Author Topic: Articles and Poems by Journalist Jagmohan Azad-जग मोहन आज़ाद जी के लेख  (Read 8445 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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दोस्तों,
मेरा पहाड़ पोर्टल आपका परिचय करा रहा है एक ऐसे व्यक्तित्व से जो पेशे से पत्रकार होने के साथ-२ एक कवि और लेखक भी है- श्री जगमोहन आजाद।

Jagmohan Ji has travelled almost all the parts of Uttarakhand. He is the first person to visited the village of famous Uttarakhandi Femal Folk Singer Smt Kabootri Devi and made coverage on her life. In literate area, he has already released many bookes and poems.

Here Jagmohan ji will be writing articles, poems etc. We are sure you would like the articles posted by Mr Jag Mohan Ji.

Regards,

M S Mehta

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Brief Introduction About Jag Mohan Azad
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परिचय

नाम - जगमोहन आज़ाद
मूल नाम - जगमोहन सिंह

पिता -श्री आनन्द सिंह

माता -श्रीमती संपती देवी

जन्मतिथि - 11 अप्रैल 1975

स्थायी पता

जिला- पौड़ी गढ़वाल(उत्तराखंड)

वर्तमान पता

,दिलशाद गार्डन, New Delhi

दिल्ली-110093

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शिक्षा-
एम.ए.(हिन्दी),दिल्ली विश्वविद्यालय

बी.ए.(हिन्दी)इलाहाबाद हिन्दी विश्वविद्यालय

इंटरमीडिएट,नेशनल ओपन स्कूल,दिल्ली

हाईस्कूल,सीबीएसई,दिल्ली

- पत्रकारिता एंव जनसंचार में स्नातकोत्तर उपाधि,जैन स्टूडियो,दिल्ली

दूरभाषा-09871419607

अनुभव

-पांच वर्षों तक दिल्ली दूरदर्शन में प्रोडक्शन असिस्टेंट के पद पर कार्य अनुभव,सथा ही विशेष कार्यक्रम किताब की दुनिया,पत्रिका,कला परिक्रमा,फलक,सृजन सहित 15 अगस्त,26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय पर्वों के दूरर्दशन द्वारा सीधे एवं सजीव प्रसारण का महत्पूर्ण दायित्व-संचालन।

-वर्तमान में सहारा समय न्यूज़ चैनल में पैनल प्रोड्यूसर के पद पर कार्यरत।

-दैनिक जेवीजी टाईम्स में साहित्यिक संवाददाता के पद पर एक वर्ष तक कार्य

-दैनिक कुबेर टाईम्स में सामाजिक और साहित्यिक संवाददाता के रूप में एक वर्ष तक कार्य करते हुए देश के विभिन्न भागों में होने वाले अनेकानेक साहित्यिक कार्यक्रमों की कुशल रिर्पोटिंग।

विशेष-

-टेलिविजन न्यूज़,रेडियो और प्रिन्ट पत्रकारिता तथा प्रकाशन संबंधी सभी कार्यों में दक्ष

-उत्तराखंड आंदोलन में लेखन के जरिए सक्रिय भूमिका का निर्वहन

-टिहरी बांध पर बनी पहली गढ़वाली फिल्म
'भागीरथी' में परिकल्पना,निर्देशन एंव अभिनय

-सामाजिक संस्था
'मनुर्भव' से जुड़े रहते हुए गरीब तबके के लोगों की समस्या के निदान के लिए सतत संघर्षरत

-उत्तराखंड से प्रकाशित मासिका साहित्यक पत्रिका
'लोक-गंगा' में संपादकीय सहयोग

प्रकाशान

साक्षात्कार-

डॉ.रामविलास शर्मा का अंतिम साक्षात्कार(प्रकाशित,आज के सवाल और मार्क्सवाद,पुस्तक में संपादक-डॉ.अजय तिवारी),त्रिलोचन शास्त्री का अंतिम साक्षात्कार साथ ही लगभग 150 लेखको एवं फिल्मी हस्तियों के साक्षात्कार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित

कविताएं-कहानियां और समीक्षाएं,वैचारिक लेख देश की सभी पत्र-पत्रिकाओं में में निरंतर प्रकाशित

-दूरदर्शन एवं आकाशवाणी के दिल्ली केंद्र से समय-समय पर साहित्यक चर्चाएं एवं कविताओं का प्रसारण।

- कविताएं पंजाबी,तेलगु,उर्दू और गढ़वाली-कुमाऊनी में अनूदित।

पुस्तकें-

-कविता संग्रह शाम होते ही
{प्रकाशित}

- कविता संग्रह मुझे कुबूल है
{प्रकाशित}

- उत्तराखंड के लोक-कलाकारों से साक्षात्कार पर आधारित पुस्तक
'लोक की बात',उत्तराखंड के लोक कलाकारों के जीवन एवं सांस्कृतिक परिवेश पर प्रथम रचनात्मक शोध कार्य {प्रेस में}

- वरिष्ठ चित्रकार बी.मोहन नेगी के जीवन पर आधारित पुस्तक
'प्रकृति का चितेरा' {प्रेस में}

सम्मान-

-हिन्दी आकादमी दिल्ली,से कविता वह पहाड़ी लड़की सुनीता के लिए 2004-05 का
'नवोदित लेखक सम्मान'

- हाईलैंडर सांस्कृतिक समिति दिल्ली,से पत्रकारिता के लिए 2004-05 का
'लोक सेवा सम्मान'

-कविता संग्रह शाम होती ही,के लिए प्रथम
'राजेंद्र बोहरा काव्य' सम्मान,जयपुर

- पर्वतीय कला मंच,नोएडा से पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए 2006-07 का
'पर्वतीय कला संस्कृति' सम्मान

पंकज सिंह महर

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उस पार
नदी के किनारे
पहाड़ की तलहटी में-
बसे गांव-घर
खेत-खलिहान
पेड़-पौधे-बूढ़ी नम् आंखें
हो रहे हैं तब्दील खंडहर में
तेजी के साथ...।
- जगमोहन 'आज़ाद'
 

पलायन से जूझ रहे पहाड़ की व्यथा बहुत सुंदर शब्दों में सहज अंदाज में कही आपने.....आशा है आगे भी आपकी ऐसी रचनायें पढ़ने को मिलेंगी।

Jagmohan Azad

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मैने तो पहाड़ी लोक को समझा ही नहीं था-गिरीश तिवारी 'गिर्दा'  (गिरिश तिवारी 'गिर्दा' से युवा कवि-पत्रकार जगमोहन 'आज़ाद' की बातचीत)


गिर्दा मूलतःकुमाउंनी तथा हिन्दी के कवि हैं,लेकिन उन्होंने लोक पंरपराओं के साथ चलते हुए लोक संस्कृति के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनायी।1945 में अलमोड़े के ग्राम ज्योली में जीवंती तथा हंसा दत्त तेवाड़ी के घर जन्मे गिर्दा ने अनेक गीतों को संगीत दिया है। उन्होंने 'अंधायुग','अधेर नगरी','थैंक्यू मिस्टर ग्लाड','मोहिल माटी',आदि नाटकों और गीत नाट्यों का निर्देशन भी किया,वे जनान्दोलनों में भी सक्रिय रहे।

गिर्दा अनेक नौकरियों के बाद गीत एंव नाटक प्रभाग नैनीताल में कार्यरत रहे,1996 में उन्होंने यहां से स्वेच्छावकाश लिया। आकाशवाणी स्टूडिओ व बैठकों से सड़कों तक उनकी अभिव्यक्ति अपनी उड़ान में कभी थकी और रोकी नहीं,वे जोड़ने वाले रचनाकार रहे है,सदा हम में बात करने वाले। उनमें काव्य घमण्ड मौजूद नहीं है। उनका लिखा गीत 'जागो-जागो हो म्यारा लाल',एक लंबा प्रतिरोध गीत बना था जिसने उत्तराखंण्ड आंदोलन के समय में एक नया माप-दंड स्थापित किया था।
गिरीश तिवारी 'गीर्दा' से मिलना और उनसे बातचीत करना किसी अनुभव से कम नहीं था मेरे लिए, 1 अगस्त 2006 को नैनीताल स्थित उनके घर कैलाखान में जब मै गिर्दा से मिलने गया था,तो मुझे एक पल के लिए भी यह नहीं लगा की मै गिर्दा से पहली बार मिल रहा हूं। उनके निवास पर पहुंचते ही गिर्दा ने मुझे अपने साथ अपनी थाली में ही करेले की सब्जी और रोटी खाने का निमंत्रण दिया। पहले तो मुझे यह देखकर थोड़ा झीझक महसूस हुई लेकिन जब गिर्दा ने बार-बार नाश्ता करने की आग्रह किया तो मैं उसे नाकार नहीं पाया,इसी बीच गिर्दा ने बाताया की वह मेरा सुबह से ही नाश्ते के लिए इंतजार कर रहे थे। उन्होंने खुद अपने हाथों से मेरे लिए चाय बनायी थी,लेकिन जब उन्हें मालूम हुआ की मै चाय नहीं पिता तो बोले चलो आज में दो गिलास चाय पी लूंगा...नाश्ते के बाद उन्होंने मुझे सबसे पहले झूसिया दमायी पर बनी फिल्म दिखायी और अपने कुछ लेख-कविताएं सुनायी इसी बीच उनसे बातचीत का यह दौर शुरू हुआ।

1- गिर्दा किस तरह आप लोक-गीतों की लीक से जुड़े,विस्तार से बातएं?

-  जुडाव तो मेरा बचपन से ही था,गुरू लोग ऐसे रहे। मै तो पहाड़ी भाषा में कविता को बडे हलके में लेता था। इस बीच मुझे एक गुरू मिल गए चारू चंद पाण्डे जी,जिनका बहुत बड़ा योगदान है हमको बनाने में,मै गांव का लड़का था। एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया उन दिनों गढ़वाल-कुमाउ एक ही रिजनल होता था। उन्हीं दिनों श्रीनगर गढ़वाल में बच्चों की एक रैली चल रही थी। गुरू जी ने उस रैली मै मुझे बुलाया बोले 'तु गांव का हैं कोई गीत हैं तेरे पास', हां मैने छाती चौड़ी कर कहा,हां साहब है और मै खड़ा हुआ और तड़का से सुना दिया वो गीत,'मडवा भली जामिरों छो'....ये गीत सुनकर गुरू जी तड़का से बोल पड़े अरे ये तो 'सरोता व भुली आई,प्यारी नदोया' की धुन पर रचा गीत है। इसे तो मै भी जानता हूं। मै तो सोचता था तु गांव का है कुछ नया लाएगा गांव से कोई अच्छा सा गीत,यह बात मेरे दिल पर चोटकर गयी,हम हर शनीवार को गांव जाते थे...फिर मै गांव से एक गीत सिखकर आया 'पाराका बांझगाड़ा मै,ब्यूली रूड़ी कोंपी को झालरा,म्यरू मन लागीरोछो ब्यूली रूड़ी,त्यर कुर्ति कलरा', और गुरू जी को सुनाया फिर यही गीत मैने दूसरी बार श्रीनगर में गाया जिसमें मै प्रथम आया उस समय गुरू जी ने मुझे गले से लगा लिया कहा,मुझे नहीं मालूम था की तुम्हें ये बात इतनी बुरी लग जाएगी लेकिन इसके बाद मुझे पत्ता चला की लोक गीत क्या होते हैं...और इस तरह से मेरी यह यात्रा शुरू हो गयी।

2- तो पाण्डे जी की शोबत में आने के बाद आपको काफी कुछ जानने का मौका तो मिला ही होगा?

- हां!यह तो मेरा सौभाग्य ही रहा की पांण्डे जी की शौबत में आने के बाद उन्होंने मुझे तमाम चीजे बतायी यहां तमाम गाथएं है,जिनसे कुमाउनी बोली बनी,जिसमें गुमानी से गौर्दा तक ऐसे कवि पैदा हुए जो भारतेंदु हरिशचंद्र से पहले खड़ी हिन्दी बोली का प्रयोग यहां कर चुके थे। यह जानने का मौका पांण्डे जी से ही मुझे मिला,फिर वह मुझे अपनी रचनाओं के नजदीक ले गए,तब मुझे समझ में आया की हमारे लोक में कितनी विशाल व्यजना है। मैने तो इस पहाड़ी लोक को समझा ही नहीं था। हम तो उर्दू-हिन्दी वाले थे। इसके बाद में विजेन्द्र लाल शाह,लैलिन पंत की शौबत में आया फिर आगे चलकर शमशेर और शेखर पाठक से मुलाकात हुई,इस बीच 66-67 के दौर में नक्सलबाद आदोलन के दौर में कई मित्रों से मेरी जान-पहचान हुई। यहां मुझे वैज्ञानिक और समाजिक दृष्टि मिली व्यंगात्मक अभिव्यक्ति दृष्टी के साथ-साथ जो वस्तुवादी दृष्टि मुझे मिली वो मुझे इन लोगो से मिली इसके बाद में देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले सांस्कृति कार्यक्रमों में गाने लाग और मेरी धारा बदल गयी जन आदोलनों की तरफ, सन् 77 में शेखर पाठक जी नैनीताल आए और फिर प्रत्यक्ष भागीदारी शुरू हो गयी लोक के क्षेत्र में,हमारा मूल उद्देश्य यह रहा की खाली कविता लिखने से कुछ हासिल होने वाला नहीं,जब तक की उसे आप जन से न जोड़े जन चेतना के विकास से न जोड़े,तभी तो उस समय ऐसी कविता लिखी गयी जिनकी गूंज आज भी सुनायी देती है। वह आज भी लोगों को प्रभावित करती है।

3- तो लोक-संस्कृति को किस तरह से आप समझ पाए?

- जब मैने गोर्दा को सुना उन्होंने उस समय कहां था,'छीननी-सकनी कावे सरकार वंदेमातरम्' यह हिंदी गीत का अनुवाद था,तब समझ में आया की संस्कृति क्या होती है। संस्कृति सामाजिक उत्पाद हैं,पूरा सामाजिक चक्र चल रहा हैं,ऐतिहासिक चक्र चल रहा है और इस चक्र में जो पैदा होता है वही तो हमारी संस्कृति है। संस्कृति का मतलब खाली मंच पर गाना या कविता लिख देना,घघरा और पिछोड़ा पहने से संस्कृति नहीं बनती है। संस्कृति तो जीवन शैली है,वह तो सामाजिक उत्पाद है। जिन-जिन मुकामों से मनुष्य की विकास यात्रा गुजरती है,उन-उन मुकामों के अवशेष आज हमारी संस्कृति में मौजूद है,यही तो ऐतिहासिक उत्पाद है। जिन्हें इतिहास ने जन्म दिया है। जब मैने संस्कृति को इसरूप में देखा तो छोलिया का अर्थ भी बदल गया पूरे साहित्य का अर्थ बदल गया,तब मुझे समझ में आया की यह तो सामाजिक उत्पाद हैं फिर मुझे कबीर समझ में आया तुलसी समझ में आने लगा,तब मुझे लगा यह तो एक तरह का आंदोलन है,फिर वीरगाथाएं क्या होती हैं उनका हमारे साथ क्या रिश्ता है,वो समाज को क्या देती है,समाज उनसे क्या लेता है,वर्तमान समाज वीरगाथा गायक को क्या देता है। यह सब मैने संस्कृति से जुड़कर ही समझा है।

4- गिर्दा, आप पहाड़ के लोक के एक मुख्य वाहक हैं...लोक संस्कृति के लिए आपने बहुत कुछ किया है...कई गीत लिखे, कविताएं रचीं...आपकी रचनाएं पहाड़ के लोगों को जगाती हैं, राह दिखाती हैं...आपने कई दशकों के लेखकों, कवियों, गीतकारों और गायकों के साथ काम किया है...लेकिन आपका कार्य सबसे अलग रहा है...आखिर कैसे?

- अगर मेरा कार्य अलग लगता है तो इसका मूल्यांकन तो आप ही लोग करेंगें। मै तो अपने तईं समय और समाज को समझने की कोशिश भर करता रहा,समाज के मूल अंतर्विरोध पकड़ने और उस हिसाब से जनपक्षीय आंदोलनों को रचनात्मक अभिव्यक्ति देने का प्रयास मात्र किया मैने इमानदारी से,फिर विद्या चाहे कोई भी हो।


5-कुछ ऐसा, जो करने की चाहत हो..लेकिन अभी तक कर नहीं पाए?

- बकौल 'गालिब' " हजारों ख्वाहिशों ऐसी कि हर ख्वाहिश पै दम निलके"सो मेरे भाई किसी भी आदमी की हर चाहत तो कभी पूरी हो नहीं सकती,और मै भी एक सामान्य आदमी हूं। मगर वास्तविकता यह है कि जब मानव-विकास यात्रा का मर्म समझ में आ जायें तो फिर व्यक्तिगत चाहतों की कामी-नाकामी का कोई ख़ास महत्व नहीं रह जाता।

6-पहाड़ की जनता ने या तो आपको मंच पर सुना है या फिर रेडियो पर...आपने लोगों के बीच जाकर रचनाएं रचीं और सुनाई हैं...लेकिन जमाना सीडी और कैसेटों का है...आपने ऐसा कुछ क्यों नहीं किया?

- क्यों कि 'सीडी' या 'कैसिट' तो बाजार की मांग पर भी चलते हैं ना,और बाजार में मुझे किसी ने पूछा ही नहीं कभी,दरसल बाजार के लिए जो योग्ता जो गुण चाहिए वो मुझ में हैं ही नहीं। हां,अव्यवसायिक स्तर पर प्रो.शेखर पाठक और डॉ.उमा भट्ट के रिहाइशी कमरे को स्टूडियो बनाकर,पिथौरागढ़ के तकनीकी रूझान वाले युक्त उप्रेती की तकनीकी मशक्कत से तीन कैसिटों का एक सैट 'जागर' के माध्यम से बहुत पहले निकाला था। टैकनीकली यह कैसेट सैट कैसा रहा होगा आप समझ सकते हैं। लेकिन कई पत्र-पत्रिकाओं में उन कैसिटों की खूब समीक्षा छपी थी। जन आंदोलनों में भी बहुत प्रयोग हुआ उनका पूरे देश के स्तर पर,क्योंकि उनमें कुमाउंनी,गढ़वाली.उर्दू,हिन्दी सभी बोली-भाषाओं की रचनाएं शामिल थीं,आज भी कभी-कभार सुनाई देते हैं आन्दोलनों में...।

7-आप पुरानी पीढ़ी के कलाकारों समेत नवांकुरों तक के साथ आत्मीयता से अभी भी अनवरत कार्य कर रहे हैं...नई पीढ़ी के काम को कैसा मानते हैं और उसे सीख देंगे आप?

- किसी भी सचेत संस्कृतिकर्मी को सभी 'वय' के लोगों के साथ काम करना ही चाहिए,दरअसल नये-पुराने वाली बात ज्यादा माने नहीं रखती बल्कि काम करने का मूल उद्देश्य महत्वपूर्ण होता हैं और नये लोगों के साथ काम करने में तो और अच्छा लगता है। कई नई-नई चीजें मिलती हैं। नये आयाम खुलते हैं। ख़ास तौर पर रंगमंच संदर्भ में कोशिश करता हूं कि बच्चों के बीच अधिक से अधिक भागीदारी हो सके। नये लोगों से इतना ही कहना चाहता हूं कि बाजारवाद के इस खतरनाक दौर को विश्लेषित करते हुए सांस्कृतिक कार्य का महत्व समझें और सामाजिक-ऐतिहासिक-वैज्ञानिक चेतना के साथ रचना कार्य करें,वरना बाजारवाद की डिमाण्ड के चक्कर में मानवीय गरिमा,मानवीय मूल्य,मानवीय संवेदनायें ही रिमाण्ड में न चली जायें,नीलाम न हो जायें।
यह ध्यान रहे कि वर्तमान समय तकनीकी विकास के कारण सुंदर और सोद्देश्य काम करने के लिए भी सर्वाधिक उपयोगी साबित हो सकता है। यही वो वक्त है जब फूहड़,निकृष्ट,बाजारू काम के बरअक्स अर्थवान,संजीदा और गंभीर काम भी अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों में सर्वाधिक सक्रियता के साथ किया जाना चाहिए और खुशी की बात है कुछ लोग कर भी रहे हैं।

8-उत्तराखंड आंदोलन के दौरान आपका एक गीत जन-जन तक पहुंचा...जैंता एक दिन त आलो वो दिन यू दुनीं मैं...आपको क्या लगता है कि क्या वो दिन आ गया?

- जैंता एक दिन त आलो ऊ दिन यो दुनी मैं,गीत तो मनुष्य के मनुष्य होने की यात्रा का गीत है। मनुष्य द्वारा जो सुंदरतम् समाज भविष्य में निर्मित होगा उसकी प्रेरणा का गीत है यह,उसका खाका भर है। इसमें अभी और कई रंग भरे जाने हैं मनुष्य की विकास यात्रा के...इसलिए वह दिन इतनी जल्दी कैसे आ जायेगा,इस वक्त तो घोर संकटग्रस्त-संक्रमणकाल से गुजर रहे है नां हम सब,लेकिन एक दिन यह गीत-कल्पना जरूर साकार होगी इसका विश्वास हैं और इसी विश्वास की सटीक अभिव्यक्ति वर्तमान में चाहिएं...बस..।

Jagmohan Azad

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स्वर कोकिला लता मंगेशकर से जगमोहन आज़ाद की बातचीत

भारतीय संगीत में लता मंगेशकर का नाम कौन नहीं जानता। लता जी ने तब गाना शुरू किया था जब देश अंग्रेजों के अधीन था। उन्होंने अपना पहला गाना गाया 1943 में, जब उनकी उम्र करीब 13 साल की थी। गाने के बोल थे ‘माता एक सपूत की दुनिया बदल दे तू...।’ देश के सपूतों ने दुनिया बदल दी। देश आजाद हुआ। आजादी के बाद लता जी की आवाज ने पूरे देश में धूम मचा दी।

 सेल्युलाएड और संगीत का मेल क्या होता है, लता जी ये समझाने वालों में सबसे आगे खड़ी थीं। 1963 में एक समारोह के दौरान जब ‘ए मेरे वतन के लोगों जरा याद करो कुर्बानी’ गाया, वहां मौजूद सबकी आंखें भींग गयी। नेहरू जी भी उनमें से एक थे।
तब से लेकर अब तक लता जी की आवाज ने एक तरफ जनमानस के कानों में संगीत की मिश्री घोली, तो दूसरी तरफ उनके दिलों में देशभक्ति की मशाल भी जलायी, खासकर युवाओं में। पड़ोसी देश के बाशिन्दें भले ही मजाकिया तौर पर कहते हों, ‘कश्मीर ले ले, लता दे दो।’ सच तो ये है कि ये मजाक भी लता जी की अवाज की आवाज के महत्व को बयान करता है।’
पेश है लता जी और जगमोहन आजाद से बातचीत के कुछ अंश :-

 1-लता जी, गाने की प्रेरणा कहां से मिली। नूरजहां की गायकी की शैली से या फिर उनकी आवाज ने आपको प्रेरित

 नहीं, मैंने उनकी गायकी से प्रेरणा ली है, न कि उनकी आवाज से। जिन दिनों मैने गाना शुरू किया था, नूरजहां जी का जमाना था। लोग उनके दिवाने थे, हालांकि सुरैया जी और अमोर बाई को भी लोग खूब सुनते थे। तब मेरे सामने कई चुनौतियां थीं। लेकिन जब आप मन से कोई काम करें, साधक हो जायें, तो कोई परेशानी नहीं होती है। मैंने खूब मेहनत की, अपनी आवाज में ही गाने गाएं, लोगों को मेरी भी आवाज अच्छी लगी और मेरी यह यात्रा शुरू हो गयी।

2-फिल्मों में गाने का मौका कब मिला, पहला गाना कौन सा था ?
गाने की शुरुआत तो बहुत ही संघर्षों से गुजरते हुए हुई, क्योंकि हमारा परिवार तब अभावों की जिंदगी गुजर-बसर कर रहा था। पिताजी नाट्यमंडली चलाते थे। उन्होंने ही मुझे मैंने शास्त्रीय गायन सिखाया। उनकी मंडली में हम सभी भाई-बहन परदे के पीछे से पौराणिक कथाओं को आवाज देते थे। गाने की शुरुआत तभी हो गयी थी।
जहां तक फिल्मों में गाने का सवाल है, सन् 1941-42 में मैंने गाना शुरू किया। मैं आपको बताऊं कि हमारा परिवार सांस्कृतिक परंपराओं, रीति-रिवाज और संस्कारों की मान्यताओं को निर्वाह करने वाला रहा है। पिताजी को यह कतई पसंद नहीं था कि हम फिल्मों में काम करें, लेकिन मैंने पिताजी से छुपते-छुपाते फिल्मों में गाना शुरू कर दिया था।

3-गाना छुपते-छुपाते शुरु हुआ !
जी हां, इसे छुपते-छुपाते ही कहेंगे। मुझे साल तो ठीक से याद नहीं, लेकिन बड़ी रोचक घटना है। तब एक फिल्म के लिए गायन प्रतियोगिता आयोजित की गयी थी। मेरे अंदर का कलाकार चुलबुलाहट करने लगा, पर पिताजी का डर भी सता रहा था। इसलिए मैं भाग नहीं ले पा रही थी। मेरी मौसी ने मेरा साथ दिया, मैं भाग लेने चली गयी और उस प्रतियोगिता में मुझे पहला स्थान मिला।
पिताजी को जब यह बात पता चली, तो वो बहुत नाराज हुए, लेकिन जब रंगमंच के उनके एक मित्र सदाशिव राव जी ने पिताजी से कहा कि इस बच्ची की आवाज बहुत मीठी है, तो मैं बता नहीं सकती कि अंदर-ही-अंदर कितनी खुश हुई। इसके बाद मैंने उनकी मराठी फिल्म ‘किती हसाल’ में बतौर गायिका पहला गाना गाया।

4- आपने फिल्मों में भी अभिनय किया ?
थोड़ा बहुत। जो किया उसे अभिनय नहीं कहना चाहिए। इतना जरूर है कि मैंने गाया भी सबसे पहले मराठी फिल्म में, और से आप अभिनय कह रहे हैं, वो भी पहले-पहल मराठी फिल्म में ही किया। फिल्म थी, नवयुग फिल्म्स की ‘मंगला गौर’ जिसमें मैंने हीरोइन स्नेह प्रभा की बहन का रोल किया था। बाद में मास्टर विनायक जी की फिल्म मंदिर और सुभद्रा में काम किया।
मुझे नहीं लगता कि मुझमें अभिनय कहीं छुपा हुआ हो। जब हमने काम शुरू किया था तब हमारे परिवार की माली हालत ठीक नहीं थी। फिर पिताजी का निधन हो गया और हम पहले से ज्यादा कठिनाइयों में घिर गये, मेरे ऊपर परिवार की जिम्मेदारियां आ गईं। तब मैंने गायन और अभियन दोनों किया।

5-आपने मशहूर संगीत निर्देशक बसंत जोगलेकर, गुलाम हैदर, नौशाद अली, मदन मोहन, नैयर साहब, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल सबके साथ काम किया। युवा पीढ़ी के साथ भी काम किया है। तब और के संगीतकारों में कोई फर्क ?
समय के साथ समाज और समाज से जुड़े लोगों की सोच में परिवर्तिन होता है। विचारधाराएं भी बदलती हैं। यही परिवर्तन या बदलाव सामाजिक जीवन को नयी दिशा देता है। फिर गीत-संगीत भी तो समाज से जुड़ा तत्व है, बदलाव तो आएगा ही, नृत्य-संगीत भी कैसे अछूता रह सकता है।

6- मैं समझा नहीं ?
एक उदाहरण लीजिए। आज फास्ट फॉरवर्ड का जमाना है। हर कोई जल्दी-जल्दी सबकुछ पा लेना चाहता है। संगीतकारों की भी यही स्थिति है। वो फटाफट गाने रिकॉर्ड करना चाहते हैं। एक गाने को कई टुकड़ों में रिकॉर्ड कर उनकी मिक्सिंग करते हैं। ऐसे में गाने में आत्मा कहां रह जाती।

7- शायद यही वजह है कि लोग आजकल गानों को जल्दी भूल जाते हैं !
कह सकते हैं। पहले, गाना गाने से पहले गायक कई दिनों तक रियाज करता था, संगीतकार धुन बनाते थे। तब गाना रिकॉर्ड होता था। अगर बीच में कहीं कहीं गड़बड़ी हुई, तो पूरा गाना दोबारा रिकॉर्ड होता। कई मर्तबा, एक गाना पूरा होने में महीनों लग जाते थे। आज ऐसा नहीं है। मैं देखती हूं कि जो गाने लोगों को अच्छे लगते हैं, उसे भी लोग एक-दो दिन में भूल जाते हैं। जबकि चुपचाप खड़े हो, जरूर कोई बात है और मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू जैसे गीत आज भी लोग गुनगुनाते हैं।

8- इसके लिए फटाफट संगीत दोषी हैं ?
मै किसी पर सवाल खड़ा नहीं कर रही, लेकिन हमें इतना भी हाईटेक नहीं हो जाना चाहिए कि हम अपनी सभ्यता-संस्कृति को भूल जायें। आज कई लोग बढ़िया कर रहे हैं। आनंद राज, विशाल भारद्वाज, और जतिन-ललित के अलावा जिसने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया है, वो हैं ए आर रहमान। रहमान संगीत के साधक हैं। जिस तरह से गाने के लिए साधना की जरूरत होती है, साधक बनना पड़ता है, संगीत में भी ये बातें लागू होती हैं।

9- नये-नये गायकों और संगीत प्रतियोगिताओं पर आपकी प्रतिक्रिया ? आप भी एक शो में नजर आयी थीं ।
देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं। अनगिनत हैं। जरूरत हैं उन्हें अच्छी तरह तरासने की। भारतीय गीत-संगीत से उन्हें अवगत कराने की, गीत-संगीत की आत्मा उन्हें जोड़ने की, क्योंकि जब तक कोई गायक गीत-संगीत की आत्मा से नहीं जुड़ेगा, वह साधना नहीं करेगा। प्रतियोगिताओं के बारे में मैं यही कहूंगी कि मैंने खुद इसी मंच से मकाम हासिल किया है। मंच पर किसी को गलती सुधारने का मौका नहीं मिलता और आप जो कुछ गाते हैं, उसका परिणाम आपको तभी मिल जाता है। लेकिन कोई किसी शो में भाग लेकर संगीतकार नहीं बन जाता, जब तक आप अपना सबकुछ संगीत को अर्पण नहीं कर देते।

10- आप गायिका नहीं बनतीं तो क्या होती ?
शायद डॉक्टर बनती। मगर कहते हैं कि आदमी की तकदीर में जो लिखा होता है, वही होता है। मेरी तकदीर में गायिका बनना लिखा था, सो गायिका बन गयी। [/color]

Jagmohan Azad

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क्योंकि मैं मुस्तफ़ा अब्बास हूं?  


मैं
मुस्तफ़ा अब्बास
पिछले
पचास वर्षों से भी ज्याद समय से
रह रहा हूं
इस धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले
समाज के बीच
बचपन
में...गुल्ली-डंडों और कन्चों के साथ
मैं भी खेला हूं,यहां के बचपने के साथ
मैंने भी चढ़ी हैं सीढ़िया
इस धर्मनिरपेक्ष समाज को चलने वाले
स्कूल और विश्वविद्यालयों की
मैंने भी पढ़ा है पाठ इन विश्वविद्यालयों में
धर्म और एकता को...बनाए रखने का
मैं भी रहा हूं...गवाह उस आज़ादी का
जिसमें बिखरे-टूटे थे...हमारे भी अपने
मैने भी बजायी थी तालियां
दुश्मन के मुक्की खाने पर
मैं भी रहा हमेशा शामिल
उन आवाज़ों के साथ...जो उठी थी
इस धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले समाज को
सम्मान दिलाने के लिए
मैं भी तो रहा हूं शामिल-
यहां के प्रजातंत्र की नींव रखने में
मैने भी चढ़ी हैं...यहां लोकतंत्र की सीढ़ियां
और
मैंने भी रखता हूं,अधिकार...चुनने का उन्हें
जो दावा करते है...हमेशा साथ हमारे रहने का-
इस धर्मनिरपेक्ष समाज में,
मैं इस समाज की उस हर
खुशी और गम में भी रहता हूं मौजूद
जिसका वजूद इसके धर्मनिरपेक्षता से जुड़ा है-
और
जो इसे धर्मनिरपेक्ष बनाता हैं,
मगर पता नहीं क्यों
जब -जब मेरे वजूद...मेरे सम्मान की बात आती है
तब-तब मुझे बार-बार-
खुद के होने का देना पड़ता है सुबूत
मुझे बताना पड़ा
मैं तुम्हारा अपना ही...हिस्सा हूं
मुझ में भी कूट-कूट कर भरी है-धर्मनिरपेक्षता
जिसका वास्तविक अर्थ सिर्फ और सिर्फ
तुम्ही नहीं जानते...जानता हूं मैं भी
फिर भी...बार-बार क्यों देनी होती है
मुझे खुद की पहचाना...अपने ही इस धर्मनिरपेक्ष समाज में?
कभी खुद के लिए आशियाने बनाने को...खोजने को
तो कभी खुद के भूखे पेट के लिए,
और तो और-
जब-जब धर्म के नाम पर,फैलाये जाते है-दंगे यहां...
जब-जब होते हैं हमले...आतंकी
या रची जाती है साज़िश,किसी हमले की-
हमारे अपनो के माध्यम से
अपनों को ही...तबाह करने को
तब-तब भी देनी होती है मुझे-
हर बार सफाई....
खुद के पाक साफ होने की...।
जब-जब हमारा ही अपना वजूद-
करता है....कत्ल किसी अपने का......

शांत शहर में होती है हत्याएं...अपहरण...

या बनते हैं...रिश्ते...बिखरते है...रिश्ते ...

टूटता है...उजड़ता है...हमारा ही अपना कोई
वहां भी मुझे ही देनी होती है...सफाई
इन सब में मेरे कहीं भी न होने की....।
मैं....मंदिर-मस्ज़िद-चर्च-गुरूद्वारों में-
टेकता हूं माथा...मांगता हूं...दुआ-
सबकी खुशी के लिए...ताकि कुछ तो शांति बनी रहे
आस-पास हमारे...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में,
अपने सारे दुःख-सुख भूल कर है-
जिनके बारे-
मैं कहना नहीं चाहता
लेकिन
कहूंगा...आज,...मन की आंखों से भी कहूंगा,
कई-कई बार मैं भी रोया हूं...जी-भर कर
किसी अपने के छूट जाने के बाद
दूर कहीं...अंधेरे में...।
मैं भी करता हूं कोशिश,बार-बार...कई-कई बार
जुड़ने की...उस हर शख्स से
जो करता है...बातें...धर्मनिरपेक्षता की,ईमादारी की
एकता की...जीवन बनाये रखने की-
इसे बचाये रखने की....
मैंने भी उठाया है...गिरतों को कई बार
दिखायी है राह,कई बार भटकों को,
मगर फिर भी पता नहीं क्यों नहीं मिलता मुझे
आशियाना एक...सर ढकने को-
थोड़ा सा प्रेम...किसी अपने धर्मनिरपेक्ष साथी का
नहीं मिलती ज़मीन...एक पग मुझे यहां-
जहां खड़े होकर...मैं चिल्ला-चिल्ला कर कह सकूं ...

हां...हां....मैं तुम्हारा ही अपना हूं-
मुझे समेट लो...अंजुरी में अपनी...
कुछ देर के लिए...ही सही,लगा तो लो गले से मुझे-
न छोड़े न धकेलें मुझे अंधेरे में
मैं भी रहना चाहता हूं...उजाले में,
जीना चाहता हूं,साथ-साथ तुम्हारे
समझना चाहता हूं मैं भी-
प्रेम-एकता की माला में गूंधने का अर्थ
तुम सब के साथ रहते हुए...।
मगर...फिर...भी नहीं देखती मुझे
कुछ आंखें ऐसी...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में
कई-कई मन्नतों के बाद भी
जो कम से कम भिगो तो दें मुझे
आंसुओं से अपने,
जो कम से कम देखें तो सही
एक बार मुड़कर मेरे चेहरे को गौर से...।
मगर मेरी आंखों के सामने
होता है फिर भी...सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा.. ...

और...थक हार कर आ में बैठ जाता हूं मैं-
अकेले में...इस धर्मनिरपेक्ष देश-समाज के ही-
एक छोटे से कोने में...
कोसता हूं...खुद को ही कि-
इस धर्मनिरपेक्ष देश-समाज में मेरा वजूद
आखि़र है भी तो....क्या
मुझे तो हमेशा खुद के वजूद
खुद की ईमादारी...और...
इस देश-समाज के प्रति...खुद की प्रमाणिकता का
देना होता है बार-बार प्रमाण...
उन्हें जो मेरे अपने है...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में...।
कई बार सोचता हूं...कुसूर तो मेरा भी है
मैं तो यूं ही कोसता रहता हूं....धर्मनिरपेक्षता...को-
इसे चलाने वाले ठेकेदारों को,
जो सदियों से नहीं बचा पा रहे है...इसे-
आतंकवाद-भष्ट्राचार की दीमक से,
वह मुझे क्यों बचाएंगे-किस लिए बचाएंगे
मेरे वजूद के बारे में मेरी कौम के बारे में
आखिर क्यों सोचेंगे
मेरे होने न होने से...मेरी कुर्बानी...मेरी ईमानदारी से
इन्हें या इनकी धर्मनिरपेक्षता को
फर्क ही क्या पड़ता है
क्योंकि मैं तो यहां भी मुज़ाहिद हूं...वहां भी
और...पता नहीं मेरी कितनी पीढियां...इस दश्त में
जाएंगी...गुज़र यूं ही....
क्योंकि मैं मुस्तफ़ा अब्बास हूं...?
- जगमोहन 'आज़ाद'


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Azad Ji.

Salute you. This is really very-2 interesting poem you have posted. Thanks a lot for sharing with us.

Hope many members must be appreciating these poems posted by you.



क्योंकि मैं मुस्तफ़ा अब्बास हूं?

मैं

मुस्तफ़ा अब्बास
पिछले
पचास वर्षों से भी ज्याद समय से
रह रहा हूं
इस धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले
समाज के बीच
बचपन
में...गुल्ली-डंडों और कन्चों के साथ
मैं भी खेला हूं,यहां के बचपने के साथ
मैंने भी चढ़ी हैं सीढ़िया
इस धर्मनिरपेक्ष समाज को चलने वाले
स्कूल और विश्वविद्यालयों की
मैंने भी पढ़ा है पाठ इन विश्वविद्यालयों में
धर्म और एकता को...बनाए रखने का
मैं भी रहा हूं...गवाह उस आज़ादी का
जिसमें बिखरे-टूटे थे...हमारे भी अपने
मैने भी बजायी थी तालियां
दुश्मन के मुक्की खाने पर
मैं भी रहा हमेशा शामिल
उन आवाज़ों के साथ...जो उठी थी
इस धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले समाज को
सम्मान दिलाने के लिए
मैं भी तो रहा हूं शामिल-
यहां के प्रजातंत्र की नींव रखने में
मैने भी चढ़ी हैं...यहां लोकतंत्र की सीढ़ियां
और
मैंने भी रखता हूं,अधिकार...चुनने का उन्हें
जो दावा करते है...हमेशा साथ हमारे रहने का-
इस धर्मनिरपेक्ष समाज में,
मैं इस समाज की उस हर
खुशी और गम में भी रहता हूं मौजूद
जिसका वजूद इसके धर्मनिरपेक्षता से जुड़ा है-
और
जो इसे धर्मनिरपेक्ष बनाता हैं,
मगर पता नहीं क्यों
जब -जब मेरे वजूद...मेरे सम्मान की बात आती है
तब-तब मुझे बार-बार-
खुद के होने का देना पड़ता है सुबूत
मुझे बताना पड़ा
मैं तुम्हारा अपना ही...हिस्सा हूं
मुझ में भी कूट-कूट कर भरी है-धर्मनिरपेक्षता
जिसका वास्तविक अर्थ सिर्फ और सिर्फ
तुम्ही नहीं जानते...जानता हूं मैं भी
फिर भी...बार-बार क्यों देनी होती है
मुझे खुद की पहचाना...अपने ही इस धर्मनिरपेक्ष समाज में?
कभी खुद के लिए आशियाने बनाने को...खोजने को
तो कभी खुद के भूखे पेट के लिए,
और तो और-
जब-जब धर्म के नाम पर,फैलाये जाते है-दंगे यहां...
जब-जब होते हैं हमले...आतंकी
या रची जाती है साज़िश,किसी हमले की-
हमारे अपनो के माध्यम से
अपनों को ही...तबाह करने को
तब-तब भी देनी होती है मुझे-
हर बार सफाई....
खुद के पाक साफ होने की...।
जब-जब हमारा ही अपना वजूद-
करता है....कत्ल किसी अपने का......

शांत शहर में होती है हत्याएं...अपहरण...

या बनते हैं...रिश्ते...बिखरते है...रिश्ते ...

टूटता है...उजड़ता है...हमारा ही अपना कोई
वहां भी मुझे ही देनी होती है...सफाई
इन सब में मेरे कहीं भी न होने की....।
मैं....मंदिर-मस्ज़िद-चर्च-गुरूद्वारों में-
टेकता हूं माथा...मांगता हूं...दुआ-
सबकी खुशी के लिए...ताकि कुछ तो शांति बनी रहे
आस-पास हमारे...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में,
अपने सारे दुःख-सुख भूल कर है-
जिनके बारे-
मैं कहना नहीं चाहता
लेकिन
कहूंगा...आज,...मन की आंखों से भी कहूंगा,
कई-कई बार मैं भी रोया हूं...जी-भर कर
किसी अपने के छूट जाने के बाद
दूर कहीं...अंधेरे में...।
मैं भी करता हूं कोशिश,बार-बार...कई-कई बार
जुड़ने की...उस हर शख्स से
जो करता है...बातें...धर्मनिरपेक्षता की,ईमादारी की
एकता की...जीवन बनाये रखने की-
इसे बचाये रखने की....
मैंने भी उठाया है...गिरतों को कई बार
दिखायी है राह,कई बार भटकों को,
मगर फिर भी पता नहीं क्यों नहीं मिलता मुझे
आशियाना एक...सर ढकने को-
थोड़ा सा प्रेम...किसी अपने धर्मनिरपेक्ष साथी का
नहीं मिलती ज़मीन...एक पग मुझे यहां-
जहां खड़े होकर...मैं चिल्ला-चिल्ला कर कह सकूं ...

हां...हां....मैं तुम्हारा ही अपना हूं-
मुझे समेट लो...अंजुरी में अपनी...
कुछ देर के लिए...ही सही,लगा तो लो गले से मुझे-
न छोड़े न धकेलें मुझे अंधेरे में
मैं भी रहना चाहता हूं...उजाले में,
जीना चाहता हूं,साथ-साथ तुम्हारे
समझना चाहता हूं मैं भी-
प्रेम-एकता की माला में गूंधने का अर्थ
तुम सब के साथ रहते हुए...।
मगर...फिर...भी नहीं देखती मुझे
कुछ आंखें ऐसी...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में
कई-कई मन्नतों के बाद भी
जो कम से कम भिगो तो दें मुझे
आंसुओं से अपने,
जो कम से कम देखें तो सही
एक बार मुड़कर मेरे चेहरे को गौर से...।
मगर मेरी आंखों के सामने
होता है फिर भी...सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा.. ...

और...थक हार कर आ में बैठ जाता हूं मैं-
अकेले में...इस धर्मनिरपेक्ष देश-समाज के ही-
एक छोटे से कोने में...
कोसता हूं...खुद को ही कि-
इस धर्मनिरपेक्ष देश-समाज में मेरा वजूद
आखि़र है भी तो....क्या
मुझे तो हमेशा खुद के वजूद
खुद की ईमादारी...और...
इस देश-समाज के प्रति...खुद की प्रमाणिकता का
देना होता है बार-बार प्रमाण...
उन्हें जो मेरे अपने है...इस धर्मनिरपेक्ष समाज में...।
कई बार सोचता हूं...कुसूर तो मेरा भी है
मैं तो यूं ही कोसता रहता हूं....धर्मनिरपेक्षता...को-
इसे चलाने वाले ठेकेदारों को,
जो सदियों से नहीं बचा पा रहे है...इसे-
आतंकवाद-भष्ट्राचार की दीमक से,
वह मुझे क्यों बचाएंगे-किस लिए बचाएंगे
मेरे वजूद के बारे में मेरी कौम के बारे में
आखिर क्यों सोचेंगे
मेरे होने न होने से...मेरी कुर्बानी...मेरी ईमानदारी से
इन्हें या इनकी धर्मनिरपेक्षता को
फर्क ही क्या पड़ता है
क्योंकि मैं तो यहां भी मुज़ाहिद हूं...वहां भी
और...पता नहीं मेरी कितनी पीढियां...इस दश्त में
जाएंगी...गुज़र यूं ही....
क्योंकि मैं मुस्तफ़ा अब्बास हूं...?
- जगमोहन 'आज़ाद'



Jagmohan Azad

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सवाल खड़े करने से पहले खुद के गिरेबान में झाकें
 
पिछले दिनों ‘निशंक’ सरकार के एक साल पूरा होने पर राज्य में सत्ता के गलियारों में पक्ष-प्रतिपक्ष से लेकर पहाड़ से सड़क तक कुछ ऐसे तत्वों ने और कुछ पार्टी के भीतर बैठे अन्तर्विरोधियो ने निशंक को लगातार घेरने की कोशिश की,तो खुद को इस राज्य का सबसे बड़ा हितैषी मानने वालो ने मुख्यमंत्री पर इस तरह किचड़ उछालने की कोशिश की और कर भी रहे है,मानो इनका खुद का दामन पाक-साफ रहा हो। फिर चाहे वह पूर्व के माननीय रहे हो या प्रतिपक्ष के कुछ वरिष्ठ नेता। हर किसी ने हर हाल में मुख्यमंत्री को घेरने के लिए एक ऐसा चक्रव्यू रचने की कोशिश की कि किसी तरह हो,इस युवा सोच को आगे बढ़ने से रोका जाए। इनकी विकास की गति को वही थाम दिया जाया,जहां से वह शुरू हुई थी। उनकी सोच को वहीं तक सीमित रहने दिया जाया,जहां से वह विकसित होने की कोशिश करती है। किसी ने कहां निशंक की सरकार घोटलो की सरकार है किसी ने कहा,निशंक इस बार खुद के लिए केंद्र से कुछ ज्यादा ही ठग कर ले गए। कोई कहता हैं निशंक निजी हाथों में खेल रहे है...और निशंक हैं कि बिना किसी की बात सुने बढ़े चले जा रहे है। इससे भी कुछ माननीयों को दिक्कत होने लगे....तो उन्होंने मुख्यमंत्री के निजी जीवन पर किचड़ उछालना शुरू कर दिया। तब भी जी नहीं भरा तो...कुछ दोगले किसम के कलमधारियों के साथ मिलकर मुख्यमंत्री को बदनाम करने का बिड़ा उठा लिया....और आखिर में हाथ लगी तो सिर्फ और सिर्फ मायूसी...।
पिछले दस साल से भी ज्यादा का समय हो चुका हैं,उत्तराखंड की जनता को यह सब तमाशा देखते हुए। पर हमारे माननीय हैं कि जनता पर चोट पर चोट किए जा रहे है। सिर्फ इतना ही नहीं उस विकास के पहिये को भी रोक देना चाहते है। जो कुछ दूर तक चलने की क्षमता रखता है। निश्चित तौर पर हमने सोचा था,सोचा ही नहीं देखा भी था। शायद पहली बार की अब हमारी सोच,हमारे जीवन और हमारे विकास की बागडोर युवा सोच के हाथों में है। जिसने विश्व के मानस पटल पर यकीनन उत्तराखंड की विकास यात्रा का एक बड़ा परिपेक्ष खड़ा कर के दिखा दिया हैं और वह भी कुछ ही समय में,यह कोशिश निरतंर जारी भी है। आख़िर क्यों नहीं! हम सब भी इस विकास में शामिल हों। हमें क्यों नहीं तालिया बजानी चाहिए। लेकिन हम ऐसा नहीं करते...हम सिर्फ और सिर्फ कमियां ढूढते है...उस व्यक्ति को गिराने के लिए जो सही मायने में काम कर रहा है।
लेकिन हम ऐसा नहीं करते है। हमारे बारे में  अक्सर कहा भी जाता हैं कि हम जब-जब विकास और सम्मान के लिए आगे बढ़ते है,तब-तब कोई न कोई ऐसा व्यक्ति बीच में रोड़ा खड़ा कर देता है। जो हम या तो गिर जाते है...या फिर रूक जाते है। रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की राह में भी कुछ लोग इसी तरह से रोड़े बन रहे है। क्योंकि उनसे विकास और सम्मान देखा नहीं जाता। तभी तो वह मुख्यमंत्री के सामने कभी घोटालों की फेरिस्त खड़ी कर देते है तो कभी झूठे वादो-प्रतिवादों से उन्हें बेनकाब करने की धमकी देते है। शर्म आनी चाहिए,यकीनन शर्म आनी ही चाहिए की जो विचाराधार राजनैतिक परिवेश से निकलकर समाज-गांव और कुनबे की बात करती है। इन सब के उत्थान की बात करती हो,हम उस पर किचड़ उछाल रहे है।
जरा सोचिए,क्या हमने सोचा था,हम हरिद्वार में इस सदी के सबसे बड़े कुम्भ स्नान के भागीदार होगें? लेकिन ऐसा हुआ और दुनिया ने देखा और देश-दुनिया से लगभग आठ करोड़ से भी ज्यादा लोगों ने इस कुम्भ में जीवन की शांत और शीतल डुबकी लगायी। कुछ पाप धो गए कुछ गंगा की गोद में हस-खेल गए। इससे किसका सम्मान बड़ा ‘निशंक’ का नहीं,हमारे उत्तराखंड का,निशंक ने तो सिर्फ एक भूमिका तैयार की इस सम्मान को पाने के लिए।  इसमें भी कुछ भीतरघाती लोगों और कुछ माननीयों ने आरोप पर आरोप लगाए की निशंक ने खुद का घर भर लिया। इसका मतलब यह हुआ की निशंक से पहले जितनों के हाथों में सत्ता की बागडोर रही उन्होंने भी अपने घर भरे होगें। जो इस तरह के उलू-जूलूल आरोप युवा सोच पर लगाते है।
मुख्यमंत्री ‘निशंक’ को राज्य की बागडोर संभाले अभी एक वर्ष का समय हुआ है। और इसी एक वर्ष में पक्ष-विपक्ष के कुछ माननीयों की आंते जिस तरह से फूल रही है। इससे साफ जाहिर हो जाता हैं कि कुछ तो है,जो अच्छा हो रहा हैं,और निशंक जी को भी यह ध्यान में रखना होगा की जब-जब किसी काम करने वाले व्यक्ति की आलोचना होती है। उसे निश्चित तौर पर यह देखना-समझना चाहिए बीना डरे बीना रूके की वह कुछ ठीक-ठाक अवश्य कर रहा है।
मैं यह भी अच्छी तरह से जानता हूं की कुछ लोगों मेरी बातों से सहमत न हों,यह जरूरी भी है। क्योंकि यह मेरे प्रमाण हैं,क्योंकि पिछले दस सालों में उत्तराखंड में जो कुछ हुआ है। उसको हमने भी अपनी खुली आंखों से देखा है,देखा ही नहीं भोगा भी है। पहले स्वामी जी आएं,उन्होंने खुद के उधार के आलाव उत्तराखंड को क्या दिया यह किसी से छुपा नहीं है। कोश्यारी जी ने एक विशेष सामाज को चमकाने के शिवाया राज्य को क्या दिया यह भी किसी से छुपा नहीं है।2002 से 2007 तक पं.नारायण दत्त तिवारी ने जो बीज बोये उसके फल हम आज तक खा रहे है। माननीय खण्डूरी ने राज्य को एक जनरल की तरह हांका और वह भी खुद चले गए।
इसके बाद उत्तराखंड राज्य की कमाना युवा सोचो को दी गयी। जो निश्चित तौर पर इस राज्य के विकास के लिए कुछ तो समर्पित है ही फिर चाहे आप लाख बुरायी क्यों नहीं कर ले। दरअसल हम जब किसी एक व्यक्ति विशेष को आगे बढ़ते देखते है,निश्चित तौर पर दिल को काबू में नहीं रख पाते है। हम उस व्यक्ति विशेष पर किचड़ उछालते है। ठीक उसी तरह जिस तरह इन दिनों उत्तराखंड में कुछ सत्ता के पिछे के चाटूकार और माननीय, निशंक पर किचड़ उछाल रहे है। क्योंकि निशंक काम कराना जानते हैं और अपनी घोषणाओं के प्रति संजीदगी बरतते हैं.वे तुरंत प्रतिक्रिया देने में माहिर है। जो उन पर हमाला करने वालों को डराती हैं,और इस डर से वह निशंक को घेरना चाहते है। लेकिन निशंक डरते नहीं आगे बढ़ते है। वह भरोसे के साथ कहते हैं,जब तक मैं इस राज्य की बागडोर अपने हाथों में थामें हूं तब तक इस राज्य का एक भी रूपया बरबाद नहीं होगा।
मेरा निवेदन है उन माननीयों और उन पांव खीचने वाले मानभवों से कि एक बार उनके धरातल से जुड़े रहते हुए देखने की कोशिक तो करें कि आज  अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कृषकों के उत्थान और अनु.जाति,अनुःजनजाती तथा सामान्य वर्ग की बालिकाओं की शिक्षा तथा धर्म-आस्था-संस्कृति-पर्यटन आदि आदि के क्षेत्र में जो कार्य हुए इससे पहले आज तक राज्य में ऐसा कभी नहीं हुआ था। यह मेरा आंकलन कतई नहीं बल्कि भारत सरकार की राज्यों की विकास यात्रा पर सालाना रिपोर्ट कहती है।
साथ ही अभी तक के कुंभों में यह पहली बार हुआ हैं कि भारतीय अंतरिक्ष संगठन (इसरो) और उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र के संयुक्त प्रयासों से श्रद्धालुओं की वैज्ञानिक गणना की गयी,जिसमें एक करोड़ 63 लाख श्रद्धालुओं में मुख्य स्नान कर पुण्य अर्जित किया। इसके साथ ही राज्य सरकार का अभिनव प्रयास पतित पावनी गंगा की निर्मलता एवं अविरलता को बनाये रखने के लिए स्पर्श गंगा अभियान  पहली बार शुरू किया गया,जिस पर विपक्षी दलों को शर्म आने लगी,वह भी तब जब हेमामलनी को इस अभियान का ब्रेंडएंबेसडर बनाया गया !  सवाल यह उठता हैं कि जब इनके माननीय रंगरैलिया मनाते हुए पूरे विश्व में चर्चित होते है,तब इनकी शर्म कहा चली जाती है?
बहराल सांस्कृतिक एंव पर्यटन के क्षेत्र में उत्तराखंड ने विश्व सांस्कृतिक मंच पर जो झंडे गाड़े है,वह किसी से छुपा नहीं है। संस्कृति को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने वाला उत्तराखंड देश का पहला राज्य भी निशंक के कार्यकाल में ही बना है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए की राज्य गठन के समय 2.9 प्रतिशत की विकास दर आज बढ़कर 9.5 प्रतिशत हो गयी,जो की राष्ट्रीय विकास दर से अधिक है। साथ ही उत्तराखंड ने देश के 28 प्रदेशों में विकास दस में तीसरा स्थान प्राप्त करने में भी इसी कार्यकाल में सफलता हासिल की है।
निश्चित तौर पर हर व्यक्ति में कुछ न कुछ कमियां होती है। कुछ ऐसा भी होता हैं,जो हर किसी को पसंद नहीं आता है। कुछ वैचारिक मतभेद भी यकीनन होते है। उत्तराखंड के मुख्य मंत्री निशंक के साथ भी इस तरह का परिपेक्ष निश्चित रूप से होगा,यह स्वाभाविक भी हो सकता है। लेकिन जिस युवा सोच के साथ निशंक निरंतर आगे बढ़ रहे हैं,हमें उन्हें मौका देना चाहिए,मेरा ऐसा मानना हैं,ना की उनकी टांग खिचनी चाहिए या फिर उन पर ऐसे गंभीर आरोप लगाने चाहिए। जो इस युवा सोच को आगे बढ़ने से रोक दे और हमारा विकास का पहिया रुक जाएं।
ऐसा कुछ वो लोग भी कर रहे हैं। जिन्हें निशंक के माध्यम से फायदा नहीं पहूंच रहा है। जिस तरह से इन लोगों ने पिछली सरकार के माननीयों के साथ मिलकर लूट मार माचायी वह मेरी नज़र में इस सरकार के कार्यकाल में तो नहीं दिखायी देती। क्योंकि मैने खुद निजी तौर पर कई सांस्कृतिक कार्मियों-पत्रकारों और सत्ता के गलियारों में चक्कर काटने वाले चाटूकारों को देखा हैं कि वह किसी तरह उन भूतपूर्व माननीयों के ईर्द-गिर्द मंडराते रहते थे। जब तक इनकी जेब गरम रही तब तक ये सब इन माननीयों का गुणगान करते है...जब सत्ता गयी तो जैसा होता है,हम भी चले...लेकिन निशंक तुरंत प्रतिक्रिया देने में माहिर है। मीडिया मैनेजमेंट करना उन्हें आता है। उन्हें अपना विजन सामने दिखायी देता है। इसलिए मुझे नहीं लगता की जो लोग निशंक को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं,निशंक उनके जाबब देने में चुक करेगें। मैं तो सिर्फ इतना कहूंगा की कृपया सवाल खड़े करने से पहले खुद के गिरेबान में भी एक बार झाक कर देखें।
जगमोहन ‘आज़ाद’


 
 
 

Jagmohan Azad

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GIRDA SAY AKHARI BATCHIT-JAGMOHAN AZAD
मेरे गीत रहेगें ना तुम्हारे साथ - गिरीश तिवारी 'गिर्दा'
22 अगस्त 2010 उत्तराखण्ड लोक और रंगमंच इतिहास के लिए एक दुःखद दिन रहा है। इसदिन उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध रंगकर्मी-जनकवि गिरीश तिवारी 'गिर्दा' हमारे बीच नहींरहे। यह सुनने पर विश्वा तो नहीं होता,लेकिन यह सच है। अभी जुलाई माह की तो बातहैं,जब गिर्दा से मुलाकात हुई थी। काफी दिनों से उन्हें वरिष्ठ चित्र बी.मोहन नेगीजी के जीवन परिवेश को लेकर एक लेख लिखने का मैने निवेदन किया था। लेकिन 'गिर्दा' लिख नहीं पा रहे थे। इसलिए उन्होंने कहा था,'बबा तुम आ जाओ,मैं बोल दूगां तो लिखलेना',। बस इसी बहाने 'गिर्दा' से मिलने का मुझे शायद यह सौभाग्य प्राप्त हुआ।
'गिर्दा' से इससे पहले जब मेरी मुलाकात हुई थी,या फोन पर बातचीत हुई थी तो तब केमुकाबले गिर्दा इस बार मुझे काफी थके हुए और कमाजोर दिख रहे थे। इसकी वजह शायद यहभी रही हो की वह कुछ देर पहले ही अल्मोड़ा से लौटकर आएं थे। फिर भी 'गिर्दा' सेमिलना मेरे लिए सुखद ही था। वह थके जरूर थे,लेकिन रूके नहीं थे। उनकी आवाज़ में जोमिठास थी,वह हमेशा की तरह अपनी माटी की खुशबू लिए थी। नैनीताल स्थित कैलाखान का वहघर मुझे अब रह-रहकर याद आता हैं। 'गिर्दा' का अतिथि निवेदन मेरे लिए निसंदेह बहुतबड़ा आशीर्वाद था। मुझे उनके वह शब्द बार-बार याद आते हैं कि,अब लगता हैं,समय कम रहगया है। दवाईयां भी साथ नहीं दे रही हैं,देखो बबा क्या होता है? कुछ देरे आराम करनेके बाद 'गिर्दा' ने बीं.मोहन नेगी जी पर बातचीत शुरू की और इसी दौरान उनसे कुछदूसरे विषयों पर भी बातचीत हुई। 'गिर्दा' वर्तमान लोक-सांस्कृति और रंगमंच में होरहे बदवाल को लेकर काफी चिंतित जरूर दिख रहे थे। आख़िर क्यों इन तमाम मुद्दो पर एकअनऔपचारिक बातचीत हुई थी,उसी के कुछ अंशः-
1- 'गिर्दा' आप पहले के मुकाबले अभी काफी थके हुए लग रहे मुझे?
- नहीं-नहीं ऐसा नहीं है,गांव गया था ना। वहां बहुत सारे काम थे,उन्हें पूराकरना था। काफी भाग-दौड़ करनी पड़ी,शायद इसलिए थका सा लग रहा हूं बबा,.हंसते हुए.औरअब बूढ़ा भी तो हो गया ना बबा.।
2- अभी कहां बूढ़े हैं दादा आप,अभी तो आपको एक लंबी यात्रा तय करनी है। हमारेसाथ?
- हां.हां.क्यों नहीं,और नहीं भी कर पाया तो क्या। तुम लोगों के साथ मेरे गीत तोरहेगें ही ना बबा,कहते है ना व्यक्ति चला जाता है,लेकिन उसकी यादें उसकी सौगातहमारे पास हमेशा रह जाती है। इन्हें हमें हमेशा अपने पास संभाल कर रखना चाहिए।
3- इस उम्र में भी आप इतना भागा-दौड़ी इतना काम कर रहे है। कैसे कर पातेहैं,इतना कुछ?
- में संघर्ष करने में विश्वास रखता हूं.बबा.। यही मेरी शक्ति हैं,मैं निरंतरचलते रहने में विश्वास रखता हूं। क्योंकि इससे मेरे सामने नये आयाम खुलते हैं।लेकिन आज ऐसा नहीं हैं,आज बाजारवाद की डिमाण्ड के चक्कर में मानवीय गरिमा,मानवीयमूल्य,मानवीय संवेदनायें रिमाण्ड में जा रही है,नीलाम हो रही है। मैं इनसे लड़ने कीक्षमता हमेशा खुद में रखता हूं। गाता हूं गुनगुनाता और आगे बढ़ता चला जाता हूं।मुझे लगता हैं,तुम जैसे युवा भी इस संघर्ष को खुद में समाहित कर एक नये दिन कीशुरूआत करेगें। मुझे ऐसा लगता हैं,यह दिन जरूर आयेगा।
4- 'तो जैंता एक दिन त आलो ऊ दिन यो दुनीं में'.?
- जैंता एक दिन त आवो ऊ दिन यो दुनी में,गीत के मनुष्य के मनुष्य होने की यात्राका गीत है। मनुष्य द्वारा जो सुंदरतम् समाज भविष्य में निर्मित होगा उसकी प्रेरणाका गीत है,यह उसका खाका भर है। इसमें अभी और कई रंग भरे जाने हैं,मनुष्य की विकासयात्रा के लिए। इसलिए वह दिन इतनी जल्दी कैसे आ जायेगा,इस वक्त तो घोरसंकटग्रस्त-संक्रमणकाल से गुज़र रहे है नां हम सब,लेकिन एक दिन यह गीत-कल्पना जरूरसाकार होगी,इसका विश्वास हैं और इसी विश्वास की सटीक अभिव्यक्ति वर्तमान में चाहिए।
5- गिर्दा ईश्वर को मानते है आप?
- थोड़ी देर चुप रहने के बाद.हां मानता हूं,जैसे गीत-संगीत को पूजता हूं वैसे हीईश्वर को भी। लेकिन मैं अंधविश्वासी नहीं हूं। पहाड़ से हूं,जैसे देव भूमि कहा जाताहै। फिर देवा से कैसे हम दूर हो सकते है। वो तो है ना बबा हमारे साथ.।
6- तो पूर्नजन्म में भी विश्वास करते होगें.यदि आपका पूर्नजन्म हो तो कहां जन्मलेना चाहेगें?
- जोर से हसते हुए.ऐसा हो सकता हैं क्या.यदि हां तो मैं तो बबा,इन्हीं पहाड़ कीवादियों में जन्म लेना चाहूंगा.और अगर ऐसा हो ही गया तो.मैं किसी लोक गीत के धुन तोजरूर बनना चाहूंगा।
7- कुछ ऐसा,जो करने की चाहत हो.लेकिन अभी तक कर नहीं पाए हो?
- बकौल गालिब,'हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि,हर ख्वाहिश पै दम निकले' सो मेरे भाईकिसी भी आदमी की हर चाहत तो कभी पूरी नहीं हो सकती,और मैं भी एक सामान्य आदमी हूं।मगर वास्तविकता यह है कि जब मानव विकास यात्रा का मर्म समझ में आ जायें तो फिरव्यक्तिगत चाहतों की कामी-नाकामी का कोई ख़ास महत्व नहीं रह जाता।
8- गिर्दा आप पुरानी पीढ़ी के कलाकारों समेत नवांकुरों तक के साथ आत्मीयता सेअभी अनवरत कार्य कर रहे हैं.नई पीढ़ी के काम को कैसा मानते हैं और उसे क्या सीखदेंगे आप?
- किसी भी सचेत संस्कृतिकर्मी को सभी 'वय' के लोगों के साथ काम करना ही चाहिए।दरअसल नये-पुराने वाली बात ज्यादा माने नहीं रखती बल्कि काम करने का मूल उद्देश्यमहत्वपूर्ण होता हैं और नये लोगों के साथ काम करने में तो और अच्छा लगता है। कईनई-नई चीजें मिलती है। नये आयाम खुलते है। ख़ास तौर पर रंगमंच संदर्भ में कोशिशकरता हूं कि बच्चों के बीच अधिक से अधिक भागीदारी हो सके। नये लोगों से इतना हीकहना चाहता हूं कि बाजारवाद के इस खतरनाक दौर को विश्लेषित करते हुए सांस्कृतिकार्य का महत्व समझें और सामाजिक-ऐतिहासिक-वैज्ञानिक चेतना के साथ रतना कार्य करें।
JAGMOHAN AZAD

हेम पन्त

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जगमोहन आजाद जी की रचना का प्रसिद्ध चित्रकार बी. मोहन नेगी जी द्वारा बनाया गया कविता चित्र..
 

Poem by - Jagmohan Azad

Jagmohan Azad

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पंत जी यह कविता मेरी संभवत पहली कविता थी...और इसी कविता के लिए मुझे पहली बार दिल्ली सरकार की हिन्दी अकादमी से सम्मान भी मिला था...यह कविता यहां पूरी नहीं हैं,लेकिन मैं जल्द ही इसे प्रकाशित कर दूगा...आभारी है आपके आपने इस कविता को यहां जगह दी....जगमोहन आज़ाद

 

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