Author Topic: Articles by Mani Ram Sharma -मनी राम शर्मा जी के लेख  (Read 27178 times)

Mani Ram Sharma

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धार खोता सूचना का अधिकार
« Reply #120 on: January 21, 2016, 09:19:19 AM »

प्रतिष्ठा में,
जनाब एम  ए  खान युसुफी
सूचना  आयुक्त
केन्द्रीय सूचना आयोग
नई  दिल्ली
 

मान्यवर,
विषय :   परिवाद  संख्या  CIC/YA/C/2014/900157 –    मनीराम शर्मा बनाम राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद प्रतितोष  आयोग

सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 4 की अवहेलना के  उक्त प्रकरण में आपके निर्णय दिनांक 17.12.2015 के लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ|    आपके उक्त निर्णय के प्रकाशन से मुझे माननीय  आयोग  के उक्त निर्णय का ज्ञान हुआ  किन्तु इस प्रसंग में मेरा विचार किंचित भिन्न है|
हमारे पवित्र संविधान के अनुच्छेद 51क (एच )में नागरिकों का यह मूल कर्तव्य बताया गया है कि वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानव वाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे| इसी प्रकार अनुच्छेद 51 क (जे ) में कहा गया है कि नागरिक व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करें जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले| उक्त प्रावधानों ने मुझे आपको यह पत्र लिखने को प्रेरित किया है| आप द्वारा यह पत्र पढने के लिए अपने अमूल्य समय में से समय निकालने के लिये अग्रिम धन्यवाद |

माननीय आयोग  के उक्त निर्णय का सम्मान करते हुए मेरे विचार इस प्रकार हैं:
1.   यह है कि मैंने दिनांक 15.2.14 को आवेदन कर  प्रत्यर्थी  द्वारा  सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 4 की अनुपालना के  विषय में सूचना की अपेक्षा  की  गयी थी किन्तु 30 दिन की विहित अवधि में कोई सूचना  प्राप्त नहीं होने पर उक्त दिनांक 21.3.14 को परिवाद प्रस्तुत किया गया था |
2.   यह है  कि मैं दिनांक 15.11.15  से बाहर प्रवास पर हूँ इसलिए इस प्रकरण की  सुनवाई के लिए आपकी ओर से कोई नोटिस  मुझे यथा समय नहीं मिला और न ही सुनवाई के दिन प्रवास पर मेरे पास प्रकरण से सम्बंधित कोई रिकार्ड था जिसके आधार पर मैं मामले में अपना पक्ष रख पाता|
3.   यह है कि आपने अपने निर्णय के बिंदु 1 में मुझ पर यह आरोप लगाया है कि मैं अधिनियम के प्रावधानों का दुरूपयोग कर रहा हूँ किन्तु आपने अपने निर्णय में यह कहीं भी स्पष्ट नहीं किया है कि मैंने किस प्रकार ऐसा किया है |
4.   यह है कि  आपने संभवतया प्रकरण का रिकार्ड भी नहीं देखा है या दृष्टि ही खो दी है और बिंदु  2 में यह लिखा है कि उक्त जवाब ( दिनांक 2.4.14) से क्षुब्ध होकर आयोग के समक्ष यह परिवाद प्रस्तुत किया है जबकि परिवाद उससे पर्याप्त पहले ही 21.3.14 को प्रस्तुत किया जा चुका था |
5.   यह है कि  जब लिखित में प्रमाणित दस्तावेज  के रूप में  प्रमाणिक साक्ष्य उपलब्ध हो और उसकी भी यदि उपेक्षा की जाए तो फिर मौखिक साक्ष्य, जिसका कोई प्रमाण नहीं हो , से क्या लाभ संभव था और तदनुसार मेरे उपस्थित होने या न होने से भी कोई अंतर नहीं होता – ऐसी मेरी मान्यता है|
6.   यह है कि आपने अपने निर्णय के बिंदु 4 व 6 में भी उल्लेख किया है कि परिवाद धारा 18 में उल्लिखित आधारों की पूर्ति नहीं करता | जबकि अधिनियम के अनुसार आवेदन का जवाब 30 दिन में दिया जाना चाहिए और  धारा 7(2) के अनुसार विहित अवधि में जवाब नहीं देना सूचना के लिए मनाही माना जाता है |  तदनुसार दिनांक 15.2.14 के आवेदन का दिनांक 17.3.14 तक जवाब नहीं देना कानून के अनुसार सूचना के लिए मनाही  है और परिवाद का उचित व पोषणीय  आधार है|
7.   यह है कि रिकार्ड के अनुसार परिवाद में अन्तर्वलित आवेदन का जवाब विहित अवधि के 16 दिन बाद दिनांक 2.4.14 को दिया गया है| कानून में परिवादी की उपस्थिति कहीं भी आवश्यक नहीं है और धारा 19(5) में सूचना के लिए मनाही का औचित्य स्थापित करने का भार प्रत्यर्थी पर है | आयोग को अधिनियम में कहीं भी कोई विवेकाधिकार प्राप्त नहीं है और न ही कोई कानून बनाने का अधिकार है|
8.   यह है कि  यद्यपि विलम्ब के प्रत्येक दिन के लिए उचित स्पष्टीकरण आवश्यक है किन्तु प्रत्यर्थी ने अपने द्वारा की गयी ( विलम्ब) – मानित सूचना हेतु मनाही का कहीं भी कोई औचित्य स्थापित नहीं किया है फिर भी प्रत्यर्थी जनाब इकबाल अहमद के प्रति अनावश्यक उदारता –प्रेम – पक्षपोषण  बरता गया और उस पर कोई अर्थ दंड नहीं लगाया है|
9.   यह है कि  आपने निर्णय के बिंदु 5 में भी यह सफेद झूठ लिखा है कि सम्पूर्ण पत्रावली का अवलोकन किया गया जबकि रिकार्ड से ही प्रमाणित है कि आपने आवेदन, परिवाद व जवाब की तिथियाँ तक नहीं देखी  हैं |   
10.   यह है कि  निर्णय के बिंदु 7 में भी आपने लिखा है कि हमारे विधिवत नोटिस के बावजूद परिवादी जानबूझकर अनुपस्थित रहा जबकि आपके पास ऐसा कोई साक्ष्य नहीं था जिससे यह प्रमाणित होता है कि मुझे यथासमय नोटिस मिल चुका था| यदि आप निष्पक्ष निर्णय चाहते तो परिवादी को एक अवसर और दिया जा सकता था| आपने यह भी प्रतिकूल टिपण्णी की  है कि परिवादी प्रकरण में बिलकुल रुचिबद्ध नहीं है | मेरा आपसे प्रश्न है कि जब परिवादी ने अपना धन, समय  और श्रम लगाकर आवेदन व परिवाद प्रस्तुत किया है तो वह किस प्रकार रूचि नहीं रखता ? हाँ, उसे आप जैसे सुनवाई करने वाले अधिकारियों का पूर्वानुमान होने पर निराशा अवश्य हो सकती है |
11.   यह है कि आपसे मात्र परिवाद के परीक्षण की अपेक्षा की गयी थी न  कि परिवादी या उसके चरित्र की | परिवादी ने आपसे चरित्र प्रमाण पत्र की भी अपेक्षा नहीं की थी| कानून भी आपको मात्र परिवाद परीक्षा की अनुमति देता है और उसमें परिवादी  के चरित्र सत्यापन के लिए अधिकृत नहीं किया गया है | इस प्रकार आपने लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया है और पद के दुरूपयोग की पराकाष्ठा पार कर  दी है |
12.   यह है कि आपकी न्यायिक व विधिक पृष्ठभूमि को देखते हुए आपसे एक अच्छे विधि सम्मत निर्णय की अपेक्षा की जा सकती है किन्तु आपका उक्त निर्णय स्पष्टतया पद के मद में दिया हुआ है और उसमें अनियंत्रित राजतंत्र की बू आती है| इन परिस्थितियों में आपके मानसिक स्वास्थ्य पर संदेह होना भी स्वाभाविक है |
13.   यह है कि आपके विधिक ज्ञान को देखते हुए आप दया के पात्र लगते हैं |  न्यायिक  अपेक्षा है कि अनुपस्थित पक्षकार के हित का ध्यान रखे और न्यायिक अनुशासन के अनुसार अनुपस्थित पक्षकार के विषय में कोई प्रतिकूल टिप्पणियाँ नहीं की जानी चाहिए क्योंकि वह उनका समुचित जवाब देने के लिए उपस्थित नहीं है | किन्तु आपने तो इन मौलिक बातों की भी अनुपालना नहीं की है | निश्चित रूप से आपने इस गरिमामयी पद के लिए योग्यता खो दी है और आपको अविलम्ब त्यागपत्र दे देना चाहिए| आपने अपना पद ग्रहण करते समय ली गयी – भय, लालच , राग- द्वेष  के बिना निर्णय करने की – शपथ का भी जानबूझकर उल्लंघन किया है|   
14.   यह है कि मैं सरकार से अपेक्षा करूंगा कि आपको किसी  अच्छे लोकतांत्रिक देश में प्रशिक्षण के लिए भेजा जाए और पुन: मानसिक परीक्षण  करवाया जावे कि क्या आप  अभी भी नागरिकों के लिए कोई उपयोगिता रखते हैं| साथ ही इस पत्र की एक प्रति संचार माध्यमों को प्रसारित की जा रही है ताकि देश के लोग वास्तविकता को जान  सकें और आपको भी उचित सम्मान मिले जिसके आप हक़दार हैं |
उपरोक्त परिस्थितियों और तथ्यों के सन्दर्भ में माननीय आयोग  का उक्त निर्णय मेरी विनम्र राय में संविधान और जनतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल नहीं है| मैं यहाँ पर यह भी निवेदन करना प्रासंगिक समझता हूँ कि प्रत्येक शक्ति के प्रयोग का आधार जनहित प्रोन्नति होना चाहिए विशेषतः जब यह अहम प्रश्न  सूचना के मौलिक अधिकार के संरक्षक   के सामने हो| माननीय  आयोग  के उक्त निर्णय के विरुद्ध रिट  भी दायर की जा सकती है किन्तु वह भी एक अंतहीन, खर्चीली और जटिल व थकाने वाली प्रक्रिया होगी|   माननीय आयोग उदार हृदय से आत्मावलोकन कर इस प्रकरण में स्वप्रेरणा से पुनरीक्षा कर पूर्ण और वास्तविक न्याय देने के लिए सशक्त है| भारतीय गणतंत्र को मज़बूत बनाने की ईश्वर आपको सदैव सद्प्रेरणा देते रहें| इसी आशा और विश्वास के साथ ,

आपका  सदैव शुभेच्छु

मनीराम शर्मा
अध्यक्ष, इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन , चुरू प्रसंग
रोडवेज डिपो के पीछे
सरदारशहर  331403                                                       दिनांक:21.01.2016
ईमेल : maniramsharma@gmail.com   
 

-:हिंदी प्रेम राष्ट्र प्रेम:-

Mani Ram Sharma

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अपराधी प्रिय भारतीय न्याय-व्यवस्था का शुद्धिकरण
जब अधिक माइलेज  देने वाली हीरोहौंडा मोटरसाइकिल भारत में आई थी तब विज्ञापन में कहा जाता था – फिल इट, शट इट  एंड फॉरगेट इट| ऐसा ही कुछ भारतीय न्यायपालिका के विषय में  कहा जाता है – फाइल एंड फॉरगेट  यानी दावा दायर करो और भूल जाओ| यदि आप भारत में व्यापार करते हैं तो लगभग यह  असंभव कि आपने कानूनी कार्यवाही की पीड़ा नहीं झेली हो| वास्तव में इस बात के पर्याप्त अवसर हैं कि आपको  पहले ही वर्ष में  बिक्री कर और उत्पाद कर आदि के मामलों में अपीलें करनी पड़ेंगी जोकि कालान्तर में आयकर विभाग और करार की अनुपालना के लिए मुकदमों तक कुछ ही वर्षों में रफ्तार पकड़ लेंगी| चूँकि भारत में व्यापारिक हित सार्वजनिक हित के साथ सामन्जस्यपूर्ण नहीं हैं इसलिए ज्यादातर मामले व्यापारी के विरुद्ध ही निर्णित होते हैं और सरकार के साथ मुकदमों को टालना असंभव  बनाते हैं| इस कारण इसका दायरा बढ़ता जाता है और व्यापार संकुचित होता जाता  है| बाबु लोग ऐसी शक्तियों का प्रयोग करना उचित समझते हैं जिनसे व्यापार को हानि पंहुचे लेकिन जब उसे माफ़ करने या राहत देने का प्रश्न उठे तो वे कानून की ऐसी संकुचित व्याख्या करेंगे की राहत नहीं दी जा सके और मजबूरन व्यापारी को उच्च अधिकारियों के पास जाना पड़े| कई बार कई धाराओं के प्रावधानों से वे सहमत तो होते हैं किंतु फिर भी वे मौन रहते हैं| करार सम्बंधित अधिकारों को भारत में लागू करना अत्यंत कठिन है और विश्व बैंक के अनुसार व्यापार में सहजता के सूचकांक में भारत का 189 देशों  में से 186 वां गौरवमयी स्थान है! कारण अपने आप में स्वस्पष्ट  है| मुकदमेबाजी में जाना या विपक्षी को धकेलना और जिम्मेदारी को स्थगित किये रखना सस्ता व सरल है बजाय कि बैंक से पैसा निकालें और आज ही चुका दें| 
उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति अपना कर्जा आज ही चुकता है तो उसे बैंक से 12-14 प्रतिशत की दर से ब्याज पर लेना पडेगा जिस पर मासिक चक्रवर्ती ब्याज लगेगा| उसे ऋण लेने के लिए अन्य नाना प्रकार की परेशानियां – जैसे वार्षिक नवीनीकरण , स्टोक का हिसाब रखना , ऑडिट करवाना आदि भुगतनी पड़ेंगी| किन्तु यदि वह चुकाने से मुकर जाता है तो उसके लेनदार को न्यायालय में जाना पडेगा जिससे आपको आने वाले 10 वर्षों तक कोई परेशानी नहीं होगी – न वह कोई मांग तकरार कर सकेगा | और तब न्यायालय 6-8 प्रतिशत साधारण ब्याज के लिए डिक्री  देंगे जिसके इजराय के लिए उसे फिर दुबारा दावा करना पडेगा जिसमें वसूली होने की संभावना 50 प्रतिशत ही होगी अर्थात फिर भी आपको 50 प्रतिशत ही देना पडेगा | एक चूककर्ता अपने जिम्मेदारी को फिर भी आगे खिसकाता जाएगा और आप एक निरीह  प्राणी की भांति  मूकदर्शक बने रहेंगे और गीली लकड़ी की भाँति सुलगते रहेंगे|

यदि एक लाख रूपये के मुक़दमे को 10 वर्ष तक खेंच लिया जाए तो बैंक को 12 प्रतिशत की दर से ब्याज सहित जो रूपये दो लाख तीस हजार रुपये चुकाने पड़ते उसकी बजाय न्यायालय के माध्यम से मात्र एक लाख बीस हजार में ही काम चल जाएगा! छोटे मोटे खर्चों को निकालकर भी वह आकर्षक एक लाख दस हजार रूपये बचा लेगा और लगभग 50 प्रतिशत लाभ कमा लेगा| बैंकों के बढ़ते डूबंत ऋणों में भी इस जटिल व्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान है| बैंकों ने अब एक लाख रूपये से कम बकाया के मुकदमे दायर करने लगभग बंद कर दिए हैं|  इसलिए हमारी न्यायिक प्रणाली करार की अनुपालना  को टालने और विपक्षी को न्यायालय की और धकेलने के लिए आकर्षक प्रोत्साहन देती है| न्यायालयों में ज्यादा मामले का अर्थ है, ज्यादा विलम्ब जिसका अर्थ है भुगतान के लिए और ज्यादा लंबा समय! इसलिए न्यायालयों में विलम्ब का ऐसे चतुर लोग स्वागत करते हैं और वे न्यायालयों के सबसे बड़े प्रशंसक भी हैं| यह स्थित अब और बिगड़नेवाली  है तथा  अंतत: हमारी सभ्यता के लिए बड़ी चुनौती है| सरल शब्दों में , यदि लोगों को समय पर न्याय नहीं मिलेगा तो वे न्याय के लिए अंडरवर्ल्ड  के डॉन या बंदूक धारियों के पास जायेंगे जैसा कि भारतीय पान  मसाला किंग अपने साझेदार के साथ विवाद निपटाने कुछ वर्ष पूर्व कराची गया था| किन्तु हमारे नीति निर्माताओं को इस बात की चिंता नहीं है कि जब तक विशेष न्यायालयों का गठन  नहीं किया जाए तब तक इसका इलाज संभव नहीं है| समाधान तो तभी संभव  है जब कोई समस्या को सही रूप में जड़ से समझे | क्या ये लोग समस्या को समझ पा रहे हैं ? संभवत: वे यह भी समझ नहीं पा रहे हैं कि देश में अपराधियों को पुलिस या कानून का कोई भय नहीं है| हमारी वर्तमान व्यवस्था न तो एक दोषी को पर्याप्त दंड देती है और न ही एक पीड़ित को पर्याप्त क्षतिपूर्ति|  यह बात राजधानी में भी लगातार होते बलात्कारों / महिलाओं पर हमलों से जग जाहिर है|
हमारे नीति  निर्माताओं का विचार है कि एक सशक्त बलात्कारी के लिए 7 वर्ष की सजा पर्याप्त नहीं है इसलिए इसे 10 वर्ष कर दिया जाए| हमें सर्व प्रथम  हमारी न्यायिक प्रणाली की समस्याओं को समझना होगा | एक न्यायार्थी  के तौर पर यह अनुभव रहा है कि हमारी न्यायिक प्रणाली निम्न कारणों से निष्प्रभावी और काम से बोझिल  है --
1.   न्यायालयों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष झूठ बोलने के लिए कोई दंड नहीं दिया जाता है |
2.   यह मुकदमेबाजी के अधिकार की रक्षा करता है बजाय न्याय के अधिकार की व कानून और डिक्री की अनुपालना को प्रोत्साहित नहीं करता |
3.    ज्यादातर मामले इसलिए दायर किये जाते हैं ताकि विपक्षी परेशान,  हैरान हो और वह व्यस्त रहे क्योंकि इनमें अनिश्चित समय लगता है |
4.   सम्पति सम्बंधित महत्वपूर्ण मामलों, जमानत के मामलों में विवेकाधिकार से अन्याय, विलम्ब और भ्रष्टाचार होता है | गायत्री प्रजापति का मामला ताज़ा उदाहरण है |
5.    कानूनी अपेक्षाओं के स्थान पर कुछ अकर्मण्य परिपाटियाँ |
6.   किसी भी राज्याधिकारी या न्यायिक अधिकारी के दायित्व का अभाव |

ऐसा प्रतीत होता है भारतीय कानून में दंड संहिता की धारा 193 मात्र एक ही प्रावधान है जो न्यायालय में झूठ के लिए दण्डित करने के विषय में है| जहां तक मुझे ज्ञात है इस प्रावधान का यदा कदा ही उपयोग होता है  जबकि प्रत्येक न्यायालय में प्रत्येक मामले में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ऐसा होता है | न्यायालय यह सब देखते हैं और उनके निर्णयों पर इन झूठों का ज्यादा असर नहीं पड़ता किन्तु एक कमजोर पक्षकार विलम्ब करने  के अपने मंतव्य में सफल हो ही जाता है और न्यायालय का अमूल्य समय बर्बाद होता है| और जो इस उद्देश्य में आसानी से सफल होता है वह दूसरे लोगों को भी यही रास्ता अपनाने को प्रेरित करता है| इसका समाधान यही है कि जब भी एक पक्षकार का कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष झूठा आवेदन या साक्ष्य ध्यान  में आये तो धारा 193 के प्रावधान को तुरंत निरपवाद रूप से अमल  में लाया जाए और वकील पर भी आरोप लगाया जाए |

जिस प्रकार सरकार चूककर्ता व स्वेच्छिक चूककर्ता में विभेद नहीं कर पाती ठीक उसी प्रकार हमारा कानूनी ढांचा मुक़दमे का अधिकार व न्याय के अधिकार में भेद नहीं कर पाता है| न्यायिक दृष्टान्तों से वास्तव में मुक़दमे के अधिकार की रक्षा के उद्देश्य से विधायिकीय कानून को उल्ट दिया जाता है| उदाहरण के लिए धारा 69 में प्रावधान है कि एक अपंजीकृत साझेदारी फर्म द्वारा किसी तीसरे पक्षकार के विरुद्ध कोई वाद नहीं लाया जा सकता किन्तु सामान्यतया  न्यायिक दृष्टान्तों की आड़ में ऐसे वाद लाये जाते रहते हैं और वे अनिश्चित काल तक चलते रहते हैं|  न्यायिक दृष्टान्तों में ऐसे दोष को बाद में दूर करने की छूट दी जाती रहती हैं जबकि कानून में इसके विपरीत प्रावधान हैं तो फिर बाद में पंजीयन के द्वारा ऐसे दोष के निवारण का प्रश्न ही नहीं उठना चाहिए|  विशेष अनुतोष अधिनियम में सम्पति सम्बंधित मामले तब भी दायर किये जाते हैं जबकि वादकर्ता के पास ऐसा कोई अधिकार भी नहीं होता है| ऐसा मात्र इसलिए किया जाता है ताकि वे सम्पति को विवादित बनाए रख सकें और विरोधी को अपनी शर्तों को मानने के लिए मजबूर कर सकें| वादी को सिर्फ यह करना है कि  वह करार का अपना भाग पूर्ण करने के लिए इच्छुक और सक्षम है, उसे यह साबित करने की आवश्यकता नहीं, मात्र इतना कहने से ही वह वाद को दसों वर्षों को तक खेंच सकता है |

ठीक इसी प्रकार कानून चाहता कि  चेक अनादरण एक अपराधिक मामला समझा जायेगा | बहुत से ऐसे मामले प्रकाश में है जिनमें अपील में सिर्फ न्यायालय उठने तक की सजाएं दी जाती हैं| जिससे यह सन्देश जाता है कि चेक अनादरण के लिए सजा से भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है अपितु अन्वीक्षण न्यायालय के प्रत्येक आदेश के विरुद्ध अपील में जाएँ| विधायिका को चाहिए कि प्रत्येक अपराध के लिए अधिकतम के साथ साथ न्यूनतम सजा भी निर्धारित करे|  इस प्रकार मुकदमेबाजी अपनी जिम्मेदारियों को टालने का प्रसन्नताकारक  और सस्ता तरीका है| एक ऋणी मुकदमा हारने  के बावजूद भी वास्तव में जीतता है| न्यायालय को कभी आक्रोश  नहीं आता कि अमुक ऋणी ने उसके आदेश का पालन नहीं किया| निर्धारित समय में भुगतान के लिए कोई सख्त निर्देश नहीं होता कि यदि अपील में रोक नहीं लगाई गयी तो भुगतान करना पडेगा|  यदि समय पर निर्णय दिए जाने लगें तो आधे से अधिक मुकदमे तो न्यायालयों में आएंगे ही नहीं |
इसी प्रकार किरायेदारी के मुक़दमे मकान मालिकों के लिए दिवा स्वप्न ही हैं| उदाहरण के लिए बलात्कार के आरोपी की जमानत मशीनी  रूप में अस्वीकृत कर दी जाती है, बिना इस बात पर गौर किये कि यदि उसे जमानत दे दी जाए तो क्या आरोपी इस अपराध की पुनरावृति कर सकता है , क्या वह भाग सकता है , क्या वह साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़  कर सकता है आदि ? इसके अतिरिक्त कोई अन्य बात से जमानत पर असर नहीं पडना चाहिए | अपराध की गंभीरता असम्बद्ध है यदि आरोपी द्वारा आरोप की पुनरावृति की संभावना नहीं हो| दंड की शुरुआत दंडादेश पारित  किये जाने से प्रारम्भ होती है और जमानत इनकारी को दंड के विकल्प रूप में नहीं माना किया जाना चाहिए किन्तु हमारी प्रणाली इस सुस्थापित सिद्धांत के विपरीत कार्य करती है कि एक अभियुक्त तब तक निर्दोष है जब तक कि वह संदेह से परे दोषी साबित नहीं हो जाए| जेल नहीं बल्कि जमानत का नारा भी कागजी ही लगता है| कुछ न्यायालय तो यहाँ तक आदेश करते हैं की मामले के गुणावगुण में जाए बिना अपराध की गंभीरता को देखते हुए जमानत अस्वीकार की जाती है| यदि यही कानून है तो फिर दंड संहिता में एक धारा ही जोड़ दी जाए कि  बलात्कार , ह्त्या और अन्य विशेष संगीन अपराधों में कोई जमानत मंजूर नहीं की जायेगी जिससे समय और धन की बचत होगी| ताकि अभियुक्त जेल में लम्बे समय तक रहने और उसका परिवार उसके बिना रहने का मानसिक रूप से अभ्यस्त  हो जाए| हम सिर्फ यही कहते हैं कि ऐसी परम्परा है| विवेकाधिकार, भ्रष्टाचार और दादागिरी को जन्म देता है| कुछ न्यायाधीश जमानत आवेदन अस्वीकार करने के लिए प्रसिद्ध होते हैं और वकील उनका दूसरी बेंच  में स्थानान्तरण होने का इंतज़ार करते हैं ताकि वे जमानत आवेदन दायर कर सकें| किसी भी कानूनी प्रणाली में ऐसा क्यों कि एक जमानत आवेदन न्यायाधीश क स्वीकार करे और ख इनकार ? जब दंड प्रक्रिया संहिता में जमानत लेने के लिए एक पुलिस अधिकारी ही सशक्त है तो फिर जमानत के लिए उच्चतम न्यायालय तक क्यों जाना पड़े ? जब समान कानून और परिस्थितियों में उच्चतम न्यायालय जमानत दे देता है तो फिर निचले न्यायालय और पुलिस अधिकारी इन्कार क्यों करते हैं ? आस्ट्रेलिया में जमानत के लिए 75 धाराओं वाला अलग कानून है और जमानत एक अभियुक्त का अधिकार है| किन्तु भारत में पुलिस और वकील मिलकर इस स्थिति को खुलम खुल्ला भुनाते हैं और माल कूटते हैं| मैं यह समझने में असमर्थ हूँ कि  हमारे कानून में ऐसा प्रावधान क्यों है कि उसे जमानत दे दी जाए तो क्या आरोपी इस अपराध की पुनरावृति कर सकता है, क्या वह भाग सकता है , क्या वह साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है आदि  तक ही विचारण को सीमित क्यों नहीं रखा जाता ? यदि इन प्रश्नों का उत्तर ना में हो तो उसे जमानत क्यों  नहीं दी जानी चाहिए ? इससे न्यायालयों का पर्याप्त  समय बचेगा और जनता को अन्याय से पर्याप्त मुक्ति मिलेगी |
यद्यपि एक व्यथित पक्षकार आदेश के विरुद्ध अपील दायर कर सकता है किन्तु क्या इससे  एक न्यायिक अधिकारी को इस बात का लाइसेंस मिल जाता है कि वह बिना बुद्धि का प्रयोग किये और  उचित, तर्कसंगत व सही निर्णय नहीं दे?  यह तब तक अनवरत जारी रहेगा जब तक कि उसे जिम्मेदार नहीं ठहराया जाये| यद्यपि कई बार कनिष्ठ अधिकारियों के विरुद्ध गंभीर निंदा प्रस्ताव पारित किये जाते हैं किन्तु फिर भी वे उस पद को धारण करते रहते हैं| उनकी सुस्थापित अक्षमता के बावजूद उन्हें लोगों को लगातार हानि पहुंचाते रहने के लिए खुला छोड़े रखा जाता है | प्रत्येक अपील के निस्तारण में यह निरपवाद रूप से निर्णित किया जाना चाहिए कि क्या विक्षेपित आदेश पारित करते समय अधिकारी ने अपने कर्तव्यों का उचित, तर्कसंगत और सही पालन किया है? यदि नहीं तो फिर पदावन्नति  अवश्य होनी चाहिए| यह नियम सभी अपीलों में, चाहे न्यायालय हों या विभागीय ट्रिब्यूनल सभी पर सामान रूप से लागू होना चाहिए | इससे कनिष्ठ अधिकारियों को विवश होकर उचित निर्णय देने पड़ेंगे और अपीलों की संख्या में भारी कमी आएगी | वे अधिकारीगण जो जनता से वसूले गए करों से अपना वेतन पाते हैं उनके इस विश्वास को गत 70 वर्षों से अनुचित संरक्षण दिया जा रहा है कि वे कुछ भी करें उनका कुछ भी बिगडने वाला नहीं है क्योंकि उनके ऊपर उनके माई बाप बैठे हैं जिनके लिए वे रातदिन कमा रहे हैं|
यदि सिंगापपुर के न्यायालय कुछ दिनों में निर्णय दे सकते हैं तो फिर ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता कि भारत के न्यायालय  ऐसा क्यों नहीं कर सकते? देश का आकार तो इस विषय में  असंगत है क्योंकि सामान्यतया एक न्यायालय का मूल क्षेत्राधिकार तो लगभग एक तहसील तक सीमित है| वास्तव में देखा जाए तो हमारी विधायिका का न्याय देने का कभी कोई आशय रहा ही  नहीं बल्कि उनका उद्देश्य तो अपनी मशीनरी का संरक्षण करना और सत्ता पर अपनी पकड़ को मजबूत बनाए रखना रहा है| जब निर्भया काण्ड के बाद जनता सडकों पर उतरी तो एक महीने में कानून में संशोधन कर दिया जबकि उपभोक्ता संरक्षण में संशोधन का मुदा गत दस वर्षों से लंबित है| पशुओं पर निर्दयता निवारण के लिए चालीस वर्ष पहले कानून बना दिया गया किन्तु सस्ती लोकप्रियता और वोटों की छद्म राजनीति की संक्रामक बिमारी से ग्रस्त हमारी विधायिकाओं को मनुष्यों पर वैसी ही निर्दयता के निवारण के लिए कानून बनाने का आज तक समय नहीं मिल पाया है|  लगभग प्रत्येक कानून में यह प्रावधान कर रखा है कि इस कानून के तहत सद्भाविक रूपसे की गयी कार्यवाही के लिए किसी भी अधिकारी के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होगी| जबकि कार्यवाही सद्भाविक होने पर ऐसे संरक्षण के लिए अलग से प्रावधान की कोई आवश्यकता ही नहीं है| इसके स्थान पर प्रावधान यह होना चाहिए कि इस कानून के तहत कार्यरत प्रत्येक अधिकारी समय पर, उचित व सही निर्णय और कार्यवाही के लिए जवाबदेय होगा| इससे प्रशासन , पुलिस और न्यायिक विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता पर पर्याप्त अंकुश लगेगा और ऐसा करना पूर्णतया लोकतान्त्रिक मूल्यों के अनुकूल होगा|
एक न्यायाधीश  ने कहा है कि जिसके पास  पैसा नहीं हो उसके लिए न्याय की अपेक्षा करना ही गुनाह है| मद्रास उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा है कि लोगों में न्यायालयों के प्रति बड़ा आक्रोश और अविश्वास है और वे लोग जिनके कोई विवाद हैं उनमें से मात्र 10 प्रतिशत ही न्यायालय आते हैं| सुप्रीम कोर्ट के जाने माने वकील प्रशांत भूषण का कहना है कि मात्र 1 प्रतिशत मामलों में ही न्याय होता है| गुजरात उच्च न्यायाल के सेवानिवृत न्यायाधीश बी जे सेठना ने भी कहा है कि उग्रवाद का पोषण देश में सिर्फ उग्रवादी ही नहीं करते अपितु न्यायपालिका भी करती है| जब अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में सुनवाई के समय विडिओ रिकार्डिंग की जाती है तो फिर देश के न्यायालयों को इससे परहेज क्यों है ? क्यों इसे अवमान माना जाता है ? सभी न्यायालयों में विडिओ रेकार्डिंग व्यवस्था से न्यायाधीशों और वकीलों की मिलीभगत व दादागिरी दोनों पर अंकुश लग सकता है| न्यायालयों के लिये यह अनिवार्य  होना चाहिए कि वे पक्षकारों द्वारा उठाये गए सभी प्रश्नों  पर अपना निर्णय देंगे|
अक्सर देखा जता है की आपराधिक मामलों में पुलिस वाले न तो स्वयं उपस्थित होते और न ही साक्ष्य समय पर प्रस्तुत करते हैं जिससे मामले लम्बे चलते हैं| डरपोक और लालची मजिस्ट्रेट भी अपने आप को असहाय पाते हैं और वे पुलिस अधिकारियों को अर्ध-शासकीय पत्र लिखकर अपना अपार स्नेह और कृपा दृष्टि जाहिर करते हैं| यद्यपि दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है फिर भी यह मिलीभगत का एक अनूठा नमूना है| दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 91 के अंतर्गत ऐसे पुलिस अधिकारी को उपस्थित होने को आदिष्ट किया जाना चाहिए और यदि वह अनुपालना नहीं करे तो उसे धारा 349 के अंतर्गत कारावास में भेजा जाना चाहिए किन्तु 130 करोड़ की जनसंख्या वाले स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण मिलना दुर्लभ है|
दंड प्रक्रिया व सिविल प्रक्रिया संहिता दोनों में संक्षिप्त कार्यवाही के प्रावधान हैं और मामलों को शीघ्र निपटाने के उद्देश्य से इसमें शामिल मामलों की सूची को और बढ़ाया जा सकता| जहां कहीं भी कोई प्रक्रियागत कानून व्यवधानकारी लगते हों  तो  न केवल राज्य और केन्द्रीय विधायिका बल्कि सम्बंधित राज्य उच्च न्यायालय भी इनमें संशोधन के लिए सक्षम हैं | जहां तक गुणवता का प्रश्न है मुझे तो न्यायिक अधिकारियों या विभागीय ट्रिब्यूनल के निर्णयों या पूर्ण अन्विक्षा और संक्षिप्त अन्विक्षा दोनों में ही गुणवता गायब दिखाई देती है|  मुश्किल से कोई 10 प्रतिशत मामले ऐसे हो सकते हैं जिनके निर्णयों में गुणवता की झलक मिलती है  शेष तो लगभग कोरी औपचरिकता मात्र होते हैं| अब समय आ गया है जब समस्त पक्षकारों को अपना दायित्व समझना चाहिए और इस व्यवस्था के  शुद्धिकरण में अपना योगदान देना चाहिए  जिससे सशक्त और समृद्ध भारत का सपना साकार हो सके |


rbrbist

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नमस्कार
अति सुंदर

अति ज्ञानवर्धक जानकारी
वन्देमातरम ll
ओम हर हर महादेव ll जय माँ ll

 

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