Author Topic: Poet Gumani - लोककवि गुमानी : साहित्य का विलक्षण लेकिन गुमनाम व्यक्तित्व  (Read 34803 times)

पंकज सिंह महर

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लोकवि गुमानी जी पर एक पुस्तक अंग्रेजी में श्री चारू चन्द्र पाण्डे जी की भी है, जिसका शीर्षक है "Echoes From The Hills - Poems of Gaurda"। इसके अतिरिक्त भी श्री पाण्डे जी द्वारा गुमानी कवि के बारे में अन्य पुस्तकें भी लिख गयी हैं।  श्री चारु चन्द्र पाण्डे जी हमारे विद्यालय में प्रधानाचार्य भी रहे यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है, उसी समय उनको अध्यापन में योगदान के लिये राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला था।  साहित्य में उनका मुख्य विषय गुमानी पंत की कृतियो के विष्लेषण से सम्बन्धित ही रहा।

जोशी जी श्री चारु चंद्र पांडे जी ने हो सकता है कि गुमानी के बारे में भी लिखा हो, लेकिन जिस पुस्तक का आपने उल्लेख किया है वह कुमाऊं के ही दूसरे कवि श्री गौरी दत्त पन्त "गौर्दा" के बारे में है, जो बद्री दत्त पाण्डे जी के समकालीन थे। उन्होंने १९८५ में "गौर्दा का काव्यदर्शन" नाम से एक पुस्तक का भी सम्पादन किया था।

Devbhoomi,Uttarakhand

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गुमानी ने अपनी कविताओं में उस समय की सामाजिक परिस्थितियों का भी वर्णन किया है। जब अंग्रेजों से पहले कुमाऊँ में गौरखा राज था उस समय गुमानी ने उनके द्वारा किये अत्याचारों को अपनी रचनाओं में कुछ इस तरह उकेरा -

दिन-दिन खजाना का भार का बोकिया ले,
शिव शिव चुलि में का बाल नैं एक कैका।
तदपि मुलुक तेरो छोड़ि नैं कोई भाजा,
इति वदति गुमानी धन्य गोरखालि राजा।


अर्थात - खजाना ढोते-ढोते प्रजा के सिर के बाल उड़ गये पर राज गोरखों का ही रहा। कोई भी उसका राज छोड़कर नहीं गया। अत: हे गोरखाली राजा तुम धन्य हो।

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इसी तरह अंग्रेजी शासन के समय गुमानी ने लिखा है -

अपने घर से चला फिरंगी पहुँचा पहले कलकत्ते,
अजब टोप बन्नाती कुर्ती ना कपड़े ना कुछ लत्ते।
सारा हिन्दुस्तान किया सर बिना लड़ाई कर फत्ते,
कहत गुमानी कलयुग ने याँ सुबजा भेजा अलबत्ते।


कुरातियों के उपर भी गुमानी ने अपनी कलम कुछ इस तरह चलायी है और एक विधवा की दशा को इस तरह से व्यक्त किया -
हलिया हाथ पड़ो कठिन लै है गेछ दिन धोपरी,
बांयो बल्द मिलो छू एक दिन ले काजूँ में देंणा हुराणी।
माणों एक गुरुंश को खिचड़ी पेंचो नी मिलो,
मैं ढोला सू काल हरांणों काजूं के धन्दा करूँ।


अर्थात - बेचारी को मुश्किल से दोपहर के समय एक हलवाहा मिला और वो भी केवल बांयी ओर जोता जाने वाला बैल मिल पाया, दांया नहीं। खिचड़ी का एक माणा (माप का एक बर्तन) भी उसे कहीं से उधार नहीं मिल पाया। निराश होकर वह सोचती है कि कितनी बदनसीब हूं मैं कि मेरे लिये काल भी नहीं आता।

Devbhoomi,Uttarakhand

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गुमानी जी ने अपनी रचनायें बिना किसी लाग लपेट की सीधी और सरल भाषा में की हैं। यही कारण है कि गुमानी की रचनायें कुमाऊँ में आज भी उतनी ही प्रसिद्ध हैं जितनी उनके समय में थी
। कुमाउंनी के प्रथम तथा लोकप्रिय कवि के रूप में गुमानी आज भी प्रसिद्ध हैं और उनका नाम इस साहित्य सेवा के लिये सदैव लिया जाता रहेगा।

हेम पन्त

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श्री चारू चन्द्र पाण्डे जी का कुमांऊनी कविता संग्रह "अंग्वाल" के नाम से हुड़का प्रकाशन, नैनीताल से प्रकाशित हुआ था. उनकी "पुन्थुरी" कविता बहुत बेहतरीन है. गौर्दा वाली पुस्तक (गौरी दत्त पन्त, गुमानी नहीं) "Echoes From The Hills - Poems of Gaurda" "पहाड़" ने प्रकाशित करवाई है.
लोकवि गुमानी जी पर एक पुस्तक अंग्रेजी में श्री चारू चन्द्र पाण्डे जी की भी है, जिसका शीर्षक है "Echoes From The Hills - Poems of Gaurda"। इसके अतिरिक्त भी श्री पाण्डे जी द्वारा गुमानी कवि के बारे में अन्य पुस्तकें भी लिख गयी हैं।  श्री चारु चन्द्र पाण्डे जी हमारे विद्यालय में प्रधानाचार्य भी रहे यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है, उसी समय उनको अध्यापन में योगदान के लिये राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला था।  साहित्य में उनका मुख्य विषय गुमानी पंत की कृतियो के विष्लेषण से सम्बन्धित ही रहा।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कुमाऊँ के महान कवि रहे हैं गुमानी

गुमानी को कुमाउंनी का प्रथम कवि माना जाता है। इनका जन्म सन् 1790 में काशीपुर में हुआ था। पर इनका निवास स्थान अल्मोड़ा का उपराड़ा गांव रहा। इनके पिता का नाम पंडित देवनिधि पंत और मां का नाम देवमंजरी था। कवि गुमानी का असली नाम लोकरत्न पंत था पर पिता ने इनके पिता इन्हें गुमानी नाम से ही संबोधित करते थे और भविष्य में यह इसी नाम से मशहूर हुए। इनका बचपन इनके दादाजी पुरूषोत्तम पंत के साथ उपराड़ा में और काशीपुर में बीता। इनकी शिक्षा महान विद्वानों जैसे - पंडित राधाकृष्ण वैद्यराज, परमहंस परिव्राजकाचार्य और पंडित हरिदत्त ज्योतिर्विद के संरक्षण में हुई। 24 वर्ष की आयु तक इन्होंने अपने गुरूजनों के संरक्षण में शिक्षा प्राप्त की। विवाह के उपरान्त गुमानी ने 12 वर्षों तक देशाटन किया। और कुछ वर्षों तक तपस्या भी की पर माता के अनुरोध करने पर ये अपने गृहस्थ जीवन में वापस आ गये। यहीं से इन्होंने कवितायें लिखने की शुरूआत की।

गुमानी संस्कृत के महापंडित थे। इसके अलावा कुमाउंनी, नेपाली, हिन्दी और उर्दू में भी इनका अच्छा अधिकार था। कुछ लोगों का मानना है कि इन्हें फारसी, अंग्रेजी और ब्रजभाषा का भी अच्छा ज्ञान था।

कहा जाता है कि गुमानी काशीपुर नरेश श्री गुमान सिंह देव के दरबार में भी जाया करते थे और वहां शास्त्रार्थ में बड़े-बड़े पंडितों को भी हरा देते थे। गुमानी टिहरी के महाराज श्री सुदर्शन शाह के राजदरबार में मुख्य सचिव के रूप में भी रहे। सन् 1846 में गुमानी जी का देहान्त हो गया।

गुमानी ने हिन्दी, संस्कृत, कुमाउंनी, उर्दू और नेपाली भाषा में बेहतरीन रचनायें लिखी। इन्हें जो भी दोहा, कविता, शेर, चौपाई याद आती उसे उसी समय कहीं पर लिख देते थे। इनकी प्रमुख रचनायें हैं - राम नाम पंचपंचाशिका, राम महिमा वर्णन, गंगा शतक, जग्गनाथाष्टक, कृष्णाष्टक, राम सहस्त्र गणदंडक, चित्र पद्यावली, राम महिमन्, रामाष्टक, कालिकाष्टक, राम विषयक भक्ति विज्ञप्तिसार, तत्वविद्योतिनी पंचपंचाशिका, नीतिशतक शतोपदेश, राम विषय विज्ञप्तिसार, ज्ञान भैषज्य मजरो। इसके अलावा इनके द्वारा तीन निर्णय ग्रंथ - तिथि निर्णय, आचार निर्णय और अशौच निर्णय की भी रचना की गई।

गुमानी ने अपनी कविताओं में उस समय की सामाजिक परिस्थितियों का भी वर्णन किया है। जब अंग्रेजों से पहले कुमाऊँ में गौरखा राज था उस समय गुमानी ने उनके द्वारा किये अत्याचारों को अपनी रचनाओं में कुछ इस तरह उकेरा -
दिन-दिन खजाना का भार का बोकिया ले,
शिव शिव चुलि में का बाल नैं एक कैका।
तदपि मुलुक तेरो छोड़ि नैं कोई भाजा,
इति वदति गुमानी धन्य गोरखालि राजा।
अर्थात - खजाना ढोते-ढोते प्रजा के सिर के बाल उड़ गये पर राज गोरखों का ही रहा। कोई भी उसका राज छोड़कर नहीं गया। अत: हे गोरखाली राजा तुम धन्य हो।

इसी तरह अंग्रेजी शासन के समय गुमानी ने लिखा है -
अपने घर से चला फिरंगी पहुँचा पहले कलकत्ते,
अजब टोप बन्नाती कुर्ती ना कपड़े ना कुछ लत्ते।
सारा हिन्दुस्तान किया सर बिना लड़ाई कर फत्ते,
कहत गुमानी कलयुग ने याँ सुबजा भेजा अलबत्ते।

कुरातियों के उपर भी गुमानी ने अपनी कलम कुछ इस तरह चलायी है और एक विधवा की दशा को इस तरह से व्यक्त किया -
हलिया हाथ पड़ो कठिन लै है गेछ दिन धोपरी,
बांयो बल्द मिलो छू एक दिन ले काजूँ में देंणा हुराणी।
माणों एक गुरुंश को खिचड़ी पेंचो नी मिलो,
मैं ढोला सू काल हरांणों काजूं के धन्दा करूँ।
अर्थात - बेचारी को मुश्किल से दोपहर के समय एक हलवाहा मिला और वो भी केवल बांयी ओर जोता जाने वाला बैल मिल पाया, दांया नहीं। खिचड़ी का एक माणा (माप का एक बर्तन) भी उसे कहीं से उधार नहीं मिल पाया। निराश होकर वह सोचती है कि कितनी बदनसीब हूं मैं कि मेरे लिये काल भी नहीं आता।

गुमानी ने अपनी रचनायें बिना किसी लाग लपेट की सीधी और सरल भाषा में की हैं। यही कारण है कि गुमानी की रचनायें कुमाऊँ में आज भी उतनी ही प्रसिद्ध हैं जितनी उनके समय में थी। कुमाउंनी के प्रथम तथा लोकप्रिय कवि के रूप में गुमानी आज भी प्रसिद्ध हैं और उनका नाम इस साहित्य सेवा के लिये सदैव लिया जाता रहेगा।

इस लेख को बनाने के लिये मुझे 1966 में प्रकाशित पुस्तक `कुमाउंनी के कवियों का विवेचनात्मक अध्ययन´ से मदद मिली है। इस पुस्तक के लेखक डॉ. नारायणदत्त पालीवाल जी हैं। यह पुस्तक मुझे अभी कुछ समय पहले अपने पिताजी के छोटे से पुस्तकालय से मिली थी।


Source : http://yashswi.blogspot.com/2009/03/blog-post_30.html

हेम पन्त

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पहाड़ संस्था (www.pahar.org) द्वारा गुमानी की रचनाओं पर प्रकाशित पुस्तक "Says Gumani". संकलन - श्री चारु चन्द्र पाण्डे.
 

राजेश जोशी/rajesh.joshee

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पंत जी
कृपया इस पुस्तक के बारे में अधिक जानकरी जैसे मूल्य व प्राप्ति का स्थान आदि भी बताने की कृपा करें।  श्री चारु चन्द्र पाण्डे जी हमारे विद्यालय के समय में हमारे विद्यालय के प्रधानाचार्य रहे है तथा उस समय उनको अध्यापन के लिए राष्ट्रपति का पुरस्कार मिला था।

हेम पन्त

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पहाड़ की वेबसाइट पर आपको इस पुस्तक के विषय में पूरी जानकारी मिल जायेगी. कृपया यह पैज देखें - http://www.pahar.org/drupal/node/161

नवीन जोशी

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हेम जी, आपकी गुमानी जी पर आधारित पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत साधुवाद, खासकर यह कविता में काफी समय से खोज रहा था. बस में होता तो 4 Karma आपको देता.


गोर्ख्याली राज के अत्याचार से पीड़ित होने पर भी कुमय्यों की साहिष्णुता का वर्णन गुमानी जी के शब्दों में :



दिन-दिन खजाना का भार बोकना लै , शिव -शिव चुलि में बाल नैं एक कैका |
फ़िर लै मुलुक तेरो छोड़ि नैं कोई भाजा , इति बदति गुमानी धन्य गोर्खाली राजा ||



 

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