पहली बात तो यह है कि सरकारों को यह समझना चाहिये कि वह शासन करने या राज-काज चलाने के लिये नहीं, बल्कि लोकतंत्रात्मक तरीके से जनता की सेवा के लिये चुनी गई है, जनता के ही द्वारा और जनता के ही हाथ में वह चाभी भी है, जिसने आपको सत्ता पर बिठाया है और वही चाभी से वह आपको सत्ताच्युत भी कर सकती है।
१- गूलरभोज में ८० के दशक में लोगों को जमीने बांटी गई, प्रधानमंत्री जी के आदेशों पर, बांटी किसने स्थानीय प्रशासन ने, उन्होंने बिना वन विभाग से जमीन मुक्त कराये बिना कैसे कब्जा दे दिया?
२- अगर सीधे प्रधानमंत्री के आदेशॊं के क्रम में यह कार्यवाही हुई थी, तो क्या प्रशासन का जिम्मा यह नहीं था कि वह इस भूमि को नियमित कराने का प्रयास करे। यह उसका दायित्व और कर्तव्य था, जिस्का अनुपालन उसने नहीं किया। इसमें लापरवाही और गलती स्थानीय प्रशासन की है।
३- मा० उच्च न्यायालय ने इस पक्ष पर विचार यदि नहीं किया गया हो तो पीड़ित पक्ष की ओर से मा० उच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर करनी चाहिये या इस फैसले के खिलाफ मा० उच्चतम न्यायालय में जाना चाहिये।
४- राज्य सरकार का ही रोल अब बहुत महत्वपूर्ण है कि कानूनी तौर पर जमीन के कब्जेदार न होने से बेघर होते राज्य के निवासियों के लिये वह क्या कदम उठायेगी। सरकार को चाहिये कि इन कब्जेदारों ( जो कि इस राज्य के निवासी हैं) की पैरोकारी वह न्यायालय में करे और अपने प्रशासन की गलती स्वीकारते हुये अपनी गलती को सुधारते हुये, इन सभी के कब्जे वाली भूमि को नियमित करने की पहल करे।
५- आज ही अखबार में पढ़ा कि इस भूमि पर ३० साल से रह रहे एक बुजुर्ग अपना घर उजड़ता नहीं देख पाये और हृदयाघात से उनकी म्रुत्यु हो गई। आखिर यह कैसी जूं है, जो इस सरकार के कान पर नहीं रेंग रही।
सरकार जनता के मां की तरह होती है..........कहावत है कि जब तक बच्चा रोता नहीं मां भी दूध नहीं पिलाती। लेकिन यहां तो बच्चा कब से रोया पड़ा है और अब तो लोग उसे मारने पीटने और धमकाने भी लगे हैं, लेकिन मां है कि लिपिस्टिक-लाली लगाये, फोटो खिंचवाये पड़ी है और अखबारों में मुस्कुराती फोटो छपवा अच्छी मां होने का ढोंग किये पड़ी है।