Uttarakhand Updates > Anti Corruption Board Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ आम आदमी की मुहिम

Uttarakhand got 6800 Cr Annual Plan Frm Planning Commission-But where it goes ?

<< < (2/3) > >>

सत्यदेव सिंह नेगी:

Bhopal Singh Mehta:

दाल में काला जरुर है

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

अगर यह पैसा अच्छी तरह से कही इतेमाल होता to दिखता!

आप लोगो ने आपने-२ गावो में आजकल सीमेंट से बने रास्ते देखे होंगे और कभी देखा कि सीमेंट कि मात्रा कितनी रही होगी इन रास्तो पर!

भ्रष्टाचार कही ना कही हावी है पहाड़ के विकास पर!

पर कौन बिल्ली के गले पर घंटी बाधेगा

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:


जनता को योजना आयोग से मिलाने वाले इस पैसे के खर्चे के में जानने का हक़ है! अगर यही पैसा सही दिशा में विकास के कार्यो में लगाया जाय तो वहां विकास कार्य जरुर नजर आयेंगे!

इस विषय पर चारू के जनपक्ष मगज़ीन में लिखे लेख " इस बार और ठग आये निशंक जी" में बहुत अच्छा ब्यौरा दिया है! जब उत्तराखंड अविभाजित उत्तर प्रदेश में था, तब पहाड़ी हिस्से के लिए ६०० से १००० करोड़ रूपये मिलते थे जो की अब ६८०० करोड़ हो चूका है ! विकास आप देख सकते है !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Special Report by Charu Tiwari Ji

धन्य हैं निशंकजी! इस बार ज्यादा ठग लाये

योजना   आयोग ने उत्तराखण्ड की वर्ष 2010-11 के लिये 6800 करोड़ की मंजूरी दी है।   यह राशि पिछले वर्ष की तुलना में 1225.50 करोड़ रुपये अधिक है। इस परिव्यय   का 33.18 प्रतिशत भाग सामाजिक सेवाओं एवं समाज कल्याण के लिये, 29.16   प्रतिशत भौतिक संरचना, 23.12 प्रतिशत सामान्य सेवाओं, 7.5 प्रतिशत कृषि एवं   संबद्ध क्षेत्रों और 7.33 प्रतिशत गzामीण विकास के लिये रखा गया है। योजना   आयोग राज्यों के लिये प्रतिवर्ष इन परिव्ययों की घोषणा करता है। राज्य के   मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ने इस योजना के लिये 360 करोड़ रुपये की अतिरिक्त   सहायता की मांग की थी। उन्होंने केन्दzीय सहायता प्राप्त योजनाओं के लिये   90 और 10 के अनुपात में केन्दzीय सहायता का आगzह किया। मुख्यमंत्री ने   राज्य को गzीन बोनस के तौर पर पांच हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त देने की मांग   भी की। इसके अलावा विशेष औद्योगिक पैकेज को 2020 तक बढ़ाने की जरूरत और   पेयजल पंपिंंग योजनाओं के लिये 500 करोड़ रुपये की विशेष केन्दzीय सहायता   अलग से दिये जाने का अनुरोध किया। फिलहाल योजना आयोग ने इस वर्ष के परिव्यय   के लिये 1225.50 करोड़ की स्वीकृति दे दी। लगे हाथ भाजपा के नेताओं ने हवाई   अड~डे पर ज्यादा पैसा लाने पर अपने मुख्यमंत्री का स्वागत भी कर डाला। यह   हमेशा होता आया है, क्योंकि पार्टी के लोगों को न योजना के आकार के बढ़ने के   बारे में कोई तकनीकी जानकारी होती है और न विकास पर खर्च होने पैसे के   बारे में समझ। वे प्रतिवर्ष बढ़ने वाले योजना परिव्यय को अपने नेताओं की   उपलब्धि मान लेते हैंं। राज्य बनने बाद योजनागत परिव्यय का आकार बढ़ता रहा   है। अविभाजित उत्तर प्रदेश में पर्वतीय क्षेत्रों के लिये यह 650 करोड़   रुपये था। राज्य बनने के बाद यह राशि 1000 करोड़ से लेकर 6800 करोड़ तक बढ़   चुकी है।
 प्रतिवर्ष योजनाओं के आंकड़ों का खेल उत्तराखण्ड सरकार के लिये   सुरक्षा कवच का काम करते हैं, इससे सरकार को अपनी विफलताओं को आंकड़ों में   उलझाने का मौका मिल जाता है। यह जनविरोधी सरकारों के लिये बहुत जरूरी होता   है। राज्यों के लिये योजना आयोग से मंजूर की जाने वाली योजना राशि सरकारी   व्यवस्था की एक सामान्य प्रकिzया है। राज्य के विकास एव मूलभूत जरूरतों के   लिये दी जाने वाली इस राशि में थोड़ा ‘बाग्zिनिंग’ और राजनीतिक ‘एप्रोज से   बढ़ाया जा सकता है। इसमें पूर्व मुख्यमंत्राी नारायण दत्त तिवारी को महारथ   हासिल था। वे उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्राी, केन्दz में मंत्राी और   योजना आयोग के उपाध्यक्ष रह चुके थे। जब तक वे मुख्यमंत्राी रहे योजना का   आकार बढ़ता गया। इसी घौंस के चलते कई बार उनके समर्थक उन्हें योग्य और बड़ा   नेता मानने की गलतफहमियां पालते रहे। ऐसा ही अक मौजूदा मुख्यमंखी निशंक के   समर्थक समझ रहे हैं। दरअसल ऐसा होता नहीं है कि किसी तिवारी या निशंक की   चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर केन्दz अपनी थैली का मुह खोल दे, लेकिन जब योजना   राशि मंजूरी का समय आता है तो सत्तारूढ़ सरकारें और उनकी पार्टी इसे अपन   उपलब्ध्यिों के रूप में शामिल कर लेती हैं।
 राज्य के पक्ष और विपक्ष के   नेता राज्य बनने के बाद लगातार विशेष पैकेज की बात करते रहे हैं। उनकी इस   मांग से लगता है कि पैकेज मिलते ही पहाड़ के विकास का नक्शा बदल जायेगा और   यहां की सारी समस्यायें खुद-ब-खुद हल हो जायेंगी। इन नौ सालों में   भाजपा-कांगेस की बारी-बारी से सरकारें आया हैं। अब तो भाजपा के साथ वह   क्षेत्राीय राजनीतिक पार्टी उकzांद भी है जो अपने संसाधनों से ही राज्य का   नक्शा बदलने का दम भरती थी। कई योग्य मुख्यमंत्राी आये। विशेषकर नारायण   दत्त तिवारी और निशंक को तो प्रचार भी खूब मिलता है कि अगर वे नहीं हाते तो   पहाड़ भी नहीं होता। इन दोनों के समय में योजना के आकार में भारी वृद्धि   हुयी है, लेकिन विकास का पहिया वहीं रुका है जहां से बात शुरू हुयी थी।   योजना आयोग से अधिक पैसा मिलना विकास की गारंटी नहीं होती। विकास   प्राथमिकतायें और संसाधनों के सही उपयोग पर निर्भर करता है। दुर्भाग्य से   उत्तराखण्ड में विकास की प्राथमिकतायें पहले तो तय नहीं है, यदि हैं भी तो   उसके सही उपयोग और कार्य संस्कृति के अभाव में वह एक वर्ग विशेष की पोषक बन   गयी हैं।
 इस योजना पर व्यय होने वाली राशि का भी वही होना है जो पिछली   योजना राशियों का हुआ। इस याजना में भी वही घिसी-पिटी और थका देने वाली   योजनाओं पर जोर दिया गया है, जिससे न तो जनता को प्रत्यक्ष रूप से कोई लाभ   मिल पाता है और न विकास का कोई चमत्कार।  हां यह योजनायें सरकारी आंकड़ों मे   वृद्धि अवश्य करते हैं। इन योजनाओं के नाम पर जो बंदरबांट और विकास का   दिवास्वप्न जनता को दिखाया जाता रहा है, उससे जनता पहले ही त्रस्त है।   राज्य बनने के बाद से उर्जा प्रदेश का राग अलापने वाली सरकारें अभी तक   गांवों में बिजली नहीं पहुंचा पायी है। जहां पहुंची भी है तो वहां घंटों की   कटौती ने परेशान किया है। असल में जिस तरह स्वयंसेवी संस्थायें समस्याओं   का हैव्वा खड़ा कर पैसा र्ऐठती हैं वही चरित्र सरकारों का भी है। विकास के   नाम पर ठगी और जनता को गुमराह कर पैसे का अपव्यय।
 राज्य में जहां तक   जनता की मूलभूत समस्याओं के समाधान का सवाल है, इस एक दशक में सरकारों ने   इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी है। सरकारी अस्पतालों की हालत   दिन-प्रति-दिन बिगड़ती जा रही है। उसकी जगह पर एनजीओं को लाभ पहुंचाने के   लिये 108 सेवा शुरू कर स्वास्थ्य के ढ़ाचागत स्वरूप को खत्म कर इसे निजी   हाथो में सौंपने की जमीन तैयार की जा रही है। सरकार निजी चिकित्सालयों और   मेडिकल कालेजों को प्रात्ेत्साहन दे रही है। सुना है कि अब शिक्षा भी   मोबाइल स्कूलों के माध्यम से दी जायेगी। इसका सीधा अर्थ है सरकारी   व्यवस्थाओं को नकारा साबित कर निजी क्षेत्र के लिये रास्ता खोलना।   कल्याणकारी योजनाओं पर सबसे ज्यादा खर्च इसलिये दिखाया जाता है ताकि एनजीओ   को पोषित किया जाय। राष्टीय समाचार पत्राों में हर वर्ष मुख्यमंत्राी का   योजना आयोग के उपाध्यक्ष के साथ भेट और उन्हें गुलदस्ता भेट करना सत्तारूढ़   पार्टियों को भले ही सकून देता हो, लेकिन राज्य में पसरी वित्तीय   अनियमिततायें जनता को मुंह चिढ़ा रही हैं। योजना मदों की प्राथमिकताओं की   बात इसलिये जरूरी है क्योंकि राज्य बनने स पहले भी यहां पर्वतीय विकास मद   से मिलने वाली राशि पर नहीं उसके खर्च करने के तरीके पर असंतोष था। पर्वतीय   विकास मद में मिलने वाले 650 करोड रुपये की जो बंदरबांट होती थी, उससे   पहाड़ का विकास तो नहीं हो पाया नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों की जेबें मजबूत   हुयी। कमोवेश राज्य बनने के इन सालों में भी स्थिति वही है। शुरुआत में   भाजपा की नौसिखया और पूर्वागzही अंतरिम सरकार ने शिशु मंदिरों के पोषण को   विकास मान लिया और बाद में कांगzेस ने विकास का जो नया चरित्र ईजाद किया वह   सबके सामने आया। सुविधाभोगी राजनीति को आगे बढ़ाते हुये राज्य में संसाधनों   की लूट जारी है। निशंक जी धन्य हैं, इस ज्यादा ठग लाये।

Navigation

[0] Message Index

[#] Next page

[*] Previous page

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 
Go to full version