Author Topic: Articles By Hem Pandey - हेम पाण्डेय जी के लेख  (Read 19907 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Great Hem Ji,

message from Devia..

"मैं सोचता जा रहा था- देबिया क्या हो गया तुझे ? तू तो पहाड़ी समाज का आदर्श था | मातृ-पितृ भक्ति के लिए तेरा नाम पांडेजी, सनवालजी और बोरा जी के साथ लिया जाता था | तू तो बड़ा कर्मकांडी था और प्रतिदिन मंत्रोच्चारण करता था - मातृ-पितृ चरण कमलेभ्यो नमः | क्या हुआ रे उस मन्त्र का ? सहसा मुझे लगा देबिया मुझे बाइबिल की उक्ति पढा रहा है -     
    Man will leave his father and mother and wil unite with his wife and the two will become one "


                                             देबिया की मौत
             अभी कुछ दिन पहले मैं कुछ सोचता हुआ उस सड़क पर चला जा रहा था कि अचानक मेरे कानों में आवाज आई -'राम नाम सत्य है,सत्य बोले गत्य है' | मैंने ध्यान से सुनने की कोशिश की |  हाँ यही वाक्य दोहराया जा रहा था जो किसी की मृत्यु का सूचक था | उत्सुकतावश मैंने जनाजे के पास जाकर देखने की कोशिश की | देखा तो जनाजे में शामिल सारे ही लोग पहाड़ी दिखे, जिनमें से कुछ को मैं पहचानता था | एक परिचित से पूछा -'के हो को ख़तम भौ ?'
उत्तर मिला -देबी |
- को देबी ?
-उई पर्यटन निगम वाल |
मुझे काटो तो खून नहीं | देबिया पूरी तरह स्वस्थ और जवान था |  अभी कुछ दिन पहले उसका प्रमोशन भी हुआ था | देबिया एक खुशमिजाज और मिलनसार व्यक्ति था|उसकी एक खूबसूरत बीबी और दो छोटे-छोटे प्यारे बच्चे थे | हाँ यह जरूर सुना था कि उसकी बीबी ससुर के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करती |यदि ससुर की मौत की ख़बर होती तो कोई आश्चर्य की बात नहीं थी क्योंकि देबिया के पिताजी की उम्र अठत्तर के आसपास थी और बहुत स्वस्थ भी नहीं थे | वास्तव में देबिया की आकस्मिक मौत ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया | जीवन की क्षणभंगुरता का यह जीता-जागता उदाहरण था | मुझे उसके बीबी-बच्चों का ध्यान बार-बार आता | इस घटना के बाद कुछ दिन बाद तक मैं अन्यमनस्क सा रहा | लेकिन एक बात मुझे बहुत अटपटी लगी थी कि देबिया के जनाजे में सभी लोग पहाड़ी थे और वे भी केवल ठेठ  पहाड़ी | देबिया के परिचय क्षेत्र में अन्य पहाड़ी भी थे जो अच्छे पदों पर थे,वे लोग और उसके आफिस के,पड़ोस के अन्य गैर पहाड़ी उस जनाजे से गायब थे |

धीरे-धीरे सब सामान्य होने लगा | रोजमर्रा की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चलने लगी | एक शाम मैं दोस्तों के साथ सैर को निकला |हम सब एक खुली जीप में  तालाब के किनारे बोट क्लब जा पहुंचे और मौज-मस्ती करने लगे | वहाँ अचानक मैंने एक व्यक्ति को एक महिला और दो बच्चों के साथ क्रूज पर चढ़ते देखा | उनको देख कर मैं अचंभित हो गया| मैंने दौड़ कर उन्हें पास से देखने की कोशिश की | वे क्रूज की सवारियों के साथ भीड़ में चले गए और  धीरे-धीरे मेरी आंखों से ओझल हो गए | जहाँ तक मैंने देखा, मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ वह देबिया और उसके बच्चे थे |

इस घटना ने मुझे बुरी तरह व्यथित कर दिया | उस दिन देबिया का वह जनाजा सत्य था या आज का जीता-जागता देबिया | मैं स्वयं के मानसिक संतुलन पर भ्रमित होने लगा | हाँ उस दिन के जनाजे में एक विचित्र बात जरूर थी कि पहाडियों का एक सीमित वर्ग ही उसमें शामिल था | पांडेजी थे -जिनकी मां अपने जीवन के अन्तिम पन्द्रह वर्ष पलंग पर ही पड़ी रहीं और पांडेजी ने उनकी भरपूर सेवा की थी |  सनवाल जी थे- जिनके पिता मरने से कुछ वर्ष पहले अपनी याददाश्त खो चुके थे और खाना खा लेने के कुछ ही मिनटों के बाद सनवाल जी और उनके बच्चों को इस लिए गाली देते थे कि उन्होंने बुढापे में उन्हें भूखों मार डाला है |  बोरा जी थे- जो आए दिन दफ्तर में देर से आने के लिए फटकार खाते थे क्योंकि उन्हें बूढ़े मां-बाप की सेवा के चक्कर में प्रायः ही देर हो जाया करती थी |  बूढ़े मां-बाप के कारण ही उन्होंने प्रमोशन नहीं लिया था | क्योंकि प्रमोशन होने पर उन्हें बाहर जाना पड़ता जिससे मां-बाप की उचित देख-भाल नहीं हो पाती |         


      जीवन फ़िर उसी सामान्य गति से चलने लगा | मैं प्रतिदिन सुबह  प्रात:  भ्रमण पर निकलता था | रास्ते में 'आसरा' नाम का वृद्धाश्रम पड़ता था,जिसके गेट पर दो चार वृद्ध हमेशा चहलकदमी करते मिल जाते थे |  एक दिन अचानक उन वृद्धों में मुझे देबिया के बाबू नजर आए | सहसा विश्वास नहीं हुआ | पास जा कर देखा | वे ही थे |

उनसे विस्तार में ढेर सारी बातें हुईं | एक- एक परिचित की कुशल उन्होने पूछी | वृद्धाश्रम में आने के बाद उनसे मिलने वाला पहला परिचित व्यक्ति मैं ही था| इस परदेश में होली के दिनों में रौनक ला देने वाले वे प्रमुख व्यक्ति थे | होली निकट थी और उन्हें अफ़सोस था कि इस बार वे न बैठ होली के महफिलों में होंगे और न छलड़ी के रंग में |

देबिया के बाबू की बातों का सारांश यह था कि देबिया की बीबी देबिया के बाबू को अपने साथ एडजस्ट नहीं कर पा रही थी | इस बात को ले कर देबिया और उसकी बीबी में भी कहा-सुनी हो जाती थी | देबिया के बाबू को भी यह नागवार गुजरता | अंत में रोज की चक-चक से तंग आकर देबिया के बाबू ने ही वृद्धाश्रम में रहना उचित समझा | देबिया लगभग हर हफ्ते में एक बार उनसे मिल जाया करता था | देबिया के बाबू को किसी से कोई शिकायत नहीं थी | लिकिन उनके दिल का दर्द उनके हाव-भाव से झलक ही जाता था |  होली में उनसे मिलने का वादा करके मैं भारी मन से लौट आया |

मैं सोचता जा रहा था- देबिया क्या हो गया तुझे ? तू तो पहाड़ी समाज का आदर्श था | मातृ-पितृ भक्ति के लिए तेरा नाम पांडेजी, सनवालजी और बोरा जी के साथ लिया जाता था | तू तो बड़ा कर्मकांडी था और प्रतिदिन मंत्रोच्चारण करता था - मातृ-पितृ चरण कमलेभ्यो नमः | क्या हुआ रे उस मन्त्र का ? सहसा मुझे लगा देबिया मुझे बाइबिल की उक्ति पढा रहा है -    
    Man will leave his father and mother and wil unite with his wife and the two will become one .                              


हेम पन्त

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एक बार फ़िर संवेदनशील व दिल छूने वाला लेख पढवाने के लिये बहुत-२ साधूवाद

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Hem ji kamaal hai itni sanvedanshil aur kamaal ki lekhni yada kada hi internet pai padhne ko milti hai. Simply superb.

sanjupahari

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Bahut hi maarmikta se bhara huaa ye lekh ,,kam sabdoon main bahut kuch ander tak zhankzhoooor gaya hai....bahut bahut dhanyawaad Hem ji....aise hi likh likhte rahein aur humse share karte rahein..,,isi kamana ke saanth....sanjupahari


हेम जी,
सचमुच बहुत संवेदनशील हैं दोनो कहनियाँ.  ’देबिया’ हर उस पहाड़ी के अन्दर सदा जीवित रहेगा जिनका बचपन पहाड़ों में बीता है. उनमें यह देबिया कभी नहीं मर सकता, यह गाहे बगाहे, बार बार सर उठाता रहेगा.  और उनका यह फ़र्ज भी है कि वे अपने बच्चों तथा आगे आने वाली पीढ़ी में, जिनका जन्म पहाड़ से बाहर हुआ है, में भी उस देबिया को उत्पन्न करने की कोशिश करें. नई पीढ़ी को अपने पहाड़ से भावनात्मक रूप से जोड़ने की कोशिश करें. कहीं ऐसा न हो कि वे अपने पुरखों की धरती को केवल एक घूमने फिरने  एवं पिकनिक स्पाट समझ कर न रह जाएं जैसा कि पश्चिमी देशों में पैदा हुए प्रवासी भारतीयों के बच्चों की भारत के बारे में सोच है.

दोनों लेख भी काफ़ी विचारोत्तेजक हैं.  स्वरोजगार एवं व्यापार के क्षेत्र में भी अब उत्तराखंडी लोग आगे आ रहे है.  सरकार से भी आशा है कि इसमें पर्याप्त सहयोग दे एवं लोगों का रुझान इस ओर बढ़ाने के लिये जागरूकता फ़ैलाए.

आशा है कि हेम जी के लेख हमें आगे भी रोशानी दिखाते रहेंगे.

वीरेन्द्र सिंह बिष्ट

hem

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प्रवासी पर्वतीय लंबे प्रवास के बाद भी अपने मन में पहाड़ की वही छवि संजोये रहते हैं,जो उन्होंने पहाड़ छोड़ते समय देखी थी| लेकिन वर्तमान वास्तविकता से रूबरू होने पर उनका मोहभंग भी हो जाया करता है| तब वे अपने आप को एक विचित्र मानसिक स्थिति में पाते हैं|  इसी थीम पर एक कहानी मैंने वर्षों पहले साप्ताहिक हिन्दुस्तान में पढी थी जिसमें दिल्ली में कार्यरत एक पहाड़ी रिटायरमेंट के बाद स्थाई रूप से रहने के लिए अपने पैत्रिक गाँव चले जाते हैं | कुछ ही दिनों बाद होली का त्यौहार आता है |  कहानी के नायक अपनी पुरानी यादों के अनुसार छलड़ी के दिन सुबह से ही तैयार हो जाते हैं और होल्यारों की प्रतीक्षा करने लगते हैं | जब नौ बजे तक भी कोई हलचल नहीं दिखती तो वे स्वयं ही अपने बाल सखा से होली मिलने चले जाते हैं | होल्यारों के नाम पर उन्हें रस्ते में कुछ नौजवान नशे में धुत फिल्मी गानों पर हुडदंग करते मिलते हैं | जब मित्र के घर पहुँचते हैं तो वह छुट्टी  के मूड में बिस्तर पर मिलता है | यहीं उन सज्जन का मोह भंग हो जाता है | 

इसी सन्दर्भ में मैं पहाड़ के दो विरोधाभासी स्वरूपों के चित्र प्रस्तुत करना चाहता हूँ जो मेरे व्यक्तिगत अनुभव हैं और सत्य घटनाएं हैं :


                                                  मेरा पहाड़ ( दो रूप )


बात लगभग २५ वर्ष पुरानी है | मैं अपनी ईजा (जो तब ६४वर्ष की थीं) को, के. एम. ओ. यू. की बस में हल्द्वानी से पहाड़ की तरफ़ ले जा रहा था | कैंची से कुछ दूरी पर अचानक बस दुर्घटनाग्रस्त हो गयी | पहाड़ के लिहाज से यह एक बहुत छोटी दुर्घटना थी | किंतु मेरी माता जी दुर्घटनाग्रस्त हो गयीं और उनका होंठ कट गया तथा सामने के तीन दांत क्षतिग्रस्त हो गए | यह सब देख कर मैं घबरा गया | मुझे लगा कि माताजी को तुंरत मेडिकल सहायता मिलनी चाहिए | सहयात्री, जो सभी पहाडी थे, कोई भी सहानुभूति जताने नहीं आया | मैंने स्वयं ही जाकर कुछ लोगों से जानना चाहा कि क्या किया जा सकता है? जवाब में उन लोगों ने बताया की भवाली या नैनीताल ले जाना पडेगा | नैनीताल में मैं स्वयं भी रह चुका था और उस वक्त वहाँ मेरे चचेरे  भाई  रहते थे इस लिए मैंने नैनीताल जाने का निर्णय ले लिया | अब समस्या नैनीताल पहुँचने की थी | सो, जो भी वाहन भवाली की ओर जाने वाले मिले मैंने उन सबसे भवाली तक लिफ्ट देने या सशुल्क ले चलने की विनती की,लेकिन कोई भी तैयार नहीं हुआ | अंत में निराश हो कर मैंने एक टेक्सी वाले से,जिसकी सवारियों ने उस टेक्सी में  हमें साथ ले चलने की अनुमति नहीं दी,  विनती की कि वह भवाली से किसी टेक्सी वाले को भेज दे | वह विनती काम कर गयी और थोड़े देर में एक टेक्सी वाला वहां आ गया और मैं नैनीताल जा कर माताजी का उपचार करवा सका | उनके होंठ में पाँच टांके आए थे |     

दुर्घटनास्थल से नैनीताल तक की यात्रा में टेक्सी में बैठे-बैठे मेरे मन में अनेक विचार आते रहे | यहाँ मिले लोगों का ठंडापन मुझे कचोटने लगा | अपने प्रवासी नगर में मेरा अधिक संपर्क केवल पहाडियों से ही था | मुझे उन सबके आत्मीय संबंधों की याद आने लगी |  मुझे याद आने लगीं वे भाभियाँ ( शिव दत्त जी और मोहन सिंह जी की घरवालियाँ ) जिन्होंने मेरे दोनों बच्चों के जन्म के समय मेरी श्रीमती को अस्पताल ले जाने से लेकर पूरे समय उनका साथ करने तथा मुझे खाना खिलाने तक का सब काम स्वयं ही कर के  मुझे यह अहसास ही नहीं होने दिया कि मैं परदेश में हूँ और मेरा उनसे कोई नजदीकी रिश्ता नहीं है | मुझे याद आने लगे प्यारे लाल,शोबन सिंह और हरीश पांडे जिनकी भरपूर मदद के बिना मेरी एक माह की बच्ची अस्पताल में एक माह तक रह कर बच कर नहीं आ सकती थी |मुझे याद आने लगीं खुशाल सिंह जी की श्रीमती जिन्होंने एक साल तक बच्ची को स्वयं पालने का जिम्मा ले कर मेरी पत्नी को नौकरी छोड़ने से रोक लिया | मैं सोचने लगा - क्या प्रवासी पहाड़ी स्थानीय पहाड़ियों से ज्यादा संवेदनशील होते हैं  ? मैं सोचने लगा क्या मेरे प्रवासी शहर में वहाँ का स्थानीय निवासी भी मुझे दुर्घटनाग्रस्त  माँ के साथ अस्पताल तक नहीं पहुंचा देता ?   

ठीक इस के विपरीत यह दूसरी घटना भी उतनी ही स्मरणीय है :
  मैं अपने परिवार सहित बेलकोट गया था | बागेश्वर से सुबह हम टैक्सी से निकले | बेलकोट गाँव के ऊपर रोड पर हमने टैक्सी रुकवा ली | अब हमें पैदल उतरना था | रोड के किनारे एक चाय की दुकान थी |  ड्रायवर सहित  हम लोगों ने वहाँ चाय पी | खाने के लिए उस दुकान में केवल बिस्कुट और छोले थे | हमें लौटने में चार-पाँच घंटे लगने वाले थे | हमने दुकानदार से कहा - ड्रायवर जो भी खाना चाहें दे दें | हम पूरा भुगतान लौट कर करेंगे | वे सहर्ष तैयार हो गए | जब लगभग पाँच घंटे बाद हम लौट कर आए तो दुकान बंद थी |   हमने ड्रायवर से पूछा - चाय वालों का भुगतान हुआ ? ड्रायवर ने इनकार किया | मैंने पूछा-उन्होंने आपसे भुगतान माँगा था ? उन्होंने फ़िर इनकार किया | अब समस्या थी कि उनका भुगतान उन तक कैसे पहुंचे ? एक ही चारा नजर आया | फ़िर से नीचे गाँव जा कर पैसे हमारे मेजबान रेवाधर जी को दे आयें | लेकिन कितने पैसे देने हैं यह भी मालूम नहीं था | ड्रायवर से पूछने पर पता चला कि अधिकतम पचास रूपये हो सकते हैं | अंत में तय हुआ कि मैं  नीचे गाँव जा कर पचास रूपये रेवाधारजी को दे आऊँ | लेकिन पैदल चलने का अभ्यास न होने के कारण मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी | हम लोग बैठ कर सुस्ताने लगे | थोड़ी ही देर में गाँव की तरफ़ से एक बारात आती दिखाई दी | मैं मन में मनौती करने लगा कि इस बारात में रेवाधरजी भी हों ताकि मेरी मेहनत बच जाए | धीरे-धीरे बारात पास आ गयी | मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब मैंने उस बारात में चायवाले दुकानदार भाई को भी देखा | उन्होंने भी हम लोगों को देख लिया | लेकिन हमारे पास आने की कोशिश नहीं करी | अंततः मैंने ही उन्हें इशारों से बुलाया | वे पास आए | मैंने उनसे भुगतान की राशि पूछी | उनका पहला वाक्य था- अरे ऐ जान हो ! उसके बाद उन्होंने राशि बतायी जो सैंतीस रूपये कुछ पैसे थी |           

बेलकोट से बागेश्वर तक की यात्रा में टैक्सी में बैठा-बैठा में सोचने लगा -क्या दुनिया का कोई भी दुकानदार एक अपरिचित ग्राहक से. कह सकता है - अरे डबल ऐ जान हो !  मुझे लगा उत्तराखंड में रहने वाले हम पहाड़ी ही इतने भोले हो सकते हैं | भले ही  दुनिया हमारे भलेपन और भोलेपन को बेवकूफी कह ले |                                   


































                                           

hem

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                                                                  'मेरा पहाड़' को
दीपावली पर शुभकामना         

दीप पर्व का हुआ  आगमन
पावन-पर्व करें अभिनन्दन
न्दन 'श्री' का, 'शुभ' का अर्चन
लीलामयी शुभा को नमन

र्व मने यह, जन-जन के घर
हें  उमगते धरती – अम्बर

शुभ हो जग में, 'श्री' हो घर में
रे  रहें  भण्डार  नगर   में
काया - माया  सब  में 'श्री' हो
मता - दया - मयी  पृथ्वी हो
नारी-नर सब जगत  सुखी हो


hem

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                                                     देबिया तू धन्य है

उस दिन इतवार था | मौसम साफ़ था | पत्नी के साथ मंत्रणा हुई- आज शरद से मिल आयें, जो कोलार रोड पर रहते थे| पत्नी ने फोन लगा कर बात की | शरद की बीबी से बात हुई | उसने कहा -शरद तो टूर पर गए हैं ,मैं घर पर ही हूँ आप आ जाइए | मैंने सोचा -शरद तो घर पर हैं नहीं,पत्नी को शरद के घर पर छोड़ कर मैं कुछ देर के लिए देबिया से भी मिल आऊँगा | देबिया ने कोलार रोड पर मकान बनवाया है-ऐसा उसने मुझे एक दिन न्यू मार्केट में मुलाक़ात होने पर बताया था | पता और फ़ोन नम्बर दे कर वह बोला था-कभी आना हो दाज्यू | मुझे वह दाज्यू कह कर ही संबोधित करता था | देबिया का पता और फ़ोन नम्बर ले कर हम कोलार रोड के लिए चल दिए |

शरद के घर पहुँचने पर शरद की बीबी और छोटी बेटी रुचिका ने गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया |
भूमिका(शरद की बड़ी बेटी ) नहीं दिखाई दे रही -मैंने पूछा |
वह ट्यूशन पढ़ाने गयी - उसकी माँ बोली |
पढ़ाने या पढ़ने?- मैं बोला | भूमिका इंजीनियरिंग के फायनल ईअर में थी |
वह दो लड़कियों को घर पर जा कर ट्यूशन भी पढ़ाती है-उसकी माँ बोली |
वाह !-मेरे मुंह से निकला | मैं बेचारे श्याम दत्त जी के बारे में सोचने लगा जिनका इकलौता  लड़का एम. एस. सी. करने के बाद दिन भर घर पर पड़ा रह कर या तो टी. वी. देखता या मोबाइल पर मेसेज या बात करता या इन्टरनेट पर गेम खेलता | कभी-कभार जनरल नोलेज की किताबों के पन्ने भी पलटता , क्योंकि छोटी मोटी नौकरी उसको भाती नहीं थी | श्याम दत्त जी को रिटायर हुए एक साल से ज्यादा हो गया था | उनकी इकलौती चिंता लड़के को नौकरी में देखने की थी |   

 मैं कल्पना करने लगा-कितने खुश हुए होंगे श्याम दत्त जी जब उनके लड़के ने जन्म लिया होगा | संभवतः दूसरी संतान न होने का उन्हें कोई दुःख नहीं था | वंश चलाने को लड़का तो था ही | दूसरी ओर शरद की दूसरी लड़की होने पर लोगों ने कहा था- छि हाड़ि दुसरि लै चिहड़ि हैगे | वाह रे शरद की 'चिहड़ि'! वाह रे श्याम दत्त जी के कुलदीपक ! 

कुछ देर शरद के घर पर बैठने के बाद योजनानुसार मैंने देबिया को फोन किया | देबिया घर पर ही था | मैं देबिया  के घर की ओर चल दिया | पता पास में था ही| एक दो जगह पूछने के बाद मैं गंतव्य तक पहुँच गया | घर के बाहर  चार-पाँच स्कूटर और दो कारें खड़ी थीं | ओ हो दिवाली नजदीक है पत्तों की बैठक चल रही होगी -मेरा माथा ठनका | देबिया की लड़की,जो.एन.आई.टी. से एम.सी. ए. कर रही थी,ने दरवाजा खोला | देखते ही उसने मेरे चरण स्पर्श किए | मैं अचकचा गया और आशीर्वाद देना ही भूल गया | ऐसे संस्कारों की मुझे आशा न थी | हालांकि आगे और भी बहुत सारी विस्मित कर देने वाली बातें आने  वाली थीं |
 
'बाबू! कका आ गए |' देबिया की लड़की बोली | 
बाबू! कका ! फ़िर से मेरे अचकचाने की बारी थी - इस डैड,मोम,अंकल के जमाने में -बाबू,कका?
कका नहीं ताऊजी बोल पगली - देबिया बोला | लड़की मुस्कुरा दी |

मेरे , ड्राइंग रूम में प्रवेश करते ही अनेक मिश्रित आवाजें आईं- आओ हो दाज्यू, ओ हो महाराज,जै हो आदि |मेरी आशा के अनुरूप वहाँ छः-सात पहाडी इकठ्ठा थे |'हाई! पत्त तो  देखीण नी लागी रै हो'  मैंने बोला | सभी ठहाके लगा कर हंसने लगे |
'लाओ हो गड्डी लाओ आज दाज्यू कें लै खिलेई दिनूं'- एक बोला | सभी परिचित लोग थे और जानते थे कि मैं पत्ते नहीं खेलता | देबिया बोला- फिकर मत करो दाज्यू अगले इतवार पत्तों की मीटिंग भी बैठेगी,आज तो कमिटी की मीटिंग है | देबिया के मार्गदर्शन में आज से तीस-पैंतीस साल पहले दस लोगों ने एक कमिटी बनायी थी जो अब भी चल रही थी | तब ये सभी लोग पास-पास ही रहा करते थे | सभी की छोटी-छोटी तनख्वाहें थीं| तब दस- दस रूपये प्रति सदस्य प्रति माह ले कर इन्होंने यह कमिटी गठित की थी  | आज भी यह राशि मात्र सौ रूपये प्रति सदस्य प्रति माह ही है |   इस कमिटी के कुछ नियम थे जिनका सख्ती से पालन हुआ | कमिटी की मूल जमा राशि को इन पैंतीस सालों में कभी कम नहीं होने दिया गया | अर्थात यह राशि प्रति माह बढ़ती ही जाती है | हाँ इस राशि को कमिटी के सदस्यों को या कमिटी के सदस्यों की जमानत पर बाहरी व्यक्तियों को, जो प्रायः पहाड़ी ही होते हैं, ब्याज पर दिया जाता है और उस ब्याज से प्रतिवर्ष दीवाली पर सदस्यों को उपहार या नगद वितरण किया जाता है | यही नहीं ये लोग यदा कदा इसी ब्याज के पैसों से भ्रमण या पिकनिक भी जाते हैं | प्रतिमाह बारी बारी से सदस्यों के घर पर मीटिंग होती है जिसमें चाय के साथ पकोड़ी,आलू के गुटके, माँस (उड़द) के छेद वाले बड़े (दही बड़े नहीं), पुए,सिंघल,ककडी का रायता अदि पहाडी डिशें ही परोसे जाने की बाध्यता है | ये सब नियम देबिया के  दिमाग की उपज हैं | इस कमिटी का एक बहुत ही शानदार नियम था,जिसका पालन अब उतनी मुस्तैदी से नहीं हो पाता, लेकिन काफी कुछ होता है - कोई सदस्य यदि गाँव जाता तो उसके घर की रखवाली की जिम्मेदारी अन्य सदस्यों पर है | यदि सदस्य की पत्नी मायके गयी है तो उसके भोजन की व्यवस्था अन्य सदस्य देखता है | यदि कोई  बीमार है और अस्पताल में भर्ती है तो बारी बारी से सदस्य उसको अटैंड करते हैं |

थोड़ी देर में देबिया की लड़की नाश्ता ले कर आ गयी | सिंहल, पुए और ककड़ी का रायता था | सिंहल मेरी कमजोरी है -तुरंत सिंहल पर झपट पड़ा |
टेस्टी हो रहे हैं हो- मैं बोला |
बेटी ने बनाए हैं -देबिया बोला |
ताऊजी मैंल बणाईं-देबिया की बेटी वहीं खड़ी थी |
यार देबी तुम तो कमाल के आदमी हो | आज के बच्चों को भी पहाड़ी सिखा रखी है, सिंहल बनाना भी जानते हैं, पहाड़ी भी बोलते हैं |
देबिया गंभीर हो गया- दाज्यू हम लोग तो पहाड़ में पले-पढ़े | हमारा बचपन वहाँ बीता | हमें इस लिए वहाँ से लगाव है | लेकिन इस पीढ़ी के लिए तो लगाव का कोई आधार ही नहीं ठैरा | हममें से कई लोगों के बच्चों ने तो पहाड़ ठीक से देखा तक नहीं | इनमें अपनी संस्कृति,अपनी बोली से लगाव पैदा करने के लिए तो हमें ही कोशिश करनी पड़ेगी | मैं तो ख़ुद यह कोशिश करता हूँ, हमारी कमिटी के सभी सदस्य भी ऐसी कोशिश कर रहे हैं | आपने मेन गेट से दरवाजे तक ऐपण देखे होंगे | ये भी आयल पेंट से मेरी लडकी ने ही दिए हैं |   

नाश्ता-चाय और गप-शप के बाद जब जाने की तैयारी हुई तो देबिया ने मुझे अपना घर दिखाया | घर छोटा पर  सुंदर और सजावट सुरुचि पूर्ण थी |  छत भी दिखाई | छत पर सोलर हीटिंग सिस्टम का प्लांट लगा था | सोलर कुकर में कुछ पक रहा था | तीन सोलर लालटेन धूप में चार्ज हो रहीं थीं | यह सब देख कर मेरी प्रतिक्रिया थी - यार देबी तुमने तो सारे ही सोलर आयटम इकठ्ठा कर रखे हैं |' दाज्यू मेरी समझ में नहीं आता' -' देबिया बोला - 'लोग सोलर एनर्जी का उपयोग करने में इतने उदासीन क्यों हैं ? इससे बिजली और गैस के साथ-साथ पैसों की भी तो बचत होने वाली ठैरी| मैंने तो अपने घर में गैस लायटर भी नहीं रखा है हो| गैस लायटर से गैस ज्यादा खर्च होती है | इस लिए माचिस से गैस जलानी चाहिए |' मैं देबिया की बातें सुन कर स्तब्ध था |   

छत से नीचे उतर कर मैंने देखा कि देबिया ने छोटे से गार्डन में तुलसी उगा रखी थी | दूसरे घरों में जहाँ गमलों में तुलसी दिखती है वहीं यहाँ गार्डेन में तुलसी थी | इसके आलावा  नीम का एक पेड़ भी था जो अभी ज्यादा बड़ा नहीं हुआ था जबकि आस-पास के घरों में खूबसूरती के लिए अशोक के पेड़ लगे थे | इसके बारे में देबिया का तर्क था पर्यावरण शुद्धि और गुणों के आगे खूबसूरती को महत्त्व नहीं दिया जा सकता | नीम और तुलसी हमारे दैनिक जीवन में अनेक घरेलू उपचारों के काम आते हैं जबकि अशोक खूबसूरती के अलावा किसी काम नहीं आता | यही नहीं देबिया ने वाटर हार्वेस्टिंग के अंतर्गत बरसाती पानी के संरक्षण का भी प्रबंध कर रखा था | वाटर हार्वेस्टिंग के बारे में सुन-पढ़ तो रखा था किंतु देखा आज पहली बार |

देबिया के घर से लौटते हुए मैं उसके प्रति श्रद्धावनत था | मैं मन ही मन बोल उठा - मैं तो तुझे आदर्श पहाड़ी ही समझता था तू तो आदर्श हिन्दुस्तानी निकला रे देबिया ! देबिया तू धन्य है |               

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Hem Ji,


Thanx.. This is really interesting.

                                                     देबिया तू धन्य है

उस दिन इतवार था | मौसम साफ़ था | पत्नी के साथ मंत्रणा हुई- आज शरद से मिल आयें, जो कोलार रोड पर रहते थे| पत्नी ने फोन लगा कर बात की | शरद की बीबी से बात हुई | उसने कहा -शरद तो टूर पर गए हैं ,मैं घर पर ही हूँ आप आ जाइए | मैंने सोचा -शरद तो घर पर हैं नहीं,पत्नी को शरद के घर पर छोड़ कर मैं कुछ देर के लिए देबिया से भी मिल आऊँगा | देबिया ने कोलार रोड पर मकान बनवाया है-ऐसा उसने मुझे एक दिन न्यू मार्केट में मुलाक़ात होने पर बताया था | पता और फ़ोन नम्बर दे कर वह बोला था-कभी आना हो दाज्यू | मुझे वह दाज्यू कह कर ही संबोधित करता था | देबिया का पता और फ़ोन नम्बर ले कर हम कोलार रोड के लिए चल दिए |

शरद के घर पहुँचने पर शरद की बीबी और छोटी बेटी रुचिका ने गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया |
भूमिका(शरद की बड़ी बेटी ) नहीं दिखाई दे रही -मैंने पूछा |
वह ट्यूशन पढ़ाने गयी - उसकी माँ बोली |
पढ़ाने या पढ़ने?- मैं बोला | भूमिका इंजीनियरिंग के फायनल ईअर में थी |
वह दो लड़कियों को घर पर जा कर ट्यूशन भी पढ़ाती है-उसकी माँ बोली |
वाह !-मेरे मुंह से निकला | मैं बेचारे श्याम दत्त जी के बारे में सोचने लगा जिनका इकलौता  लड़का एम. एस. सी. करने के बाद दिन भर घर पर पड़ा रह कर या तो टी. वी. देखता या मोबाइल पर मेसेज या बात करता या इन्टरनेट पर गेम खेलता | कभी-कभार जनरल नोलेज की किताबों के पन्ने भी पलटता , क्योंकि छोटी मोटी नौकरी उसको भाती नहीं थी | श्याम दत्त जी को रिटायर हुए एक साल से ज्यादा हो गया था | उनकी इकलौती चिंता लड़के को नौकरी में देखने की थी |  

 मैं कल्पना करने लगा-कितने खुश हुए होंगे श्याम दत्त जी जब उनके लड़के ने जन्म लिया होगा | संभवतः दूसरी संतान न होने का उन्हें कोई दुःख नहीं था | वंश चलाने को लड़का तो था ही | दूसरी ओर शरद की दूसरी लड़की होने पर लोगों ने कहा था- छि हाड़ि दुसरि लै चिहड़ि हैगे | वाह रे शरद की 'चिहड़ि'! वाह रे श्याम दत्त जी के कुलदीपक ! 

कुछ देर शरद के घर पर बैठने के बाद योजनानुसार मैंने देबिया को फोन किया | देबिया घर पर ही था | मैं देबिया  के घर की ओर चल दिया | पता पास में था ही| एक दो जगह पूछने के बाद मैं गंतव्य तक पहुँच गया | घर के बाहर  चार-पाँच स्कूटर और दो कारें खड़ी थीं | ओ हो दिवाली नजदीक है पत्तों की बैठक चल रही होगी -मेरा माथा ठनका | देबिया की लड़की,जो.एन.आई.टी. से एम.सी. ए. कर रही थी,ने दरवाजा खोला | देखते ही उसने मेरे चरण स्पर्श किए | मैं अचकचा गया और आशीर्वाद देना ही भूल गया | ऐसे संस्कारों की मुझे आशा न थी | हालांकि आगे और भी बहुत सारी विस्मित कर देने वाली बातें आने  वाली थीं |
 
'बाबू! कका आ गए |' देबिया की लड़की बोली | 
बाबू! कका ! फ़िर से मेरे अचकचाने की बारी थी - इस डैड,मोम,अंकल के जमाने में -बाबू,कका?
कका नहीं ताऊजी बोल पगली - देबिया बोला | लड़की मुस्कुरा दी |

मेरे , ड्राइंग रूम में प्रवेश करते ही अनेक मिश्रित आवाजें आईं- आओ हो दाज्यू, ओ हो महाराज,जै हो आदि |मेरी आशा के अनुरूप वहाँ छः-सात पहाडी इकठ्ठा थे |'हाई! पत्त तो  देखीण नी लागी रै हो'  मैंने बोला | सभी ठहाके लगा कर हंसने लगे |
'लाओ हो गड्डी लाओ आज दाज्यू कें लै खिलेई दिनूं'- एक बोला | सभी परिचित लोग थे और जानते थे कि मैं पत्ते नहीं खेलता | देबिया बोला- फिकर मत करो दाज्यू अगले इतवार पत्तों की मीटिंग भी बैठेगी,आज तो कमिटी की मीटिंग है | देबिया के मार्गदर्शन में आज से तीस-पैंतीस साल पहले दस लोगों ने एक कमिटी बनायी थी जो अब भी चल रही थी | तब ये सभी लोग पास-पास ही रहा करते थे | सभी की छोटी-छोटी तनख्वाहें थीं| तब दस- दस रूपये प्रति सदस्य प्रति माह ले कर इन्होंने यह कमिटी गठित की थी  | आज भी यह राशि मात्र सौ रूपये प्रति सदस्य प्रति माह ही है |   इस कमिटी के कुछ नियम थे जिनका सख्ती से पालन हुआ | कमिटी की मूल जमा राशि को इन पैंतीस सालों में कभी कम नहीं होने दिया गया | अर्थात यह राशि प्रति माह बढ़ती ही जाती है | हाँ इस राशि को कमिटी के सदस्यों को या कमिटी के सदस्यों की जमानत पर बाहरी व्यक्तियों को, जो प्रायः पहाड़ी ही होते हैं, ब्याज पर दिया जाता है और उस ब्याज से प्रतिवर्ष दीवाली पर सदस्यों को उपहार या नगद वितरण किया जाता है | यही नहीं ये लोग यदा कदा इसी ब्याज के पैसों से भ्रमण या पिकनिक भी जाते हैं | प्रतिमाह बारी बारी से सदस्यों के घर पर मीटिंग होती है जिसमें चाय के साथ पकोड़ी,आलू के गुटके, माँस (उड़द) के छेद वाले बड़े (दही बड़े नहीं), पुए,सिंघल,ककडी का रायता अदि पहाडी डिशें ही परोसे जाने की बाध्यता है | ये सब नियम देबिया के  दिमाग की उपज हैं | इस कमिटी का एक बहुत ही शानदार नियम था,जिसका पालन अब उतनी मुस्तैदी से नहीं हो पाता, लेकिन काफी कुछ होता है - कोई सदस्य यदि गाँव जाता तो उसके घर की रखवाली की जिम्मेदारी अन्य सदस्यों पर है | यदि सदस्य की पत्नी मायके गयी है तो उसके भोजन की व्यवस्था अन्य सदस्य देखता है | यदि कोई  बीमार है और अस्पताल में भर्ती है तो बारी बारी से सदस्य उसको अटैंड करते हैं |

थोड़ी देर में देबिया की लड़की नाश्ता ले कर आ गयी | सिंहल, पुए और ककड़ी का रायता था | सिंहल मेरी कमजोरी है -तुरंत सिंहल पर झपट पड़ा |
टेस्टी हो रहे हैं हो- मैं बोला |
बेटी ने बनाए हैं -देबिया बोला |
ताऊजी मैंल बणाईं-देबिया की बेटी वहीं खड़ी थी |
यार देबी तुम तो कमाल के आदमी हो | आज के बच्चों को भी पहाड़ी सिखा रखी है, सिंहल बनाना भी जानते हैं, पहाड़ी भी बोलते हैं |
देबिया गंभीर हो गया- दाज्यू हम लोग तो पहाड़ में पले-पढ़े | हमारा बचपन वहाँ बीता | हमें इस लिए वहाँ से लगाव है | लेकिन इस पीढ़ी के लिए तो लगाव का कोई आधार ही नहीं ठैरा | हममें से कई लोगों के बच्चों ने तो पहाड़ ठीक से देखा तक नहीं | इनमें अपनी संस्कृति,अपनी बोली से लगाव पैदा करने के लिए तो हमें ही कोशिश करनी पड़ेगी | मैं तो ख़ुद यह कोशिश करता हूँ, हमारी कमिटी के सभी सदस्य भी ऐसी कोशिश कर रहे हैं | आपने मेन गेट से दरवाजे तक ऐपण देखे होंगे | ये भी आयल पेंट से मेरी लडकी ने ही दिए हैं |  

नाश्ता-चाय और गप-शप के बाद जब जाने की तैयारी हुई तो देबिया ने मुझे अपना घर दिखाया | घर छोटा पर  सुंदर और सजावट सुरुचि पूर्ण थी |  छत भी दिखाई | छत पर सोलर हीटिंग सिस्टम का प्लांट लगा था | सोलर कुकर में कुछ पक रहा था | तीन सोलर लालटेन धूप में चार्ज हो रहीं थीं | यह सब देख कर मेरी प्रतिक्रिया थी - यार देबी तुमने तो सारे ही सोलर आयटम इकठ्ठा कर रखे हैं |' दाज्यू मेरी समझ में नहीं आता' -' देबिया बोला - 'लोग सोलर एनर्जी का उपयोग करने में इतने उदासीन क्यों हैं ? इससे बिजली और गैस के साथ-साथ पैसों की भी तो बचत होने वाली ठैरी| मैंने तो अपने घर में गैस लायटर भी नहीं रखा है हो| गैस लायटर से गैस ज्यादा खर्च होती है | इस लिए माचिस से गैस जलानी चाहिए |' मैं देबिया की बातें सुन कर स्तब्ध था |  

छत से नीचे उतर कर मैंने देखा कि देबिया ने छोटे से गार्डन में तुलसी उगा रखी थी | दूसरे घरों में जहाँ गमलों में तुलसी दिखती है वहीं यहाँ गार्डेन में तुलसी थी | इसके आलावा  नीम का एक पेड़ भी था जो अभी ज्यादा बड़ा नहीं हुआ था जबकि आस-पास के घरों में खूबसूरती के लिए अशोक के पेड़ लगे थे | इसके बारे में देबिया का तर्क था पर्यावरण शुद्धि और गुणों के आगे खूबसूरती को महत्त्व नहीं दिया जा सकता | नीम और तुलसी हमारे दैनिक जीवन में अनेक घरेलू उपचारों के काम आते हैं जबकि अशोक खूबसूरती के अलावा किसी काम नहीं आता | यही नहीं देबिया ने वाटर हार्वेस्टिंग के अंतर्गत बरसाती पानी के संरक्षण का भी प्रबंध कर रखा था | वाटर हार्वेस्टिंग के बारे में सुन-पढ़ तो रखा था किंतु देखा आज पहली बार |

देबिया के घर से लौटते हुए मैं उसके प्रति श्रद्धावनत था | मैं मन ही मन बोल उठा - मैं तो तुझे आदर्श पहाड़ी ही समझता था तू तो आदर्श हिन्दुस्तानी निकला रे देबिया ! देबिया तू धन्य है |               


खीमसिंह रावत

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aaha bhal kahani chhu ho maharaj/ kametiya hi ham pahad ke logo ke bank hai/ kafi vittiy samsya enhi kametiyo se sulajhati hai/  ;D


                                                     देबिया तू धन्य है

देबिया के घर से लौटते हुए मैं उसके प्रति श्रद्धावनत था | मैं मन ही मन बोल उठा - मैं तो तुझे आदर्श पहाड़ी ही समझता था तू तो आदर्श हिन्दुस्तानी निकला रे देबिया ! देबिया तू धन्य है |               


 

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