घृणा से भरा जन-मन या,
बोया बीज अनीतिपन का.

है विचारणीय विषय,
आन्दोलन हुआ क्यों है,
अपने घर का सुख चैन छोड़,
वह निकला सड़कों पर क्यों है.

अन्याय और अनीति पर,
जब शासक चलता है,
तो समझो अवश्य वहां
आन्दोलन जन-जन में पलता है.

सहते- सहते जहाँ मनुज,
थक गया हो तन-मन से,
अपने को सदैव उपेक्षित,
समझता हो शासन से.

देश हितैषी  मनुज,
जहाँ न सम्मान पायें,
जहाँ स्वाभिमानी को,
देश द्रोही समझा जाये.

जहाँ जाती, धर्म, छेत्रवाद,
आधार हो शासन का,
अंदर ही अंदर सुलगता है,
हृदय वहां जन-जन का.

सत्ता के संग पक्षपात का,
जहाँ मेल हो जारी,
देखने में शांति परन्तु,
अंदर सुलगती है चिंगारी.

आन्दोलन न रुकेंगे जब तक,
हर नागरिक न  सम होगा,
खून-खराबा करने में,
वह न किसी से कम होगा.

ऐंसी समता करता शासक,
निस्वार्थ राज्य सेवा से,
प्रजा को करता खुशहाल,
आदर्शो के मधु-मेवा से.

शांति न्याय का रूप दूसरा,
न्याय आवश्यक प्रशासन  में,
अन्याय, अनीति का जहाँ आसरा,
शांति कहाँ उस शासन में.

कृतिम शांति अधिक समय तक,
दबी नहीं रह सकती है.
अंतत एक दिन वह,
लावा बन फूट पड़ती है.

फिर कठिन होता रोकना,
उस दबे हुए आक्रोश को
फूट पड़ा जो लावा बनकर,
उद्वेलित कर जन-जोश को.

है सत्ता बदल-बदल कर,
अलग-अलग दलों में आई,
पर सफ़ेद लिबासी राजनीतिज्ञ
हैं आपस में भाई-भाई.

सत्ता का सुख लेते हैं सब,
स्वार्थ, अधर्म कि नीति से,
फिर कैंसे संभव है, नागरिक,
खुश होगा उस रीति से.

ओड़ते हैं जो सफ़ेद वस्त्र,
काले कर्म अधिक करते हैं,
स्वदेशी के ये हिमायती,
स्वयं विदेशी से मन भरते हैं.

ओड़ा है यदि सफ़ेद रंग,
उसका सम्मान करना सीखो,
दया-करुणा, प्रेम, परोपकार,
अन्दर अपने भरना सीखो.

रंगों में रंग सफ़ेद रंग,
इसके महिमा अपरम्पार,
शांति, सहिसुंनुता, पावनता,
आहिंसा मुख्य इसके आधार.

ओड़ के गाँधी ने यह रंग,
अहिंसा  की ऐंशी ज्योति जलाई,
शांति दूतों में अग्रणी,
'राष्टपिता' की पदवी पायी.

मदर टेरीसा का यह रंग,
विश्वभर में छाया है,
करुण, अपंग बेसहारों को,
उसने गले लगाया है.

समाज भी विधवावों को,
सफ़ेद रंग पहनता हैं,
त्याग, तपस्या, सहिसुनुता से,
जीना उन्हें सिखाता है.

झंडो में रंग सफ़ेद रंग,
जिस किसी ने फहराया है,
आग उगलती तोपों ने,
शांति रुख अपनाया है.

इस रंग कि प्रवृत्ति अदभुत्त
शांत सरल हृदय है,
इसकी पावनता के तुल्य,
हो नहीं सकता संचय है.

हर रंग में रंग जाता है,
देख इसे कभी जंग न हो,
ऐसीं करनी करो हमेशा,
पावनता इसकी बदरंग न हो.

क्रमस....  (4)



Brijendra Negi:
उत्तराखंड जल उठा
(खंडकाव्य)    
   
क्रमस.......२ से आगे   
(३)
(तृतीय सर्ग)

शासक हो या प्रशासक
जनहित से नहीं ऊपर है
जाँत-पांत, धर्म छेत्रवाद में
शासितों को उलझाना अहितकर है.

पद-प्रतिष्ठा का मान-सम्मान
जीवन में छनिक सुख देता है
जनहित का अणु प्रतिफल,
जीवन को मधुमय कर लेता है.

स्वार्थ सिधि की अट्टालिका
शरहद निर्धारित करती है
विशाल हृदय छम्मा शक्ति को
शरहद की सीमा अखरती है.

किन्तु जहां अनीति, छल-बल से,
सत्ता हथियाई जाती हो
जहां जाती, धर्म, छेत्रवाद में
विभाजन की बू आती हो.


जहाँ अन्याय, कुटिलता से,
शासन चलाया जाता हो,
जहाँ नागरिकों को केवल,
वोटर भुनाया जाता हो.

जहाँ लोकतंत्र में एक व्यक्ति,
पूरा शासन चलाता हो,
जहाँ तंत्र में विपक्स कि,
वह आवाज दबाता हो.

जहाँ समाजवाद, धर्म निरपेक्षता  कि,
देते    वृथा        दुहाई,
जहाँ विकास के आंकड़ों कि,
सिर्फ कागजों में हो भरपाई.

जहाँ सत्ताधारी मंचों से,
चिल्लाते जिओ और जीने दो,
मंच के पीछे मंत्र फूकंते,
रक्त एक दूजे का पीने दो.

जहाँ जनता के प्रतिनिधि,
आपस में लड़ते झगड़ते हों,
जहाँ के जन प्रतिनिधियों में,
परस्पर जूते पड़ते हों.

जहाँ सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ,
गुंडों को चुनाव लड़ाते हों,
जहाँ वोट भी राजनीतिज्ञ
बलपूर्वक ही पाते हों.

जहाँ नीतियुक्त प्रस्तावों को,
ठोकर मारी जाती हो,
जहाँ सत्य बोलने पर,
सजा आफत आती हो.

जहाँ सत्य सदैव हरता,
झूठ पांव फैलता हो,
जहाँ न्याय भी आँखों पर,
अन्याय कि पट्टी बाँधता हो.

जहाँ न्याविद पदासीन हो,
जूठी दलीलें गड़ता हो,
जहाँ झूठ कि विजयश्री और,
सच सूली पर चड़ता हो.

कहो उस शासन का क्या होगा,
कैसें वो निष्पक्ष रहेगी,
फिर कैंसे प्रजा वहां कि,
उसको राम-राज्य कहेगी.

कैंसे वहां पर न्याय होगा,
कहो कहाँ शिकायत करेंगे
क्रूर-दुष्ट उस शासक का,
वे कैंसे दमन सहेंगे.

बोलने का अधिकार न होगा,
लोहा चने चबाये होगा,
हर समय नागरिक वहां का,
शोला हृदय दबाये होगा.

वही दबा शोला एक दिन,
लावा बन उबलता है,
शांति छोड़ आंदोलित हो,
सड़कों पर निकलता है.

कौन उत्तरदाई है कहो,
उस जन आन्दोलन का,
घृणा से भरा जन-मन या,
बोया बीज अनीतिपन का.

है विचारणीय विषय,
आन्दोलन हुआ क्यों है,
अपने घर का सुख चैन छोड़,
वह निकला सड़कों पर क्यों है.

अन्याय और अनीति पर,
जब शासक चलता है,
तो समझो अवश्य वहां
आन्दोलन जन-जन में पलता है.

सहते- सहते जहाँ मनुज,
थक गया हो तन-मन से,
अपने को सदैव उपेक्षित,
समझता हो शासन से.

देश हितैषी  मनुज,
जहाँ न सम्मान पायें,
जहाँ स्वाभिमानी को,
देश द्रोही समझा जाये.

जहाँ जाती, धर्म, छेत्रवाद,
आधार हो शासन का,
अंदर ही अंदर सुलगता है,
हृदय वहां जन-जन का.

सत्ता के संग पक्षपात का,
जहाँ मेल हो जारी,
देखने में शांति परन्तु,
अंदर सुलगती है चिंगारी.

आन्दोलन न रुकेंगे जब तक,
हर नागरिक न  सम होगा,
खून-खराबा करने में,
वह न किसी से कम होगा.

ऐंसी समता करता शासक,
निस्वार्थ राज्य सेवा से,
प्रजा को करता खुशहाल,
आदर्शो के मधु-मेवा से.

शांति न्याय का रूप दूसरा,
न्याय आवश्यक प्रशासन  में,
अन्याय, अनीति का जहाँ आसरा,
शांति कहाँ उस शासन में.

कृतिम शांति अधिक समय तक,
दबी नहीं रह सकती है.
अंतत एक दिन वह,
लावा बन फूट पड़ती है.

फिर कठिन होता रोकना,
उस दबे हुए आक्रोश को
फूट पड़ा जो लावा बनकर,
उद्वेलित कर जन-जोश को.

है सत्ता बदल-बदल कर,
अलग-अलग दलों में आई,
पर सफ़ेद लिबासी राजनीतिज्ञ
हैं आपस में भाई-भाई.

सत्ता का सुख लेते हैं सब,
स्वार्थ, अधर्म कि नीति से,
फिर कैंसे संभव है, नागरिक,
खुश होगा उस रीति से.

ओड़ते हैं जो सफ़ेद वस्त्र,
काले कर्म अधिक करते हैं,
स्वदेशी के ये हिमायती,
स्वयं विदेशी से मन भरते हैं.

ओड़ा है यदि सफ़ेद रंग,
उसका सम्मान करना सीखो,
दया-करुणा, प्रेम, परोपकार,
अन्दर अपने भरना सीखो.

रंगों में रंग सफ़ेद रंग,
इसके महिमा अपरम्पार,
शांति, सहिसुंनुता, पावनता,
आहिंसा मुख्य इसके आधार.

ओड़ के गाँधी ने यह रंग,
अहिंसा  की ऐंशी ज्योति जलाई,
शांति दूतों में अग्रणी,
'राष्टपिता' की पदवी पायी.

मदर टेरीसा का यह रंग,
विश्वभर में छाया है,
करुण, अपंग बेसहारों को,
उसने गले लगाया है.

समाज भी विधवावों को,
सफ़ेद रंग पहनता हैं,
त्याग, तपस्या, सहिसुनुता से,
जीना उन्हें सिखाता है.

झंडो में रंग सफ़ेद रंग,
जिस किसी ने फहराया है,
आग उगलती तोपों ने,
शांति रुख अपनाया है.

इस रंग कि प्रवृत्ति अदभुत्त
शांत सरल हृदय है,
इसकी पावनता के तुल्य,
हो नहीं सकता संचय है.

हर रंग में रंग जाता है,
देख इसे कभी जंग न हो,
ऐसीं करनी करो हमेशा,
पावनता इसकी बदरंग न हो.

क्रमस....  (4)

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