Author Topic: Articles By Dinesh Dhyani(Poet & Writer) - कवि एव लेखक श्री दिनेश ध्यानी के लेख  (Read 29071 times)

dinesh dhyani

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कहानी
जीवन की सार्थकता

दिनेश ध्यानी

कल सुबह से शुरू हुई बारिश ने पूरी रात रूकने का नाम नही लिया, और अब भी सुबह से रूक-रूक कर बारिश हो रही है। कई साल बाद इस तरह की बारिश देखने को मिली है। सच कहॅूं तो जब से रोटी रोजी की खातिर बाहर गया हूूं शायद ही किसी बरसात के सीजन में गांव आना हुआ हो। एक बार जब माता जी की बरसी थी, तब सर्दियों में जनवरी 2005 में गांव आना हुआ था। धुमाकोट से लेकर गांव तक पूरी सड़क बर्फ से ढ़की हुई थी। बच्चों की तो जैसे लाॅटरी ही निकल पड़ी। उन्होेंने शायद पहली बार इन पहाड़ों में इतनी बर्फ देखी है। संराईखेत में जेसे ही बस रूकी बच्चे नीचे उतर पड़े और बर्फ में खेलने लगे। शायद एक या दो दिन पहले की बर्फ अभी भी नही पिघली थी। उस दिन आसमान साफ था मैंने बच्चों को सामने हिमालय पर्वत की चोटियां दिखायीं तो उनकी बांछें ही खिल गईं।
पहाड़ की जिन्दगी का अपना ही अलग मजा है। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि पहाड़ में आदमी कभी भी बोर नही हो सकता है। बर्शते आपको इन पहाड़ों से प्यार हो। जब से होश संभाला अपने घर के सामने सिलडपाख के पहाड़ को रोज देखता लेकिन हर दिन उसमें कुछ नयापन दिखता और उसे और देखने की लालसा ही बनी रहती। गर्मियों के दिनों में रात को जून लगी होती थी। हम अपने घर के आंगन में चारपाई ड़ालकर सोते थे। चांदनी रात में सिलड़पाख की छटो देखने लायक होती थी। आसमान में  चाॅंदनी और सामने पहाड़ पर चकोर की टोलियों का मधुर संगीत मन को आड़ोलित कर देता था। नीये मधुर स्वर में बहती क्यंूपणी रौल का गधेरा मानो स्वर्ग यहीं मेरे घर के आंगन में उतर आ गया हो। कभी कभी रात को बाघ के घूरने की आवाज भी सुनाई देती थी। बहुत ही रमणीक माहौल हुआ करता था तब। पूरे गांव मंे हर चैक में कोई न कोई बाहर खाट लगाकर सोते थे।
रात से याद आया एक बार जब मैं बारहवीं में पढ़ता था मेरे चचेरे भाई राम प्रसाद ध्यानी गांव में रहते थे उनका घर सब घरों से अलग पहाड़ी पर था। अक्सर मैं उनके साथ रामलीला की रिहरसल के लिए हमारे गांव से मात्र तीन या चार किलोमीटर दूर मुस्याखांद जाता था। रात को  हम अपने गांव से खाना खाकर मुस्याखांद जाते थे। अक्टूबर का समय था खेतों में मुडुवा और झंगोरा की फसल खड़ी थी। इन दिनों रीछ फसल खाने आया करता था इसलिए हम दोनों हाथ में टार्च और ड़ंडा साथ रखते थे। यह हमारा रोज का रास्ता था इसलिए किसी प्रकार की चिन्ता नही थी। लेकिन एक दिन रात में जब हम मुस्याखांद से वापस आ रहे थे यह रात का लगभग ग्यारह साढ़े ग्यारह बजे का समय होगा। तो हमें खेत में कुछ सरसराहट सुनाई दी। हम दोनों आवाज की दिशा ढूढ़ने लगे कि क्या है और कहां है। हम खुशफुसाहट कर ही रहे थे कि हमारे सामने अचानक एक काली छाया खड़ी हो गई। हमें समझते देर नही लगी कि यह रीछ ही होगा। हम जानते थे कि रीछ के लिए नीचे की ओर दौड़ना चाहिए। हमने आव देखा न ताव और दोनों नीचे खेतों में छंलाग लगाते हुए नीचे नदी के किनारे पहुॅंच गये। इस दौरान चोट लगी या नही कहां क्या हुआ कुछ पता नही हम तो बस दौड़ ही जा रहे थे। उस दिन हमने भागकर अपनी जान बचाई लेकिन उसके बाद हम जब तक रामलीला हुई तब तक रात को वहीं मुस्याखांद में रूकने लगे।
पहाड़ की रामलीलाओं का भी अपना ही मजा है। लोग दिनभर के काम काज से थककर रात होने की प्रतीक्षा करते थे। दूर-दूर से लोग रामलीला सुनने के लिए आते थे। पूरी रातभर रामलीला होती थी और सुबह रामलीला खेलने वाले पात्र रात की खुमारी निकालने के लिए स्टेज में ही लेट जाते थे। मैं राम का पाठ खेल रहा था। बारहवीं की बोर्ड़ की परीक्षा थी लेकिन पढ़ने की चिन्ता किसे यहां तो बस रामलीला ही सर पर सवार थी। बड़ा मजा आता था रामलीला देखने और खेलने में। अब पहाड़ में वेसी रामलीलायें नही होती हैं। कारण एक तो समाज का ताना-बाना काफी कमजोर पड़ चुका है। शराब पीकर हंगामा करने वालों ने पहाड़ की आबौहवा ही खराब कर दी है।
बात बरसात की कर रहा था और कहां से कहां पहुॅंच गया। पहले पहाड़ों में बरसात के दिनों में घना कोहरा और रिमझिम बारिश का अपना ही मजा था। जब हम  छोटे थे गांव में अपनी गाय-बच्छियों को जंगल ले जाया करते थे। बरसात के दिनों में जंगल से खुतड़ा और च्यूं लाते थे फिर घर में उसकी सब्जी बनती थी। जानते हो च्यूं भी दो तरह का होता है एक जहरीला और एक बिना जहर का। जहरीला च्यूं खाकर कई लोग मर चुके हैं लेकिन फिर भी लोग च्यूं खाने से बाज नही आते।
आज काफी दिनों बाद गांव में ऐसी बरसात देखी है। सच ऐसा लग रहा है कि वही चालीस साल पुराने घर में हूॅं। तब दादी, मां, पिताजी और भाई-बहनों के साथ रहता था। कितनी रौनक थी इसी घर में आज न तो दादी, मां-पिताजी रहे, बहन भाई भी अपनी-अपनी गृहस्थी में मशगूल हैं। गांव यो तो आना जाना कम ही होता है लेकिन जब भी गांव आता हॅंू सच में कभी वापस जाने का मन नही करता है। आज दशकों बाद न जाने क्यों अपने इसी पुराने घर के जिंगले से सामने खड़े सिलड़पाख को निहार रहा हूूं लेकिन उसकी रौ, रंगत भी जेसी फीकी पड़ गई है। सामने पहाड़ ऐसा लग रहा है जैसे वो मुझे प्रश्नीली निगाहों से देख रहा है। पूछ रहा है कि आ गया प्रवासी? कहां था इतने दिनो तक? मैंने तुम्हें अपनी हवा, हरियाली और पानी देकर सींचा और तुमने मुझे क्या सिला दिया? ऐसा लग रहा था कि यह घर, यहां की धरती, खेत खलिहान और पौन पंछी सब मुझसे एक ही प्रश्न कर रहे हैं कि तुमने क्या दिया हमारे उपकार के बदले में.....?
जानती हो कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने अपनी जन्मभूमि का जीते जी उद्धार नही किया, अपनी जननी, जन्मभूमि और अपनों को उपकार के बदले कुछ नही लौटाया उसका जीवन सफल नहीं होता है। और शायद मुझे भी यह धरा और मेरी माटी यही समझा रही है लेकिन मैं स्वार्थी मानव अपने ही स्वार्थ और दो दुनी चार के चक्कर में सबकुछ जान समझकर भी सही मायनों में कुछ नही कर पा रहा हूॅं। इन पहाड़ा के लिए और ना ही यहां की धरती के लिए तो क्या मेरा जीवन भी सार्थक नही होगा...? शायद। किसी ने सच ही जीवन की सार्थकता अपना पेट भरने और बाह्य साधनों के संचय में तो कदानि नही है। दूसरों के प्रति उपकार का भाव और दया का भाव होना ही चाहिए। और जिसने जन्म दिया, जिसकी माटी में हम खेल, पले बढ़े उस धरती का भी तो हम पर कुछ कर्ज है उसे लौटाने के लिए अगर हम नहीं सोचेगे तो कौन सोचेगा........?



dinesh dhyani

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कहानी/25/11/09

अनुरोध!

दिनेश ध्यानी

आज एक बार फिर अहसास हुआ कि चाहे कितना भी कर लो या कुछ भी सोच लो लेकिन कभी भी न कभी ऐसा तो लगता ही है कि हम जिनके लिए खप रहे हैं उनको हमारी शायद जरूरत ही नही है। पहले मैं ऐसा नही सोचती थी लेकिन पिछले कुछ अन्तरात से यह बात सोचने पर मजबूर करने लगी है। जानते हो क्यों?
क्यों?
क्यों कि मैं भी इंसान हूॅं और सोचने का मुझे भी हक है।
ऐसा मुझे क्यों कह रही हैं आप?
तुमने ही तो कहा था ना कि तुम ऐसा क्यों सोचती हो? तुम ऐसी हो, तुम वैसी हो....। लेकिन आज मुझे लग रहा है कि औरत चाहे कितनी भी शसक्त हो जाये लेकिन आखिर एक औरत औरत ही होती है। सुना था कि देश की प्रधानमंत्री इंदिरागांधी को भी कभी कभी एक औरत होने की मजबूरी से दो चार होना पड़ता था। तो मेरी बिसात ही क्या है। असल में औरत चाहे कुछ भी करले, कितनी भी बुलंन्दियों को छू ले लेकिन पुरूष प्रधान समाज की सोच और नजरिया बदलने वाला नही है।
आप ये सुबह सुबह मुझे क्यों ऐसा कह रही हैं? मैने तो आपके लिए कुछ नही कहा फिर भी अगर कुछ गलत कह गया होगा तो उसके लिए माफी मांगता हूॅं।
तुम्हारे पास माफी मांगने के अलावा कुछ काम भी हो। जब देखो माफी दे दो, माफ कर दो,  तुम गलती करते हो फर माफी भी मांगते रहते  हो और फिर गलती करते रहते हो। अब तो हद ही हो गई तुमसे अगर किसी की भी बात करूं तो तुम फट से अपने पर ले लेते हो और उस पर अपनी राय या अपने से जोड़कर उसका पोस्टमार्टम करने बैठ जाते हो। तुमसे जब से जान पहचान हुई है तब से हमेशा तुम्हें माफी का कटोरा हाथ में लेकर घूमते ही पाया है। बातों को संजीदगी से समझने की कोशिश किया करो।
तुमसे बातों में  शायद ही कभी कुछ मैंने गलत कहा होगा, या कुछ ऐसा किया हातेा जो शायद मेरे उसूलों के खिलाफ रहा होगा और उसी समय मैंने उसके लिए माफी भी मांग ली होगी। लेकिन तुम्हारी तो आदत सी बन गई है।
फिर सुनाने लगीं ना आप....? मैंने इसलिए फोन थोड़े ही किया था?
क्या करूं तुम बात ही ऐसी करते हो कि बिना सुनाये नही रहा जाता। अच्छा बताओ फिर किस लिए किया था?
मैं तो यह पूछ रहा था कि क्या कल आप भी आ रही हैं?
क्यों क्या मेरा आना जरूरी है?
सवाल जरूरी का नही।
तो फिर क्यों पूछ रहे हो?
यों ही.., सोचा अगर आप आतीं तो मुलाकात हो जाती। आपसे मिले काफी अरसा हो गया है।
एक अरसा कितना होता है?
आप ऐसा क्यों पूछ रही हो?
तुम ही तो कह रहे हो कि एक अरसा हो गया है। अभी पिछले महीने तो मिले थे। याद है ना?
हाॅं...।
एक बात कहूं? तुम इस प्रकार से अधीर क्यों हो जाते हो? वैसे आदमी तो तुम बहुत ही सीधे और नेक हो लेकिन कभी कभी तुम पर शक होने लगता है। तुमसे मैंने पहले भी कहा था कि सोचने, चाहने और हकीकत में जमीन आसमान का अन्तर होता है। तुम इस प्रकार की जिद और बातें करते हो कि तुम अभी बच्चे होंगे। अगर नहीं मिलूंगी तुम से तो क्या हो जायेगा?
नहीं ऐसी बात नही है।
तो फिर?
ऐसे ही।
तुमसे पहले भी कहा था ना कि इस प्रकार की गोल मोल बातें मुझसे मत किया करो। जो भी कहना हो सीधे कहा करो। एक तरफ कहते हो कि आजातीं तो अच्छा होता, मुलाकात हो जाती और दूसरी तरफ कहते हो कि नहीं कुछ नही ऐसे ही...। तुम क्या हो? कैसे इंसान हो। जानते हो ना हमारी और तुम्हारी उम्र और दायित्व?
जी।
तो फिर इस प्रकार की बातें क्यों करते हो?
कैसी?
हे! भगवान तुमसे तो बहस करना ही बेकार है।
मत करो लेकिन मैं जो कह रहा हूं उसे आप ध्यान से सुनो।
हां कहो।
मैं आपसे जानना चाहता हूं कि क्या आपके दिल मेें भी मेरे लिए औरों से अलग कुछ है या औरों की तरह ही मैं भी आपकी नजर में आम हंू?
मतलब?
मलतब मैं तो आपको अपना आईड़ल मानता हूं आपको एक आदर्श मानता हूं। और दिल से आपका सम्मान करता हूूं लेकिन मैं जानना चाहता हूूं कि आप क्या सोचती हैं?
तुमने मेरे बारे में अपनी राये बना ली है ना। यही क्या कम है? मेरी राय जानकर क्या करोगे? अगर मैंने कहा कि मैं तुमको एक आम आदमी की तरह मानती हूॅं तो?
तो फिर कुछ नहीं कहूंगा। जानती हैं किसी से भी यदि अपनापन या कोई नेह आदि की बातें हो तो इसमें समझौता नही होता है। या किसी प्रकार का इस हाथ दे उस हाथ ले की बातें नही होतीं। कम से कम मैं तो ऐसा नही करता हूूं। आपसे मिलने के बाद जैसा कि पहले भी बताया था कि कुछ अलग सा अहसास हुआ था उसी बिना पर मैं आपको शायद कुछ अधिक की भावुक होकर चाहने लगा हूं।
चाहने लगा हूं...। कितना आसान है यह कहना हैं ना। पुरूष हो ना इसलिए अपनी राय बनाकर दूसरों पर थोपने के आदी हो। तुम्हें दूसरों की भावनाओं और चाहतों की परवाह ही कब रही? मनु से लेकर मनमोहन तक सभी तो अपने ही सुख की कामना करते रहें हैं फिर तुम्हें अकेले दोष तो नहीं दूंगी लेकिन इतना जरूरी कहूंगी कि स्वपलोक से उतर कर हकीकत की कसौटी पर अगर हर बात और अनुरोध को देखोगे तो किसी प्रकार की शंका या किसी प्रकार का दुःख नही होगा। रही बात मेरी राय की तो मैं तुम्हें पहले की तरह अच्छा और भला इंसान मानती हूं। यह भी कहती हूूं कि तुम वो इंसान हो जो आज के इस दौर में बहुत कम मिलते हैं। लेकिन मेरे बारे में जब तुम सोचते हो तो लगता है कि तुम खुदगर्ज बन जाते हो। कभी खुद को मेरी जगह रखकर सोचना तुम्हें उत्तर खुद ब खुद मिल जायेगा। हां एक बात जरूर कहूंगी कि तुम आदमी हो बड़े ही सीधे और हुनर वाले अपना समय अपने हुनर को दिया करो इस प्रकार की फालतू बातों में वक्त जाया मत किया करो।
फिर आप सुनाने लगीं? मैंने तो आपसे एक निवेदन किया था पिछले दिनों आपसे कहा था कि उस पर सकारात्मक जवाब दीजिएगा। लेकिन आप हैं कि....।
हां कहो, रूक क्यों गये?
नहीं आज जानती हैं अब नही दुहराउंगा। आपसे यही निवेदन है कि बस हमारी दोस्ती यों ही बनीं रहें बस।
तुम भी ना फिर वहीं आकर अपनी बात को सुना भी देते हो और अपनी इच्छा को दूसरे पर थोपने का निरर्थक प्रयास भी कर जाते हों।
थोप देता हंू? क्या आपको भी ऐसा लगता है?
क्यों क्या मैं इंसान नही हूूं?
मैने ऐसा तो नहीं कहा। आप तो बहुत अच्छी हो और मेरे लिए तो खासकर सबसे अच्छी।
तुम फिर शुरू हो गये।
अच्छा चलिये अब नही कहता लेकिन मेरे निवेदन पर संजीदगी से विचार कीजिएगा प्लीज!।




















dinesh dhyani

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अपनी बोली-भाषा पर नाज होना चाहिए।
दिनेश ध्यानी- 26/11/09--12.30 pm.
गढ़वाली एवं कुमांउनी बोलियों की स्थिति आज वह वास्तव में विचारणीय है। असल में जो मैं समझ पाया हूं, हम पहाड़ के लोग विगत दस वर्षों के पहले तो अपने को गढ़वाली या कुमाउंनी कहलाने में संकोच महसूस करते थे उसके पीछे कई कारक थे। हमारी सामाजिक पृष्ठभूमि एवं रोजगार का स्तर आदि....आदि। यही कारण हैं कि जो लोग पहाड़ी परिवेश से निकले धीरे-धीरे वे स्वयं को अपनी बोलियों से अलग-थलग करते चले गये, जानते समझते हुए भी अपने को अलग दिखाने लालसा ने भी कहीं न कहीं उक्त बोलियों को हानि पहुंचाई है। जब पहाड़ से निकले लोग जिन्हौंने कोदा, झंगोरा एवे जौ का कभी न कभी स्वाद चखा होगा, कभी न कभी उन बोलियों में संवाद किया होगा जब वे ही इन्हें बोलने में संकोच करने लगे, तो उनकी आने वाली पीढ़ियों से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि इन बोलियों में बात करें या इन्हें सीखें। हम लोग ऐसे परिवेश से आते हैं जहां अधिकांश गांवों मंे आज भी मूलभूत सुविधायें एवं स्तरीय पाठशालायें नहीं हैं। जीवन में आगे बढ़ने के लिए बेसिक बुनियादी सुविधाओं के आभाव के कारण आज भी हमारा बहुसंख्यक समाज काफी पीछे है। यही कारण रहे हैं कि हमें अपनी बोली एवं भाषा के प्रति अनुराग नही रहा। जिन लोगों ने अपने बूते उन्नति की या तो वे अपने समाज और परिवेश से कटते चले गये या जानबूझकर अपने को अलग थलग करते चले गये।
एक और कारण भी है कि गढ़वाली एवं कुमांउनी बोलियां कम से कम आज तो किसी भी प्रकार से रोजगारपरक बोलियां या भाषा नहीं हैं। अगर आज उत्तराखण्ड सरकार यह नीति लागू करदे कि उत्तराखण्ड में रोजगार उसी को मिलेगा जो यहां की बोलियों या भाषा को जानता होगा तो फिर देखेंगे कि गढ़वाली एवं कुमांउनी के नाम पर नाक भौं सिकोड़ने वाले कहां खड़े होंगे। यहां किसी पर थोपने की बात नही है यह नीति बन सकती है। कहा भी जाता है कि आवश्यकता अविष्कार की जननी है।
   किसी भी बोली या भाषा को किसी पर थोपा नही जाना चाहिए। गढ़वाली या कुमाउंनी बोलने वालों की संख्या दिनों दिन घटती जा रही है। यह बहुत ही चिन्तनीय विषय है। एक भाषागत सर्वे के अनुसार आने वाले बीस से पच्चीस सालों में विश्व की दर्जनों बालियां व भाषायें समाप्त हो जायेंगी उनमें गढ़वाली एवं कुमाउंनी भी हैं।
   यह भी कहा जाता है कि गढ़वाली या कुमांउनी भाषा की क्या आवश्यकता है? तो इस बारे में मैं तो सिर्फ इतना निवेदन चाहूंगा कि सवाल जरूरत या आवश्यकता का नही, सवाल है उत्तराखण्ड की सभ्यता एवं संस्कृति के संरक्षण की। और जब हम सभ्यता की बात करते हैं तो फिर उसमें वहां की बोलियां एवं भाषा भी समाहित होती है। जरूरत है या नही यह हम सब अपनी अपनी सुविधानुसार देखने कहने के लिए आजाद हैं लेकिन बहुसंख्यक समाज एवं अपनी पौराणिक सभ्यता पर तो सभी को गर्व होना ही चाहिए। अपनी मातृ भाषा या बोली में बात करने से कोई छोटा नही होता है। लेकिन हमारे कई लोगों की यह गंथि शायद अभी भी नही छूटी है। अगर कहीं हमारा थोड़ा सा नाम हो जाये या हम कहीं अच्छे पद या रोजगार कर लेते हैं तो हम देहरादून और नैनीताल से आगे का अपने को बताने में सरेराह शर्म महसूस करते हैं। हमें जब कोई पूछता है तो हमारे कई लोग अपने मूल स्थान, जिले का नाम न बताकर उक्त दोनों विश्वविख्यात पर्यटक स्थलों तक ही अपनी जड़ों को समेट देते हैं। इसी प्रकार कुंठा अपनी बोली और भाषा को लेकर भी है। जब कि हमें अपनी बोलियों एवं भाषा पर गर्व होना चाहिए। क्योंकि यह हमारी मातृ बोलियां हैं। हमारे पूर्वजों की बोलियां है। आज इन दोनों बोलियों में काफी साहित्य छप रहा है। गढ़वाली एवं कुमांउनी के कई विद्वान लेखक एवं साहित्यकार हुए हैं। इन बोलियों का साहित्य पढ़ा जाना चाहिए। जो कि नही हो रहा है। हमारे अधिसंख्य लोगों ने नाच और गाने को ही साहित्य एवं संस्कृति मान लिया है इसलिए आज जहां भी देखने में आता है नाच और गाना ही अधिक हो रहा है। गंभीर विषयों पर विचार गोष्ठी एवं चिन्तन कम ही दिखता है।
   हम पहाड़ के लोग चाहे दुनियां में कहीं भी चलें जायें या कोई भी मुकाम हासिल क्यों न कर लें, लेकिन हमारी जड़ें रहेंगी तो पहाड़ में ही। हमारा मूल यहीं था और रहेगा। इसलिए भाषा या बोली को किसी प्रकार से हल्का या क्या जरूरत है? किसी पर थोपी नही जानी चाहिए आदि के आधार पर हल्के से टाला नही जा सकता है। भारत लोकतांत्रिक देश है यहां कोई भी भाषा बोलिये किसी पर प्रतिबंध अभी तक तो नहीं था, हां अब कुछ हलकों में अतिवादी लोग इस प्रकार की ओछी हरकतें अपनी राजनीति चमकाने के लिए करने लगें हैं।
अतः हमारा निवेदन सिर्फ इतना है कि हम अपने पहाड़ की बोलियों पर शर्म न करके उन पर गर्व करें, उनकें संरक्षण एवं उनको भाषा का दर्जा दिलाने के लिए प्रयास करें। विश्व में हम कहीं भी हों लेकिन अपनी माटी और अपनी थाती के लिए जो भी सकारात्मक बन सकता है करें। भाषा का मामला बोर करने वाला जरूरी लगता है लेकिन इसके मर्म को छूकर अगर देखेंगे तो हमें अपना अक्ष इसमें दिखेगा और हमें स्वयं लगेगा कि हम आज तक अपनी बोली एवं भाषा से दूर क्यों रहे। अब तक जो हो गया उसे जाने दें लेकिन जब हम हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू एवं अन्य अनेक भाषाओं को बोल सीख सकते हैं तो फिर अपने पूर्वजों की ही सही गढ़वाली एंव कुमाउनंी के नाम पर इस तरह से अपने को किनारे खड़ा करके हम न तो उक्त बोलियों के साथ और न ही अपने साथ न्याय कर पायेंगे। भाषा का विशदता को देखते हुए हमें पूर्वाग्रहों को छोड़कर ईमानदारी से विचार करना चाहिए एवं जिससे जो बन पड़ता है सकारात्मक करें अन्यथा बिना वजह किसी बात या विचार को सिरे से नकारना शायद उचित न हो। खासकर भाषा जैसे संवेदनशील विषय पर अपने आप को आप तटस्थ तो रख सकते हैं लेकिन उसके अस्तित्व को सिरे से खरिज नहीं किया सकता है।
   आशा ही नहीं अपितु विश्वास भी है आप जैसे सुधी विद्वानों एवं मनीषियों के सहयोग एवं सकारात्मक पहल से उक्त दोनों बोलियां लुप्त होने बचेंगी एवं भविष्य में भाषा का दर्जा हासिल करेंगी।

dinesh dhyani

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स्थानः दिल्ली
दिनाॅंकः 27/11/2009                                                  
सेवा में,
                                     
श्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ जी,
माननीय मुख्यमंत्री, उत्तराखण्ड सरकार,
मुख्य मंत्री निवास,
देहरादून (उत्तराखण्ड)

विषय: गढ़वाली एवं कुमांउनी बोलियों को भाषा का दर्जा दिलाये जाने एवं उनके संरक्षण एवं पोषण हेतु उत्तराखण्ड भाषा परिषद के गठन का अनुरोध।

महोदय,
देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अधिकतर राज्यों का भाषाई आधार पर गठन किया गया था ऐसा माना जाता है कि अगर उस समय उत्तराखण्ड की कोई अपनी भाषा होती तो उत्तराखण्ड राज्य का गठन भी तब हो चुका होता। वर्तमान में गढ़वाली एवं कुमांउनी दोनों बोलियों को भाषा का दर्जा दिये जाने की परम आवश्यकता है। वेसे तो उत्तराखण्ड बनने के बाद ही इस प्रकार की प्रक्रिया शुरू हो जानी चाहिए थी एवं आज तक उत्तराखण्ड की अपनी भाषा अस्तित्व में आजानी चाहिए थी लेकिन हमारी सरकारों एवं साहित्यकारां व भाषविदों की उदासीनता के कारण ऐसा समय से नही हो पाया।
आज भी उत्तराखण्ड की जनता के सामने जो मुद्दे राज्य गठन से पहले मौजूद थे वहीं मुद्दे आज भी हैं आम जनजीवन में शायद ही कुछ परिवर्तन आया हो। भाषा-संस्कृति के मामले मंे तो स्थिति अत्यन्त दयनीय हो चली है। साहित्यकार लिखने के साथ ही अपनी पांडुलिपि को छपाने से लेकर बाजार में पाठक तक पहुंचाने के लिए स्वयं ही परेशान रहता है लेकिन उसे किसी प्रकार का सहयोग या संरक्षण नही मिल पाता है। सरकारी स्तर भी कुछ सकारात्मक पहल उत्तराखण्ड की भाषा एवं संस्कृति के संरक्षण के लिए दिखाई नही दे रही है।
महोदय आप एक प्रतिष्ठित साहित्यकार एवं मूर्धन्य विद्वान हैं आप आम जन एवं की पीड़ा एवं संस्कृति एवं भाषा के दर्द को जानते हैं इसलिए आपसे अपने समाज की बात कहने में जितनी सहजता एवं अपनापन हमें लगता है उतना ही हमारा विश्वास पक्का हो जाता है कि आप जैसे व्यक्ति के कार्यकाल में गढ़वाली एवं कुमांउनी बोलियों का संरक्षण एवं उनको भाषा का दर्जा दिलाये जाने के लिए उचित प्रयास होंगे एवं यह आपके नेतृत्व में एक एतिहासिक कार्य होगा।
1.   अतः आपसे सादर निवेदन करते हैं कि गढ़वाली एवं कुमाउंनी के साहित्यकारों को सरकारी स्तर पर संरक्षण दिया जाए। गढ़वाली एवं कुमांउनी की पांडुलिपियांे जिनका प्रकाशन अभी तक नही हो पाया है यथा गढ़वाली एवं कुमांउनी के शब्दकोश एवं अन्य दुर्लभ पांडुलिपियों को सरकार प्रकाशित करें।
2.   गढ़वाली एवं कुमांउनी बोलियों को भाषा का दर्जा दिलाये जाने के लिए पहल की जाए। तथा उत्तराखण्ड में भाषा परिषद का गठन किया जाए। इस हेतु विद्वान एवं इस दिशा में कार्यरत सुधी लोगों का सहयोग सरकार ले सकती है।
3.   गढ़वाली एवं कुमांउनी को बेसिक कक्षाओं से पाठ्य पुस्तकों में कोर्स में लागू एवं अनिवार्य विषय के रूप में शुरू करवाया जाए।
4.   समय-समय पर सरकारी स्तर पर उक्त दोनों बोलियों को समृद्ध एवं आम आदमी की भाषा बनाने के लिए कार्यशालाओं एवं विचार गोष्ठियों का आयोजन किया जाए।
5.   राज्य एवं केन्द्र स्तर पर उक्त दोनों बोलियों को भाषा का दर्जा दिये जाने के लिए वे सभी प्रयास किये जायें जिसके माध्यम से किसी भी भाषा को संविधान की आठवीं सूची में स्थान दिलाया जा सकता है।
महोदय हमें आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि आपके कुशल नेतृत्व एवं निर्देशन में गढ़वाली एवं कुमांउनी बोलियों को भाषा का दर्जा दिलाये जाने एवं राज्य में भाषा परिषद का गठन शीघ्र ही किया जायेगा। इस दिशा में जितनी शीघ्रता से प्रयास किये जायेंगे वे साहित्य एवं समाज के लिए उपयोगी होंगे।
सादर,
भवदीय

;दिनेश ध्यानीद्ध
महासचिव
उत्तराखण्ड लोक मंच, दिल्ली



dinesh dhyani

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मिलोगी तो.....

दिनेश ध्यानी

मिलोगी तो मिलन होगा
कहोगी तो कथन होगा
सहोगी तो तपन होगा
ड़रोगी तो दहन होगा।

चलोगी तो चलन होगा
रूकोगी तो बहम होगा
बहोगी तो बहारों को
तेरे होने का दम होगा।

हंसोगी तो चमन होगा
करोगी तो अमन होगा
जो तू कुर्वान हो जाए
तुझे सबका नमन होगा।

तेरी हस्ती से बढ़कर क्या?
कि तुझे बढ़के है भी क्या?
तू है धरती तेरे अम्बर
कि सब तुझ पे फिदा होगा।

कि हम क्या तुझसे कह पायें
तेरी नजरों में टिक पायें
वहम था जो निगाहें नाज
तुझसे हम मिला पाये।

तुझे देखा तो कुदरत पर
हमें अहसाने मन आया
जिसे हम ढूंढ़ते फिरते
उसे तुझमें समा ड़ाला।

तू मन्नत है बहारों की
तु अरदासे मुहब्बत है
तेरी फिदरत तेरा जज्बा
हमारी जान भी तू है।



dinesh dhyani

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Jaya Prakash Dabral - A Social & Environmental Activist

 
Jaya Prakash Dabral left a cushy corporate job to do what his heart wanted. Armed with an MBA from FMS, University of Delhi and several other postgraduate qualifications Dabral decided to work for the people and environment of Uttarakhand.

Jaya Prakash Dabral originally hails from village Syalna, Dabralsiun Patti, Dwarikhal Block, Pauir Garhwal.

His father Sh. Kali Prasad Dabral retired as an Attache in Ministry of External Affairs. He was the best sportsman of Lucknow University for three years in a row from 1939 to 1942 and was a national level hockey player. He was actively involved in the freedom movement and used to write literature for the underground movement of Pt. Madan Mohan Upadhyay. Before joining government service he was the editor of ‘Awaaz’ newspaper which was published by the Kasturba trust. He was an active social worker and was instrumental in recovering hundreds of abducted women from Pakistan. Because of his close association with Mridula Sarabhai he was associated actively associated in refugee welfare. He has written several books.

J. P. Dabral’s Grandfather Pt. Mukund Ram Dabral was elected as the best sarpanch of UP in 1952. Pt. Mukund Ram worked as a stenographer with the Governor of United Provinces and was instrumental in giving jobs to several Garhwalis in the Secretariat in Lucknow and other government offices.

Jaya Prakash Dabral’s mother, late Sushila Devi was a very pious housewife. She was the daughter of Shri Prayag Dutt Dhasmana of village Toli near Dudharikhal who was better known as ‘Lakhpatiji’ because he had won the Derby race in England. His younger brother who was popularly known as Swami Rama was a great saint and social worker.

Jaya Prakash Dabral’s aim is to bring social change through public interest litigation (PIL), people’s initiatives and knowledge based activism. His initiative can be replicated in all mountain and forest regions.

When he saw reckless cutting of trees for construction of a transmission line he decided to make a comprehensive guideline for construction of transmission lines in the hills and forest areas. This was essential because in Uttarakhand 66 dam site have been identified for which at least 132 transmission lines would be constructed. In the SAARC region over 200 dam sites have been identified. For one project, the Tehri Dam transmission line, the government gave sanction to fell 90000 trees. Most of them between 150 to 200 years old. He thought this was criminal. What would happen to the Himalayas if the pristine forests would have a transmission line passing through every 3 or 4 kilometres? This destruction of forests and wildlife - can be avoided.

In the Tehri Dam transmission line a people’s agitation followed. Politicians and bureaucrats refused to listen. The forest mafia started flexing its muscles. Dabral’s supporters weaned away. Threats, graft and petty contracts undid the people’s agitation. After studying international experiences of transmission systems he filed a PIL in Supreme Court of India, in-person i.e. without the services of an advocate. There are several issues about the technologies, environment, project management and compensation in our petition. Already the tree felling has been reduced from 90000 to 12000. Other issues have yet to be decided.

He soon realised that the timber lobby (bureaucratic-politician-criminal nexus) was getting sanctions for cutting trees in various pretexts. He started targeting them.

He has filed a PIL to save damage to pine trees due to excessive resin tapping which eventually led to the felling of the tree.

In another of his PILs advocating for step to introduce eco-friendly road construction in hills, notice has been sent to the government. The practise to roll the excavated earth down the hill slopes resulting to irreparable environmental damage has to stop. This also allows the forest mafia to cut trees below the road level because eventually everything gets flattened by the rolling boulders. He intends to change this practise.

He also filed a PIL to prevent deaths of elephants which have increased in the last 7 years and to restore their migration routes from the Yamuna River to Nepal. He wants development projects to be made wildlife friendly.

Another PIL relates to conserving trees and the environment in the unique micro- eco-system of Tarakeshwar in the Central Himalayas. Here the government has agreed that it will not disturb the environment of Tarakeshwar and will not fell or remove any tree from its forest. He now proposes to provide special protection status to unique micro eco-systems in the Himalayan region.

He has chosen the Public Interest Litigation route to bring results. Trying to convince the bureaucracy or politicians is not only time consuming and expensive but very uncertain. The court orders become law. Even though it means confrontation with the bureaucracy results are more certain.

The impact of his initiative has been far reaching. In the Tehri Dam transmission line case he has saved 85 % of the 150-200 year old 90000 trees from felling. When Supreme Court gives its final order it will become a guideline for construction of transmission lines in hilly and forest areas. Issues regarding hilly appropriate and eco-friendly technologies, compensation to marginal farmers for their damage to land, location of compensatory afforestation, method of calculation of compensation etc. will be decided.

In the PIL to save trees from resin tapping the immediate impact has been that now the blaze size (cut on the trees) for resin tapping has been reduced to 15”X12” whereas earlier we had instances of 24 ft. X 15” cuts. This will drastically reduce the damage to the pine trees. After filing the PIL relating to elephant deaths and poaching, there has been a 50% reduction in the deaths of elephants.

In the PIL to save deodar trees in Tarakeshwar the forest department has not filed any reply and have assured him that they would not cut or remove even the dry and fallen trees from Tarakeshwar.

Not only does he work for a sustainable environment but it also shows that ordinary people can make laws too. He shows how democratic institutions can empower people instead of making them feel helpless. He shows that knowledge based activism can bring social change.

The uniqueness of Dabral is that unlike many environmentalists he is not anti-development. He believes that water, roads, electricity etc. are essential for all communities. He only wants the use of the appropriate technology for hilly and forest areas and eco-friendly practises to be adopted. He wants minimal delay in development projects which is possible by taking the community into confidence. He also wants that compensation to the affected persons must be appropriate and that the standards which are adopted in the plains need not necessarily be applied in the hills because they may fall short of being adequate. Cutting of trees and wildlife elimination have close ecological repercussions on the community. These directly impact water run off, ecological imbalances, adverse climatic condition. His actions show that the benefit of science and technology must reach people.
Being professionally qualified, having worked in leading corporate houses like DCM, Hindustan Lever and ITC, Dabral could have enjoyed the luxuries of corporate life. He chose to work for people’s causes. Very few like him can be found.

His approach to bring a balance between development and environment sustainability sets out new parameters for cooperation. His work shows how measures can be standardised to protect and manage the environment especially in context with the development needs of the region.

A committed Uttarakhandi, Dabral actively participated and lead over a hundred demonstrations and rallies during the Uttarakhand Movement. He also participated in throwing of leaflets and shouting slogans from the visitor’s gallery of Lok Sabha in which two of his fellow activists were arrested.

All those who would like to receive information of his ongoing activities or participate in them can contact him through E-Mail at jp_dabral@indiatimes.com , Tele : 98-6827-7171, Web Site : www.himalayanchipkofoundation.comwww.tarakeshwar.com


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dinesh dhyani

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कहानी
मेरा भगवान
दिनेश ध्यानी

एक गांव में एक गरीब परिवार था। परिवार का मुखिया बहुत ही धार्मिक था। हमेशा वह बिना पूजा किये न तो खाता था और न ही रात तो बिना भगवान या अपने आराध्य के नाम लिये बिना पलंग पर नही जाता था। अक्सर जब खेती का काम अधिक होता तो उसकी पत्नी उसे कहती कि तुम जल्दी से खेत में जाया करोए काम होता नही और यहां बैठ जाते हो पूजा करने। भगवान है लेकिन अगर भगवान को हमारी फिकर होती तो फिर हमें इतना
गरीब क्यों बनाताघ् अब तो हमारी सुनता।
किसान अपनी पत्नी को समझाता कि भगवान तो सबकी सुनते हैं। तुम तो पागल हो जो बिना वजह ऐसा कहकर पाप कमा रही हो। अरी भगवान राजी रहेंगे ना तभी हमारी सांसे चलेंगी और उनके ही इशारों पर पूरी दुनियां चल रही है। तुम्हारी और मेरी तो बिसात ही क्या है।
एक दिन सुबह.सुबह जोरों से बारीश हुईए किसान ने खेत में धान की फसल काटकर रखी थी। उसकी पत्नी ने उसे जगाया और कहा कि बारिश में पूरा धान बह जायेगा इसलिए फटाफट रोटी खाओ और खेत की ओर हो लो।
किसान अपने नित्यक्रम से निपटाए नहाया धोया और पहले पूजा करने लगा।उसकी पत्नी ने कहा कि तुम यहां फिर समय बेकार करने बैठ गये होघ् जाते क्यों नही खेत में। तुम्हारा भगवान थोड़े ही बचायेगा हमारे धान की फसल को।
किसान चुपचाप पूजा करता रहा। पूजा होने के बाद वह अपनी पत्नी से बोला।
तुम हमेशा ही अपना मुंह खराब करती रहती हो। मुझे तो जो कहो तुम पर किसका बस चलता है लेकिन भगवान को तो मत कोसो।
तुम हमेशा काम के वक्त पूजा करने बैठ जाते हो। खेत में कौन काम करेगाघ् फसल चैपट हुए जा रही है और तुम हो कि यहां बैठकर आसन लगाये हो। अगर ऐसा ही रहना था तो फिर जोगी बन जातेए गृहस्थी करने की क्या जरूरत थी।
किसान ने कहा अरी भागवान तुम तो किसी की बात मानोगी नही। मेरा भगवान जो भी करेगा ठीक ही करेगा। मुझे उस पर विश्वास है और यही विश्वास मुझे बल देता है। मेरा भगवान ही है जो मुझे चला रहा है अन्यथा मैं या तू या कोई भी बिना उसकी मर्जी के कैसे चल पायेगा।
जैसे ही किसान पूजा करके उठाए उसने देखा कि बाहर बादल छंटने लगे हैं और आसमान साफ हो रहा है। बारिश भी रूक गई है। किसान चुपके से उठा और खेत की ओर चल पड़ा।
उसकी पत्नी सोचने लगी कि हो न हो भगवान ने हमारी सुन ली हो। तभी अचानक गर्जन.तर्जन करती बारिश रूक गई।
वह सोचने लगी कि भगवान सच में दयालू होते हैं। उसे भगवान से जो विरक्ति थी अब उसे आसक्ति होने लगी। उसके मुंह से अनायास ही वे वाक्य निकल पड़े जो अभी कुछ समय पहले उसके पति ने कहे थे। उसने कहा था कि
मेरा भगवान जो भी करेगा सही करेगा। मुझे अपने भगवान पर विश्वास है बस। दुनियां में विश्वास से बढ़कर कुछ भी नही  होता है इसीलिए मैं भी अपने भगवान पर विश्वास करता हॅूं कि वह जो भी करेगा ठीक ही करेगा। भगवान की ही कृपा से तो जिन्दगी में कुछ ऐसे पल आते हैं कि जिन्हें भुलाया नही जा सकता है। जो अनजाने ही हमारे जीवन का हिस्सा बन जाते हैं और हमारी जीवनधारा को मोड़ देते हैं। वे सब नही होते
हैं और हर किसी को नसीब भी नही होते ऐसे लोग और ऐसे पल। सच कह रहा हॅंू मेरा भगवान भी बहुत ही दयालू है और वो जो भी करेगा ठीक ही करेगाण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्क्योंण्ण्ण्घ्





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जीवन सरिता
दिनेश ध्यानी- 4/12/09

जिन्दगी!
जीवन मेरा सरिता सम
हौले-हौले से जीवनपथ में
बढ़ती जाता अन्तहीन
अस्तित्व विहीन।

नव अंकुर, किसलय
योवन नवागन्तुक कोलाहल
कई अनुभवों से दो चार कराती
कुछ अपने कुछ रह जाते खालिस
सपने।

नियति, नियामक अरू होनी के
कालचक्र के पहियों पर
अपने जीवन का भार टिकाकर
चला जा रहा बस यों ही।

नीति, नियम अरू नीति नियामक
सब बेकार हो चुके एक फलक से
नहीं किसी पर रहा भरोसा
खुद को ही था तब कोसा।

बाहर कौतूहल, कोलाहल
लेकिन अन्तस गटक रहा था
मैं अनचाहा ये कैसा हलाहल?
अनचाही राहों पर बढ़ता निसःफल।

योवन की क्यारी में कुछ मैंने
कुसुम संभाले सोचा था
एक दिन अपना सा माली होगा
उसको सौंपूंगा तब धन्य भाव से।

लेकिन नियति और ही खेल संजोये
मेरे अन्तस की तृष्णा को जस का तस ही
अधकचरा सा सत्य घटित
हो बैठा यह कैसा जीवन में।

अहा! ये कैसी प्रभो वेदना सौंपी मुझको
मैंने लोगों को कहते देखा था
जीवन रंग जाता है अपनेपन से सराबोर
हो सार तत्व जब मिल जाता है एक दूजे में।

शायद मैं भावों को समझ न पाया
शायद मैंने अपने ही ढ़ंग से गणित लगाया
चलो पुनः शुरू करता हूॅं
नये सिरे से जीवन शायद कुछ मिल जाये।

लेकिन फिर भी निसःफल रहा
नही कहीं भी आशाओं का अंकुर फूटा
क्या कभी किसी सूखे पत्थर को रोते देखा है
फिर मैं क्यों आस लगाये बैठा हूं?

लेकिन फिर एक दिन तुमसे जो
चक्षु मिले तो लगा कि जैसे लाखों सुमन
मनोहर मन में कौंध गये
तुम सच तुम मेरी आॅंखों को प्रथम बार ही जंच सी गयीं।

लेकिन तुम भी तो नही मानती
जो मैं तुमसे कहता जो आवेदन करता
तुम भी मुझको कहां समझ पाती हो
तुम भी तो अपनी ही रौ में अर्थ लगाती।

अब तो लगता यों ही भावशून्य
यों ही संज्ञाविहीन है जीवन मेरा
अब से नही किसी से नेह करूंगा
नही किसी पर अपने मन के भाव कहूंगा।

तुमसे कहा बस! तुम समझो या मत
ये तुम जानों मैं अपनी बात बताकर
खुद को अब हल्का सा समझकर
चिन्ता मुक्त हुआ अब सारी आशाओं अभिलाषाओं से।

तुम सच में ही हो एक न्यारी
शायद तुम ना समझो लेकिन सच कहता हूूं
तुमने मेरी सोई तृष्णा को झकझोरा
तुम ही हो जिसने फिर से टूटे तारों को जोड़ा।।





dinesh dhyani

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आज के दौर में मीड़िया की भूमिका
दिनेश ध्यानी
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र के चार स्तभों मंे से एक स्तंभ है मीड़िया यानि कि प्रेस। वर्तमान में जहां नई-नई तकनीक एवं मशीनों के उपयोग ने समूचे विश्व को एक गांव के रूप में तब्दील कर दिया है, वहीं मीड़िया के प्रति आम जनमन को संवेदनशील बना दिया है। आज से लगभग बीस साल पहले भारत के अधिसंख्य गांवों में न तो अखबार जाते थे, न टेलीविजन, न फोन आदि संचार के माध्यमों की प्रचुरता ही थी, लेकिन हाल ही के वर्षों में औसत भारतीय के जीवन में यदि कुछ और सकारात्मक परिवर्तन भले ही न आया हो लेकिन संचार माध्यमों ने उसके इर्दगिर्द एक मकड़जाल बना दिया है। यही कारण है कि गरीब से गरीब आदमी भी एक टेलीविजन और मोबाईल फोन साथ रखता है। आज टेलीविजन, अखबार, मोबाईल, फोन आदि संचार माध्यमों के उपयोग से सुदूर गांवो में भी लोग देशकाल की घटनाओं एवं परिपेक्ष्य से अपड़ेट रहते हैं। कहना न होगा जब लोगों में संचार माध्यमों से चेतना का सृजन हो रहा हो तो ऐसे संक्रमण काल में मीड़िया की भूमिका और बढ़ जाती है। लेकिन हाल ही के वर्षों में मीड़िया न सिर्फ अपने दायित्वों से भटका है बल्कि उसके चारित्रिक गुणों का इस हद तक क्षरण हो गया है कि कभी कभी तो ड़र सा लगने लगता है कि जो खबर हम समाचार पत्र में पढ़ रहे हैं या टेलीविजन में देख रहे हैं कहीं यह प्रालंटेड़ न हो।
दिल्ली विधानसभा के पिछले साल सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों में टीबी चैनलों एवं अखबारों के दलाल प्रत्याक्षियों के चक्कर लगाते हुए घूम रहे थे। बात हो रही थी कि अगर आपको किसी बड़े अखबार में अपनी न्यूज लगानी है और लगातार तीन दिन तक तीन न्यूज लगनी है तो आपको प्रतिदिन के दस हजार रूपये देने होंगे जिसमें आपको 1000 अखबार की प्रतियां मुफ्त दी जायेंगी। वहीं टीवी चैनल पर एक बार में तीन से लेकर पांच मिनट के इन्टरव्यू के लिए जो कि दिन में तीन बार दिखाया जायेगा उसके लिए तीस हजार से लेकर पचास हजार तक देना होगा। आप दाम चुकाईये और आप जो कहंेगे वह खबर छप जायेगी। आप जो कहना चाहेंगे चैनल वही दिखायेगा। हो सकता है इस ठेकेदारी से कुछ अच्छे चैनल अलग हों या कुछेक अखबार अलग हों लेकिन कमोवेश हालात यही हैं। असल में पेशेगत प्रतिबद्धता समाप्त सी हो गई है। आज हर कोई अखबार और चैनल चलाकर लाभ कमाना चाहता है। बहुत कम हैं जो सिद्वान्त के लिए पत्रकारिता या चैनल चला रहे हैं।
पत्रकारिता में एक शब्द था खोजी पत्रकारिता। जिसका अब लगभग लोप सा हो गया है। पहले संवादाता अपनी जान जोखिम में ड़ालकर अन्दर की खबरें लाता था। अखबार में छपी खबरों से सत्ता की चूलें तक हिल जाती थी। सरकारें अखबारों से ड़रती थीं। लेकिन हाल के वर्षों में मीड़िया और सत्ता की नजदीकी इस कदर बढ गई है कि अधिसंख्य नेता अखबारों के मालिकान हो गये हैं, चैनलों के मालिक खुद बन गये हैं। इस तरह के अखबारों या चैनलों से आप कि तरह नीति और निष्पक्षता की अपेक्षा रख सकते हैं? यही कारण है कि हाल के वर्षों में मीड़िया ने अपना वजूद खोया है।
आज देश के पैसे पर, शासन और सत्ता पर, मीड़िया एवं संचार माध्यमों पर मात्र दो प्रतिशत लोगों का कब्जा है। वे जो दिखाना चाहते हैं हमे वही देखना होगा, वे जो सुनाना चाहते हैं हमें वही सुनना होगा, वे जो सिखलाना चाहते हैं हमें वही सीखना होगा। इसका सीधा असर सामाजिक तानेबाने पर पड़ रहा है और हाल ही के वर्षों में अपराधों की जो बाढ़ आई है उसकी बढ़ोतरी में मीड़िया भी कम दोषी नही है। आज के दौर में जो समाचार और विशेष के नाम पर जो टैर्र दिखाया जा रहा है, सीरियलों के नाम पर जो अश्लीलता और अनैतिक संबधों का बखान किया जा रहा है लगता है यही आदर्श और संस्कार रह गये हैं।
आज की पीढ़ी का बताया जाता है कि भारतीय आदर्श एवं सोच पिछड़ी है। तुम्हें अगर अगड़ा बनना है तो वदन पर कम कपड़े होने चाहिए, हिन्दी एवं अपनी क्षेत्रीय बोलियों एवं भाषा के स्थान पर लच्छेदार अंगे्रजी आनी चाहिए। यही कारण है कि आज नगरों या गावों में भारतीय परिधानों का लोप सा हो गया है। संस्कारों का तिलांजलि देते हुए चोली एवं कुर्ता पैजामा, साड़ी की जगह टाप और जीन्स ने ले ली है। हम यह नही कहते हैं कि यह गलत है लेकिन मर्यादित तो पहनावा होना ही चाहिए।
अधिसंख्य पत्रकारों एवं मीड़िया वालों को इस बात का इल्म नही है कि उड़ीसा के कालाहांड़ी में भूख से बेहाल लोग अपने बच्चों को बीस रूपये के लिए बेच क्यो देते हैं? क्यों भारतीय किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। लेकिन उन्हें दिनरात इस बात की फिकर अधिक सताती है कि फलां स्टार की होने वाली बहू कौन सा सूट पहनेगी? कैसे छींकेगी? कैसे उसके बाल सैट होंगे और उसकी चप्पल कौन मोची बना रहा है। कहने का मतलब बेहूदा और बेकार की बातों को तो मिर्च मसाला लगाकर पेश करना अधिसंख्य चैनलों की दिनचर्या बन गई है। कहने का मतलब यह है कि मानवीय संवेदनाओं एवं सामाजिक जागरूकता एवं सत्य का दिखाने समझाने का जो दायित्व मीड़िया का होना चाहिए था उससे बिमुख होने से देश और समाज का अहित ही अधिक होता है।
पत्रकारिता एवं चैनलों में पारंगत अनुभवी लोगों की दखल भी हाल के वर्षों में कम होती नजर आ रही है। उक्त संस्थानों के मालिकान अपने लोगों एवं चाटुकारों के दम पर अपना व्यवसाय तो चला सकते हैं लेकिन जिस क्षेत्र में वे कार्य कर रहे हैं उससे उस क्षेत्र विशेष की मान्यतायें एवं मूल्यों का क्षरण तो होगा ही, जिसका खामियाजा उस पेशे के साथ-साथ देश व समाज को उठाना पड़ता है लेकिन प्रतिबद्वता एवं जिम्मेदारी तय न होने के कारण कई लोग अपने लाभ के लिए इस तरह के हथकण्ड़े अपनाते है। जो कि आज अधिक प्रचुरता से देखने में आ रहा है।
त्वरित लाभ एवं सस्ती लोकप्रियता के मोह से बाहर निकलकर यदि मीड़िया आज के दौर में अगर अपनी भूमिका के प्रति संवेदनशीलता दिखाता है तो उससे समाज एवं देश का लाभ होगा। समाज में जागरूकता आयेगी एवं भारतीयता व भारतीय संस्कृति, सभ्यता का प्रचार प्रसार होगा। लेकिन चन्द लाभ के लिए अगर मीड़िया अपनी भूमिका से मुहं मोड़ता है तो उसका समाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। आज के दौर में कुछेक अखबार या चैनल ही हैं जो अपनी भूमिका सही निभा रहे हैं अन्यथा अधिसंख्य मात्र अपने लाभ के लिए मूल सिद्वान्तों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। इसलिए सरकार को इस दिशा में मीड़िया के लिए कुछ मूलभूत दिशा निर्देश जारी करने चाहिए। जिम्मेदारी तय करनी चाहिए एवं जो अखबार या चैनल अपने मूलभूत सिद्वान्तों से बिमुख होता है उसकी पात्रता निरस्त करे जाने की व्यवस्था होनी चाहिए। और यह तभी होगा जब स्वयं राजनीति एवं सरकारंे अपने दायित्वों का सही निर्वहन करेंगी एवं अपने दायरे में रहकर सीमाओं व व्यवसायगत मान्यताओं का अतिक्रमण नहीं करेंगी। इससे देश और समाज को सही जानने एवं सही दिशा में विकास किये जाने का अवसर ता मिलेगा ही सही सोच और संस्कारों में भी सहयोग होगा। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में मीड़िया अपने महत्व एवं दायित्वों को समझते हुए पेशेगत कमियों को दूर करते हुए अपनी तेज धार एवं मूल्यों पर खरा उतरेगा।




 

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