Uttarakhand Updates > Articles By Esteemed Guests of Uttarakhand - विशेष आमंत्रित अतिथियों के लेख

Articles By Charu Tiwari - श्री चारू तिवारी जी के लेख

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Charu Tiwari:
शिवचरण मुंडेपी ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें निश्च्छल पहाड़ को देखा जा सकता है। राजधानी दिल्ली में पहाड़ के सरोकारों के बारे में इतने सजग लोग कम ही मिलते हैं। हैं भी तो उनके अपने एजेंडे हैं। मंडेपी जी का जब भी फोन आता है समझो पहाड़ के बारे में कोई बात होगी। वह बात गोष्ठी की हो सकती है, किसी कार्यक्रम की जानकारी के लिये हो सकता है, कोई अच्छी खबर हो सकती है, कभी पहाड़ में कुछ नहीं हो रहा है इसकी पीड़ा हो सकती है, कभी पहाड़ के दुख-दर्द भी हो सकते हैं। इस बार उनका फोन एक दुखद समाचार सुनाने के लिये आया। इस समाचार में अपने बीच के ऐसे व्यक्ति को खोने की सूचना थी जिसने अपना पूरा जीवन गढ़वाली भाषा और साहित्य को समर्पित कर दिया। नत्थीलाल सुयाल के निधन की खबर उत्तराखंड के भाषा, साहित्य और सामाजिक सरेकारों से जुड़े लोगों के लिये बड़ा आघात है। हम सब लोग उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जानते हैं जो घोर असहमति के बाद भी लोकतांत्रिक तरीके से बातचीत का रास्ता तैयार करता है। एक ऐसा व्यक्ति जो आपको बेहद रूढ लेकिन संवेदनशील लगता हो। एक ऐसा व्यक्ति जिससे आप खूब लड़ सकते हैं और हमेशा लड़ते रहना चाह सकते हैं। ऐसा व्यक्ति जो रचनात्मकता का ऐसा फलक तैयार करता हो जहां गंभीरता है, जहां आगे चलने का रास्ता है, जहां संसोधन कर सकने की गुजाइश हो। इससे भी बढ़कर जहां हर अच्छी बात को आत्मसात करने का स्पेस हो। ऐसे नत्थीलाल सुयाल के जाने से उत्तराखंड की उस पंरपरा को नुकसान हुआ है जो सिर्फ और सिर्फ सरोकारों के लिये जीते हैं।
   स्व. सुयालजी से पहला मिलना ही असहमति जैसा था। उन दिनों मैं शैल स्वर के नाम से एक अखबार निकालता था। उसके पहले अंक को उन्होंने कहीं देखा। मेरे पास उन दिनों फोन नहीं था इसलिये संपर्क नहीं कर पाये। एक दिन वे शकरपुर कार्यालय में स्वयं ही आ गये। कई शिकायतों और गलतियों बताने के बाद उन्होंने कहा कि मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि इतना गंभीर अखबार निकालने वाला संपादक अपने नाम की वर्तनी ही गलत लिख रहा है। पता नहीं कैसे और क्यों लगातार मेरे नाम की वर्तनी गलत जा रही थी। कभी किसी ने बताया नहीं। वे अखबार ले गये और कहा कि अभी तो सरसरी तौर पर देखा है बांकी देखने के बाद बताउंगा। एक सप्ताह के बाद उन्होंने जब मुझे अखबार पकड़ाया तो पूरा का पूरा अखबार लाल किया था। उन्होंने उन तमाम शब्दों को मार्क कर दिया जिन्हें हम पत्रकारिता में स्वीाकर कर चुके हैं। जैसे अन्तरराष्टीय, चरचा, खरचा, परचा आदि। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि जो व्यक्ति मेरी गलतियां ही बताने आया हो वह अखबार को आगे बढ़ाने के लिये भी उतना गंभीर कैसे हो सकता है। उन्होंने पहली ही बार में पांच सदस्यों की लिस्ट मुझे पकड़ा दी। उसके बाद कई लोंगों को मिलाते रहे। पहली बार पता चला कि गढ़वाली साहित्य के लिये बहुत सारे लोग गंभीरता से काम कर रहे हैं। उन्होंने उन दिनों गढ़वाली साहित्य के प्रतिष्ठित कवि कन्हैयालाल डंडरियाल की कविताओं का संकलन ‘अंज्वाल’ प्रकाशित किया था। वे उनकी रचनाओं पर आगे भी काम कर रहे थे। स्व. सुयाल के पास रचनात्मकता की एक विशेष दृष्टि थी। उन्होंने गढ़वाली भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिये व्यक्तिगत तौर पर प्रयास किये। उनकी चिन्ता इस बात की थी कि गढ़वाली साहित्य को उस तरह से नहीं लिया गया जिसका वह हकदार है। बाजार में सीडी और फिल्मों कें माध्यम से आयी साहित्यिक विकृतियों से वे हमेशा आहत थे। लंबे समय से वे बीमार चल रहे थे। उन्होंने पिछले दिनों एक कलेण्डर प्रकाशित किया जिसमें उनकी रचनात्मकता का पता चलता है। लंबे समय तक हम लोग साथ कुछ न कुछ काम करते रहे। हम सामाजिक क्षेत्र में थे तो वे साहित्य में, लेकिन बाद में पहाड़ के सवालों को समझने के लिये एक बड़ा मंच तैयार होने लगा था। उन्होंने कुछ लोगों से मिलाया जो गढ़वाल साहित्य पर विशेष काम कर रहे हैं। उनमें नेत्र सिंह असवाल, जयपाल रावत ‘छिपडुदादा’, गजेन्द्र रावत, ललित मोहन केशवान जी से मिलवाया। स्व. सुयाल को गढ़वाली साहित्य में उनके योगदान के लिये हमेशा याद किया जायेगा।
   इस बीच सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी खीम सिंह नेगी जी का निधन हुआ। वह 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के मुख्य आंदोलनकारियों में रहे। अल्मोड़ा जनपद के कफड़ा क्षेत्र के रहने वाले नेगी 1939 में विमलानगर सम्मेलन के बाद उभरी नई युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि थे। आजादी के बाद वे लगातार क्षेत्राीय समस्याओं के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करते रहे। राज्य आंदोलन के दौर में हम लोग उनसे मिलते थे। उनका एक वाक्य होता था कि दूसरी आजादी चाहिये। उन्हें लगता था कि जिस तरह उनकी पीढ़ी न अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन कर व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता निकाला, नई पीढ़ी को भी बेहतर भारत बनाने के लिये संघर्ष करना चाहिये। शायद यही कारण था कि वे आजादी के बाद कांग्रेस में उस तरह से सक्रिय नहीं हुये जिस तरह से आजादी के बाद कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वोट की राजनीति में शामिल हुये। उन्होंने बाद में भी सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से किसी भी र्सााक बदलाव का साथ दिया। हमारी पीढ़ी ने उनसे हमेशा जनसरोकारों के लिये आगे बढ़ने की सीख ली। 23 अप्रेल को 1930 भारत के इतिहास के लिये महत्वपूर्ण है। इस दिन पेशावर में वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाली सैनिकों ने निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया था। अंग्रेजों के फरमान के खिलाफ सीज फायर का आदेश देने वाले चन्द्र सिंह गढ़वाली ने सबसे पहले देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल कायम की। गढ़वाली जी को आजाद भारत में कभी भी इस तरह याद नहीं किया गया जिस तरह का बलिदान उन्होंने दिया। आजाद भारत में भी उन्हें जेल मिली। उन्होंने अंतिम समय तक जनहित के मुद्दों पर अपनी लड़ाई जारी रखी। चन्द्र सिंह गढ़वाली ही थे जो दूधाताली तक रेल का सपना देख सकते थे। यह सपना सिर्फ रेल ले जाने का नहीं, बल्कि सुदूद क्षेत्रों में विकास की अभिव्यक्ति भी थी। ताउम्र अभाओं में रहे गढ़वाली के परिजन आज भी उपेक्षित हैं। गढ़वाली को याद करते हुये उन सरोकारों को आगे बढ़ाना जरूरी है जिनके लिये खीम सिंह नेगी और नत्थीलाल सुयाल जैसे लोग चिन्तित रहे हैं। दुर्भाग्य से उत्तराखण्ड के नीति-नियंताओं का अपने लोगों को याद करने का चश्मा अलग है। उनके योगदान को समझने की उन्होंने कभी कोशिश भी नहीं की। यही कारण है कि जब भी गढ़वाल में कोई साहित्यिक योगदान की बात आती है तो उसमें जुयाल नहीं किसी और को  या किया जाता रहा है। पिछले पांच वर्षों में कई ऐसे लोगों को पद्मश्री पुरस्कार मिले हैं जिन्हें लोगों ने तब जाना जब उन्हें भारत सरकार ने पुरस्कार से नवाजा। कई एनजीओ वालों को पुरस्कार मिलता है तब पता चलता है कि उन्होंने पहाड़ के लिये बहुत काम किया है। इसलिये विभिन्न क्षेत्रों में बिना किसी स्वार्थ के काम करने वाले लोगों को याद कर सरोकारों को आगे बढ़ाने समझ बननी चाहिये।

Charu Tiwari:
राष्टकवि निशंक को मिले नोबेल

मेरे मोबाइल पर एक मैसेज आया कि उत्तराखण्ड भारत का एक ऐसा राज्य है, जहां के लोग हर दो घंटे में खुशियां मनाते हैं। कैसे.....? लाइट आई ! लाइट आई!! यह हम लोगों भले ही चुटकुला लगे लेकिन यह उतना ही सच है जितना व्यंग्य का मर्म। उर्जा प्रदेश में बिजली मिलने की खुशी ही नहीं प्रदेश को एक ऐसा मुख्यमंत्राी भी मिला है जो अंधेरे को अपनी उपलब्धियों में शुमार करना चाहते हैं। ऐसा मुख्यमंत्राी जो अपनी कविताओं और पुरस्कारों से उत्तराखण्ड का चमत्कृत कर देना चाहते हैं। उन्हें पुरस्कार चाहिये, सिर्फ पुरस्कार। असल में छदम राष्टभक्तों की एक बड़ी फेरहिस्त रही है जो आम लोगों के सवालों को अपनी लफफाजियों में उलझाते रहे हैं। इस समय उत्तराखण्ड की सत्ता में स्वयंभू राष्टभक्त और उनके भाट-चारणों की एक लंबी जमात खड़ी हो गयी है। जिस तरह कभी बिहार की राजनीति में मसखरों की टोलियां सत्ता के गलियारों में घूमा करती थी ऐसी स्थिति आज उत्तराखण्ड की है। बिहार में सपेरों से लेकर लालू चालीसा बनाने वाले मंत्रिमंडल में शामिल रहे हैं। उत्तराखण्ड में सपेरे तो नहीं  हैं लेकिन मुख्यमंत्री निशंक ने अपनी मसखरी से जो राजनीतिक धारा को ईजाद किया है उससे कभी निशंक चालीसा लिखने वाले लोग जरूर दिखाई देंगे। राज्य के किसी शहर में यदि निशंक को राष्टकवि बताने वाले होल्डिंग और पोस्टर दिखाई दें तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिये।
   मुख्यमंत्री निशंक इन दिनों एक अभियान चलाये हैं कि महाकुंभ के सफल संचालन के लिये इसे नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया जाना चाहिये। उन्होंने ऐसे समय में यह मांग की है जब कुंभ में हुयी दुर्घटना में कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और कई लोग अपने परिजनों को खोज रहे हैं। असल में निशंक के लिये यह नई बात नहीं है। इससे पहले उन्होने 108 सेवा को भी ग्रीनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में शामिल करने की बात कही थी। उसमें उन्होंने तर्क दिया था कि इस आपातकालीन सेवा से एक साल में ही करीब आठ सौ से अधिक महिलाओं ने जन्म दिया। ऐसी बेहुदी मांगों और ढौंग के सहारे ही उन्होंने अपनी राजनीति का सफर तय किया है। उनके गृह जनपद पौड़ी में किसी चारण ने उन्हें राष्टकवि से नवाजा है तो एक प्राफेसर साहब उन्हें सबसे बड़ा राष्टभक्त साबित करने के लिये पुस्तिका छाप चुके हैं। रमेश पोखरियाल निशंक को कवितायें करने का शौक रहा है। स्कूल की पत्रिकाओं के स्तर की इन कविताओं के वे कई संग्रह भी निकाल चुके हैं। जब वे स्वास्थ्य मंत्राी थे तब एक महंगे कागज पर उन्होंने अपनी पुस्तकों और सम्मानों का सचित्र विवरण प्रकाशित कर बताया कि वे एक पहुंचे हुये कवि हैं। लोगों को समझने में सुविधा हो इसके लिये उन्होंने प्रत्येक राष्टपति, प्रधानमंत्राी से लेकर फिल्मी नायक-नायिकाओं के साथ अपने फोटो भी प्रकाशित किये। उसी पुस्तिका से पता चला कि उनके साहित्य पर लगभग आठ छात्र शोध कर रहे हैं। उनके कई कविता संग्रहों का विदेशी और भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। जर्मनी के विश्वविद्यालयों में उनकी रचनायें पाठ्यक्रम में लगाई गयी हैं। मॉरिशस और श्रीलंका में उन्हें साहित्य की सेवा के लिये सम्मान के साथ डीलिट की मानद उपाधि दी गयी। इसके अलावा भी बहुत सारी जानकारियां इस पुस्तिका में हैं जो किसी भी कार्यक्रम के शुरू होने से पहले सभास्थल पर बंटवाई जाती रही हैं। आप हिन्दी साहित्य के छात्र हों और हिन्दी साहित्य में कहीं निशंक का नाम न मिले तो आप इस पुस्तिका से और विदेशी विश्विद्यालयों से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। यह पूरा प्रचार तंत्र वैसा ही जैसा एक गुप्तरोग विशेषज्ञ अपनी तारीफ में अखबार के पहले पृष्ठ पर राष्टपति से पुरस्कार लेते फोटो प्रकाशित करता है। उसकी डिग्रियां ऐसी होती हैं जिनका किसी ने नाम भी नहीं चुना होता है।
   खैर कवितायें लिखना और उन्हें अपने तरीके से प्रचारित करने का पूरा अधिकार निशंक जी को है। उनके पुरस्कारों से किसी को ईर्ष्या भी नहीं होनी चाहिये। पुरस्कार ऐसे ही मिलते हैं। इनमें किसी योगदान का कोई महत्व नहीं होता। अगर होता तो पहाड़ से हिन्दी साहित्य में एक से एक धुरंधर साहित्यकार हुये उन्हें खाने तक के लाले पड़े। शैलेश मटियानी को जीवन भर संघर्ष करना पड़ा। चंद्रकुंवर बर्थ्तवाल को अपनी बीमारी से अलकनंदा के तट पर अपना जीवन त्यागना पड़ा। मौजूदा समय में हिन्दी साहित्य में कई बड़े नाम बड़ी उम्र में भी नौकरियां कर अपने को जीवित रखे हुये हैं। उनकी रचनाओं का न दो इतनी भाषाओं में अनुवाद हुआ, न विदेशी विश्वविद्यालयों के पाठयक्रमों में लगायी गयी, न ही इतने लोगों ने उन पर शोध किया और न ही किसी ने उन्हें राष्टकवि के खिताब से नवाजा। हमें ‘राष्टकवि’ निशंक को देश के अब तक के ‘श्रेष्ठ मुख्यमंत्री’ के रूप में नोबेल पुरस्कार देने की सिफारिश करनी चाहिये। यह इसलिये भी जरूरी है कि उत्तराखण्ड के लोगों को ही दो घंटे में खुशी चाहिये। बिजली आयी! आयी!!

पंकज सिंह महर:
चारु दा के लेखों को आप अब उनके ब्लाग पर भी देख सकते हैं-

http://charutiwari.merapahad.in

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

I fully endorse the views expressed by Charu Da.

The situation is almost the same.


--- Quote from: Charu Tiwari on May 06, 2010, 04:03:17 PM ---राष्टकवि निशंक को मिले नोबेल
मेरे मोबाइल पर एक मैसेज आया कि उत्तराखण्ड भारत का एक ऐसा राज्य है, जहां के लोग हर दो घंटे में खुशियां मनाते हैं। कैसे.....? लाइट आई ! लाइट आई!! यह हम लोगों भले ही चुटकुला लगे लेकिन यह उतना ही सच है जितना व्यंग्य का मर्म। उर्जा प्रदेश में बिजली मिलने की खुशी ही नहीं प्रदेश को एक ऐसा मुख्यमंत्राी भी मिला है जो अंधेरे को अपनी उपलब्धियों में शुमार करना चाहते हैं। ऐसा मुख्यमंत्राी जो अपनी कविताओं और पुरस्कारों से उत्तराखण्ड का चमत्कृत कर देना चाहते हैं। उन्हें पुरस्कार चाहिये, सिर्फ पुरस्कार। असल में छदम राष्टभक्तों की एक बड़ी फेरहिस्त रही है जो आम लोगों के सवालों को अपनी लफफाजियों में उलझाते रहे हैं। इस समय उत्तराखण्ड की सत्ता में स्वयंभू राष्टभक्त और उनके भाट-चारणों की एक लंबी जमात खड़ी हो गयी है। जिस तरह कभी बिहार की राजनीति में मसखरों की टोलियां सत्ता के गलियारों में घूमा करती थी ऐसी स्थिति आज उत्तराखण्ड की है। बिहार में सपेरों से लेकर लालू चालीसा बनाने वाले मंत्रिमंडल में शामिल रहे हैं। उत्तराखण्ड में सपेरे तो नहीं  हैं लेकिन मुख्यमंत्री निशंक ने अपनी मसखरी से जो राजनीतिक धारा को ईजाद किया है उससे कभी निशंक चालीसा लिखने वाले लोग जरूर दिखाई देंगे। राज्य के किसी शहर में यदि निशंक को राष्टकवि बताने वाले होल्डिंग और पोस्टर दिखाई दें तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिये।
   मुख्यमंत्री निशंक इन दिनों एक अभियान चलाये हैं कि महाकुंभ के सफल संचालन के लिये इसे नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया जाना चाहिये। उन्होंने ऐसे समय में यह मांग की है जब कुंभ में हुयी दुर्घटना में कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और कई लोग अपने परिजनों को खोज रहे हैं। असल में निशंक के लिये यह नई बात नहीं है। इससे पहले उन्होने 108 सेवा को भी ग्रीनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में शामिल करने की बात कही थी। उसमें उन्होंने तर्क दिया था कि इस आपातकालीन सेवा से एक साल में ही करीब आठ सौ से अधिक महिलाओं ने जन्म दिया। ऐसी बेहुदी मांगों और ढौंग के सहारे ही उन्होंने अपनी राजनीति का सफर तय किया है। उनके गृह जनपद पौड़ी में किसी चारण ने उन्हें राष्टकवि से नवाजा है तो एक प्राफेसर साहब उन्हें सबसे बड़ा राष्टभक्त साबित करने के लिये पुस्तिका छाप चुके हैं। रमेश पोखरियाल निशंक को कवितायें करने का शौक रहा है। स्कूल की पत्रिकाओं के स्तर की इन कविताओं के वे कई संग्रह भी निकाल चुके हैं। जब वे स्वास्थ्य मंत्राी थे तब एक महंगे कागज पर उन्होंने अपनी पुस्तकों और सम्मानों का सचित्र विवरण प्रकाशित कर बताया कि वे एक पहुंचे हुये कवि हैं। लोगों को समझने में सुविधा हो इसके लिये उन्होंने प्रत्येक राष्टपति, प्रधानमंत्राी से लेकर फिल्मी नायक-नायिकाओं के साथ अपने फोटो भी प्रकाशित किये। उसी पुस्तिका से पता चला कि उनके साहित्य पर लगभग आठ छात्र शोध कर रहे हैं। उनके कई कविता संग्रहों का विदेशी और भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। जर्मनी के विश्वविद्यालयों में उनकी रचनायें पाठ्यक्रम में लगाई गयी हैं। मॉरिशस और श्रीलंका में उन्हें साहित्य की सेवा के लिये सम्मान के साथ डीलिट की मानद उपाधि दी गयी। इसके अलावा भी बहुत सारी जानकारियां इस पुस्तिका में हैं जो किसी भी कार्यक्रम के शुरू होने से पहले सभास्थल पर बंटवाई जाती रही हैं। आप हिन्दी साहित्य के छात्र हों और हिन्दी साहित्य में कहीं निशंक का नाम न मिले तो आप इस पुस्तिका से और विदेशी विश्विद्यालयों से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। यह पूरा प्रचार तंत्र वैसा ही जैसा एक गुप्तरोग विशेषज्ञ अपनी तारीफ में अखबार के पहले पृष्ठ पर राष्टपति से पुरस्कार लेते फोटो प्रकाशित करता है। उसकी डिग्रियां ऐसी होती हैं जिनका किसी ने नाम भी नहीं चुना होता है।
   खैर कवितायें लिखना और उन्हें अपने तरीके से प्रचारित करने का पूरा अधिकार निशंक जी को है। उनके पुरस्कारों से किसी को ईर्ष्या भी नहीं होनी चाहिये। पुरस्कार ऐसे ही मिलते हैं। इनमें किसी योगदान का कोई महत्व नहीं होता। अगर होता तो पहाड़ से हिन्दी साहित्य में एक से एक धुरंधर साहित्यकार हुये उन्हें खाने तक के लाले पड़े। शैलेश मटियानी को जीवन भर संघर्ष करना पड़ा। चंद्रकुंवर बर्थ्तवाल को अपनी बीमारी से अलकनंदा के तट पर अपना जीवन त्यागना पड़ा। मौजूदा समय में हिन्दी साहित्य में कई बड़े नाम बड़ी उम्र में भी नौकरियां कर अपने को जीवित रखे हुये हैं। उनकी रचनाओं का न दो इतनी भाषाओं में अनुवाद हुआ, न विदेशी विश्वविद्यालयों के पाठयक्रमों में लगायी गयी, न ही इतने लोगों ने उन पर शोध किया और न ही किसी ने उन्हें राष्टकवि के खिताब से नवाजा। हमें ‘राष्टकवि’ निशंक को देश के अब तक के ‘श्रेष्ठ मुख्यमंत्री’ के रूप में नोबेल पुरस्कार देने की सिफारिश करनी चाहिये। यह इसलिये भी जरूरी है कि उत्तराखण्ड के लोगों को ही दो घंटे में खुशी चाहिये। बिजली आयी! आयी!!


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Charu Tiwari:
तीन खबरें, तीन निहितार्थ

पिछले पखवाड़े बहुत कुछ घटा। स्वप्न संुदरी हेमा मालिनी को गंगा बचाने के लिये बzांड एम्बेसडर बनाया गया। यह बाजार होती गंगा का नया रूप है। भारतीय किzकेट टीम के कप्तान महेन्दz सिंह धौनी की शादी का जश्न देहरादून से लेकर टीवी चैनलों और अखबार के रंगीन पृष्ठों में छाया रहा। धौनी का नया अवतार। उत्तराखण्ड की संस्कृति का नया वाहक। जिन लोगों ने कभी पहाड़ नहीं देखा उन्होंने पहाड़ की शादी टीवी चैनलों पर देखी। जहां शादी थी वहां पहुंचने की औकात तो कथित रूप से बड़े पत्रकारों की भी नहीं थी इसलिये उन्होंने उन कमरों की फोटो हमारे सामने पेश की जहां धौनी और उनकी पत्नी ने शादी की रस्में पूरी। सभी चैनलों की एक्सक्लूसिव खबरेें। सिर्फ उनके पास ही थी ये तस्वीरें। नई खोजी पत्रकारिता। धौनी के घर से लेकर रिश्तेदारों तक के गांवों की खोज। रांची में जश्न है तो अल्मोड़ा के ल्वाली गांव में भी। सबका धौनी। उत्तराखण्ड का धौनी। रांची का राजकुमार। अब पिथौरागढ़ में उसकी दादी का मायका है। टिहरी के प्रतापनगर से भी धौनी का रिश्ता जुड़ गया। धौनी ठेठ पहाड़ी है। उसने पहाड़ी रीति-रिवाज से शादी की। अपनी जड़ों को भूला नहीं है। उसकी बीबी साक्षी रावत ने पहाड़ी गलोबंद पहना। पिछौड़ा पहना। चाहता तो और कहीं भी शादी कर सकता था। बहुत सारी कथायें हैं धौनी की। वैसी ही जैसी हम परीलोक की कथायें सुनते रहे हैं। धौनी की शादी किसी परीलोक के राजकुमार से कम नहीं थी। इसमें सब लोग शामिल हैं। टीवी में, अखबारों में, गली के नुक्कड़ और अपने-अपने घरों में। धौनी बाजार है। सबसे ज्यादा बिकने वाला माल। बहुराष्टीय बाजार से खरीद कर आम लोगों को परोसा जाने वाला माल।
 हेमा मालिनी स्वप्न सुंदरी रही हैं। भाजपा की बzांड एंबसेडर। बहुत दिनों से भाजपा का माल बेच रही हैं। उनके कई रूप हैं उनके। नृत्यांगना के रूप में उनका कोई जबाव नहीं है। बंसती के रूप में वह लोगों के दिन में राज करती हैंं। अब देश की सबसे बड़ी अदालत संसद का प्रतिनिधित्व भी करती हैं। उनका अपना आकर्षण है। जो आपके वश में न हो उसे हेमा मालिनी के हवाले कर दो। वह दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती कई रूपों में अवतरित होती रहीं हैं। फिल्मों में भी और रंगमंच में भी। फिल्मों और असलियत में अंतर है। हम कई बार फिल्मों को असली समझ बैठतें हैं। हमारे नीति-नियंता असल में हेमा मालिनी को उसी रूप में देखते हैं। चुनाव प्रचार में हेमा स्टार प्रचारक होती हैंं। उन पर लाखों रुपये खर्च किये जाते हैं। यह सब इसलिये होता है क्योंकि राजनीतिक दलों के पास जनता के सामने जाने के मुद~दे नहीं होते। अब हमारी सरकार ने उन्हें गंगा को बचाने का बzांड एम्बेसडर बनाया है। सरकार के लिये गंगा अब बिकाउ हो गयी है। पहली बार गंगा को उत्पाद के रूप में पेश किया गया है। हेमा मालिनी ने अपने नृत्य से स्पृश गंगा अभियान की शुरुआत कर दी है। जेपी और थापर को पहले ही बेच दी गयी गंगा को शुद्ध करने का ठेका अब हेमा मालिनी को दे दिया गया है। पहाड़ में सदियों से गंगा प्रहरियों को यह सरकार कुछ नहीं समझती। वह बाजारवादी शब्दावली के सहारे धीरे-धीरे लोगों से गंगा को अलग करने की साजिश में लगी है।
 इन दो खबरों के बीच एक गंभीर खबर है। एक पत्रकार के मारे जाने की खबर। यह खबर उसी बीच आती है जब धौनी की शादी में शरीक हो रहे थे। सरकार के लोग हेमा मालिनी के गंगा की बzांड एम्बेसडर बनने की हामी भरने से उत्साहित थे। पिथौरागढ़ का रहने वाला हेम चन्दz पाण्डे लंबे समय से उत्तराखण्ड के जनसरोकारों से जुड़े थे। छात्र जीवन से ही उन्होंने यहां आम लोगों के सवालों को उठाना शुरू किया था। वे वामपंथी छात्र संगठन से जुड़े रहे और बाद में दिल्ली में स्वतंत्र पत्रकारिता और एक कंपनी में नौकरी भी करने लगे। एक रिपोर्ट के संर्दा में वे नागपुर गये थे। लेकिन उनकी लाश आन्धz प्रदेश के अदिलाबाद जिले में मिली। पुलिस ने बताया कि वे मुठभेड़ में मारे गये। देश भर के सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों ने इस मुठभेड़ को फर्जी बतातें हुये हेम के परिजनों को न्याय दिलाने की मुहिम चलाई है। इसकी विस्तृत रिपोर्ट जनपक्ष के इस अंक में है। धौनी और हेमा मालिनी की खबरों के बीच हेम चन्दz पाण्डे के मारे जाने की खबर के गहरे निहितार्थ हैं। यह बाजार और जनपक्षीय धारा के सोचने-विचारने वाले लोगों के बीच की जंग की शक्ल है। बाजार होती व्यवस्था में आम जन तो छोड़िये पत्रकारों के सरोकारों के प्रति भी लोगों का ध्यान हटाने की साजिश हो रही है। हेम चन्दz पाण्डे ने जितने भी लेख लिखे उनमें आम लोगों की तकलीफों को उजागर किया गया था। उत्तराखण्ड में हेम जैसे बहुत सारे युवा हैं जो देश के विभिन्न हिस्सों में आमजन की तकलीफों को समझने जाते हैं। उन्हें इस तरह से फर्जी मुठभेड़ों में मारकर उफ भी नहीं करना और उन्हें एक विचारधारा का समर्थक बताकर निशाना बनाना निन्दनीय है। उत्तराखण्ड, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उडीसा जैसे राज्य हैं जहां प्राकृतिक धरोहरों पर मुनाफाखोरों की नजर है। उत्तराखण्ड की सभी नदियों को पूंजीपतियों के हवाले कर दिया गया है। तराई में उद्योगों के नाम पर लोगों को छला जा रहा है। ऐसे में सोचने-समझने वाले लोग अगर प्रतिकार करते हैं तो उन्हें एक विचारधारा का बताकर निशाने पर लिये जाने की प्रवृति बढ़ी है। उत्तराखण्ड की तराई में कई लोगों का इसलिये निशाना बनाया गया कि वे सरकार की नीतियों के खिलाफ बोल रहे हैं। व्यवस्था ने ऐसा इंतजाम कर दिया है कि हम धौनी की शादी और हेमा मालिनी के बzांड एम्बेसडर बनने की खुशी में झूमें-नाचे।

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