Mera Pahad > MeraPahad/Apna Uttarakhand: An introduction - मेरा पहाड़/अपना उत्तराखण्ड : एक परिचय
Save Himalaya, Inhabited himalaya Compaign By MeraPahad
हेम पन्त:
2 जुलाई 2010 को "हिमालय बचाओ, हिमालय बसाओ" आन्दोलन के पर्वर्तक स्व. श्री ऋषि बल्लभ सुन्दरियाल जी के गांब चौबट्टाखाल, जिला पौड़ी में आयोजित कार्यक्रम
हेम पन्त:
"हिमालय बचाओ, हिमालय बसाओ" अभियान के तहत उत्तराखण्ड की दिवंगत विभूतियों के पोस्टर भी प्रकाशित कराये जा रहे हैं. इसी श्रंखला में प्रकाशित ऋषिबल्लभ सुन्दरियाल जी का पोस्टर
पंकज सिंह महर:
हिमालय दिवस: पर्वत को बचाने की एक मुहिम-दिनेश पाठक
बर्फ के घर यानी हिमालय को बचाने की पहल उत्तराखंड की धरती से शुरू हो रही है। सभी को लगने लगा है कि इस पर्वत श्रृंखला की रक्षा अब बेहद जरूरी है। अब भी न जागे तो देर हो जाएगी। हिमालय के खतरे में पड़ने का मतलब पर्यावरण के साथ ही कई संस्कृतियों का खतरे में पड़ना है।
संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर बने अन्तरराष्ट्रीय पैनल की तीन साल पहले आई रिपोर्ट में जब इस बात का खुलासा किया गया था कि हिमालय के ग्लेशियर 2035 तक पिघल कर समाप्त हो जाएँगे, तब ग्लोबल वार्मिग से जोड़कर पूरी दुनिया के विज्ञानी चिंता में डूब गए थे। बाद में यह मामला हल्का पड़ा, लेकिन इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि ग्लेशियर पिघलने की गति तेज हुई है। उत्तराखंड सरकार ने कई वर्ष पहले जलनीति के ड्राफ्ट में स्वीकार किया है कि राज्य में स्थित 238 ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ रहे हैं। इन्हीं से गंगा, यमुना और काली जैसी नदियाँ निकलती हैं।
इस सूरत में हिमालय दिवस के बहाने इस मुहिम को परवान चढ़ाने वालों की सोच है कि हिमालय की रक्षा तभी होगी जब उसकी गोद में रचे-बसे करोड़ों लोग वहीं रहेंगे। बीते कुछ वर्षो से पलायन की जो गति है, उसने इस चिंता को और बढ़ाया है। अगर पलायन की गति यूं ही बनी रही तो कंकड़-पत्थर का पहाड़ रहकर भी क्या करेगा। यह मानने में किसी को एतराज नहीं होना चाहिए कि सुदूर पहाड़ों में कोई बड़ा कारखाना नहीं लग सकता। इस सूरत में हमें पहाड़ के बाशिंदों को रोकना आसान नहीं होगा। वे तभी रुकेंगे जब उनके लिए आजीविका के ठोस इंतजाम किए जाएँगे। अभी पहाड़ों पर जो भी सामान बिक रहा है, सब नीचे से जा रहा है। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि पहाड़ में पैदा होने वाले अन्न और वन उपजों से वहीं रोजगार के अवसर पैदा किए जाएँ।
बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री जैसे प्रमुख मंदिरों में स्थानीय उत्पादों से बने प्रसाद क्यों नहीं चढ़ाए जाएँ। हेस्को के कर्ताधर्ता अनिल जोशी की मदद से वैष्णो देवी मंदिर में मक्के का लड्डू चढ़ने की शुरुआत हुई तो मंदिर की गोद में बसे गाँव परथल की आर्थिक स्थिति सुधर गई। मुहिम से जुड़े लोगों का प्रबल मत है कि छोटी-छोटी तकनीक के सहारे स्थानीय लोगों को पहाड़ में ही रोजगार से जोड़ा जा सकता है। हिमालय से निकलने वाली नदियों का कर्ज मैदान के लोग भी नहीं उतार सकते, क्योंकि जल में जाने वाले हिमालयी तत्व मैदानी किसानों के खेतों को उपजाऊ बनाते हैं। नदियों के कारण ही इनके किनारों पर बसने वाले गाँवों-शहरों की अपनी संस्कृति है। देश के बड़े हिस्से को पीने का पानी हमारी यही नदियाँ दे रही हैं। वर्षा चक्र के निर्माण में भी हिमालय के योगदान को नकारना नादानी होगी।
ग्लेशियरों के पिघलने की गति देखकर ही पर्यावरणविद कहने लगे हैं कि वह दिन दूर नहीं जब हमें पानी की तरह बहाने के बजाय पानी की तरह बचाने का मुहावरा अपनाना होगा। यह मानने में किसी को एतराज नहीं कि अब जल, जंगल, जमीन और खनिज को बचाए बिना कुछ हो नहीं सकता। इसके लिए एक नए आंदोलन की जरूरत है। विकास की अंधी दौड़ में बीते कई दशकों में हिमालयी पर्यावरण, लोक-जीवन, वन्य जीवन और मानवीय बन्दोबस्तों को भारी नुकसान पहुँचाया है। दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। झरने सूख गए। नदियों में पानी कम हो गया। अकेले उत्तराखंड में तीन सौ से ऊपर बिजली परियोजनाएँ प्रस्तावित हैं। हालाँकि, गंगा पर बनने वाली तीन बड़ी परियोजनाएँ लोहारीनाग पाला, मनेरी-भाली और भैरोंघाटी का निर्माण सरकार रद्द कर चुकी है, लेकिन अभी भी बड़ी-बड़ी सुरंगें अन्य परियोजनाओं के लिए बन रही हैं। नेपाल और भारत में पानी की अधिकतर आपूर्ति हिमालय से ही होती है। पेयजल और कृषि के अलावा पनबिजली के उत्पादन में भी हिमालय की भूमिका को कोई नकार नहीं सकता। बेशकीमती वनौषधियाँ यहाँ हैं। यह भारत की विदेशी हमलों से रक्षा भी करता आ रहा है, लेकिन अब इस हिमालय को ही रक्षा की जरूरत है।
कुमाऊं शरदोत्सव समिति की ओर से प्रकाशित शरद नन्दा में प्रो. शेखर पाठक लिखते हैं- हिमालय फिर भी बचा और बना रहेगा। हम सबको कुछ न कुछ देता रहेगा। मनुष्य दरअसल अपने को बचाने के बहाने हिमालय की बात कर रहा है, क्योंकि हिमालय पर चहुँओर चढ़ाई हो रही है। उसके संसाधन जिस गति से लूटे जा रहे हैं, उस गति से पुर्नसस्थापित नहीं किए जा सकते। दरअसल हिमालय एक ऐसा पिता है, जो अपनी बिगड़ैल संतान को डाँट नहीं सकता और एक ऐसी माँ जो उन पर शक नहीं कर पाती।
लेखक हिंदुस्तान, देहरादून के स्थानीय संपादक हैं
साभार-http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/57-62-136441.html
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
अगर धरती को बचाए रखना है तो हिमलाय को बचाना अति जरुरी है! हिमालय न केवल हमारे लिए पानी का क्ष्रोत है बल्कि देश के पहरी भी है!
शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और प्रकर्ति की सुन्दरता में चार चाँद लगाने वाले हिमालय ही है!
हम शपथ लेना चाहिए हिमालय को बचना का हर प्रयास करना चाहिए !
dayal pandey/ दयाल पाण्डे:
कल ९ सितम्बर को दिल्ली के गाँधी पीस foundation के सभागार में मेरा पहाड़ (म्योर पहाड़) की अगवाई में बिभिन्न संगठनों ने मिलकर हिमालय दिवस मनाया, और हिमालय के बचाने तथा बसाने पर चिंतन किया इसमें देश विदेश के जाने माने हस्तियों ने भाग लिया इसमें पर्यवारंविद श्री सुंदर लाल बहुगुणा, डॉ कर्ण सिंह, आदरनीय राधा बहिन, सांसद प्रदीप टम्टा, सिक्किम के सांसद श्री रॉय, श्री अनिल जोशी, श्री चारू तिवारी जी, युवा बिधायक पुष्पेश त्रिपाठी, U K D सुप्रीमो श्री कशी सिंह ऐरी सहित कई बुद्धिजीवी मौजूद थे गोष्टी में जनकवि गिर्दा को भी उनके जन्मदिन पर याद किया गया जिसमें श्री चन्द्र सिंह रही जी ने उनकी रचना " सुनो सुनो उत्तराखंडी आज हिमाला तुमुकैं धत्युछा" सुनाया, इस मौके पर क्रेअटिव उत्तराखंड म्योर पहाड़ ने चिपको आन्दोलन से समन्धित पेड़ बचाओ पर एक प्रदर्शनी भी लगाई. जल्दी ही फोटो भी रिलीज़ कर रहा हू.
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