Author Topic: Articles By Charu Tiwari - श्री चारू तिवारी जी के लेख  (Read 18378 times)

Charu Tiwari

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चन्‍द्र नगर गैरसैंण को स्‍थाई राजधानी बनाने के लिए जनता में एक बार फिर सुगबुगाहट शुरू हो गई है. यह कोई अचानक आई प्रतिक्रिया नहीं है आठ साल, चार मुख्‍यमंत्री और ग्‍यारह बार बढाये गये राजधानी चयन आयोग के कार्यकाल के बाद जो फैसला आया है असल में वह यहां की जनता को चिढाने वाला है. चन्‍द्रनगर गैरसैंण को लेकर लंबे समय से चले जनता के आंदोलन को किसी न किसी रूप से कुचलने या दमन करने या लोगों का ध्‍यान बंटाने की साजिशें होती रही हैं. जब भी इसके पक्ष में जनगोलाबंदी शुरू हुई राष्‍टीय राजनीतिक दलों ने इसके खिलाफ अपनी साजिशें शुरू कर दी और इसी बहाने नये कुतर्क गढ्ने शुरू कर दियेा राजधानी के बारे में वे लोग भी अपना मत देने लगे जिन्‍हें यहां का भूगोल भी मालूम नहीं हैा जिन लोगों ने कभी गैरसैंण देखा भी नहीं वह उसके विरोध में बयान देने लगेा राजधानी के मामाले में एक जनपक्षीय सोच आने के बजाय कुतर्कों को गढ्ना पहाड के हित में नहीं हैा    गैरसैंण, चन्‍द्रनगर को राजधानी बनाना इसिलए जरूरी है क्‍योंकि विकास के विकेन्‍द्रीकरण की शुरूआत राजधानी से ही होनी चाहिएा पहली बात तो यह है कि गैरसैंण राजधानी क्‍यों बनेा गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए आंदोलित जनता का राजधानी के लिए न तो राजनीतिक पूर्वाग्रह है और न ही प्रदेश के बीच राजधानी बनाने की जिद, सही अर्थों में यह आंदोलन यहां के अस्‍तित्‍व, अस्‍मिता और विकास के विकेन्‍द्रीकरण की मांग भी हैा    जो लोग गैरसैंण को राजधानी बनाने की बजाय विकास पर जोर देने की बात करते हैं उन्‍हें पहले तो विकास का चरित्र मालूम नहीं है या वह जानबूझकर लोगों का ध्‍यान मूल बात से हटाना चाहते हैंा यह पहाड विरोधी राष्‍टीय राजनीतिक दलों और उनके उन समर्थकों की साजिश है जो पहाड से बाहर बैठकर इन दलों की दलाली में लग कर अपने स्‍वार्थों की सिद्वि में लगे रहते हैा जहां तक राजधानी का सवाल है आज भी पहाड की 70 प्रतिशत जनता गैरसैंण को राजधानी बनाने के पक्ष में है  1994 में बनी कौशिक ने अपनी सिफारिश में कहा कि राज्‍य की 68 प्रतिशत जनता गैरसैंण को राजधानी चाहती हेा इसमें मैदानी क्षेत्र की जनता भी शामिल रही 2000 में जब राज्‍य बना तो भाजपा की अंतिरम सरकार ने जनभावनाओं को रौंदते हुये उस पर एक आयोग बैठा दिया जो पिछले आठ सालों में जनता के सवालों को उलझााता रहा और भाजपा एवं कांग्रेस के एजेण्‍ट के रूप में काम करता रहाा भाजपा जो सुविधाभोगी राजनीति की उपज है और जिसका पहाड के हितों से कभी कोई लेना देना नही रहा उसने जनमत के परीक्षण के लिए आयोग बनाकर अलोकतांत्रिक काम कियाा कांग्रेस ने अपने शासन में इस आयोग को पुनर्जीवित कर देहरादून को राजधानी बनाने की अपनी मंशा साफ कर दीा  असल में  ये राजनीतिक दल देहरादून या मैदानी क्षेत्र में राजधानी बनाने का माहौल इसिलए तैयार कर रहे हैं क्‍योंकि जनता के पैसे पर ऐश करने की राजनेताओं और नौकरशाहों की मनमानी चलती रहेा जो लोग राजधानी के सवाल से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण विकास के सवाल को मानते हैं उन्‍हें यह समझना चाहिए कि राजधानी और विकास एक दूसरे के पूरक हैंा राजधानी का सवाल इसिलए भी हल होना चाहिए कि देहरादून से संचालित होने वाले राजनेता, नौकरशाही और माफिया का गठजोड ने जनिवरोधी जो रवैया अपनाया है उससे राज्‍य की जनता आहत हैा    गैरसैंण को स्‍थायी राजधानी बनाने में जिन दिक्‍कतों को बताया जा रहा है वास्‍तव में वह काल्‍पिनक हैंा सही बात यह है कि अंग्रेजों के जाने के बाद पहाड में नये शहरों का निमार्ण नहीं हुआ और न ही शहरों को विकसित किया गया अंग्रेजों ने जिन शहरों को अपने एशो आराम के लिए विकिसत कियाा आजादी के बाद नैनीताल, मसूरी, रानीखेत, लैंसडाउन और देहरादून जैसे शहर नोकरशाहों के ऐशगाह बने रहेा इसके अलावा अन्‍य शहरों के विकास की ओर कोई ध्‍यान नहीं दिया गयाा इसका दुष्‍पिरणाम यह हुआ कि विकास का केन्‍द्रीकरण हुआा विकास की किरण आम आदमी तक नहीं पहुंचीा उत्‍तरांचल का यह दुर्भाग्‍य रहा कि यहां एक नया शहर नई टिहरी के रूप में अस्‍तित्‍व में आया जिसके लिए एक संस्कृति, इतिहास और सभ्‍यता की बिल देनी पडी विकास के नाम पर जिस तरह का छलावा हुआ वह आज पहाड के लिए सबसे बडे नासूर के रूप में सामने है नई टिहरी का बनना विकास का के दौर की शुरूआत नहीं बिल्‍क यह पहाड में बोधों के माध्‍यम से विनाश का नया रास्‍ता खोलता हैा इस पर सभी की सहमित रहीा अब जब विकास के रास्‍ते पर चलने के लिए जनता एक शहर को बसाने की बात कह रही है तो सबको यह अच्‍छा नहीं लग रहा हैा इससे साफ है कि राजनेताओं की नीयत में भारी खोट हैा इतिहास भी इस बात का गवाह है कि शहरों का निमार्ण विकास के लिए और नई जीवन शैली को विकिसत करने वाला रहा हैा कत्‍यूरों, चंदों और पंवार वंश के समय में रंगीली बैराट, बैजनाथ, श्रीनगर, जोशीमठ, बोगश्‍वर, चंपावत, अलमोडा, रूद्रपुर, काशीपुर के अलावा कई छोट बडे शहरों का निमार्ण हुआा इसी का परिणाम था कि यह जगहें सामाजिक, सांसक़ितक और आर्थिक संपन्‍नता में अग्रणी रहेा  इन शहरों को बसाने के पीछे विकास का व्‍यापक सोच भी रहाा गैरसैंण को नये शहर के रूप में विकसित करने के पीछे  विकास का यही दर्शन रहा हैा उत्‍तराखंड क्रान्‍ति दल ने जुलाई 1992 में पेशावर कांड के नायक वीर चन्‍द्र सिह गढवाली के नाम से इसका नामकरण चन्‍द्रनगर के नाम से किया यहां उनकी आदमकद मूर्ति लगाकर इसे राजधानी भी घाषित कर दिया इसके पीछे यह सोच भी प्रभावी ढंग से रखा गया कि यह शहर भावनाओं से ज्‍यादा विकास पर केन्‍द्रित होगा
आठ साल, दो सरकारें, चार मुख्यमंत्री और ग्यारह बार बढ़ायें गये कार्यकाल के बाद जो फैसला राजधानी चयन आयोग ने दिया वह न केवल हास्यास्पद है बल्कि नीति-नियंताओं के राजनीतिक सोच का परिचायक भी है। लंबी कवायद और करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद वहीं हुआ जिसकी सबको आजंका थी। आयोग की संस्तुतियों को मानना हालांकि सरकार के विवेक पर निर्भर करता है लेकिन इस पूरी कवायद में राजनीतिक दलों का जो रवैया रहा उसे पूरा करने में दीक्षित आयोग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह भी कहा जा सकता है कि भाजपा और कांग्रेस के लिए वह राजधानी के मसले पर ढाल बनी। इस आयोग की सिफारिस पर दोनों की सहमति है। राजधानी चयन आयोग के अधयक्ष वीरेन्द्र दीक्षित ने अपनी जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी है वह राज्य के लोगों की जनाकांक्षाओं के खिलाफ है। राजधानी के लिए चार स्थानों के नाम पर विचार कर उसने राजनीतिक दलों के एजेन्ट के रूप में कार्य करने के आरोप पर मुहर भी लगा दी है। रिपोर्ट में गैरसैंण के साथ रामनगर, देहरादून, कालागढ़ और आडीपीएल के नामों पर विचार करने की संस्तुति ने गैरसैंण की मुहिम को कमजोर करने का काम किया है। गैरसैंण को राजधानी बनाकर उसे चन्द्रनगर का नाम देने वाले उत्तराखंड़ क्रान्ति दल के सरकार में शामिल होने और उसी के समय में आयोग के एक और कार्यकाल के बढ़ने से जनता का विज्वास उठ गया था। पिछले दिनों देहरादून में आयोग की सिफारिश के खिलाफ सिर मुडंवाकर प्रदर्जन करने वाले उक्रांद के लिए भी अब यह गले की हड्डी बन गया है।   जब से राजधानी चयन के नाम पर जस्टिस बीरेन्द्र दीक्षित की अधयक्षता में आयोग बना लोगों को इससे बहुत उम्मीदें नहीं थी। फिर भी एक आयोग के काम और उसके फैसले पर सबकी नजरें जरूर थीं। पिछले दिनों जब उसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी तो वही हुआ जिसकी सबको आजंका थी। गैरसैंण के साथ राजधानी के लिए और नामों पर भी विचार करने की संस्तुति कर आयोग ने राजनीतिक दलों की मुराद पूरी कर दी। आयोग ने अपनी रिपोट्र में बताया है कि राजधानी चयन के लिए जो नोटिफिकेशन जारी किया गया था उसमें विभिन्न वर्गों से सुझाव मोंगे थे। इनमें से आयोग को 268 सुझाव मिले। इनमें 192 व्यक्तिगत, 49 संस्थागत@एनजीओ, 15 संगठनात्मक@पार्टीगत और 12 ग्रुपों के सुझाव थे। इनमें गैरसैंण के पक्ष में 126, देहरादून के पक्ष में 42, रामनगर के पक्ष में 4, आईडीपीएल के पक्ष में 10 थे। कुछ सुझाव अंतिम तारीख के बाद मिले। आयोग ने इन्हें भी “शामिल कर लिया था। इसके अलावा 11 सुझावों में किसी अन्य के विकल्प के रूप में गैरसैंण भी “शामिल है। पांच में कुमांऊ-गढ़वाल के केन्द्र स्थल के नाम आये हैं। इन्हें यदि गैरसैंण मान लिया जाये तो यह संख्या 142 पहुंच जायेगी। रामनगर के पक्ष में सिर्फ 4 सुझाव हैं पर अन्य स्थलों पर एक विकल्प रामनगर को भी मानने वाले सुझावों की संख्या 21 है। इस तरह रामनगर के पक्ष में 25 सुझाव मिले हैं। कालागढ़ के पद्वा में 23 सुझाव मिले हैं। कालाढूंगी, हेमपुर, काशीपुर, भीमताल, श्रीनगर, “यामपुर, कोटद्वार आदि पर भी सुझाव आये हैं। राजनीतिक दलों की तरु से आये 15 सुझावों में से 6 गैरसैंण के पक्ष में हैं। दो गढ़वाल और कुमाऊं के मधय बनाने के लिए हैं। देहरादून के पक्ष में दो और कालागढ़ के पक्ष में तीन सुझाव राजनीतिक दलों की ओर से आये हैं। दो सुझावों में किसी स्थल का नाम नहीं हे। यह सरसरी तौर पर इस रिपोर्ट की सिफारिश है।
   फिलहाल राजधानी चयन आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौप दी है। बताया गया कि यह रिपोर्ट इतनी संजीदगी से तैयार की गयी कि उसके अंतिम छह पेज स्वयं अधयक्ष बीरेन्द्र दीक्षित ने टाइप किये। इससे यह कहने का प्रयास भी किया गया कि उन्होने इस काम को करने में बड़ी मेहनत की है। आयोग इस आठ साल के कार्यकाल का काम सिर्फ इतना रहा कि कैसे इस रिपोर्ट को जारी करने तक गैरसैंण के मामले को कमजोर किया जायें। एक तरु आयोग किसी न किसी बहाने अपना कार्यकाल बढ़ाता गया वहीं दूसरी ओर सरकारें अस्थाई राजधानी देहरादून को स्थायी राजधानी बनाने के लिए निर्माण कार्य कराती रही। आयोग ने जिस तरह से अपने काम को करना शुरु किया वह हमेजा जनता की भावनाओं के विपरीत लगा। उसने किसी राज्य की जनता से सीधो संवाद की कोजि नहीं की। जिन खतरों को वह प्रचारित करता रहा वह बेहद कमजोर और हल्के रहे। इसी माधयम से उसने उन नामों को उछालना शुरू किया जो भाजपा-कांग्रस जैसी पार्टियों के लिए राजनीतिक लाभ के थे बल्कि इसी बहाने वह पहाड़ और मैदान की भावना को उभारने में लगी रही। यही कारण है इसे विवादित बनाने के लिए अब गैरसैण के साथ इस तरह के नाम आये हैं। इन आठ सालों में दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस क्षेत्र् को भूगर्भीय दृ’िट से खतरनाक साबित करने की कोशिश की। तमाम भूगर्भीय परीक्षणों का हवाला देते हुये वह यह साबित करना चाहती थी कि यह राजधाानी के लिए किसी भी तरह उपयुक्त नहीं है। असल में मधय हिमालय पूरा ही भूगर्भीय दृष्टि से सवेदनशील है। देहरादून से लेकर टकनकपुर तक की पूरी पट्टी सबसे खतरनाक जोन में हैं। गैरसैंण में तीन सौ साल से बने मंदिर और डेढ सौ साल पुराने तीन मंजिले मकान भी’ाण भूकंप में नहीं गिरे, राजधाानी बनने मात्र् से यह कैसे खतरनाक हो जायेगा यह समझ से परे है। और यदि येसा है भी तो सरकार को सबसे पहले इस बात पर गंभीरता से धयान देना चाहिए कि गैरसैंण और उसके पास बसे तमाम अबादी के विस्थापन की व्यवस्था करनी चाहिए। राजधाानी तो बाद की बात है। जब विकास के नाम पर लोगों को विस्थापित कर नई टिहरी जैसे “ाहरों को बसाया जा सकता है तो राजधाानी के लिए गैरसैंण को विकसित रिने में सरकारें क्यों परेजान हैं, यह समझ में नहीं आता। उत्तराखंड की सत्रह नदियों पर बन रहे 200 से अधिक विनाशकारी बांधा और उनमें बनने वाली 700 किलोमीटर की सुरंगें विकास का माॅडल बताई जा रही हैं और राज्य के सुदूर ग्रामीण खेत्रों के लिए विकास के विकेन्द्रकरण की सोच के लिए केन्द्र में बनने वाली राजधाानी के लिए कुतर्क पेज कर सरकार और राजनीतिज्ञ जनविरोधी रास्ता अख्तियार कर रहे हैं।
   सही नियोजन और जनपक्षीय विकास के माडल की मांग के साथ “शुरू हुआ राज्य आंदोलन अपने तीन दजक की संघर्ष यात्र में विभिन्न पड़ावों से गुजरा। रा’ट्रीय राजनीतिक दलों की घोर उपेक्षा और राष्ट्रद्रोही कही जाने वाली मांग के बीच क्षेत्रीय जनता ने राज्य की प्रासंगिता का रास्ता खुद ढंूढा। तीन दजकों के सतत संघर्ष, 42 लोगों की “शहादत और लोकतान्त्र्कि व्यवस्था में अपनी मांग के समर्थन में रैली में जा रही महिलाओं के अपमान के बाद राज्य मिला। यह किसी की कृपा और दया पर तो नहीं मिला लेकिन जो लोग कल तक राज्य का विरोधा कर रहे थे वे अब अचानक इस आंदोलन को हाई जैक करने में सफल हो गये। बाद में वही राज्य बनाने का श्रेय भी ले गये। 9 नवंबर 2000 को जब राज्य बना तो वह नये रूप और नये रंग का था। उत्तराखंड की जगह उत्तरांचल के नाम से राज्य अस्तित्व में आया और भाजपा की अंतरिम सरकार बनी जिसने नाम के अलावा राजधानी के लिए भी साजिज की। उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश वीरेन्द्र दीक्षित की अधयक्षता में एक सदस्यीय राजधानी चयन आयोग का गठन कर लोगों की भावना के खिलाफ काम करना “शुरू कर दिया। आठ साल में वह किसी न किसी बहाने इस पर रोडे अटकाती रही। सरकार की प्राथ्मिकता में राजधानी का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं था इसलिए वह इस आयोग का मनमाना कार्यकाल बढ़ाती रही। भाजपा की अंतरिम सरकार ने इसका गठन किया तो कांग्रस ने लगातार इसके कार्यकाल को बढ़ाया। जितनी बार कार्यकाल बढ़ा उतनी बार गैरसैंण के खिलाफ कुतर्क ढूंढ़े गये। इस बीच राजधानी के सवाल को लेकर लंबे समय से संघर्ष करने वाले बाबा उत्तराखंड़ी ने अपनी शहादत दी और एक छात्र् कठैत ने आत्महत्या की। बावजूद इसके इन दोनों सरकारों ने आयोग के माधयम से जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया। आठ साल के बाद दीक्षित आयोग की रिपोर्ट ने राज्य की जनता के साथ ऐसा छलावा किया जो  एक नये आंदोलन को जन्म देने के लिए काफी है।

Charu Tiwari

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लेखक- चारु तिवारी

डेढ दशक बाद उत्तराखंड में फिर आंदोलन के स्वर मुखर होने लगे हैं। आठ साल बाद जनता अपने को ठगा महसूस करने लगी है। स्थायी राजधानी के बहाने यहां हाशिए में धकेले गये सवाल फिर उठाये जा सकते हैं। इसके लिये वे राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं जो कभी राज्य के विरोधी रहे और सत्ता में आने के बाद भी उन्होंने पहाड़ के विकास की अपनी समझ नहीं बदली। राजधानी स्थल चयन के लिये बनी बीरेन्द्र दीक्षित आयोग की रिपोर्ट के पिछले दिनों विधानसभा पटल पर रखते ही पहाड़ से गर्म हवायें आने लगी हैं। आयोग ने देहरादून को राजधानी के लिये सबसे उपयुक्त माना है। चन्द्रनगर गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिये उत्तराखंड की जनता में सुगबुगाहट शुरू हो गयी है। यह अचानक आयी प्रतिक्रिया नहीं है। आठ साल, पांच मुख्यमंत्रियों और ग्यारह बार बढाये गये कार्यकाल के बाद जो रिपोर्ट आयी वह यहां की जनता को चिढ़ाने वाली है। गैरसैंण को राजधानी के लिये उपयुक्त न मानने की सिफारिश कर आयोग ने भाजपा और कांगे्रस के उस विचार को मजबूत किया है जो किसी भी स्थिति गैरसैंण को राजधानी नहीं बनने देना चाहते हैं। स्थायी राजधानी का मामला न तो राजनीतिक पूर्वाग्रह है और न ही प्रदेश के बीचोंबीच राजधानी बनाने की जिद, सही अर्थों में यह आंदोलन यहां के अस्तित्व, अस्मिता और विकास के विकेन्द्रीकरण की पुरानी मांग है।
   गैरसैंण को राजधानी बनाने की जनता की मांग नई नहीं है। राज्य आंदोलन के शुरुआती दौर से ही चमोली जनपद और राज्य के बीचोंबीच स्थित इस खूबसूरत स्थान को  लोगों ने राजधानी के लिये उपयुक्त माना। कभी राज्य आंदोलन का ध्वजवाहक रहे उत्तराखंड क्रान्ति दल ने जनवरी 1992 में बागेश्वर में अपने घोषणापत्र में गैरसैंण का नाम सुझाया। अपने स्थापना दिवस पर 25 जुलाई 1992 को इसे पेशावर कांड के नायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम पर इसका नामकरण चन्द्रनगर कर इसे राज्य की राजधानी घोषित कर दिया। तब से जब भी राजधानी की बात हुयी पहाड़ के लोगों ने कभी और जगह के बारे में सोचा भी नहीं। विभाजित उत्तर प्रदेश में वर्ष 1994 में तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार ने वरिष्ठ मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इस सरकारी समिति ने अपनी जो संस्तुतियां प्रस्तुत कीं उनमें राज्य के 68 प्रतिशत लोगों ने गैरसैंण चन्द्रनगर को राजधानी के लिये सबसे उपयुक्त माना। भाजपा और कांग्रेस ने हमेशा इस मांग के खिलाफ अपनी साजिशें जारी रखीं। गैरसैंण को राजधानी न बनाने के लिये उन्होंने कुतर्क गढ़ने भी शुरू कर दिये। राजधानी के बारे में वे लोग भी तर्क देने लगे जिन्हें यहां का भूगोल पता नही है।  जिन लोगों ने कभी गैरसैंण  देखा नहीं वे भी उसके विरोध में बयान देने लगे। सरकार भी बार-बार लोगों का ध्यान इससे हटाने लगी।
   नवबर 2000 को जब राज्य बना तो पहली अंतरिम सरकार भाजपा की बनी। उसने दो काम किये पहला उत्तराखंड का नाम बदलकर उत्तरांचल करना और दूसरा राज्य की राजधानी के लिये आयोग का गठन करना। दोनों की काम जनभावनाओं के खिलाफ थे। राजधानी के मसले पर तो भाजपा ने अलोकतांत्रिक काम किया उसने जनमत को आयोग की कसौटी में जांचने की साजिश की। राज्य पहली चुनी हुयी सरकार कांग्रेस की बनी। उसने इस आयोग के कार्यकाल को लगातार बढ़ाया। मौजूदा भाजपा शासन में इस आयोग को दो बार बढ़ाया गया। असल में देहरादून को राजधानी बनाने का माहौल इसलिये तैयार किया जाता रहा है कि जनता के पैसे पर ऐश करने वाले सुविधाभोगी नेता, नौकरशाह और माफिया का गठजोड़ गैरसैंण को किसी भी हालत में राजधानी नहीं बनाना चाहता। राजधानी के लिये बने दीक्षित आयोग ने जो रिपोर्ट पेश की है वह न केवल हास्यास्पद है, बल्कि नीति-नियंताओं की कमजोर सोच का परिचायक भी है। लंबी कवायद और करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद वही हुआ जिसकी सबको आशंका थी। आयोग की संस्तुतियों को मानना हांलाकि सरकार के विवेक पर निर्भर करता है, लेकिन इस पूरी कवायद में राजनीतिक दलों का जो रवैया रहा उसे पूरा करने मे दीक्षित आयोग ने पूरी भूमिका निभाई। वह सरकार के एजेंट के रूप में काम करती रही। जनता इस बात से भी आहत है कि आठ साल में आयोग की जो रिपोर्ट आयी है उसे अभी तक गैरसैंण के बारे में ही जानकारी नहीं है। आयोग ने गैरसैंण को अल्मोड़ा में बताया है, जबकि यह चमोली जनपद में है। इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति, उंचाई और अन्य विवरण भी आयोग को मालूम नहीं है। इससे सरकार के जनविरोध और जनभावनाओं को कुचलने की प्रवृत्ति का पता चलता है।
   दीक्षित आयोग ने इन आठ सालों में गैरसैंण की बात को कमजोर करने का ही काम किया। एक तरफ आयोग किसी न किसी बहाने अपना कार्यकाल बढ़ाता गया और दूसरी तरह सरकारें अस्थायी राजधानी देहरादून में निर्माण कार्य कराती रही। आयोग ने अपने पूरे कार्यकाल में जनभावनाओं के विपरीत काम किया। उसने कभी जनता से सीधे संवाद करने की कोशिश नहीं की। आयोग बार-बार जिन खतरों को राजधानी के लिये बताता रहा वे बेहत कमजेार और हल्के थे। आयोग की सड़क, रेलमार्ग, हवाई यातायात और पानी की उपलब्धता जैसे मुद्दों को उठाकर एक सोची समझाी साजिश के तहत गैरसैंण की मांग को कमजोर किया है। आयोग तमाम भूगर्भीय परीक्षणों का हवाला देते हुये वह यह साबित करती रही कि गैरसैंण राजधानी के लिये उपयुक्त नहीं है। असल में पूरा मध्य हिमालय ही भूगर्भीय दृष्टि से संवेदनशील है। देहरादून से लेकर टनकपुर तक की पूरी पट्टी सबसे खतरनाक जोन में है। गैरसैंण में तीन सौ साल से बने मंदिर और डेढ सौसाल पुराने तीन मंजिल के मकान भारी भूकंप के झटकों के बावजूद नहीं गिरे तब राजधानी बनने मात्र से यहां भूचाल आ जायेगा यह समझ से परे है। सरकार को यह भी समझना चाहिये कि यदि गैरसैंण को इस तरह के नुकसान की आशंका है तो उसे सबसे पहले यहां के गांवों के विस्थापन की व्यवस्था करनी चाहिये, वरना सिर्फ राजधानी के लिये इस तरह के खतरों को प्रचारित करना बंद करे। जब कथित विकास के नाम पर लोगों को विस्थापित कर नई टिहरी जैसे शहर बसाये जा सकते हैं जो गैरसैंण को राजधानी के लिये विकसित करने में सरकार क्यों परेशान हो जाती है यह समझ से बाहर है। मौजूदा समय में उत्तराखंड की सत्रह नदियों में ढाई सौ से अधिक बांध प्रस्तावित हैं उनमें से 700 किलोमीटर की सुरंगें बनाई जा रही हैं। इसे विकास का माॅडल बताया जा रहा है। विकास के विकेन्द्रीकरण की सोच को लेकर राज्य के केन्द्र में बनने वाली राजधानी के लिये कुतर्क पेश कर सरकार और राजनीतिज्ञ जनविरोधी रास्ता अख्तियार कर रही है।

Devbhoomi,Uttarakhand

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its realy grate artical charu ji

Charu Tiwari

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साथियों!
उत्तराखण्ड में भारतीय प्रबंधन संस्थान की स्थापना की घोषणा पहाड़ में उच्च और आधुनिक शिक्षा के लिये नया रास्ता तैयार करेगी। विकास के विकेन्द्रीकरण और नयी संभावनाओं की खोज के लिये ऐसे संस्थानों का जनहित में होना ज्यादा जरूरी है। उत्तराखंड में तमाम संस्थानों का कुछ किलोमीटर क्षेत्रों में सिमट जाना अच्छा नहीं हैं। देहरादून, पंतनगर, रुड़की के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी बड़े संस्थान खुले इसके लिये द्वाराहाट के विधायक पुष्पेश त्रिपाठी और क्रिएटिव उत्तराखंड के साथियो ने एक संयुक्त अभियान चलाया है। इसके तहत राज्य के विभिन्न हिस्सों में ऐसे संस्थान खोलने के लिये पहल की जा रही है। भारतीय प्रबंधन संस्थान को पर्वतीय क्षेत्र में खोलने को लेकर उक्रांद के वरिष्ठ नेता काशी सिंह ऐरी, पुष्पेश त्रिपाठी, प्रताप शाही, प्रेम सुन्दरियाल, दिनेश जोशी, दयाल पांडे, मोहन बिष्ट, मुकुल पांडे, कैलाश पांडे आदि ने दिल्ली में कई विभागों और व्यक्तियों से बात की। इस संदर्भ में एक प्रतिनिधिमंडल मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल से भी मिला। प्रधानमंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्री और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन भी प्रस्तुत किया। इस ज्ञापन की मूल प्रति यहां प्रस्तुत की जा रही है। आपके सुझाव आमंत्रित हैं।

सेवा में,
    डा. मनमोहन सिंह जी
   माननीय प्रधानमंत्री
   भारत सरकार
महोदय, उत्तराखंड में भारतीय प्रबंधन संस्थान की स्थापना से यहां उच्च शिक्षा के नये स्थापित होंगे। उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य में जहां उच्च शिक्षा का भारी अभाव रहा है, वहां अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के संस्थान खुलने से नई पीढ़ी मौजूदा प्रतिस्पर्धा के दौर में अपने को तैयार कर सकती है। इसके लिये केन्द्र सरकार बधाई की पात्र है। हमें आशा है कि सरकार तमाम बिन्दुओं पर विचार कर इस संस्थान के लिये ऐसे स्थान का चयन करेगी जो राज्य ही नहीं देश में प्रबंधन शिक्षा और शोध के लिये एक माडल के रूप में पहचाना जायेगा।

   उत्तराखंड के लोग चाहते हैं कि इस संस्थान की स्थापना विकास के विकेन्द्रीकरण की नीति के तहत राज्य के किसी ऐसे स्थान में हो जहां से सुदूर क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाध्नों पर आधरित प्रबंधन की शिक्षा को बढ़ावा मिले और नये शोध और परिकल्पना के साथ विकास का सर्वपक्षीय रास्ता तैयार हो। उत्तराखंड में खुलने वाला यह संस्थान इस दिशा में पहल ले सकता है। यदि इसे पर्वतीय क्षेत्रा में खोला जायेगा तो यह विश्व भर में पहाड़ के लिये नई नीति और विकास के दर्शन का ध्वजवाहक बन सकता है। यह प्रतिवेदन इस विचार के साथ भी भेजा जा रहा है कि विश्व में बढ़ती जनसंख्या और घटते संसाधनों के बीच प्राकृतिक धरोहरों को बचाना सबसे बड़ी चिन्ता है। इन्हें बचाने के लिये हिमालय का प्रबंधन बहुत जरूरी है। भारत में हिमालय को बचाने और उसे देश की समृद्धि के साथ जोड़ने की बातें तो बहुत हुयीं लेकिन कभी इसके सही नियोजन की दिशा में काम नहीं हुआ। पहाड़ में जब एक नया प्रबंध संस्थान खुल रहा है तब हमें इस पर विचार करना चाहिये कि क्यों न हम इसे हिमालय के प्रबंधन और शोध के नये रास्ते तलाशने के लिये उपयोग करें।
    उत्तराखंड में सत्तर के दशक तक उच्च शिक्षा संस्थानों का भारी अभाव था। अविभाजित उत्तर प्रदेश के आठ जिलों का यह पर्वतीय क्षेत्रा आगरा विश्वविद्यालय पर निर्भर था जिसके कारण बड़ी संख्या में लोग उच्च शिक्षा से वंचित रहे। इस विश्वविद्यालय से संब( महाविद्यालयों की संख्या भी बहुत कम थी। वर्ष 1972 में कुमांऊ और गढ़वाल विश्वविद्यालयों के लिये आंदोलन शुरू हुये। इसी के परिणामस्वरूप कुमांऊ और गढ़वाल विश्वविद्यालय अस्तित्व में आये। लेकिन इन तीन दशकों में ये विश्वविद्यालय उन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे जिनकी इनसे उम्मीद की जा रही थी। इसका सबसे बड़ा कारण पाठ्यक्रमों का समय के साथ बदलाव न करना रहा है। ऐसे विभागों की स्थापना और शोध् नहीं हो पाये जो छात्रों और इस क्षेत्रा के लिये उपयोगी साबित होते। गोबिन्दवल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पन्तनगर की स्थापना इसी उद्देश्य से की गयी थी कि पहाड़ की कृषि, बागवानी, पशुपालन और पर्यावरणीय संरचना को बचाने के लिये शोध् कर नया रास्ता निकल सके। दुर्भाग्य से इस विश्वविद्यालय ने कभी इस क्षेत्रा में पहल नहीं की और यह एक सामान्य एकेडमिक संस्थान बनकर रह गया। राज्य बनने के बाद इसकी तमाम कृषि और शोध् की जमीन को उद्योग लगाने के लिये दे दिया गया है। मौजूदा समय में राज्य में पेट्रोलियम विश्वविद्यालय जैसे संस्थान सहित नौ विश्वविद्यालय, दो इंजीनियरिंग कालेज और सैकडों महाविद्यालय हैं। स्वपोषित शिक्षा संस्थानों की एक लंबी सूची है। रुड़की विश्वविद्यालय जैसा विश्व स्तरीय संस्थान है। भूगर्भीय शोध के लिये वाडिया संस्थान, वन शोध् संस्थान, ओएनजीसी, सर्वे आफ इंडिया के अलावा कई संस्थान राज्य में काम कर रहे हैं। इन संस्थानों ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हिमालयी सरोकारों पर शोध् करना था लेकिन इन्होंने कभी हिमालय को उस तरीके से देखने की कोशिश नहीं की। यदि ऐसा होता तो आज ये संस्थान हिमालय की हिफाजत के लिये नई नीतियों का निर्माण कर भारत को समृद्धि का रास्ता दिखा सकते थे।
    इन संस्थानों की कार्यप्रणाली के अब तक के अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं। इसलिये हमारा मानना है कि भारतीय प्रबंध्न संस्थान के इस प्रारंभिक चरण में हम एक ऐसा सोच बनायें जिससे संस्थान को हिमालय की हिपफाजत और शोध के लिये समर्पित कर दिया जाये। यह इसलिये भी जरूरी है क्योंकि टुकड़ों में हिमालयी प्रबंधन की बात साठ के दशक से हो रही है लेकिन अभी तक उसका कोई स्पष्ट स्वरूप सामने नहीं आ पाया है। हम मांग करते हैं इस प्रबंधन संस्थान को पर्वतीय क्षेत्रा में स्थापित किया जाए और यहां से पूरे देश के हिमालयी क्षेत्रों के विकास, जल, जंगल और जमीन जैसे महत्वपूर्ण धरोहरों का प्रबंध्न किया जाये। इसके लिये सोच का व्यापक फलक तैयार करने के लिये पर्वतीय क्षेत्र में इस संस्थान की जरूरत को निम्न बिन्दुओं से समझा जा सकता है।

- हिमालय देश का सबसे बड़ा वाटर टैंक है। विश्व भर में पानी को लेकर जिस तरह अघोषित युद्ध छिड़ा है उसने जल प्रबंधन जैसे विषय को महत्वपूर्ण बना दिया है। ग्लोबल वार्मिग के चलते हिमालय खतरे में है इसे बचाने के लिये ठोस नीति और कार्यक्रम ही नहीं, बल्कि मजबूत प्रबंध्न की भी जरूरत है। इस संस्थान के पर्वतीय क्षेत्र में स्थापित होने से नये शोध और कार्यक्रम तय किये जा सकते हैं।

- उत्तराखंड को मध्य हिमालय के नाम से भी जाना जाता है। यहां छोटी-बड़ी सत्रह नदियां निकलती हैं। इन नदियों के जल उपयोग के प्रबंधन पर सार्थक काम नहीं हो पाया है। प्रबंधन की कमी के चलते ऊर्जा प्रदेश के नाम पर यहां ढाई सौ से अधिक बांध प्रस्तावित हैं इनसे नदियों का अस्तित्व खतरे में है। संस्थान शोध के माध्यम से इस दिशा में काम कर सकता है। यह न केवल उत्तराखंड, बल्कि पूरे देश के हित में है।

ऽ   - देश के हिमालयी राज्यों में भूमि प्रबंधन की ऐसी नीतियां नहीं बनी हैं जिनसे इन क्षेत्रों को आत्मनिर्भर बनाया जा सके। जमीन का उचित प्रबंधन कर पलायन रुकेगा और देश के हित में प्राकृतिक संसाध्नों को बचाया जा सकेगा। यदि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में यह प्रबंधन संस्थान खुलेगा तो प्रबंधकीय शोध के नये क्षेत्र खोलने की दिशा में यह नई पहल करने की स्थिति में होगा।

ऽ   पर्यावरणीय और पारिस्थितिकी प्रबंधन इस समय दुनिया की सबसे बड़ी जरूरत है। इन पर शोध के लिये उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र से अच्छी जगह और नहीं हो सकती। मौजूदा समय में इस क्षेत्र में इसी काम के लिये 45 हजार एनजीओ काम कर रहे हैं। राज्य में कुल 17 हजार गांव हैं। इस लिहाज से एक गांव में औसतन तीन एनजीओ काम कर रहे हैं लेकिन पर्यावरण और पारिस्थितिकी असंतुलन की समस्या और बिगड़ रही है। इसलिये एक ठोस पर्यावरणीय प्रबंधन की आवश्यकता को समझते हुये यहां नये शोध और कार्यक्रमों की जरूरत है।

ऽ   देश के अन्य पर्वतीय राज्यों की तरह उत्तराखंड का बड़ा हिस्सा वनों से आच्छादित है। जब भी हिमालयी राज्यों के लिये नीति बनाने की बात आती है वन प्रबंधन पीछे छूट जाता है। वनों के संरक्षण और बेहतर उपयोग के लिये कोई ठोस शोध नहीं हुआ जिसके कारण आज भी वनों के खात्मे का रास्ता बन रहा है। उत्तराखंड में स्थापित होने वाला यह संस्थान वन प्रबंधन जैसे कामों को बेहतर तरीके से कर सकता है।

ऽ   देश का पूरा हिमालयी क्षेत्रा प्राकृतिक आपदाओं वाला है। हिमालय दुनिया का सबसे कमजोर पहाड़ है। यहां अभी भूगर्भीय हलचलें जारी हैं इससे भूस्खलन, बाढ़, जमीन के फटने की घटनायें जारी हैं। इस तरह की आपदाओं से पहाड़ टूट रहे हैं जो देश के हित में नई है इस क्षेत्र में आपदा प्रबंधन के लिये शोध किये जाने की आवश्यकता है। इसे यह संस्थान पूरा कर सकता है।

ऽ   हिमालयी क्षेत्रों में बागवानी और पफलों पर आधरित उद्योग और विपणन के लिये व्यापक प्रबंधकीय काम करने की आवश्यकता है। इस लिहाज क्षेत्र में मेंनेजमेंट के नये क्षेत्रों से परिचित कराया जा सकता है।

ऽ   हिमालयी क्षेत्रों में पर्यटन की अपार संभावनाओं को देखते हुये इसके बेहतर प्रबंधन की संभावनायें उत्तराखंड में हैं। जब इस तरह के संस्थान यहां होंगे तो इनमें काम करने और उनसे आर्थिकी के मजबूत होने के रास्ते भी खुलेंगे।

   उपरोक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुये, देश और हिमालयी राज्यों के हितों को ध्यान में रखते हुये भारतीय प्रबंध्न संस्थान को उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रा में खोला जाये। यह गांधी के स्वराज और आज के प्रतिस्पर्धी बाजार व्यवस्था का संतुलित रूप होगा। इसके लिये उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में बहुत सारे स्थान हैं जो भारत के शीर्ष पर एक उन्नत और बहुआयामी प्रबंधन संस्थान के लिये आदर्श हो सकते हैं। इनमें से अल्मोड़ा जनपद के चौखुटिया क्षेत्रा को चुना जा सकता है। यह स्थान पन्तनगर से 100 किलोमीटर की दूरी पर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। यह स्थान राज्य की प्रस्तावित राजधानी गैरसैंण की सीमा के भीतर आता है। रामगंगा जैसी सदानीरा नदी के किनारे पर बसा यह बड़े भू-भाग में पफैला मैदानी भाग है। इस स्थान के लिये अंग्रेजों के समय से रेलवे लाइन के लिये सर्वे हुआ था। भविष्य में यहां रेलवे लाइन की सुविध की सकती है। मौजूदा समय में काठगोदाम और रामनगर रेलवे स्टेशन हैं। पंतनगर निकटतम हवाई अड्डा है। गौचर में हवाई पट्टी प्रस्तावित है।
   हम आशा करते हैं कि उत्तराखंड में खुलने वाला भारतीय प्रबंधन संस्थान देश में अपने तरह का एक अलग संस्थान होगा जो शोध और प्रबंधन के नये विषयों और उन्हें जनपक्षीय बनाने का काम करेगा।

shailesh

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किसी भी समाज के समग्र व संतुलित विकास के लिए बेहतर प्रबंधन की जरूरत होती है !
इसलिये यह जरूरी है की देश के प्रतिष्ठित सस्थान कारपोरेट हितों की पूर्ती के बजाय आम आदमी की बेहतरी के लिए काम करे !
 जैसा की अमर्त्य सेन ने कहा है !
" कॉर्पोरेट भारत और आम जनता के हितों के बीच संतुलन नहीं है और पलड़ा कॉर्पोरेट भारत के पक्ष में झुका हुआ है. ............हमें लगातार निम्नस्तर की बुनियादी शिक्षा और घटिया स्वास्थ्य सेवाओं पर सवाल उठाना पड़ेगा ताकि राजनेताओं को ये समझ आ सके कि अभी बहुत से क्षेत्र बचे हुए हैं जिनमें उन्हें काम करके दिखाना है.!.."  

उत्तराखंड मे सत्तर के दशक  से ही हिमालय बसाओ हिमालय बचाओ की  बात होती रही है ! हिमालय को बचाने और बसाने यहाँ से पलायन रोकने और मानव संसाधन का बेहतर उपयोग एक बहुत बड़ी चुनोती है ! भारतीय प्रबंधन संसथान की स्थापना एक महत्त्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है बशर्ते ये संसथान यहाँ हिमालय प्रबंधन पर कुछ ठोस शोध करें ! उत्तराखंड मे इसकी स्थापना  एक केंद्रीय स्थल पर हो और  यह गैरसैण राजधानी की स्थापना की ओर एक महत्त्वपूर्ण कदम होगा ! गैरसैण के पास चौखुटिया का क्षेत्र एक उपयुक्त जगह है !

Charu Tiwari

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पानी यहीं से निकलेगा

जनकवि दुष्यन्त का यह शेर उत्तराखंड की स्थायी राजधानी आंदोलन के लिये सटीक है-

वक्त की रेत पर एड़ियां रगड़ते रहे,
मुझे यकीं है कि पानी यहीं से निकलेगा।

   हमने जब दिल्ली से गैरसैंण के लिये जनजागरण यात्रा पर विचार किया तो मेरे साथियों में उत्साह और गैरसैंण जाकर अपनी बात को कहने का संकल्प साफ झलक रहा था। लेकिन आंदोलनों के अभ्यस्त न होने के कारण मैं उनकी इस पीड़ा को समझ सकता था कि हम इस यात्रा से जो संदेश देना चाहते हैं उसमें कितने सफल होंगे। मैं चाहता था कि जैसे भी हो सब लोग गैरसैंण चलें और इस पूरी यात्रा में गैरसैंण को राजधनी बनाने के निहितार्थ भी समझें। मेरे लिये गैरसैंण की बात और आंदोलन की सफलता-असफलता का कोई द्वन्द्व भी नहीं था। वह इसलिये कि 25 दिसंबर 1992 को जब गैरसैंण का नाम चन्द्रनगर रखकर इसे राजधनी घोषित किया गया तो मैं इसके शिलान्यास समारोह में शामिल था। श्रीदेव सुमन के शहादत दिवस पर 25 जुलाई 1992 में जब चन्द्रसिंह गढवाली की मूर्ति के अनावरण में भी मैं इसमें शामिल रहा। इसके बाद कई बार उत्तराखंड के सवालों पर हम लोग गैरसैंण में इकट्ठा होते रहे। गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिये अपनी शहादत देने वाले बाबा उत्तराखंडी के साथ भी हम लोग गैरसैंण में रहे हैं। राज्य आंदोलन के शुरुआती दौर को देखने और विपरीत परिस्थितियों में भी राज्य आंदोलन के साथ चलने से संख्या नहीं बल्कि जिजीविषा से चलने को महत्व दिया। अच्छा हुआ युवा साथियों के साथ वे लोग साथ चले जिन्होंने उत्तराखंड के कई संघर्षों में हिस्सा लिया। सर्वश्री प्रताप शाही, प्रेम सुन्दरियाल, दिनेश जोशी, सत्येन्द्र रावत, बोराजी, महेश मठपाल और कृपाल सिंह भी जुड़ गये। हमारी टीम में पहले से ही दयाल पांडे, मोहन बिष्ट, रणजीत सिंह राणा, मुकुल पांडे, कैलाश बेलवाल, दिनेश सिंह और रुद्रपुर से भाई हेम पंत मौजूद थे। दोनों दलों में एक-एक गैर उत्तराखंडी थे जो पहाड़ की राजधानी गैरसैंण को बनाने के प्रबल पक्षधर थे। हमारे साथ महोबा उत्तर प्रदेश के इंजीनियर भाई पुनीत सिंह और  दूसरे दल के साथ डा.... थे। खैर! दिल्ली से यात्रा निकल गई। गये तो कम लोग ही थे लेकिन काफिला बढ़ता गया। गैरसैंण तक हमारे साथ 70 लोग जुड़ गये। एक खामोशी को तोड़ने का प्रयास करते हुये क्रान्तिवीर स्व. विपिन त्रिपाठी की पांचवीं बरसी पर इस यात्रा का समापन एक अच्छे संदेश के साथ समाप्त हुयी। यह हमारी मंशा की पवित्रता ही है कि अब राजधनी का आंदोलन धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है। राजधानी गैरसैंण बनेगी इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिये। यही इस यात्रा का सार है।

   मैं इस यात्रा की तैयारी के लिये दो दिन पहले चला गया था। मुझे आज से 25 साल पहले की याद आयी जब राज्य की बात करने वालों पर दुकान के अन्दर बैठकर राजनीति करने वाले लोग फब्तियां कसते थे। आंदोलन के प्रति उदासीनता आज भी है। यह खामोशी जनता पर थोपी गयी है। इस खामोशी को तूफान आने से पहले की खामोशी के रूप में देखा जा सकता है। जब हम लोग द्वाराहाट पहुंचे तो लोगों ने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया। 29 अगस्त को हमारा बहुत व्यस्त कार्यक्रम था। हमने द्वाराहाट और चौखुटिया में बच्चों के लिये कैरियर काउंसलिंग का कार्यक्रम रखा था। पहले चौखुटिया पहुंचे वहां के साथियों ने लोक निर्माण विभाग के डाक बंगले में हमारी व्यवस्था की थी। यहां से हम लोग दिशा विद्यालय में गये जहां 85 छात्रा-छात्रायें कैरियर कांउसलिंग के लिये जुटे थे। भारी संख्या में शिक्षक भी उपस्थित थे। यहां स्थानीय जनता ने हमारे प्रयासों की सराहना की। हमारे प्रबुद्ध साथी दिनेश सिंह ने बच्चों को बहुत मनोरंजक और वैज्ञानिक तरीके से भविष्य के प्रति मार्गदर्शन किया। यहां पुराने साथी राजेन्द्र तिवारी, बीरेन्द्र बिष्ट, आनन्द किरौला, मनोज शर्मा, उपाध्यायजी आदि ने पूरी व्यवस्था की थी। यहां डाकबंगले में उत्तराखंड क्रान्ति दल की केन्द्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रदेश भर के लोग जुटे थे। हम लोगों ने उनसे मिलेकर आंदोलन को आगे बढ़ाने की अपील की। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने माना कि यह शून्यता को तोड़ने का प्रयास है। लोगों में गैरसैंण को लेकर भारी उत्साह था। द्वाराहाट और चौखुटिया से बहुत सारे साथी गैरसैंण के लिये चले।
   गैरसैंण जाने पर हमेशा नये उत्साह का संचार होता है। जैसे ही गैरसैंण में प्रवेश किया यहां की सुन्दरता को देख नये साथी भारी उत्साह से भर गये। तेजी से गाड़ी में उतरते ही हमारे सबसे ऊर्जावान साथी कभी पहाड़ नहीं रहे मुकुल पांडे ने नारों से घाटी में गर्जना कर दी- ‘‘जो गैरसैंण की बात करेगा, वो उत्तराखंड पर राज करेगा।’’ बाबा मोहन उत्तराखंडी, अमर रहे’’, ‘‘और कहीं मंजूर नहीं, गैरसेंण कोई दूर नहीं।’’ मुकुल का यह उत्साह यूं ही नहीं है। वे आजादी आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले हरगोबिन्द पंत और कुमांऊ केसरी बद्रीदत्त पांडे के परिवार से आते हैं। उनके साथ निःस्वार्थ अपना काम करने वाले मोहन बिष्ट जिन्हें सभी मोहन दा कहते हैं। मेरे से 12 साल छोटे होने के बाद भी कभी-कभी मेरे मोहन दा हो जाते हैं। भाई दयाल पांडे उत्तराखंड के सवालों को साथ बचपन मे ही पचपन के हो गये हैं। बड़ी गंभीरता से सब चीजों की व्यवस्था देखने लगे। हमारे साथ हेम भाई का होना उस स्वाभाविक प्रकृति के समान है जो शान्त और गंभीर रहकर सबके लिये प्राणवायु बनती है। भाई शैलू त्रिपाठी एक चलते-फिरते वैचारिक संस्थान के रूप में साथ देते हैं। मुझे इस बात पर विश्वास ही नहीं हो रहा है कि कैलाश बेलवाल जिन्हें मंच में गाते हुये तो सुना था लेकिन जाते ही बिना किसी से पूछे गैरसैंण पर मंच का संचालन कर देंगे। संयोग से उस दिन गैरसैंण बाजार बंद था लेकिन साथियों की हुंकार सुनकर लोग इकट्ठा होने लगे। प्रखर आंदोलनकारी प्रताप शाही, प्रेम सुन्दरियाल, सत्येन्द्र रावत ने नारों से नई चेतना का संचार किया। सभी लोग चन्द्रसिंह गढ़वाली की मूर्ति के सामने इकट्ठा हुये माल्यार्पण किया और एक जनसभा की। इसे प्रताप शाही, प्रेम सुन्दरियाल, शाहजी, बिष्टजी, मुकुल पांडे आदि ने संबोधित किया। प्रताप शाही जी ने जनगीत से शमा बांध् दिया। इसके बाद सभी लोग जुलूस की शक्ल में शहर के विभिन्न मार्गों से नारेबाजी करते हुये निकले लोग जुटते गये।

   गैरसैंण से लौटकर हम लोग वापस चौखुटिया आये। यहां पहुंचते-पहुंचते रात के आठ बज गये थे। चौखुटिया से तीन किलोमीटर दूर इनहेयर के गेस्ट हाउस में खाना खाया और द्वाराहाट के लिये प्रस्थान किया। यहां कुमांऊ इंजीनियरिंग कालेज के अतिथि गृह में रात्रि विश्राम किया। दिनेश सिंह हमारे साथ गैरसैंण नहीं आये थे। उन्होंने दिन में राजकीय इंटर कालेज के 120 छात्रों की कैरियर काउंसलिंग की। इस कार्यक्रम में असगोली और द्वाराहाट इंटर कालेज के बच्चों ने भी भाग लिया। 30 अगस्त को द्वाराहाट के शीतला पुष्कर मैदान में इस यात्रा का समापन होना था। इस दिन स्व. विपिन त्रिपाठी की पांचवी पुण्यतिथि थी जिन्होंने गैरसैंण को चन्द्रनगर का नाम दिया था। इससे पहले साथियों ने कहा कि दूनागिरी मां के दर्शन करते हैं। बहुत सुबह हम लोग दूनागिरी चले गये। वहां पूजा-अर्चना के बाद दूनागिरी से गैरसैंण राजधानी बनाने का आशीर्वाद लिया। भंडारे में खाना खाने के बाद द्वाराहाट के मुख्य कार्यक्रम में आये। यहां कार्यक्रम की शुरुआत हो चुकी थी। यह आयोजन हमारे लिये नया नहीं है। असल में वर्ष 2004 में जब त्रिपाठीजी का असमय निधन हुआ तो हमने दिल्ली में क्रान्तिवीर विपिन त्रिपाठी विचार मंच के नाम से संगठन बनाया। इस बैनर पर हमने संकल्प लिया था कि उनके विचारों के अनुरूप हम एक खुशहाल राज्य के संकल्प को जितना भी हो सकेगा आगे बढ़ायेंगे। इस बार पता लगा कि द्वाराहाट में इसी नाम से संस्था का पंजीकरण कर लिया गया है। उनकी पहली पुण्यतिथि से ही हमने पहाड़ के सरोकारों के लिये काम शुरू कर दिया था। उनके आर्दश और टिहरी रियासत के खिलापफ अपनी शहादत देने वाले श्रीदेव सुमन, त्रिपाठीजी के पोस्टर का प्रकाशन किया। प्रखर समाजवादी विचारक सुरेन्द्र मोहनजी को द्वाराहाट ले गये। उन्होंने त्रिपाठी जी के जीवन पर मेरी पुस्तक का विमोचन किया था। हर साल इस मौके पर हम कोई रचनात्मक पहल करते हैं। पिछले साल कुमांऊ इंजीनियरिंग कालेज के सभागार में पहाड़ के बुद्धिजीवियों को बुलाकर "हिमालय बचाओ, हिमालय बसाओ" पर सेमिनार का आयोजन किया था। इसमें पद्मश्री डा. शेखर पाठक, पर्यावरण और इतिहासविद डा. अजय रावत, पद्मश्री पुरातत्ववेत्ता डा. यशोध्र मठपाल, सुप्रसिद्ध साहित्यकार डा. लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’, प्रखर आंदोलनकारी और विचारक डा शमशेर सिंह बिष्ट, प्रखर आंदोलनकारी और वरिष्ठ पत्राकार पीसी तिवारी, नैनीताल समाचार के संपादक और आंदोलनकारी राजीव लोचन साह, जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’, रंगकर्मी श्रीश डोभाल, प्रखर आंदोलनकारी और उक्रांद के वरिष्ठ नेता काशी सिंह ऐरी के अलावा भारी संख्या में लोगों ने भागीदारी की थी। इसी मौके पर पोस्टरों का विमोचन भी किया गया।

   इसी श्रंखला को आगे बढ़ाते हुये इस बार भी उत्तराखंड राज्य आंदोलन की अगुवाई करने वाले स्व. ऋषिवल्लभ सुन्दरियाल जी के पोस्टर का विमोचन किया गया। 1972 से वन आंदोलन में शामिल रहे बुजुर्ग आंदोलनकारी जैत सिंह किरौला की पुस्तक ‘उत्तराखंड में चकबंदीः परिकल्पना और यर्थाथ’ का विमोचन हुआ। इसे हमारी संस्था क्रिएटिव उत्तराखंड ने प्रकाशित किया था। इस मौके पर क्रियेटिव उत्तराखंड के प्रयासों की सबने सराहना की। यहां टिहरी से आये साथियों ने श्रीदेव सुमन की पुस्तक जो क्रिएटिव उत्तराखंड की ओर से प्रकाशनाधीन है उसे चंबा में एक कार्यक्रम में विमोचित करने का प्रस्ताव दिया है। कई विद्यालयों ने अपने यहां कैरियर काउंसलिंग के प्रस्ताव दिये। सबसे बड़ी बात यह है कि इस यात्रा में बहुत सारे नये लोग हमारे साथ जुड़े। स्व. त्रिपाठी की श्रद्धांजलि सभा में सभी वक्ताओं ने हमारे प्रयासों की सराहना की। काशी सिंह ऐरी, डा. नारायण सिंह जंतवाल, सुभाष पांडे, डा. शैल शक्ति कपणवाण, बीडी रतूड़ी, महेश परिहार, सुभाष पांडे, हरीश पाठक, रामलाल नवानी, एपी जुयाल, मोहन उनियाल उत्तराखंडी आदि ने गैरसैंण राजधानी बनाने के लिये दिल्ली से ग्रिसैंण यात्रा की प्रसंशा की। इस मौक पर स्व. त्रिपाठी जी के प्रिय गाने ‘दिन ऊने और जाने रया.... को गाकर सुप्रसिद्ध गायक हरीश डोर्बी ने विपिन दा की याद ताजा कर दी। हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि वहां का शिक्षित वर्ग हमारे काम को गंभीरता से ले रहा है। बहुत सारे इंटर कालेजों के प्रवक्ता हमारे विचार को सहयोग करने के लिये आग आये हैं। मुझे व्यक्तिगत रूप बड़ी आशा है कि टुकड़ों में ही सही हमारे काम की प्रासंगिकता पहाड़ में बढ़ेगी। यह उन सभी लोगों के लिये आशा की किरण है जो हमारी तरह विभिन्न मंचों से काम कर रहे हैं। हमारी ऐसे लोगों  से अपील है कि वे लोगों के बीच जाकर काम करेंगे तो इसका लाभ वहां की जनता को अधिक होगा। लेकिन आवश्यकता वहां की समस्याओं को समझना और उसके लिये व्यावहारिक रास्ता तलाशने की है। स्व. विपिन दा को श्रद्धांजलि देने के बाद जब हम दिल्ली को रवाना हुये तो मन में एक मजबूत संकल्प था कि-

वक्त की रेत पर एडियां रगड़ते रहे,
हमें यकीं है कि पानी यहीं से निकलेगा।


अगली पोस्ट में जारी...

Charu Tiwari

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गैरसैंण यात्रा के बाद व्यस्तता के कारण नेट पर सही तरीके से बैठने का समय नहीं मिला। इस बीच जब समय मिला तो कुछ पुरानी मेल देखने को मिली। इनमें गैरसैंण राजधानी को लेकर हमारे कुछ साथियों के विचार अलग थे। स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोध और असहमति समाज का मजबूत आधार तैयार करती हे। इसलिये हमने इन असहमतियों को गैरसैंण राजधानी बनाने के लिये महत्वपूर्ण माना है। इन असहमतियों का महत्व इसलिये भी है कि इसी बहाने जो जानकारियां अभी तक सरकार या सुविधाभोगी राजनीति करने वाले राजनीतिक दल दे रहे थे उन पर बातचीत करने का मंच बना है। सभी सहमत-असहमत साथियों का स्वागत है।
   गैरसैंण राजधानी से जो साथी असहमत हैं उनकी दो शंकायें हैं पहला राज्य की राजधानी से पहले विकास मुद्दा है दूसरा गैरसैंण को राजधानी बनाने का मतलब पैसा और समय का दुरपयोग है। यह दोनों बातें सबको इसलिये ठीक लगती हैं क्योंकि इन बातों को एक सुनियोजित साजिश के तहत फैलाया जाता है। पहले विकास के सवाल पर आते हैं। विकास एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। यह एक रात में खड़ा नहीं होता। राजधानी का सवाल विकास से जुड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा है। राजधानी का सवाल विकास के विकेन्द्रीकरण से जुड़ा है। इसे भावना या गैरसैंण के राज्य के बीच में होने के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिये। जब 1992 में गैरसैंण को राजधानी बनाने की बात ने जोर पकड़ा तो तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने वहां शिक्षा निदेशालय का कार्यालय खोलने पर सहमति की। वह खुला भी। पहाड़ के लोग जो अपने छोटे-मोटे कामों के लिये इलाहाबाद जाते थे उन्हें गैरसैंण में कार्यालय खुलने से यह आशा बंधी कि भविष्य में शिक्षा के क्षेत्रा में यह मील का पत्थर साबित होगी। पौड़ी और अल्मोड़ा में मिनी सचिवालय खोलने पर भी सहमति बनी। ये दो उदाहरण में विकास के विकेन्द्रीकरण को समझने के लिये दे रहा हूं। उत्तर प्रदेश में सरकार बदली। यह सरकार उन लोगों की बनी जो राज्य विरोधी थे। और यह बातें एक बार पिफर हाशिए में धकेल दी गयी। समझा जा रहा था राज्य बनने से पहले कुछ कार्यालय और बड़े संस्थान पहाड़ में खुल जायेंगे तो विकास के विकेन्द्रीकरण का सिलसिला शुरू होगा। लेकिन नासमझ राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और माफिया के गठजोड़ ने ऐसा नहीं होने दिया।
   साठ के दशक के बाद जितने भी राज्य बने उन्होंने अपने नाम, राजधानी, परिसीमन, विकल्पधारियों और संसाधनों के बंटवारे का ब्लू प्रिंट पहले ही तैयार किया था। यही कारण है कि पूर्वोत्तर के पर्वतीय राज्य, हिमाचल आदि में पहाड़ की राजधानी पहाड़ में ही रही। वहां नये सिरे से इन शहरों को राजधानी के लिये तैयार किया गया। उत्तराखंड का भी पूरा ब्लू प्रिंट तैयार था लेकिन जो लोग सत्ता में आये उनके लिये जनता के ब्लू प्रिंट का कोई मतलब नहीं रहा। यही कारण है कि पहली अंतरिम सरकार ने परिसीमन, परिसंपत्तियों, विकल्पधारियों, नाम और राजधानी के सवाल को उलझाये रखा। विकास की बात करने वाले लोगों को यह सोचना होगा कि सारे निगम हमें घाटे में मिले। इनकी सारी परिसंपत्तियों पर उत्तर प्रदेश का कब्जा हो गया। यहां सिंचाई विभाग की संपत्ति आज भी उत्तर प्रदेश के पास है। परिसीमन से पर्वतीय क्षेत्रा से कम हुयी छह सीटों के विकास के पैसे का नुकसान राज्य को हुआ है। हम मानते हैं कि विकास ही प्रमुख मुद्दा है। लेकिन वह विकास विकेन्द्रीकृत होना चाहिये। देहरादून विकास का माडल नहीं हो सकता। आप लोग इस बात पर विचार करें कि अभी राज्य में नौ विश्वविद्यालय और कई संस्थान काम कर रहे हैं। इनमें अधिकतर देहरादून, रुड़की और उसके आसपास के पचास किलोमीटर के क्षेत्रा तक सिमट गये हैं। इस तरह के विश्वविद्यालय और संस्थान पहाड़ में क्यों नहीं खोले जा सकते हैं। अंग्रेज और उसके बाद भारतीय अंग्रेज जब अपने बच्चों के लिये अच्छे स्कूल नैनीताल, मसूरी और देहरादून में खोल सकते हैं तो हम अपने विकास के लिये गैरसैंण को माडल क्यों नहीं बना सकते। जिस देहरादून से आपका मोह है वह सुविधभोगी लोगों ने अपने लिये बनाया, विकास के लिये नहीं। कभी बंजारों का शहर अब माफिया का शहर है। इस शहर में सांस्कृतिक विकास के नाम पर हर छह महीने में उत्तराखंड सुन्दरी की प्रतियोगिता होती है जिसका उदघाटन प्रदेश का कोई मंत्री करता है। यहां ढ़ाचागत विकास के नाम पर बड़े होटल, रेस्तरां बन रहे हैं। पिछले दिनों के रिकार्ड को उठकर देख लें तो देहरादून में दिल्ली से आकर लोगों ने अपसंस्कृति के रैकेट चलाये हैं जिन्हें यही राजनीतिक लोग शह दे रहे हैं जो गैरसैंण का विरोध् कर रहे हैं।
   जहां तक आप लोग राजधनी से बड़ा सवाल विकास का मानते हैं, इसके लिये लोग लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं। पहाड़ को कथित विकास के नाम पर जिस तरह मुनापफाखोरों के हवाले किया जा रहा है उसके खिलापफ पहाड़ की जनता लगातार सड़कों पर है। पहाड़ तमाम नदियां जेपी और थापर के हवाले कर दी गयी हैं। ढाई सौ से अधिक बांध् प्रस्तावित हैं। लोगों को जल, जंगल और जमीन के अधिकारों से बंचित किया जा रहा है। गांवों को उजाड़ने को विकास का नाम दिया जा रहा है। टिहरी को डुबाकर हमारी लाशों के ऊपर नये शहरों का निर्माण हो रहा है और हम विकास का मतलब नहीं पहचान पा रहे हैं। हम अभी तक सरकार द्वारा समझा दिये गये विकास को ही पहाड़ के लिये सही मान बैठे हैं। जिस विकास की आप लोग बात कर रहे हैं वह तीन लोगों के लिये उपयोगी है। पहला सत्ताधरी दूसरा नौकरशाह और तीसरा काम करने वाले ठेकदार के लिये। इसलिये हम विकास के विकेन्द्रीकरण और पहाड़ को मुनाफाखोरों के हाथों से बचाने के लिये गैरसैंण को राजधानी बनाकर पहाड़ को सरक्षित करने की दिशा में कदम बढ़ाना चाहते हैं।
   दूसरा सवाल है राजधानी के लिये पैसा खर्च होने का। यह एक काल्पनिक और समझाई गई आशंका है। पैसा कौन से मदों में कैसे आता है और उसका खर्च करने का क्या तरीका है उसे समझना जरूरी है। असल में विकास को पैसा खर्च करना नहीं जान पाये। या अपने हितों के लिये इसे इस्तेमाल करते रहे। राज्य बनने से पहले उत्तराखंड विकास के मद में 650 करोड़ रुपये योजनागत बजट का होता था। कई अन्य मदों से भी यहां के विकास के लिये भारी पैसा आता रहा है। यह पैसा जितनी तेजी से आया उतनी ही तेजी के साथ अव्यावहारिक योजनाओं के चलते राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों की जेब में चला जाता था। उस समय विकास के नाम पर खडंजा संस्कृति का विकास हुआ। आज राज्य का योजनागत बजट 47 सौ करोड़ से अधिक है। गैरयोजनागत के अलावा कई मदों से अरबों के वारे-न्यारे हो रहे है। उत्तराखंड में 17 हजार गांव हैं। यहां इस समय 45 हजार से ज्यादा एनजीओ काम कर रहे हैं अर्थात एक गांव में तीन-तीन एनजीओ औसतन हैं। इनके माध्यम से भी पैसा ठिकाने लगाया जा रहा है। सरकारी चील तो पहले से ही मौजूद है। यह पैसा करोड़ों में नहीं अरबों में है जो विकास के नाम पर बहाया जा रहा है। जो काम आज से तीस साल पहले हो रहे थे वही हर साल दुबारा किये जा रहे हैं। यह टिकाऊ विकास न होने और उस पर ठोस निगरानी न होने को कारण है। खैर! जब राजधनी गैरसैंण बनाने के लिये ब्लू प्रिंट तैयार हुआ तो उस पर एक हजार करोड़ खर्च होने का अनुमान लगाया गया। लेकिन अस्थायी राजधनी देहरादून में अब तक इसी काम पर 400 करोड़ से अधिक खर्च हो चुका है और इतने के ही काम प्रस्तावित हैं। इससे इस बात को समझा जा सकता है गैरसैंण राजधानी बनाने के खिलाफ सरकार और राजनीतिक पार्टियां किस तरह जनता के साथ छल कर रही हैं। इस पर फिर कुछ और बातें होंगी। देहरादून और गैरसैंण राजधानी के फर्क को राजनीतिज्ञों के चरित्र से समझने की भी जरूरत है। कुछ उदाहरण आपके सामने रख रहा हूं।

-टिहरी के सांसद और सत्तर के दशक में राज्य आंदोलन की अगुवाई करने वाले स्व. त्रोपन सिंह नेगी की धर्मपत्नी ने बस नहीं देखी थी।
-रानीखेत विधनसभा सीट से दो बार विधायक रहे उत्तराखंड राज्य के प्रमुख स्तम्भ स्व. जसवन्त सिंह बिष्ट अपने विधायक रहते हुये कभी कार में सफर नहीं किया। वे विधायक रहते अपने खोतों में काम करते थे।
-समाजवादी नेता और उत्तराखंड राज्य के स्तंभ स्व. विपिन त्रिपाठी के पास मोबाइल नहीं था। वे कभी सरकारी वाहन का उपयोग नहीं करते थे। अपने जीते जी वे देहरादून के विधायक निवास में नहीं रहे।
-पहाड़ के गांधी स्व. इन्द्रमणि बडोनी ने विधायक रहते हुये भी पहाड़ की सांस्कृतिक पहचान के लिये काम किया। वे सादगी की प्रतिमूर्ति थे।
-पौड़ी जनपद और नैनीताल में लोगों ने श्रमदान से सड़कों का निर्माण किया।
-विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. डीडी पंत ने राज्य आंदोलन और पहाड़ में विकास के विकेन्द्रीकरण के लिये बहुत काम किया।
-वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली आजीवन अभावों में पहाड़ के विकास के लिये अलख जगाते रहे।
-उत्तराखंड राज्य आंदोलन के प्रणेता स्व. ऋषिवल्लभ सुन्दरियाल ने अपने परिवार की परवाह न करते हुये लंबी लड़ाई लड़ी।
-राज्य और पहाड़ की बेहतरी का सपना देखने वाले इन मनीषियों की पीढ़ियां आज भी जीने के लिये संघर्ष कर रही हैं।
   ये सब मनीषी उत्तराखंड में विकास के विकेन्द्रीकरण के समर्थक रहे हैं। इसलिये गैरसैंण हमारी भावनाओं की नहीं विकास के सही दर्शन की मांग है।

दूसरी ओर-

-उत्तराखंड की अंतरिम सरकार ने सबसे पहले अपनी सुविधओं के लिये आलीशान विधायक निवास बनाया।
-राजधानी चयन के लिये असंवैधनिक आयोग का गठन किया।
-अपने स्वार्थों के लिये परिसंपत्तियों के मामले में उत्तर प्रदेश के सामने आत्मसमपर्ण किया।
-विकल्पधारियों के मामले को लटकाये रखा।
-परिसीमन पर मैदानी क्षेत्रों का समर्थन किया।
-उत्तराखंड के विधायकों के पास आलीशान गाड़ियों के काफिले हैं।
-मोटरसाइकिल पर चलने वाले तमाम नेताओं के पास बड़ी गाड़ियां हैं।
-सबने अपने घर देहरादून और दिल्ली में बनाये हैं।
-कई मंत्रियों और विधायकों की दूसरे राज्यों में भी संपत्ति है।
-ज्यादातर के बच्चे कांवेंट स्कूलों और विदेश में हैं।

   गैरसैंण और देहरादून राजधानी के फर्क को इन उदाहरणों से समझा जा सकता है। आप फैसला करें आप किस तरफ हैं। और अंत में जनकवि डा. अतुल सती की एक कविता-

सोचने में पाबंदी नहीं है

हमने सोचा विकास के बारे में,
प्रगति, शिक्षा और उन्नति के बारे में,
पर्यावरण, वन और पेड़ों के बारे में,
हमने सोचा जड़ी-बूटियों,
बांधें और बिजली के बारे में,
पर्यटन, उद्योग और काम के बारे में,
नशाबंदी और रोजगार के बारे में,
हमने चाय के बागानों और पीली केसर के बारे में सोचा,
और भी बंद आंखों, कितनी ही बातों के बारे में सोचा,
हमने जुलूस, प्रदर्शन और भूख हड़तालें पायीं,
बयान, नारे और बाद में आश्वासन पाये,
हमने लाशें और बलात्कारित लोग कमाये,
हमारी जमीनों में आंसू बो दिये गये,
और दुनिया भर के पत्राकार पर्यटन कर रहे हैं,
हमने बहुत कुछ पाया है,
अंधेरा ही अंधेरा,
और अंधेरा में अब हम कुछ और सोचने लगे हैं,
हम बंदूकों बौर गोलियों के बारे में सोचने लगे हैं,
हम बारूद और बमों के बारे में सोचने लगे हैं,
हम न जाने क्या-क्या सोच रहे हैं,
और हम सोचेंगे,
हमें सोचने से कोई रोक नहीं सकता,
जब तक कि सोचने में पांबदी नहीं है।

Charu Tiwari

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ं  
नई दुनिया दैनिक में द्वाराहाट के युवा विधयक पुष्पेश त्रिपाठी का साक्षात्कार

टिकाऊ विकास चाहते हैं पुष्पेश त्रिपाठी

उत्तराखंड के युवा विधयक पुष्पेश त्रिपाठी राजनीति की नई पीढ़ी के प्रतिनिध् िहैं। सार्वजनिक जीवन में शुचिता और ईमानदारी का दर्शन उन्हें विरासत में मिला। पच्चीस वर्ष की उम्र में वे पहली बार विधयक बने। अल्मोड़ा जनपद की द्वाराहाट विधनसभा सीट से वे उत्तराखंड क्रांति दल के टिकट पर लगातार दूसरी बार चुने गये। अपने कार्यकाल में उन्होंने सदन और उससे बाहर अपनी प्रभावी उपस्थित दर्ज कराई है। उत्तराखंड के मुद्दों अलावा वह देश की राजनीति और विकास को अपनी दृष्टि से देखते हैं। पिछले दिनों दिल्ली प्रवास के दौरान वे नई दुनिया के कार्यालय में आये। इस दौरान विभिन्न मुद्दों Mk- xksfoUn cYyHk tks'kh ls उनसे हुयी बातचीत के अंश-

युवा प्रतिनिध् िके नाते आप देश की राजनीति को किस नजरिये से देखते हैं?

गांध्ीजी ने कहा था कि साध्य को प्राप्त करने के लिये साध्नों की पवित्राता आवश्यक है। लोकतंत्रा में इस बात के बहुत मायने हैं। जब तक सत्ता तक पहुंचने के साध्य पवित्रा नहीं होंगे हम बदलाव की बात नहीं कर सकते। इस दौर में जिस तरह से तेजी के साथ चीजें बदली हैं, राजनीति भी उससे प्रभावित हुयी है। मैं समझता हूं कि भारत सहित तीसरी दुनिया के सभी देशों का अपने यहां ईमानदारी और राजनीतिक इच्छाशक्ति वाले प्रतिनिध्यिों को आगे लाने का माहौल बनाना चाहिये। बदलते विश्व परिदृश्य में बाजारवादी व्यवस्था में हमारे पास जनसरोकारों को मजबूत कर अपने संसाध्नों को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती है। इसलिये मैं समझता हूं कि हमें राजनीति में शुचिता और जनता के मुद्दों की समझ होनी चाहिये। संसदीय लोकतंत्रा में अच्छे लोगों की भागीदारी जरूरी है। युवा राजनीति से परहेज करने के बजाय इसमें प्रभावी हस्तक्षेप करें।

आपकी नजर में देश के प्रमुख मुद्दे क्या हैं?

देश के सामने बहुत सारे मुद्दे हैं। असल में भूमंडलीकरण के दौर में जो बाजारवादी प्रवृत्ति ने शिकंजा कसा उसने जनता के मुद्दों को हाशिए में ध्केल दिया। भारत जिसे गांवों का देश माना जाता है, यहां के गांवों से तेजी से पलायन से हो रहा है। बड़े पूंजीपतियों के हाथों में कृषि योग्य जमीन सौंपी जा रही है। सरकारों के सामने चंद पूजीपतियों के हित सर्वोपरि हो गये हैं यह सबसे खतरनाक है। उत्तराखंड इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यहां की जनता सदियों से प्राकृतिक संसाध्नों पर निर्भर रही है। पिछले तीन दशकों से ध्ीरे-ध्ीरे यहां इस प्रवृत्ति ने अपने पैर पसारने शुरू किये। आज यहां की सारी नदियां ऊर्जा प्रदेश के नाम पर मुनापफाखोरांें के हवाले कर दी गयी हैं। जल, जंगल और जमीन पर से लोगों के अध्किार खत्म हो रहे हैं। लोग पलायन को मजबूर हैं। हमारे प्रदेश से पिछले तेरह सालों में 32 yk[k लोग स्थायी रूप से पहाड़ छोड़ चुके हैं और पौने दौ लाख मकानों में ताले पड़ गये हैं। यह एक उदाहरण दे रहा हूं। देश के छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल में भी संसाध्नों पर बहुराष्ट्रीय हमला चिन्ता का विषय है। उत्तराखंड में पलायन के कारण परिसीमन से पर्वतीय क्षेत्रा के दस जिलों में से छह विधनसभा सीटें कम कर तीन मैदानी जिलों में समाहित कर दी गयी। नये परिसीमन में पलायन के कारण देश ग्रामीण क्षेत्रों के प्रतिनिध्त्वि पर असर पड़ा है। इसे समझने की जरूरत है।

उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी क्या यहां की स्थितियां नहीं बदली?

असल में हम विकास का सही मूल्यांकन नहीं करते। एक छोटी प्रशासनिक इकाई के रूप में छोटे राज्यों की प्रासंगिकता है। उत्तराखंड राज्य कर अवधारणा के पीछे भी यही दर्शन काम कर रहा था। एक लंबे संघर्ष के बाद राज्य तो मिल गया लेकिन दुभाग्र्य से उसे चलाने वाले लोगों के लिये यह एक राजनीतिक रोजगार से अध्कि नहीं था। आजादी के बाद देश के साथ भी यही हुआ। आज भी हमारे पुराने बुजुर्ग कहते हैं कि हम अंग्रेजों के साथ ही ठीक थे। इससे स्पष्ट होता है कि हम जिस तरह का भारत चाहते थे वैसा नहीं बना। नहीं तो ब्रिटिश हकूमत की दमनकारी नीति के बावजूद उसे याद नहीं करते। उत्तराखंड के साथ भी यही हुआ। यहां एक तरह से राज्य बनने के बाद संसाध्नों पर लूट का रास्ता खुल गया।

अभी तक की सरकारें तो विकास को ही अपनी उपलब्ध् िमानती रही हैं, क्या यह सच नहीं है?

देखिये हमें विकास को आम लोगों की बेहतरी के साथ देखना चाहिये। हमारे शासन करने वाले लोग अधिक से अधि पैसे को खर्च करने को विकास मान लेते हैं। वे हमेशा केन्द्र से या पिफर अन्य मदों से हमेशा पैसे की मांग करते रहे हैं। उन्हें विकास की प्राथमिकतायें मालूम नहीं हैं। उदाहरण के लिये जब उत्तराखंड राज्य नहीं बना था तब यहां पर्वतीय विकास के लिये अलग से 650 करोड़ का योजनागत बजट था। आज यह बढ़कर 47 सौ करोड़ से अध्कि हो गया है। तब भी यहां खडंजे बन रहे थे और आज भी वही काम हो रहा है। इस तरह के विकास की समझ का अभाव पूरे देश में है। मेरा मानना है कि टिकाऊ विकास के विचार को बल मिलता चाहिये। जो काम हम आज करें उसे दुबारा सौ वर्षों तक न करना पड़े जैसा कि अंग्रेजों ने किया। मुगलों ने भी किया। लेकिन यह बिना ईमानदारी और इच्छाशक्ति के नहीं हो सकता। और एक महत्वपूर्ण बात है विकास के विकेन्द्रीकरण की। जब तक हम दूरस्थ क्षेत्रों तक शिक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी मूलभूत जरूरतों के लिये ठोस पहल नहीं करेंगे चीजें आगे नहीं बढ़ सकती हैं। अभी उत्तराखंड में भारतीय प्रबंध्न संस्थान को मंजूरी मिली है। हम प्रयास कर रहे हैं कि हम उसे पहाड़ में ऐसी जगह खोले जहां से वह हिमालय के नियोजन पर नई नीतियां और शोध की तरपफ भी ध्यान दे सके। आज जल, जमीन, वनों, पर्यटन, आपदा प्रबंध्न, पारिस्थितिकी और पर्यावरण जैसे क्षेत्रों में प्रबंधन की जरूरत है। ऐसे में यह संस्थान अगर पहाड़ में खुलता है तो यह पूरी दुनिया के लिये एक माॅडल हो सकता है।

आप भाजपा के साथ मिलकर सरकार चला रहे हैं तब अपने मुद्दों को कैसे उठाते हैं?


भाजपा के साथ हमारा गठबंध्न सरकार चलाने के लिये है। हम अपने मुद्दों पर सदन और सदन से बाहर लड़ रहे हैं। मौजूदा समय में स्थायी राजधनी का मुद्दा प्रमुख है। उत्तराखंड क्रान्ति दल ने 1992 में आंदोलन के दौर में राजधानी का शिलन्यास गैरसैंण में कर इसका नाम वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम पर चन्द्रनगर रखा। हम आज भी गैरसैंण से कम पर कोई बात नहीं करना चाहते। जब राजधानी चयन के लिये बनी दीक्षित आयोग की रिपोर्ट आयी तो मैंने सदन में इसका पुरजोर विरोध् किया। आयोग की रिपोर्ट के नाम जो अंश दिये गये उसे मैंने सदन में ही पफाड़ दिया था। इससे एक नई चेतना आयी है। राजधनी के सवाल पर आंदोलन की पूरी तैयारी है। जनपक्षीय मुद्दों को लेकर सरकार के साथ रहने न रहने की हमारी कोई मजबूरी नहीं है। उक्रांद की हाईकमान हमेशा जनता रहती है सरकार नहीं।

आप राज्य के आठ साल के विकास से कितने संतुष्ट हैं?

हम चाहते हैं हिमालय बचेगा तो देश बचेगा। हमारी प्राथमिता देश के शीर्ष पर एक खुशहाल राज्य बनाने की है। हम विकास को बहुत संकीर्ण नहीं देखना चाहते। साठ के दशक में हिमालय बचाने का आंदोलन चला छुटपुट आज भी लोग सेमिनारों में हिमालय बचाने कर बात करते हैं। हमने पिछले चार वर्षोंे से अपने युवा साथियों को जोड़कर हिमालय बचाओ, हिमालय बसाओ का नारा दिया है। जिसे हम एक जनचेतना के रूप चला रहे हैं। इस नारे का प्रभाव अब दिखाई देने लगा है। इसके माध्यम से हम न केवल उत्तराखंड की बात कर रहे हें बल्कि पूरे हिमालयी क्षेत्रा को बचाने के अभियान में जुटे हैं। इसके माध्यम से हम यहां के सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मजबूती की बात कर रहे हैं। हिमालय के सही नियोजन की इस समय जरूरत है। उत्तराखंड में ढाई सौ से अध्कि बांध् प्रस्तावित हैं। इनमें से 700 किलोमीटर लंबी सुरंगे निकलेंगी। इससे 22 लाख लोग सुरंगों के ऊपर होंगे। यह भयावह स्थिति है। देश के लिये और विश्व के लिये। पहाड़ की पारिस्थितिकी में बदलाव खतरनाक संकेत हैं। इसलिये हम विकास को इस दृष्टि से देखते हैं कि पहले गांव बचें तब उनके अनुरूप नीतियों का पफायदा होगा। असल में सरकारों ने विकास का शार्ट कट रास्ता चुन लिया है। वह वोट पाने का साध्न तो हो सकता है लेकिन जनता का हित इसमें नहीं है। अभी राज्य में विकास की बात शुरू ही नहीं हुयी है।

Pooran Chandra Kandpal

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        चारू जी के लेख उत्तराखंड के धरातल से जुड़े होते हैं.     में कई बार चारू जी से मिला हूँ.
  उनके मन मस्तिष्क सदैव राज्य की पीडा रहती है. २ अक्टूबर २००९ को भी मुझे चारू जी जंतर मंतर
 पर मिले थे.  हम सब कई लोग एक साथ शहीदों की श्रधांजलि सभा में सम्मिलित हुए.  सभा का आयोजन   
         प्यारा उत्तराखंड के संपादक देव सिंह रावत जी ने किया था.  इस सभा में उत्तराखंड की राजधानी गैरसैण
                बनाने की बात बड़ी प्रखरता से उठाई गयी. गाँधी जी और उत्तराखंड के शहीदों  को याद करते हुए सभा में
                   आये सभी लोगों ने काले रिबन बाँध कर रोष प्रकट किया.

                                                                                             पूरन  चन्द्र कांडपाल

Charu Tiwari

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झारखण्ड नहीं, लुटने के लिए उत्तराखण्ड है   

उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ पिछले दिनों झारखण्ड विधानसभा चुनाव के प्रचार में गये थे। उन्होंने वहां बहुत सारी चुनावी सभाओं और संवाददाता सम्मेलनों को संबोधित किया। अपने कवितामयी भाषणों में उन्होंने लोगों को बताया कि उनकी पार्टी की सरकार ने उत्तराखण्ड को किस तरह विकास के शिखर तक पहुंचाया है। अटलबिहारी वाजपेयी के भक्त निशंक यहां भी उनका गुणगान करना नहीं भूले। उन्होंने याद दिलाया कि झारखण्ड ने वाजपेयी ने बनाया इसलिये 25 दिसंबर को उनके जन्मदिन पर राज्य में भाजपा को सत्ता सौंपकर तोहफा दें। असल में भाट और चरणों का यही चरित्र होता है। निशंक की तो राजनीतिक परवरिश ही ऐसे माहौल में हुयी है। भाजपा जैसे संगठनों में मुद्दे नहीं भाषा की लफाजी ज्यादा मायने रखती है। मुख्यमंत्री ने कहा कि अटलबिहारी वाजपेयी ने झारखण्ड लूट-खसोट के लिये नहीं बनाया। अपने हिसाब से उन्होंने ठीक ही कहा क्योंकि लूट-खसोट के लिये तो उत्तराखण्ड बना ही है। अच्छा होता औरों को उपदेश देने से पहले वे अपने राज्य की हालत पर भी विचार कर लेते। उत्तराखण्ड में अभी कोडाओं को पता नहीं चला है, जिस दिन चल जायेगा उस दिन यह देश के सबसे भ्रष्टतम राज्यों में से होगा। राष्टभक्ति का प्रमाण पत्र बांटने वाले लोग ही इसकी पहली पंक्ति में होंगे। खैर, अभी इंतजार कर लेते हैं।
   मुख्यमंत्री का नाम तो प्रसंगवश आ गया। और दलों के नेता भी वहां गये थे। भाजपा के भी बहुत सारे लोग गये थे जो पहाड़ में कभी ग्राम प्रधान का चुनाव भी नहीं जीत पाये। इन लोगों ने जिस तरह उत्तराखण्ड के विकास का चित्र वहां रखने की कोशिश की उससे किस को भी लज्जा आ जाये। ये उन लोगों को सिखाने गये थे जिन्होंने वनांचल को ठुकराकर अपना नाम झारखण्ड लिया। ये वे लोग हैं जिन्होंने राज्य आंदोलन की अगुआई करने वाले अपने सीटिंग मुख्यमंत्री शिबू सोरेन को हरा दिया। उत्तराखण्ड ने दो पार्टियों की सरकारें और पांच मुख्यमंत्रियों का शासन देखा है। इन नौ सालों में लुटते-पिटते उत्तराखण्ड का अगर कहीं विकास हुआ तो महंगे ग्लैज पेपरों में करोड़ों के विज्ञापनों में हुआ। राज्य के नाम, परिसीमन, परिसंपत्तियों के बटवारे से लेकर विकल्पधारियों के सवाल पर राज्य के साथ सौतेला व्यवहार हुआ। स्थायी राजधानी के सवाल को उलझाने के लिये भाजपा की अंतरिम सरकार ने आयोग गठित कर दिया। अस्थाई राजधानी देहरादून में स्थायी निर्माण भी भाजपा ने ही कराये। कांग्रेस के शासन में उद्योग लगाने और रोजगार की जितनी बातें की गयी वे सब पूंजीपतियों के हितों को ध्यान में रखकर की गयी। बिजली प्रदेश बनाने के नाम पर पूरे पहाड़ को खोद दिया गया है। नदियां अब जनता की नहीं थापर और जेपी की हैं। तराई में लगे तमाम उद्योगों में राज्य के युवाओं को 70 प्रतिशत आरक्षण के नाम पर ठेकदारों के हवाले कर दिया है। यहां अच्छा वेतन तो दूर उनका जीवन भी सुरक्षित नहीं है। सिडकुल में लगे विभिन्न उद्योगों में अभी तक दर्जन भर श्रमिक विकलांग हो चुके हैं उनकी सुनवाई किसी ने नहीं की। सब्सिडी डकारकर पूंजीपतियों के बिस्तर बांधने की तैयारी है। जिस राज्य को बागवानी से आत्मनिर्भर बनाने की बातें कही जा रही थी कांग्रेस ने सरकारी उद्यानों तक को भी बेच डाला। सरकार ने फल संरक्षण के नाम पर बेनी जैसे दलाल को संरक्षण दिया जो कास्तकारों का लाखों डकार कर भाग गया। इन सरकारों ने रामगढ़ के ऐतिहासिक रवीन्द्रनाथ टैगोर की स्मृति में दान दी गयी जमीन को भी किसी निजी कंपनी को 50 हजार रुपये की लीज में दे दिया। अब सचल चिकित्सा सुविधा के नाम पर चिकित्सा व्यवस्था को एनजीओ को सौंपने की तैयारी है। राज्य में अपराध राजनीतिक दलों के माध्यम से गांव की बाखलियों तक पहुंच गया। अब यहां महिलाओं की आबरू भी सुरक्षित नहीं है। कालाढूंगी और रामनगर का महिमा हत्याकांड अपराधों की बर्बरता को समझने के लिये काफी है।
   मुख्यमंत्री निशंक राज्य की बदतर हालत इसलिये भी नहीं देख पा रहे होंगे क्योंकि उनका अधिकतम समय दिल्ली में ही गुजरता है। उनके मंत्रिमण्डल के अधिकतर सदस्य दिल्ली में ही डेरा डाले रहते हैं। झारखण्ड वाले अटलबिहारी वाजपेयी को उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री के कहने पर जन्मदिन का तोहफा दें या न दें उत्तराखण्ड में उनके अनुयायी उन्हें पूजते हैं। इसलिये नहीं कि उन्होंने राज्य दिया, बल्कि उनकी धोती पकड़ कर वे सत्ता शीर्ष पर बने रहें। पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खण्डूडी और मौजूदा मुख्यमंत्राी अपने को सरकारी रिकार्ड में भी आंदोलनकारी बताने में जुटे रहते हैं। इन्हीें के शासन में मुजफरनगर कांड के खलनायक बुआ सिंह को राज्य में रेड कारपेट सम्मान मिला था। इतना ही नहीं राज्य आंदोलन की नींव के पत्थर रहे स्व. ऋषिवल्लभ सुन्दरियाल और त्रेपन सिंह नेगी को याद करना इन सरकारों के लिये जरूरी नहीं है। झारखण्ड में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री और अन्य नेताओं के चुनावी भाषण उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं जितनी इसके पीछे छुपी राजनीतिक दुष्प्रवृत्तियां। इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों ने उत्तराखण्ड को लुटने-पिटने का सबसे बड़ा उपनिवेश बना दिया है। सब लोगों को इंतजार है उस दिन का जिस दिन पहाड़ की राजनीतिक खदानों से एक नहीं कई कोड़ा निकलेंगे।

 

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