Author Topic: हिन्दी साहित्य में उत्तर आधुनिकता के जनक ,मनोहरश्याम जोशी  (Read 19899 times)

हेम पन्त

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मनोहर श्याम जोशी जी की "कसप" मैने कुछ समय पहले पढी थी. आश्चर्य है कि कुमाऊंनी समाज और भाषा की ऐसी समझ जोशी जी ने अपनी रचनाओं में परोसी है, जबकि उनका जन्म और पालन-पोषण कुमाऊं से बाहर ही हुआ है.

हिन्दी साहित्य और टी.वी. की प्रगति में उनका अविस्मरणीय योगदान है.

Mukul

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Bhishma Kukreti

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Once, in a meeting at Karnataka hall, Matunga, Mumbai organized by Uttarakhand Prithak Rajya Parishad, Mumbai  Dr Murli Manohar Joshi addressed the meeting about the need of seaparate state. The speakers such as jagdish kapari and gusain ji forgot to introduce Dr M M Joshi and Kapari Ji told, Dr Murli Manohar Joshi ke bare men kahna yane Suraj ko diyaa dikhana hai"
when meeting was over, many people were frustrated that Joshi ji did not say about his TV serial Ham Log.
Though Kapari Ji told suraj ko diya dikhana but fifty persent audiance of that meeting understood Dr Murli Manohar Joshi is same who wrote Ham Log

Uttarakhand Admin

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Good...

People outside of Uttarakhand and many in the Uttarakhand also think that Murli Manohar Joshi and Manohar Shyam Joshi are same.


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश 
  कुमाऊँनी में कसप का अर्थ है ‘क्या जाने’। मनोहर श्यामजोशी का कुरु-कुरु स्वाहा ‘एनो मीनिंग सूँ ?’ का सवाल लेकर आया था, वहाँ कसप जवाब के तौर पर ‘क्या जाने’ की स्वीकृति लेकर प्रस्तुत हुआ। किशोर प्रेम की नितांत सुपरिचित और सुमधुर कहानी को कसप में एक वृद्ध प्रध्यापक किसी अन्य (कदाचित नायिका संस्कृतज्ञ पिता) की संस्कृति कादम्बरी के आधार पर प्रस्तुत कर रहा है। मध्यवर्गीय जीवन की टीस को अपने पंडिताऊ परिहास में ढालकर प्राध्यापक मानवीय प्रेम को स्वप्न और स्मृत्याभास के बीचों-बीच ‘फ्रीज’ कर देता है।
 
 कसप लिखते हुए मनोहर श्याम जोशी के आंचलिक कथाकारों वाला तेवर अपनाते हुए कुमाऊँनी हिन्दी में कुमाऊँनी जीवन का जीवन्त चित्र आँका है। यह प्रेमकथा दलिद्दर से लेकर दिव्य तक का हर स्वर छोड़ती है लेकिन वह ठहरती हर बार उस मध्यम पर है जिसका नाम मध्यवर्ग है। एक प्रकार से मध्यवर्ग ही इस उपन्यास का मुख्य पात्र है। जिन सुधी समीक्षकों ने कसप को हिन्दी के प्रेमाख्यानों में नदी के द्वीप के बाद की सबसे बड़ी उपलब्धि ठहराया है, उन्होंने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि जहाँ नदी के द्वीप का तेवर बौद्धिक और उच्चवर्गीय है, वहाँ कसप का दार्शनिक ढाँचा मध्यवर्गीय यथार्थ की नींव पर खड़ा है। इसी वजह से कसप में कथावाचक की पंडिताऊ शैली के बावजूद एक अन्य ख्यात परवर्ती हिन्दी प्रेमाख्यान गुनाहों का देवता जैसी सरसता, भावुकता और गजब की पठनीयता भी है। पाठक को बहा ले जाने वाले उसके कथा प्रवाह का रहस्य लेखक के अनुसार यह है कि उसने इसे ‘‘चालीस दिन की लगातार शूटिंग में पूरा किया है।’’ कसप के संदर्भ में सिने शब्दावली का प्रयोग सार्थक है क्योंकि न केवल इसका नायक सिनेमा से जुड़ा हुआ है बल्कि कथा निरूपण में सिनेमावत् शैली प्रयोग की गई है।
 
 1910 को काशी से लेकर 1980 तक के हालीवुड तक की अनुगूँजों से भरा, गँवई गाँव के एक अनाथ, भावुक, साहित्य-सिनेमा अनुरागी लड़के और काशी के समृद्ध शास्त्रियों की सिरचढ़ी, दबंग लड़की के संक्षिप्त प्रेम की विस्तृत कहानी सुनाने वाला यह उपन्यास एक विचित्र-सा उदास-उदास, मीठा-मीठा सा प्रभाव मन पर छोड़ता है। ऐसा प्रभाव जो ठीक कैसा है, यह पूछे जाने पर एक ही उत्तर सूझता है-कसप। 
  कुमाऊँनी हिन्दी 
  उपन्यास में जहाँ भी कुमाऊँनी शब्दों का प्रयोग हुआ है उनका अर्थ वहीं दे दिया गया है। इसके कुछ संवादों में जो कुमाऊँनी हिन्दी प्रयुक्त हुई है वह पाठक को थोड़े अभ्यास से स्वयं समझ आ जायेगी। यह हिन्दी, कुमाऊँनी का ज्यों-का-त्यों अनुवाद करते चलने से बनती है और कुमाऊँ में इसी का आम तौर से व्यवहार होता है। इस कुमाऊँनी हिन्दी के कुछ विशिष्ट प्रयोग समझ लेना आवश्यक है।
 
 ‘कहा’, ‘बल’: वाक्य के अन्त में आया है ‘कहा’ अतिरिक्त आग्रह का सूचक है- ‘बहुत सुन्दर दिखती है, कहा’ का मतलब है, ‘मैं कह रही हूँ वह बहुत सुन्दर दिखती है।’ वाक्य के अन्त में आया ‘बल’ (बोला) इंगित करता है कि ऐसा किसी और ने कहा, ऐसा हमने किसी और से सुना। ‘बड़ी सुन्दर दिखती है, बल।’ का मतलब है ‘सुना, बहुत सुन्दर दिखती है।’ ‘मैं नहीं खाता, बल।’ का मतलब है ‘उसने कहा कि मैं नहीं खाऊँगा।’
 
 ठहरा : हिन्दी में ‘आप तो अमीर ठहरे’ जैसे प्रयोग हो सकते हैं। कुमाऊँनी हिन्दी में होते ही नहीं, धड़ल्ले से होते हैं। कुमाऊँनी में ‘भया’ और ‘छ’ दोनों से क्रिया-पद बनते हैं लेकिन ‘भया’ को अधिक पसन्द किया जाता है और कुमाऊँनी हिन्दी में उसे ‘ठहरा’ अथवा ‘हुआ’ का रूप दिया जाता है। ‘तू तो दीदी पढ़ी-लिखी हुई’, ‘आप तो महात्मा ठहरे।’ जैसे प्रयोग कुमाऊँनी हिन्दी को विशिष्ट रंग देते हैं।
 
 वाला ठहरा : कुमाऊँनी और कुमाऊँनी हिन्दी में ‘करता था’ कहा जा सकता है किन्तु इस तरह का ‘अतीत’ भयंकर रूप से अतीत सुनायी पड़ता है। अतएव ‘छी’ की जगह ‘भयो’ का सहारा लिया जाता है और ‘भयो’ का ‘वाला ठहरा’ अथवा ‘वाला हुआ’ के रूप में अनुवाद किया जाता है। यथा कुमाऊँनी हिन्दीं में ‘वह हमसे मिलने आता था’ या ‘मिलने आया करता था’ को ‘वह हमसे मिलने आनेवाला ठहरा’ ‘वह हमसे मिलने आनेवाला हुआ’ कहा जायेगा। स्वाभाविक ही है कि इस आग्रह के चलते कुमाऊँनी हिन्दीं में ‘वाला’ और ‘ठहरा’ की भरमार है। मूल कुमाऊँनी में क्रिया के साथ ‘एर’ जोड़ देने से ‘वाला’ का भाव पैदा करने की प्रीतिकर परम्परा है यथा ‘करणेर’ माने ‘करनेवाला’, ‘जाणेर’ माने ‘जानेवाला’।
 ‘जो’: इस हिन्ही शब्द का कुमाऊँनी हिन्दी में कई तरह से उपयोग किया जाता है : ‘अगर’ के अर्थ-‘जो तो तुझे जल्दी हो, चला जा’। ‘मैं तो नहीं’ के अर्थ में -‘जो करेगा तेरी खुशामद !’ ‘पता नहीं कौन’ के अर्थ में ‘जो कर जाता होगा यह तोड़-फोड़।’ ‘थोड़े ही’ और उसके कुमाऊँनी समानार्थी ‘क्या’ को अतिरिक्त बल देने के लिए- ‘मैं जो थोड़ी हूँ तेरा यार।’ ‘ऐसा जो क्या।’ ‘तो’ के अर्थ में- ‘क्या जो कह रहा था वह ?’
 हैं, है, हूँ आदि का लोप : ‘रुक, मैं भी आ रही।’ अर्थात्, ‘रुक, मैं भी आ रही हूँ।’
 
 प्रश्नवाचक में क्रियापद ‘रहा है’ का ‘हुआ है’ की तरह उपयोग : ‘सच्ची, तुम्हारे वहाँ वह मूँछवाला कौन आ रहा है ?’ अर्थात् ‘सच, तुम्हारे वहाँ मूँछवाला’ कौन आया हुआ है ?’
 प्रश्नवाचक में वर्तमान के क्रियापद से तुरन्त भविष्य का बोध : ‘यह लड्डू खाता है ?’ अर्थात् ‘यह लड्डू खायेगा ?’ अर्थात् ‘क्या करने का इरादा है ?’
 प्रश्नवाचक में भविष्य के क्रियापद से वर्तमान के विस्मय का बोध : ‘इतनी रात गये कौन आ रहा होगा ?’ अर्थात् ‘इतनी रात गये कौन आया है ?’
 ‘फिर’: ‘तब’, ‘क्या’ और ‘तो’ के अर्थ में भी ‘फिर’ का उपयोग किया जाता है। यथा ‘फिर क्या करती मैं !’ ‘मैंने दिये उसे पैसे, फिर !’ ‘क्या खाता है फिर ?’
 
 ‘देना’: कर देना, बता देना जैसे प्रयोग हिन्दी में भी होते हैं किन्तु कुमाऊँनी हिन्दी में यह ‘देना’ कभी पूरी गंभीरता से, कभी परिहास में हर क्रिया के साथ भिड़ाया जा सकता है- ‘मेरे साथ आ देता है?’ अर्थात् ‘मेरे साथ चले चलोगे ?’ ‘मेरा सिर खा देता है ?’ अर्थात् ‘मेरा सिर खाने की कृपा तो करोगे ?’
 भाववाचक संज्ञाएँ : कुमाऊँनी में ‘ओल’ , ‘एट’, ‘एन’ प्रत्यय लगाकर संज्ञाओं और क्रियाओं में भाववाचक संज्ञाएँ धड़ल्ले से बनायी जाती हैं। ‘कुकुर’ में ‘ओल’ मिलाकर ‘कुकर्योल’ बनेगा जिसका अर्थ होगा ‘कुत्तागर्दी’। ‘पागल’ में ‘एट’ मिलाकर ‘पगलेट’ बनेगा जिसका अर्थ होगा ‘पागलपन’। जलने और भुनने में ‘एन’ मिलाने से ‘जलैन’ और ‘भुनैन’ बनेंगे जिसका अर्थ होगा जलने की गन्ध, भुनने की गन्ध।
 ‘और ही’ : इसका प्रयोग ‘बहुत ज्यादा’, ‘विशिष्ट प्रकार की’ का बोध कराने के लिए होता है- ‘और ही बास आ रही थी, कहा !’ अर्थात् ‘भयंकर’ बदबू आ रही थी।’
 
 आप ही : जब कुमाऊँनी हिन्दी में कहा जाता है ‘आप ही रहा’ तो उसके मतलब होते हैं इसे ‘अपने आप रहने दो’ यानी ‘रहने दो’। यथा ‘आप ही जाता है।’ का अर्थ है ‘जाने दो उसे !’
 घरेलू नाम : स्त्रियों के नाम के संक्षिप्त रूप में ‘उली’ और पुरूषों के संक्षिप्त नाम में ‘इया’ या ‘उवा’ लगाकर लाड़-भरे घरेलू नाम बनते हैं। ‘सुबली’ माने सावित्री, ‘सरुली’ माने सरोज, ‘परुली’ माने पार्वती, ‘रधुली’ माने राधा आदि। देवीदत्त से ‘देबिया’, हरिश्चन्द्र से ‘हरिया’ प्रेमवल्लभ से ‘पिरिया’ रघुवर से ‘रघुवा’ आदि। नामों के आगे ‘औ’ लगा देने से भी प्यार-भरे संबोधन का आभास मिलता है- ‘पुरनौ’ माने ‘रे पूरन !’
 इस कथा के जो भी सूझे मुझे शीर्षक विचित्र सूझे। कदाचित इसलिए कि इसे सीधी-सादी कहानी के पात्र सीधा-सपाट सोचने में असमर्थ रहे। या इसलिए कि यहाँ अपने एकाकीपन में न रम पाता हुआ मैं, द्वितीय की इच्छा करते हुए, किसी अन्य की भी पहले की गयी ऐसी ही इच्छा का अनुसरण करते हुए, स्वयं सीधी-सपाट सोचने में असमर्थ हो चला हूँ। तो विचित्र ही सूझे हैं शीर्षक, विचित्र ही रख भी दिया है शीर्षक। किंतु मात्र आपको चौंकाने के लिए नहीं। आपकी तरह मैं भी मात्र चौंकानेवाले साहित्य का विरोधी हूँ। बल्कि मुझे तो समस्त ऐसे साहित्य से आपत्ति है जो मात्र यही या वही करने की कसम खाये हुए हो।
 
 किसी के रचे पर मैं जो रच रहा हूँ, यहाँ एडवर्डयुगीन बँगलों के इस शांत, सुन्दर पहाड़ी कस्बे बिनसर में, वह एक प्रेम-कहानी है। इस विचित्र शीर्षक की विशिष्ट अर्थवत्ता है उसमें। विचित्र ही है यहां सब क्योंकि मूल कथा संस्कृत में लिखी बेढ़ब-सी कादम्बरी है।
 यों अगर आप इस शीर्षक से चौंके हों तो भी कोई हर्ज नहीं। चौंका होना प्रेम की लाक्षणिक स्थिति जो है। जिन्दगी की घास खोजने में जुटे हुए हम जब कभी चौंककर घास, घाम और खुरपा तीनों भुला देते हैं, तभी प्यार का जन्म होता है। या शायद इसे यों कहना चाहिए कि वह प्यार ही है जिसकी पीछे से आकर हमारी आँखें गदोलियों से ढक देना हमें चौंकाकर बाध्य करता है कि घड़ी-दो घड़ी घास, घाम और खुरपा भूल जायें। चौंककर जो होता है उस प्यार को समझने में आपका स्वयं थोड़ा चौंका हुआ होना कदाचित सहायक ही हो। अस्तु !
 प्रेम का पर्दापण किसी सुरमय स्थल में होता दिखाया जाय-ऐसा शास्त्रीय विधान है। आज के लेखक भी बहुधा किसी हिल-स्टेशन के सुन्दर-शान्त-एकान्त डाक-बँगले में ही प्रेम का प्रस्फुटन होता दिखाते हैं। वहीं पिछले किसी प्रेम से आहत व्यक्ति, नूतन प्रेम, नवीन आशा से आँख मिलाता है उनकी कहानियों में।
 
 यह कहानी भी हिल-स्टेशन नैनीताल में शुरू हो रही है। नायक-नायिका, डाक-बँगले में तो नहीं, बँगले में जरूर हैं। बँगला न नायिका का है, न नायक का। वह एक खाली बिकाऊ बँगला है, जो इन दिनों नायिका के मौसा ने, जो नायक के बहुत दूर-दराज के चाचा भी हैं, अपनी बेटी के विवाह के निमित्त चार दिन के लिए ले रखा है। नगरवासी इसे वर्त्तमान मालकिन के रूप-स्वभाव को लक्ष्य-कर भिसूँणी (फूहड़) रानी की कोठी कहते हैं, लेकिन अगर आप, नायक की तरह, कभी बँगले की ओर फूटनेवाली पगडण्डी की शुरुआत पर पाँगर1 के पेड़-तले स्थापित पत्थर की काई हटायें, तो इस बँगले का वह नाम पढ़ सकेंगे जो इस कथा के अधिक अनुकूल है- ‘राँदे वू’ –संकेत-स्थल।
 नायक-नायिका में से कोई भी किसी पिछले प्रेम से आहत नहीं है। लेकिन आहत होंगे अब, ऐसी आशा की जा सकती है क्योंकि एक उम्र होती है आहत होने की और वे इस उम्र में पहुँच चुके हैं। उस उम्र के बाद और उस चोट के बावजूद तमाम और जिन्दगी होती है, इसीलिए लेखक होते हैं, कहानियाँ होती हैं।
 
 नायक का नाम देवादत्त तिवारी है। बहुत गैर-रूमानी मालूम होता है उसे अपना यह नाम। यों साहित्यिक प्राणी होने के नाते वह जानता है कि देवदास, ऐसे ही निकम्मे नाम के बावजूद, अमर प्रेमी का पद प्राप्त कर सका। इससे आशा बँधती है। फिर भी निरापद यही है कि वह अपने को डी.डी. कहना-कहलाना पसन्द करे। इस पसन्द को कुछ मसखरे मित्रों ने उसे ‘डी.डी. द मूड़ी’ भी कहते हैं पर इससे उसे कोई आपत्ति नहीं क्योंकि मूड का इस छोर से उस छोर पर झटके से पहुँचते रहना उसे अपनी संवेदनशीलता का लक्षण मालूम होता है। घरवाले उसे इसी मूड के मारे ‘सुरिया’ (जब जो स्वर साधा तब उसी में अटका रह जानेवाला धती) कहते हैं। घरवालों के नाम पर दूर के चचिया-ममिया-फुफिया-मौसिया रिश्तेदार ही बचे हैं। माँ-बाप दोनों अपने इस इकलौते को दुधमुँहा ही छोड़ गये थे। नायक बाईस साल का है। ढाई वर्ष पहले उसने इलाहाबाद से बी.ए. पास किया। एक चाचाजी ने कह-कहलाकर उसे वहीं ए.जी. दफ्तर में क्लर्की दिलवा दी और आई.ए.एस. – पी.सी.एस. के लिए तैयारी करने को कहा मेधावी बालक से। लेकिन साहित्यिक डी.डी. को यह सब रास नहीं आया। वह दो ही महीने में बम्बई भाग गया। किसी व्यावसायिक दिग्दर्शक का सहायक है। कलात्मक फिल्में बनाने का इरादा रखता है। इस बीच उसके एकांकियों, कविताओं और कहानियों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। विवाह के छोड़ अन्य सभी क्षेत्रों में उदीयमान श्रेणी की सितारा माना जा सकता है। विवाह के लिए, मध्यवर्गीय मानकों के अनुसार, वह सर्वथा अयोग्य वर है।
 
 प्रेम के बारे में हमारे नायक ने पढ़ा-सुना बहुत कुछ है, सोची भी बहुत विस्तार से है, लेकिन प्रेम कभी किया नहीं है। हलफिया बयान देते हुए अलबत्ता उसे तीन प्रसंगों का उल्लेख करना होगा कि इनमें प्रेम ठहराने की जिद न की जाये। पहला यह कि कक्का के बीचवाले लड़के ‘मझिल दा’ की पत्नी के लिए, जिन्हें अपनी सास के शब्दों में चिथड़े (किताबें) पढ़ने का श़ौक था, वह उपन्यास-कहानी संग्रह लाया करता। बोज्यू (भाभी) इन उपन्यास-कहानियों के बारे में विस्तार से उससे चर्चा किया करतीं।
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 1.चेस्टनट।
 
 कबी-कभी बोज्यू उसे वे सपाट-से पत्र पढ़वा देतीं जो दिल्ली से यू.डी.सी. मझिल’ दा उन्हें भेजते। और अक्सर वह मझिल’ दा के नाम पर पत्र लिखते हुए उससे साहित्यिक परामर्श कर लिया करतीं- ‘डी.डी लल्ला, वह लक्या है दो नैना मत खाइयो ?’ बोज्यू के समक्ष लल्ला अपना दुखड़ा रोता और बोज्यू कहतीं, ‘‘शिबौ-शिब’’ (शिव-शिव, बेचारा) ! एक शाम बोज्यू ने अपना दुखड़ा भी रोया और दुखिया सब संसारवाली मनःस्थिति में लल्ला के कन्धे पर सिर रख दिया। रख दिया और हटाया नहीं। इसके कुछ दिन बाद ही बोज्यू के आग्रह पर मझिल’ दा ने दिल्ली में कमरा-रसोई की व्यवस्था करके पत्नी को सास-ससुर की यौवन-हन्ता सेवा से मुक्ति दिला दी। इति प्रथम प्रसंग।
 
 दूसरा यह कि डी.डी के एकांकी ‘साँझ’ के मंचन में सुषमा नामक जिस दुबली-पतली उदास-सी छात्रा ने छोटी-सी भूमिका की, वह उसके लिए रिहर्सल में रोजाना कुछ टिफिन बनाकर लाती। स्वेटर बुन देने का प्रस्ताव किया उसने, पर डी.डी ऊन के लिए पैसे नहीं जुटा पाया। एक खूबसूरत नोट-बुक उसने डी.डी. को प्रजेण्ट की-नया नाटक लिखने के लिए। लेकिन दुर्भाग्य की रक्षा-बंधन के दिन उसने डी.डी. को राखी बाँध दी। डी.डी. ने अपना इकलौता टूटा-सा पैन इस राखी के एवज में दे डाला कि देने को कुछ और नहीं था और उसकी आँखें छलक आयीं- कुछ अपनी निर्धनता पर और कुछ सुषमा से यह न कह सकने की कायरता पर कि मैं तुमसे राखी सम्प्रति नहीं बँधवाना चाहता। इति द्वितीय प्रसंग।
 
 तीसरा यह कि मौसेरी दीदी की एक सहेली की बहन कमनिली पिछले साल किसी इंटरव्यू के सिलसिले में बंबई आयीं और डी.डी. पर उन्हें शहर दिखाने की जिम्मेदारी पड़ी। कमलिनीजी हर जगह को देखकर ‘हाउ स्वीट, हाउ नाइस’ कहती थीं। जब बंबई से विदा होते हुए उन्होंने प्लेटफार्म पर फरमाइश की कि ‘हमें कोई मैगजीन ला दीजिए ना प्लीज’ तब वह ‘फिल्म फेयर’ खरीद लाया और उसने उस रूपसी से पैसे लेने से इनकार कर दिया। इस पर रूपसी ने कहा, ‘‘हाउ स्वीट यू आर डी.डी, प्लीज राइट टू मी, कभी लखनऊ आओ न।’’ डी.डी. ने उसे पत्र भेजा लेकिन उत्तर नहीं आया। इति तृतीय प्रसंग।
 नायक ने न केवल प्रेम नहीं किया है बल्कि अक्सर अश्रु-प्रवाह करते हुए यह तय पाया है कि मैं उन अभागों में से हूँ जिन्हें कभी प्यार नहीं मिलेगा। विधाता ने मुझे इस योग्य बनाया ही नहीं है कि कोई मुझसे प्यार करे। छह फुट पौने तीन इंच और एक सौ पैंतीस पौंड की इस सींकिया काया से कौन आकर्षित हो सकता है भला ? तिस पर निर्धन। विफल। अव्यवहारकुशल। सर्वथा-सर्वथा उपेक्षणीय !
 
 यो कुछ क्षण ऐसे भी आते रहे हैं जब नायक को नायक कुल मिलाकर ऐसा खास बुरा नहीं मालूम हुआ है। इन एकान्त क्षणों में वह विलायती फिल्म तारिका जीन सिम्मंस की अपनी प्रेमिका के रूप में गरम-गीली कल्पनाएँ करता आया है।
 नायिका ने न प्रेम किया है, न प्रेम के बारे में फुर्सत से कुछ सोचा ही है। इधर यह अलबत्ता वह कभी-कभी सोचती रही है कि अब प्रेम के बारे में भी कुछ सोचना चाहिए। उसे सत्रहवाँ लगा है पिछले महीने। इण्टर के प्रथम वर्ष में है। पढ़ने में उसका जरा भी मन नहीं लगता और आगे पढ़ने की उसे कतई इच्छा नहीं है। अल्मोड़ा में रहती है वह, जहाँ उसके पिता बनारस विश्वविद्यालय से जल्दी सेवानिवृत्त होकर आ बसे चौदह वर्ष पहले। पाँच बच्चों में सबसे छोटी है, चार भाइयों की इकलौती बैणा (बहनिया)। संस्कृतज्ञ पिता ने इसका नाम मैत्रेयी रखा था। हाईस्कूल सर्टिफिकेट और जन्म-कुन्डली में वही नाम सुशोभित है-मैत्रेयी शास्त्री। जिस समय पैदा हुई थी पिताश्री एक मलेच्छ कन्या को देवभाषा ही नहीं वेद भी पढ़ा देने का दुस्साहस कर रहे थे, मालवीयजी के ‘नरो-वा-कुंजरों-वा’ आदेश पर, और वह मलेच्छ कन्या इस बच्ची को बेबी कहती थी। यह नाम उनके बड़े बेटे को, जो सेना में भरती होना चाह रहा था, पूरा अंग्रेज था, पसन्द आया था। उसके आग्रह से यही नाम चल भी गया।
 
 बेबी अपना नाम सार्थक करने में यकीन रखती है। खिलन्दड़ है। लडकैंधी है। पेड़ पर चढ़ना हो, गुल्ली-डण्डा खेलना हो, कुश्ती लड़ना हो, कबड्डी खेलनी हो, बेबी हमेशा हाजिर है। उसके बायें हाथ की छोटी अँगुली क्रिकेट खेलने में टूटी है और अब थोड़ी-सी मुड़ी हुई रहती है। बेबी बैडमिण्टन में जिला-स्तर की चैम्पियन है, यह बात अलग है कि इस जिले में बैडमिण्टन स्तरीय नहीं !
 
 बेबी को इधर बार-बार समझाया जा रहा है कि वह अब बच्ची नहीं रह गयी है। उसे सिलाई-कढ़ाई सीखने और चूल्हे-चौके से दिलचस्पी रखने की सलाह दी जा रही है। इस तरह की हर सलाह बेबी पूरी गंभीरता से सुनती और फिर बहुत उत्साह से घरेलू कामों में अपने सर्वथा अकुशल होने का इतना भीषण प्रदर्शन करती है कि इजा (माताजी) माथा पीट लेती हैं, नौकर-चाकर मुस्कुराते हैं और बेबी पहले थोड़ा खीझ लेने के बाद स्वयं जी खोलकर हँसती है। बेबी का घरेलू काम करने का एक और भी तेवर है जो कम हैरान-परेशान करनेवाला नहीं। बेबी कोई काम अपने जिम्मे लेती है और चूँकि उस काम का कोई भी हिस्सा उससे ठीक से नहीं हो पाता है लिहाजा हर कदम पर वह नौकरों की या इजा की सहायता माँगती है। ‘सब्जी छौंकनी हो तो घी कितना डालूँ-इतना ? यह घी गर्म हो गया देख दो। छौंकू किससे- हींग से या जीरे से ? हींग का यह अन्दाजा ठीक है ? हल्दी कितनी ? इतना नमक ठाक है ?’ इजा कहती हैं, ‘‘छी हो, इससे तो तू हमें ही बनाने दिया कर।’’ बेबी कहती है, ‘‘चौबीस घण्टे कहते हैं घर का काम नहीं करती, करने बैठो तो कहते हैं, मत किया करो। हुँह !’’
 इधर बेबी से यह भी कहा जा रहा है कि यह अल्मोड़ा है अल्मोड़ा। यहाँ बदनाम कर देते हैं लोग। सलवार-कमीज, फ्राक या हाफ-पैण्ट मत पहना करो। ऊधम मत मचाया करो। लोगों के सामने फीं-फीं मत हँसा कर। साड़ी का पल्लू गिरने मत दिया कर। ‘चौड़-चापड़’ रहा कर, सौम्य-सुशील। बेबी कुमाऊँनी शब्द ‘चौड़-चापड़’ की हिंदी में व्याख्या करके अपने शरीर को फैलाती है और पूछती है-इस तरह ? और फिर फीं-फीं हँस देती है।
 
 बेबी पर अच्छा असर पड़े इस इरादे से शास्त्रीजी ने अपनी एक गरीब सीधी-सादी मेधावी भांजी दया को घर में रख लिया है। वह उसे बी.ए. करा रहे हैं। लेकिन बेबी दया के नहीं, दया बेबी के प्रवाह में हो तो हो।
 इधर कभी-कभी बेबी के विवाह की भी चर्चा की जा रही है। पिताजी चारों बेटों का विवाह कर चुके हैं और अब कन्यादान की ही जिम्मेदारी उन पर बची है। बेबी के लिए कुछ योग्य वर प्रस्तावित किये जा चुके हैं, किन्तु उसे शादी का नाम सुनते ही हँसी आती है। हर प्रस्तावित वर का वह ऐसा खाका खींचती है, इतनी नकलें उतारती है कि इजा आँखें भी तरेरती हैं और मुस्कुराती भी हैं। ‘‘हाँ, अब तेरे लिए तो किशन भगवान ढूढ़ँने पड़ेंगे।’’, वह कहती हैं। बेबी टिप्पणी करती है, ‘‘किशन भगवान रिजेक्ट ! काले हैं। और सोल1 सौ पहले से ही रख रखी उन्होंने।’’ 
 
 बेबी को दर्पण के लिए कम ही फुर्सत मिलती है। सजती-सँवरती नहीं। कपड़े ठीक से पहनती नहीं। लेकिन जमाने-भर में उड़ती यह खबर उसके कानों तक पहुँच चुकी है कि बेबी बहुत सुन्दर है। जब वह अल्मोड़ा में स्थानिक रिवाज के वशीभूत सड़क के एक कोने में पर्वत-पार्श्व में लगभग धँसती-सी चलती है, तब स्थानिक छैला लक्षणा का सहारा लेकर उससे बहुत कुछ कहते हैं और पुलियाओं पर बैठे अवकाश-प्राप्त वृद्ध जिज्ञासा करते हैं कि यह किसकी चेली (बेटी) है और प्राप्त सूचना अपने परिवार के किसी सुयोग्य चिरंजीव के सम्दर्भ में नोट कर लेते हैं।
 
 तो ऐसे हैं हमारे नायक-नायिका सन् 1954 में जब यह कहानी शुरू होती है। मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि वे ऐसे नहीं जिन्हें आज की विज्ञापन शब्दावली में ‘मेड फॉर ईच अदर’ कहा जा सके, किन्तु आवश्यक नहीं कि परस्पर पात्रता के इस आभाव से हम निराश हो उठें। प्रेम किन्हीं सयानों द्वारा बहुत समझदारी से ठहरायी जानेवाली चीज नहीं। वह तो विवाह है जो इस तरह ठहराया जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान मौन ही रहा है प्रेम के विषय में, किन्तु कभी कुछ उससे कहलवा लिया गया है तो वह भी इस लोक-विश्वास से सहमत होता प्रतीत हुआ है कि ‘असम्भव’ के आयामों में ही होता है प्रेम-रूपी व्यायाम। जो एक-दूसरे से प्यार करते हैं वे लौकिक अर्थ में एक-दूजे के लिए बने हुए होते नहीं। यदि आप प्रेम को काल-सापेक्ष मानते तो मैं सन् 1954 का उल्लेख करने के लिए क्षमा-याचना करना चाहूँगा। यदि कहीं आप उसे काल-सापेक्ष मानते हैं तो मुझे इतना और जोड़ने की अनुमति दें कि यह वह वर्ष था जब स्वाधीन, प्रभुता-सम्पन्न भारत ने अपने विकास का प्रथम पंचवर्षीय आयोजन आरम्भ किया था। जो काम राष्ट्र कर रहा था वही तब राष्ट्र के विकास-सजग नागरिक भी व्यक्तिगत स्तर पर करते रहे हों तो कोई आश्चर्य नहीं।
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 1.सोलह।
 
 जिन कक्का की सुधा नाम्नी आयुष्मती सौभाग्यकांक्षिणी का विवाह हो रहा है भिसूँण रानी की कोठी में उनसे डी.डी. का रिश्ता स्थानिक शब्दावली में ‘लगड़ता पगड़ता’ है अर्थात् खींच-तान कर जोड़ा जा सकता है। किन्तु एक रिश्ता स्नेह का भी तो होता है ना। यह परिवार भी डी.डी. से बहुत सहानुभूति करता है। सहानुभूति के अतिरिक्त उसे इस अनाथ को कुछ देना नहीं पड़ा है कभी क्योंकि रिश्तेदारी ऐसी नही थीं कि इस संबंधी से उस संबंधी के घर फुटबाल की तरह लतियाकर पहुँचाये जाते बालक को उन्हें कभी अपने घर में शरण देने के लिए बाध्य होना पड़ता। अतएव बालक को लतियोनेवालों को लानत भेजने को और उसके प्रति सहानुभूति व्यक्त करने का सुख इस परिवार ने निर्बाध लूटा है। ‘मानने-बरतने’ के अन्तर्गत इस परिवार की लड़कियाँ – बबली’ दी सुधा और गुड़िया- तीज – त्यौहार पर प्रत्यक्ष अथवा डाक से उसका स्मरण करती आयी हैं। इस परिवार ने यदा-कदा एक अनाथ बालक को कोई उपहार देकर भी धन्य किया है।
 
 कक्का का छोटा लड़का है बब्बन, हाकी खेलने और चलानेवाला छैला, जिसे गाने-बजाने और अभिनय करने का शौक है और जिसकी कृपा से डी.डी. मौजमस्ती की आकर्षक किन्तु आतंकप्रद दुनिया का दर्शन कर सका कभी-कभी अपने छात्र- जीवन में। बब्बन ने ही उसे आग्रहपूर्वक आमन्त्रित किया है इस विवाह पर, और सोद्देश्य। बब्बन फिल्मों में नायक-गायक बनने के सपने देखता था। एक तरह से बब्बन की ‘बंबई जाहुँजु’ ही डी.डी. को साहित्य से सिनेमा में ले गयी है। बब्बन को मलाल है कि वह लड़कियों – जैसा डी.डी. तो बंबई भाग गया और मैं नैनीताल का दादा और हीरो पारिवारिक आर्थिक संकट के कारण यहाँ क्लर्की में अपनी ऐसी-तैसी करा रहा हूँ। जंग लगा रही है यह क्लर्की मेरी धींगामस्ती पर।
 
 तो रात जब डी.डी. भिसूँण रानी की कोठी में पहुँचा, बब्बन उस पर एकाधिकार बनाये रहा। डी.डी. को यह अवसर नहीं मिला कि वह उस कमरे में जा सके जिसमें लड़कियाँ ढोलक-मजीरा-तबला-हारमोनियम लेकर धमाचौकड़ी मचा रही थीं। ‘शकूना दे, काजे ए’ शकुनाखर और ‘साँझ पड़ी संझा देवी पाया चढ़ी एनो’ सँझवाती गाने के बाद अब सिनेमा के गीत चल रहे थे। कोई लड़की ‘सुनो गजल क्या गाये, समय गुजरता जाये’ पर शायद धृष्ट-सा कैबरे कर रही थी क्योंकि गाती हुई लड़कियों के हँसने की आवाज आ रही थी। वे चिल्ला रहीं थीं- ‘बेबी, बेसरम !’ अच्छा होता कि डी.डी. तब उस कमरे में चला जाता। नायक-नायिका का प्रथम साक्षात् सामान्य और सुखद परिस्थितियों में हो सकता था तब। किंतु डी.डी. तब बब्बन के इस प्रश्न से उलझा था: ‘अबे डी.डीयन वाँ, बंबई में बब्बन के लिए चानस भिड़ा रिया है कि नहीं ?’
 डी.डी. और बब्बन में अक्सर तराईवालों की हिन्दी में नोक-झोक और बातचीत चलती है।
 
 डी.डी. इसी भाषा में बब्बन को यह समझाता रहा कि ‘अभी तो खुद मैं पाव-उस्सल खा के इमली के पत्ते पर दण्ड पेल रिया हूँ लल्लू।’ तराईवाली बोली में भी उसे बंबई में अपनी नगण्यता का वर्णन उदास करनेवाला मालूम हुआ।
 रात देर तक बब्बन और डी.डी. बतियाते रहे कोनेवाले कमरे में। वे सोये तभी जब कर्नल भुवनचन्द्र शास्त्री, जो नायिका के ठुल’ दा यानी सबसे बड़े भाई हैं, उन्हें फटकार सुनाने और ‘अर्ली टू बेड’ की फौजी सलाह देने आये।
 डी.डी. सुबह देर से उठा। बँगले के सभी ‘बाथरूम’ उसने घिरे पाये। पिछवारे चाचाजी ने ऐसे ही अवसर के लिए टाट और बाँस से एक अस्थायी टट्टी बनवा दी थी। डी.डी. ने वहीं शरण ली।
 
 अब नायक-नायिका के प्रथम-साक्षात्कार का वर्णन करना है मुझे और किंचित संकोच में पड़ गया हूँ मैं। भदेस से सुधी समीक्षकों को बहुत विरक्ति है। मुझे भी है थोड़ी-बहुत। यद्यपि मैं ऐसा भी देखता हूँ कि भदेस से परहेज हमें भीरू बनाता है और अन्ततः हम जीवन के सार्वाधिक भदेस तथ्य मृत्यु से आँखें चुराना चाहते हैं। जो हो, यहाँ सत्य का आग्रह दुर्निवार है। यदि प्रथम साक्षात् की बोली में कथानायक अस्थायी टट्टी में बैठा है तो मैं किसी भी साहित्यिक चमत्कार से उसे ताल पर तैरती किसी नाव में बैठा नही सकता। अस्तु।
 दायें से, जहाँ बँगले से अलग बनी हुई किन्तु ढके हुए गलियारे से जुड़ी हुई रसोई है, नायक को चाय के लिए अपनी बुलाइट सुनायी दे रही है। बब्बन चीखकर कह रहा है, ‘‘अबे ओय डी.डी.टी. के ! क्या कर रिया है वाँ बिलायत में मल्का बिट्टोरिया के धोरे ?’’
 
 नायक को अपनी हाजिरजवाबी पर नाज है। वह शौच करके उठता है यह जवाब देते हुए कि ‘तेरी तरियों के मच्छड़ मार रिया हूँ।’ बहुत विलम्ब से वह यह खोज करता है कि टट्टी बनवानेवाले के लिए यह कल्पना असंभव थी कि इसे छह फुट या उससे ज्यादा कदवाला कोई इस्तेमाल करेगा। तो नायक अब कुर्त्ता ठोड़ी के नीचे दबाये, इजारबन्द के छोर सम्हाले उठंग है, रसोई के बाहर रिश्तेदारों का मजमा है और बब्बन चिल्ला रहा है, ‘ओय उजबक, सुबु-सुबु दरसन क्यों करा रिया है ?’ और हाँ, कोई हँस रही है, सोच-सोचकर, क्रमशः बढ़ते हुए आवेग से। यह हँसी रसोई और बँगले को जोड़नेवाले गलियारे से फूट रही है। टट्टी के ऐन पास से। तो नायक, जो इजारबन्द बाँध चुका है, दृष्टि घुमाता है और नायिका से उसकी दृष्टि पहली बार मिलती है।
 
 उसका मुँह खुला रह जाता है। जीन सिम्संन-नुमा एक अपरिचित लड़की। गोरी चिट्टी। गालों में ललाई। नाक थोड़ी-सी घूमी हुई। बाल सुनहरे। आँखें बड़ी-बड़ी और चपल। लड़की के हाथ में ट्रे है। ट्रे में चाय का कुल जमा एक गिलास, जो शायद डी.डी. के लिए है। गिलास हिल रहा है इस हास्यकम्प में। कोई फौजी इस जीन सिम्संन को झिड़क रहा है और नायक धप-से फिर बैठ गया है। और जब बैठ ही गया है तब बाकायदा इजारबन्द खोलकर ही क्यों न बैठे ? वह इजारबन्द का एक सिरा खींचता है, लेकिन अफसोस यह गलत सिरा है। गाँठ खुलने की वजाय दोहरी हो जाती है। इस तरह गाँठ पर लगी गाँठ के लिए हिन्दी में कोई शब्द नहीं। कुमाऊँनी में है- मालगाँठ किंवा मारगाँठ। नायक सुपरिचित है इस शब्द से क्योंकि फीता हो या नाड़ा, खोलते हुए उससे अक्सर मारगाँठ पड़ती आयी है। इस मामले में उसका बचपन, जवानी में भी बरकरारा है। बस इतना ही कि अब बुआ को आवाज नहीं दे सकता कि मारगाँठ पड़ गयी, खोल दो। गाँठ नहीं खुलती तो जूता या पायजामा खींच-तानकर उतारता है।
 
 नायक कुछ इस भाव से टट्टी में बैठा हुआ है मानो अपनी जीन सिम्संन का गलत परिस्थितियों में दर्शन करने के अभियोग में उसे यहीं आजीवन कारावास काटना होगा। वह इस सारे प्रसंग में जितना लज्जित है उतना ही उत्तेजित इस खोज से है कि जीन सिम्संन ने खास उसके लिए अपना एक कुमाऊँनी संस्करण प्रस्तुत किया है।
 अब बाहर चाय पीकर क्यू में लगे लोगों की चिल्लाहट प्रबल हो गयी है। नायक सिर झुकाये बाहर आ गया है। हाथ धोकर वह चाय लेने रसोई-घर नहीं जा रहा है। पिछवारे-पिछवारे वह बँगले का चक्कक काटकर दूसरी ओर कोई शरण-स्थली ढूँढ़ने निकला है। इस यात्रा में उसे सिसूँण (बिच्छूघास) चुभ रही हैं।
 वह एक ऐसे स्थान पर जा पहुँचा है जहाँ से नीचे मुफसिल हो चुके टेनिस कोर्ट की ओर सीढ़ियाँ उतरी हैं। इसी मैदान में बब्बन शामियाना लगाये जाने की देख-रेख कर रहा है। कुछ बच्चे रिसेप्शन के लिए आयी कुर्सियों-सोफों पर कूद रहे हैं।

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हरिया हरक्यूलीज की हैरानी
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मनोहर श्याम जोशी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश   पहले बिरादरी को हैरानी हुआ करती थी कि हरिया को किसी बात से हैरानी क्यों नहीं होती, लेकिन अचानक हरिया के सामने हैरानी का दरवाजा जो खुला तो वह हैरानी के तिलिस्म में उतरता ही चला गया। यहाँ तक कि बिरादरी की हैरानियों पर भारी पड़ने लगा। हैरानी को लेकर जितनी व्याख्याएँ लोगों के पास थीं, वे कहानियों की शक्ल में बहने लगीं। और तब सवाल उठा इन कहानियों को सुरक्षित रखने, बिरादरी के विरसे में शामिल करने का। बुजुर्गों को चिंता हुई कि कहीं ये कहानियाँ आपस ही में टकराकर खत्म न हो जाएँ। लेकिन बिरादरी के एक मेधावी युवक ने उन्हें भरोसा दिलाया कि हरिया की हैरानी हमेशा रहेगी क्योंकि हैरानी के बिना कहानी नहीं होती और कहानी के बिना बिरादरी नहीं होती।
 जोशीजी के अद्भुत शिल्प और कथा-कौशल की नुमाइंदगी करता हुआ एक अलग ढंग का उपन्यास।
  हरिया हरक्यूलिज़ की हैरानी   
  हरिहर दत्त तिवारी उर्फ हरिया हरक्यूलिज ईसाई संवत् 1969 के (हमारा अपनी विद्रमी संवत् क्या चल रहा है, यह याद रखना हमारी बिरादरी तब भी भूलने लगी थी) उस कथाख्यात दिन से पहले कभी हैरान नहीं हुआ था, इसलिए उसकी हैरानी हमारी बिरादरी के लिए क्रमशः एक लम्बी और पेचदार कहानी बनती चली गयी।
 
 तब तक टेलीविजन का घर-घर चलन नहीं हुआ था। हमारी बिरादरी में सान्ध्य-वन्दन में सुरश्रेष्ठ का विसर्जन करके पारलौकिक व्यापारों से छुट्टी पाकर और उसके बाद रात को भोजन करके इहलौकिक व्यापारों से भी मुक्त होकर कथा-कहानी सुन-सुनाकर अद्भुत रस का उचित मात्रा में आस्वादन करने-कराने का रिवाज अभी चल ही रहा था। ऐसा माना जाता था कि उचित मात्रा में अद्भुत का आस्वादन करने से स्वप्न-प्रसूता सुख-निद्रा की प्राप्ति होती है। अद्भुत का आस्वादन निषिद्ध था, क्योंकि समझा जाता था कि उससे व्यक्ति को, उसके पूर्व संस्कारों के अनुसार, या तो अद्भुत के प्रति वितृष्णा हो जाती है और वह अत्यन्त साधारण यथार्थ की ओर उसी तरह दौड़ती है, जिस तरह धनाढ्य व्यक्ति गरिष्ठ आहार से अजीर्ण का शिकार होकर निर्धन की रुखी-सूखी रोटी की ओर लपकता है, या फिर वह यथार्थ से ऊपर उठकर अद्भुत में ही लीन हो जाता है और इसलिए, हरिया हरक्यूलिज की तरह, स्वयं उन स्वप्न-गन्धा कथाओं का पात्र बनता है, जिनका बाद में हमारी बिरादरी सुख-निद्रा की साधना में उपयोग करती है।
 
 हरिया की हैरानी की शुरुआत की तारीख हमारी बिरादरी को ठीक-ठीक याद नहीं है, तिथि अलबत्ता याद है। तब तक भी हमारे लिए विश्वसनीय सूर्य की तारीखें बेमतलब थीं। हम अपने समस्त निजी कार्यों में चंचलमना चन्द्र की तिथियों का ही उपयोग करते थे। इसलिए हरिया हरक्यूलीज की हैरानी की कहानी शुरू करते हम आज भी यह कहते हैं कि यह सन् उनहत्तरी की जन्यो-पुण्यु1 के बाद की द्वितीया की बात है कि हरिया हरक्यूलिज जिन्दगी में पहली बार हैरान हुआ और सो भी गू-2 जैसी, अब और क्या कह सकते हो, गू चीज के मारे।
 
 ऐसा नहीं कि हरिया के पास इससे पहले हैरान-परेशान होने का कभी कोई कारण न रहा हो। बल्कि सच तो यह है कि उस अधेड़, अकालवृद्ध, गंजे और गमखोर चिरकुँवारे हरिया के लिए हैरान होने के एक नहीं, हजारों कारण रहे थे। अपने पिता के पाँच पुत्रों में से केवल वही जीवित बचा था और उस पर अपने बड़े भाइयों के बाल-बच्चों की परवरिश की ही नहीं, अपने तिरासी वर्षीय रुग्ण और अन्धे पिता की तीमारदारी का भी पूरा भार पड़ा था। फिर भी उसे कभी हैरान-परेशान होता नहीं देखा गया। उसके परेशान न होने को कुछ लोग उसके परम मूढ़ होने का लक्षण मानते रहे थे। अगर हरिया का उपनाम ‘हरक्यूलीज’ न चल चुका होता तो लोग-बाग उसे हरिया ‘मदुआ’ यानी हरिया बुद्धू के नाम से मशहूर कर देते। उसके पिता राय साहब गिरवाण दत्त तिवारी तो उसे अक्सर ‘मदुआ’ ही पुकारा करते थे।
 
 यों तो हिरवाण दत्त जी को अपने पाँचों ही बेटे, जिन्हें उनकी पत्नी ‘हमारे पाँच पांडव’ कहा करती थीं, स्वयं के मुकाबले में कमतल ही लगे—आखिर उनमें से कोई भी उनकी तरह से जंगलात महकमे में कैम्प क्लर्क की हैसियत से नौकरी शुरू करके किसी रियासत का दीवान बन जाने-जैसा कोई करिश्मा नहीं दिखा पाया—लेकिन सबसे बाद में पैदा हुआ, पढ़ने में सबसे फिसड्डी हरिया, उनकी दृष्टि में विशेष रूप से निराशाजनक ठहरा।
 दिखने-सुनने में वह अपनी नाटी, साँवली और किंचित् चपटी नाक वाली नानी पर गया था। उसे न माँ की बड़ी-बड़ी काली आँखें और नुकीली ठोढ़ी नसीब हुई थी और न पिता की गोरी-चिकनी चमड़ी, लम्बी-तीखी नाक, गड्ढेदार गाल और पतले-पतले ओंठों से युक्त वह खूबसूरती, जिसके कारण जवानी में वह गिरुआ ‘गौहरजान’ कहलाये और एक देसी रियासत में कैम्प क्लर्क बनाकर ले जाने वाले अंग्रेज वन अधिकारी से लेकर उस रियासत की महारानी तक कोई बुजुर्ग स्त्री-पुरुषों के विशेष स्नेह-भाजन बन सके।
 
 पढ़ने-लिखने में भी हरिया मामूली साबित हुआ। मैट्रिक तीन कोशिशों में पास कर सका। और सो भी हिन्दी-रत्न के जरिये। टाइप के इम्तहान में भी अंग्रेजी कमजोर होने की वजह से रह गया। गिरवाण दत्त जी ने किसी तरह कह-सुनकर उसे दफ्तरी लगवाया। प्राइवेट इण्डर-बी.ए. कुछ कर लेता तो असिस्टेण्ट तो बनवा ही देते। मुश्किल से एल.डी.सी. करा पाये उसे।
 गिरवाण दत्त जी अक्सर गुस्से में आकर हरिया से कहते कि अगर भगवान को बुढ़ापे में मेरी सेवा के लिए पाँच में से एक ही बेटा बचाना था तो उसने तुझे ही क्यों चुना रे मदुआ ? सबसे बड़ा कृपाल इम्पीरियल बैंक में खजांची लगा था, दूसरा गिरीश फारेस्ट सर्विस में आ गया था, तीसरा शिरीष रेलवे में इंजीनियर हो गया था और चौथा गिरिजी, जो अपने बाप का अस्सल बेटा था’, ‘आई.ए.एस. में चुन लिया गया था। क्यों जो उन चारों को अपनी पैंतीसलीं होली-दीवाली देखना भी नसीब न हुआ और क्यों तू बचपन में बीस तरह की बीमारियाँ होने के बावजूद जिन्दा रहा ?
 परमात्मा के इस परम अन्याय पर राय सैप1 की हैरानी में सारी बिरादरी भागीदारी करती, लेकिन हरिया पर उसका कोई असर न होता।
 
 यों कभी-कभी गिरवाण दत्त जी को यह लगता, और वह इसे केवल हरिया के सामने ही नहीं, लोगों के बीच भी स्वीकार करते, कि शायद इस परम मूढ़ को परमेश्वर ने जीवित ही इसलिए रखा कि यह परम मूढ़ है। इसे बीमारों का गू-मूत उठाने और कफ-भरा थूकदान साफ करने में घिन नहीं आती। इसे न मुर्दे को फूँकते हुए भय होता है, न उसके बाद श्मशान-वैराग्य। सिरजनहार हो पाता था कि इसके पैदा होने के बाद गिरवाण दत्त के कुनबे को क्षय लग जायेगा। एक-एक करके उसके चार बेटे, चार बहुएँ, दो बेटियाँ, तीन दामाद, आठ पोते, सात पोतियाँ और दस नाती-नातिनी राजरोग की भेंट चढ़ेंगे। यही नहीं, स्वयं गिरवाण दत्त को 60वें वर्ष में लकवा मार जायेगा, वह खाट पकड़ लेगा मगर जीवन फिर भी उसे पूरी बेरहमी और————————————
 1.    राय साहब
 बेशरमी से पकड़े रहेगा। कुगत होनी थी बुढ़ापे में, कुकुर-योनि में जीना था रे, इसीलिए तुझ गधे को जिनाद रखा मेरी सेवा के लिए, ऐसा कहते राय सैप और सारा समाज हामी में सिर हिलाता। लेकिन परमात्मा के इस परम विचित्र न्याय पर पिता की हैरानी, हरिया के मन-मस्तिष्क में कोई अनुगूँज पैदा न कर पाती।
 
 गिरवाण दत्त जी, जिन्हें मेहंरबान अंग्रेज साहब ने ‘गौरी’ उपनाम दे छोड़ा था, जो रहते भी पूरे साहबी ठाट-बाट से आये थे, जिनके सूट-बूट, जिनके घोड़े, जिनकी कार, जिनके इलायची खाने वाले कुत्ते समाज में ईर्ष्यालु चर्चा के विषय रहे थे, अपने जीवन के पिछले तेईस वर्ष वस्तुतः घिसटते हुए बिताते आ रहे थे। खाना-पीना, हगना-मूतना, सब कुछ उन्हें हरिया के संहारे ही करना पड़ता था। उन्हें कभी-कभी अफसोस होता कि इस लाचारी की वजह से ही वह हरिया की तरक्की के लिए अपने बचे-खुचे शक्तिशाली परिचित लोगों के दरवाजे खुद न खटखटा सके। उन्होंने सदा हरिया को यह स्मरण कराया कि आज भी कुमाउँनी समाज के बड़े लोगों में और नयी दिल्ली के सरकारी हलकों में मेरे नाम की कुछ वकत है। वह कहते—‘‘जरा सोशल बन भाऊँ1। मेरा नाम लेकर बड़े लोगों से मिलेगा-जुलेगा तो तेरी तरक्की के रास्ते खुलेंगे।’’
 तरक्की के इन रास्तों की खोज के लिए गिरवाण दत्त जी ने हरिया को अपनी हरक्यूलीज साइकिल भेंट की थी। इस साइकिल के साथ-साथ उसे पिता की घुड़सवारी वाली बिरजिस और पोलो टोपी भी मिली थी। घुड़सवारी पाली पोशाक में साइकिल-सवार होकर डब वह पहली बार निकला था तब उसके जीजी नरेन्द्र कृष्ण पन्त ने पूछा था, ‘‘यार, पोशाक से तू तो पूरा घुड़सवार बना हुआ है, तेरे इस घोड़े का नाम क्या है रे ?’’ हरिया ने साइकिल का नाम बताया और उस दिन से वह समाज में हरिया हरक्यूलीज के नाम से मशहूर हुआ। हालाँकि उसकी सींकिया काया का यूनान के उस महाबली हरक्यूलीज से दूर-दूर का भी नाता न था, जिसे प्रायश्चितस्वरूप तमाम कठिन परीक्षाएँ देनी पड़ी थीं।
 
 —————————
 1. छोटा लड़का।
 सोशल होने के लिए की गयी साइकिल सवारी से हरिया के लिए तरक्की के रास्ते तो नहीं खुले, लेकिन उसे हर छुट्टी के दिन मिलने-जुलने के लिए जाने का सिलसिला जारी रखना पड़ा, क्योंकि गिरवाण दत्त जी अपने परिचितों और सम्बन्धियों की कुशल जानने के लिए तरसते थे और उन परिचितों-सम्बन्धियों ने स्वयं उनकी कुशल पूछने के लिए आना धीरे-धीरे लगभग छोड़ ही दिया था। मूलतः इसलिए कि गिरवाण दत्त जी अपने मरने को बहुत ही लम्बा खींचते चले गये थे। उनके समवयस्क इष्ट-मित्रों में से ज्यादातर इस बीच गगुजर चुके थे और जो जिन्दा थे, वे दिल्ली छोड़ चुके थे, या स्वयं भी गिरवाण दत्त जी जितने ही असहाय और अशक्त हो चले थे। परिचितों के बच्चों अगर कभी भूले से गिरवाण दत्त जी के घर अब आते भी थे तो किसी बीमार की तीमारदारी या किसी मृतक के दाह-संस्कार के लिए हरिया की सेवाएँ प्राप्त करने की खातिर ही।
 
 हरिया हमारे समाज में इन दो चीजों के विशेषज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित हो चला था। वह बिना घिनाये, बिना अघाये, बिना घबराये, मरते हुए रोग की शुश्रुषा कर सकता था और मरने के बाद बहुत कायदे से, हिसाब से, उसे फूँक और फुँकवा सकता था। अक्सर लोग-बाग टिप्पणी करते थे कि हरिया पिछले जन्म में डोम रहा होगा। निगम बोध घाट के महाब्राह्मण, कुमाऊँनी परम्परा के अनुसार नदी की धार से सटाकर चिता सजवाते हुए हरिया को श्रद्धानत होकर देखते थे।
 
 जब तक पिता के समवयस्क जिन्दा थे, तब तक उसके घरों में जाने पर यह आशा की जा सकती थी कि पिता के बारे में कुछ पूछा जायेगा और समवयस्क के बारे में ऐसा कुछ बताया भी जायेगा, जो घर लौटकर पिता को सुनाया जा सके। अब ऐसी कोई सम्भावना न थी, फिर भी हरिया हरिक्यूलीज पिता को प्रसन्न रखने के लिए सोशल होने का फ़र्ज निभाये चला जा रहा था। वह खुद ही बगैर किसी के पूछे पिता का हाल सुना देता और मेजबान चाहे कुछ भी न बतायें, उनसे उनका हाल-समाचार भी पूछ लेता कि पिता को सुनाया जा सके।

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जोशी जी की मनोहर कहानियां
 
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मनोहर श्याम जोशी.
चार साल का हो गया था. तो गांव चमारी से शहर उरई पढ़ने आ गया था. मम्मी गांव में थी. पापा गांव से शहर आते थे. जाते थे. शाम को. ताऊ ताई शहर में रहते थे. स्कूल भी वहीं रहता था. तो हम भी रहने लगे.

फिर एक साल बाद एक और चिज्जू रहने आई. टीवी. लकड़ी की फटकिया वाली. उसमें एक सीरियल आता था. एक अंकल थे. दरवाजा खोलने वालों को नंबर दिया करते थे. कोई लड़की थी. हीरोइन बन गई थी. गरीबी सी थी.

मुझे लगा. जो टीवी पर आता है वो गरीब कैसे हो सकता है. चिज्जू वाले लोग तो पइसे वाले होते हैं. जैसे ताऊ जी. ताऊ जब शादी में जाते तो सिल्क का कुर्ता पहनते. उसका रंग. वैसा जैसा गइया के दुद्धू का होता है. गरम करने के बाद. रौशनी सा.

बरसों बीत गए. एक तस्वीर देखी. एक सिल्क का कुर्ता पहने आदमी की. ताऊ से. बताया गया. ये जोशी जी हैं. जी चश्मा लगाते थे. पारदर्शी सा. क्यों. कह दो कि आंखें कमजोर रही होंगी.

पर मुझे कुछ और दौंची लगी. एक बार की बात है. एक भगवान जी थे. बहुत सुंदर थे. तो एक अंग्रेज आया. उसको सम्मोहित करना आता था. वो भगवान जी को सम्मोहित करके ले गया. बड़ा हड़कंप मचा. और फिर तै हुआ. कि अब कोई सुंदर भगवान को एकटक नहीं देखेगा.

तो क्या जोशी ने अपनी सुंदर आंखों को दिठौना लगाया था चश्मा के जरिए. वाह भइया मनोहर. और हां. वो जो चिज्जू थी टीवी. उस पर जो सीरियल आता था. हम लोग. वो इन्हीं अंकिल ने लिखा था.

हिंदी पढ़ी तो उन्हें पढ़ा. आखिर तक. टटा प्रोफेसर. कुरु कुरु स्वाहा, कसप. क्याप. लखनऊ मेरा लखनऊ. और आखिर में कौन हूं मैं.

दो चीजें याद रहीं. एक नॉवेल का किरदार, जो जिस लड़की से प्यार करता है. उसकी दी मिठाई को फफूंदी और राख बनने की हद तक संभाल कर रखता है.

और दूसरा. आखिरी नॉवेल का किशोर, जो नई नाचने वाली को लपक कर घांप लेता है. और आतुर संभोग का सुख पाता है. ये कहानी थी भुवाल संन्यासी की. बड़ी दिलचस्पी थी इसमें. क्योंकि मनोहर कहानियां में भी इसके बारे में पढ़ा था…

प्रभात रंजन.
प्रभात रंजन.
और फिर आज सुबह यूं हुआ. एक नोटिफिकेशन आया. कि आज ही के दिन हिंदी के एक राइटर मरे थे. नाम- मनोहर श्याम जोशी. हमने फोन उठाया. हिंदी के एक जिंदा राइटर को लगाया. प्रभात रंजन. दोस्त. बड़े भाई. और जोशी जी के चेले.

लगा इसरार करने. आप मनोहर श्याम जोशी पर जो किताब लिख रहे हैं. उसका एक टुकड़ा चाहिए. जो कहीं न छपा हो.

आशीष मिल गया.

आपके सामने है.

जोशी जी की मनोहर कहानियां नाम है किताब का. पब्लिशर कौन होगा अभी तय नहीं. मेरे ख्याल से किताब अभी पूरी नहीं हुई. जब होगी तब जिल्दसाज और छापने वाले भी आ ही जाएंगे सामने.

लेकिन जो पूरा हुआ है, वो भैरंट है. लंबा है, इसलिए आरामकुर्सी में जगह पा रहा है. आप इसे पढ़ें. और फिर इसके किस्से औरों को भी बताएं.

शुक्रिया मनोहर श्याम जोशी. यूं जिंदगी जीने के वास्ते. उसे लिखने का लोभ बसाया आपने.

शुक्रिया प्रभात रंजन. किस्सागो के किस्से सुनाने के लिए.

अल्लाह करे जोर ए कलम और जियादा.

सौरभ द्विवेदी
http://www.thelallantop.com/tehkhana/manohar-shyam-joshi-godfather-of-tv-serial-writing-hum-log-and-buniyaad-fame-his-memoirs-named-joshi-ji-ki-manohar-kahaniyan-penned-by-kothagoi-fame-prabhat-ranjan/

हेम पन्त

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“ट टा प्रोफ़ेसर” भी मनोहर ष्यम जोशी जी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है.. Flipkart और अन्य आनलाइन स्टोर्स पर जोशी जी की बहुत सी किताबें उपलब्ध हैं.. 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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उपन्यास[संपादित करें]
कुरु कुरु स्वाहा -1980
कसप - 1982
हरिया हरक्युलिस की हैरानी - 1994
हमज़ाद - 1996
टा टा प्रोफ़ेसर -2001
कयाप - 2001
कौन हूँ मैं - 2006
कपीशजी - 2009
वधस्थल - 2009
उत्तराधिकारिणी - 2015

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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दूरदर्शन धारावाहिक

१९८२ में जब भारत के राष्ट्रीय चैनल दूरदर्शन पर उनका पहला नाटक "हम लोग" प्रसारित होना आरम्भ हुआ तब अधिकतर भारतीयों के लिये टेलिविज़न एक विलास की वस्तु के जैसा था। मनोहर श्याम जोशी ने यह नाटक एक आम भारतीय की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को छूते हुए लिखा था -इस लिये लोग इससे अपने को जुडा हुआ अनुभव करने लगे। इस नाटक के किरदार जैसे कि लाजो जी, बडकी, छुटकी, बसेसर राम का नाम तो जन-जन की ज़ुबान पर था। उनके प्रमुख धारावाहिक निम्नलिखित हैं-

हमलोग
बुनियाद
कक्का जी कहिन
मुंगेरी लाल के हसीन सपनें
हमराही
ज़मीन आसमान
गाथा

 

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