गुमोद परिक्रमाः गाँव की फ्लाॅपी: षहरी कप्यूटर
गुमोद परिक्रमा के किसी अंक कहा गया था कि यह परिक्रमा अकेले उत्तरांचल के चंपावत जिले के गुमोद गाँव की नहीं है। सारे देष के गाँवों की है। पिछले अंक में तो यहाँ तक कहा गया था कि मषीनीकरण का ई प्रबंधन गाँव के समीकरण बिगाड़ तो सकता है पर विकास नहीं ला सकता क्योंकि भगवान गोटियाँ नहीं खेल रहा है। उसका प्रबंधन ई नहीें है। उसका प्रबंधन आइ प्रबंधन है। गीता में कहा गया है कि जब जब धर्म को नुक्सान पहुंचता है तो मैं सामने आ जाता हूँ ताकि धर्म को बचाया जा सके। मैं को अंग्रेजी में आइ कहा जाता है। पर जब ट्नौर्ड ने आइ प्रबंधन की चर्चा की यह बात ध्यान मे नहीं थी। पर बात जब सही होती है तो नीचे से वैसे ही दिखाई देती है जैसे ऊपर से। एक तरफ से वैसे ही दिखाई देती है जैसे दूसरी तरफ से। याने सब तरफ से एक सी ही दिखाई देती है। गुमोद परिक्रमा ड्राइवरों का अखबार है। ड्राइवर और मषीन का साथ अटूट है। ड्राइवर मषीन नहीं है और न गाड़ी आदमी है। गाड़ियों का तो विकास हो रहा है पर ड्राइवर का नहीं। वह तो आदमी है। उसे तो भगवान ने बनाया है। विकास भी वही करेगा। आज तो मषीन आदमी को नचा रही है। भगवान हँस रहा है। उत्तरांचल में मषीनों के ग़ुलाम पंचायतों तक जा पहुँचे हैं। मयूर विहार दिल्ली स्थित सरदार अमरीक सिंह की समाचार टैक्सी सर्विस के ड्राइवर जानते हैं कि ट्नौर्ड उत्तरांचल में लेंस उद्योग स्थापित करने के लिए प्रयत्नषील है और इस दिषा में उसे उत्तरांचल के सांसद,पूर्व सांसद, एवं सभी संबंधित पक्षों का सहयोग मिल रहा है। गंभीर कठिनाइयाँ आती रहीं हैं और उन्हें इन लोगों के सहयोग से दूर किया जाता रहा है। समय समय पर ट्रनौर्ड उत्तरांचल के सांसद, पूर्व सांसद, एवं संबंधित पक्षों को ट्रनौर्ड की गतिविधियों से अवगत कराया जाता रहा है । इनके द्वारा यह संकेत दिया गया है कि विकास प्रक्रिया सही दिषा में किए गये बदलावों का दूसरा नाम है। प्रषासनिक ठहराव देष की व्यवस्था को अल्पकालीन स्थायित्व तो दे सकता है पर इस प्रक्रिया से विकास नहीं लाया जा सकता । विकास और बदलाव का चोली दामन का साथ है। बगैर बदलाव के विकास हो ही नहीं सकता । जो प्रषासन लकीर का फ़कीर होता है, यह निष्चित है कि वह विकास की प्रक्रिया को रोकेगा ही। दूसरी ओर जो प्रषासन लकीर का फ़कीर नहीं होता वह बहक सकता है। भटक सकता है । वही प्रषासन विकास ला सकता है जो कि तर्क सं्रगत हो और विज्ञान की आधारषिला पर खड़ा हो।
कभी गद्दी को काँटों का ताज माना जाता था। पर तब गद्दी एक ही होती थी। प्राइवेट बिजनेस में आज भी वही बात है। फट्टे पर सरदार अमरीक सिंह का राज है। सरदार गुरदीप सिंह उनके रिस्तेदार हैं। राय तो दे सकते हैं पर आखिर में वही होगा जो सरदार अमरीक सिंह को ठीक लगेगा। अमनप्रीत जी उनके रिस्तेदार हैं।गुरप्रीतजी भी उनके रिस्तेदार हैं। और रिस्तेदार भी आते जाते रहते हैं। मजाल है कि कोई उनके फैसले के खिलाफ़ जा सके। ड्राइवर हैं तो ड्राइवर ही रहेंगे। काँटों के बीच पले बढ़े हैं। काँटों का ही ताज बनता । पर उनके पुत्र हरजीत जी तो काँटों के बीच पले बढ़े नहीं हैं। वह क्यों न उसी हवा में रहें जिसमें वह पले बढ़े हैं। वह हरजीत जी को इतना पढ़ाना चाहते हैं जितना पढ़ाया जा सकता है। कमाल है प्राइवेट वाला सरकारी गद्दी पर बैठना चाहता है। चैन की गद्दी हैै। पता नहीं मिलती है या नहीं। अब तो कम्पनियाँ बहुत अच्छा वेतन दे रही हंै। काम तो करना पड़ता है पर ताज नहीं पहनना पड़ता। पर ड्राइवरों की दुनिया तो कुछ और ही है। कहाँ की गद्दी कहाँ का चैन। देवदत्त जी को नौकरी चाहिए। बहुत दिन हो गए। रमेष चन्द्र षर्मा को नौकरी चाहिए बहुत दिन हो गए। देवदत्त जी ड्राइवर हैं। नए हैं। नए ड्राइवरों़ को पापड़ बेलने ही होते हैं। रमेष चन्द्र षर्मा ड्राइवर नहीं है। उनका सम्बन्ध छपाई उद्योग से है। उन्हें अच्छी नौकरी चाहिए। पाकेट.प् में सुबोध कुमार चोपड़ा साहब की सूर्या प्लेसमेंट नाम की कम्पनी है। उनके पास देवदत्त जी के लिए भी नौकरियां हैं और रमेष चन्द्र षर्मा के लिए भी। बस उनकी फीस है। पन्द्रह दिन की तनख्वाह। वेतन मिलने के पहले महीने में उन्हें सात दिन की तनख्वाह याने एक चैथाई तनख्वाह देनी है। अगले महीने के वेतन में भी उन्हें एक चैथाई देनी होगी। रमेष चन्द्र षर्मा अनुभवी हैं। चैपड़ा साहब ने फोन किया कि रमेष जी के लिए नौकरी है। फेज.प्प्प् में रमेष जी को पसन्द नहीं आई। अब चोपड़ा साहब उन्हें किसी और जगह भेज रहे हैं। पूछ रहे थे देवदत्त क्यों नहीं आए। मैंने उन्हें बताया कि ड्राइवरों को उन पर बिल्कुल भरोसा नहीं। चोपड़ा साहब बोले कि होना भी नहीं चाहिए। सही काम दिलाने वाले कम लोग होते हैं। ज्यादातर तो हेराफेरी ही करते हैं। मैंने कहा कि पहले रमेष जी को लगाइए फिर और ड्राइवर भी आपका सहयोग ले सकते हैं।