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Articles By Dinesh Dhyani(Poet & Writer) - कवि एव लेखक श्री दिनेश ध्यानी के लेख

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dinesh dhyani:
गर कर सके तो गैरसैंण की बात कर

दिनेश ध्यानी

करनी है तो भाषण नही बात कर
समय से साक्षात्कार कर
और कुछ नही सुनना हमें
बात छिड़ी है गैरसैंण की बात कर।

तुम्हारे अपने सरोकार
तुम्हारी अपनी सरकार
हमारी गैरसैंण की बात
जनता को गैरसैंण की दरकार।

गैरसैंण हमारा सपना है
ये पहाड़ हमारा अपना है
तुम्हें शायद पता नही
अब पहाड़ सोया नही
जाग रहा है और
अपने अधिकार के लिए ललकार रहा है।
जरा कान देकर देख
आरजू नही शेह की दहाड़ सुन।


बात नही सुलझेगी अब
बात और फरियाद से
जानते हैं हम
फिर एक बार तैयार हैं
हम आरपार के लिए।

अब नही चलेगी राजनीति बिसात
अब होगी पहाड़ में
हमारी मर्जी से दिन और रात
अगर तुम सोचते हो
तुम जीत गये हो
तो देख नीलकंठ में
उगते सूरज की गरमाहट को
अहसास का जमीन की गर्मी को
जमीन से जुड़कर।

गैरसैंण हमारा सपना नही
गैरसैंण हमारा अधिकार है
अब नही मांगना हमें
अब तो हमें राजधानी
बनानी है गैरसैंण
गर मादा है तुझमें
बरगला मत
बात छिड़ी है तो
गैरसैंण की बात कर
गैरसैंण की बात कर।।







dinesh dhyani:
नया जीवन
दिनेश ध्यानी

सारे रास्ते सोचता रहा कि अगर दिल्ली जल्दी पहुॅंच गया तो जरूर सुधा के घर  होता हुआ अपने घर जाउंगा। बस ने आनन्द विहार ठीक समय से छोड़ दिया अभी शाम के छह बज रहा है। मैने स्क्ूटर पकड़ा और सीधे मयूर विहर फेज एक चलने का कहा। मुझे शर्मा जी ने बताया था कि सुधा और उसके पति शाम सात बजे तक घर आ जाते हैं। एक तो इतने साल बाद उसका पता मिला और दूसरे उसके पिता ने कुछ जरूरी कागजात दिये थे उसे देन के लिए इसलिए मैं अपने अन्दर साहस बटोरकर बेझिझक चला गया। मन में कभी श्ंाका भी होती कि इतने साल बाद देखकर कहीं अन्यथा न ले लेकिन दूसरी ओ उससे मिलने लालसा भी हिलौरे मार रही थी। सन् 1984 से नही मिले हैं हम दोनों बाहरवीं के बोर्ड़ के पेपर होने के बाद आखिरी बार भौन की देवी के मंदिर मंे मिले थे। बस यही थी हमारी आखिरी मुलाकात। सुधा से मेरी अच्छी दोस्ती थी। तब गांवों के स्कूलों में लड़के लड़कियां इतने खुलकर आपस में बातें नही करते थे लेकिन न जाने हम दोनों क्या इतने घुल मिल गये थे कि अगर कोई स्कूल नही आता तो दूसरे को बुरा लगता और दूसरे दिन एक दूसरे से शिकायत करते। स्कूल में अक्सर लड़के हमारे बारे मंे चर्चा करते थे लेकिन हम दोनों में क्या था हम खुद ही नही जानते थे। बस एक खिंचाव था जो हम दोनों को एक दूसरे के बिना नही रहने देता था। आखिरी पेपर के दिन मैंने उसे कहा था कि अपना एक फोटो मुझे दे देना तो वह बोली कि फोटो लेकर क्या करोंगे मुझे ही रख लो ना। उसकी यह बात सुनकर मैं काफी सकपका गया था लेकिन उसके जाने के बाद उसके बिना कई निदो तक मैं उदास सा रहा कुछ खाने-पीने में मन नही लगता था, अगर यही प्यार है तो शायद मुझे सुधा से प्यार हो गया था।
समय के साथ-साथ सब कुछ एक धुंधली सी तस्वीर बनकर रह जाता है। लेकिन अक्सर उसकी याद मुझे आ ही जाती थी सोचता था कि क्या उसे भी मेरी याद आती होगी? बस यही सोचता था जब उसकी याद आती। इन  पच्चीस सालों में काफी कुछ बदल गया है कुछ मेरे साथ कुछ सबके साथ। इस बीच शादी हो गई बच्चे हो गये और जीवन के जिन अनुभवों और हालातों के लिए हमने कभी सोचा भी नही था उनेस भी पाला पड़ा किन्हीं को हमने झेल लिया और जिन्दगी के कुछ ऐसे फैसले हैं जिनका दंश अभी भी झेल रहा हूॅं और ताउम्र झेलता रहॅंगा। यही तो नसीब है यही तो जीवन है जो आप चाहते हो वो होता नहीं और जो होता है उसे आप टाल नही सकते हैं। नियति का और हमारा अपना गणित अलग-अलग होता है और जब हमारा आकलन नियति के आकलन से मेल नही खाता है वही से हमारे दुखों ओर संतापों का सिलसिला शुरू होजाता है।
सुधा कैसी दिखती होगी? कैसा होगा उसका पति और घर संसार? अपने बारे में सोचता हूॅं तो झेंप सी आती है। उम्र से पहले ही बूढ़ा सा हो गया हॅंूं । शायद ये मेरे हालात का ही नतीजा है कि उम्र की रफ्तार से अधिक मेरे शरीर का ढ़ांचा बदल रहा है। चलो अब किया भी क्या जा सकता है। मैंने कहा ना कि नियति मानकर ही जी रहे हैं। इससे आगे हमारे बस में कुछ भी नही है। मैं अभी यही सोच रहा था कि स्कूटर वाले ने कहा बाबू जी मयूर बिहार फेज एक आ गया है। आपने कितने नम्बर में जाना है। मैंने अपने बैग से पर्ची निकाली और उसे कहा कि भई मैंने चार सौ पच्चीस में जाना है।
गेट के अन्दर घुसते ही चैकीदार से पता पूछा तो  सामने से बांये होकर जैसे ही मुडे़ सामने चार सौ पच्चीस। नीचे का मकान। दरवाजे पर अमित मिश्रा को नाम का बोर्ड़ लगा हुआ था। स्कूटर रोककर उसे विदा किया और बैग लेकर मैं दरवाजे की तरफ बढ़ा। मेरे दिल की धड़कन न जाने अचानक तेज हो गई और पसीना सा आने लगा। यों गर्मी का मौसम तो है लेकिन यहां तो बादल लगे हुए हैं और शायद सुबह बारिश भी हुई। मैंने धड़कते दिल को संयमित करते हुए दरवाते पर लगी बेल को बजाया। बेल बजते ही दरवाजा एक पुरूष ने खोला शायद ये सुधा के पति होंगे। मैने आदतन दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते किया और  कहा कि मैं रामनगर से आया हॅंू मेरा नाम विवके है। रामनगर में सुधा जी के पिताजी मिले थे उन्हौंने कहा था आप लोगों से मिलने के लिए।
अरे आप पहले अन्दर तो आइए आप तो सारी बातें बाहर ही कह देंगे क्या। मैं उनके पीछे-पीछे अन्दर चला गया। बैठक में बैठते ही थोड़ी देर में एक महिला दो गिलाश पानी लेकर आई। उसे देखकर कहीं से भी नही लग रहा था कि यही सुधा होगी।
देखो सुधा ये आपके मायके रामनगर से आयें हैं विवके जी पापा जी ने कुछ दिया है आपके लिए इनके पास।
सुधा ने विवके सुना और उसकी नजरें मेरे चेहरे पर गड़ गई, पानी  टेबल पर रखते हुए वह संयत होकर सामने वाले सोफे पर बैठते हुए बोली, विवेक कहीं आप वही सल्ट वाले विवेक तो नहीं?
जी हां मैं वही विवेक हूॅं और आप सुधा जी न राईट।
हाॅं मैं ही सुधा हूॅं।  अरे विवेक इतने दिनों बाद अचानक यों?
जी हां बस यों समझिये कि ये एक इत्तेफाक ही है वर्ना मैं तो यहंी रहता हॅूं  इसी शहर में लेकिन कभी मुलाकात का संयोग ही नही हुआ।
अमित चाय पीकर बाजार चला गया और विवेक को बोल गया कि आप पहले तो यहीं रूकिए और अगर जाना जरूरी है तो फिर रात का खाना हमारे साथ खायेंगे। विवेक के लाख मना करने पर भी न तो सुधा ही मानी और न ही अमित।
विवेक ने अपने घर फोन कर दिया कि मैं दिल्ली पहॅुंच गया हॅूं रात का खाना खाकर आउॅंगा।
सुधा ने चाय बनाई और विवेक के पास आकर बैठ गई । मायके घर परिवार की कुशलक्षेम जानने के बाद सुधा ने विवेक से उसके घर के बारे मंे पूछा गांव आदि पुराने लोगों के बारे में जिन्हें वह जानती थी। दोनों के गांव पहाड़ में ज्यादा दूर नही थे इसलिए सभी लोग एक दूसरे को जानते थे लेकिन सुधा के पिता उसको बारहवीं के बाद दिल्ली ले आये थे इसलिए उसके बारे में विवेक ज्यादा नही जान पाया था।
 विवेक ने कहा कि सुधा अपने बारे तो कहांे कैसा चल रहा है जीवन?
सुधा ने कहा सब भगवान की दया से अच्छा चल रहा है। मेरे पति जयप्रकाश गु्रप में हैं और मैं भी एक प्राइवेट कम्पनी में हॅू। दो बेटे हैं एक चैहद साल का और दूसरा दस साल का। सास ससुर हैं वे कभी हमारे साथ रहते हैं और कभी देवर, जेठ के यहां।
सुधा तुमन बारहवीं के बाद पढ़ाई कहां की?
अरे नहीं मैं बाहरवीं के बाद दिल्ली आ गयी थी यहीं प्राइवेट बीए किया और आफीस सेक्रेट्री का कार्स किया और शादी के बाद नौकरी कर ली। अरे मेरे ही बारे में पूछते रहोगे क्या अपने बारे में कुछ नही कहोगे।
मैं बाहरवीं के बाद दिल्ली आ गया था, दिल्ली से बीए किया और उसके बाद काफी समय तक उत्तराखण्ड आन्दोलन में भटकता रहा। बाद में घर वालों के दबाव में नौकरी करली। मैं सरकारी सेवा में हूॅं। मेरी शादी गाॅंव मंे ही हुई, मां- बाप ने अपनी पसंद की लड़की ढूंढकर शादी कराई। बाकी तो सब ठीक है लेकिन पत्नी से नही बनती है। मेरे  भी दो बेटे हैं एक सोलह साल का और दूसरा तेरह साल का है। बड़ा बेटा ग्यारहवीं में है और दूसरा आठवीं में है।
वाह! क्या सप्राईज हैं। लेकिन यार तुम ऐसा क्यों कह रहे हो? भला वो बेचारी तुम्हारी पत्नी है उससे भला क्यों नही बनती?
बस यों  ही समझ लो कि मैं ही गलत हूॅं।
अरे मैंने ऐसा तो नही कहा।
क्या कहॅंू सुधा मुझे अपनी पत्नी से कोई शिकवा नही है लेकिन उसके घरवालों ने शुरू से हमारे बीच में ऐसा गैप बना दिया कि आज हम दोनों एक ही छत के नीचे रहकर भी अनजान से हैं और हमारा संबंध मात्र औपचारिकता बनकर रहा गया है। अब तो सच कहूूं बच्चों के लिए कम्प्रोमाईज कर रखा है।
विवेक यह तो ठीक नही है। तुम मर्द हो और इस मामले में तुम्हारा पक्ष सही होना चाहिए। तुम वही घिसे पिटे हालात का रोना रोकर अपना जीवन तबाह मत करो। उसके घरवाले कुछ कहते हैं तो तुम उनसे संबंध मत रखो लेकिन जो बेचारी अपना सबकुछ छोड़कर तुम्हारे साथ है तुम्हारी पत्नी है उसके साथ थोड़ समय की अनबन तो चलती है लेकिन ऐसा तनावभरा संबध कब तक चलेगा और आखिर इसकी कोई ठोस वजह भी होगी तो तुम्हें ऐसा सोचना होगा वह तुम्हारी बीवी है।
हाॅं सुधा तुम भी ठीक ही कर रही हो लेकिन क्या ये सब करने की मेरी ही जिम्मेदारी है? क्या उसे मेरे जज्बात और हालात नही समझने चाहिए?
हां उसे भी तुम्हें समझना होगा लेकिन ये बात तो ठीक नही है। अगर कोई बड़ी बात नही है तो तुम्हें उससे संबंध सुधारने होगें अन्यथा तुम अपना ही नुकसान कर रहे हो।
चलो सुधा छोड़ो इन बातों को अपने बारे में बताओ।
अरे कैसे छोड़ो तुम मेरे दोस्त हो, स्कूल के सहपाठी हो और तुम्हारी प्राॅब्लम मेरी प्राब्लम है। अब ऐसा नही चलेगा ।
सुधा के आत्मविश्वास और बातें करने के लहजे ने विवेक को प्रभावित किया। कहां यह गांव की एक सीधी सी शर्मीली सी लड़की जो उसके सिवा किसी के सामने कभी जोर से बात भी नही करती थी और आज कैसे आत्म विश्वास से भरपूर और शरीर एवं मन से सशक्त। सच इस सुधा को देखकर कोई भी सहज विश्वास नही करेगा कि यह वही सुधा है जो पहाड़ के एक गांव से बाहरवीं करके दिल्ली आई थी। सुधा को व्यक्तित्व विवेक को अन्दर तक प्रभावित कर गया। मन ही मन विवेक सुधा का सम्मान करने लगा था और उसके व्यक्तित्व को देखकर काफी प्रभावित हुआ। जिस सुधा की कल्पना उसने की थी यह सुधा तो उससे काफी आगे बढ़कर निकली।
विवेक को इस तरह सोच में डूबे हुआ देखकर सुधा ने कहा कि कहां खो गये विवेक कुछ तो कहांे?
विवेक ने झेंपते हुए कहा कि नहीं कहीं नही बस जरा यों ही अतीत में खो गया था।
ज्यादा अतीत के चक्कर में मत पड़ो और अपने वर्तमान पर ध्यान दो। कहते हुए सुधा हंस पड़ी, लेकिन दूसरे ही पल विवेक का मायूस चेहरा देखकर उसने अपनी हंसी को रोक दिया और विवेक से बोली, तुम इस तरह मायूस क्यों हो रहे हो? अरे अपने घर की समस्या  को तुम दोनों ने ही सुलझाना है और अगर हमारी किसी भी प्रकार की जरूरत होगी तो बस यों समझों मैं तथा अमित हमेशा तुम्हारे साथ हैं।
शोभा के आत्मविश्वास को देखकर विवेक ने पूछा, सुधा क्या तुम्हारा कभी अमित जी से झगड़ा नही होता?
हाॅ होता है लेकिन हम दोनों में आपसी समझदारी है और हम दोनों मात्र एक पति-पत्नी नही बल्कि एक अच्छे दोस्त बनकर रहते हैं। जानते हो कभी कभी तो हम भी एक दो दिन तक बात नही करते हैं लेकिन उसके बाद जब बात करते हैं तो लगता है कि हमारा प्यार और बढ़ गया हैं । मेरे पति न तो पोंगापंथी विचारो के हैं और न ही अधिक मार्ड़न लेकिन हमारे आपसे में एक दूसरे के लिए न तो किसी शक की गुंजाईश है और  न ही हम कभी इस तरह छोटी-छोटी बातों को लेकर कुंठा पालते हैं। विवेक जीवन को जियो, ये जीवन मिला है तो इसे यों की मायूसी में बरबाद मत करो। विवेक हमेशा शिकायत ही करना मत सीखो कभी किसी को माफ करना भी सीखो। माफ करने से आदमी छोटा नही बल्कि सामने वाले की नजरों में बहुत बड़ा हो जाता है।  अच्छा मैंने तुम्हें इतने दिनों बाद मिलने पर पहले ही दिन पका दिया है। चलो जब जो जानपहचान हो गई है फिर मिलते रहेगे। अच्छा विवेक क्या तुम्हें स्कूल के दिन याद हैं?
हाॅं सुधा भला कोई अपनी स्कूल की लाईफ को भुला सकता है?
हां ये तो है लेकिन
हां ये तो है। लेकिन चलो अच्छा आप आ गये। कहो स्कूल के दिनों के कोई दोस्त वगैरह मिलते हैं?
सुधा कभी कभार कोई मिल गया तो मिल गया वरना अधिकांश तो मिल ही नही पाते। एक दिन सावित्री मिली भी वही थवड़ा वाली बहुत कमजोर हो गई है बेचारी कहीं मेरठ में रहती है उसका पति सेना में था रिटायर हो गया है। सावित्री ने अपनी बेटी की शादी भी कर दी है।
अच्छा? क्या तुम्हारे पास उसका फोन आदि है?
नहीं वह किसी शादी में मिली थी।
अचानक किसी का फोन आ गया और सुधा उससे बातें करने लगी। सुधा को अंग्रेजी में बिना रूके बात करते हुए देखकर विवेक चकरा गया । अरे वाह! ये तो कमाल ही हो गया।
फोन रखते हुए सुधा ने कहा कि मेरे बाॅंस का फोन था कल हमारी कम्पनी में फाॅरन ड़ेलीगेशन आने वाला है इसलिए वहां तैयारी चल रही है। इसलिए बाॅंस ने किसी काम से फोन किया।
विवेक को विश्वास ही नही हो रहा था कि ये पहाड़ की वही लड़की है जो पानी का बंठा और घास की टोकरी लेकर आती थी। कभी बेडूपाको बारामासा और कभी कैल बजा मूरूली हो बैंणा आदि गीत गाकर ऐसे कुलांचे मारती हुई भागती थी जैसे हिरणी अपने उन्मुक्त स्वभाव में खुश होकर नाचती है। सच ही कहा है कि सबके अपने-अपने भाग है। इसने कल्पना भी नही की होगी कि एक दिन ऐसी बनेगी लेकिन धन रे कुदरत।
सुधा बीच-बीच मे किचन में जाकर खाना भी पका रही थी। विवेक ने टेबल पर पड़ी ऐ मैग्जीन उठाई उसके पन्ने पलटने लगा। एक गजल के शीर्षक पर उसका ध्यान अटग गया।
जी करता है जीने को मेगर किस तरह जियें? गजल को वह पूरी पढ़ गया और उसे लगा कि लिखने वाले ने ये गजल उसके लिए ही लिखी है। दुबारा गजल का पढकर वह उदास हो गया। सुधा के कमरे में आते ही उसने मैग्जीन टेबल पर रखकर अपने मनोभावों को दबाने की असफल कोशिश करने लगा।
सुधा ने कहा पढ़लो रूक क्यों गये। अच्छी पत्रिका है।
विवेक ने कहा नही बस पढ ली।
वे दोनों बात ही कर रहे थे कि इतने में अमित बाजार से आ गये।
सुधा को सामान थमाकर उन्हौंने विवेक से कहा कि अगर आपको फ्रेश होना है तो हो लीजिए। आपको रूकना नही है तो फिर खाना शुरू कर लेते हैं।
विवेक ने कहा जी ठीक है।
अमित ने कहा कि आप कुछ लेते तो नही? मेरा मतलब कुछ व्हिस्की वगैरह..?
नहीं जी मैं तो नशीली किसी भी चीज का सेवन नही करता हॅॅंूं।
जी करता तो मैं भी नही लेकिन आप हमारे मेहमान हैं।
नहीं ऐसी कोई बात नही है।
खाना खाते समय भी सुधा और विवेक की काफी बातें हुईं। अमित बीच-बीच में पूछ लेता था। अमित का गाॅंव पहाड़ में पौड़ी के पास था इसलिए एक दूसरे के गांव के लोगों को जानते नही थे। अमित यों भी दिल्ली में ही पैदा हुए थे उन्हौंने बताया था।
खाना खाने के बाद सुधा एवं अमित ने विवेक को फिर रूकने के लिए कहा लेकिन वह नही माना। अमित ने कहा कि ठीक है आप मत मानिए लेकिन एक बात तो हमारी माननी होगी हम आपको छोड़ने बस अड़्डे तक तो आ ही सकते हैं।
विवेक ने बस अड्डे से आरकेपुरम के लिए बस पकड़नी थी लेकिन उसने कहा कि मैं स्कूटर से चला जाउंगा रात काफी हो गयी है आप लोग तकलीफ न करें।
सुधा ओर अमित विवेक को बाहर रोड़ तक छोड़ने आये। सुधा विवेक को सम&

हेम पन्त:
ध्यानी जी कहानी में बड़ा आनन्द आ रहा है... पूरी कहानी नहीं आ पाई.. कृपया बचा हुआ भाग अगली पोस्ट में डाल दें..

dinesh dhyani:
विवेक ने बस अड्डे से आरकेपुरम के लिए बस पकड़नी थी लेकिन उसने कहा कि मैं स्कूटर से चला जाउंगा रात काफी हो गयी है आप लोग तकलीफ न करें।
सुधा ओर अमित विवेक को बाहर रोड़ तक छोड़ने आये। सुधा विवेक को समझा रही थी कि अपनी पत्नी के साथ सही रहो और अपने बच्चों के बारे में सोचो। विवेक उसकी बातों को गौर से सुन रहा था लेकिन अमित को गुस्सा आ रहा था कि अभी तो बेचारा दो घंटे पहले ही मिला और इस महारानी ने उसके अतीत को भी जान लिया।
बाहर स्कूटर खडे़ थे अमित ने एक स्कूटर वाले को पूछा और वह तैयार हो गया आरकेपुरम के लिए।
अमित और सुधा ने विवेक से उसका पता व फोन आदि ले लिया और उससे कहा कि अगली बार जब आयेगा तो बच्चों को साथ लायेगा और अगर वह एक महिने के भीतर नही आयेगा तो वे लोग आ जायेंगे।
विवेक सुधा से मिलकर जितना प्रभावित हुआ उससे भी अधिक उसके पति अमित की आत्मीयता और सीधेपन का कायल हो गया। सुधा की जो कल्पना उसने अपने मन में की थी सुधा उससे एकदम भिन्न और एक ऐसी महिला के रूप में दिखी कि उसे लगने लगा कि स्कूल में जब वह सुधा के बारे में सोचता था कि अगर उसकी शादी सुधा से हो जाती तो उसे लगा कि अगर सुधा की शादी वास्तव में मुझसे हो जाती तो मैं उसे किसी भी हालात में इतना खुश नही रख सकता था।
सुधा और अमित की गृहस्थी को देखकर विवेक को एक नया जीवन सा मिल गया। वह अपने परिवार को सुधारने के लिए भी सुधा की मदद मांगने की सोचने लगा। आज की सुधा के लिए भी उसके दिल में जगह है और वह उसे चाहता भी है लेकिन उससे पहले सुधा के प्रति उसके मन में एक सम्मान और स्थान जो बन गया है वह एक पत्नी और एक दोस्त से भी बड़ा है। बस यही चाहता है कि सुधा हमेशा खुश रहे लेकिन वह दूसरे ही पल यह भी उससे कामना करता है कि वह उसके जीवन में रहे एक दोस्त बनकर जो सारे संबधों और रिश्तों की परधि से अलग बिल्कुल उसके जीवन में उस स्थान पर बनी रहे जो सिर्फ उसके लिए हो।
घर पहुॅंचकर उसने कम्प्यूटर पर एक बहुत ही मार्मिक और बड़ा सा ईमेल सुधा के लिए लिखा। उसने उसमें अपने जीवन के मुख्य-मुख्य अंशों और हालात का जिक्र किया। उसने दबी जुबान में सुधा को यह भी अहसास करा दिया कि हां वह सुधा को आज भी चाहता है लेकिन उसके मन में सुधा के प्रति मात्र मांसल आकर्षण या दैहिक सुख वासना न हेाकर एक ऐसा आत्मीयता का संबध बन गया है जिसे शायद सुधा और विवेक ही समझ सकते है। सुधा  के सामने उसने अपने जीवन का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया। उसका मन जितना हल्का आज हुआ उतना शायद ही कभी रहा हो। उसने अपने और रेखा के संबधों का पुर्नमूल्यांकन करना शुरू कर दिया और पुरानी बातों को भूलने की जो सलाह सुधा ने दी थी उस पर अमल करना शुरू कर दिया। सुधा की छवि को अपने मन मंदिर में बिठाकर वह नींद के आगोश में डूबना चाहता है लेकिन सुधा का नया रूप और आत्म विश्वास उसे रह रहकर सोचने पर मजबूर कर देता है कि गांव की एक लड़की ऐसी भी हो सकती है। सुधा का चेहरा और आत्म विश्वास के बोल उसे उद्वेलिक कर देते। उसे लगा कि सुधा के सामने वह कुछ भी नही है।
विवेक को लगने लगा है कि अगर सुधा चाहे तो उसके और रेखा की बीच संबधों में जो खटास और काई जमी हुई है वह हट सकती है। सच सुधा से मिलकर उसे लगने लगा है कि मुझे नया जीवन मिल गया है।

Mohan Bisht -Thet Pahadi/मोहन बिष्ट-ठेठ पहाडी:
djyani ji haa  iska baki ka bacha bhaag bhi likh kar bhaij plzz

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