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Article by Famous Scientiest Ram Prasad Ji - वैज्ञानिक राम प्रसाद जी के लेख

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गुमोद परिक्रमा


ड्राइवर भुवन आजकल गुमोद परिक्रमा में रूचि ले रहे हैं। उन्हें कभी काम मिलता है तो कभी नहीं। नए नए ड्राइवर हैं। उन्हे शायद विश्वास होता जा रहा है कि गुमोद आॅप्टिकल फैक्टरी कभी न कभी बनेगी ज़रूर। वह उसी आयु के हैं जिस आयु के ड्राइवर केशव जी हैं। केशवजी गुमोद आॅप्टिकल फैक्टरी के प्रतीक हैं। युवा लोग जीवन के प्रतीक हैं और इस प्रतीक का नाम है आशा। आदमी उस समय मर जाता है जब आशा उसका साथ छोड़ जाती है। फट्टे के लोग आशावान हैं। इसलिए वह जीवित हैं और युवा हैं। गुमोद आॅप्टिकल फैक्टरी केशव जी के इर्द गिर्द बने्रगी। केशव जी और मेरे बीच में पचास वर्षों का अंतर है। मैंने ट्नौर्ड बनाने का प्रयास किया था। अब ट्नौर्ड बनने जा रही है। पचास साल पहले मैं कहाँ था?

      यह पचास साल स्वतंत्र भारत के इतिहास के पन्ने हैं। पर विकसित भारत की शुरूआत अब हो रही है। राष्ट्रपति का पद बनने के बाद ही भारत की स्वतंत्रता की गिनती शुरू होनी चाहिए। पचास साल बाद राष्ट्रपति कि भारत को स्वतंत्र ही नहीे विकसित भी होना चाहिए। मेरा कामकाजी जीवन स्वतंत्रता की दिशा में बीता। केशव जी का जीवन विकास की दिशा में बीतेगा।

      पचास साल पहले देहरादून में यंत्र और इलेक्ट्रोनिक्स की देखरेख के लिए टेक्निकल डेवेलपमेंट एस्टाब्लिशमेंट की स्थापना हो रही थी। मैं इस से ऐसे  ही जुड़ गया जैसेकि आज केशवजी ट्नौर्ड से जुड़ रहे हैं।उस समय इलेक्ट्रौनिक्स में वह तरक्की नहीे हुई थी जो आज है। फिर भी रेडियो का खूब शौक से सुना जाता था। दूसरी बड़ी लड़ाई के दौरान इलेक्ट्रोनिकी पर काफी काम हुआ था। दोस्त दुश्मन एक हो चुके थे। औद्योगिक देश जानकारी इकट्ठा करने में जुटे हुए थे। पहले लूट धनदौलत की होती थी। अब टेक्नोलौजी की हो रही थी। कंप्यूटर बन चुका था। टेलेविजन क्षेत्र में भी काफी प्रगति हो चुकी थी। पर तब तक ट्रांजिस्टर की खोज नहीं हुई थी। ट्रांजिस्टर और लेज़र की खोज हो जाने के बाद खोज पर खोज होती गई। जिन्हें टेक्नोलौजी की समझ थी वही मालामाल होते गए। ट्रांजिस्टर न हुए तो क्या। वैकुअम ट्यूब तो थी। तब चारों ओर रेडियो सीलोन की धूम हुआ करती थी । गांव और ष्षहर का इतना अंतर न था । गांव वाले ष्षहर की ओर इतना नहीं भागते थे।

      कुछ साल बाद इस संस्थान से इलेक्ट्रोनिक्स का हिस्सा अलग कर उसे बंगलौर भेज दिया गया। इस प्रकार  देहरादून में यंत्र अनुसंधान और विकास संस्थान बन गया। इसके निदेशक थे डाक्टर सी एस राव।डाक्टर राव के रिश्तेदार और गुरू थे डाक्टर आइ आर राव। वह चंद्रशेखर वेंकटरमण के चेले थे। इन्हे विज्ञान का सबसे बड़ा सम्मान नोबल प्राइज़ मिला था। अंग्रेज सरकार ने भी उन्हें सर की उपाधि दी थी। सर सीवी रमण ने एक नए विषय की खोज की थी जिसके द्वारा यह समझाया जा सकता है कि आसमान का रंग नीला क्यों है। गहरे समुद्र का रंग भी नीला क्यों है। यह विषय आॅप्टिक्स विज्ञान का हिस्सा था। उत्साहित वैज्ञानिक आॅप्टिक्स के क्षेत्र में आत्म निर्भरता प्राप्त करना चाहते थे।  डाक्टर आइ आर राव ने आंध््रा साइंटिफिक कंपनी बनाई। कोलकाता, चिन्नाई, पुणे और अंबाला में विशेष प्रयास हुए। इन प्रयासों में अध्यापकों ने भूमिका निभाई। इस दिशा में डाक्टर प्रताप किशन किचलू ने डाक्टर सी एस राव और डाक्टर आत्माराम के सहयोग से क्षेत्र में आत्म निर्भरता प्राप्त करने की चेष्टा की। डाक्टर किचलू दिल्ली यूनिवसिटी में प्रोफेसर थे। उन्होंने अपने घर भी आॅप्टिकल वर्कशाॅप बनाई हुई थी। डाक्टर कलाम की तरह वह भी शादीशुदा नहीं थे। उनका रसोइया खाना भी बनाता था और लेंस भी। डाक्टर कलाम की तरह वह भी बेहद व्यावहारिक व्यक्ति थे। वह न्यूटन की तरह के भुल्लकड़ दार्शनिक नहीं थे। उन्होंने लेंस को खाना समझ कर खाने की कौशिश कभी भी नहीं की। लेंस बनाने के लिए काँच चाहिए। डाक्टर आत्माराम ने स्वदेश में ही आप्टिकल काँच बना कर वही  नाम कमाया जो नाम डाक्टर अब्दुल कलाम ने टेक्नोलौजी के क्षेत्र में कमाया है। मैं देहरादून की यंत्र अनुसंधान और विकास संस्थान में डाक्टर सी एस राव के साथ काम करता था। जैसे कि अब केशवजी मेरे साथ काम करेंगे।

      सी एस राव अब नहीं हैं। डाक्टर किचलू अब नहीे हैं। डाक्टर आत्माराम अब नहीं हैं । ट्नौर्ड इन तीनों की विरासत है। फिलहाल मैं इस विरासत को संभाले हुए हूँ। अब यह विरासत गुमोद आॅप्टिकल फैक्टरी और उसके भाई बहिनें संभालेंगे।  सारे उत्तराखंड में कई आॅप्टिकल फैक्टरियां बनेंगी। गुमोद आॅप्टिकल फैक्टरी सबसे बड़ी बहिन होगी।

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गुमोद परिक्रमा

 
गुमोद परिक्रमा के एक और सदस्य बन गए हैं। यह हैं देहरादून के विजय गौड़ जी। विजय गौड़ आर्डनैंस फैक्टरी में काम करते हैं। लेंस बनाते हैं और साथ ही साथ लिखते भी हैं। लेखक न होते तो गुमोद परिक्रमा से न जुड़ते। पत्रिका में पता दिया था। पता चला कि विजय जी उन सरकारी क्वार्टरों में से एक में रहते हैं जोकि आर्डनैंस फैक्टरी के हैं। देहरादून की आर्डनैंस फैक्टरी में लेंस बनते हैं। सोचा कि कहीं विजय जी का संबंध लेंस निर्माण से हो। अनुमान सही निकला। पत्रों का आदान प्रदान हुआ। संपर्क बन गया।

      एक ओर द्रोणाचार्य अपार्टमेंट में कपड़ों पर प्रेस करने वाले कारीगर मस्तराम उर्फ बाबूलाल जी हैं। मैं उन्हें इसलिए जानता हूं कि मैं इसी सोसायटी रहता हूं। मस्तराम जी बिल्कुल पढ़े लिखे नहीं हैं। दूसरी ओर विजय जी हैं जिन से संपर्क ही उनके पढ़े लिखे होने की वजह से हो रहा है। कारीगर दोनों हैं। पर कारीगरी के भेद में ज़मीन आसमान का अंतर है। यही अंतर  भारत के कारीगरों और अमेरिका के कारीगरों में है। यही अंतर भारत और अमेरिका की अर्थ व्यवस्थाओं में है। भारत को अगर विकसित राष्ट्र बनाना है तो कारीगरी की गहराई बढ़ाना होगा। हर भारतीय को अपनी प्रतिभा पूरी तरह निखारना होगा। मस्तराम जी को क्या पता कि उनमें कितनी प्रतिभा है। पता तो विजय जी को भी नहीं होगा। प्रतिभा की कोई सीमा नहीं केवल अवसरों की सीमा है। अवसर व्यवस्था देती है। इसलिए पूरा ध्यान व्यवस्था की ओर दिया जाना चाहिए। मस्तराम जी व्यवस्था का व्यावहारिक पक्ष को समझते तो होंगे पर लिखा पढ़ा न होने के कारण उनका ज्ञान दूर दृष्टि और व्यवस्था के मामले मे बहुत कम है। विजय गौड़ पढ़े लिखे ही नहीं हैं, वह लेखक भी हैं। इसलिए वह व्यवस्था को भली  भांति समझते होंगे। जो बात नहीे समझते होंगे उसे बेझिझक पूछ लेते होंगे। यही बात उन्होंने मुझे पत्र में लिखी। विजय गौड़जी लिखते हैं: ’’आपकी गुमोद परिक्रमाएं ‘उत्तराखंड प्रभात‘ छपती हैं। देखीं। मेरे समझ के बाहर हैं। स्पष्ट तौर पर लिखेंगे तो मुझे मदद मिलेगी।’’ गुमोद परिक्रमा में ऐसी क्या बात हो सकती है जो कि पाठकों की समझ के बाहर है।गुमोद गाँव के कई ड्राइवर दिल्ली के मयूर विहार की समाचार टैक्सी सर्विस में काम करते हैं। गुमोद परिक्रमा इनके इर्दगिर्द घूमती है। गुमोद आॅप्टिकल फैक्टरी की कल्पना की गई है। ड्राइवर केशव जी इस फैक्टरी के प्रतीक हैं। चैलेंज है कि ऐसा क्या कुछ किया जाए कि केशव जी इस फैक्टरी को बना सकें। जहाँ पढ़े लिखे भारी भरकम लोग सफल नहीं हुए वहाँ केशव जैसे कम पढ़े लिखे कमजोर व्यक्ति कैसे सफल होंगे। शायद यह बात समझ के परे हो। गुमोद परिक्रमा समझा रही है कि ऐसा कैसे संभव है। 

पर शायद फट्टा शब्द ही लोगों की समझ में न आ रहा हो। जब गुमोद परिक्रमा शुरू भी नहीं हुई थी तो भी फट्टा शब्द मौजूद था। मेरी समझ में भी इस शब्द का मतलब स्पष्ट न था। मैं उसे पटरा लिखता था। पटरा शब्द ड्राइवरों की समझ के बाहर था। फट्टा पंजाबी शब्द है। लकड़ी का चबूतरा, मंच, या बेंच। कुछ भी समझ लीजिए। ड्राइवरों के बैठने और सोने की जगह जिसे खाना खाने की मेज की तरह भी इस्तेमाल किया जाता है। आजकल तो यही जगह खेल उत्तरांचल सरकार का विधान भवन भी है।अगर फट्टा विधान भवन है तो समाचार टैक्सी स्टैंड तो पूरा उत्तरांचल हुआ। इस स्टैंड के मालिक सरदार अमरीक सिंह हैं। नेहरू जी के जमाने के   ड्राइवर हैं। वर्षों की मेहनत के बाद वह इस काबिल हुए कि अपना टैक्सी स्टैंड बना सकेें। इस काम में उन्हें अपने साथी और रिश्तेदार सरदार गुरदीप सिंह का सहयोग मिला। मयूर विहार का विस्तार हो रहा था। इस विस्तार में उन्हें टैक्सी स्टैंड की जगह मिली। जगह वीरान थी। पक्की जगह बनाने के बजाय उन्होने पेड़ों का झुरमुट बनाना ठीक समझा। एक फट्टे और एक टैक्सी के सहारे उनका बिजनेस शुरू हुआ।एक ड्राइवर टेलेफोन पर बैठता दूसरा गाड़ी चलाता। पेड़ तब छोटे थे। आज बड़े हैं। झुरमुट कभी कल्पना था। आज खेल उत्तरांचल बन चुका है।गुमोद आॅप्टिकल फैक्टरी आज कल्पना है। कल वास्तविकता होगी। मेरा विचार है कि पाठकों के लिए फट्टे की व्याख्या का समझना ज़रूरी है। टीवी के महाभारत सीरियल के पटकथा लेखक राही मासूम रज़ा के अनुसार महाभारत को समझने के लिए भागवत पुराण समझना ज़रूरी है। महाभारत का खेल कृष्ण ने खेला था। कृष्ण ने कहा कि जब सामाजिक व्यवस्था कुर्सी की भेंट चढ़ जाती है तो ऐसा खेल खेलना ज़रूरी हो जाता है। कुर्सी उलटने के लिए हिंसा एक मात्र साधन नहीं है। फिर भी हिंसा इसलिए जारी है कि जिसका अंत पास आता है उसकी बुद्धि विपरीत हो जाती है। जो कुछ हो रहा है वह हिंसा नहीं  व्यवस्था की आत्महिंसा है। ऐसी अवस्था में एक नए प्रकार के कृष्ण सामने आते हैं।

      डा0 अब्दुल कलाम महाभारत नहीं महाविकास की बात कर रहे हैं। उनके महाविकास के लिए भी आधार चाहिए।भागवत पुराण चाहिए। यह भागवत पुराण गुमोद परिक्रमा है। महाविकास ज़रूर होगा। पर यह महाविकास उस प्रकार के प्रयोगों के द्वारा ही संभव होगा जो कि केशव को इतना समर्थ बना दे कि वह गुमोद आॅप्टिकल फैक्टरी का निर्माण कर सकें।

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गुमोद परिक्रमा


आज के हिन्दुस्तान अखबार में एक लेख छपा है जिसका शीर्षक है ’टिकाऊ विकास विष्व सम्मेलन की चुनौतियाँ’ं। लेखक अनिल कुमार सिंह वालंटरी एक्षन नेटवर्क इंडिया के कार्यकारी सचिव हैं। मौका है छब्बीस अगस्त और चार सितंबर के बीच टिकाऊ विकास पर दक्षिण अफ्र्रीका के जोहानिसबर्ग शहर में होने जा रहा संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन ।

      टिकाऊ  विकास की बात हो और गांधी का नाम न आए ऐसा तो हो ही नहीं सकता। लेख कहता है:’ऐसी स्थिति में ही हमें महात्मा गांधी की सोच, दूरदर्शिता तथा उनके द्वारा चलाये तथा अपनाए गए जीवन स्तर की याद आती है। वे अक्सर कहा करते थे कि प्रकृति के पास सभी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त क्षमता है लेकिन किसी अकेले व्यक्ति के लोभ को पूरा करने की शक्ति नहीं है।’ लेख ठीकठाक है। पर वह व्यवस्था के प्रति उदासीन सा लगता है। गांधी वाद ख़ुद तो टिकाऊ है। पर उसके व्याख्याकार खुद टिकाऊ नहीं हंै। जिस ज़मीन से वह बात करते हैं उस ज़मीन पर गांधीवाद होता ही नहीे। गांधीवाद की जड़ गाँव है। गांधीवादी गांधीवाद का ढिंढोरा नहीं पीटता।

      प्रश्न पूछा जाता है कि ट्नौर्ड के लेंस निर्माण प्रशिक्षण एवं उत्पादन संस्थान की स्थापना में इतना अधिक समय क्यों लग रहा है। इसका सीधा जवाब है। जोहांसबर्ग का शिखर संम्मेलन आज हो रहा है पचास साल पहले क्यों नहीे। डा0 कलाम आज राष्ट्रपति हैं।पचास साल पहले भी तो किसी वैज्ञानिक को राष्ट्रपति बनाया जा सकता था। तब तो नाबेल प्राईज़ विजेता चंद्रशेखर वेंकट रमण ज़िंदा थे। वह विज्ञान का ज़माना था।उस समय विज्ञान के क्षेत्र में सूर्य और चंद्रमा विद्यमान थे। तारे बाद मेे आए। आज तो विज्ञान में चारों ओर जुगनू ही जुगनू दिखाई दे रहे हैं। ड्राइवर लोग इस कथन को इसलिए समझ रहे हैं कि वह सबके सब हिंदी भली भाँति लिख पढ़ सकते हैं। हिन्दी में कविता है; श्सूर सूर तुलसी शशि,उडगन केशवदास। अब के कवि खद्योत सम, जहं तहं करत परकास।श् जहाँ देखो वैज्ञानिक ही वैज्ञानिक। पर सब खद्योत। कुर्सी गई और वैज्ञानियत भी गई। ऐसे में डा0 कलाम उभरे जैसे कि खद्योतों में से तारा उभर रहा हो और तारों में से चांद। डा0 कलाम यहाँ से आगे बढ़ कर सूरज बनते जा रहे हैं। आज वह राष्ट्रपति हैं। जनता से दूर हैं। वैज्ञानिक हैं इसलिए उनमे अपना प्रकाश है। वह इस प्रकाश द्वारा अगले बीस वर्षों में भारत को विकसित राष्ट्रों की श्रेणी  पहुँचाना चाहते हैं। विज्ञान पोषित बच्चे, विज्ञान पोषित ग्रामीण विकास और विज्ञान पोषित पर्यावरण संरक्षण देश को इस लक्ष्य तक पहुँचा सकते हैं।

      दूसरे विश्व युद्ध की विचार धारा पचास वर्ष पहले मानव समाज पर हावी थी। तब सारा जोर मशीनी करण पर था।  खेती और पर्यावरण की बात करना पिछड़ापन माना जाता था। गांधी को महान तो माना जाता था पर गांधी वाद वास्तविकता से परे की बात मानी जाती थी। आज बात दूसरी है। जोहानिसबर्ग में टिकाऊ विकास पर हो रहे विष्व सम्मेलन की चुनौतियोे को चुनौती दी जा रही है। इधर गांधी के देश में डा0 कलाम राष्ट्रपति बन गए हैं और ग़रीबी और पिछड़ेपन को चुनौती दे रहे हैं। इस चुनौती का सामना करने के लिए उन्होंने भी टेक्नोलौजिकल नर्सरी जैसी रण नीति अपनायी है। वह बच्चों को विकास का केशव बना रहे हैं। फट्टे के ड्राइवर केशव गुमोद आप्टिकल फैक्टरी के प्रतीक हैं।

      विकसित भारत का आधार जड़ें होंगी। जड़ों द्वारा पेड़ में टिकाऊपन आता है। ऊपर से लादा गया विकास टिकाऊ हो ही नहीं सकता। यह जड़ें गाँव हैं। विकास का मतलब परिवर्तन है। गाँवों में परिवर्तन गाँव के लोग ही ला सकते हैं। परिवर्तन ज्ञान द्वारा आता है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए व्यवस्था और वातावरण की आवश्यकता होती है। व्यवस्था का प्रारूप जिस संगठन के द्वारा बनाया जाता है वह टेक्नोलौजिकल नर्सरी है। इस संगठन का ढांचा ट्नौर्ड के माध्यम से तैयार किया जा रहा है। इस संगठन के द्वारा रिसर्च और डेवेलपमेट पर काम हो रहा है। 

      राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं  और अनुसंधान संस्थानों द्वारा किए गए काम को आगे बढ़ानें के लिए अतिरिक्त रिसर्च और डेवेलपमेंट की आवश्यकता होती है। यह काम क्या है और उसके द्वारा कैसे लेंस क्षेत्र में ज़मीनी नतीजे प्राप्त किए जा सकते हैं यही ट्नौर्ड की रिसर्च और डेवेलपमेंट की ज़िम्मेदारी है। गुमोद आप्टिकल फैक्टरी की स्थापना की कल्पना को इस लक्ष्य की प्राप्ति के एक साधन के रूप में समझा जा रहा है।

      विकास का टिकाऊपन जड़ बना कर पैदा किया जाना चाहिए न कि जड़ कुरेद कर। यह ट्नौर्ड द्वारा समझाया जा रहा है।

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गुमोद परिक्रमाः गाँव की फ्लाॅपी: षहरी कप्यूटर


गुमोद परिक्रमा में बार बार चर्चा होती है कि ट्नौर्ड नाम की कोई चीज़ है जो कि न जाने कब से उत्तरांचल में लेंस उद्योग स्थापित करने के लिए  प्रयत्नषील है।  राष्ट्रपति जी इस प्रयास को जानते हैं। प्रधान मंत्री जी इस प्रयास को जानते हैं। इंदिरा गांधी इस प्रयास को जानती थीं। राजीव गांधी इस प्रयास को जानते थे। नरसिम्हराव साहब से मेरी इस प्रयास के बारे में तीन धंटे तक चर्चा हुई थी। कृष्ण चंद्र पंत तो इस प्रयास को जब से जानते हैं तब तो नारायण दत्त तिवारी जी भी इस के बारे में नहीं जानते थे। बहुगुणा जी परेषान थे। कहते थे कि कितना रुपया चाहिए कहीं न कहीं से दिलवा दूंगा काम तो षुरू करो। तिवारी जी इस प्रयास के बारे में देव गौड़ा साहब को लिख चुके हैं, इंद्र  कुमार गुजराल को लिख चुके हैं। कृष्ण चंद्र पंत ने मेरी जानपहचान अपने ही निवास पर तिवारी जी से करवाई थी। प्रोजेक्ट की षुरुआत भक्त दर्षन जी ने की  थी। नेहरूजी के जमाने के सांसद जो कि इंदिरा जी की सरकार में राज्यमंत्री थे। बाद में उन्होने राजनीति छोड़ दी। तब पंत जी राज्यमंत्री थे। उत्तराखंड के थे। स्वाभाविक था कि प्रोजेक्ट अब उन के माध्यम से आगे बढ़ाया जाता।  उनका काम करने का अपना ढंग था। कभी पीतांबर पंत जी के पास भेज देते कभी तिवारी जी के पास। 

      गुमोद परिक्रमा ने यह इतिहास आज ही सुना। अब तक उसे केवल इतना पता था कि ट्नौर्ड को उत्तरांचल के सांसद,पूर्व सांसद, एवं सभी संबंधित पक्षों का सहयोग मिल रहा है। गंभीर कठिनाइयाँ आती रहीं  हैं और उन्हें इन लोगों के सहयोग से दूर किया जाता रहा है।

      लेंस देहरादून में दूसरे महायुद्ध के जमाने से बन रहे हैं। उस लड़ाई में अंग्रेज यूरोप में जर्मनी से लड़ रहे थे। इटली से लड़ रहे थे। तब जर्मनी जार्ज  बुष था। इटली टोनी ब्लेअर था। यह साथ यूरोप के साथ साथ अफ्रीका में भी था। पर अंग्रेज को तो जापान से भी लड़ना था। जापान दक्षिण पूर्व एषिया को जीत कर भारत पर करना चाहता था। इसलिए उसने भारत में फौजी साज सामान बनाने के लिए फैक्टरियाँ लगा दीं। लेंस फैक्टरी देहरादून में लगी। यहाँ लेंसों पर आधारित उपकरण बनते थे जैसे दूरबीनें और निषाना साधने के साजसामान। विष्व स्तर का आॅप्टिकल उद्योग भारत में ही उपलब्ध था। पर औद्योगिक संस्कृति न होने के कारण यहाँ लेंस उद्योग स्थापित न हो सका। प्रयास जारी रहे। ट्नौर्ड इस दिषा में इसी प्रकार का एक प्रयास है।

      दूसरे महायुद्ध में जापान और जर्मनी बर्बाद हो गए थे।पर औद्योगिक संस्कृति बची रही।जल्दी ही सम्भल गए। भारत में फौजी साजसामान बन रहा था। आज भी बन रहा है।  राष्ट्रपति अब्दुल कलाम इस काम से लगे हुए थे। सवाल है कि फौजी औद्योगिक संस्कृति के जरिए व्यावसायिक स्तर की औद्योगिक संस्कृति कैसे रची जाए। विकसित देषों के लागों की आम सोच  औद्योगिक संस्कृति का अंग है। दूसरी तरह से कहें तो ऐसा कहेंगे कि अंग्रेज तो अंग्रेजी बोलता ही है। वह उसकी बोली है। हमारी बोली अंग्रेजी नहीं है। हमें तो अंग्रेजी को भी सीखना है और औद्योगिक संस्कृति को भी।

      बच्चा चाहे अंग्रेज का हो या हिन्दुस्तानी का दूध तो एक सा ही पिएगा। भूख तो उसे वैसे ही लगेगी। जीवन की भाषा तो एक ही है। अब उल्टे चलें। चाहे हम कोई भी भाषा बोलें मूल भाषा तो एक ही है। वह है जीवन की भाषा। फिर क्यों न जीवन की भाषा को विकास की भाषा बनाकर चलें। विकास की बात करें तो उसमें एक भाषा और जुड़ जाती है। यह है मषीनीकरण की भाषा। इस भाषा को विज्ञान कहते हैं। विज्ञान के द्वारा जो चाहते हैं वह किया जाता है। उड़ना चाहते थे। उड़ रहे हैं। दूर देखना चाहते थे देख रहे हैं। राष्ट्रपति अब्दुल कलाम सांसदों बात करना चाहते थे। काम नियम के खिलाफ़ था। तरकीब लड़ाई काम हो गया। पहली मुलाकात 11 मार्च के दिन बिहार और झारखंड के सांसदों से हुई। आखरी मुलाकात 6 मई को नार्थ ईस्ट के सांसदों से हुई। काम पूरा हो गया। सरकार देखती रह गई।

      देष में कहीं सूखा पड़ता है तो कहीं बाढ़ आती है। पानी का बैंक बन सकता है। पानी तो बादलों से मिलता है। वह जमा किया जा सकता है। सांसदों ने पूछा कि इतना पैसा कहाँ से आएगा। राष्ट्रपति ने कहा कि आप काम तो षुरू कीजिए। रास्ता मिलता जाएगा। हाँ अगर अड़ंगों वाली बोली में बात करोगे तो अड़ंगे ही हाथ आएंगे। ट्नौर्ड ने काम षुरू किया। अड़ंगों ने भी काम षुरू किया। गुमोद परिक्रमा ने काम षुरू किया। खेल था। खेल उत्तरांचल सरकार बनाई। जो बातें देहरादून में हो रही थीें उन्ही का नाटक किया।  आज बात उल्टी हो गई है।खेल उत्तरांचल सरकार विकास की बात कर रही है।असली उत्तरांचल सरकार अडं़गों में फंसी है। खेल युवाओं का खेल है। आज गुमोद परिक्रमा में नए नए पात्र आ गए हैं।  पर खेल उत्तरांचल सरकार  बदली नहीं हैं। मुख्यमंत्री का नाम कुछ भी हो काम से तो वह फनीण्द्र ही रहेंगे। पहले मुख्यमंत्री। खेल मंत्री हों या न हों काम से तो वह सुभाष राणा ही रहेंगे। पहले खेल मंत्री। विकास मंत्री कोई भी हों काम से तो वह भूपाल सिंह वोहरा ही होंगे। ढपोर षंख। बातें जितनी करा लो। सामने कुछ नहीं। बाकी मंत्रियों की ज़रूरत ही नहीं। न असली सरकार में और न खेल सरकार में।

      किसी भी सांसद को ले लें। अगर उसे बजट बना कर सांसद बनाया जाता तो वह सांसद बन ही नहीं सकता था। जब से पैदा हुआ है तब से अब तक जो खर्च हुआ है उसके आँकड़े तैयार किए जाएं तो डरावनी हक़ीकत सामने होती। और तो और हर ड्राइवर के आँकड़े चैंका देने वाले होते। प्लानिंग आँकड़ों से नहीं विवेक से होनी चाहिए। नेपोलियन ने विष्व विजय की योजना अपने विवेक से बनाई। आँकड़े ने पूछा कि यूरोप के हिमालय आल्प्स पहाड़ को कैसे पार करोगे। नेपोलियन ने जवाब दिया यह उसी से पूछ लेना कि नेपोलियन ने उसे कैसे पार किया।

      कहते हैं कि ट्नौर्ड को बनते बनते तीस चालीस साल हो गए हैं। आँकडे बताएंगे कि इस पर जितना खर्च हुआ है उतने में तो क्या से क्या हो जाता। आँकड़े बताएंगे कि पिछले पचास साठ सालों से विज्ञान पर जितना खर्च हुआ है उतने में तो क्या से क्या हो जाता। आँकड़े बताएंगे कि एक आइ ए एस अफ़सर  पर जितना खर्च होता है उतने में तो क्या से क्या हो जाता। विकास का संबंध व्यवस्था से है। आजकल की भाषा में कहते हैं कि व्यवस्था का संबंध आइ बिजनेस से है न कि ई बिजनेस से। जो काम कम्प्यूटर द्वारा किया जा सकता है वह काम ई बिजनेस है। यहाँ सोचने समझने का काम कम्प्यूटर करता है। कम्प्यूटर उन देषों का बच्चा है जहाँ गरीबी होती ही नहीं । षहर का वाषिन्दा है। गाँव की बोली क्या समझेगा। गाँव का बिजनेस समझने के लिए चाहिए ज़िन्दा आदमी की सोच जो कि हर समस्या को वैसे समझ सके जैसे कि वह है। जो कि हर समस्या का हल वैसे कर सके जैसे कि होना चाहिए।

      भारत सरकार के एक बड़े अफ़सर पर पाँच लाख का खर्चा प्रति वर्ष होता है। अगर एक अफ़सर तीस साल तक ट्नौर्ड में काम कर रहा होता तो एक करोड़ पचास लाख रुपए यों ही खर्च हो जाते। न जाने इन तीस वर्षों में कितने अफ़सर आए और गए और उन अफ़सरों पर सरकार ने कितना खर्च किया। इसीलिए फट्टा कह रहा है कि विकास आँकड़ों की समस्या नहीं है। समझ की समस्या है।  इसलिए सरकार को ई प्रबंधन के बजाय आइ प्रबंधन की और ध्यान देना होगा। आम आदमी के लिए तो सरकार ही भगवान है। कहते है भगवान गोटियाँ नहीें खेलता। वह तो व्यवस्था बनाता है। फिर सरकार आँकड़ों को छोड़ कर टेक्नोलौजिकल नर्सरियाँ क्यों नहीं लगाती जैसा कि ट्नौर्ड कहती आ रही है।

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गुमोद परिक्रमाः गाँव की फ्लाॅपी: षहरी कप्यूटर

 

      गुमोद परिक्रमा के किसी अंक कहा गया था कि यह परिक्रमा अकेले उत्तरांचल के चंपावत जिले के गुमोद गाँव की नहीं है। सारे देष के गाँवों की है। पिछले अंक में तो यहाँ तक कहा गया था कि मषीनीकरण का ई प्रबंधन गाँव के समीकरण बिगाड़ तो सकता है पर विकास नहीं ला सकता क्योंकि भगवान गोटियाँ नहीं खेल रहा है। उसका प्रबंधन ई नहीें है। उसका प्रबंधन आइ प्रबंधन है। गीता में कहा गया है कि जब जब धर्म को नुक्सान पहुंचता है तो मैं सामने आ जाता हूँ   ताकि धर्म को बचाया जा सके।  मैं को अंग्रेजी में आइ कहा जाता है। पर जब ट्नौर्ड ने आइ प्रबंधन की चर्चा की यह बात ध्यान मे नहीं थी। पर बात जब  सही होती है तो नीचे से वैसे ही दिखाई देती है जैसे ऊपर से। एक तरफ से वैसे ही दिखाई देती है जैसे दूसरी तरफ से। याने सब तरफ से एक सी ही दिखाई देती है। गुमोद परिक्रमा ड्राइवरों का अखबार है। ड्राइवर और मषीन का साथ अटूट है। ड्राइवर मषीन नहीं है और न गाड़ी आदमी है। गाड़ियों का तो विकास हो रहा है पर ड्राइवर का नहीं। वह तो आदमी है। उसे तो भगवान ने बनाया है। विकास भी वही करेगा। आज तो मषीन आदमी को नचा रही है। भगवान हँस रहा है। उत्तरांचल में मषीनों के ग़ुलाम पंचायतों तक जा पहुँचे हैं। मयूर विहार दिल्ली स्थित सरदार अमरीक सिंह की समाचार टैक्सी सर्विस के ड्राइवर जानते हैं कि ट्नौर्ड उत्तरांचल में लेंस उद्योग स्थापित करने के लिए  प्रयत्नषील है और इस दिषा में उसे उत्तरांचल के सांसद,पूर्व सांसद, एवं सभी संबंधित पक्षों का सहयोग मिल रहा है। गंभीर कठिनाइयाँ आती रहीं  हैं और उन्हें इन लोगों के सहयोग से दूर किया जाता रहा है। समय समय पर ट्रनौर्ड उत्तरांचल के सांसद, पूर्व सांसद, एवं संबंधित पक्षों को ट्रनौर्ड की गतिविधियों से अवगत कराया जाता रहा है । इनके द्वारा यह संकेत दिया गया है कि विकास प्रक्रिया सही दिषा में  किए गये बदलावों का दूसरा नाम है। प्रषासनिक ठहराव देष की व्यवस्था को अल्पकालीन  स्थायित्व तो दे सकता है पर इस प्रक्रिया से विकास नहीं लाया जा सकता । विकास और बदलाव का चोली दामन का साथ है। बगैर बदलाव के विकास हो ही नहीं सकता । जो प्रषासन लकीर का फ़कीर होता है, यह निष्चित है कि वह विकास की प्रक्रिया को रोकेगा ही। दूसरी ओर जो प्रषासन लकीर का फ़कीर नहीं होता वह बहक सकता है। भटक सकता है । वही प्रषासन विकास ला सकता है जो कि तर्क सं्रगत हो और विज्ञान की आधारषिला पर खड़ा हो।

      कभी गद्दी को काँटों का ताज माना जाता था। पर तब गद्दी एक ही होती थी। प्राइवेट बिजनेस में आज भी वही बात है। फट्टे पर सरदार अमरीक सिंह का राज है। सरदार गुरदीप सिंह उनके रिस्तेदार हैं। राय तो दे सकते हैं पर आखिर में वही होगा जो सरदार अमरीक सिंह को ठीक लगेगा। अमनप्रीत जी उनके रिस्तेदार हैं।गुरप्रीतजी भी उनके रिस्तेदार हैं। और रिस्तेदार भी आते जाते रहते हैं। मजाल है कि कोई उनके फैसले के खिलाफ़ जा सके। ड्राइवर हैं तो ड्राइवर ही रहेंगे। काँटों के बीच पले बढ़े हैं। काँटों का  ही ताज बनता । पर उनके पुत्र हरजीत जी तो काँटों के बीच पले बढ़े नहीं हैं। वह क्यों न उसी हवा में रहें जिसमें वह पले बढ़े हैं। वह हरजीत जी को इतना पढ़ाना चाहते हैं जितना पढ़ाया जा सकता है। कमाल है प्राइवेट वाला सरकारी गद्दी पर बैठना चाहता है। चैन की गद्दी हैै। पता नहीं मिलती है या नहीं। अब तो कम्पनियाँ बहुत अच्छा वेतन दे रही हंै। काम तो करना पड़ता है पर ताज नहीं पहनना पड़ता। पर ड्राइवरों की दुनिया तो कुछ और ही है। कहाँ की गद्दी कहाँ का चैन। देवदत्त जी को नौकरी चाहिए। बहुत दिन हो गए। रमेष चन्द्र षर्मा को नौकरी चाहिए बहुत दिन हो गए। देवदत्त जी ड्राइवर हैं। नए हैं। नए ड्राइवरों़ को पापड़ बेलने ही होते हैं। रमेष चन्द्र षर्मा ड्राइवर नहीं है। उनका सम्बन्ध छपाई उद्योग से है। उन्हें अच्छी नौकरी चाहिए। पाकेट.प् में सुबोध कुमार चोपड़ा साहब की सूर्या प्लेसमेंट नाम की कम्पनी है। उनके पास देवदत्त जी के लिए भी नौकरियां हैं और रमेष चन्द्र षर्मा के लिए भी। बस उनकी फीस है। पन्द्रह दिन की तनख्वाह। वेतन मिलने के पहले महीने में उन्हें सात दिन की तनख्वाह याने एक चैथाई तनख्वाह देनी है। अगले महीने के वेतन में भी उन्हें एक चैथाई देनी होगी। रमेष चन्द्र षर्मा अनुभवी हैं। चैपड़ा साहब ने फोन किया कि रमेष जी के लिए नौकरी है। फेज.प्प्प् में रमेष जी को पसन्द नहीं आई। अब चोपड़ा साहब उन्हें किसी और जगह भेज रहे हैं। पूछ रहे थे देवदत्त क्यों नहीं आए। मैंने उन्हें बताया कि ड्राइवरों को उन पर बिल्कुल भरोसा नहीं। चोपड़ा साहब बोले कि होना भी नहीं चाहिए। सही काम दिलाने वाले कम लोग होते हैं। ज्यादातर तो हेराफेरी ही करते हैं। मैंने कहा कि पहले रमेष जी को लगाइए फिर और ड्राइवर भी आपका सहयोग ले सकते हैं। 

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