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Articles and Poems by Journalist Jagmohan Azad-जग मोहन आज़ाद जी के लेख

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

Azad Ji.

Salute you. This is really very-2 interesting poem you have posted. Thanks a lot for sharing with us.

Hope many members must be appreciating these poems posted by you.




--- Quote from: Jagmohan Azad on April 08, 2010, 12:21:44 AM ---क्योंकि मैं मुस्तफ़ा अब्बास हूं?

मैं

मुस्तफ़ा अब्बास
पिछले
पचास वर्षों से भी ज्याद समय से
रह रहा हूं
इस धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले
समाज के बीच
बचपन
में...गुल्ली-डंडों और कन्चों के साथ
मैं भी खेला हूं,यहां के बचपने के साथ
मैंने भी चढ़ी हैं सीढ़िया
इस धर्मनिरपेक्ष समाज को चलने वाले
स्कूल और विश्वविद्यालयों की
मैंने भी पढ़ा है पाठ इन विश्वविद्यालयों में
धर्म और एकता को...बनाए रखने का
मैं भी रहा हूं...गवाह उस आज़ादी का
जिसमें बिखरे-टूटे थे...हमारे भी अपने
मैने भी बजायी थी तालियां
दुश्मन के मुक्की खाने पर
मैं भी रहा हमेशा शामिल
उन आवाज़ों के साथ...जो उठी थी
इस धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले समाज को
सम्मान दिलाने के लिए
मैं भी तो रहा हूं शामिल-
यहां के प्रजातंत्र की नींव रखने में
मैने भी चढ़ी हैं...यहां लोकतंत्र की सीढ़ियां
और
मैंने भी रखता हूं,अधिकार...चुनने का उन्हें
जो दावा करते है...हमेशा साथ हमारे रहने का-
इस धर्मनिरपेक्ष समाज में,
मैं इस समाज की उस हर
खुशी और गम में भी रहता हूं मौजूद
जिसका वजूद इसके धर्मनिरपेक्षता से जुड़ा है-
और
जो इसे धर्मनिरपेक्ष बनाता हैं,
मगर पता नहीं क्यों
जब -जब मेरे वजूद...मेरे सम्मान की बात आती है
तब-तब मुझे बार-बार-
खुद के होने का देना पड़ता है सुबूत
मुझे बताना पड़ा
मैं तुम्हारा अपना ही...हिस्सा हूं
मुझ में भी कूट-कूट कर भरी है-धर्मनिरपेक्षता
जिसका वास्तविक अर्थ सिर्फ और सिर्फ
तुम्ही नहीं जानते...जानता हूं मैं भी
फिर भी...बार-बार क्यों देनी होती है
मुझे खुद की पहचाना...अपने ही इस धर्मनिरपेक्ष समाज में?
कभी खुद के लिए आशियाने बनाने को...खोजने को
तो कभी खुद के भूखे पेट के लिए,
और तो और-
जब-जब धर्म के नाम पर,फैलाये जाते है-दंगे यहां...
जब-जब होते हैं हमले...आतंकी
या रची जाती है साज़िश,किसी हमले की-
हमारे अपनो के माध्यम से
अपनों को ही...तबाह करने को
तब-तब भी देनी होती है मुझे-
हर बार सफाई....
खुद के पाक साफ होने की...।
जब-जब हमारा ही अपना वजूद-
करता है....कत्ल किसी अपने का......

शांत शहर में होती है हत्याएं...अपहरण...

या बनते हैं...रिश्ते...बिखरते है...रिश्ते ...

टूटता है...उजड़ता है...हमारा ही अपना कोई
वहां भी मुझे ही देनी होती है...सफाई
इन सब में मेरे कहीं भी न होने की....।
मैं....मंदिर-मस्ज़िद-चर्च-गुरूद्वारों में-
टेकता हूं माथा...मांगता हूं...दुआ-
सबकी खुशी के लिए...ताकि कुछ तो शांति बनी रहे
आस-पास हमारे...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में,
अपने सारे दुःख-सुख भूल कर है-
जिनके बारे-
मैं कहना नहीं चाहता
लेकिन
कहूंगा...आज,...मन की आंखों से भी कहूंगा,
कई-कई बार मैं भी रोया हूं...जी-भर कर
किसी अपने के छूट जाने के बाद
दूर कहीं...अंधेरे में...।
मैं भी करता हूं कोशिश,बार-बार...कई-कई बार
जुड़ने की...उस हर शख्स से
जो करता है...बातें...धर्मनिरपेक्षता की,ईमादारी की
एकता की...जीवन बनाये रखने की-
इसे बचाये रखने की....
मैंने भी उठाया है...गिरतों को कई बार
दिखायी है राह,कई बार भटकों को,
मगर फिर भी पता नहीं क्यों नहीं मिलता मुझे
आशियाना एक...सर ढकने को-
थोड़ा सा प्रेम...किसी अपने धर्मनिरपेक्ष साथी का
नहीं मिलती ज़मीन...एक पग मुझे यहां-
जहां खड़े होकर...मैं चिल्ला-चिल्ला कर कह सकूं ...

हां...हां....मैं तुम्हारा ही अपना हूं-
मुझे समेट लो...अंजुरी में अपनी...
कुछ देर के लिए...ही सही,लगा तो लो गले से मुझे-
न छोड़े न धकेलें मुझे अंधेरे में
मैं भी रहना चाहता हूं...उजाले में,
जीना चाहता हूं,साथ-साथ तुम्हारे
समझना चाहता हूं मैं भी-
प्रेम-एकता की माला में गूंधने का अर्थ
तुम सब के साथ रहते हुए...।
मगर...फिर...भी नहीं देखती मुझे
कुछ आंखें ऐसी...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में
कई-कई मन्नतों के बाद भी
जो कम से कम भिगो तो दें मुझे
आंसुओं से अपने,
जो कम से कम देखें तो सही
एक बार मुड़कर मेरे चेहरे को गौर से...।
मगर मेरी आंखों के सामने
होता है फिर भी...सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा.. ...

और...थक हार कर आ में बैठ जाता हूं मैं-
अकेले में...इस धर्मनिरपेक्ष देश-समाज के ही-
एक छोटे से कोने में...
कोसता हूं...खुद को ही कि-
इस धर्मनिरपेक्ष देश-समाज में मेरा वजूद
आखि़र है भी तो....क्या
मुझे तो हमेशा खुद के वजूद
खुद की ईमादारी...और...
इस देश-समाज के प्रति...खुद की प्रमाणिकता का
देना होता है बार-बार प्रमाण...
उन्हें जो मेरे अपने है...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में...।
कई बार सोचता हूं...कुसूर तो मेरा भी है
मैं तो यूं ही कोसता रहता हूं....धर्मनिरपेक्षता...को-
इसे चलाने वाले ठेकेदारों को,
जो सदियों से नहीं बचा पा रहे है...इसे-
आतंकवाद-भष्ट्राचार की दीमक से,
वह मुझे क्यों बचाएंगे-किस लिए बचाएंगे
मेरे वजूद के बारे में मेरी कौम के बारे में
आखिर क्यों सोचेंगे
मेरे होने न होने से...मेरी कुर्बानी...मेरी ईमानदारी से
इन्हें या इनकी धर्मनिरपेक्षता को
फर्क ही क्या पड़ता है
क्योंकि मैं तो यहां भी मुज़ाहिद हूं...वहां भी
और...पता नहीं मेरी कितनी पीढियां...इस दश्त में
जाएंगी...गुज़र यूं ही....
क्योंकि मैं मुस्तफ़ा अब्बास हूं...?
- जगमोहन 'आज़ाद'



--- End quote ---

Jagmohan Azad:
सवाल खड़े करने से पहले खुद के गिरेबान में झाकें
 
पिछले दिनों ‘निशंक’ सरकार के एक साल पूरा होने पर राज्य में सत्ता के गलियारों में पक्ष-प्रतिपक्ष से लेकर पहाड़ से सड़क तक कुछ ऐसे तत्वों ने और कुछ पार्टी के भीतर बैठे अन्तर्विरोधियो ने निशंक को लगातार घेरने की कोशिश की,तो खुद को इस राज्य का सबसे बड़ा हितैषी मानने वालो ने मुख्यमंत्री पर इस तरह किचड़ उछालने की कोशिश की और कर भी रहे है,मानो इनका खुद का दामन पाक-साफ रहा हो। फिर चाहे वह पूर्व के माननीय रहे हो या प्रतिपक्ष के कुछ वरिष्ठ नेता। हर किसी ने हर हाल में मुख्यमंत्री को घेरने के लिए एक ऐसा चक्रव्यू रचने की कोशिश की कि किसी तरह हो,इस युवा सोच को आगे बढ़ने से रोका जाए। इनकी विकास की गति को वही थाम दिया जाया,जहां से वह शुरू हुई थी। उनकी सोच को वहीं तक सीमित रहने दिया जाया,जहां से वह विकसित होने की कोशिश करती है। किसी ने कहां निशंक की सरकार घोटलो की सरकार है किसी ने कहा,निशंक इस बार खुद के लिए केंद्र से कुछ ज्यादा ही ठग कर ले गए। कोई कहता हैं निशंक निजी हाथों में खेल रहे है...और निशंक हैं कि बिना किसी की बात सुने बढ़े चले जा रहे है। इससे भी कुछ माननीयों को दिक्कत होने लगे....तो उन्होंने मुख्यमंत्री के निजी जीवन पर किचड़ उछालना शुरू कर दिया। तब भी जी नहीं भरा तो...कुछ दोगले किसम के कलमधारियों के साथ मिलकर मुख्यमंत्री को बदनाम करने का बिड़ा उठा लिया....और आखिर में हाथ लगी तो सिर्फ और सिर्फ मायूसी...।
पिछले दस साल से भी ज्यादा का समय हो चुका हैं,उत्तराखंड की जनता को यह सब तमाशा देखते हुए। पर हमारे माननीय हैं कि जनता पर चोट पर चोट किए जा रहे है। सिर्फ इतना ही नहीं उस विकास के पहिये को भी रोक देना चाहते है। जो कुछ दूर तक चलने की क्षमता रखता है। निश्चित तौर पर हमने सोचा था,सोचा ही नहीं देखा भी था। शायद पहली बार की अब हमारी सोच,हमारे जीवन और हमारे विकास की बागडोर युवा सोच के हाथों में है। जिसने विश्व के मानस पटल पर यकीनन उत्तराखंड की विकास यात्रा का एक बड़ा परिपेक्ष खड़ा कर के दिखा दिया हैं और वह भी कुछ ही समय में,यह कोशिश निरतंर जारी भी है। आख़िर क्यों नहीं! हम सब भी इस विकास में शामिल हों। हमें क्यों नहीं तालिया बजानी चाहिए। लेकिन हम ऐसा नहीं करते...हम सिर्फ और सिर्फ कमियां ढूढते है...उस व्यक्ति को गिराने के लिए जो सही मायने में काम कर रहा है।
लेकिन हम ऐसा नहीं करते है। हमारे बारे में  अक्सर कहा भी जाता हैं कि हम जब-जब विकास और सम्मान के लिए आगे बढ़ते है,तब-तब कोई न कोई ऐसा व्यक्ति बीच में रोड़ा खड़ा कर देता है। जो हम या तो गिर जाते है...या फिर रूक जाते है। रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की राह में भी कुछ लोग इसी तरह से रोड़े बन रहे है। क्योंकि उनसे विकास और सम्मान देखा नहीं जाता। तभी तो वह मुख्यमंत्री के सामने कभी घोटालों की फेरिस्त खड़ी कर देते है तो कभी झूठे वादो-प्रतिवादों से उन्हें बेनकाब करने की धमकी देते है। शर्म आनी चाहिए,यकीनन शर्म आनी ही चाहिए की जो विचाराधार राजनैतिक परिवेश से निकलकर समाज-गांव और कुनबे की बात करती है। इन सब के उत्थान की बात करती हो,हम उस पर किचड़ उछाल रहे है।
जरा सोचिए,क्या हमने सोचा था,हम हरिद्वार में इस सदी के सबसे बड़े कुम्भ स्नान के भागीदार होगें? लेकिन ऐसा हुआ और दुनिया ने देखा और देश-दुनिया से लगभग आठ करोड़ से भी ज्यादा लोगों ने इस कुम्भ में जीवन की शांत और शीतल डुबकी लगायी। कुछ पाप धो गए कुछ गंगा की गोद में हस-खेल गए। इससे किसका सम्मान बड़ा ‘निशंक’ का नहीं,हमारे उत्तराखंड का,निशंक ने तो सिर्फ एक भूमिका तैयार की इस सम्मान को पाने के लिए।  इसमें भी कुछ भीतरघाती लोगों और कुछ माननीयों ने आरोप पर आरोप लगाए की निशंक ने खुद का घर भर लिया। इसका मतलब यह हुआ की निशंक से पहले जितनों के हाथों में सत्ता की बागडोर रही उन्होंने भी अपने घर भरे होगें। जो इस तरह के उलू-जूलूल आरोप युवा सोच पर लगाते है।
मुख्यमंत्री ‘निशंक’ को राज्य की बागडोर संभाले अभी एक वर्ष का समय हुआ है। और इसी एक वर्ष में पक्ष-विपक्ष के कुछ माननीयों की आंते जिस तरह से फूल रही है। इससे साफ जाहिर हो जाता हैं कि कुछ तो है,जो अच्छा हो रहा हैं,और निशंक जी को भी यह ध्यान में रखना होगा की जब-जब किसी काम करने वाले व्यक्ति की आलोचना होती है। उसे निश्चित तौर पर यह देखना-समझना चाहिए बीना डरे बीना रूके की वह कुछ ठीक-ठाक अवश्य कर रहा है।
मैं यह भी अच्छी तरह से जानता हूं की कुछ लोगों मेरी बातों से सहमत न हों,यह जरूरी भी है। क्योंकि यह मेरे प्रमाण हैं,क्योंकि पिछले दस सालों में उत्तराखंड में जो कुछ हुआ है। उसको हमने भी अपनी खुली आंखों से देखा है,देखा ही नहीं भोगा भी है। पहले स्वामी जी आएं,उन्होंने खुद के उधार के आलाव उत्तराखंड को क्या दिया यह किसी से छुपा नहीं है। कोश्यारी जी ने एक विशेष सामाज को चमकाने के शिवाया राज्य को क्या दिया यह भी किसी से छुपा नहीं है।2002 से 2007 तक पं.नारायण दत्त तिवारी ने जो बीज बोये उसके फल हम आज तक खा रहे है। माननीय खण्डूरी ने राज्य को एक जनरल की तरह हांका और वह भी खुद चले गए।
इसके बाद उत्तराखंड राज्य की कमाना युवा सोचो को दी गयी। जो निश्चित तौर पर इस राज्य के विकास के लिए कुछ तो समर्पित है ही फिर चाहे आप लाख बुरायी क्यों नहीं कर ले। दरअसल हम जब किसी एक व्यक्ति विशेष को आगे बढ़ते देखते है,निश्चित तौर पर दिल को काबू में नहीं रख पाते है। हम उस व्यक्ति विशेष पर किचड़ उछालते है। ठीक उसी तरह जिस तरह इन दिनों उत्तराखंड में कुछ सत्ता के पिछे के चाटूकार और माननीय, निशंक पर किचड़ उछाल रहे है। क्योंकि निशंक काम कराना जानते हैं और अपनी घोषणाओं के प्रति संजीदगी बरतते हैं.वे तुरंत प्रतिक्रिया देने में माहिर है। जो उन पर हमाला करने वालों को डराती हैं,और इस डर से वह निशंक को घेरना चाहते है। लेकिन निशंक डरते नहीं आगे बढ़ते है। वह भरोसे के साथ कहते हैं,जब तक मैं इस राज्य की बागडोर अपने हाथों में थामें हूं तब तक इस राज्य का एक भी रूपया बरबाद नहीं होगा।
मेरा निवेदन है उन माननीयों और उन पांव खीचने वाले मानभवों से कि एक बार उनके धरातल से जुड़े रहते हुए देखने की कोशिक तो करें कि आज  अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कृषकों के उत्थान और अनु.जाति,अनुःजनजाती तथा सामान्य वर्ग की बालिकाओं की शिक्षा तथा धर्म-आस्था-संस्कृति-पर्यटन आदि आदि के क्षेत्र में जो कार्य हुए इससे पहले आज तक राज्य में ऐसा कभी नहीं हुआ था। यह मेरा आंकलन कतई नहीं बल्कि भारत सरकार की राज्यों की विकास यात्रा पर सालाना रिपोर्ट कहती है।
साथ ही अभी तक के कुंभों में यह पहली बार हुआ हैं कि भारतीय अंतरिक्ष संगठन (इसरो) और उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र के संयुक्त प्रयासों से श्रद्धालुओं की वैज्ञानिक गणना की गयी,जिसमें एक करोड़ 63 लाख श्रद्धालुओं में मुख्य स्नान कर पुण्य अर्जित किया। इसके साथ ही राज्य सरकार का अभिनव प्रयास पतित पावनी गंगा की निर्मलता एवं अविरलता को बनाये रखने के लिए स्पर्श गंगा अभियान  पहली बार शुरू किया गया,जिस पर विपक्षी दलों को शर्म आने लगी,वह भी तब जब हेमामलनी को इस अभियान का ब्रेंडएंबेसडर बनाया गया !  सवाल यह उठता हैं कि जब इनके माननीय रंगरैलिया मनाते हुए पूरे विश्व में चर्चित होते है,तब इनकी शर्म कहा चली जाती है?
बहराल सांस्कृतिक एंव पर्यटन के क्षेत्र में उत्तराखंड ने विश्व सांस्कृतिक मंच पर जो झंडे गाड़े है,वह किसी से छुपा नहीं है। संस्कृति को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने वाला उत्तराखंड देश का पहला राज्य भी निशंक के कार्यकाल में ही बना है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए की राज्य गठन के समय 2.9 प्रतिशत की विकास दर आज बढ़कर 9.5 प्रतिशत हो गयी,जो की राष्ट्रीय विकास दर से अधिक है। साथ ही उत्तराखंड ने देश के 28 प्रदेशों में विकास दस में तीसरा स्थान प्राप्त करने में भी इसी कार्यकाल में सफलता हासिल की है।
निश्चित तौर पर हर व्यक्ति में कुछ न कुछ कमियां होती है। कुछ ऐसा भी होता हैं,जो हर किसी को पसंद नहीं आता है। कुछ वैचारिक मतभेद भी यकीनन होते है। उत्तराखंड के मुख्य मंत्री निशंक के साथ भी इस तरह का परिपेक्ष निश्चित रूप से होगा,यह स्वाभाविक भी हो सकता है। लेकिन जिस युवा सोच के साथ निशंक निरंतर आगे बढ़ रहे हैं,हमें उन्हें मौका देना चाहिए,मेरा ऐसा मानना हैं,ना की उनकी टांग खिचनी चाहिए या फिर उन पर ऐसे गंभीर आरोप लगाने चाहिए। जो इस युवा सोच को आगे बढ़ने से रोक दे और हमारा विकास का पहिया रुक जाएं।
ऐसा कुछ वो लोग भी कर रहे हैं। जिन्हें निशंक के माध्यम से फायदा नहीं पहूंच रहा है। जिस तरह से इन लोगों ने पिछली सरकार के माननीयों के साथ मिलकर लूट मार माचायी वह मेरी नज़र में इस सरकार के कार्यकाल में तो नहीं दिखायी देती। क्योंकि मैने खुद निजी तौर पर कई सांस्कृतिक कार्मियों-पत्रकारों और सत्ता के गलियारों में चक्कर काटने वाले चाटूकारों को देखा हैं कि वह किसी तरह उन भूतपूर्व माननीयों के ईर्द-गिर्द मंडराते रहते थे। जब तक इनकी जेब गरम रही तब तक ये सब इन माननीयों का गुणगान करते है...जब सत्ता गयी तो जैसा होता है,हम भी चले...लेकिन निशंक तुरंत प्रतिक्रिया देने में माहिर है। मीडिया मैनेजमेंट करना उन्हें आता है। उन्हें अपना विजन सामने दिखायी देता है। इसलिए मुझे नहीं लगता की जो लोग निशंक को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं,निशंक उनके जाबब देने में चुक करेगें। मैं तो सिर्फ इतना कहूंगा की कृपया सवाल खड़े करने से पहले खुद के गिरेबान में भी एक बार झाक कर देखें।
जगमोहन ‘आज़ाद’


 
 
 

Jagmohan Azad:
 
GIRDA SAY AKHARI BATCHIT-JAGMOHAN AZADमेरे गीत रहेगें ना तुम्हारे साथ - गिरीश तिवारी 'गिर्दा' 22 अगस्त 2010 उत्तराखण्ड लोक और रंगमंच इतिहास के लिए एक दुःखद दिन रहा है। इसदिन उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध रंगकर्मी-जनकवि गिरीश तिवारी 'गिर्दा' हमारे बीच नहींरहे। यह सुनने पर विश्वा तो नहीं होता,लेकिन यह सच है। अभी जुलाई माह की तो बातहैं,जब गिर्दा से मुलाकात हुई थी। काफी दिनों से उन्हें वरिष्ठ चित्र बी.मोहन नेगीजी के जीवन परिवेश को लेकर एक लेख लिखने का मैने निवेदन किया था। लेकिन 'गिर्दा' लिख नहीं पा रहे थे। इसलिए उन्होंने कहा था,'बबा तुम आ जाओ,मैं बोल दूगां तो लिखलेना',। बस इसी बहाने 'गिर्दा' से मिलने का मुझे शायद यह सौभाग्य प्राप्त हुआ।
'गिर्दा' से इससे पहले जब मेरी मुलाकात हुई थी,या फोन पर बातचीत हुई थी तो तब केमुकाबले गिर्दा इस बार मुझे काफी थके हुए और कमाजोर दिख रहे थे। इसकी वजह शायद यहभी रही हो की वह कुछ देर पहले ही अल्मोड़ा से लौटकर आएं थे। फिर भी 'गिर्दा' सेमिलना मेरे लिए सुखद ही था। वह थके जरूर थे,लेकिन रूके नहीं थे। उनकी आवाज़ में जोमिठास थी,वह हमेशा की तरह अपनी माटी की खुशबू लिए थी। नैनीताल स्थित कैलाखान का वहघर मुझे अब रह-रहकर याद आता हैं। 'गिर्दा' का अतिथि निवेदन मेरे लिए निसंदेह बहुतबड़ा आशीर्वाद था। मुझे उनके वह शब्द बार-बार याद आते हैं कि,अब लगता हैं,समय कम रहगया है। दवाईयां भी साथ नहीं दे रही हैं,देखो बबा क्या होता है? कुछ देरे आराम करनेके बाद 'गिर्दा' ने बीं.मोहन नेगी जी पर बातचीत शुरू की और इसी दौरान उनसे कुछदूसरे विषयों पर भी बातचीत हुई। 'गिर्दा' वर्तमान लोक-सांस्कृति और रंगमंच में होरहे बदवाल को लेकर काफी चिंतित जरूर दिख रहे थे। आख़िर क्यों इन तमाम मुद्दो पर एकअनऔपचारिक बातचीत हुई थी,उसी के कुछ अंशः-
1- 'गिर्दा' आप पहले के मुकाबले अभी काफी थके हुए लग रहे मुझे?
- नहीं-नहीं ऐसा नहीं है,गांव गया था ना। वहां बहुत सारे काम थे,उन्हें पूराकरना था। काफी भाग-दौड़ करनी पड़ी,शायद इसलिए थका सा लग रहा हूं बबा,.हंसते हुए.औरअब बूढ़ा भी तो हो गया ना बबा.।
2- अभी कहां बूढ़े हैं दादा आप,अभी तो आपको एक लंबी यात्रा तय करनी है। हमारेसाथ?
- हां.हां.क्यों नहीं,और नहीं भी कर पाया तो क्या। तुम लोगों के साथ मेरे गीत तोरहेगें ही ना बबा,कहते है ना व्यक्ति चला जाता है,लेकिन उसकी यादें उसकी सौगातहमारे पास हमेशा रह जाती है। इन्हें हमें हमेशा अपने पास संभाल कर रखना चाहिए।
3- इस उम्र में भी आप इतना भागा-दौड़ी इतना काम कर रहे है। कैसे कर पातेहैं,इतना कुछ?
- में संघर्ष करने में विश्वास रखता हूं.बबा.। यही मेरी शक्ति हैं,मैं निरंतरचलते रहने में विश्वास रखता हूं। क्योंकि इससे मेरे सामने नये आयाम खुलते हैं।लेकिन आज ऐसा नहीं हैं,आज बाजारवाद की डिमाण्ड के चक्कर में मानवीय गरिमा,मानवीयमूल्य,मानवीय संवेदनायें रिमाण्ड में जा रही है,नीलाम हो रही है। मैं इनसे लड़ने कीक्षमता हमेशा खुद में रखता हूं। गाता हूं गुनगुनाता और आगे बढ़ता चला जाता हूं।मुझे लगता हैं,तुम जैसे युवा भी इस संघर्ष को खुद में समाहित कर एक नये दिन कीशुरूआत करेगें। मुझे ऐसा लगता हैं,यह दिन जरूर आयेगा।
4- 'तो जैंता एक दिन त आलो ऊ दिन यो दुनीं में'.?
- जैंता एक दिन त आवो ऊ दिन यो दुनी में,गीत के मनुष्य के मनुष्य होने की यात्राका गीत है। मनुष्य द्वारा जो सुंदरतम् समाज भविष्य में निर्मित होगा उसकी प्रेरणाका गीत है,यह उसका खाका भर है। इसमें अभी और कई रंग भरे जाने हैं,मनुष्य की विकासयात्रा के लिए। इसलिए वह दिन इतनी जल्दी कैसे आ जायेगा,इस वक्त तो घोरसंकटग्रस्त-संक्रमणकाल से गुज़र रहे है नां हम सब,लेकिन एक दिन यह गीत-कल्पना जरूरसाकार होगी,इसका विश्वास हैं और इसी विश्वास की सटीक अभिव्यक्ति वर्तमान में चाहिए।
5- गिर्दा ईश्वर को मानते है आप?
- थोड़ी देर चुप रहने के बाद.हां मानता हूं,जैसे गीत-संगीत को पूजता हूं वैसे हीईश्वर को भी। लेकिन मैं अंधविश्वासी नहीं हूं। पहाड़ से हूं,जैसे देव भूमि कहा जाताहै। फिर देवा से कैसे हम दूर हो सकते है। वो तो है ना बबा हमारे साथ.।
6- तो पूर्नजन्म में भी विश्वास करते होगें.यदि आपका पूर्नजन्म हो तो कहां जन्मलेना चाहेगें?
- जोर से हसते हुए.ऐसा हो सकता हैं क्या.यदि हां तो मैं तो बबा,इन्हीं पहाड़ कीवादियों में जन्म लेना चाहूंगा.और अगर ऐसा हो ही गया तो.मैं किसी लोक गीत के धुन तोजरूर बनना चाहूंगा।
7- कुछ ऐसा,जो करने की चाहत हो.लेकिन अभी तक कर नहीं पाए हो?
- बकौल गालिब,'हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि,हर ख्वाहिश पै दम निकले' सो मेरे भाईकिसी भी आदमी की हर चाहत तो कभी पूरी नहीं हो सकती,और मैं भी एक सामान्य आदमी हूं।मगर वास्तविकता यह है कि जब मानव विकास यात्रा का मर्म समझ में आ जायें तो फिरव्यक्तिगत चाहतों की कामी-नाकामी का कोई ख़ास महत्व नहीं रह जाता।
8- गिर्दा आप पुरानी पीढ़ी के कलाकारों समेत नवांकुरों तक के साथ आत्मीयता सेअभी अनवरत कार्य कर रहे हैं.नई पीढ़ी के काम को कैसा मानते हैं और उसे क्या सीखदेंगे आप?
- किसी भी सचेत संस्कृतिकर्मी को सभी 'वय' के लोगों के साथ काम करना ही चाहिए।दरअसल नये-पुराने वाली बात ज्यादा माने नहीं रखती बल्कि काम करने का मूल उद्देश्यमहत्वपूर्ण होता हैं और नये लोगों के साथ काम करने में तो और अच्छा लगता है। कईनई-नई चीजें मिलती है। नये आयाम खुलते है। ख़ास तौर पर रंगमंच संदर्भ में कोशिशकरता हूं कि बच्चों के बीच अधिक से अधिक भागीदारी हो सके। नये लोगों से इतना हीकहना चाहता हूं कि बाजारवाद के इस खतरनाक दौर को विश्लेषित करते हुए सांस्कृतिकार्य का महत्व समझें और सामाजिक-ऐतिहासिक-वैज्ञानिक चेतना के साथ रतना कार्य करें।
JAGMOHAN AZAD

हेम पन्त:
जगमोहन आजाद जी की रचना का प्रसिद्ध चित्रकार बी. मोहन नेगी जी द्वारा बनाया गया कविता चित्र..
 

Poem by - Jagmohan Azad

Jagmohan Azad:
पंत जी यह कविता मेरी संभवत पहली कविता थी...और इसी कविता के लिए मुझे पहली बार दिल्ली सरकार की हिन्दी अकादमी से सम्मान भी मिला था...यह कविता यहां पूरी नहीं हैं,लेकिन मैं जल्द ही इसे प्रकाशित कर दूगा...आभारी है आपके आपने इस कविता को यहां जगह दी....जगमोहन आज़ाद

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