Author Topic: Poem by Jag Mohan Aazad -जगमोहन आजाद की कविताएं  (Read 1310 times)

Jagmohan Azad

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प्रणब दा को एक चिठ्ठी

 

प्रणब दा

आपको सुनाई दे रही होगी

ना मेरी आवाज़ बहुत गौर से

नहीं भी सुनायी दे रही होगी तो-

सुनो गौर से मेरी आवाज़ सुनो

प्रणब दा।

 

मैं जीना चाहती थी

दूर तक चलना चाहती थी

आसमां में पक्षियों के संग

उड़ना चाहती थी...

खुद के जीवन को एक नई दिशा देना चाहती थी

मैने भी सपने संजोए थे खुद के लिए

जिन्हें साकार करना चाहती थी

खेलना चाहती

घर आंगन में अपने

मैं गिनना चाहती थी खुद की सफलताओं को

आसमां में चमकते तारों की टिमटिमाहट में

सफलताओं की इस पोटली को लेकर

लौटना चाहती थी मैं

घर को अपने।

सोना चाहती थी मां की गोद में

पिता को गर्व करते हुए देखना चाहती थी

खुद के लिए

छोटे भाई बहनों को बताना चाहती थी

खुद की उपलब्धियों के मायने...

इसलिए सिर्फ इसलिए तो

आई थी

आपके घर-आंगन में

प्रणव दा...।

 

प्रणब दा मैं बहुत निडर और मजबूत थी

खुद के वजूद के लिए

मुझे किसी भय के चेहरे से भी

नहीं था तनिक भी डर

मैं जानती थी मेरे अस्तित्व के लिए

आपके साथ खड़ी है

सर्वश्रेष्ठ शक्तिमान

उपलब्धियों के मायने अच्छी तरह समझने वाली

सोनिया-सुषमा और शीला जैसी मातृशक्तियां

इनकी गोद से मुझे भला कौन दरिंदा उठा सकता है

किसकी क्या हिमाकत

मेरे लिए आपके बनाए चक्रव्यूह को

भेद सके कोई

लेकिन प्रणब दा

मैं इतने सुरक्षित चक्रव्यूह में रहते हुए

इन महान मातृशक्तियों की गोद में

सुकून की नींद सोते हुए

अपने जीवन की सीढ़ियां चढ़ते हुए-

क्यों आख़िर क्यों

हार गई... लड़खड़ा गई

क्यों मेरा वजूद मिटा दिया

क्यों मुझे निवस्त्र कर फेंक दिया गया

आपके सबसे सुरक्षित चक्रव्यूह के द्वार पर?

और क्या-क्या सवाल करूं आपसे

प्रणव दा...।

सोचती हूं...क्या आप देंगे...मेरे सवालों का जबाब मुझे...

आपको जबाब देना होगा

हर हाल में देना होगा

ये मत सोचना मैं हार चुकी

मैं जा चुकी

नहीं...

मैं मरी नहीं हूं...मैं हारी नहीं हूं अभी

प्रणब दा...।

मेरा वजूद...मेरे जीने की सहनशीलता

अब और अधिक बढ़ गई है

मेरे कदमों की आहट...अब और तेज होने लगी है

सुनो गौर से सुनो मेरे क़दमों की आहट को

मेरे दर्द को महसूस करो

मेरे शरीर से निकलने वाली

एक-एक ख़ून की बूंद के रंग को देखो

यह बहुत...गहरा लाल सुर्ख हैं अभी भी

मेरे आंखों से टपकते इन आंसूओं को देखो

ये मेरी विदाई के नहीं...गर्व के आंसू हैं...गर्व के...

इन्हें ज़मीन पर मत गिरने देना अब...

किसी भी हाल में नहीं

ये आंसू...आग बन गए हैं अब

प्रणव दा...।

इन्हें आग बनने से रोको

इन्हें बिखरने ना दो

इन्हें बर्बाद मत होने दो...

ये मेरी मां के सपने...मेरे पिता का गर्व है

मेरे छोटे-छोटे भाई-बहनों का सम्मान है

और...ये सब मेरे,आपके जीने का वजूद भी है

प्रणब दा....।

इस वजूद को

इस वजूद के रिश्तों को

खुद को...मुझको...मेरी आत्मा को...मेरे वजूद के लिए खड़ी-

उन तमाम बेटियों के दर्द को, आंसूओं को...

न्याय दे दो...न्याय दे दो...प्रणब दा...।

 

जगमोहन 'आज़ाद'



राजपथ पर बेटियां


बस कुछ दिन बाद ही
देश का गौरव दिखाने के लिए
चमकेगा-गूंजेगा
गर्व से सीना चौड़ा कर-
कदम से कदम मिलकार चलेगा देश
राजपथ पर....।
लेकिन
यह गूंज-यह चमक
क्या सच में सीना चौड़ा कर
कदम से कदम से मिलाकर
चल पाएगें आज राजपथ पर....
उस राजपथ पर
जिस पर आज बेटियां-
रो रही हैं...चिल्ला रही हैं
लहूलुहान हो रही हैं
कड़कड़ाती ठंड में...ठंडे पानी की बोछारों से-
लड़ रही हैं...
पुलिसनुमा कुछ ख़ूंख़ार भेड़ीयों के वार से
घायल हो रही हैं-
फिर भी चल रही...निरंतर चल रही है
कभी ना रुकने वाली यात्रा पर
राजपथ पर...।
जिन बेटियों का भविष्य
संवर रहा था...विश्वविद्यालों में
जो जीवन की तलाश में
निकली ही थीं....अभी-अभी..घोंसले से अपने
जिन्होंने खुद के मायने को समझना शुरू ही किया था
अभी-अभी....
वह बेटियां भी आज सब कुछ छोड़कर-
चल रही हैं राजपथ पर....।
और लोग पूछ रहे हैं
इतनी सारी बेटियों...
क्यों चल रही राजपथ पर?
...और बेटियां...
हाथों में मशाल...मन में विश्वास
आखों में आग...लिए...
चीख रही हैं...चिल्ला रही हैं...
बस अब और नहीं...किसी हाल में नहीं
जागो...हर हाल में जागो
उठो गहरी नींद से...आवाज़ के मिज़ाज को बदलो...
खोल दो पट्टी न्याय की देवी की आंखों से
और...दिखाओ
कि बेटियों अब झूकेगीं नहीं...रूकेगी नहीं
नहीं होगा खिलवाड़-अत्याचार उनके साथ अब
न सहेगें वह अपमान अब...
बस अब नहीं...किसी भी कीमत पर नहीं...
अब इस राजपथ पर,तब तक गूंजती रहेगी आवाज़ बेटियों की
तब तक चलती रहेंगी...बेटियां...।
जब तक मानुष रूपी भेड़ियों को,नहीं चढ़ाया जायेगा...
सूली पर...
जब तक नहीं सुनायी देगी...इन बेटियों की आवाज़
खुद को लोकतंत्र का-
रहनुमा मानने वाले...सफेदपोश...धारियों को
तब तक चलती रहेंगी...गरज़ती रहेंगी आवाज बेटियों की
राजपथ पर...।

- जगमोहन 'आज़ाद'

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Re: जगमोहन आजाद की कविताएं
« Reply #1 on: February 19, 2013, 10:42:16 PM »

From  - Jag Mohan Azad.

Jagmohan Aazad
बहुत विकसित हो गए है पहाड़
________________________
पहाड़ अब बहुत विकसित हो गए हैं
विकास के नए मायनों को समझने की सोच को-
इन्होंने पकड़ना सीख लिया है
तभी तो
दूर से देखने में जितने खुबसूरत
हुआ करते थे पहाड़
अब नजदीक जाकर ज्यादा
सुंदर दिखने लगे हैं पहाड़...।
पहाड़ों ने तरक्की के रास्ते पर चलना भी
सीख लिया है,तेजी के साथ
तभी तो
जहां कभी गांव थे...खेत-खलिहान थे
वहां खंडहर बनते जा रहे हैं पहाड़...।
पहाड़ के जिन रास्तों पर पैदल चलना भी होता था दूभर
कल तक-
वहां आज आसमां पर उड़
सड़कों के जाल बिछा विकास के पहिए पर धूम
जल जंगल को रौंद-
आगे बढ़ रहे हैं...पहाड़...।
पहाड़ों को अपने नल-कूपों से निकलने वाली-
जल धारा पर विश्वास करना भी आ गया है अब
तभी तो
वह इनकी निर्मल धारा में-
पेप्सी-कोला और शराब के पैमानों को छलका रहे है
खुले आम
उसके बाद
दे रहे हैं नारे
खेत-खलिहानों को बचाओ
गाड़-गद्देरों को बाचाओं
गंगा को बचाओं...इसकी पवित्र धारा को बचाओ
और
गंगा की धार को खले आम आधी राह में ही रोक-
खुद के लिए...विकास के मायने तलाश रहे हैं...पहाड़...।
तरक्की के रास्तों पर चलना भी
सीख लिया है...पहाड़ों ने भी आज
तभी तो
मोबाइल हो रहे है वह
उसके एमएमएस में खो रहे है
बदल लोक-संगीत की तान
फाड़ कपड़े...हो हाला-बेहाल
री-मिक्स की तान में खो रहे हैं...पहाड़...।
और
पहाड़ के विकास को...पहाड़ की तरक्की को
दूर पहाड़ की तलहटी से खड़ा होकर-
देख
हंस रहा है...कभी रो रहा है...कभी मौन हो कर-
बजा रहा है तालियां...एक अकेला बूढ़ा-
थका हारा पहाड़...।
जगमोहन 'आज़ाद'

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Jagmohan Aazad
 
लता दीदी के साथ एक पल-2004



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Jagmohan Aazad
(मित्रो अच्छा लगा आप लोगों ने मेरी पुस्तक 'जाह्नवी' के लिए मुझे सहयोग किया है...निवेदन करना चाहता हूं की मेरे जो मित्र  पुस्तक चाहते है...कृपया अपना पता अवश्य मुझे प्रेषित कर दें....धन्यवाद )
 
 मित्रों हमारी बिटिया 'जाह्नवी' के छोटे से जीवन परिवेश को उकेरता...मेरी कविताओं का संग्रह..जाह्नवी..का पिछले दिनों विश्व पुस्तक मेले में...हिन्दी अकादमी दिल्ली के सचिव डा.हरिसुमन बिष्ट और समयांतर के संपादक एवं वरिष्ट लेखक पंकज बिष्ट जी ने विमोचन किया....इसे प्रकाशित किया है...कश्यप पब्लिकेशन,दिल्ली ने....आप भी इस पुस्तक को मेरे माध्यम से प्राप्त कर सकते...निःशुक्ल...
 बस मुझे फेसबुक पर मैसेज करें....।
 सहयोग के लिए हम आपके आभारी रहेगें

 

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