Author Topic: हिन्दी साहित्य में उत्तर आधुनिकता के जनक ,मनोहरश्याम जोशी  (Read 19902 times)

Hem Bahuguna

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हिन्दी साहित्य में उत्तर आधुनिकता एक नयी शैली है .अल्मोडा मूल के अजमेर में ९ अगस्त १९३३ को जन्मे मनोहरश्याम जोशी जी को हिन्दी साहित्य में उत्तर आधुनिकता का जनक माना जाता है .लखनऊ विश्वविध्यालय के विज्ञानं स्नातक ,और कल के वैज्ञानिक उपाधि से सम्मानित मनोहर श्याम जोशी छात्र जीवन से ही लेखक और पत्रकार बन गए थे .उन्होंने १९८३ में प्रकाशित 'कुरु-कुरु स्वाहा'उपन्यास के साथ हिन्दी साहित्य को एक नयी दिशा दी .पहाड़ के प्रति उनका लगाव उनकी रचनाओ में दिखायी देता है .हिन्दी साहित्य में क्षेत्रीय भाषा के शीर्षकों का प्रयोग करने वाले वे पहले सफल लेखक थे .
कसप ,क्याप ,ट- टा प्रोफेसर ,हमराज ,हरिया हर्कुलिस की हैरानी ,कुरु-कुरु स्वाहा  और में कौन हूँ इनकी सशक्त रचनाएँ है .कसप पहाड़ के संदर्भों में लिखी एक गुदगुदा देने वाली प्रेम कहानी है .."कसप"का कुमाऊनी में अर्थ होता है 'क्या जाने?'इसी तरह 'क्याप'=अजीब सा ,उपन्यास में उन्हें वर्ष २००५ का साहित्य अकादमी पुरुस्कार मिला .उन्होंने खेल से दर्शन  शास्त्र    और फ़िल्म से लेकर पत्रकारिता तक हर विषय में सफल लेखन किया .
पहाड़ की संस्कृति और भाषा  को  अपनी कालजयी रचनाओं मई अमर कर देने वाले मनोहरश्याम जोशी को नमन है .

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Dhanyavaad Hem ji is jaankaari ke liye +1 karma aapko. Is mahaan vyaktitva ke jeevan ke baare main aur jaankaari ki prateeksha main.

पंकज सिंह महर

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मनोहर श्याम जोशी : भारतीय धारावाहिकों के जनक

मनोहर श्याम जोशी (देहांत: मार्च ३०, २००६) हिन्दी भाषा के एक प्रसिद्ध लेखक थे। उनके लिखे हुए नाटक "हम लोग" और "बुनियाद" हिन्दी टेलिविज़न पर सीरियल के रूप में दिखाये गये और बेहद लोकप्रिय हुए। १९८२ में जब पहला नाटक "हम लोग" प्रसारित होना आरम्भ हुआ तब अधिकतर भारतीयों के लिये टेलिविज़न एक विलास की वस्तु के जैसा था। मनोहर श्याम जोशी ने यह नाटक एक आम भारतीय की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को छूते हुए लिखा था -इस लिये लोग इससे अपने को जुडा हुआ अनुभव करने लगे। इस नाटक के किरदार जैसे कि लाजो जी, बडकी, छुटकी, बसेसर राम का नाम तो जन-जन की ज़ुबान पर था।

साहित्यिक रचनायें

कसप
नेताजी कहिन
कुरु कुरु स्वाहा
हरिया हरक्युलिस की हैरानी
बातों बातों में
मंदिर घाट की पौडियां
एक दुर्लभ व्यक्तित्व
टा टा प्रोफ़ेसर
कयाप
हमज़ाद

टेलीविज़न सीरियल

हम लोग
बुनियाद
कक्का जी कहिन
मुंगेरी लाल के हसीन सपनें
हमराही
ज़मीन आसमान
गाथा

हिन्दी फ़िल्में

हे राम
पापा कहते हैं
अप्पू राजा
भ्रष्टाचार

Risky Pathak

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Pankaj daa.. Doordarshan Pe 12-13 saal phle "Hum Log" and "Buniyaad" dekha hai|

Aaj jaan ke prashannta hui ki iski khaani humaare pahaad ke hi vyakti ne likhi thi.

Manohar Shyam Joshi Jee Ko Sat Sat Naman.

पंकज सिंह महर

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मनोहर श्याम जोशी भारत में सोप ऑपेरा के जनक माने जाते हैं
हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक और पत्रकार मनोहर श्याम जोशी का गुरुवार को दिल्ली में निधन हो गया. वे 73 वर्ष के थे. मनोहर श्याम जोशी भारत में टीवी धारावाहिकों के जनक माने जाते हैं.
वो पिछले कुछ दिनों से बीमार थे और अस्पताल में भर्ती थे. गुरुवार की सुबह उनका ह्दय गति रुक जाने से निधन हो गया. उनका जन्म 9 अगस्त, 1933 को अल्मोड़ा ज़िले में हुआ था.

उन्होंने 'हम लोग' और 'बुनियाद' से भारत के टेलीविज़न की दुनिया में एक नई शुरुआत की थी.

1982 में शुरू हुए हम लोग की लोकप्रियता का आलम यह था कि जब यह सीरियल शुरू होता था तो सड़कें सूनी हो जाती थीं.


 साहित्य में योगदान
कसप
नेताजी कहिन
कुरु कुरु स्वाहा
बातों-बातों में
मंदिर घाट की पौढियाँ
कैसे किस्सागो
एक दुर्लभ व्यक्तित्व
टा-टा प्रोफेसर

वे तीखे व्यंग्य के लिए भी जाने जाते हैं और उन्होंने 'कक्का जी कहिन' और 'मुंगेरी लाल के हसीन सपने' जैसे धारावाहिक लिखे.
साथ ही उन्होंने उत्कृष्ट साहित्य रचनाएँ भी लिखीं. उनके कुरु कुरु स्वाहा और कसप जैसे उपन्यास चर्चित हुए.

उन्होंने पत्रकारिता में नए आयाम स्थापित किए थे. उन्होंने साप्ताहिक हिंदुस्तान और वीकेंड रिव्यू का संपादन किया और विज्ञान से लेकर राजनीति तक सभी विषयों पर लिखा.

मनोहर श्याम जोशी को 2005 में साहित्य अकादमी का प्रतिष्ठित पुरस्कार दिया गया था.

वरिष्ठ साहित्यकार कमलेश्वर का कहना था, '' मनोहर श्याम जोशी का चला जाना हिंदी के लिए एक हादसा है. उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था और वे विलक्षण प्रतिभा के धनी थे.''

टीवी और फ़िल्मों में योगदान

हम लोग
बुनियाद
कक्काजी कहिन
मुंगेरी लाल के हसीन सपने
हमराही
ज़मीन आसमान
गाथा
फ़िल्में
हे राम
पापा कहते हैं
अप्पू राजा
भ्रष्टाचार

कुछ अर्सा पहले उन्होंने बीबीसी से बातचीत में कहा था कि समाज में व्यंग्य की जगह ख़त्म हो गई है क्योंकि वास्तविकता व्यंग्य से बड़ी हो गई है.

उनका कहना था कि व्यंग्य उस समाज के लिए है जहाँ लोग छोटे मुद्दों को लेकर भी संवेदनशील होते हैं.

मनोहर श्याम जोशी का मानना था, ''हम निर्लज्ज समाज में रहते हैं, यहाँ व्यंग्य से क्या फ़र्क पड़ेगा.''

टीवी सीरियलों की दशा से भी वो खुश नहीं थे.

उनका कहना था कि टीवी तो फ़ैक्टरी हो गया है और लेखक से ऐसे परिवार की कहानी लिखवाई जाती है जिसमें हीरोइन सिंदूर लगाकर पैर भी छू लेती है और फिर स्विम सूट भी पहन लेती है.
 
साभार- bbc.com

पंकज सिंह महर

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मनोहर श्याम जोशी की दुनिया

न कहीं बसेसर राम है न कहीं हवेली राम... सब किस्से हैं जो एक दौर में हफ्ते में दो बार आते रहे और हमें हंसाते-रुलाते, सोचने को मजबूर करते रहे। क्या वजह है कि इन नकली चरित्रों की गढ़ी हुई कहानियों से हम इतना जुड़ गए। क्या ये हमारे भीतर छुपी हुई हताशाएं रहीं जिन्हें बसेसर राम गाता रहा? क्या इतिहास को जानने, उससे सीखने की चाह रही कि किसी जमाने के किसी लाहौर का कोई हवेली राम हमारी यादों में दस्तक देता रहा? समाजों की एक सामूहिक चेतना होती है जिसे जमाना बनाता और बदलता है। इस चेतना को सच्चाई ही नहीं गढ़ती, वो फसाना भी बनाता है जो तरह-तरह से हमारे भीरतर आता-जाता रहता है। आधी हकीकत और आधे फसाने से बनने वाले इस जमाने की नब्ज पर हाथ रखकर ही कोई लेखक ईश्वर की तरह अपनी दुनिया बनाता है और उसमें दूसरों को शामिल होने का न्योता देता है।
मनोहर श्याम जोशी ने जो दुनिया बनाई, उससे लोग इसीलिए जुड़ पाए कि उनमें उनका जमाना बोलता रहा, उनकी हकीकत और उनका फसाना बोलता रहा।सबसे बड़ी बात ये है कि दुनिया बदल जाती है, साहित्य बचा रहता है और याद दिलाता रहता है कि किस तरह बदल रही है दुनिया। आज हमलोग देखकर सहसा एहसास होता है कि उस मद्धिम रफ्तार की छोटी बड़ी बेचैनियों में कई मानवीयताएं रहीं जो अब दिखाई नहीं देतीं। बसेसर राम का घर शायद किसी झुग्गी-झोपड़ी में तब्दील हो चुका होगा और डॉक्टर बनने का ख्वाब देखने वाली हम सबकी प्यारी छुटकी अब एक थकी हुई उदास औररत होगी जिसे कभी उसका अतीत कुरेदता होगा और कभी भविष्य डराता होगा। हवेली राम के बेटों ने बदला हुआ वक्त देखा था लेकिन बदले वक्त की ये रफ्तार न देखी होगी जिसमें बाजार का बुलडोजर पूरे समाज को तहस-नहस कर रहा है। जब ये सारा कुछ खत्म हो चुका होगा या बदल चुका होगा, तब भी साहित्य उसे बचाए रखेगा और इसी में बची रहेगी पूरे समाज को बचाने की गुंजाइश। यही मनोहर श्याम जोशी होने का मतलब है।


साभार- http://baat-pate-ki.blogspot.com/2007/03/blog-post_7797.html

पंकज सिंह महर

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ये कथा है गाँव के एक अनाथ, साहित्य सिनेमा प्रेमी, मूडियल लड़के देवीदत्त तिवारी यानि डीडी और शास्त्रियों की सिरचढ़ी, खिलन्दड़ और दबंग लड़की बेबी के प्रेम की। किताब में इस बात का जिक्र है कि जोशी जी ने ये उपन्यास अपनी पत्नी भगवती के लिए लिखा और वो भी मात्र ४० दिनों में।
हमारी आंचलिक भाषाएँ कितनी मीठी है ये क्याप जैसे उपन्यासों को पढ़ कर महसूस होता है। जोशी जी ने कुमाऊँनी हिंदी का जो स्वरूप पाठकों के समक्ष रखा है वो निश्चय ही मोहक हे। इससे पहले ऐसा ही रस फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यासों को पढ़ने में आया करता था। जोशी जी ने कुमाऊँनी समाज की जो झांकी अपनी इस कथा में दिखाई है, उसे पाठकों के हृदय तक पहुँचाने का श्रेय बहुत कुछ उनके द्वारा प्रयुक्त की गई भाषा का है। पूरे उपन्यास में जोशी जी सूत्रधार की भूमिका निभाते दिखते हैं। प्रेम कथा तब प्रारंभ होती है जब हमारे नायक-नायिका यानि डीडी और बेबी पहली बार शादी के एक आयोजन में मिलते हैं। अब ये मत समझ लीजिएगा कि ये मुलाकात नैनीताल के मनभावन तालों के किनारे किसी हसीन शाम में हुई होगी। अब जोशी जी क्या करें बेचारे ! खुद कहते हैं...
यदि प्रथम साक्षात्कार की बेला में कथानायक अस्थायी शौच में बैठा है तो मैं किसी भी साहित्यिक चमत्कार से उसे ताल पर तैरती किसी नाव पर तो नहीं बैठा सकता।"

बिलकुल सही और इसीलिए नायक, नायिका से पहली मुलाकात में चाँद सितारों की बात ना कर उस मारगाँठ (पैजामे में लगी दोहरी गाँठ) का ज़िक्र करता है जो अस्थायी शौच में उसे देखकर हड़बड़ाकर उठने से लगी थी।

ख़ैर, जोशी जी की नोक-झोंक के ताने बाने में बढ़ती प्रेम कथा को थोड़ी देर के लिए विराम देते हैं। अपने उपन्यास में जब-तब वो अपने सरस अंदाज़ में उत्तरांचल के समाज की जो झलकियाँ दिखाते हैं, वो कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अब यही देखिए एक नव आगुंतक के परिचय लिए जाने का कुमाऊँनी तरीका.....

"'कौन हुए' का सपाट सा जवाब परिष्कृत नागर समाज में सर्वथा अपर्याप्त माना जाता है। यह बदतमीजी की हद है कि आप कह दें कि मैं डीडी हुआ। आपको कहना होगा, न कहिएगा तो कहलवा दिया जाएगा, मैं डीडी हुआ दुर्गादत्त तिवारी, बगड़गाँव का, मेरे पिताजी मथुरादत्त तो बहुत पहले गुजर गए थे, उन्हें आप क्या जानते होंगे, बट परहैप्स यू माइट भी नोइंग बी.डी तिवारी,वह मेरे एक अंकल ठहरे.....वे मेरे दूसरे अंकल ठहरे।

उम्मीद करनी होगी कि इतने भर से जिज्ञासु समझ जाएगा। ना समझा तो आपको ननिहाल की वंशावली बतानी होगी।

किस्सागोई की कुमाऊँ में यशस्वी परंपरा है। ठंड और आभाव में पलते लोगों का नीरस श्रम साध्य जीवन किस्सों के सहारे ही कटता आया है। काथ, क्वीड, सौल-कठौल जाने कितने शब्द हैं उनके पास अलग अलग तरह की किस्सागोई के लिए! यही नहीं, उन्हें किस्सा सुनानेवाले को 'ऐसा जो थोड़ी''ऐसा जो क्या'कहकर टोकने की और फिर किस्सा अपने ढ़ंग से सुनाने की साहित्यिक जिद भी है।"


वैसे लोगों की किसी भी अजनबी के लिए उत्सुकता , भारत के हर छोटे गाँव या कस्बे का अभिन्न अंग है जहाँ अभी भी महानगरीय बयार नहीं बही है। वापस प्रेम कथा पर चलें तो हमारा नायक विवाह के आयोजन में नायिका के साथ खिलंदड़ी कर अपने संभावित साले से दुत्कार झेलने के बाद मायानगरी मुंबई का रुख कर चुका है जहाँ वो किसी व्यवसायिक दिग्दर्शक का सहायक है। अब वहाँ पहुँचकर नायक, नायिका को पत्र लिखने की सोचता है। पर ये तथाकथित प्रेम पत्र, दिल का मज़मूं बयां करने के बज़ाए नायक के सारे साहित्यिक और फिलासिफिकल ज्ञान बघारते नज़र आते हैं। अब बेबी उन्हें पढ़ कर करे भी तो क्या, आधे से ज्यादा सिर के ऊपर से गुजर जाने वाला ठहरा। पहला ही पत्र पढ़कर कह बैठी...

"बाब्बा हो, जाने कैसे लिख देते होंगे लोग इतना जड़ कंजड़ ! कहाँ से सूझता होगा इन्हें? बरेली से बंबई तक जाने के बारे में ही पाँच कागज़ रँग रखे।....और लिख भी इस डीडी ने ऐसी हिंदी रखी जिसमें से आधा मेरी समझ में नहीं आती। नेत्र निर्वाण क्या ठहरा बाबू ?"

तेर ख्वारन च्यूड चेली !(ओ तेरे सिर पर चिउरे बच्ची...ऐसी आशीर्वादवत गालियाँ कुमाऊंनी विशेषता हैं।)...इधर दिखा यह कैसी नेत्र निर्वाण रामायण लिख रखी है उस छोरे ने.."


सो पत्र व्यवहार का एकतरफा सिलसिला जो प्रेमी युगलों के बीच शुरु हुआ, वो वास्तव में डीडी और शास्त्रीजी के संवाद में बदल गया। पत्र का साहित्यिक और वैचारिक मर्म खुद पिता पुत्री को समझाने में लग गए, आख़िर शास्त्री जो ठहरे। धीरे-धीरे ही सही बेबी की बुद्धि खुली और लिख ही डाली उसने अपनी पहली पाती....

"तू बहुत पडा लिखा है। तेरी बुद्धी बड़ी है। मैं मूरख हूँ। अब मैं सोच रही होसियार बनूँ करके। तेरा पत्र समझ सकूँ करके। मुसकिल ही हुआ पर कोसीस करनी ठहरी। मैंने बाबू से कहा है मुझे पडाओ।....हम कुछ करना चाहें, तो कर ही सकनेवाले हुए, नहीं? वैसे अभी हुई मैं पूरी भ्यास (फूहड़)। किसी भी बात का सीप (शऊर) नहीं हुआ। सूई में धागा भी नहीं डाल सकने वाली हुई। लेकिन बनूँगी। मन में ठान लेने की बात हुई। ठान लूँ करके सोच रही।"


साभार-http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com

पंकज सिंह महर

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मनोहर श्याम जोशी जी को सादर याद करते हुए ‘कसप’ से मेरा एक प्रिय अंश
(अथ डी डी उवाच )...


यह शहर मुझे तभी स्वीकार करेगा जब मैं सरकारी नौकरी पर लगूं, तरक्की पाता रहूं और अवकाश प्राप्त करके यहाँ अपने पुश्तैनी घर में लौट आऊँ और शाम को अन्य वृद्धों के साथ गाड़ी-सड़क पर टहलते हुए, छड़ी से क़मर को सहारा दिए हुए बताऊँ कि नॉक्स सैप की नोटिंग की क्या स्पेशेलिटी ठहरी और फाइनेंशियल रूल्स हैन्डबुक में अमुक चीज के बारे में क्या लिखा ठहरा।

मुझे नहीं चाहिए यह नगर। ऐसा कह रहा है नायक।

मैं लानत भेजता हूँ नगर पर, ऐसा कहते हुए नायक उस दयनीय होटल एंड रेस्टोरेंट के बाहर पहुंच गया है, जिसमें जनवासा है, लेकिन वह भीतर नहीं जा रहा है।

उसे यहीं शहर पर टहलते हुए थोक के हिसाब से लानत भेजने का काम जारीः रखना है इस नगर पर जो सुबह की पहली रोशनी में आकार ले रहा है उसकी आंखों में, उसकी स्मृति में।

मैं लानत भेजता हूँ इस नगर पर। इसके प्रत्येक वयोवृद्ध नागर, एक-एक जर्जर घर पर मैं लानत भेजता हूँ। ढहती मुन्डेरों, ढुलकती खेत-सीढियों पर, धुंधुवाए दुन्दारों, नक्काशीदार नीचे-नीचे द्वारों पर, मैं लानत भेजता हूँ। अंगूर की बेल पर¸ दाड़िम के बोठ पर¸ घर में उगे शाक पात पर¸ सोनजई के झाड़ पर¸ मैं लानत भेजता हूं। आंगन पटआंगन पर¸ उक्खल मसूल जांतर पर¸ स्लेट की छत पर¸ छत पर रखे बड़े चकमक पत्थर पर¸ नागफनी पर¸ कद्दुओं और खुबानियों पर¸ सूखती बड़ियों और मटमैली धोतियों पर¸ मैं लानत भेजता हूं।

सिन्दूर पिटार पर¸ तार तार तिब्बती गलीचे पर¸ खस्ताहाल हिरण खाल पर¸ दादी की पचलड़ मोहनमाल पर¸ दादा के चांदी के चमची पंचपात्र पर¸ बच्चों के पहने धागुल सुतुल पर¸ कुल देवता पर¸ कुल पर¸ मैं लानत भेजता हूं। कीलक पर¸ कवच पर¸ रूद्री खंडग पर¸ स्रुवा आज्या इदं न मम पर¸ मैं लानत भेजता हूं। रामरक्षा अमरकोष पर¸ चक्रवर्ती के गणित¸ नेस्फील्ड के ग्रामर पर¸ लघु सिद्धान्त कौमुदी¸ रेनबो रीडर पर¸ मोनियर विलियम्स के कोश¸ एटकिंसन के गजेटियर पर¸ मैं लानत भेजता हूं।
चन्दन चन्धारे पर¸ पंचांग और पट्टों पर¸ ऐंपणों ज्यूंतियों पर¸ हरियाले के डिकारों पर¸ भेंटणे की छापर पर¸ बेसुरे सकुन आखर पर¸ मैं लानत भेजता हूं।

चैंस फाणा चुलकाणी पर¸ बांठ ठट्वाणी पर¸ रस भात पपटौल पर¸ चिलड़ा और जौल पर¸ मैं लानत भेजता हूं। जम्बू के छौंक पर¸ भांगे की भुनैन पर¸ कड़वे तेल की झलैन पर¸ खट्टे चूक नींबू पर¸ डकार की झुलसैंण पर¸ मैं लानत भेजता हूं।

जागर पर¸ कौतिक पर¸ कथा¸ हुड़ुक बोल पर¸ हो हो होलक हुल्यारों पर¸ उमि मसलती हथेलियों पर¸ छिलूक की दीवाली पर¸ बरस दिन के घर पर¸ तिथि त्यौहार पर¸ बारसी जनमबार पर¸ मैं लानत भेजता हूं।
पल्लू में बंधे सिक्कों पर¸ पुड़िया में रखे बताशों पर¸ पेंच पर ली चीजों पर¸ साहजी के यहां के हिसाब पर¸ मैं लानत भेजता हूं। ‘श्री राम स्मरण’ से शुरू हुए हर पेस्टकार्ड पर¸ देस से आए हर मनीओरडर पर¸ यहां के वैसे ही हाल पर¸ तहां की कुशल भेजना पर¸ मैं लानत भेजता हूं।

अतीत के क्षय पर¸ भविष्य के भय पर¸ सीखचों के पीछे से चीखते उन्माद पर¸ खांसी के साथ होते रक्तपात पर¸ मैं लानत भेजता हूं।
आप लक्ष्य कर रहे होंगे कि चिन्ताप्रद रूप से काव्यात्मक हुआ जा रहा है हमारा क्रान्तिकारी नायक।
अगर आप इससे पूछें इस समय कि भाई इसका समाधान क्या है? वह निस्संकोच उत्तर देगा¸ सारे पहाड़ियों को पंजाबी बना दो। मानो पंजाब में मध्यवग होता ही न हो¸ मानो अम्बरसर की गलियां किसी मौलिक अर्थ में अल्मोड़ा के मोहल्लों से भिन्न हों। किन्तु मैं इसे टोकूंगा नहीं। अपने वर्तमान पर लानत भेजने का युवाओं का वैसा ही अधिकार है जैसा मेरे जैसे वृद्धों को अतीत की स्मृति में भावुक हो जाने का।

थक कर होटल में घुसने से पूर्व अब नायक सिटोली के जंगल को और उस के पार नन्दादेवी और त्रिशूल की सुदूर चोटियों के देखते हुए लानत का खाता पूरा करता है।

मैं लानत भेजता हूं स्वर्गोपम गोद और नारकीय बचपन पर¸ वादियों में गूंजते संगीत पर¸ मैं लानत भेजता हूं रमकण चहा के चमकण गिलास पर¸ अत्तर सुरा तीन पत्ती फल्लास पर¸ छप्पर फटने के सपनों पर¸ अपने पर¸ अपनों पर¸ मैं लानत भेजता हूं।

सारी रात जागने के बाद¸ लानत लदवाई में इतना श्रम करने के पश्चात नायक अधिकारपूर्वक मांग करता है कि अब उसे कुछ देर शान्ति से सोने दिया जाए। अस्तु¸ सम्प्रति उससे यह न पूछना ही उचित होगा कि जिन नगरवासियों को लानत भेजी गई है¸ उन में बेबी नाम्नी कन्या सम्मिलित मानी जाय कि नहीं ?

साभार : http://kabaadkhaana.blogspot.com/

पंकज सिंह महर

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किताबी कोना : स्व. मनोहर श्याम जोशी की 'क्याप'  


क्याप यानि कुछ अजीब अनगढ़, अनदेखा सा और अप्रत्याशित ! और सच कहूँ तो ये उपन्यास अपने नाम को पूरी तरह चरितार्थ करता है ।

ऐसा क्या अनोखा है इस पुस्तक में ? अनूठी बात ये है कि उत्तरांचल की भूमि से उपजा उनका कथानक जब तक पाठक की पकड़ में आता है तब तक उपन्यास का अंत हो जाता है । उपन्यास का आरंभ जोशी जी ने बेहद नाटकीय ढंग से किया है।

"जिले बनाकर वोट जीतने की राजनीति के अन्तर्गत बनाये गए नए मध्यहिमालयवर्ती जिले वाल्मीकि नगर में, जो कभी कस्तूरीकोट कहलाता था..., फस्कियाधार नामक चोटी के रास्ते में स्थित ढिणमिणाण यानि लुढ़कते भैरव के मन्दिर के पास एक‍- दूसरे की जान के प्यासे पुलिस डी. आई. जी. मेधातिथि जोशी और माफिया सरगना हरध्यानु बाटलागी की लाशें पड़ी मिलीं । दोनों के ही सीने पर उल्टियों के अवशेष थे।पहला रहस्य ये था कि वे दोनों वहाँ क्या कर रहे थे ।"......और सबसे बड़ा रहस्य ये कि ये दोनों जानी दुश्मन, जो एक अरसे से एक दूसरे को मारने की कोशिश में लगे हुए थे, इकठ्ठा केसे मर गए ।"

अगर ये पढ़ने के बाद आप इस उपन्यास को एक रोचक रहस्यमयी गाथा मान बैठें हों तो आपको थोड़ा निराश होना पड़ेगा । दरअसल जोशी जी का ये उपन्यास १९९९ में घटे इस कांड की भौगोलिक, सामाजिक, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट करने का एक ईमानदार प्रयास है।

फ्लैशबैक में कही गई ये कथा पहले पाठक को फस्कियाधार के दुर्गम भौगोलिक स्वरूप और इतिहास से अवगत कराती है। इस इलाके की सामाजिक वर्ण व्यवस्था का मार्मिक चित्रण करते हुये जोशी जी लिखते हैं ..

"डूम, जिनकी संख्या बहुत ज्यादा थी, भोजन पानी तो दूर सवर्ण की छाया भी नहीं छू सकते थे । अगर किसी काम से डूम को बुलाया जाता था तो घर के बाहर जिस भी जगह वो बैठता था उस जगह को सोने का स्पर्श पाये पानी से धोना और फिर गोबर से लीपना जरूरी होता था ।फिर उस जगह पर और घरवालों पर गो‍मूत्र छिड़कना आवश्यक माना जाता था । "
आगे की कहानी नायक के जीवन पथ पर संघर्ष की कथा है । डूम जाति के इस लड़के का पढ़ाई में अव्वल आना उसे लखनऊ पहुँचा देता है। यहीं प्रवेश होता है उसके जीवन में एक ब्राह्मण कन्या और साथ‍ साथ साम्यवादी विचारधारा का । नायक आस ये लगाता है कि क्रान्ति लाने के बाद वो कन्या से अन्तरजातीय विवाह भी कर लेगा और अपने मार्क्सवादी काका की आखिरी इच्छा को भी पूरा करेगा। पर समय के साथ नायक के मस्तिष्क में चल रही योजना मानसिक उथल-पुथल का शिकार हो जाती है।युवावस्था में नायक के मन में चल रहे इस द्वन्द को जोशी जी ने वखूबी इन शब्दों में समेटा है

"हुआ ये कि बी. ए. के द्वितीय वर्ष में पहुँचने के बाद नायक ने ये खोज की कि यद्यपि किसी के साथ कुछ करना चाहने और किसी के साथ बस होना चाहने में जबरदस्त अंतर है और सर्वथा निरपेक्ष भाव से किसी के साथ होने में ही प्रेम की सार्थकता है तथापि साथ होते हुए भी साथ कुछ न करना पौरुष की विकट परीक्षा है। सभी समस्याओं का समाधान करने वाली क्रान्ति बस होने ही वाली है इसमें सन्देह नहीं, किन्तु इस देह में उठा विप्लव उस क्रान्ति की प्रतीक्षा कर सकता है इसमें पर्याप्त संदेह है ।"
जोशी जी का नायक प्रेम की विफलता और साम्यवादी विचारधारा में बढ़ती सुविधाभोगी संस्कृति से इस कदर विक्षुब्ष होता है कि वापस अपनी जड़ों में जाकर क्रान्ति का मार्ग ढ़ूंढ़ने की कोशिश करता है। स्थापना होती है एक गुरुकुल की जिसकी पहली पौध से मेधातिथि जोशी और हरध्यानु बाटलागी जैसे छात्र निकलते हैं । जोशी जी कैसे इन छात्रों की हत्या को पूर्व संदर्भ से जोड़ते हैं उस रहस्य को रहस्य ही बने रहने देना ही अच्छा है ।

जोशी जी का व्यंग्यात्मक लहजा हमेशा से धारदार रहा है और जगह जगह इसकी झलक हमें इस पुस्तक में देखने को मिलती है । क्रान्ति की विचारधारा के राह से भटकने का मलाल लेखक को सालता रहा है । पुस्तक के इस कथन में उनके दिल का दर्द साफ झलकता है

"क्या चीन का लाल सितारा इसीलिए चमका था कि एक दिन विराट बाजार के रूप में चीन की बात सोच -सोच कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के गालों के सेहत की लाली चमकने लगे? क्या तेलंगाना आन्दोलन को लेकर क्रान्तिकारी कविताएँ इसलिए लिखी गईं थीं कि हैदराबाद का सी.एम. एक दिन का सी.ई.ओ. कहलाने पर खुश हो ।"
जोशी जी का लेखन सीधा और सटीक है पर काँलेज के दिनों से हत्याकांड तक वापस लाते समय पाठक की रुचि को बाँधे रखने में वो पूर्णतः विफल रहे हैं । यही इस उपन्यास की सबसे बड़ी कमजोरी है। खुद जोशी जी उपन्यास के अंत में पाठकों से कहते हैं

"आप कहेंगे कि यह कथा तो क्याप जैसी हुई ! धैर्य धन्य पाठकों वही तो रोना है।"
और यही रोना रोते हुए मैंने भी ये उपन्यास समाप्त किया ।

पुस्तक के बारे में

नाम - क्याप
लेखक - स्व. मनोहर श्याम जोशी
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन
पुरस्कार - वर्ष २००६ के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
मूल्य - ६० रुपये


साभार-http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com

पंकज सिंह महर

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उद्जन -बम के युग में जोशी जी की एक कविता

इस तोतापंखी कमरे में नीलम-मोती बिखराते हम,
मोरपंख हिलाते हम और श्वेत शंख बजाते हम,
चांद डाल में,
चांद ताल में,
चांद-चांद में मुस्काते हम.
कभी,बहुत पहले कभी,
शायद यही छटा एक कविता बन सकती थी.

इसका वर्णन कर,
इसके कानों में रुपहले रूपकों के झूमर डालकर,
इसकी आंखॉं में अलंकार का काजर डालकर,
चिपकाकर मद्रासी बिंदिया इसके उन्नत भाल पर,
और आंखॉं ही आंखों में पूछे कुछ प्रश्नों के मूक उत्तर
इसकी फैली गदोलियों में थैली-झोलियों में भर-भर कर,
मैं कभी,
बहुत पहले कभी,शायद कवि बन सकता था.
मेरी काव्यकृति की प्रेरणा तू
शायद कविप्रिया बन सकती थी.
पर अब नहीं,नहीं अब नहीं,
क्योंकि धक धक धक दिल के टेलिप्रिंटर पर अक्षर कर
छप-छप जाती है यह फ्लैश खबर-

कि सवधान
लो! अब विराट घृणा के कुंचित ललाट का धीरज छूटता है!
लो! अब उद्जन के परम कण का सूर्य-सा शक्ति-स्रोत फूटता है!
हो सावधान!
ओ आधे-भगवानः इंसान!
अब दूर कहीं बहुत-बहुत दूर
शुरू होती है वह अनंत विध्वंस-प्रक्रिया-लड़ी
जिसमें न रह पाएगी यह अर्ध-चेतना की मीनार खड़ी,
जिसमें हो जायेंगे ये सब के सब कांच के सपने चकनाचूर!

खबरदार
आ रहा ज्वार!
ये आधे-आधे वादे सब बह जायेंगे!
ये पुंसत्वहीन इरादे सब धरे रह जायेंगे!

 

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