Uttarakhand Updates > Articles By Esteemed Guests of Uttarakhand - विशेष आमंत्रित अतिथियों के लेख

Articles By Dr. B. L. Jalandhari - बी. एल. जालंधरी द्वारा लिखे गए लेख

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
दोस्तों,

          हम आज आप से परिचय करा रहे है येसे व्यक्तित्व से जिन्होंने ना केवल उत्तराखंड राज्य के आन्दोलन मे  सन १९८९ से  महत्वपूर्ण भूमिका निभायी बल्कि उत्तराखंड के क्षेत्रीय दोनों भाषाओँ पर शोध किया है वे हैं उत्तराखंड गढ़वाल कुमाऊ दुसांत बीरोंखाल ब्लाक के ग्राम खेतु के निवासी डॉक्टर बिहारी लाल जलंधरी !  डॉक्टर जलंधरी का जन्म २० नवम्बर १९६१ को ग्राम खेतु के ब्राह्मण परिवार में हुआ ! डॉक्टर जलंधरी के पुर्बज गंगोत्री क्षेत्र हर्षिल में हरिजी की शिला में संगम करने वाली जलंधरी नदी की घटी से आकर यहाँ बसे हैं,  ५ वर्ष की उम्र में इनके पिताजी की मृतु हो गई थी इन्हों ने कक्षा ५ तक धोंर खाल तथा कक्षा १० घोरियानाखाल, कक्षा १२ बीरोंखाल, बी.ऐ. दिली विश्व विद्यालय से, स्नातकोत्तर  राजनीती विज्ञानं में  मेरठ विश्व विद्यालय से, स्नातकोत्तर हिन्दी वर्कतुल्लाह विश्व विद्यालय भोपाल, से पास किया !  इनके द्वारा उत्तराखंड की दोनों भाषाओँ के सम्बन्ध में सन १९९६ से कार्य करना आरम्भ किया !  उत्तराखंड की जनता को जागृत करने के लिए एक समाचार पत्र  * देव भूमि की पुकार * पाक्षिक निकलना आरम्भ किया !  इसके प्रधान संपादक रहते हुए आज १४ वर्षों से यह समचार पत्र लगातार उत्तराखंड की भाषा के छेत्र  में अखिल भारतीय स्तर पर समस्त उत्तराखंडियों में जनजाग्रति फेला रहा है !  
          डॉक्टर जलंधरी ने हेमवती नन्दन गढ़वाल विश्व विद्यालय से उत्तराखंड की दोनों भाषाओँ में *गढ़वाली कुमौनी बोली का तुलनात्मक भाषा विज्ञानिक अध्ययन* विषय पर शोध किया ! सफलता पूर्ण शोध करने पर विश्व विद्यालय द्वारा उन्हें पी. एच. डी. की उपाधि से विभूषित किया ! इस शोध के आधार पर उत्तराखंड की भाषा के लिए पाच स्थानीय ध्वनि आखरों की पहिचान की गई ! इन अक्षरों का नाम *गउ आखर* रखा गया है !  इस शोध के आधार पर  दो पुस्तके  प्रकाशनाधीन हैं ! पहली *उत्तराखंड की भाषा के ध्वनि आखर* तथा  दुसरी *गढ़वाली कुमौनी भाषा का तुलनात्मक भाषा वैज्ञानिक अध्ययन*  हैं !
          डॉक्टर जलंधरी कई सामाजिक संगठनो से जुड़े हैं !  सन १९८९ में बी. आर. तमता जी के बोट क्लब पर  प्रथक उत्तराखंड राज्य अन्धोलन का आह्वान के बाद से ही उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के साथ जुड़ गए !  उसके बाद पीछे मुड़ने का नाम नहीं लिया !  उत्तराखंड के गाँधी इन्द्रमणि बडोनी जी के साथ आन्दोलन में लंबे समय तक रहने के कारन उनके आंदोलनकारी छबि की इनके चरित्र पर अनुकूल प्रभाव पड़ा !  यह उत्तराखंड क्रांति दल में कई बार केंद्रीय पदाधिकारी रहे !  उत्तराखंड क्रांति दल में सयोजक पर्वाशी पर्कोष्ठ जैसे महत्वपूर्ण पद पर कार्य करते हुए आप ने उत्तराखंड क्रांति दल की कई प्रदेशों में शाखाएँ गठित की !  
          डॉक्टर जलंधरी जिन सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हैं उनमे संग्रक्षक-उत्तराखंड भाषा संस्कृति मंच, महासचिव- ग्राम सुधर समिति खेतु दिल्ली, अध्यक्ष-तुगलकाबाद गों सुधर समिति दिल्ली, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष-अखिल भारतीय उत्तराखंड महासभा, प्रदेश मिडिया सचिव-उत्तराखंड मानवअधिकार असोसिएशन, सचिव-हेस्कुस, महासचिव-उत्तरांचल परिवार, सदस्य-उत्तराखंड लोक राज्य मंच, सदस्य-सबका पर्यास सोसाइटी आदि संस्थाओं में कार्यरत हैं !
Dr.B L Jalandhari यहाँ पर उत्तराखंड के विभिन्न विषयों पर अपना लेख इस थ्रेड में लिखिंगे ! उत्तराखंड की क्षेत्रीय भाषाओ पर उनके द्वारा किया गया कार्य अतुल्य है! Dr. B L Jalandhari  जी इस विषय पर अपना विचार यहाँ पर अपने लेखो मे व्यक्त करेंगे !

          आशा है की आप को डॉक्टर बिहारी लाल जलंधरी जी के लेख पसंद आयंगे और खासतौर से उत्तराखंड के क्षेत्रीय भाषाओ के विकास के लिए उनके द्वारा किए जा रहे प्रयास भी आपको पसंद आयेंगे !

          एम् एस मेहता  

Dr. B L Jalandhari:
भाषा का वास्तबिक रूप ध्वनि स्वर से सुर में निहित [/b]
                                                                                      डॉ. बिहारीलाल जलंधरी,

     हम क्षेत्रीय बोलियो का अध्ययन और उसकी पारस्परिक सम्मानता का तुल्नात्मत अध्ययन कर रहे हैं  किसी विशेष क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली की स्वाभाविक ध्वनियों की विभिन्नता को खोजकर उन पद्धतियों पर बिचार किया गया है जिनके आधार पर क्षेत्रीय बोलिओं की ध्वनियों की कार्यकारिता तथा परभाव व प्रयोग पर बिचार किया जा सके   क्षेत्र में प्रयोग की जनि वाली ध्वनियां ही स्वर के रूप में लय, सुर, सुर्लाहर, आरोह, अवरोह, बलाघात, आदि के रूप में प्रयोग की जाती हैं. यह सभी उस ध्वनि के गुण हैं जो अपने आप में उस क्षेत्र की पहचान समेटे हैं, ध्वनि के इन गुणों की समस्याओं को छोड़कर अपेक्षाकृत अधिक स्पस्ट अंतरों व उन गुणों पर ध्यान केंद्रित किया जाय तौ उसके उपरांत ही बोलीओं की ध्वनियों में कुछ प्रमुख अंतरों के वर्गीकरण भी किया जा सकेगा,  इससे निष्कर्ष निकला जा सकता है कि कौन सी बोली की कौन सी ध्वनि महत्वपूर्ण है, जिसका प्रयोग उस क्षेत्र में पूर्ण रूप से किया जाता है,
     प्रायः यह देखा गया है कि एक बोली में किसी ध्वनि विशेष पर प्रयोग होता है, जब कि दूसरी बोली में उस ध्वनि का अभाव होता है, इस प्रकार के अन्तर कभी तो ध्वन्यात्मक दृष्ठि से परिभाषित किए जाते हैं, वास्तव में एक ही क्षेत्र के दूसरे भाग में बोली में अनेक अंतरों की भांति यह अपेक्षा बोली की अभिनय प्रक्रिया हो सकती है, शब्द समूहों और अन्य तत्तों की भांति ध्वनियों के सम्बन्ध में बोलियाँ धीरे धीरे विघटित होती रहती हैं, तथा उनमे कुछ नयापन आता रहता है, यद्यपि यह विघटन की मात्रा अपनी चरमसीमा पर धीरे धीरे पहुँचती है, परन्तु बोली में विघटन करने वाले तत्तों को केन्द्रीय करण करने वाले प्रभाव कुछ अन्तराल में इनके विपरीत कार्य करने लगते हैं, बोलियों की यद्यपि असंख्य ध्वनियाँ होती हैं, परन्तु उन सभी ध्वनियों का अन्तर महत्वपूर्ण नहीं मना जाता, एक बोली की प्रणाली उसकी महत्वपूर्ण भेधात्मत ध्वनियों का समूह है जिसमे केवल परिवेशगत विभिन्नताओं को छोड़ दिया जाता है या एक समुदाय में वर्गीकृत कर दिया जाता है,  
     प्रश्न उठता है कि बोली के अध्ययन में ध्वनि प्रणाली की अवधारणा का क्या महत्व है वास्तव में यह विचारनीय है
     महाभाष्यकार ने सर्ब प्रथम ध्वनियों को ही स्वर के रूप में लिया है, उसके उपरांत ही ध्वनियाँ और उसके अंगों का वर्णन किया है, यहाँ मुख्य रूप से उन ध्वनियों के उन स्वरों का विवेचन किया जा रहा है जिनका रसाश्वदन के लिए उन्हें कई नामो, उपनामों से अलंकृत किया गया, जब ध्वनि के स्वरों को वासताबिक स्वर मिल जाते हैं, उस समय उनके रसाश्वदन की अपनी एक अलग ही अंत उध्वग्निता उत्पन कर देते हैं, बोलियों में यह स्वर आज भी विद्यमान हैं, जिनको स्वर के साथ मिलकर एक जड़ को चेतन बनाकर थिरकने के लिए मजबूर कर देते हैं, वर्तमान में हमें उनकी पहचान करना आवश्यक है,
     यहाँ महाभाष्यकार की एक उक्ति का विवेचन करना युक्तियुक्त है, जिसमे बोली की ध्वनियों के स्वरों का विवेचन बड़ी कुशलता से व कुशाग्र बुद्धि से किया गया है,

               स्वयं राज्यते इति स्वरः अन्तग्भवती ब्यन्जन्मिति तथा ब्यंजनानी पुनर्नट भार्यवाद,
               भवती तद्यथा नाटन् स्त्रियों रंगरतान यो य प्रच्छ्ती, कस्यां यूयम यूयमिति,
               ततं तवेत्याहू एवं ब्यन्जनान्यापी यस्य यस्यस्च कार्य मुच्यते ततं भजन्ते,

     अर्थात स्वर अपने आप में राजा है जो ब्यंजन को अपने नियम के आधार पर चलाता है, सामान्य भाषा में कहा जाय की भाषा में ब्यंजनों की दशा उस नारी के समान होती है, उसके अभिनयकाल में जो उससे पूछता है की तुम किसकी हो, वह ख़ुद ही उसे कह देती है में तुम्हारी हूँ, इसी प्रकार भाषा में जो स्वर और उसकी मात्रा जिस ब्यंजन के साथ प्रयुक्त किए जाते हैं, वह ब्यंजन उसी ध्वनि में परिवर्तित हो जाते हैं,
     यहाँ भाषा की ध्वनि तथा उसके स्वर का विवेचन किया जा रहा है, मध्य हिमालयी क्षेत्र उत्तराखंड की भाषा में भी इस शब्द को बहुत राशिक और लजीज के रूप में प्रयोग किया गया है, स्वर शब्द का अपभ्रंश रूप ही सुर है, जब ध्वनि सुर के मध्यम से प्रवर्तित हुई उससे आनंदित समुदाय ने उसे अलंकरण व उपमाएँ देना आरम्भ कर दिया कालांतर में यही सुर शब्द सुरा में परिवर्तित हो गया, किसी अति स्वादिस्ट खाध्य के रस को यहाँ सुरा कहा जाता है, वास्तबिक रूप में यह स्वर का ही उपमान है, जिसने उस क्षेत्र की बोली और उसकी ध्वनियों की रोचकता व मिठास को विलुप्त होनो से रोकने के लिए एक एसा उपमान प्रदान किया जो समाज से जीवन पर्यंत अलग नहीं किया जा सकता, यह भाषा की एक बहुत बड़ी विशेषता है जो कहीं न कहीं अपने निशान छोड़ती रहती है,
     हम वाल्यवस्था से देवनागरी के रंग में रंग कर अपनी बोली के स्वरों को आज तक नहीं पहचान पाए हैं, हमने अपनी भाषा को देवनागरी में प्रयोग कर अवस्य कामचलाऊ बना दिया परन्तु हमारी भाषा बिद्वानों के लिए अवस्य निशान छोड़ती जा रही है, उत्तराखंड की भाषा के ध्वनि अक्षरों की जो खोज हुई है, उन्हें *गों आखरों* का नाम दिया है, यही *गौं आखरों* उत्तराखंड की क्रमशः दोनों गढ़वाली कुमोनी बोलियों के साथ साथ jounsari, रवाई, भोजपुरी, magadhi, avadhi,  maithali, tirhari, vaiswari, bagheli, bundeli, kannoji, आदि बोलियों को देवनागरी लिपि के माध्यम से लिखने में पूर्ण रूप से सक्षम होंगी, देवनागरी के साथ साथ इन *गों आखरों* के जुड़ने से उत्तरी भारत में देवनागरी के माध्यम से लिखी जाने वाली भाषाई त्रुटियों का समाधान हो सकेगा,   [/b] [/color] [/size]

Dr. B L Jalandhari:
बोली में लिखे साहित्य पर संदेह क्यों
                                                                                                 डॉ. बिहारीलाल जलंधरी

          यह देखा गया है की बोली में लिखा गया साहित्य प्रायः संदेह की दृष्ठि से देखा जाता है, यह वास्तविकता से परे नहीं है की किशी भी बोलो में साहित्य लिखने वाले साहित्य कारों को प्रायः परिनिष्ठित भाषा की शिक्षा प्राप्त होती है, और वे स्वयम को उससे अप्रवाहित नहीं रख पाते, यहाँ तक देखा गया है की कभी कभी तो बोली में साहित्यकारों  का चिंतन प्रिनिश्तित भाषा में होता है, और बोली का साहित्यकार उसे बोली की ध्वनि संरचना और वातावरण के अनुसार अनूदित मात्र कर देते हैं, बोली में साहित्य की रचना करने वाले उन साहित्यकारों के शब्द समूह प्रिनिस्थित भाषा से अत्यधिक प्रभावित होता है और उससे बोली का साहित्य रचा जा रहा है उसी के आधार पर उसकी शैली, वाक्य रचना और उनकी अभिब्यक्ति भी होती है,
          यहाँ हम उत्तर भारत के म्ध्यहिमालाई बोली गढ़वाली कुमौनी की बात कर रहे हैं, क्यूँ की इन बोलियों को भाषा के दर्जा आज तक भी नहीं मिल पाया है,  यह जानने योग्य अवश्य है की किसी भी बोली का साहित्यकार अपनी बोली को भाषा के रूप में ही मानकर चलता है परन्तु जब वह साहित्य के रूप में परिणत होने की दिशा की और बढ़ता है तो उसे अन्य द्वारा अस्वीकार करते हुए बोली का साहित्य कह कर किनारे कर दिया जाता है,
          वस्तुता गढ़वाली कुमौनी भाषा के साहित्य स्वरुप के आधार पर हम यह नहीं कह सकते की जनता में प्रस्तावित इन बोलियों का मोलिक स्वरुप किस प्रकार का है,  क्यों की इन बोलियों में प्रभूत साहित्य सर्जन नहीं हुआ जिस प्रकार पोरानिक समय में अवधी और ब्रज में हुई थी,  कहते हैं की बोली यदि समाज के अशिक्षित वर्ग तक ही सिमित रह जाती है तो इससे साहित्य के स्रोत नहीं फूटते हैं, बोली का साहित्य उन्ही क्षेत्रों में प्रकट होता है जहाँ पर उसे सामाजिक सम्मान प्राप्त होता है और शिक्षित वर्ग उस में बोलने के लिए अभ्यस्त होता है,  इसमे जो सहियाकर या लेखक बोलियों से अनभिज्ञ हैं, तथा बोलियों में लिखित साहित्य और उसके साहित्यकार को अपदस्थ समझते हैं, वे प्रायः उनके हया और ब्यंग्य की रचना करने का प्रयत्न करते हैं, किंतु जिस क्षेत्र में बोली अब भी सम्पूर्ण समाज के दैनिक बिचार बिनिमय का माध्यम है और समाज के प्रतेक वर्ग द्वारा बोली जाती है, वहां वह साहित्य के रूप में प्रिपुस्ती होकर किसी भी परिनिस्थ भाषा की समानता कर सकती है, बोलीओं के प्रभूत साहित्य में भाषा के सम्बन्ध में तुलशी दास जी ने अपनी एक कृति में एक स्थान पर कहा है,  *भाषा भनति भोरी मति भोरी, हैन्सिबे जोग हँसे नहीं खोरी* ,
          देखा जाय तो उत्तराखंड में गढ़वाली कुमौनी का पोरानिक साहित्य उपलब्ध ही नहीं है, इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है की तत्कालीन परिस्थिति में यहाँ अशिक्षित समाज था, जिसे बोली को साहित्य के रूप में आवश्यकता ही नहीं पड़ी, जो आज हमारे पास पोरानिक साहित्य के रूप में उपलब्ध हैं वह हैं ताम्र पत्र, कबिता, लोकगीत, मुहावरे, तथा बिभिन्न त्योहारों पर प्रयुक्त होने वाले मंगल गीत, इसके अलावा भी मंत्र शाश्त्रों की रचना भी कुछ हद तट बोलियों में ही हुई, जो आज अप्राप्य मात्र है, देवी देवताओं के आह्वाहन मन्त्र जागर केवल मोलिक रचना ही है, कालांतर में जिन्हें कलामबध करने की आवश्यकता ही नहीं समझी गई, इसी प्रकार विध्याराज और वैधंग भी अपने वारिश को अपनी विद्या मुखाग्र ही सिखाते हैं,
                  गढ़वाल और कुमाओं को देव भूमि अवश्य माना गया है परन्तु पोरानिक कृतियों में यहाँ साहित्य का बसंत कभी नहीं देखा गया,  ना ही यहाँ की सत्ता पर कायम रहनेवाले राजे महाराजाओं ने अपनी पोली को महत्व दिया, जब कभी संदेशों के आदान प्रदान या शिलालेखों के लिखने की बात सामने आई तब तत्तकालीन परिनिस्थित भाषा संस्कृत का प्रयोग किया गया, जिस भाषा से आम जनमानस दूर था, आम जन की बोली को आम जन तक ही सिमटा कर रख दिया, उसे राजकाज स्थर तक कभी प्रयोग नहीं होने दिया, जिस वजह से यहाँ की दोनों बोलियाँ वह स्थान प्राप्त नहीं कर सकी जो सम्मान व स्थान उसे उसके बोलनेवालों से मिलता था.
                  उत्तराखंड में इन दोनों बोलीओं की दशा आज भी ज्यों की त्यों बनी है, पूरब काल में राजा महाराजाओं, सभासदों व मंत्रियों की प्रिया भाषा संस्कृत हुआ करती थी, सभी कार्य संस्कृत में हुआ करते थे आम जन की भाषा को महत्वा नहीं दिया जाता था ठीक उसी प्रकार की स्तिथि आज भी है,  कल के महाराजाओं का स्थान आज के राज्यपाल, मुख्यमंत्री, व मंत्रियों ने ले लिया है, जिनकी अपनी भाषा आम जन की भाषा को छोड़कर बिदेशी भाषा या रास्त्रियाभाषा है, या इन भाषाओँ की और अधिक झुकाव है, जो बोली हमारी कल थी वही बोली हमारी आज भी है, यदि इन बोलियों को पूरब काल से ही शिक्षित बर्ग प्रयोग करता तो निश्चित ही आज हमारी भी मान्यता प्राप्त भाषा होती, इसकी अपनी एक अलग लिपि होती तथा हमरी भाषा अन्य भाषाओँ की तरह परिनिस्थित भाषा होती,  इसका ब्याकरण भी परिनिस्थित होता परन्तु बर्तमान की कुछ दशाब्दियों में उत्त्रखन में जो साहितिक चेतना का जो उद्भव हुआ है वह अवश्य ही बोली को भाषा की और परिणत करने के लिए पहली सीधी का कार्य है,  उत्तर भारतीय बोलियों में जो अधिकांश देवनागरी लिपि के माध्यम से लिखी जाती हैं,  इन प्रतेक बोली को देवनागरी लिपि में माध्यम से लिखने  में कुछ अधूरापन रह जाता है, चाहे आप गंगा के दोआबा की और जाइये या अवध या बिरज की और, इन सभी बोलियों को देवनागरी लिपि में लिखने पर उनका अपनापन स्थानीय अक्श्रभाव से छिप जाता है, खाश तोर पर उत्तराखंड की गढ़वाली कुमौनी जिसे एक मायने में अन्पधों की भाषा भी कहा जा सकता है, क्योंकि पदेलिखे लोगो ने जिस भाषा के लिए कार्य किया है वह आज अपने विकाश की सीमा तक पहुची है, उत्तराखंड में पूरब कल से इसप्रकार कुछ नहीं हुआ है परन्तु पिछली दो सताब्दियों से सेव्नाग्री के माध्यम से जितना भी साहित्य प्रकाशित हुआ है वह अवश्य ही उत्तराखंड की बोली को भाषा की दिशा की और ले जाने में मददगार साबित होगा यह हमारा मानना है,
                  एक समय एसा अवश् आएगा जब उत्तराखंड की गढ़वाली कुमौनी भाषा साहित्य  को बोली के साहित्य से संदेह हट जाएगा और यह इसका साहित्य अन्य भाषाओँ के साहित्य की तरह परिनिस्थित होकर विद्यार्थियों तक पहुंचेगा, [/color] [/b]

पंकज सिंह महर:
जालंधरी जी,
सादर अभिवादन!
        उत्तराखण्ड की स्थानीय भाषा-बोलियों पर आपका शोध कार्य अतुलनीय है, विलुप्ति की कगार पर लगभग पहुंच चुकी इन भाषा-बोलियों का अवसान आप जैसे मुर्धन्य लोगों के रहते हो ही नहीं सकता, ऎसा मेरा दृढ़ विश्वास है।
      आगे भी आपके लेखों से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा, ऎसी आशा है।
शुभकामनायें,

Dr. B L Jalandhari:
भाषाई अस्मिता के लिए सोचे उत्तराखंडी समाज
                                                                                                   डॉ. बिहारीलाल जलंधरी  

          किसी जीवंत संस्कृति का आएना भाषा ही होती है, भाषा के बिना कितना भी विकसित माना जाया एक अतिशयोक्ति ही माना जाएगा, संस्कृति की पहचान भाषा के पश्चात ही होती है, जहाँ भी संकृति शब्द का प्रयोग होता किया जाता है, उसके साथ यदि भाषा शब्द उसके अग्रज शब्द के साथ न जोड़ा जाय तो वह हमेशा अपूर्ण रहेगा,
          समाज में केवल संकृति की बात करना फूहड़पन ही कहा जाएगा, क्यूं की संस्कृति की ध्वज्बाहक भाषा ही मानी जाती है,  आज के उत्तराखंडी समाज दो भागों में बांटता नजर आ रहा है, इन दोनों के बिच की दूरी चेतना के अभाव में कम होने की बजाय दिन प्रतिदिन बढती जा रही है, यह दूरी क्यों बढ़ रही है यह हम बखूबी से जानते है, हम इस दूरी को कम करने की हर सम्बभा कोशिश में हैं परन्तु हमें इस प्रकार का सशक्त माध्यम नहीं मिल रहा है, जिसके अंतर्गत हम इस दूरी को पता सके,
           उत्तराखंडी समाज उत्तराखंड के अलावा देश के कोने कोने में अपनी उपस्तिथि दर्ज करने के साथ साथ विदेशों में अपनी कीर्ति फैला रहा है, देश विदेश में बसे उत्तराखंडियों के मन में कही न कही एक डर अवश्य होता है की जिस गढ़वाली कुमौनी को आज हम लोग बोल रहे है, क्या उसे हमारी आने वाली पीडी इसी प्रकार बोल पायेगी, इस और देश विदेश में बसने वाले उत्तराखंडियों का ध्यान ही नहीं है, अपितु उत्तराखंड के अंदर रहनेवाले विद्वानों ने भी इसे गहरे से लिया है, कई लोगों ने इसे बेकार की बात मानकर एक किनारे कर दिया, क्योंकि उन्हें केवल वर्तमान दिखाई दे रहा है, उनमे वर्तमान की सोच और आने वाली पीढी को दियेजाने वाले सरोकारों की सूजबूझ ही नहीं है, उदहारण के रूप में विदेश में होने वाले कार्य कर्म का का जिक्र करना आवशक होगो, जब मंच से विदेशी भाषा तथा राष्ट्र भाषा हिन्दी के कर्म के संबोधन को तोड़ते हुए एक गायक की आवाज अपनी स्थानीय भाषा के लोकगीत के रूप में आती है, तो सभी का ध्यान अकग्र्चित होकर उस और एकटक हो जाता है, *आमा की दी माँ घुघती न बंसा* गीत के सुरताल में वासताबिक रूप में क्या था,  *मेरो गधों कु देश बावन गरहों कु देश*  गीत ने आख़िर में सात समुद्र पर बसे उत्तराखंडियों को क्या संदेश दिया, *चम् चमकू घाम कान्थियोंमा हिवाळी डंडी अचंदी की बनी गेना* इन गीतों में आख़िर क्या है, क्या यह कबी की कल्पना है, या अपनी धरती से रू व रू होने का साक्षात्कार, बहुत कम लोगों का इसकी मूल भावना की और ध्यान गया होगा, क्यों की केवल तीन घंटे का कार्यकर्म जिसमे केवल आधा घंटा ही बमुश्किल से इस कार्यक्रम में उपस्थित लोगों ने अपनी धरती से साक्षात्कार होने का मोका मिला उस आधे घंटे ने पूरे तीन घंटे वसूल कर दिए, ऐ जो तीन गीत गढ़वाली कुमौनी भाषा के मूल ध्वनियों के साथ सुरताल में प्रस्तुत किए गए यह वास्ताबिक रूप में यहाँ की भाषा का ही कमल है, जिसने हजारों मील दूर बैठे उत्तराखंडियों को झुमने के लिए मजबूर कर दिया, यह भी भाषा का ही कमल है, जो आज के समय में प्रतीक मात्र बनती जा रही है,
           आज का उत्तराखंडी उत्तराखंड के बहार के अलावा उत्तराखंड में स्वयं के घर में स्वयम को असहाय महसूश कर रहा है, क्योंकि उनको अपनी मात्र भाषा अपने घर में भी पराई लग रही है,  क्योंकि उनका बचा जब प्राइमरी स्कूल से घर आता है तो वह पूरे वाक्य को आधा अपनी भाषा में बोलता है तो आधा दूसरी भाषा में, इस प्रकार की भाषा पर कभी उसके माँ उसका मजाक तक उड़ा देती हैं, तथा नाराज होने पर हंसते हुए पुचकारती भी है, किंतु उस बचे की मानसिकता उस समय कैसी रही होगी जब उसके बोलने पर उसका मजाक उडाया गया, उसके इस प्रकार की भाषा में बतियाने में उसकी कहाँ गलती है जो उसका मजाक उडाया गया, उसने तो वही कहा जो उसने सीखा, अपनी माँ के साथ रहा तो मात्र भासा सीखी, स्कूल में मास्टर जी ने दूसरी भाषा सिखाई, वास्ताबिक रूप में क्या यह स्थिति उन नोइनिहलों की दुधी के विकाश में सहायक सिद्ध होगी, जिनको कैन भी पूर्णता नहीं मिल प् रही है, और परोतोशिक के रूप में उन्हें हैसी का पात्र बनना पड़ रहा है, प्रश्न उठता है, की क्या उस बालक का बोद्धिक विकाश इच्छानुसार हो पाएगा,
          उत्तराखंडी समाज आज अपनी भाषा के बिमुख क्यों हो रहा है, न चाहते हुए भी इस और बढ्ता ही जा रहा है, राज्य आन्दोलन के दौरान एक सोच उभरकर आई थी की अपना राज्य होगा अपने लोग होंगे सब अपने पिछडेपन से अगड़ने की बात करेंगे, सभी क्षेत्र में स्वायत्ता होगी, स्वायत्ता भी मिली परन्तु कुछ गिनेचुने क्षेत्र में, जहाँ राज्य की संविधानिक आधार पर पहचान बनानी थी उस क्षेत्र में सोचने के लिए किसी के पास समय ही नहीं है, सत्ता प्राप्त करने के लिए राजनेताओं नें जितने वादे किए परन्तु सत्ता की मदहोशी छाने पर वह यह सबकुछ भूल गए की इस राज्य की संस्कृति की ध्वजवाहक को भी जीवित रखना चाहिए.
          इस संदर्भ में एक स्मरण का जिक्र करना अतिशयोक्ति न होगा की सूबे के मुखिया ने अपने चुनाव की दौर में अपनी सठिया बोली के सिवा अन्य भाषा में बात तक नहीं की, लोगों की खूब सहानुभूति बटोरी, भाषा के भावनात्मक जुदौव से उनको अपने क्षेत्र में वाहवाही मिली, परन्तु जब अन्य स्थान पर उनका कर्यकर्ता अपनी भाषा में बात करने की हिम्मत जुटता है तो वह उनके ब्यवहार से अपनेआप को ठगा सा महसूस करते हैं,
          यहाँ भाषा का प्रयोग आम भोली भाली जनता को भावनात्मक रूप में आकर्षित करने के लिए कियस गया, स्थानीय भाषा के प्रयोग से यदि आसानी से साध्य पूरा होता है, तो इसे अन्यथा नहीं लिया जाना चाहिए, क्योंकि इस साध्य से एक उद्देश्य तो स्पष्ठ होता है की उतराखंड के स्थानीय लोग पानी भाषा को बहुत चाहते हैं, यदि सूबे का सिरमोर इस भाषा में बात कर रहा है तो वह अवश्य ही इसके विकाश के लिए अवश्य कार्य करेंगे, किंतु उत्तराखंड की दो मुख्य भाषा गढ़वाली कुमौनी के लिए आज तक किसी प्रकार की निति निर्धारित नहीं की गई, यहाँ तक स्तानीय भाषा में शोधकर्ताओं की आज दिनाक तक किसी ने खोजखबर तक नहीं की, यह उस भाषा के साथ साथ उस संस्क्तिती के लिए भी एक चुनोती बनकर उभरेगा, आज नहीं तो आने वाले कल में उत्तराखंड की भाषा संस्कृति की रक्षा के लिए लोग सड़कों पर उतरेंगे तथा अपनों से ही अपनी अस्मिता की सुरक्षा के लिए लडेंगे, तब यह भाषाई आन्दोलन कहा जाएगा, जिसमे प्रतेक उत्तराखंडी अपनी भाषाई अस्मिता की रक्षा व पहचान के लिए आगे आएंगे, [/color] [/b]

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