Author Topic: मेरा पहाड़ सदस्यों द्वारा रचित गढ़वाली/कुमाऊंनी कविताये,लेख व रचनाये  (Read 10425 times)

Veer Vijay Singh Butola

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दूसरा ब्यो कु विचार (गढ़वाली हास्य कविता )


एक दिन दगडियो आई मेरा मन माँ एक भयंकर विचार
की बणी जौँ मैं फिर सी ब्योला अर फिर सी साजो मेरी तिबार
ब्योली हो मेरी छड़छड़ी बान्द जून सी मुखडी माँ साज सिंगार
बीती ग्येन ब्यो का आठ बरस जगणा छ फिर उमंग और उलार


पैली बैठी थोऊ मैं पालंकी पर अब बैठण घोड़ी पकड़ी मूठ
तब पैरी थोऊ मैन पिंग्लू धोती कुरता अब की बार सूट बूट
बामण रखण जवान दगडा ,बूढया रखण घर माँ
दरोलिया रखण काबू माँ न करू जू दारू की हथ्या-लूट


मैन यु सोच्यु च पैली धरी च बंधी कै गिडाक
खोळी माँ रुपया दयाणा हजार नि खापौंण दिमाक
फेरो का बगत अडूनु मैन मांगण गुन्ठी तोलै ढाई
पर डरणु छौं जमाना का हाल देखि नहो कखी हो पिटाई


पैली होई द्वार बाटू ,बहुत ह्वै थोऊ टैम कु घाटू
गौं भरी माँ घूमी कें औंण, पुरु कन द्वार बाटू
रात भर लगलू मंड़ाण तब खूब झका-झोर कु
चतरू दीदा फिर होलू रंगमत घोड़ा रम पीलू जू


तब जौला दुइया जणा घूमणा कें मंसूरी का पहाडू माँ
दुइया घुमला खूब बर्फ माँ ठण्ड लागु चाई जिबाडू माँ


ब्यो कु यन बिचार जब मैन अपनी जनानी थैं सुणाई
टीपी वीँन झाडू -मुंगरा दौड़ी पिछने-२ जख मैं जाई
कन शौक चढी त्वै बुढया पर जरा शर्म नि आई
अजौं भी त्वैन जुकुडी माँ ब्यो की आग च लगांई


नि देख दिन माँ सुप्नाया, बोलाणी च जनानी
दस बच्चो कु बुबा ह्वै गे कन ह्वै तेरी निखाणी
मैं ही छौं तेरी छड़छड़ी बान्द देख मैं पर तांणी
अपनी जनानी दगडा माँ किले छ नजर घुमाणी


तब खुल्या मेरा आँखा-कंदुड़ खाई मैन कसम
तेरा दगडी रौलू सदानी बार बार जनम जनम


रचनाकर :- विजय सिंह बुटोला
दिनांक :- 15-12-2008

Veer Vijay Singh Butola

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प्रिय उत्तराखंडी मित्रो, सादर प्रणाम
मैं यख उत्तराखंड का चार धाम यात्रा का बारा मा एक निबंध लिख्णु छोऊ आप सभी जाणदा छन की हमारा उत्तराखंड मा मई बीटी चार धम यात्रा कु शुभारम्भ ह्वे जांदु, यन पवित्र यात्रा का बार मा मैं अप्नु यू छोटू सी प्रयास आपका सामणी अपनी पहाड़ी भाषा मा प्रस्तुत कर्णु छोउं |
उत्तराखंड के चार धाम (गढ़वाली भाषा में एक निबंध)

चार धाम यात्रा की उत्त्पत्ति का बारा मा यन त कुई निश्चित मान्यता या साक्ष्य उपलब्ध नि च परन्तु चार धाम यात्रा भारत का चार धार्मिक स्थलों कु समूह च येका अंतर्गत भारत की चार दिशाओ का वो सब्भि मंदिर ओऊँदा इ मंदिर छन- पूरी, रामेवश्रम, द्वारका और श्री बद्रीनाथ यू मंदिरों कु निर्माण ८ वीं शताब्दी मां आदि गुरु शंकराचार्य जी न करवाई कें एक सूत्र मा पिरोई थोऊ लेकिन यूँ सभी मंदिरू मा श्रीबद्रिनाथ जी कु अधिक महत्व च येका दगडी उत्तराखंड मा और ३ मंदिर भी छन , जन की श्रीकेदारनाथजी , गंगोत्री जी अऔर् यमनोत्री जी इ सभी मंदिर हिमालय पर स्थित चार दाम का समूह छन यू चारों मंदिरों कु विवरण ये प्रकार सी छ |

श्री बद्रीनाथ मंदिर- यू मंदिर उत्तराखंड का चमोली जिला मा समुद्र तल सी १०२७६ फीट (३१३३ मीटर ) की ऊंचाई पर अलकनंदा नदी का तट पर नर और नारायण पर्वतों का मध्य मा स्थित छा यां मान्यता छ की भगवान् श्री लक्ष्मीनारायण जी याख विराजमान छन देवी लक्ष्मी न भगवान् थीं चाय प्रदान करण का वास्ता याख बेर (बदरी ) वृक्ष कु रूप लीनी थोऊ तब सी इ जगह की नोउ बद्रीनाथ पड़ी जी थोऊ आज जू मंदिर हम लोग देख्दा छन व्येकू निर्माण १८ वी शताब्दी मा गढ़वाल का राजा द्वारा शंकु शैली मा कराइ गयी थोऊ ये मंदिर की ऊंचाई १५ मीटर छ, शिखर पर गुम्बज व यख १५ मूर्तिया छन मंदिर का गर्भ गृह मा विष्णु भगवान् दागडी नर और नारायण ध्यान अवस्था मा विराजमान छन यन मान्यु जंदु की येकू निर्माण वैद्क काल मा हवाई थोऊ परन्तु बाद मा पुनुरुधार शंकराचार्य जी न ८ वी शताब्दी मा करवाई थोऊ मद्निर का तीन भाग छन - गर्भ गृह , दर्शन मंडप और सभा गृह वेदों और ग्रंथो में यन वर्णन छ की ----"स्वर्ग और पृथ्वी पर अनेक पवित्र स्थान छन, लेकिन श्री बद्रीनाथ यूँ सभी मा सर्वोपरि छ

श्री केदारनाथ जी- यू मंदिर उत्तराखंड का चमोली जिला मा समुद्र तल सी 1982 मीटर की ऊंचाई पर मंदाकनी नदी का तट पर भगवान शिव जी का निवास का रूप मा स्थित छा यू मंदिर उत्तराखंड कु सबसे विशाल मंदिरों मा एक छा जू भूरे कटवा पथरो के विशाल शिलाखान्डो को जोड़ कर ६ फुट ऊँचा चबूतरा पर बनायु च ये मंदिर कु निर्माण भी १२-१३ वी शताब्दी मा करवाई गई थोऊ मंदिर का गर्भ गृह मा अर्धा का पास चार स्तंभ छन एक सभा मंडप भी छ एकी छत चार विशाल स्तंभों पर टिकी च यख विभिन्न प्रकार का देवी देवताओ की मूर्ति च मंदिर का पिछाडी पथ्थरो कु ढेर च जैक पीछाडी शंकराचार्य जी की समाधि च श्रद्धालु यख गंगोरती और यम्नोरती बीटी जल लौंदा और श्रीकेदारेश्वर पर जलाभिशेख करदा छन यात्रा कु मार्ग ये प्रकार सी छा ----------हरिद्वार-ऋषिकेश-चम्बा -धरासु -यमनोत्री-उत्तरकाशी-गंगोत्री-त्रियुगिनारायण-गौरिकुंद-केदारनाथ यू मार्ग परम्परात हिन्दू धर्म मा ह्वान वाली पवित्र परिकर्मा का समान छा

श्री गंगोत्री- गंगोत्री उत्तराखंड का उत्तरकाशी जिला मा ९९८० फीट (३१४० मी. ) की ऊंचाई पर भागीरथी नदी का तट पर बस्यु पवित्र देवी मंदिर च जू की हिमालया/उत्तराखंड का चार धामो मा एक धाम छा गंगोत्री मा भागीरथी नदी थै गंगा नाम सी भी जान्यु जंदु पौराणिक कथाओ का अनुसार राजा भागीरथ तपस्या करिकैं गंगा माता थें धरती पर लाई था यख वासुकी ताल, गुग्गल कुण्ड, भीम गुफा, भीम्पुल, सरस्वती उद्गम, भीम्शिला, व चैरव नाथ जी का मंदिर है उत्तराखंड म भैरोनाथ क्षेत्रपाल देवता व भूमि देव के रूप में प्रचलित और महत्वपूर्ण छन गंगोत्री भारत का पवित्र और अध्यात्मिक रूप सि महत्वपूर्ण नदी गंगा कु उद्गम स्थल भी च ई गंगा नदी गौमुख बटी निकल्दी छा यन मान्यु जंदु की १८ वी शताब्दी मा गोरखा कैप्टन अमर सिंह थापा न शंकराचार्य जी का सम्मान मा ये मंदिर कु निर्माण करवाई थोऊ बाद मा राजा माधो सिंह न १९३५ मा ये मंदिर कु पुनुरुधार करवाई थोऊ मंदिर सफेद दुंगो कु बन्यु च ,मंदिर की ऊंचाई २० फीट च मंदिर का नजदीक भागीरथी शिला भी च जै पर बैठी कें राजा भागीरथ ने तपस्या करी थै ये मंदिर मा देवी गंगा का अलावा देवी यमुना ,भगवान् शिव , देवी सरस्वती, अन्नान्पुर्ना और महागौरी की पूजा विशेष रूप सि होदी च

श्री यमनोत्री- यमनोत्री धाम उत्तराखंड का उत्तरकाशी जिला मा पशिचिमी किनारा पर बांदरपूँछ पर्वतमाला ,३२९१ मीटर की ऊंचाई पर स्थित च पौराणिक कथाओ का अनुसार यमुना सूर्य चाग्वान की बेटी थै और यम् उंकू पुत्र थोऊ ये वजह सी ये मंदिर कु नाम यम्य्नोत्री पड़ी यमुना कु उदगम स्थल यमुनोत्री सी एक किलोमीटर अगने ४४२१ मीटर की ऊंचाई पर यमुनोत्री ग्लेशियर पर स्थित च परंपरागत रूप सी यमुनोत्री चार धाम कु पहलू पड़ाव च हनुमान चट्टी सी १३ किलोमीटर उकाल चड़ना का बाद यमुनोत्री धाम औंदु यमुनोत्री मा कई ताता पाणी का कुंद छन, यू सभी कुंडू मा सूर्य कुंद परसिद्ध च श्रद्धालु ये कुंड मा चौळ (चावल) और आलू कपडा मा बंधी कै छोड़ देंदा न , बाद म पक्य्नु भात श्रद्धालु प्रशाद का रूप मा आपण घर ली जांदा सूर्य कुंड का पास मा एक शिला च जैकैं दिव्या शिला का नाम सी जन्यु जंदु ,सभी तीर्थयात्री यमुना जी की पूजा करण सी पैली इ शिला की पूजा करदा छन यमुनोत्री का पुजारी यख पूजा कन खर्सला गौं बाटी अंदा छन यमुनोत्री कु मंदिर नवम्बर सी मई महीना तक ख़राब मौसम का वजह सी बंद रंदु

मिथें पुरु विश्वास च की अपणी पहाड़ी भाषा मा उत्तराखंड का पवित्र तीर्थस्थल का बार मा मेरी यू छोटू सी प्रयास आप थै पसंद आलू यदि ये निबंध मा कुछ आवश्यक जानकारी छुटी गे होली त आप मीथें क्षमा करया

प्रणाम
विजय सिंह बुटोला

Veer Vijay Singh Butola

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मेरु और मेरी जन्मभूमि कु दर्द (गढ़वाली भाषा में कविता)


मन च आज मेरु बोलंण लग्युं जा
घर बौडी जा तौं रौत्याली डंडी कांठियों मा
मेरु मुलुक जग्वाल करणु होलू
कुजणी कब मैं वख जौलू कब तक मन कें मनौलू
अपणा प्राणों से भी प्रिय छ हम्कैं ई धारा
किलै छोड़ी हमुन वु धरती किलै दिनी बिसरा
इं मिट्टी माँ लीनी जन्म यखी पाई हमुन जवानी
खाई-पीनी खेली मेली जख करी दे हमुन वु विराणी
हमारा लोई में अभी भी च बसी सुगंध इं मिट्टी की
छ हमारी पछाण यखी न मन माँ राणी चैन्दि सबुकी
देखुदु छौं मैं जब बांजा पुंगडा ढल्दा कुडा अर मकान
खाड़ जम्युं छ चौक माँ, कन बनी ग्ये हम सब अंजान
याद ओउन्दी अब मैकि अब वु पुराणा गुजरया दिन
कन रंदी छाई चैल पैल हर्ची ग्यैन वु अब कखि नी छिंन

याद बौत औंदन वू प्यारा दिन जब होदू थौं

काली चाय मा गुडु कु ठुंगार
पूषा का मैना चुला मा बांजा का अंगार
कोदा की रोटी पयाजा कु साग
बोडा कु हुक्का अर तार वाली साज
चैता का काफल भादों की मुंगरी
जेठा की रोपणी अर टिहरी की सिंगोरी
पुषों कु घाम अषाढ़ मा पाक्या आम
हिमाला कु हिंवाल जख छन पवित्र चार धाम
असुज का मैना की धन की कटाई
बैसाख का मैना पूंगाडो मा जुताई
बल्दू का खंकार गौडियो कु राम्णु
घट मा जैकर रात भरी जगाणु
डाँडो मा बाँझ-बुरांश अर गाडियों घुन्ग्याट
डाँडियों कु बथऔं गाड--गदरो कु सुन्सेयाट
सौंण भादो की बरखा, बस्काल की कुरेडी
घी-दूध की परोठी अर छांच की परेडी
हिमालय का हिवाँल कतिकै की बगवाल
भैजी छ कश्मीर का बॉर्डर बौजी रंदी जग्वाल
चैता का मैना का कौथिग और मेला
बेडू- तिम्लौ कु चोप अर टेंटी कु मेला
ब्योऊ मा कु हुडदंग दगड़यो कु संग
मस्क्बजा की बीन दगडा मा रणसिंग
दासा कु ढोल दमइया कु दमोऊ
कन भालू लगदु मेरु रंगीलो गढ़वाल-छबीलो कुमोऊ
बुलाणी च डांडी कांठी मन मा उठी ग्ये उलार
आवा अपणु मुलुक छ बुलौणु हवे जावा तुम भी तैयार

रचियेता: विजय सिंह बुटोला
25-10-2008

Veer Vijay Singh Butola

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प्रिय मित्रो, सादर नमस्कार,
प्रस्तुत हास्य कविता मैंने उत्तरांचल में आज कल प्रचलित एक दिवसीय विवाह के होने के बारे में लिखी है

एक दिन की बारात कु हाल (गढ़वाली भाषा में कविता )


एक बार दगडियो
मैके भी दिन दिन की बारात माँ जाणा कु मौका मिली
चल दगडियो का संग मन प्रसन्न मुखुडी को रंग तब खिली

झटपट हवे गे वरनारायण तैयार
पैरी वें सूट बूट आर टांगी कमर माँ तलवार

सड़की माँ गाड़ी थाई खड़ी मारनी छाई होरण
ढोल दमौं मसकबिन संग बाजणा था रणसिंघा-तोरण

बारात पहुची सड़की माँ सबुन अपनी सीट खुजाई
वरनारायण कु मामा आर दही की परोठी घर छुटी गयाई

चली ग्ये बारात डांडी-कंठियो माँ होण च गाड़ी कु सुन्स्याट
सभी पौणा बन्या चन दारू माँ रंग मस्त करना चन खिक्लीयाट

बारात ज़रा रुकी बीच बाजार
दरौल्या पहुची ठेका माँ रुपया लेकी हजार

चल पड़ी गाड़ी कुई छुटी गे होटल माँ कुई छुटी धार पोर
दरोलिया दिदो कु त छोऊ बस बोतली पर शोर

बारात पहुची चौक माँ होण लगी गे स्वागत
कुई बैठी कुर्शी माँ कुई बैठी दरी माँ अर कुई बैठी छत

जवान छोरा खोजना छन, गलेर नौनी कुजणी कख हर्ची गे
बोलना छन की अब नि राये वू रंगत जू पैली छाई

बैठी पौणा पंगत माँ खाई उन काचू भात
दाल माँ लोण भिन्डी ह्व्वे गे अब बोन क्या बात

कखी नि मिली पानी कखी नि मिली सौंफ-मिश्री
हे हिमाला की हव्वे यु हम सब संस्कार बिसरी

बामण दीदा न पढ़ी सटासट अपना मंत्र
ब्यौला का कंदुड़ माँ वैन बोली तब यन्त्र

फेरा फेरी सरासर ब्यौली च रेस लगाणी
ब्यौला दीदा पिछने रेगे, ब्यौली नी छौंपी जाणी

पैटी बारात ब्यौली अब नी जयादा रोंदी दिखेंदी
डोला माँ बैठी जे ब्यौली बव्वे बुबा सबी मनौंदी

यन राइ दिदो मेरु एक दिनी की बारात कु हाल
सब कुछ सरासर हौंदु यख यनु बणी गे कुमॉऊ-गढ़वाल


रचियेता: विजय सिंह बुटोला
दिनांक 16-10-2008

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Wah Butola ji wah. Kya baat hai chhaa gaye aap.

Veer Vijay Singh Butola

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अनुभव भाई नमस्कार,
मेरी कविताओ की सराहना हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद , बस अपनी कुछ कविताये यहाँ पर डाली है अपने मेरा पहाड़ के मित्रो के लिए | भविष्य में भी कुछ और रचनाओ को यहाँ पर डालूँगा |
प्रणाम,

हेम पन्त

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बुटोला जी अपनी दुदबोलि गढवाली में लिखे गये लेख व कविता पढकर बहुत अच्छा लगा.... हास्यरस की कविताओं में भी गंभीर बातें मन को छू गयी... भाषा समझने में भी कोई दिक्कत नही आयी... कुछ और रचनाओं का इन्तजार रहेगा... धन्यवाद

Veer Vijay Singh Butola

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बुटोला जी अपनी दुदबोलि गढवाली में लिखे गये लेख व कविता पढकर बहुत अच्छा लगा.... हास्यरस की कविताओं में भी गंभीर बातें मन को छू गयी... भाषा समझने में भी कोई दिक्कत नही आयी... कुछ और रचनाओं का इन्तजार रहेगा... धन्यवाद


Thanks Hem da for your kind love and appreciation. Soon I will share more articals and poems with Mera Pahad fourm.

Veer Vijay Singh Butola

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है धरा तुम्हे पुकार रही .......
« Reply #8 on: March 16, 2009, 04:51:15 PM »
प्रिय मित्रो,

मैंने एक कविता की रचना की है, जिसमे मैंने अपने मन की व्यथा को पहाड़ से हमारे पलायन के प्रभाव के रूप में प्रस्तुत किया है | आशा है आप को पसंद आयेगी ?

प्रस्तुत है मेरी कविता जिसका शीर्षक है ---------------है धरा तुम्हे पुकार रही |



है धरा पुकार रही

जन्मभूमि निरंतर तुम्हे तुम्हारी है रही पुकार
सूने पड़े है खेत-खलिहान खाली  है गौं-गुठियार


हैं निर्जन वो गलियाँ जंहा पथिको की थी कभी भरमार
राहें जाग रही है बाट जोहे, है उन्हें पदचिन्हों का इंतजार


गिने चुने जन ही शेष है, सन्नाटा पसरा हुआ है चहूँ और
ताक रही है धरती ऐसे मानो  जैसे रुग्ण व्यक्ति ताके भोर


अविरल बहते नदी-नाले भी मुड़ गए अनजान राहों पर
जंगल-पहाड़ भी मौन खड़े है, देखो आँखे उनकी भी हैं तर


खेतों-खलिहानों में अब बाँझपन कर चूका है घर
ये भीगापन वक्षो पर नमी नहीं है, है ये अशरुओ से तर-तर


फूलो ने भी महकना छोड़ा साथ ही फलों के वृक्ष भी हुए बाँझ
ये धरती भी करती है प्रतीक्षा तुम्हारे आने की प्रात: हो या साँझ


घुघूती भी अब नहीं बासती आम की डालियों पर
कलरव छोड़ा चिडियों ने जैसे ग्रहण लगा हो इस धरा पर


जंगल और पहाड़ की आँखे लगी है उन राहों पर
घसेरियां जहा खुदेड़ गीत लगा याद करती थी अपना प्रियवर


चैत महीने के कोथिगो व् मेलों की न रही वो पहिचान
धुल-धूसरित हुई संस्कृति खो गया कही लोककला का मान


काफल-बुरांस के पेड़ अब लाली फैलाते नहीं हो रहे प्रतीत
सोचो तो जरा कभी, क्योँ बिसराया हमने पहाड़, क्यों छोड़ी वो प्रीत


हे शैलपुत्रो बुला रही है ये धरती तुम्हे, आओ करो इसका पुन: श्रंगार
चार दिन के इस जीवन में कभी तो समय निकालो, दो इसको अपना प्यार


ये जन्मभूमि हमारी माता है इसका हमसे अटूट नाता है
बिसरे तुम उसे जो तुम्हे बरबस बुलाये क्या ये तुमको भाता है ?


जगा इच्छाशक्ति, आओ लौट चले इसकी जीवनदायिनी गोद में यही तो हमारी माता है
ले संकल्प करो सृजन इस धरा का अब कर्ज चुकाने का समय शुरू हो जाता है


Written By: Vijay Singh Butola

पंकज सिंह महर

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हे शैलपुत्रो बुला रही है ये धरती तुम्हे, आओ करो इसका पुन: श्रंगार
चार दिन के इस जीवन में कभी तो समय निकालो, दो इसको अपना प्यार


ये जन्मभूमि हमारी माता है इसका हमसे अटूट नाता है
बिसरे तुम उसे जो तुम्हे बरबस बुलाये क्या ये तुमको भाता है ?


जगा इच्छाशक्ति, आओ लौट चले इसकी जीवनदायिनी गोद में यही तो हमारी माता है
ले संकल्प करो सृजन इस धरा का अब कर्ज चुकाने का समय शुरू हो जाता है

बहुत अच्छे बुटोला जी, मर्मस्पर्शी कविता है....जो दिल की गहराई में उतर गई।

 

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