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Articles By Charu Tiwari - श्री चारू तिवारी जी के लेख

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Charu Tiwari:
चन्‍द्र नगर गैरसैंण को स्‍थाई राजधानी बनाने के लिए जनता में एक बार फिर सुगबुगाहट शुरू हो गई है. यह कोई अचानक आई प्रतिक्रिया नहीं है आठ साल, चार मुख्‍यमंत्री और ग्‍यारह बार बढाये गये राजधानी चयन आयोग के कार्यकाल के बाद जो फैसला आया है असल में वह यहां की जनता को चिढाने वाला है. चन्‍द्रनगर गैरसैंण को लेकर लंबे समय से चले जनता के आंदोलन को किसी न किसी रूप से कुचलने या दमन करने या लोगों का ध्‍यान बंटाने की साजिशें होती रही हैं. जब भी इसके पक्ष में जनगोलाबंदी शुरू हुई राष्‍टीय राजनीतिक दलों ने इसके खिलाफ अपनी साजिशें शुरू कर दी और इसी बहाने नये कुतर्क गढ्ने शुरू कर दियेा राजधानी के बारे में वे लोग भी अपना मत देने लगे जिन्‍हें यहां का भूगोल भी मालूम नहीं हैा जिन लोगों ने कभी गैरसैंण देखा भी नहीं वह उसके विरोध में बयान देने लगेा राजधानी के मामाले में एक जनपक्षीय सोच आने के बजाय कुतर्कों को गढ्ना पहाड के हित में नहीं हैा    गैरसैंण, चन्‍द्रनगर को राजधानी बनाना इसिलए जरूरी है क्‍योंकि विकास के विकेन्‍द्रीकरण की शुरूआत राजधानी से ही होनी चाहिएा पहली बात तो यह है कि गैरसैंण राजधानी क्‍यों बनेा गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए आंदोलित जनता का राजधानी के लिए न तो राजनीतिक पूर्वाग्रह है और न ही प्रदेश के बीच राजधानी बनाने की जिद, सही अर्थों में यह आंदोलन यहां के अस्‍तित्‍व, अस्‍मिता और विकास के विकेन्‍द्रीकरण की मांग भी हैा    जो लोग गैरसैंण को राजधानी बनाने की बजाय विकास पर जोर देने की बात करते हैं उन्‍हें पहले तो विकास का चरित्र मालूम नहीं है या वह जानबूझकर लोगों का ध्‍यान मूल बात से हटाना चाहते हैंा यह पहाड विरोधी राष्‍टीय राजनीतिक दलों और उनके उन समर्थकों की साजिश है जो पहाड से बाहर बैठकर इन दलों की दलाली में लग कर अपने स्‍वार्थों की सिद्वि में लगे रहते हैा जहां तक राजधानी का सवाल है आज भी पहाड की 70 प्रतिशत जनता गैरसैंण को राजधानी बनाने के पक्ष में है  1994 में बनी कौशिक ने अपनी सिफारिश में कहा कि राज्‍य की 68 प्रतिशत जनता गैरसैंण को राजधानी चाहती हेा इसमें मैदानी क्षेत्र की जनता भी शामिल रही 2000 में जब राज्‍य बना तो भाजपा की अंतिरम सरकार ने जनभावनाओं को रौंदते हुये उस पर एक आयोग बैठा दिया जो पिछले आठ सालों में जनता के सवालों को उलझााता रहा और भाजपा एवं कांग्रेस के एजेण्‍ट के रूप में काम करता रहाा भाजपा जो सुविधाभोगी राजनीति की उपज है और जिसका पहाड के हितों से कभी कोई लेना देना नही रहा उसने जनमत के परीक्षण के लिए आयोग बनाकर अलोकतांत्रिक काम कियाा कांग्रेस ने अपने शासन में इस आयोग को पुनर्जीवित कर देहरादून को राजधानी बनाने की अपनी मंशा साफ कर दीा  असल में  ये राजनीतिक दल देहरादून या मैदानी क्षेत्र में राजधानी बनाने का माहौल इसिलए तैयार कर रहे हैं क्‍योंकि जनता के पैसे पर ऐश करने की राजनेताओं और नौकरशाहों की मनमानी चलती रहेा जो लोग राजधानी के सवाल से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण विकास के सवाल को मानते हैं उन्‍हें यह समझना चाहिए कि राजधानी और विकास एक दूसरे के पूरक हैंा राजधानी का सवाल इसिलए भी हल होना चाहिए कि देहरादून से संचालित होने वाले राजनेता, नौकरशाही और माफिया का गठजोड ने जनिवरोधी जो रवैया अपनाया है उससे राज्‍य की जनता आहत हैा    गैरसैंण को स्‍थायी राजधानी बनाने में जिन दिक्‍कतों को बताया जा रहा है वास्‍तव में वह काल्‍पिनक हैंा सही बात यह है कि अंग्रेजों के जाने के बाद पहाड में नये शहरों का निमार्ण नहीं हुआ और न ही शहरों को विकसित किया गया अंग्रेजों ने जिन शहरों को अपने एशो आराम के लिए विकिसत कियाा आजादी के बाद नैनीताल, मसूरी, रानीखेत, लैंसडाउन और देहरादून जैसे शहर नोकरशाहों के ऐशगाह बने रहेा इसके अलावा अन्‍य शहरों के विकास की ओर कोई ध्‍यान नहीं दिया गयाा इसका दुष्‍पिरणाम यह हुआ कि विकास का केन्‍द्रीकरण हुआा विकास की किरण आम आदमी तक नहीं पहुंचीा उत्‍तरांचल का यह दुर्भाग्‍य रहा कि यहां एक नया शहर नई टिहरी के रूप में अस्‍तित्‍व में आया जिसके लिए एक संस्कृति, इतिहास और सभ्‍यता की बिल देनी पडी विकास के नाम पर जिस तरह का छलावा हुआ वह आज पहाड के लिए सबसे बडे नासूर के रूप में सामने है नई टिहरी का बनना विकास का के दौर की शुरूआत नहीं बिल्‍क यह पहाड में बोधों के माध्‍यम से विनाश का नया रास्‍ता खोलता हैा इस पर सभी की सहमित रहीा अब जब विकास के रास्‍ते पर चलने के लिए जनता एक शहर को बसाने की बात कह रही है तो सबको यह अच्‍छा नहीं लग रहा हैा इससे साफ है कि राजनेताओं की नीयत में भारी खोट हैा इतिहास भी इस बात का गवाह है कि शहरों का निमार्ण विकास के लिए और नई जीवन शैली को विकिसत करने वाला रहा हैा कत्‍यूरों, चंदों और पंवार वंश के समय में रंगीली बैराट, बैजनाथ, श्रीनगर, जोशीमठ, बोगश्‍वर, चंपावत, अलमोडा, रूद्रपुर, काशीपुर के अलावा कई छोट बडे शहरों का निमार्ण हुआा इसी का परिणाम था कि यह जगहें सामाजिक, सांसक़ितक और आर्थिक संपन्‍नता में अग्रणी रहेा  इन शहरों को बसाने के पीछे विकास का व्‍यापक सोच भी रहाा गैरसैंण को नये शहर के रूप में विकसित करने के पीछे  विकास का यही दर्शन रहा हैा उत्‍तराखंड क्रान्‍ति दल ने जुलाई 1992 में पेशावर कांड के नायक वीर चन्‍द्र सिह गढवाली के नाम से इसका नामकरण चन्‍द्रनगर के नाम से किया यहां उनकी आदमकद मूर्ति लगाकर इसे राजधानी भी घाषित कर दिया इसके पीछे यह सोच भी प्रभावी ढंग से रखा गया कि यह शहर भावनाओं से ज्‍यादा विकास पर केन्‍द्रित होगा
आठ साल, दो सरकारें, चार मुख्यमंत्री और ग्यारह बार बढ़ायें गये कार्यकाल के बाद जो फैसला राजधानी चयन आयोग ने दिया वह न केवल हास्यास्पद है बल्कि नीति-नियंताओं के राजनीतिक सोच का परिचायक भी है। लंबी कवायद और करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद वहीं हुआ जिसकी सबको आजंका थी। आयोग की संस्तुतियों को मानना हालांकि सरकार के विवेक पर निर्भर करता है लेकिन इस पूरी कवायद में राजनीतिक दलों का जो रवैया रहा उसे पूरा करने में दीक्षित आयोग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह भी कहा जा सकता है कि भाजपा और कांग्रेस के लिए वह राजधानी के मसले पर ढाल बनी। इस आयोग की सिफारिस पर दोनों की सहमति है। राजधानी चयन आयोग के अधयक्ष वीरेन्द्र दीक्षित ने अपनी जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी है वह राज्य के लोगों की जनाकांक्षाओं के खिलाफ है। राजधानी के लिए चार स्थानों के नाम पर विचार कर उसने राजनीतिक दलों के एजेन्ट के रूप में कार्य करने के आरोप पर मुहर भी लगा दी है। रिपोर्ट में गैरसैंण के साथ रामनगर, देहरादून, कालागढ़ और आडीपीएल के नामों पर विचार करने की संस्तुति ने गैरसैंण की मुहिम को कमजोर करने का काम किया है। गैरसैंण को राजधानी बनाकर उसे चन्द्रनगर का नाम देने वाले उत्तराखंड़ क्रान्ति दल के सरकार में शामिल होने और उसी के समय में आयोग के एक और कार्यकाल के बढ़ने से जनता का विज्वास उठ गया था। पिछले दिनों देहरादून में आयोग की सिफारिश के खिलाफ सिर मुडंवाकर प्रदर्जन करने वाले उक्रांद के लिए भी अब यह गले की हड्डी बन गया है।   जब से राजधानी चयन के नाम पर जस्टिस बीरेन्द्र दीक्षित की अधयक्षता में आयोग बना लोगों को इससे बहुत उम्मीदें नहीं थी। फिर भी एक आयोग के काम और उसके फैसले पर सबकी नजरें जरूर थीं। पिछले दिनों जब उसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी तो वही हुआ जिसकी सबको आजंका थी। गैरसैंण के साथ राजधानी के लिए और नामों पर भी विचार करने की संस्तुति कर आयोग ने राजनीतिक दलों की मुराद पूरी कर दी। आयोग ने अपनी रिपोट्र में बताया है कि राजधानी चयन के लिए जो नोटिफिकेशन जारी किया गया था उसमें विभिन्न वर्गों से सुझाव मोंगे थे। इनमें से आयोग को 268 सुझाव मिले। इनमें 192 व्यक्तिगत, 49 संस्थागत@एनजीओ, 15 संगठनात्मक@पार्टीगत और 12 ग्रुपों के सुझाव थे। इनमें गैरसैंण के पक्ष में 126, देहरादून के पक्ष में 42, रामनगर के पक्ष में 4, आईडीपीएल के पक्ष में 10 थे। कुछ सुझाव अंतिम तारीख के बाद मिले। आयोग ने इन्हें भी “शामिल कर लिया था। इसके अलावा 11 सुझावों में किसी अन्य के विकल्प के रूप में गैरसैंण भी “शामिल है। पांच में कुमांऊ-गढ़वाल के केन्द्र स्थल के नाम आये हैं। इन्हें यदि गैरसैंण मान लिया जाये तो यह संख्या 142 पहुंच जायेगी। रामनगर के पक्ष में सिर्फ 4 सुझाव हैं पर अन्य स्थलों पर एक विकल्प रामनगर को भी मानने वाले सुझावों की संख्या 21 है। इस तरह रामनगर के पक्ष में 25 सुझाव मिले हैं। कालागढ़ के पद्वा में 23 सुझाव मिले हैं। कालाढूंगी, हेमपुर, काशीपुर, भीमताल, श्रीनगर, “यामपुर, कोटद्वार आदि पर भी सुझाव आये हैं। राजनीतिक दलों की तरु से आये 15 सुझावों में से 6 गैरसैंण के पक्ष में हैं। दो गढ़वाल और कुमाऊं के मधय बनाने के लिए हैं। देहरादून के पक्ष में दो और कालागढ़ के पक्ष में तीन सुझाव राजनीतिक दलों की ओर से आये हैं। दो सुझावों में किसी स्थल का नाम नहीं हे। यह सरसरी तौर पर इस रिपोर्ट की सिफारिश है।
   फिलहाल राजधानी चयन आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौप दी है। बताया गया कि यह रिपोर्ट इतनी संजीदगी से तैयार की गयी कि उसके अंतिम छह पेज स्वयं अधयक्ष बीरेन्द्र दीक्षित ने टाइप किये। इससे यह कहने का प्रयास भी किया गया कि उन्होने इस काम को करने में बड़ी मेहनत की है। आयोग इस आठ साल के कार्यकाल का काम सिर्फ इतना रहा कि कैसे इस रिपोर्ट को जारी करने तक गैरसैंण के मामले को कमजोर किया जायें। एक तरु आयोग किसी न किसी बहाने अपना कार्यकाल बढ़ाता गया वहीं दूसरी ओर सरकारें अस्थाई राजधानी देहरादून को स्थायी राजधानी बनाने के लिए निर्माण कार्य कराती रही। आयोग ने जिस तरह से अपने काम को करना शुरु किया वह हमेजा जनता की भावनाओं के विपरीत लगा। उसने किसी राज्य की जनता से सीधो संवाद की कोजि नहीं की। जिन खतरों को वह प्रचारित करता रहा वह बेहद कमजोर और हल्के रहे। इसी माधयम से उसने उन नामों को उछालना शुरू किया जो भाजपा-कांग्रस जैसी पार्टियों के लिए राजनीतिक लाभ के थे बल्कि इसी बहाने वह पहाड़ और मैदान की भावना को उभारने में लगी रही। यही कारण है इसे विवादित बनाने के लिए अब गैरसैण के साथ इस तरह के नाम आये हैं। इन आठ सालों में दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस क्षेत्र् को भूगर्भीय दृ’िट से खतरनाक साबित करने की कोशिश की। तमाम भूगर्भीय परीक्षणों का हवाला देते हुये वह यह साबित करना चाहती थी कि यह राजधाानी के लिए किसी भी तरह उपयुक्त नहीं है। असल में मधय हिमालय पूरा ही भूगर्भीय दृष्टि से सवेदनशील है। देहरादून से लेकर टकनकपुर तक की पूरी पट्टी सबसे खतरनाक जोन में हैं। गैरसैंण में तीन सौ साल से बने मंदिर और डेढ सौ साल पुराने तीन मंजिले मकान भी’ाण भूकंप में नहीं गिरे, राजधाानी बनने मात्र् से यह कैसे खतरनाक हो जायेगा यह समझ से परे है। और यदि येसा है भी तो सरकार को सबसे पहले इस बात पर गंभीरता से धयान देना चाहिए कि गैरसैंण और उसके पास बसे तमाम अबादी के विस्थापन की व्यवस्था करनी चाहिए। राजधाानी तो बाद की बात है। जब विकास के नाम पर लोगों को विस्थापित कर नई टिहरी जैसे “ाहरों को बसाया जा सकता है तो राजधाानी के लिए गैरसैंण को विकसित रिने में सरकारें क्यों परेजान हैं, यह समझ में नहीं आता। उत्तराखंड की सत्रह नदियों पर बन रहे 200 से अधिक विनाशकारी बांधा और उनमें बनने वाली 700 किलोमीटर की सुरंगें विकास का माॅडल बताई जा रही हैं और राज्य के सुदूर ग्रामीण खेत्रों के लिए विकास के विकेन्द्रकरण की सोच के लिए केन्द्र में बनने वाली राजधाानी के लिए कुतर्क पेज कर सरकार और राजनीतिज्ञ जनविरोधी रास्ता अख्तियार कर रहे हैं।
   सही नियोजन और जनपक्षीय विकास के माडल की मांग के साथ “शुरू हुआ राज्य आंदोलन अपने तीन दजक की संघर्ष यात्र में विभिन्न पड़ावों से गुजरा। रा’ट्रीय राजनीतिक दलों की घोर उपेक्षा और राष्ट्रद्रोही कही जाने वाली मांग के बीच क्षेत्रीय जनता ने राज्य की प्रासंगिता का रास्ता खुद ढंूढा। तीन दजकों के सतत संघर्ष, 42 लोगों की “शहादत और लोकतान्त्र्कि व्यवस्था में अपनी मांग के समर्थन में रैली में जा रही महिलाओं के अपमान के बाद राज्य मिला। यह किसी की कृपा और दया पर तो नहीं मिला लेकिन जो लोग कल तक राज्य का विरोधा कर रहे थे वे अब अचानक इस आंदोलन को हाई जैक करने में सफल हो गये। बाद में वही राज्य बनाने का श्रेय भी ले गये। 9 नवंबर 2000 को जब राज्य बना तो वह नये रूप और नये रंग का था। उत्तराखंड की जगह उत्तरांचल के नाम से राज्य अस्तित्व में आया और भाजपा की अंतरिम सरकार बनी जिसने नाम के अलावा राजधानी के लिए भी साजिज की। उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश वीरेन्द्र दीक्षित की अधयक्षता में एक सदस्यीय राजधानी चयन आयोग का गठन कर लोगों की भावना के खिलाफ काम करना “शुरू कर दिया। आठ साल में वह किसी न किसी बहाने इस पर रोडे अटकाती रही। सरकार की प्राथ्मिकता में राजधानी का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं था इसलिए वह इस आयोग का मनमाना कार्यकाल बढ़ाती रही। भाजपा की अंतरिम सरकार ने इसका गठन किया तो कांग्रस ने लगातार इसके कार्यकाल को बढ़ाया। जितनी बार कार्यकाल बढ़ा उतनी बार गैरसैंण के खिलाफ कुतर्क ढूंढ़े गये। इस बीच राजधानी के सवाल को लेकर लंबे समय से संघर्ष करने वाले बाबा उत्तराखंड़ी ने अपनी शहादत दी और एक छात्र् कठैत ने आत्महत्या की। बावजूद इसके इन दोनों सरकारों ने आयोग के माधयम से जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया। आठ साल के बाद दीक्षित आयोग की रिपोर्ट ने राज्य की जनता के साथ ऐसा छलावा किया जो  एक नये आंदोलन को जन्म देने के लिए काफी है।

Charu Tiwari:

लेखक- चारु तिवारी

डेढ दशक बाद उत्तराखंड में फिर आंदोलन के स्वर मुखर होने लगे हैं। आठ साल बाद जनता अपने को ठगा महसूस करने लगी है। स्थायी राजधानी के बहाने यहां हाशिए में धकेले गये सवाल फिर उठाये जा सकते हैं। इसके लिये वे राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं जो कभी राज्य के विरोधी रहे और सत्ता में आने के बाद भी उन्होंने पहाड़ के विकास की अपनी समझ नहीं बदली। राजधानी स्थल चयन के लिये बनी बीरेन्द्र दीक्षित आयोग की रिपोर्ट के पिछले दिनों विधानसभा पटल पर रखते ही पहाड़ से गर्म हवायें आने लगी हैं। आयोग ने देहरादून को राजधानी के लिये सबसे उपयुक्त माना है। चन्द्रनगर गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिये उत्तराखंड की जनता में सुगबुगाहट शुरू हो गयी है। यह अचानक आयी प्रतिक्रिया नहीं है। आठ साल, पांच मुख्यमंत्रियों और ग्यारह बार बढाये गये कार्यकाल के बाद जो रिपोर्ट आयी वह यहां की जनता को चिढ़ाने वाली है। गैरसैंण को राजधानी के लिये उपयुक्त न मानने की सिफारिश कर आयोग ने भाजपा और कांगे्रस के उस विचार को मजबूत किया है जो किसी भी स्थिति गैरसैंण को राजधानी नहीं बनने देना चाहते हैं। स्थायी राजधानी का मामला न तो राजनीतिक पूर्वाग्रह है और न ही प्रदेश के बीचोंबीच राजधानी बनाने की जिद, सही अर्थों में यह आंदोलन यहां के अस्तित्व, अस्मिता और विकास के विकेन्द्रीकरण की पुरानी मांग है।
   गैरसैंण को राजधानी बनाने की जनता की मांग नई नहीं है। राज्य आंदोलन के शुरुआती दौर से ही चमोली जनपद और राज्य के बीचोंबीच स्थित इस खूबसूरत स्थान को  लोगों ने राजधानी के लिये उपयुक्त माना। कभी राज्य आंदोलन का ध्वजवाहक रहे उत्तराखंड क्रान्ति दल ने जनवरी 1992 में बागेश्वर में अपने घोषणापत्र में गैरसैंण का नाम सुझाया। अपने स्थापना दिवस पर 25 जुलाई 1992 को इसे पेशावर कांड के नायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम पर इसका नामकरण चन्द्रनगर कर इसे राज्य की राजधानी घोषित कर दिया। तब से जब भी राजधानी की बात हुयी पहाड़ के लोगों ने कभी और जगह के बारे में सोचा भी नहीं। विभाजित उत्तर प्रदेश में वर्ष 1994 में तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार ने वरिष्ठ मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इस सरकारी समिति ने अपनी जो संस्तुतियां प्रस्तुत कीं उनमें राज्य के 68 प्रतिशत लोगों ने गैरसैंण चन्द्रनगर को राजधानी के लिये सबसे उपयुक्त माना। भाजपा और कांग्रेस ने हमेशा इस मांग के खिलाफ अपनी साजिशें जारी रखीं। गैरसैंण को राजधानी न बनाने के लिये उन्होंने कुतर्क गढ़ने भी शुरू कर दिये। राजधानी के बारे में वे लोग भी तर्क देने लगे जिन्हें यहां का भूगोल पता नही है।  जिन लोगों ने कभी गैरसैंण  देखा नहीं वे भी उसके विरोध में बयान देने लगे। सरकार भी बार-बार लोगों का ध्यान इससे हटाने लगी।
   नवबर 2000 को जब राज्य बना तो पहली अंतरिम सरकार भाजपा की बनी। उसने दो काम किये पहला उत्तराखंड का नाम बदलकर उत्तरांचल करना और दूसरा राज्य की राजधानी के लिये आयोग का गठन करना। दोनों की काम जनभावनाओं के खिलाफ थे। राजधानी के मसले पर तो भाजपा ने अलोकतांत्रिक काम किया उसने जनमत को आयोग की कसौटी में जांचने की साजिश की। राज्य पहली चुनी हुयी सरकार कांग्रेस की बनी। उसने इस आयोग के कार्यकाल को लगातार बढ़ाया। मौजूदा भाजपा शासन में इस आयोग को दो बार बढ़ाया गया। असल में देहरादून को राजधानी बनाने का माहौल इसलिये तैयार किया जाता रहा है कि जनता के पैसे पर ऐश करने वाले सुविधाभोगी नेता, नौकरशाह और माफिया का गठजोड़ गैरसैंण को किसी भी हालत में राजधानी नहीं बनाना चाहता। राजधानी के लिये बने दीक्षित आयोग ने जो रिपोर्ट पेश की है वह न केवल हास्यास्पद है, बल्कि नीति-नियंताओं की कमजोर सोच का परिचायक भी है। लंबी कवायद और करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद वही हुआ जिसकी सबको आशंका थी। आयोग की संस्तुतियों को मानना हांलाकि सरकार के विवेक पर निर्भर करता है, लेकिन इस पूरी कवायद में राजनीतिक दलों का जो रवैया रहा उसे पूरा करने मे दीक्षित आयोग ने पूरी भूमिका निभाई। वह सरकार के एजेंट के रूप में काम करती रही। जनता इस बात से भी आहत है कि आठ साल में आयोग की जो रिपोर्ट आयी है उसे अभी तक गैरसैंण के बारे में ही जानकारी नहीं है। आयोग ने गैरसैंण को अल्मोड़ा में बताया है, जबकि यह चमोली जनपद में है। इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति, उंचाई और अन्य विवरण भी आयोग को मालूम नहीं है। इससे सरकार के जनविरोध और जनभावनाओं को कुचलने की प्रवृत्ति का पता चलता है।
   दीक्षित आयोग ने इन आठ सालों में गैरसैंण की बात को कमजोर करने का ही काम किया। एक तरफ आयोग किसी न किसी बहाने अपना कार्यकाल बढ़ाता गया और दूसरी तरह सरकारें अस्थायी राजधानी देहरादून में निर्माण कार्य कराती रही। आयोग ने अपने पूरे कार्यकाल में जनभावनाओं के विपरीत काम किया। उसने कभी जनता से सीधे संवाद करने की कोशिश नहीं की। आयोग बार-बार जिन खतरों को राजधानी के लिये बताता रहा वे बेहत कमजेार और हल्के थे। आयोग की सड़क, रेलमार्ग, हवाई यातायात और पानी की उपलब्धता जैसे मुद्दों को उठाकर एक सोची समझाी साजिश के तहत गैरसैंण की मांग को कमजोर किया है। आयोग तमाम भूगर्भीय परीक्षणों का हवाला देते हुये वह यह साबित करती रही कि गैरसैंण राजधानी के लिये उपयुक्त नहीं है। असल में पूरा मध्य हिमालय ही भूगर्भीय दृष्टि से संवेदनशील है। देहरादून से लेकर टनकपुर तक की पूरी पट्टी सबसे खतरनाक जोन में है। गैरसैंण में तीन सौ साल से बने मंदिर और डेढ सौसाल पुराने तीन मंजिल के मकान भारी भूकंप के झटकों के बावजूद नहीं गिरे तब राजधानी बनने मात्र से यहां भूचाल आ जायेगा यह समझ से परे है। सरकार को यह भी समझना चाहिये कि यदि गैरसैंण को इस तरह के नुकसान की आशंका है तो उसे सबसे पहले यहां के गांवों के विस्थापन की व्यवस्था करनी चाहिये, वरना सिर्फ राजधानी के लिये इस तरह के खतरों को प्रचारित करना बंद करे। जब कथित विकास के नाम पर लोगों को विस्थापित कर नई टिहरी जैसे शहर बसाये जा सकते हैं जो गैरसैंण को राजधानी के लिये विकसित करने में सरकार क्यों परेशान हो जाती है यह समझ से बाहर है। मौजूदा समय में उत्तराखंड की सत्रह नदियों में ढाई सौ से अधिक बांध प्रस्तावित हैं उनमें से 700 किलोमीटर की सुरंगें बनाई जा रही हैं। इसे विकास का माॅडल बताया जा रहा है। विकास के विकेन्द्रीकरण की सोच को लेकर राज्य के केन्द्र में बनने वाली राजधानी के लिये कुतर्क पेश कर सरकार और राजनीतिज्ञ जनविरोधी रास्ता अख्तियार कर रही है।

Devbhoomi,Uttarakhand:
its realy grate artical charu ji

Charu Tiwari:

साथियों!
उत्तराखण्ड में भारतीय प्रबंधन संस्थान की स्थापना की घोषणा पहाड़ में उच्च और आधुनिक शिक्षा के लिये नया रास्ता तैयार करेगी। विकास के विकेन्द्रीकरण और नयी संभावनाओं की खोज के लिये ऐसे संस्थानों का जनहित में होना ज्यादा जरूरी है। उत्तराखंड में तमाम संस्थानों का कुछ किलोमीटर क्षेत्रों में सिमट जाना अच्छा नहीं हैं। देहरादून, पंतनगर, रुड़की के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी बड़े संस्थान खुले इसके लिये द्वाराहाट के विधायक पुष्पेश त्रिपाठी और क्रिएटिव उत्तराखंड के साथियो ने एक संयुक्त अभियान चलाया है। इसके तहत राज्य के विभिन्न हिस्सों में ऐसे संस्थान खोलने के लिये पहल की जा रही है। भारतीय प्रबंधन संस्थान को पर्वतीय क्षेत्र में खोलने को लेकर उक्रांद के वरिष्ठ नेता काशी सिंह ऐरी, पुष्पेश त्रिपाठी, प्रताप शाही, प्रेम सुन्दरियाल, दिनेश जोशी, दयाल पांडे, मोहन बिष्ट, मुकुल पांडे, कैलाश पांडे आदि ने दिल्ली में कई विभागों और व्यक्तियों से बात की। इस संदर्भ में एक प्रतिनिधिमंडल मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल से भी मिला। प्रधानमंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्री और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन भी प्रस्तुत किया। इस ज्ञापन की मूल प्रति यहां प्रस्तुत की जा रही है। आपके सुझाव आमंत्रित हैं।

सेवा में,
    डा. मनमोहन सिंह जी
   माननीय प्रधानमंत्री
   भारत सरकार
महोदय, उत्तराखंड में भारतीय प्रबंधन संस्थान की स्थापना से यहां उच्च शिक्षा के नये स्थापित होंगे। उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य में जहां उच्च शिक्षा का भारी अभाव रहा है, वहां अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के संस्थान खुलने से नई पीढ़ी मौजूदा प्रतिस्पर्धा के दौर में अपने को तैयार कर सकती है। इसके लिये केन्द्र सरकार बधाई की पात्र है। हमें आशा है कि सरकार तमाम बिन्दुओं पर विचार कर इस संस्थान के लिये ऐसे स्थान का चयन करेगी जो राज्य ही नहीं देश में प्रबंधन शिक्षा और शोध के लिये एक माडल के रूप में पहचाना जायेगा।

   उत्तराखंड के लोग चाहते हैं कि इस संस्थान की स्थापना विकास के विकेन्द्रीकरण की नीति के तहत राज्य के किसी ऐसे स्थान में हो जहां से सुदूर क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाध्नों पर आधरित प्रबंधन की शिक्षा को बढ़ावा मिले और नये शोध और परिकल्पना के साथ विकास का सर्वपक्षीय रास्ता तैयार हो। उत्तराखंड में खुलने वाला यह संस्थान इस दिशा में पहल ले सकता है। यदि इसे पर्वतीय क्षेत्रा में खोला जायेगा तो यह विश्व भर में पहाड़ के लिये नई नीति और विकास के दर्शन का ध्वजवाहक बन सकता है। यह प्रतिवेदन इस विचार के साथ भी भेजा जा रहा है कि विश्व में बढ़ती जनसंख्या और घटते संसाधनों के बीच प्राकृतिक धरोहरों को बचाना सबसे बड़ी चिन्ता है। इन्हें बचाने के लिये हिमालय का प्रबंधन बहुत जरूरी है। भारत में हिमालय को बचाने और उसे देश की समृद्धि के साथ जोड़ने की बातें तो बहुत हुयीं लेकिन कभी इसके सही नियोजन की दिशा में काम नहीं हुआ। पहाड़ में जब एक नया प्रबंध संस्थान खुल रहा है तब हमें इस पर विचार करना चाहिये कि क्यों न हम इसे हिमालय के प्रबंधन और शोध के नये रास्ते तलाशने के लिये उपयोग करें।
    उत्तराखंड में सत्तर के दशक तक उच्च शिक्षा संस्थानों का भारी अभाव था। अविभाजित उत्तर प्रदेश के आठ जिलों का यह पर्वतीय क्षेत्रा आगरा विश्वविद्यालय पर निर्भर था जिसके कारण बड़ी संख्या में लोग उच्च शिक्षा से वंचित रहे। इस विश्वविद्यालय से संब( महाविद्यालयों की संख्या भी बहुत कम थी। वर्ष 1972 में कुमांऊ और गढ़वाल विश्वविद्यालयों के लिये आंदोलन शुरू हुये। इसी के परिणामस्वरूप कुमांऊ और गढ़वाल विश्वविद्यालय अस्तित्व में आये। लेकिन इन तीन दशकों में ये विश्वविद्यालय उन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे जिनकी इनसे उम्मीद की जा रही थी। इसका सबसे बड़ा कारण पाठ्यक्रमों का समय के साथ बदलाव न करना रहा है। ऐसे विभागों की स्थापना और शोध् नहीं हो पाये जो छात्रों और इस क्षेत्रा के लिये उपयोगी साबित होते। गोबिन्दवल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पन्तनगर की स्थापना इसी उद्देश्य से की गयी थी कि पहाड़ की कृषि, बागवानी, पशुपालन और पर्यावरणीय संरचना को बचाने के लिये शोध् कर नया रास्ता निकल सके। दुर्भाग्य से इस विश्वविद्यालय ने कभी इस क्षेत्रा में पहल नहीं की और यह एक सामान्य एकेडमिक संस्थान बनकर रह गया। राज्य बनने के बाद इसकी तमाम कृषि और शोध् की जमीन को उद्योग लगाने के लिये दे दिया गया है। मौजूदा समय में राज्य में पेट्रोलियम विश्वविद्यालय जैसे संस्थान सहित नौ विश्वविद्यालय, दो इंजीनियरिंग कालेज और सैकडों महाविद्यालय हैं। स्वपोषित शिक्षा संस्थानों की एक लंबी सूची है। रुड़की विश्वविद्यालय जैसा विश्व स्तरीय संस्थान है। भूगर्भीय शोध के लिये वाडिया संस्थान, वन शोध् संस्थान, ओएनजीसी, सर्वे आफ इंडिया के अलावा कई संस्थान राज्य में काम कर रहे हैं। इन संस्थानों ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हिमालयी सरोकारों पर शोध् करना था लेकिन इन्होंने कभी हिमालय को उस तरीके से देखने की कोशिश नहीं की। यदि ऐसा होता तो आज ये संस्थान हिमालय की हिफाजत के लिये नई नीतियों का निर्माण कर भारत को समृद्धि का रास्ता दिखा सकते थे।
    इन संस्थानों की कार्यप्रणाली के अब तक के अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं। इसलिये हमारा मानना है कि भारतीय प्रबंध्न संस्थान के इस प्रारंभिक चरण में हम एक ऐसा सोच बनायें जिससे संस्थान को हिमालय की हिपफाजत और शोध के लिये समर्पित कर दिया जाये। यह इसलिये भी जरूरी है क्योंकि टुकड़ों में हिमालयी प्रबंधन की बात साठ के दशक से हो रही है लेकिन अभी तक उसका कोई स्पष्ट स्वरूप सामने नहीं आ पाया है। हम मांग करते हैं इस प्रबंधन संस्थान को पर्वतीय क्षेत्रा में स्थापित किया जाए और यहां से पूरे देश के हिमालयी क्षेत्रों के विकास, जल, जंगल और जमीन जैसे महत्वपूर्ण धरोहरों का प्रबंध्न किया जाये। इसके लिये सोच का व्यापक फलक तैयार करने के लिये पर्वतीय क्षेत्र में इस संस्थान की जरूरत को निम्न बिन्दुओं से समझा जा सकता है।

- हिमालय देश का सबसे बड़ा वाटर टैंक है। विश्व भर में पानी को लेकर जिस तरह अघोषित युद्ध छिड़ा है उसने जल प्रबंधन जैसे विषय को महत्वपूर्ण बना दिया है। ग्लोबल वार्मिग के चलते हिमालय खतरे में है इसे बचाने के लिये ठोस नीति और कार्यक्रम ही नहीं, बल्कि मजबूत प्रबंध्न की भी जरूरत है। इस संस्थान के पर्वतीय क्षेत्र में स्थापित होने से नये शोध और कार्यक्रम तय किये जा सकते हैं।

- उत्तराखंड को मध्य हिमालय के नाम से भी जाना जाता है। यहां छोटी-बड़ी सत्रह नदियां निकलती हैं। इन नदियों के जल उपयोग के प्रबंधन पर सार्थक काम नहीं हो पाया है। प्रबंधन की कमी के चलते ऊर्जा प्रदेश के नाम पर यहां ढाई सौ से अधिक बांध प्रस्तावित हैं इनसे नदियों का अस्तित्व खतरे में है। संस्थान शोध के माध्यम से इस दिशा में काम कर सकता है। यह न केवल उत्तराखंड, बल्कि पूरे देश के हित में है।

ऽ   - देश के हिमालयी राज्यों में भूमि प्रबंधन की ऐसी नीतियां नहीं बनी हैं जिनसे इन क्षेत्रों को आत्मनिर्भर बनाया जा सके। जमीन का उचित प्रबंधन कर पलायन रुकेगा और देश के हित में प्राकृतिक संसाध्नों को बचाया जा सकेगा। यदि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में यह प्रबंधन संस्थान खुलेगा तो प्रबंधकीय शोध के नये क्षेत्र खोलने की दिशा में यह नई पहल करने की स्थिति में होगा।

ऽ   पर्यावरणीय और पारिस्थितिकी प्रबंधन इस समय दुनिया की सबसे बड़ी जरूरत है। इन पर शोध के लिये उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र से अच्छी जगह और नहीं हो सकती। मौजूदा समय में इस क्षेत्र में इसी काम के लिये 45 हजार एनजीओ काम कर रहे हैं। राज्य में कुल 17 हजार गांव हैं। इस लिहाज से एक गांव में औसतन तीन एनजीओ काम कर रहे हैं लेकिन पर्यावरण और पारिस्थितिकी असंतुलन की समस्या और बिगड़ रही है। इसलिये एक ठोस पर्यावरणीय प्रबंधन की आवश्यकता को समझते हुये यहां नये शोध और कार्यक्रमों की जरूरत है।

ऽ   देश के अन्य पर्वतीय राज्यों की तरह उत्तराखंड का बड़ा हिस्सा वनों से आच्छादित है। जब भी हिमालयी राज्यों के लिये नीति बनाने की बात आती है वन प्रबंधन पीछे छूट जाता है। वनों के संरक्षण और बेहतर उपयोग के लिये कोई ठोस शोध नहीं हुआ जिसके कारण आज भी वनों के खात्मे का रास्ता बन रहा है। उत्तराखंड में स्थापित होने वाला यह संस्थान वन प्रबंधन जैसे कामों को बेहतर तरीके से कर सकता है।

ऽ   देश का पूरा हिमालयी क्षेत्रा प्राकृतिक आपदाओं वाला है। हिमालय दुनिया का सबसे कमजोर पहाड़ है। यहां अभी भूगर्भीय हलचलें जारी हैं इससे भूस्खलन, बाढ़, जमीन के फटने की घटनायें जारी हैं। इस तरह की आपदाओं से पहाड़ टूट रहे हैं जो देश के हित में नई है इस क्षेत्र में आपदा प्रबंधन के लिये शोध किये जाने की आवश्यकता है। इसे यह संस्थान पूरा कर सकता है।

ऽ   हिमालयी क्षेत्रों में बागवानी और पफलों पर आधरित उद्योग और विपणन के लिये व्यापक प्रबंधकीय काम करने की आवश्यकता है। इस लिहाज क्षेत्र में मेंनेजमेंट के नये क्षेत्रों से परिचित कराया जा सकता है।

ऽ   हिमालयी क्षेत्रों में पर्यटन की अपार संभावनाओं को देखते हुये इसके बेहतर प्रबंधन की संभावनायें उत्तराखंड में हैं। जब इस तरह के संस्थान यहां होंगे तो इनमें काम करने और उनसे आर्थिकी के मजबूत होने के रास्ते भी खुलेंगे।

   उपरोक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुये, देश और हिमालयी राज्यों के हितों को ध्यान में रखते हुये भारतीय प्रबंध्न संस्थान को उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रा में खोला जाये। यह गांधी के स्वराज और आज के प्रतिस्पर्धी बाजार व्यवस्था का संतुलित रूप होगा। इसके लिये उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में बहुत सारे स्थान हैं जो भारत के शीर्ष पर एक उन्नत और बहुआयामी प्रबंधन संस्थान के लिये आदर्श हो सकते हैं। इनमें से अल्मोड़ा जनपद के चौखुटिया क्षेत्रा को चुना जा सकता है। यह स्थान पन्तनगर से 100 किलोमीटर की दूरी पर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। यह स्थान राज्य की प्रस्तावित राजधानी गैरसैंण की सीमा के भीतर आता है। रामगंगा जैसी सदानीरा नदी के किनारे पर बसा यह बड़े भू-भाग में पफैला मैदानी भाग है। इस स्थान के लिये अंग्रेजों के समय से रेलवे लाइन के लिये सर्वे हुआ था। भविष्य में यहां रेलवे लाइन की सुविध की सकती है। मौजूदा समय में काठगोदाम और रामनगर रेलवे स्टेशन हैं। पंतनगर निकटतम हवाई अड्डा है। गौचर में हवाई पट्टी प्रस्तावित है।
   हम आशा करते हैं कि उत्तराखंड में खुलने वाला भारतीय प्रबंधन संस्थान देश में अपने तरह का एक अलग संस्थान होगा जो शोध और प्रबंधन के नये विषयों और उन्हें जनपक्षीय बनाने का काम करेगा।

shailesh:
किसी भी समाज के समग्र व संतुलित विकास के लिए बेहतर प्रबंधन की जरूरत होती है !
इसलिये यह जरूरी है की देश के प्रतिष्ठित सस्थान कारपोरेट हितों की पूर्ती के बजाय आम आदमी की बेहतरी के लिए काम करे !
 जैसा की अमर्त्य सेन ने कहा है !
" कॉर्पोरेट भारत और आम जनता के हितों के बीच संतुलन नहीं है और पलड़ा कॉर्पोरेट भारत के पक्ष में झुका हुआ है. ............हमें लगातार निम्नस्तर की बुनियादी शिक्षा और घटिया स्वास्थ्य सेवाओं पर सवाल उठाना पड़ेगा ताकि राजनेताओं को ये समझ आ सके कि अभी बहुत से क्षेत्र बचे हुए हैं जिनमें उन्हें काम करके दिखाना है.!.."  

उत्तराखंड मे सत्तर के दशक  से ही हिमालय बसाओ हिमालय बचाओ की  बात होती रही है ! हिमालय को बचाने और बसाने यहाँ से पलायन रोकने और मानव संसाधन का बेहतर उपयोग एक बहुत बड़ी चुनोती है ! भारतीय प्रबंधन संसथान की स्थापना एक महत्त्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है बशर्ते ये संसथान यहाँ हिमालय प्रबंधन पर कुछ ठोस शोध करें ! उत्तराखंड मे इसकी स्थापना  एक केंद्रीय स्थल पर हो और  यह गैरसैण राजधानी की स्थापना की ओर एक महत्त्वपूर्ण कदम होगा ! गैरसैण के पास चौखुटिया का क्षेत्र एक उपयुक्त जगह है !

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