Author Topic: Articles By Bhisma Kukreti - श्री भीष्म कुकरेती जी के लेख  (Read 721877 times)

Bhishma Kukreti

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                   Occupying nearby Village Land 
                  British Administration in Garhwal   -165
       -
History of British Rule/Administration over Kumaun and Garhwal (1815-1947) -185
-
 
            History of Uttarakhand (Garhwal, Kumaon and Haridwar) -1017
-
                              By: Bhishma Kukreti (History Student)
      Most of the places in British Garhwal, people built temporary huts at nearby village land too. With the help of Kamin and Thokdar or Padhan, villagers got occupancy rights on that land (lagga gaon). Before British entered,  and in British time too, villagers used to build temporary huts (Chhani) in nearby village forest land for keeping domestic animals there in winter or rainy season. Villagers made Pakki Jhopdi and showed that land as occupied land (Dakhila). Even people started living there permanently.
   In 1822, Trail took step for counting number of villages and houses. The details are as under –
                    Shrinagar Tehsil
 Pargana --------------- Nos Villages -----------Houses numbers
Barasyun--------------------624-------------------3306
Devalgarh-------------------204 ------------------1654
Chaundkot------------------342-----------------------1841
Nagpur-----------------------579------------------4007
Gangasalan------------------452---------------------1881
Painkhnda---------------------46-----------------------474
Sub Total---------------------------2247---------------------13167
           Chandpur Tehsil
Pargana --------------- Nos Villages -----------Houses numbers
Chandpur-------------------352-------------------------2007
Badhan---------------------280-------------------------1347
Tallasalan----------------284--------------------1124
Mallasalan-----------------197------------------1009
Dashauli--------------------- 96--------------------649
Sub Total---------------------1210---------------6136
Grand Total Garhwal---------3457--------------19302
Trail calculated population for 125000 of British Garhwal by estimating 6.5 per house. 
  Atkinson stated that the estimate was on very higher side.
Batten took census through patwaris in 1841-42. The population was recorded as follows-
Male-42968
Male children—28836
Females –60382
Total –1,31916
The demographic population was s follows-
Shilpkar (Dome)- 22098
Muslims-----------396
Hindu----------109452
Brahmins----- 29122
Rajput-------------44470
Khasiya----------------34502
Gulam-(Das)----------------1358
The comparative population chart is interesting-
Year--------Mature Males---Male Child------Females ----------Total
1822------------------------------------------------------------Estimated 125000
1841------------42698------------28836-----------60382--------------131916
1853-------------67311-------------51968----------116509-----------235788
1858-----------66170----------------53857---------------113299----------233326
1865-----------------------------------------------------------------------------248742

XXX   
References 
1-Shiv Prasad Dabral ‘Charan’, Uttarakhand ka Itihas, Part -7 Garhwal par British -Shasan, part -1, page- 343-77 from Vishnu Singh Gorla Rawat collection
2-Joshi, Khas Family law
3- Paw- Garhwal Settlement page 44
4-Batton , Garhwal resettlement report – 521-529
5-Becket, Garhwal Settlement Report page 35
6- Atkinson, Himalyan districts page 266
7-Trail, Sketch of Kumaonvol 16, page 228
























Bhishma Kukreti

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                   Population Increase   
                  British Administration in Garhwal   -166
       -
History of British Rule/Administration over Kumaun and Garhwal (1815-1947) -186
-
 
            History of Uttarakhand (Garhwal, Kumaon and Haridwar) -1018
-
                              By: Bhishma Kukreti (History Student)
Atkinson did not provide population recorded in census of 1865 for the reason of unreliable figures.
   The following population figures are taken from Paw (Garhwal Settlement report, page 29) –
Pargana---------1841---------1853-----------------1858-----------------1865
Badhan---------9824---------15541----------------16880---------------16618
Barasyun--------22063--------12121-----------------17702------------37463
Chandpur--------11032--------25017----------------22950-----------23460
Chaundkot--------7130---------13648----------------13543------------17646
Dashauli------------3261--------7106----------------7063-------------7110
Devalgarh-----------9474---------20408------------17645--------------18629
Gangasalan---------16132--------28078------------30265-------------32533
Mallasalan-----------16132------29471-----------30388----------------32955
Nagpur-----------------18516-------30340-------28530-----------------29133
Tallasalan--------------13343-------263424----- 26064-------------27596
Total------------------131916-----------235744------233326-----------248742
 Devalgarh had an exclusivity that women folks as prostitutes, dancers etc were more initially but slowly they fled away from Shrinagar.
  The demography in 1865 was as follows-
Brahmin---------------- 59463
Rajpur, Chhatri -------- 30545
Business men -------------206
Shudra-Khasi--------------107620
Dome-------------------------35992
Muslim , Shekh etc ------------110
Other Muslims--------------------623
Now, in 1865, British officlas included Dome in Hindu and Khasia were excluded from Rajput.
The agriculture land increased from 1823 as 102921 20 path to 133935 X20 Path
 There was hundred percent popular growth in British rule within fifty years in British Garhwal

XXX   
References 
1-Shiv Prasad Dabral ‘Charan’, Uttarakhand ka Itihas, Part -7 Garhwal par British -Shasan, part -1, page- 343-77 from Vishnu Singh Gorla Rawat collection
2-Joshi, Khas Family law
3- Paw- Garhwal Settlement page 44
4-Batton , Garhwal resettlement report – 521-529
5-Beckett, Garhwal Settlement Report page 35
6- Atkinson, Himalyan districts page 266
7-Trail, Sketch of Kumaonvol 16, page 228























Bhishma Kukreti

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  यात्रियों हेतु मनोरंजन साधन

( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- )

  -

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -84

-

  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -   84             

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--187)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग -187

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

  ढाकरियों के मनोरंजन साधन
पर्यटन कोई भी हो पर्यटकों को समय काटने या दिल बहलाने हेतु मनोरंजन आवश्यक होता है।

   यात्रा या पर्यटन दो प्रकार का होता है - 1 -बाह्य पर्यटन जहां बाहर के यात्री यात्रा करते हैं और 2 -आंतरिक यात्रा जहां निवासी अपने ही क्षेत्र में यात्रा करते हैं। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में आंतरिक पर्यटन अधिकतर 'ढाकर ' लाने हेतु होता था।  ढाकर का अर्थ है मुख्य मैदानी बजार से गृह उपयोगी वस्तुओं का ढोकर लाना।  विभिन्न क्षेत्रों से ब्रिटिश गढ़वाल के लोग या ढाकरी  नजीबाबाद , कोटद्वार व दुगड्डा पंहुचते थे।  ब्रिटिश काल में दुग्गड़ा प्रमुख मंडी बन गयी थी व मल्ला -तल्ला सलाण के लोग रामनगर जाते थे।  मनियारस्यूं से उत्तरी भाग वाले बांघाट होते हुए , द्वारीखाल डाडा मंडी होते हुए दुग्गडा पंहुचते थे। ढाकरी  बीच बीच में रात्रि विश्राम लेते थे और विश्राम स्थल पारम्परिक होते थे।  इन विश्राम स्थलों में ढाकरी स्वयं ढुंगळे बनाते थे व अधिकतर नमक मिर्च, कच्चा प्याज या यदि तरकारी उपलब्ध हो तो तरकारी के साथ खाते थे।डा डबराल ने लिखा है कि यात्रा में यात्री सत्तू  व घुइयाँ की सब्जी बनाते थे। ढाकरी भोजन पर अनावश्यक व्यय नहीं करते थे।
   टिहरी गढ़वाल के लोग ऋषिकेश ढाकर हेतु आते थे।
      रात्रि में ढाकरी विश्राम स्थल पर स्व रचित स्वांग (नाटक ) खेलते थे।  लोकगीत गाते थे , मैणा (पहेलियाँ ) बुझाते थे व कहावतों व लोककथाओं का आदान प्रदान करते थे।  ढाकरियों मध्य, गायक  गपोड़ी या हास्य रचियिता की बड़ी मांग होती थी।  घडेळा के जागर भी गाये जाते थे। डाडा मंडी व बांघाट जैसे मंडी में बादी  बादण भी आया जाया करते थे और इनाम के ऐवज में नाच गान करते थे। कोटद्वार में हुड़क्या , मिरासी भी यह काम करते थे। इन मंडियों में बाक्की -पुछेर भी अवश्य पंहुचते ही होंगे। ब्रिटिश काल में दुगड्डा आदि वैश्योओं के लिए भी प्रसिद्ध हो गए थे।
                  हरिद्वार -ऋषिकेश में तीर्थ यात्रियों के मनोरंजन साधन
  हरिद्वार -ऋषिकेश व झंडा मुहल्ला देहरादून ब्रिटिश काल में तीर्थस्थल ही नहीं वाणिज्य स्थल  भी बन चुके थे तो तीर्थ यात्रियों के लिए व्यापारी  कई मनोरंजन के साधन जुटाते थे जैसे चरखी , जादू टोना।  इन स्थलों पर नर्तक नर्तिकाएँ भी आते थे।
 हरिद्वार ऋषिकेश में अखाड़ा आदि में भजन कीर्तन व साधुओं के प्रवचन चलते रहते थे।  तीर्थ यात्री सैर सपाटा भी कर लेते थे।  हरिद्वार ऋषिकेश में शुरू से ही राजा महाराजा व धनी  वर्ग अपने लाव लशखर के साथ आते थे तो तीर्थ यात्रिओं को उनके लाव लश्कर (घोड़े , सैनिक आदि ) देखने का अवसर भी मिलता था । व्यापारी सामयिक मनोरंजन साधन जुटाते रहते थे। घडेळा -तंत्र मंत्र तो आज भी प्रचलित हैं ही।  मंदिरों में आरती भी चलती रहती थी।
नट नाटियों का खेल सदा से ही यात्रियों को लुभाता आया है।
 हरिद्वार में शायद प्रोजेक्टर से सिनेमा दिखाने का भी रिवाज रहा होगा। देहरादून में सिनेमा प्रसिद्ध थे।
    गैर हिन्दू साधुओं द्वारा प्रवचन
 हरिद्वार बौद्ध युग में भी प्रसिद्ध तीर्थ स्थल था और मेलों के समय भीड़ लाभ लेने बौद्ध विद्वान् प्रवचन देने आते थे।  बौद्ध साहित्य में हरिद्वार में अहोगंग स्थान बहुत प्रसिद्ध स्थान माना गया है।  गुरु नानक ने भी हरिद्वार में प्रवचन दिया था व लोगों ने प्रवचन सुना था।
    हरिद्वार में मिसनरी पादरी भी प्रवचन देने आते रहते थे और  बड़ी भीड़ इन प्रवचनों को सुनती थी।

              चट्टियों में मनोरंजन साधन
         
      हरिद्वार -ऋषिकेश से बद्रीनाथ  यात्रा वर्णन सर्व प्रथम हमे पुर्तगाली पादरी अंद्रादे अंतिनो (1580 -16 34 ) की पुर्तगाली भाषा में लिखी आत्मकथा (1624 ) में मिलता है।  पादरी अंतिनो पहले यूरोपियन यात्री है जो गढ़वाल होते हुए तिबत पंहुचा था (1624 ) । अंतिनो गोवा से आगरा , दिल्ली होते हुए  हरिद्वार पंहुचा था और फिर बद्रीनाथ तीर्थ यात्रियों के साथ श्रीनगर होते हुए माणा पंहुचा था।  अंतिनों ने अपनी यात्रा वर्णन में ऋषिकेश से श्रीनगर -माणा मारहग की कठिनाईयों का वर्णन है किन्तु इस लेखक को तीर्थ यात्रियों के मनोरजन के बारे में अंतिनो के अनुभव न मिल सके।
    ब्रिटिश अधिकारी आदम ने 'रिपोर्ट ऑन पिलग्रिम रोड्स ' में  ऋषिकेश से बद्रीनाथ यात्रियों की सुविधाओं का वर्णन किया और चट्टी प्रबंधन की भुरू भूरी प्रशंसा की।
       यद्यपि यात्रियों के मनोरंजन पर अधिक नहीं लिखा गया किन्तु अनुमान लगाया जा सकता है कि तीर्थ यात्रिओं के लिए निम्न मनोरंजन साधन उपलब्ध थे -
कथा वाचक - यात्री अधिकतर समूह में आते थे और कई समूह अपने साथ कथा वाचक लाते थे जो रात्रि विश्राम स्थल पर कथाएं सुनाते थे।  देव प्रयाग के पंडे भी स्थानीय कथा वाचकों का प्रबंध करते थे।
मंदिरों में भजन कीर्तन चलते थे और यात्री इन भजनों में सम्मलित होते थे।
भजन कीर्तन - रात्रि विश्राम के वक्त यात्री सामूहिक भजन कीर्तन करते थे। समूह एक भाषी होते थे तो अपनी भाषा के गीत आदि गाकर या लोककथाएं या गाथाएं सुनकर अपना मनोरंजन करते थे।
गपोड़ी यात्री -  हर समूह में गपोड़ी यात्री मिल ही जाते हैं जो समूह का भरपूर मनोरंजन करते हैं। अंताक्षरी   पहेलियाँ बुझाना खेल    तो भारत के प्राचीन  रहे हैं तो  इन   आंतरिक खेलों  अवश्य  करते ही मनोरंजन करते रहे होंगे।
गीतकार - समूह में कोई न कोई गीत भी सुनाता था।

  बड़ी चट्टियों पर गढ़वाली बादी बादणों  द्वारा मनोरंजन

 बड़ी चट्टियों पर सदा कुछ न कुछ धार्मिक कार्यकर्म या मेला , अनुष्ठान नियोजित होते ही रहते थे। ऐसे समय गढ़वाली बादी बादण इन चट्टियों में आ जाते थे और यात्रियों का मनोरंजन करते थे।
घडेळा - इन चट्टियों में स्थानीय लोग घडेळा  भी रखवाते थे और इस तरह यात्री उन घडेळों  से आनंद उठाते थे। सन 1965 में यह लेखक व्यासचट्टी बैसाखी मेले में गया था तो उसने एक मराठी तीर्थ यात्री समूह को घडेळा का आनंद लेते देखा था।  उस समय बहुत से यात्री पैदल यात्रा भी करते पाए जाते थे। सरौं नर्तक तो इन चट्टियों में अपना प्रदर्शन करते ही रहते थे।
प्रवचन - किसी साधी दवारा प्रवचन तो आम बात थी।
जादू टोना - जादू दिखाने वाले भी इन चट्टियों में पंहुच ही जाते थे।
  ब्रिटिश काल में व्यापारी इन चट्टियों में मनोरंजन साधन जुटाने लगे थे।
 बायस्कोप - बायोस्कोप दिखने का रिवाज भी शुरू हो गया था।
 मेलों में तीर्थ यात्री पंडो नृत्य से भी यात्री लाभ उठाते थे।
बांसुरी विक्रेता या डमरू विक्रेता बांसुरी बजाकर या डमरू बजाकर यात्रियों का मनोरजन करते थे।

 समय समय पर मनोरंजन माध्यम बदलते रहे होंगे।  ब्रिटिश कल में अवश्य ही नए मनोरंजन माध्यम अवतरित हुए तो बहुत से मनोरजन नए प्रचलित भी हुए।




Copyright @ Bhishma Kukreti  25/4 //2018

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -6
-
 
 
  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


Bhishma Kukreti

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  जब यू  . पी   . कौंसिल को कुमाऊं काउन्सिल कहा जाने लगा था

 Diplomacy or Political Class playing role in place branding
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  =85

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  - 85                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--188)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग -188

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

     स्थान छविकरण एक दिन में पैदा नहीं होती है ना ही केवल एक अवयव स्थान छवि हेतु पर्याप्त है।  कई छवियों से स्थान छविकरण संभावित ग्राहकों के मन छवि बनाते हैं।  स्थान छविकरण प्लेस ब्रैंडिंग में राजनीति , कूटनीति व राजनायकों के व्यवहार महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।  यदि उत्तर प्रदेश , बिहार और यहां तक कि उत्तराखंड में उद्यम नहीं लग रहे हैं तो उसके पीछे केवल बंदरगाह दूर हैं कारण नहीं हैं अपितु उत्तर प्रदेश , बिहार और उत्तराखंड के राजनीतिज्ञों व सरकारी प्रशासकों की बुरी छवि  उद्योग विकास में सबसे अधिक बाधक है। हिमाचल की छवि उद्योग खोलने में उत्तराखंड से कहीं अधिक सकारात्मक है।  मुंबई में उद्योग जगत में धारणा है कि हिमाचल के मुकाबले उत्तराखंड के नेता व प्रशासक अधिक खाऊ हैं और खाकर काम भी नहीं करते हैं।  धारणा व सत्य में जमीन आस्मां का अंतर् होता है।
     पर्यटन कोई भी हो धार्मिक पर्यटन हो , रोमच  पर्यटन हो रोमांस पर्यटन हो या हो मेडिकल पर्यटन सभी में स्थान छवि आवश्यक होती है। सभी पर्यटन ब्रैंडिंग में कूटनीति व राजनायकों के कार्यकलाप बहुत ही महत्वपूर्ण होते हैं।  सकारात्मक छवि हेतु स्थानीय राजनायकों की चव्वी महत्वपूर्ण होती है।   एक उदाहरण है मैं जब बलावस्था या यवावस्था में था तो समाचार पत्र व पत्रिकाओं में मार्शल टीटो के बारे में व नासिर के बारे में पढ़ता रहता था।  युगोस्लाविया के शासक टीटो व मिश्र के नेता नासिर का नाम बहुत बार आता था। मार्शल  टीटो के कारण मुझे युगोस्लेविया के बारे में उत्सुकता रहती थी कि यह देश कैसा है , यहां के लोग कैसी हैं आदि आदि।  मिश्र की छवि तो मन में थी किन्तु नासिर के कारण मिश्र को जानने की अधिक इच्छा पैदा होती गयी।  यहां तक कि मैंने मिश्र की लोककथाओं का गढ़वाली में अनुवाद भी किया और इंटरनेट में पोस्ट भी कीं।  युगोस्लेविया साहित्य भी पढ़ा केवल मार्शल टीटो के कारण। 
      संक्षिप्त में कहें तो राजनीति , कूटनीति व राजनायक अवश्य ही स्थान छवि हेतु महत्वपूर्ण हैं।
    उत्तराखंड भाग्यशाली है कि  ब्रिटिश काल में जन्मे कई राजनीतिज्ञों ने उत्तराखंड की छवि वर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
           कॉंग्रेस आंदोलन के प्रारम्भिक दिनों में ब्रिटिश सरकार ने प्रोविंसियल काउन्सिल व सेंट्रल कौंसिल की स्थापना कर ली थी जिसमे चुने हुए सदस्य होते थे।  तब कुमाऊं डिवीजन यूनाइटेड प्रोविंस का अहम भाग होता था।  प्रोविंस काउन्सिल में कुमाऊं डिवीजन से तीन सदस्य चुनाव से आते थे - नैनीताल व अल्मोड़ा से एक एक व गढ़वाल से एक।
      द्वितीय प्रोविंसियल काउन्सिल का चुनाव 1923 में हुआ और नैनीताल से गोविन्द बल्ल्भ पंत , अल्मोड़ा से हरगोविंद पंत व गढ़वाल से मुकंदी लाल बैरिस्टर स्वराज्य पार्टी के टिकट पर चुनाव जित कर आये।  तीनों नेता सामाजिक आंदोलन (कुली बेगार आदि ) से तपे नेता थे व सामाजिक सरकार में संलग्न रहते थे।  मुकंदी लाल तो ब्रिटेन में ही स्वतन्त्रता आंदोलन कार्यों की सहायता व गढ़वाल पेंटिंग के कारण प्रसिद्ध हो चुके थे।
   द्वितीय काउन्सिल का अधिवेशन 14 दिसंबर 1925 में शुरू हुआ।  इस अधिवेशन में हरगोविंद पंत ने एक प्रस्ताव पेश किया कि  कुमाऊं न्याय को कमिश्नर के अंतर्गत नहीं अपितु उच्च न्यायालय के अंतर्गत रखा जाय।  गोविन्द बल्ल्भ पंत ने खोजपूर्ण व सारगर्भित भाषण दिया और काउन्सिल सदस्यों को प्रभावित किया।
 काउन्सिल में तीनो सदस्य सक्रिय रहते थे। वे जनता की समस्याओं को कौंसिल में उठाते थे और आवश्यकता पड़ने पर सरकार विरुद्ध स्थगन प्रस्ताव ला देते थे जैसे पूर्व में राजयसभा में स्थगन प्रस्ताव कम्युनिस्ट पार्टी ला देती थी।  तीनों मूल प्रश्न पूछते थे व पूरक प्रश्न भी पूछते थे।  उनके हर प्रश्न में समाज अग्रणी होता था।  इन तीनों की सक्रियता से सरकार तंग रहती थी।  एक बार तो वित्त सदस्य इतने नाराज हुए कि  कह बैठे ," काउन्सिल केवल कुमाऊं क्षेत्र के लिए ही नहीं है " (शंभु प्रसाद शाह , गोविन्द बल्ल्भ पंत -एक जीवनी पृष्ठ 83 )
      मुकंदीलाल की विद्वता व न्यायप्रियता के कारण उन्हें काउन्सिल का उपाध्यक्ष चुना गया व वे तीसरी काउन्सिल के भी उपध्यक्ष 1930 तक कार्यरत रहे
      सरकारी वित्त सदस्य का कथन - ," काउन्सिल केवल कुमाऊं क्षेत्र के लिए ही नहीं है "  वास्तव में इन तीनों राजनायकों की क्षेत्रीय आवाज बुलंदी की ही प्रशंसा है। इस कथन से साबित होता है कि यूनाइटेड प्रोविंस में इन तीनों के कारण कुमाऊं की प्रसिद्धि में सकारात्मक वृद्धि हुयी।
      ततपशचात कई राजनायकों जैसे महावीर प्रसाद त्यागी आदि ने भी उत्तराखंड स्थान छवि वर्धन में अपना योगदान दिया।  देहरादून में ओएनजीसी , आईआईपी जैसे संस्थानों को देहरादून लाने में महावीर प्रसाद त्यागी का योगदान अतुलनीय है। 
   राजनायकों की प्रसिद्धी स्थान छवि हेतु एक आवश्यक अवयव है।  आज के राजनायकों को यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि लोकसभा या राजसभा के उनके कार्यकलाप उत्तराखंड छवि हेतु महत्वपूर्ण हैं। 



Copyright @ Bhishma Kukreti 26 /4 //2018

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -6


Bhishma Kukreti

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     स्कंदगुप्त शासन काल में हरिद्वार, बिजनौर सहरानपुर 

Ancient  Gupta Era History of Haridwar,  Bijnor,   Saharanpur
                   
                         
    हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग - 211               


                                               इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती


         कुमार गुप्त की मृत्यु उपरान्त कुमार गुप्त सिंहांसन पर बैठा। कुमारगुप्त की माता राजमहिषी होने पर विद्वानों में मतैक्य है। अनुमान है कि स्कंदगुप्त की कोई संतान न थी और स्कंदगुप्त की मृत्यु बाद उसका भाई पुरुगुप्त गद्दीसीन हुआ।
    स्कंदगुप्त द्वारा साम्राज्य रक्षा
 गाजीपुर जिले के लोह स्तम्भ अभिलेख से स्कंदगुप्त संबंधी इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। 19 पंक्ति के अभिलेख में स्कंदगुप्त के पुरखों की सूची व स्तम्भ अभिलेख से पता चलता है कि जब पुष्यमित्रों ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया तो स्कंदगुप्त मोर्चे पर गया।  स्कंदगुप्त ने कई कष्ट झेलकर पुष्यमित्रों को रोका।  वह कई रात बैरंग धरती पर भी सोया। इस अभिलेख में हूण आक्रमण का भी उल्लेख मिलता है।





Copyright@ Bhishma Kukreti  Mumbai, India  2018

   History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur  to be continued Part  --212

 हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास  to be continued -भाग -


      Ancient  History of Kankhal, Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient History of Har ki Paidi Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient History of Jwalapur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Telpura Haridwar, Uttarakhand  ;   Ancient  History of Sakrauda Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Bhagwanpur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient   History of Roorkee, Haridwar, Uttarakhand  ;  Ancient  History of Jhabarera Haridwar, Uttarakhand  ;   Ancient History of Manglaur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Laksar; Haridwar, Uttarakhand ;     Ancient History of Sultanpur,  Haridwar, Uttarakhand ;     Ancient  History of Pathri Haridwar, Uttarakhand ;    Ancient History of Landhaur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient History of Bahdarabad, Uttarakhand ; Haridwar;      History of Narsan Haridwar, Uttarakhand ;    Ancient History of Bijnor;   seohara , Bijnor History Ancient  History of Nazibabad Bijnor ;    Ancient History of Saharanpur;   Ancient  History of Nakur , Saharanpur;    Ancient   History of Deoband, Saharanpur;     Ancient  History of Badhsharbaugh , Saharanpur;   Ancient Saharanpur History,     Ancient Bijnor History;
कनखल , हरिद्वार  इतिहास ; तेलपुरा , हरिद्वार  इतिहास ; सकरौदा ,  हरिद्वार  इतिहास ; भगवानपुर , हरिद्वार  इतिहास ;रुड़की ,हरिद्वार इतिहास ; झाब्रेरा हरिद्वार  इतिहास ; मंगलौर हरिद्वार  इतिहास ;लक्सर हरिद्वार  इतिहास ;सुल्तानपुर ,हरिद्वार  इतिहास ;पाथरी , हरिद्वार  इतिहास ; बहदराबाद , हरिद्वार  इतिहास ; लंढौर , हरिद्वार  इतिहास ;ससेवहारा  बिजनौर , बिजनौर इतिहास; नगीना ,  बिजनौर इतिहास; नजीबाबाद , नूरपुर , बिजनौर इतिहास;सहारनपुर इतिहास; देवबंद सहारनपुर इतिहास , बेहत सहारनपुर इतिहास , नकुर सहरानपुर इतिहास Haridwar Itihas, Bijnor Itihas, Saharanpur Itihas


Bhishma Kukreti

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 उत्तराखंड में मृदा चिकित्सा के कुछ उदाहरण

Link of Mud Therapy in Uttarakhand
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -86

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -86                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--189)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग -189

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

  पारम्परिक भारतीय चिकित्सा में आहार चिकित्सा , जल चिकित्सा , नीन पेट व्रत चिकित्सा , औषधि चिकित्सा व मृदा चिकित्सा मुख्य चिकित्सा वर्ग हैं।
   उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र व मैदानी क्षेत्र कृषि प्रधान क्षेत्र रहे हैं तो मनुष्यों को तकरीबन हर दिन मिट्टी के सम्पर्क में रहना होता है तो  मिट्टी से चिकित्सा के रिकॉर्ड नहीं मिलते हैं किन्तु मृदा चिकित्सा के कुछ सूत -लिंक अवश्य मिलते हैं। रुपायी  , गुड़ाई आदि में स्वयमे मृदा चिकित्सा हो जाती है। मिट्टी  पत्थर के घर में स्वास्थ्य व सुरक्षा अंतर्हित थी। लिपाई में लाल मिट्टी का उपयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी था।मिट्टी से बर्तन धोने व सूचि हेतु मिट्टी से हाथ धोने के पीछे मिट्टी का महवत्व झलकता ही है।
 चाहे अनचाहे अनाज में मिट्टी गार मिलते ही थे और लाभकारी या हानिकारक खनिज मिलता ही था।
     प्राचीन साहित्य में उत्तराखंड के चींटियों या दीमकों द्वारा निकाला गये स्वर्ण चूर्ण की अन्य क्षेत्रों में बड़ी मांग थी।  शायद यह स्वर्ण चूर्ण औषधि अदि में प्रयोग होता होगा।
    अपघात में कई बार अंग कट जाता है और बड़ा घाव होने पर तो पहले जब चिकित्सालय नहीं थे तो घाव  पर पेशाब कर चिपुड़ माटु या चिकनी मिटटी का लेप लगा लेते थे।  कुछ समय पहले भी बड़े घाव पर चिपुड़ माटु लगाकर दुखियारे को चिकित्सालय ले जाया जाता था।  अब प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध हो गयी हैं जैसे डिटोल या शराब  डालकर बैक्ट्रिया वाइरस प्रसारण रोका जाता है।
  कुछ जानकार वैद दीमक या चींटियोँ द्वारा निकाली मिट्टी का औषधि में उपयोग करते थे शायद हड्डी के इलाज हेतु  कम्यड़ को औषधि में मिलाने का भी रिवाज था।
   गेरू को पीसकर औषधि मिश्रण तैयार किया जाता था।  कभी कभी वैद त्वचा रोग में गेरू की पीसी मिट्टी लेप का भी सलाह देते थे।
     मैंने कई बड़े बूढ़ों को मिट्टी व रेत को शरीर पर रगड़ कर नहाते देखा है और ये बुजुर्ग साबुन को बुरा मानते थे पर माट रगड़ने को स्वास्थ्य वर्धक मानते थे।
      दाद -खुजली में विशेष स्थान की चिपुड़ मिट्टी  का लेप सामन्य बात थी जो शायद सन साठ तक भी चलता था।
        पैर  फटने पर कमेड़ा का लेप भी सामन्य बात थी। जूं मारने के लिए कभी कभी सिर्प्वळ के साथ कमेड़ा भी प्रयोग करते थे।
     मुल्तानी मिट्टी का आयात कुछ नहीं अपितु चिकित्सा तंत्र का एक अंग था।  तिबत का नमक वास्तव में खनिज था जो पहाड़ खोदकर निकला जाता था।  राजस्थान के पहाड़ खोदकर निकाला नमक भी खनिज ही है। काला नमक आज भी शहरों में भी प्रचलित है।
      पशुओं के कई रोग निदान में मिट्टी का उपयोग होता था विशेषतः खुरपका में मवेशियों के खुरों पर चिपुड़ मिट्टी का लेप किया जाता था। कीचड़ में मिट्टी का तेल डालकर उस पर मवेशियों को चलाना भी मृदा चिकित्सा ही थी।
      गंगा तट पर रेत में लेटना या गड्ढे बनाकर उसमे रहना जोगियों के लिए नित्य कर्म था। 

 उत्तराखंड में रेत के अंदर लेटना या मृदा चिकित्सा उद्यम के  अच्छे अवसर हैं।  विभिन्न स्थानों के चिपुड़ मिट्टी की रसायनिक जांच भी आवश्यक है ही।
   
   
 
   


Copyright @ Bhishma Kukreti  27/4 //2018

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -6
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


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        हूण आक्रमण और हरिद्वार, बिजनौर सहारनपुर का इतिहास
       स्कंदगुप्त -हूण आक्रमण व युद्ध भूमि- हरिद्वार -ऋषिकेश

Huna Invasion of  India and Ancient  Gupta Era History of Haridwar,  Bijnor,   Saharanpur
                   
                         
    हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -                 


                                               इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती

  समुद्रगुप्त मृत्यु पश्चात गुप्त साम्राज्य की पकड़ कुछ भागों में कमजोर हो गयी थी।  आक्रमण वास्तव में रक्षा वृद्धि भी लाता है।  चूँकि आक्रमण कम हुए तो रक्षा व्यवस्था भी क्षीण पड़ती गयी।  कुमारगुप्त की मृत्यु के एकदम बाद पश्चिम से हूण आक्रमण शुरू हुआ जिसे स्कंदगुप्त ने बिफल किया। इस रक्षा युद्ध के समय स्कंदगुप्त की माता अत्यंत दुखी हुयी थी ( भीतरी अभिलेख का पाठ )
स्कंदगुप्त को हूणों के साथ दूसरा युद्ध भी लड़ना पड़ा था।   दूसरे युद्ध की तिथि के बारे में इतिहासकारों मध्य मतैक्य नहीं है। स्कंदगुप्त का राज्यारोहण समय 455 ई  माना जाता है। जूनागढ़ शिलालेख से विदित होता है म्लेच्छों (हूण ) को परास्त करने के बाद इस क्षेत्र का प्रशासनिक भार पर्णदत्त को सौंपा था।   
     अभिलेखों से ज्ञात होता है कि हूणो के साथ भयंकर युद्ध हुआ था और हूण दस्यु समान आक्रमक व निर्दयी थे।  हूण अति बर्बर थे वे खड्ग लेकर जहां जहां जाते थे अग्निमशालों से बस्तियां जलाकर , मारकाट कर हाहाकार मचा देते थे।  गाँव उजाड़ कर देते थे।  उनके अत्याचारों की कथा सारे उत्तर भारत में भय पैदा कर रही थी। हूणों के आते ही लोग अपनी धन सम्पति गाड़ देते थे और सुरक्षित  शरण लेते थे।

और स्कंदगुप्त ने हूणो को  परास्त कर  भारत हेतु कई सदियों तक शान्ति स्थापित कर ली थी।  स्कंदगुप्त के वीरतापूर्ण कार्यों की जन जन में प्रस्तुति गाये जाने लगी थी (भीतरी अभिलेख )
       
      स्कंदगुप्त -हूण युद्ध भूमि

 स्कंदगुप्त -हूण युद्ध भूमि पर विद्वानों में मतैक्य नहीं है कुमार गुप्त के राज्य में पश्चिम में चिनाव झेलम नदी घाटी गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत थी।  स्कंदगुप्त काल में भी यही सीमा थी। बयाना में गुप्त सम्राटों की मुद्रा निधि मिलने   से इतिहासकार जैसे उपेंद्र ठाकुर अनुमान लगाते हैं कि स्कंदगुप्त -हूण युद्ध पश्चिम के किसी मैदान व नदी तट पर हुआ होगा जैसे सतलज तट पर।  बयाना मुद्रा विशेषज्ञ अल्तेकर अनुसार स्कंदगुप्त -हूण युद्ध यमुना तट पर हुआ होगा।
         भीतरी स्तम्भलेख अनुसार अक्न्द्गुप्त हूण युद्ध भूमि में गंगा जी की आवाज आ रही थी।  श्रोत्रेषु गंगा ध्वनि से पता चलता है कि युद्ध भूमि के पास गंगा घोर घोस करती है।  ऐसा घोष मैदानी भाग में नहीं हो सकता है।  ऐसा घोस ऋषिकेश हरिद्वार के पास ही होता है मैदानों में गंगा को आँखे देखे बगैर पता नहीं लगता कि आस पास गंगा बह रही है। ऐसा अनुमान लगता है कि हूण पंचनद जीतकर उत्तर पश्चिम भाग रौंदकर , कांगड़ा व अन्य पहाड़ियां जीतते  हुए हरिद्वार -ऋषिकेश पंहुचे थे और यहां कहीं स्कंदगुप्त -हूण युद्ध हुआ था।
    रघुवंश अनुसार रघु कम्बोजों को जीतकर गंगा घाटी में पंहुचा था (रघुवंश 4 /73 )

 
       
       





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   History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur  to be continued Part  --

 हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास  to be continued -भाग -


      Ancient  History of Kankhal, Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient History of Har ki Paidi Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient History of Jwalapur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Telpura Haridwar, Uttarakhand  ;   Ancient  History of Sakrauda Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Bhagwanpur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient   History of Roorkee, Haridwar, Uttarakhand  ;  Ancient  History of Jhabarera Haridwar, Uttarakhand  ;   Ancient History of Manglaur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient  History of Laksar; Haridwar, Uttarakhand ;     Ancient History of Sultanpur,  Haridwar, Uttarakhand ;     Ancient  History of Pathri Haridwar, Uttarakhand ;    Ancient History of Landhaur Haridwar, Uttarakhand ;   Ancient History of Bahdarabad, Uttarakhand ; Haridwar;      History of Narsan Haridwar, Uttarakhand ;    Ancient History of Bijnor;   seohara , Bijnor History Ancient  History of Nazibabad Bijnor ;    Ancient History of Saharanpur;   Ancient  History of Nakur , Saharanpur;    Ancient   History of Deoband, Saharanpur;     Ancient  History of Badhsharbaugh , Saharanpur;   Ancient Saharanpur History,     Ancient Bijnor History;
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Huna or Hephthalities Attack Haridwar, bijnor, Saharanpur

Bhishma Kukreti

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 उत्तराखंड में राख या भष्म चिकित्सा
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 Ash or Bhshma Therapy in Uttarakhand
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -87

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -   87               

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--190)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग -190

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

    राख वास्तव में गैस चूल्हों  या इलेक्ट्रिक चूल्हों के आने से पहले मानव एन प्रकारेण सेवन करता आया था। राख या भस्म में उस लकड़ी के खनिज व अन्य अवयव होते है तो मनुष्य अपरोक्ष रूप से जिस वनस्पति की लकड़ी होती है उस वनस्पति के अवयव प्राप्त कर लेता है। रोटी सकते ते समय या अन्य वनस्पति भूनते वक्त भोज्य पदार्थ पर  पर भस्म रह जाता है जिसे हम निगल लेते हैं।
   उत्तराखंड में भस्म दो प्रकार से चिकित्सा में पयोग होती थी -
अ -पारम्परिक या साधारण जनता द्वारा भस्म प्रयोग
ब -आयुर्वेद वैद्यों द्वारा भस्म का औषधि में उपयोग या भस्म औषधि।
                   पारम्परिक रूप से भस्म  प्रयोग
रख का उपयोग आम जनता कई रूप में करती है
      गर्म भस्म प्रयोग
  पेट दर्द , सूजन , मोच -लछम्वड़ आदि में गरम राख का लेप या गरम राख को रखकर चिकित्सा की जाती थी। बच्चों के या अन्यों के पेट फूलने  की अवस्था में पेट पर गरम भस्म रग्गड़ा जाता था।
   राख में बैक्ट्रिया , वाइरस  प्रसारण रोकने की शक्ति होती है तो मवेशियों के घाव व खरपुका बीमारी में खुर के अंदर ठंडी भस्म  का लेप ब्रिटिश काल में भी किया जाता था। कई घावों में अनुभवी राख बुरकतने की भी सलाह देते थे।
 जब कोई अति ठंड में  घर आता है तो गरम राख से पैरों का सेकन करता था। हाँ चूल्हे में पैर रखना पाप माना जाता था।
    गाँवों में अनुभवी भी होते थे जो कई वनस्पति जलाकर उस भस्म को रोगियों को देते थे जैसे नीम भस्म , प्याज भस्म आदि।  घाव या फटने की दशा में जो वैद नही होते थे पर जड़ी बूटी के अनुभवी होते थे वे विशेष वनस्पति को जलाकर उस भस्म का  लेप घाव व फ़टे स्थान पर लगते थे। मस्से या बबासीर आदि उपचार में विज्ञ वैद भी और अनुभवी कुछ भस्म उपयोग करते थे।
       कृषि में भस्म उपयोग
  खेतों में खर पतवार पैदा होना आम बात है।  किन्तु खेतों में वे ही खर पतवार उगते हैं जिनके खनिज की आवश्यकता उस भूमि को है।  इसलिए खर पतवार को जलाकर राख द्वारा भूमि को आवश्यक खनिज मिल जाता है।  अलिखित नियम है कि एक खेत के खर पतवार दूसरे खेत में न जलाए जायं या बाह्य घास न जलाये जायं।  घर की राख को खेतों में न डालना  भी सही था। घर की राख में कोई अनावश्यक खनिज हो सकते हैं जो उस भूमि को नहीं चाहिए । यह वैज्ञानिक सोच जनता को अनुभव से ही प्राप्त हुयी थी। आड़ जलाए हुए राख कई कीड़े  मकोड़ों को भी नष्ट करती है है।

    बीजों को राख में सुरक्षित रखना
बीजों को कीड़ों , फफूंदी आदि के बचाव हेतु  पितक  में रखने का प्रचलन था व सबसे ऊपर राख रख दिया जाता था और राख बीजों को कीड़ों , बैक्ट्रिया , फफूंदी आदि से बचाने में कामयाब होती थी।
 
  सफाई में भस्म उपयोग
जहां विष्ठा या गंदगी आदि होती थी उसके ऊपर  राख डालना एक सही  वैज्ञानिक क्रिया है।  राख विष्ठा के हानिकारक सूक्ष्म जीवियों को मार देती है व मक्खी , कीड़ों को पनपने से रोकती है। जिन रोगियों को घर में टट्टी करनी पड़ती थी उन्हें राख भरी अंगेठी में शंका निदान कराया जाता था व यह अवैज्ञानिक तरीका नहीं था।
  विष्ठा उपरान्त राख से हाथ धोना भी लाभकारी ही था।
   बर्तन आदि की सफाई राख से होती थी वह भी सही था।
कई बार कई लोग जिन्हे त्वचा रोग होता था वे राख को शरीर पर मलकर स्नान करते थे .

      कपड़ों की सफाई
  जब तक कपड़े धोने के साबुन का प्रचलन नहीं हुआ था तब तक मोठे कपड़े राख व रीठे से ही धोये जाते थे। कपड़ों को राख के साथ उबाला जाता था।

      तंत्र मंत्र में राख का महत्व
तंत्र मंत्र याने मानसिक चिकत्सा में भी राख उपयोग आज भी होता है , रंगुड़ मंत्र कर बहुत प्रेत , पिचास भगाने का कर्मकांड आज भी गाँवों  में ही नहीं मुंबई के  उत्तराखंडियों में प्रचलित है। मन्त्रित राख सिरहाने रखने का प्रचलन मुंबई में भी है। मन्त्रित भस्म को माथे पर लगाने का प्रचलन सभी स्थानो में है।
   वैष्णवी कर्मकांड में राख महत्व
  लगभग सभी कर्मकांडों में हवन , अग्निहोत्र किया ही जाता है और हवन की राख को माथे पर लगाना रख चिकित्सा को महत्व देना ही है।
       नागा साधुओं द्वारा भस्म लेपन
नंगे साधू पूरे शरीर में भस्म लगाकर शीत  -ताप को झेलने में सक्षम होते हैं और ये साधू बद्रीनाथ -केदारनाथ जैसे स्थानॉन में भी सहित में सही सलामत रहते हैं।
    आयुर्वेद में भस्म औषधि
ब्रिटिश काल में मुल्तान , हरिद्वार आदि स्थान आयुर्वेद औषधि निर्माण में प्रसिद्ध हो चुके थे तो उत्तराखंडियों को पता नहीं है कि  कुमाऊं -गढ़वाल के वैद्य भस्म क्रिया से औषधि बनाते थे।  ब्रिटिश काल में बनी बनाई भस्म औषधि उपलब्ध हो जाने से गढ़वाल -कुमाऊं के वैद्यों ने घरों में भष्म औषधि निर्माण बंद कर दिया था।  किन्तु पहले आयुर्वेद विज्ञ लोहारों व सुनारों की सहायता से भस्म औषधि निर्मित करते थे।  भस्म औषधि वास्तव में शरीर में क्षार वृद्धि करती हैंव अधिक लवण शक्ति को लघु करती हैं ,
     भस्म औषधि निर्माण में धातु metal  को गलाकार उसके साथ वनस्पति औषधि मिश्रण करते थे।  इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि लोहार सुनार इन प्रक्रियाओं में वैद्यों का साथ देते थे।
    भस्म औषधि में रत्न व धातुओं को छाछ आदि से शुद्धकर फिर गलाया जाता है और मारन (धतु के धातु गन समाप्ति ); चालन जैसे नीम की डंठल से भस्म बनाना , चलन (फेंटना ); धवन (धुलाई ); छनन (छानने ); पुत्तन (प्रज्वलन ) जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रियाएं होती है।  फिर इस कच्चे माल को पीसकर  जड़ी बूटियों के आरक ला लेप किया जाता है व विषहरण के बाद संरक्षित किया जाता है।  भस्म औषधि किए प्रकार की होती हैं व उनके नाम कच्चे अवयव  (धातु , कनीज , वनस्पति , रत्न ) अनुसार दिए जाते हैं जैसे स्वर्ण भस्म लौह भस्म , यशद (नीम ) भस्म आदि।
 चूँकि भस्म निर्माण जटिल प्रक्रिया है तो प्रत्येक वैद्य इन कामों को नहीं करते थे व विशेष विज्ञ वैद्य ही भस्म निर्माण करते थे।
   गढ़वाल -कुमाऊं में भस्म निर्माण शिक्षा पारम्परिक ढंग से पीढ़ी दर पीढ़ी दी जाती थी।
    विष निर्माण
धातु भस्म प्रक्रिया विष निर्माण में भी उपयोग होता था।

           यात्रियों हेतु भस्म चिकित्सा

       पर्यटन का बहुत ही सरल नियम है आप अपने अतिथियों को वही देंगे जो आपके पास है।  यात्रियों को जब थकान लगती थी या पैरों में सूजन/मोच /मुड़ना आ जाता था या अति शीत समस्या होती थी तो चट्टियों आदि में वे गरम   राख का ही उपयोग करते थ।  भूत  लगने की दशा में भी यात्री अवश्य ही मंत्री राख ही प्रयोग करते होंगे। वैद भी यात्री की बीमारी अनुसार भस्म औषधि देते थे। 



Copyright @ Bhishma Kukreti  /4 //2018

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
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 उत्तराखंड में भस्म / राख चिकित्सा , यात्रियों हेतु भस्म चिकित्सा , रोग दूर करने हेतु भस्म उपयोग , गढ़वाल में राख , भस्म चिकित्सा , कुमाऊं में राख , भस्म चिकित्सा


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      हरिद्वार , बिजनौर , सहारनपुर परपेक्ष्य में स्कंदगुप्त का व्यक्तित्व

Ancient  Gupta Era History of Haridwar,  Bijnor,   Saharanpur
                   
                         
    हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -   213             


                                               इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती


          स्कंदगुप्त अपने काल का वीर , साहसी व रणनीतिकार शासक था। अपने यौवनकाल में ही शक्तिशाली पुष्यमित्रों के आक्रमण को विफल कर समुद्रगुप्त ने सेना रणनीति व वीरता का आभास करा लिया था।  स्कंदगुप्त की वीरता व साहस के किस्से हूण देस में भी प्रसिद्ध हो चुके थे।
  विनय , विनम्र , उज्जवल चरित्र का स्कंदगुप्त ऊँचे चरित्रवानों का सम्मान करता था  . जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि उसके राज्य में दरिद्र व दुष्चरित्र लोग मिलना कठिन था  . ईश्वर भक्त , प्रजा वत्तस्ल , बुद्धिमान व रव हितैषी स्कंदगुप्त अपने पिता व माता का बड़ा सम्मान करता था  .   
    सुरक्ष के प्रति संवेदनशील स्कंदगुप्त ने क्षेत्रीय अधिपतियों को मित्युक्त किया व कृषि विकास में ध्यान दिया। सिंचाई हेतु कई कार्य किये (जूनागढ़ अभिलेख)





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   History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur  to be continued Part  -- 214

 हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास  to be continued -भाग -214


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Bhishma Kukreti

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 उत्तराखंड में शुष्क तापोपचार  (हीट थिरैपी )
Heat or Thermo -therapy in Uttarakhand
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -88

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -88                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--191)   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग -191

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )

    मनुष्य अवतरण के साथ ही मनुष्य तापोपचार करता आया है।  तापोपचार अर्थात तापमान घटाने -बढ़ाने से उपचार।  तापोपचार में तापमान को बढ़ाया भी जाता है और कम भी किया जाता है।  बर्फ से उपचार भी तापोपचार ही है।  सूर्य के ताप से भी उपचार होता ही था।
 तापोपचार  में सूर्य या अग्नि या अब बिजली की आवश्यकता होती है।  इस अध्याय में अग्नि माध्यम से शुष्क तापोपचार पर विचार किया जाएगा कि भूतकाल में उत्तराखंड में किस तरह तापोपचार से दुःख हरण किया जाता जाता था।
 मकान निर्माण
पहाड़ों के मिटटी पत्थर मकान वास्तव में इंसुलेटर का काम करते हैं जो शीत ऋतु में ठंड को अंदर नहीं जाने देते व गर्मी में ताप नहीं बढ़ने देते।
 ऋतु अनुसार कपड़े भी तापमान स्थिर    रखने का कार्य करते हैं।
पुराने जमाने में पराळ में सोना वास्तव में तापमान स्थिरीकरण माध्यम था बाद में कंबल रजाई का प्रचलन बढ़ गया तो गद्दे , रजाई उपयोग में आने लगे।
     त्वरित तापोपचार या आग तापना
    उत्तराखंड में  शीत ऋतू या उच्च शृखंलाओं में ग्रीष्म में भी जब मनुष्य बाहर से शीत से परेशान होता था तो घर आकर आग तापता था।  आग तापने की संस्कृति अग्नि प्रयोग से ही शुरू हो गयी थी।  सुबह सुबह कभी कभी पाले से जमी बर्फ पर चलने से पैर सुन्न हो जाते थे तो त्वरित आराम हेतु आग तापन ही सही समाधान होता है।
  कमरे में अंगेठी
 शीत ऋतु में पहाड़ों में शीत से बचने हेतु अंगेठी जलायी  जाती थीं और अग्नि तापमान बढ़ाती थी। बहुत से गाँवों में गौशालाओं में भी तापमान वृद्धि हेतु अंगेठी ज्वलन प्रयोग करते थे।
  छोटी बाछी -चिनखों को गौशाला में न रखकर घर में रखना वास्तव में उन्हें हानिकारक  कम तापमान से बचने का तरीका है।
 शीत ऋतू या बरफवारी समय जब अतिथि आता /आते था/थे  तो अतिथि सत्कार  पान पराग  से नहीं अपितु अंगेठी की आग से होता था।  पंडो नृत्य में आलाव जलाकर नृत्य करने के पीछे शीत निरोध तकनीक  ही थ। 

 बच्चों की ताप सिकाई

पहाड़ों में बच्चो की ताप सिकाई कार्य प्रतिदिन होता ही था। शीत ऋतु में तो सोने से पहले भी ताप सिकाई की जाती थी।
   बच्चों का डैणे जाने पर आग दिखाई
कभी कभी ठंड से अन्य कारणों से बच्चे का शरीर अकड़ जाता था या नीला पड़ने लगता था तो बच्चे को तपाया जाता था। यदि बच्चा अति शीत समस्या से ग्रसित होता था तो आंच मिलने से ठीक हो जाता था।

  पेट दर्द में ताप सिकाई
 ठंड या अन्य कारणों से पेट फूल जाय या पेट दर्द शुरू हो जाय तो सबसे पहले पेट की ताप सिकाई प्रथम उपचार होता था।  बच्चों के पेट  दर्द या अखळ लगने व पेचिस लगने में आग-ताप  सिकाई अनिवार्य उपचार माना जाता था।
 अपच या कब्ज में भी आग सिकाई उपचार किया जाता था।  यदि अपच ठंड से हो तो पाचन शक्ति में वृद्धि से अपच दूर हो जाता था या गैस निकलने से भी शांति मिलती होगी।
पेट फूलने पर (उगाण ) में तो ताप सेकं अनिवार्य ही माना था। मरोड़ उठने पर भी ताप सिकाई ही प्राथमिक उपचार होता था।

   शरीर अंग सुन्न में ताप सिकाई

   शरीरांग के सुन्न पड़ने पर प्राथमिक उपचार ताप सिकाई था।  ताप सिकाई सीधे अग्नि निकट अंग ले जाने या कपड़े को या अन्य  गरम माध्यम को शरीरांग पर लगाने से होती थी।
   निचले कमर दर्द

 कमर दर्द में ताप सिकाई
 संसार में मनुष्य अपने जीवन में कभी न कभी निचले कमर दर्द की समस्या से जूझता ही है।  ऐसे में ताप सिकाई आज भी कामयाब समाधान माना जाता है।  जाड़ों में बहुतों को कमर दर्द की शिकायत बढ़ जाती है तो ताप शिकाई उत्तम समाधान माना जाता है।

   हड्डी दर्द में ताप सिकाई

    हड्डी दर्द , हड्डी खिसकने या जोड़ों के दर्द में ताप सिकाई कामयाब उपचार माना जाता था और डाक्टर भी राय देते हैं।

 मोच /लछम्वड़ में ताप सिकाई
 मोच आने पर भी ताप सिकाई प्रथमोपचार था। मांश पेशियों में जकड़न पर भी ताप सिकाई उपचार सामान्य था।

 फोड़े पकाने में ताप सिकाई
बहुत से एमी फोड़े पकने के लिए गरम ल्वाड़ से सिकाई की जाती थी या पकाया  इल्वड़  रखा जाता था।

    डाम / ताळ लगाना
  डाम धरना या ताळ  लगाना कुछ नहीं विशेष तापोपचार ही है। डाम धरने में कबासुल को शरीर के ऊपर जलाया जाता है तो ताळ लगाने में नोकदार लोहे की टेढ़ी छड़ी को लाल ग्राम कर शरीर के ऊपर धीरे धीरे ठोका जाता है।
    ताप सिकाई माध्यम
ताप सिकाई में सीधा अग्नि सम्पर्क , हाथ , कपड़ा , गोल पत्थर व लोहे की बारीक छड़ी आदि माध्यम होते थे। कभी कभी गरम कीचड़ , गरम फल भी ताप सिकाई माध्यम रूप में उपयोग किये जाते थे।


  उपरोक्त उपचार आज भी विद्यमान हैं और अब बिजली उपकरणों से तापोपचार किया जाता है।
पर्यटकों को तापोपचार

   प्राचीन उत्तराखंड में चट्टियों में आग सुलभ थी ही और उपरोक्त उपचार सरलतम उपचार हैं तो  अवश्य ही पर्यटक उपरोक्त शुष्क तापोपचार से अपना दुःख हरण करते थे ।



Copyright @ Bhishma Kukreti 29 /4 //2018

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -6
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