Author Topic: इंटरनेट पर उत्तराखण्ड की याद ताजा करते काकेश दा  (Read 9046 times)

पंकज सिंह महर

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दोस्तो,
     काकेश दा से आपमें से कई लोग परिचित होंगे, काकेश दा उत्तराखण्ड के ही रहने वाले हैं और एक उच्च कोटि के साहित्यकार।  हिन्दी साहित्य जगत में स्व० मनोहर श्याम जोशी जी और स्व० गौरा पंत"शिवानी" जी ने उत्तराखण्ड को अपनी रचनाओं में उकेरा था और जोशी जी ने तो कसप और क्याप शीर्षक की दो पुस्तकें भी लिखीं, जो काफी लोकप्रिय हुई।
    आज इंटरनेट का जमाना है और कई साहित्यकार इंटरनेट के द्वारा अपनी रचनाओं को हम सभी से share करते हैं, काकेश दा भी अपनी अमूल्य समय देकर साहित्य रचना करते हैं और उनकी रचनाओं में हमारे बचपन का उत्तराखण्ड बसता है। मैं नमन करता हूं काकेश दा की लेखनी को जो आज के युग में उत्तराखण्डी साहित्य की सेवा कर रही है।
आप लोग भी देखें
www.kakesh.com

पंकज सिंह महर

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काकेश दा की लेखनी की बानगी-

मेरा पहाड़ से क्या रिश्ता है ये बताना मैं आवश्यक नहीं मानता पर पहाड़ मेरे लिये ना तो प्रकृति को रोमांटिसाईज करके एक बड़ा सा कोलार्ज बनाने की पहल है ना ही पर्यावरणीय और पहाड़ की समस्या पर बिना कुछ किये धरे मोटे मोटे आँसू बहाने का निठल्ला चिंतन ( तरुण जी इसे अन्यथा ना ले लें ये आपके लिये नहीं है ). ना ही पहाड़ मेरा अपराधबोध है ना ही मेरा सौन्दर्यबोध. मेरे लिये पहाड़ माँ का आंचल है ,मिट्टी की सौंधी महक है , ‘हिसालू’ के टूटे मनके है , ‘काफल’ को नमक-तेल में मिला कर बना स्वादिष्ट पदार्थ है , ‘क़िलमोड़ी’ और ‘घिंघारू’ के स्वादिष्ट जंगली फल हैं , ‘भट’ की ‘चुणकाणी’ है , ‘घौत’ की दाल है , मूली-दही डाल के ‘साना हुआ नीबू’ है , ‘बेड़ू पाको बारामासा’ है , ‘मडुवे’ की रोटी है ,’मादिरे’ का भात है , ‘घट’ का पिसा हुआ आटा है ,’ढिटालू’ की बंदूक है , ‘पालक का कापा’ है , ‘दाणिम की चटनी’ है क्या क्या कहूँ …लिखने बैठूं तो सारा चिट्ठा यूँ ही भर जायेगा. मैं पहाड़ को किसी कवि की आँखों से नयी-नवेली दुल्हन की तरह भी देखता हूं जहां चीड़ और देवदारु के वनों के बीच सर सर सरकती हुई हवा कानों में फुसफुसाकर ना जाने क्या कह जाती है और एक चिंतित और संवेदनशील व्यक्ति की तरह भी जो जन ,जंगल ,जमीन की लड़ाई के लिये देह को ढाल बनाकर लड़ रहा है . लेकिन मैं नहीं देख पाता हूँ पहाड़ को तो.. डिजिटल कैमरा लटकाये पर्यटक की भाँति जो हर खूबसूरत दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर अपने दोस्तों के साथ बांटने पर अपने की तीस-मारखां समझने लगता है.


पूरा आर्टिकल पढ़्ने के लिये http://kakesh.com/?p=23

पंकज सिंह महर

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परुली चिन्ह साम्य होगा क्या?   


परुली सो तो गयी. दिन भर की थकी थी नींद भी आ गयी. लेकिन ना जाने कितने देर तक सपनों से लड़ती रही. कभी लगता कि वह एक भ्योल (ऊंची पहाड़ी) से नीचे गिरती जा रही है.चारों और कंटीली झाडियां हैं जिनको वह पकड़ने की कोशिश कर रही है पर वह हाथ नहीं आ रहीं.कभी लगता कि वह नौले से पानी ला रही है और उसकी तांबे की गगरी उसके सर से छिटक कर गिर गयी है और वह उसे पकड़ने दौड़ रही है या उसकी ईजा गाय को बांधने गोठ गयी तो गाय ने उसे ही सींग से मार दिया वह गिरी तो गाय उसे अपने पैरों के तले रौदते हुए चली गयी. रात भर इस तरह के सपनों से लड़ती रही. एक दो बार आंख भी खुली तो घुप्प अंधेरा था कुछ दिखायी नहीं दिया. सिर्फ बीतती हुई रात थी.सुबह अभी भी कहीं दूर थी.


http://kakesh.com/?p=331

पंकज सिंह महर

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आमा और जंबू का धुंगार---

आमा दाल-भात दे ना.भुला बोला…. भुला की नाक से सिंगाणा निकल रहा है. जिसे वो बार बार अपने कमीज की बांह से पोछ लेता था.

अल्ल द्यूँ चेला..बनने तो दे. वैं (वहीं) बैठ जा



पूरा पढ़े-http://kakesh.com/?p=287


पंकज सिंह महर

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केमू बस की सर-सर, प्वां-प्वां

ड्राइवर का हाथ सधा हुआ है. वह मोड़ों पर बड़ी आसानी से बस को मोड़ देता है. सैलानी लड़की खिड़की से बाहर नीचे गहरी घाटी देखती तो एक अनजाने भय से सिहर जाती है.लेकिन ड्राइवर के चेहरे पर कोई भाव नहीं. बस का कंडक्टर बीड़ी फूंक रहा है और साथ ही किसी डेली पसैंजर से बात भी कर रहा है. “पदम ज्यू आज बोरे में क्या भर लाये हो?”… “कुछ नहीं चेला… बस लाई के पत्ते और नीम्बू है यार.”…..बीड़ी खतम कर वह शहर के कंडक्टरों की तरह दरवाजे से नहीं लटकता बल्कि अपनी सीट में बैठ कर अपने रैक्सीन के थैले में रखे पैसों का हिसाब करने लगा है.पैन उसने अपने कान के ऊपर रख रखी है. कभी किसी सवारी को उतरना होता तो वो दरवाजे के पास लटकती रस्सी को खींच देता और ड्राइवर के पास घंटी बज जाती और वह गाड़ी रोक देता. कंडक्टर का हिसाब शायद पूरा हो चुका है. पदम दत्त जी भी उतर चुके हैं.बीच बीच में कंडक्टर अपनी माशूका की याद भी आ जाती जिसके लिये पिछ्ले हफ्ते ही वो गोल्ल ज्यू के मंदिर में घंटी चढ़ाने की मन्नत मांग कर आया था.


पूरा पढ़े-

http://kakesh.com/?p=297

हेम पन्त

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काकेश दा की लेखनी का मैं भी प्रशंसक हूँ. "परूली" सीरीज तो वास्तव में सराहनीय थी. (हालांकि अंत जल्दी हो गया था कहानी का).

सभी लोगों से अनुरोध है कि काकेश दा के ब्लोग्स पर टिप्पणी के द्वारा अपने विचारों से उन्हें जरूर अवगत करायें. जिससे उन्हें लगे कि पहाड के लोग उनके इस प्रयास को पसंद करते हैं.

पंकज सिंह महर

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सही कहा हेम दा.

काकेश दा नराई (याद) को व्यक्त कर रहे हैं


क्या करें भुला अब तो घर में सब कुछ है…हीटर है ,गीजर है सब तरह की सुविधायें हैं फिर भी मन करता है कि जैसे भाग के चले जायें अपने उसी पटाल वाले आंगन में और धूप सेंकने लगें.कोई दही मूली वाला नीबू सान के लाये और उसे चट चट करते हुए खायें.जंबू का धुंगार लगाये हुए भट के डुबके हों, दाणिम की चटनी हो….भांगे का नमक हो…क्या क्या सोचूँ ..क्या क्या इच्छा करूँ …पूरी थोड़े होनी है रे अब इस उमर में..

http://kakesh.com/?p=205

पंकज सिंह महर

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i request to all members pl. give ur views here

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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No doubt Kakesh Da has written very well story on many issues.   

We hope in coming future also, we will touch many such aspects.

सही कहा हेम दा.

काकेश दा नराई (याद) को व्यक्त कर रहे हैं


क्या करें भुला अब तो घर में सब कुछ है…हीटर है ,गीजर है सब तरह की सुविधायें हैं फिर भी मन करता है कि जैसे भाग के चले जायें अपने उसी पटाल वाले आंगन में और धूप सेंकने लगें.कोई दही मूली वाला नीबू सान के लाये और उसे चट चट करते हुए खायें.जंबू का धुंगार लगाये हुए भट के डुबके हों, दाणिम की चटनी हो….भांगे का नमक हो…क्या क्या सोचूँ ..क्या क्या इच्छा करूँ …पूरी थोड़े होनी है रे अब इस उमर में..

http://kakesh.com/?p=205

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Kakesh Da ki lekhni aisi hai ki achhe achhe ko rula de. Unka Pahad ki waastavik zindagi ka chitran itna sateek hota hai ki kya kahun.

 

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